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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

13 जनवरी, 2019

श्रुति सुधा आर्या की कविताएं



श्रुति सुधा आर्या 


सीख 

आएंगी ढेरों मुश्किलें तेरी राहों में
मगर ओ पथिक
अपनी मंजिल को अपना लक्ष्य रख ।।
संघर्ष की परवाह न कर
जो मिला  उसे स्वीकार कर
मत उलझ
पुष्प बन, पर मत बिखर
इस जगत को
अपनी गंध से
सुवासित कर...




           

मुकम्मल

रोज रेशा- रेशा बिखरने के बाद
खुद को
कतरा कतरा जोड़कर
मुकम्मल
बनाने की जद्दोजहद में
बीत ही जाता है पूरा जीवन
न सुख रुकता है
न दुख ही थमते है कहीं
बस जीवन की इस दौड़ में
मुसाफिर है सभी।
अनगिनत सपनों का सफर
लंबी दूरी
अधीर मन
कदम- कदम ही सही
पर रोज
लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं हम।।





बचपन

कभी- कभी तन्हाई में
बचपन के दिन
याद करना
बड़ा ही अच्छा लगता है ।
वो परियों की दुनिया
वो खिलौनों की दुनिया
वो बात- बात पर रोना
वो हर बात पर रूठना
वो मान- मनुहार
और
छोटी-छोटी बातों पर
खिलखिलाकर हंसना
बहुत याद आता है।।
स्कूल की छुट्टी के समय
काकी के लाल बेर
और
राजू भैया का बर्फ का गोला...
उस पर रंग-बिरंगे शरबत डलवाना
और
रास्ते भर चूसते हुए जाना
आधा खाना और
आधा कपड़ों पर टपकाना
खेल- खेल में
स्कूल का काम रह जाना
और
स्कूल जाकर
कॉपी
घर भूल जाने का
बहाना लगाना।।
स्कूल के खेलों में
कभी
आगे से तो
कभी पीछे से
फर्स्ट आना।
जरा से झगड़े पर
एक- दूसरे पर
स्याही गिराना
आधी छुट्टी होने पर
भागकर खो- खो की टीम बनाना
वहीं मिट्टी पर बैठकर
खाना खाते रहना
और
अपनी बारी का
इंतजार करते रहना
बारी आते ही
टिफिन
खुला छोड़ कर भाग जाना
और आकर
उन्हीं हाथों से
फिर खाना खाने बैठ जाना।
तब
पता ही नहीं था
कि
इन्फैक्शन भी
कुछ होता है
या
मिनिरल वॉटर भी
कोई
अलग से
वाटर होता है
लेकिन
जैसे- जैसे इंसान
बड़ा होता जाता है
वैसे- वैसे
उसकी 'मैं' भी
बड़ी होती जाती है।
अब सब्जी की एक
छींट से भी
कपड़े
गंदे हो जाते हैं।
मनमुटाव
होने पर भी
एक-दूसरे
के सामने मुस्कुराते हैं।
बड़ी- बड़ी खुशी पर भी
ठहाके  नहीं लगाते
बस
मुस्करा कर रह जाते हैं।
दुखों के पहाड़
टूटने पर भी
आंसू तक साथ छोड़ जाते हैं।
जहां बचपन में
छोटे से
मिट्टी के घरौंदे में ही
सभी सपने
समा जाते थे
वहीं बड़े होकर
दो लोगों के लिए
चार कमरे भी
छोटे पड़ जाते हैं।
असल में
आदमी तो बड़ा होता जाता है
पर
उसका दिल
दिन-ब-दिन
छोटा होता चला जाता है।
बचपन में
बड़े होने की
बड़ी तमन्ना होती है
जो वक्त के साथ
पूरी भी हो जाती है
मगर
जब बड़े होकर
बचपन में लौटने की
इच्छा होती है
तो यह हसरत
सफेद पड़ते वालों के साथ
एक दिन
शमशान में ही
जलकर राख होती है।।








