कहानी
अंधेरा कुछ इस तरह दाखिल हुआ
श्रीधर करुणानिधि
(घटना सच्ची हो यह उतना जरूरी नहीं जितना कि सच्चाई में हमारा विश्वास)
परिंदे जब खूब ऊँची उड़ान भरते हैं तो उनके कुछ पंख टूट जाते हैं। क्योंकि पृथ्वी उड़ती चीजों से बेपनाह मुहब्बत करती है इसलिए हर कोई चाँद को नहीं छू पाता। पर हाँ!नीली पृथ्वी और सफेद चाँद के बीच भी कहीं दुधिया सपनों के फूल उगते हैं.....।
फूल कई हैं...तरह-तरह के.....सबके अपने....अपनी पसंद के....। चाँद भी तो कई हैं...। सबके अपने....। खास पसंद के। इसलिए ऊफनती नदी में उतरने के लिए नावों का होना शायद उतना जरूरी नहीं है जितना जरूरी एक चाँद के सहारे की.....।
मुर्दा हो गया है गाँव! चारों ओर सन्नाटा है। बियाबान मे कोई चीज चीखती है जैसे। उल्लू और चमगादड़ों के पंखों की फड़फड़ाहट और चीख से अलग बरसाती नदी से मिलकर भी उससे न घुलती हुई एक रवादार आवाज। झिंगुरों और कई अनोखे कीट-पतंगों की बेसुरी आवाज को बड़ी आसानी से बेधती हुई.....। कहीं आग तो जल रही है.....। लेकिन धुएँ को नहीं उठने दिया जा रहा.......। एक कनस्तर में काले धुएँ को जैसे बंद किया जा रहा...।
बिसन की तरह शैलेश को भी जाने क्यों ऐसा लगता है कि एक जलती चिता माचिस की तीली की तरह ही जलती है। अन्तर सिर्फ इतना है कि तीली जलकर तुरंत बुझ जाती है और चिता हमेशा धधकती रहती है। कभी बाहर कभी मन के किसी कोने में। चिता की छूटी हुई राख से कोई फोनिक्स पक्षी की तरह जन्म नहीं लेता। रूपम भी नहीं....।
नीचे आम के पेड़ों की काली छाया है और ऊपर चाँद रोटी के आधे टुकड़े की तरह पड़ा है धरती-जैसे मटमैले आसमान में। बगल में लेटा है अघाए कुत्ते की तरह पसरा हुआ बादल!....।
बगीचे के पेड़ हैं कि खत्म ही नहीं हो रहे। दोनों तेजी से दौड़ते हुए कभी अचानक रुक जाते हैं। कभी कदमों की आहट को एकदम छिपाने की कोशिश में बाघ की तरह आहिस्ता चलते हैं। कभी इस पेड......कभी उस पेड़....। ओट तलाशते दोनों छिपते हैं एक मोटे पेड़ के पीछे....। उन लोगों से एकदम नजदीक! साहुड़ की झाड़ियों के बगल में....। शैलेश हैंडीकैम ऑन कर खुद से सवाल करता है....। ऐसा क्यों होता है यार? क्यों?.......वह अपनी स्मृति पर जोर डालकर सोचता है...याद करो शैलेश उस नौजवान का तराशा हुआ पुष्ट शरीर! क्या पीतल की मूर्ति की तरह गढ़ा था! हाँ! कोई ऐसा ही पेड़ था। रात भर उस नौजवान का शरीर पेड़ से टंगा रहा। उसके गले में कुएँ से पानी भरने की मोटी रस्सी बंधी थी...। सुबह दिशा-फराकत के लिए गई महिला चीखती हुई गाँव भागी थी।फिर धूल उड़ाती पुलिस की जीप पहुँची। सैकड़ों की जमा भीड़ के बीच उस नौजवान को नीचे उतारा गया था। नरम दूब पर लेटे हुए उनकी आँखों में गहरी नींद उतर आई थी। ऐसी नींद जो कभी नहीं टूटती.....। क्या तुमने सोचा शैलेश वह नौजवान उस रात पास के गाँव के मेले में इतना चहकता क्यों देखा गया था? क्यों रस्सी से लटकते हुए भी उसके हाथ की बंद मुट्ठियों में कान की बालियों का एक जोड़ा पड़ा था....क्यों?क्योंकि उसे किसी चाँद के सहारे नदी पार करनी थी। हाँ! वही आधी रोटी की तरह फेंका हुआ चाँद इतनी खूबसूरती से एक नाव भी बन सकता है....क्या तुमने कभी सोचा?
हाथों में लाठियाँ हैं.....। बंदूक हैं....। छर्रेदार मास्केट है....। थ्रीनट-थी के ग्रामीण लोहार निर्मित संस्करण हैं....। गंड़ासे कुट्टी काटने वाले.....। हंसुए....। संठी के ढेर....। उपले और सूखी लकड़ियों के टुकड़े....।अंतिम सांसे चल रही हैं एक नाजुक शरीर की.....। हुक-हुक कर रही है उसकी खून से सनी छातियाँ....। तड़प रही है एक रोहू मछली की तरह एक बेहद प्यासी मछली.....आह! यार शैलेश तुम सोच रहे थे एक दनदनाती गाड़ी आएगी, कोई इंस्पेक्टर सिपाहियों सहित उतरेगा और तितर-बितर हो जाएगा सब कुछ। तुम चमत्कार की उम्मीद कर रहे थे?तुम भी उसे नहीं बचा सके न! वक्त बहुत नाजुक होता है यार....हमें तुरंत निर्णय लेना होता है......एक पल की देरी हुई और कुछ का कुछ हो गया....।
हल्की रुलाई की आवाज झाड़ियों से निकलना चाहती है। एक हाथ से हैंडीकैम संभाले शैलेश दूसरे हाथ से बिसन का मुँह बंद करता है। उसका पूरा शरीर रुलाई और हिचकियों से काँप रहा है। अभी कितनी खतरनाक हो सकती है आवाज की छोटी सी खरोंच भी। इतनी कम दूरी पर इतना वीभत्स दृश्य चल रहा है और उसने किस चालाकी से अपने आपको बिसन के साथ बचा रखा है वही जानता है। थोड़ी सी भनक से इसी बियाबान बगीचे में दो भूत और पैदा हो सकते हैं। लहकती चिता को चारो ओर से घेरे रखवालोंके छर्रेदार मास्केट और थ्रीनट-थ्री की एक-एक गोलियाँ काफी हैं इस बगीचे का परमानेंट मेंबर बन जाने के लिए। ठीक उस नौजवान की तरह या लोचो राम की तरह जिसे आज भी चाँदनी रात में उजली चादर ओढ़े घूमते हुए कुछ लोग अक्सर देखते हैं।
मीठा पानी इसे जरा भी नहीं हिलाता-डुलाता? दूर नहीं कर पाता इसकी शिथिलता?.....दृश्य