डगर

जिंदगी की डगर पर
बहुत सोच- विचार कर
चलने के बाद भी
पता नहीं चल पाता
कि कौन सी डगर
कहाँ ले जाएगी
या फिर
किस मंजिल तक पहुंचाएगी?
ज़िन्दगी में
बहुत बार ऊबड़- खाबड़
और
कांटों भरे रास्तों पर चलते हुए
जब पाँव छलनी हो जाते हैं
तो ऐसा लगता है
मानो
इससे चुनौती भरा
रास्ता
तो जिंदगी में
कोई
हो ही नहीं सकता
लेकिन
उसके गुजरने के बाद
सब
एक रोमांचक
ख्वाब लगता है
और दिल फिर से
तैयार हो जाता है
उससे भी अधिक
चुनौतियां भरे रास्ते को
स्वीकार
करने के लिए।।





घोंसले

एक घोंसले को तोड़ते हुए
कोई क्यों नहीं सोचता
कि ये घोंसला
महज कुछ तिनकों को ही
जोड़ने का सिलसिला नहीं है
बल्कि
इन्हें जोड़ते हुए
न जाने कितनी संवेदनाएँ
कितना अपनत्व,
कितनी ही आत्मीयता
और
कितने ही
स्वप्न में अनुभूत किए क्षण
जुड़ते चले जाते हैं अपने आप ही
घोसला
उन नजरों के समक्ष
कुछ भी नहीं, फिर भी
वह
स्वयं में पूरी सत्ता है।
एक परिवार की-
पूरी कायनात है।
एक स्वायत्ता है।
क्या गुजरती होगी उस क्षण
उन पंछियों पर
जिस क्षण, देखते होंगे वो
घोंसले की ओर बढ़ते हाथ
जिन्हें उसे उजाड़ते हुए
एक बार भी
याद नहीं आते
अपने बच्चों के मासूम चेहरे..





ए मालिक

ए मालिक मेरे
कितने हैं रूप तेरे
जितना मैं
तुझे समझना चाहती हूं
उतनी ही
उलझती चली जाती हूँ।
मैं कहती हूँ कि
ये हाथ तेरे हैं
लेकिन
तेरे हाथों से
अच्छा काम हो तो
स्वयं कर्ता बन जाती हूँ
और
खराब काम हो तो
सब तेरा कह कर
आगे बढ़ जाती हूँ।।
मालिक मेरे
तू कहांँ नहीं है
कभी फूलों में तेरी
सुगंध आती है
तो कभी
हवा में तेरी
आहट आती है
बरसात में तेरे
घुंघरू बजते हैं
तो
बगीचे में
तेरा संगीत
सुनाई देता है
सुबह होती है तो
तू सूर्य किरणें बन
सब पर
अपना आशीर्वाद
बिखेर देता है
सांझ होते- होते
हमारी चिंताओं को
स्वयं पर लिए
तू डूबने लगता है
और फिर भी
जाते- जाते भी हमें
अपनी रक्तिम आभा से
मोहने लगता है।
रात होती है तो
चाँद बनकर चुपचाप
अपनी शीतलता की
चादर ओढ़ाकर
धीरे से,
हवा की थपकी देकर
हमें सुला देता है।
खुद चाँद- सितारे
बनकर
पूरी रात हमारी
चौकीदारी करता है।
प्रभु
तू कितना दयालु है।
धरती बनकर
तू हमें
अपनी गोद देता है
अपनी छाती
चीरकर
तू हमें अन्न देता है
गंगोत्री बनकर
तू हमें जल देता है
अणु- परमाणु बनकर
तू हमें सांस लेता है
और
गुरु बन कर
तू हमें ज्ञान देता है
तू तो हर जगह मौजूद है
हर पल तू हमारे संग है
हमारे बाहर तू है
हमारे भीतर तू है
हर साँस तेरी है
फिर भी ये 'मैं'
तुझसे अलग क्यों है?
हर अमृत बूंद तेरी है
फिर भी तेरे ही भाग्य में
विष क्यों है?
क्या मेरे- तेरे की दीवार
मिट नहीं सकती? क्या मेरा मिटकर
सब तेरा
नहीं हो सकता?
हो सकता है तो
कब होगा?
क्या यह जीवन
व्यर्थ ही चला जाएगा?
क्या वो ललक
वो तड़प
कभी बन पाएगी
जो
'मेरा' खत्म कर दे
और
'तेरा' ही बचा कर रखे।
जब न रहे ये मेरा
और
सब हो जाए
तेरा, तेरा और
सिर्फ तेरा।।
     




 ईश्वर

जीवन डगर पर
पग बढ़ाते हुए
मैं
अक्सर सोचती थी
कि कहीं- किसी रोज
तुमसे मुलाकात होगी।
इसी उम्मीद में
मैं अक्सर
तुम्हें ढूंढा करती थी।
मेरी निगाहें बहुत बार
दूर क्षितिज पर जाकर
रुक जाया करती थीं
लगता था कि तुम
वहीं मिलोगे
जहाँ
धरती और आकाश
मिलते हैं।
कभी-कभी निगाहें
तुम्हें पाने के लिए
आसमान को
भेदना चाहती थीं
तो कभी
समंदर की गहराई में
उतर जाना चाहती थीं।
इन्हें
बस एक ही चाहत थी
कि कहीं ना कहीं
किसी न किसी रूप में
तुमसे
मुलाकात हो जाए।
फिर सोचती थी
कि तुम्हारा
रूप क्या है?
मैं तो
जानती ही नहीं थी
कि तुम
कौन हो?
कैसे
पहचान पाऊंगी मैं तुम्हें
खैर...।
बहुत ढूंढा तुम्हें
पर
तुम कहीं न थे
न मंदिर की चौखट में
न हरि के द्वार में
न बृज की गलियों में
न गोकुलधाम में
सुना तो यह था कि
तुम शाश्वत भी हो
फिर मेरी आंखें
तुम्हें क्यों नहीं देख पाती थीं
ये आत्मा तुम्हें
क्यों नहीं समझ पाती थी।।
ये कंठ तुम्हें पुकारकर
सूखा जाता था
पर ये आवाज़
तुम्हारे कान तक
क्यों नहीं जाती थी?
फिर एक दिन
सब कुछ बदल गया।
मुझे मेरे हर सवाल का
जवाब मिल गया।
मैं तुम्हें
खुली आंखों से
देखना चाहती थी
पर तुम्हें
देखने के लिए
तो मन की आंखें ही
चाहिए थीं।
मैंने देखा
कि तुम
कितने विराट हो
तुम क्षितिज में नहीं थे
तुम स्वयं
क्षितिज बने बैठे थे।
तुम्हें पाने के लिए
आसमान भेदने की
जरूरत नहीं थी
बल्कि उसके
कण-कण में
समा जाने की
जरूरत थी।
तुम्हें पाने के लिए
समंदर की
गहराई नहीं
अपितु
अपने ही अंदर की
गहराई में
उतरने की जरूरत थी।
तुम मंदिर, गुरुद्वारों में नहीं
तुम तो दिलों में बसते हो
तुम
ब्रज की गलियों
में ही नहीं
हर मोहल्ले की
गलियों में बसते हो।
तुम कोई
एक चेहरा नहीं
तुम तो हर चेहरे में
बसते हो
सारा संसार तुम्हारा है
तुम सृष्टि के
कण-कण में बसते हो।।





आलोक

भीतरी आलोक
से
दीप्त चेहरा
करुणा से सिक्त आँखें
अद्भुत, अनिर्वचनीय ललाट
क्या ये बुद्ध हैं?
मुक्ति की अनंत
संभावनाओं को जी लेने वाले
अपने होने को
महसूस कर लेने वाले
धरती को बिछौना
और
आकाश को अपनी छत
बना लेने वाले
क्या यही वे बुद्ध हैं??
मैं एकटक
बुद्ध की छवि निहारती हूँ
मुझे समय का
भान ही नहीं रह पाता
मैं खो जाती हूँ
इतना
कि बुद्ध एक अद्भुत
अनिर्वचनीय  प्रकाश के साथ
मेरे समक्ष
साकार हो जाते हैं।
वे मुझसे संवाद करते हैं
और अचानक पूछते हैं-
क्या तुम
आत्मसात करना चाहोगी
बुद्धत्व से??
मैं भौचक्क
अरे यह कैसा प्रश्न
मैं तो इस छवि को
सिर्फ दूर से निहार रही थी।
पर
ऐसे प्रश्न के लिए
मैं कहांँ तैयार थी?
फिर भी अचकचाकर
पूछ बैठती हूँ
कैसे?
सुविधाभोगी मानसिकता
से दूर
अपनी ही भीतरी कंदराओं
और रोज
लहूलुहान होती
आत्मा को पहचान कर।
पर तुम्हें
शत्रुता मोल लेनी होगी।
अरे यह क्या
मैं सोचने लगती हूँ
बुद्ध और शत्रुता
ये कैसा विरोधाभास?
उत्तर मिला: हाँ शत्रुता
अपने भीतरी
और
बाहरी शिकंजों से
अपनी रुद्ध मानसिकताओं से
और
अपने भीतर की जड़ताओं से।।
स्वयं को भीतर से
जानोगी
तभी तो
इस आलोक को पहचानोगी।
यह अद्भुत अनिर्वचनीय आलोक
मेरे साथ, तुम्हारे
भीतर ही नहीं अपितु
सबके भीतर मौजूद है
तुम्हें केवल
बुद्धं शरणं गच्छामि
की नहीं अपितु
बुद्धत्व को ही
पा लेने की जरूरत है।
तुम्हें दूसरों की नहीं
अपितु
स्वयं की ही जवाबदेही की जरूरत है।
जब
अपने ही कटघरे में
खुद को दोषी पाओगी
तभी तो
मुक्ति का मार्ग
स्वयं खोज पाओगी।।



.

काश तुम मिल जाती एक बार 

माँ
अक्सर
जब मैं दर्पण के आगे
अपना चेहरा निहारती हूँ
तो लगता है
जैसे
तुम्हारा ही प्रतिरूप हूँ
मेरे विचारों में
मेरे सरोकारों में
तुम कितनी गहरी छाई हो
ये तुम भी नहीं जानती हो माँ।।
कैसी रही होगी तुम्हारी
छुअन
तुम्हारी ममता
तुम्हारा दुलार
कैसे जान लेती होगी
तुम
मेरी अनकही बातों को
मेरे हंसने को, मेरे रोने को
तुम्हारा होना
जीवन का
बहुत बड़ा वरदान था माँ
पर
कितनी जल्दी तुम मुझे
अकेला कर गईं माँ
आज ढेरों बातें हैं मेरे पास
ढेरों अनुभवों से
भरा पड़ा है ये जीवन-जगत
और...
इस सबको
मुझे
तुमसे सांझा करना है माँ
पर तुम यहाँ कहाँ?
न जाने धरती के
किस छोर, किस क्षितिज में
और
किस रूप में
उदय हुआ होगा तुम्हारा
नया जीवन प्रभात।।
पर ये अक्षर मन
तुम्हारी याद में
आज भी
घंटों शून्य में ही
ताकता है
माँ





पिता 

पिता
बाहर
तुम वज्र के समान
कठोर दिखते हुए भी
भीतर से
कितने कोमल हो।
तुम
अक्सर
रहते हो चुप
नहीं करते तुम
कोई भावुक बात
पर बचपन में
पिटाई के बाद
तुम्हारा हमें
हल्दी वाला गरम- गरम
दूध पिलाना
आज भी याद है।।
रात को सोते हुए
तुम्हारा
धीरे से आकर
बालों में ऊंगलियों को फिराना
और
चद्दर ओढ़ाकर
आहिस्ता से चले जाना
तुम्हारी बहुत सारी
भीतरी पर्तों को
उजागर कर देता है।
अपनी बेहद जरूरी
चीजों को भी
अर्से तक टालते रहना
और
हमारी पसंद की
चीजों से
पूरा घर भर देना
आज भी
अच्छी तरह याद है।।
पिता
सब कहते हैं कि
तुम
बेहद सख्त दिल
इंसान हो
पर
मैंनें देखा है
हमारे किसी दर्द पर
तुम्हारा
गला रुद्ध हो जाना
और किसी को पता न चले
इसलिए जबरन
अपना गला खखारते रहना ।
मैंनें देखा है
हमारी हर तकलीफ में
तुम्हारी आंखों की
कोरों का भीगना
और तुम्हारा सप्रयास
उन्हें सफलतापूर्वक रोकना।

तुम्हें क्या जरूरत थी
इस कला को सीखने की?
क्या कभी-कभी आंखें छलछलाने से
तुम कमजोर सिद्ध हो जाते?
पिता,
एक बात कहूँ -
हम तुम्हें अपनी हर बात
संप्रेषित तो कर पाए
पर तुमसे कभी
संवाद न स्थापित कर पाए।
पर फिर भी पिता
तुम वो बरगद हो
जिसके साये में पलकर ही
हम अपनी पहचान बना पाए।
अपने अस्तित्व को पहचान पाए।
हम पर कभी
धूप भी आई
तो वो
तुम्हारी पत्तियों से छनकर आई।
जीवन में
कभी
आंधी-तूफान भी आया
तो तुम्हारी
गहरी जड़ों को भेद
हम तक न पहुंच पाया।
हम सदा रहे महफूज़
तुम्हारे संरक्षण के साये में।।
अपने कर्म के फल
तोड़ - तोड़ कर
और
दुनिया से बचा - बचाकर
तुमने हमें खिलाए।।
तुम्हारी ही देख-रेख में
हमने अपने पंख फैलाए।
तुम्हारी ही चाह थी कि
हम ऊंचाइयों तक जाएं
और
वितान को छूती
मंजिलों को पाए।।
आज
हम छोड़ चुके हैं
अपने बरगद की छांव को
पर पिता
तुम्हारे होने का एहसास ही
हमें तृप्त कर देता है
जीवन में
तुम्हारी
दिशा से आता हुआ
हर आत्मीय झोंका
आज भी हमें
तुम्हारी
खुश्बू से
सराबोर कर देता है।।




अनुभव 

मैंनें ठोकर खाई
और
अनुभव पाया
जीवन भर ठोकरें खाती रही
एवज में
अनुभव पाती रही।
ठोकरें खाना
बेहद तकलीफदायक प्रक्रिया है।
जिसमें से गुजरते हुए
घायल भी होना है
और
आगे भी बढ़ना है।।
ठोकरें खाना
बुरा नहीं है
पर
बार-बार एक ही चीज़,
एक ही जगह
ठोकर खाना
और बिलबिलाना
बेहद बुरा है।
किसी अनुभवी व्यक्ति
के द्वारा
ठोकर की जगह
और इसकी पीड़ा
बताने के बाद भी
इंसान का
उसी प्रक्रिया से स्वयं
गुजरने का चुनाव करना
भयावह है
लेकिन फिर भी
यह मानव स्वभाव है
कि
अक्सर दूसरों को
नजरअंदाज करना
और हर बार
ठोकर खा कर
सिर्फ अपने ही
अनुभव से संभलना।।
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5 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन की कशमकश के बीच जीवन को संजोती कविताए । भागमभाग से इतर जीवन से संवाद करती कविताए । मुक्ति और साधना के रहस्य खोलती एवं अपने रास्ते स्वयं तलाशती कविताए । शुभकामनाये

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  3. अद्भुत... ये केवल शब्द हीं नहीं भाव है मन के रेशा रेशा जोडकर देखे जो सपने जीवन मे बिखरने लगे वे सपने कतरा कतरा तब अभी तो मुझे बहुत कुछ करना बाकी है की भावना के साथ ...स्मृतियों के सहारे आगे बढते हुए जीवन गीत है ...संगीत है की भावना मे आकंठ डुबोती हुई कविताएँ.... आनंदम्

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  4. यूं तो सारी कविताएं अपने आप मे अध्यात्म, स्मृति, अपनापन,संकल्प, विश्वास, जीवन संगीत को संजोए हुए है किन्तु....मुकम्मल कविता ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया..।.

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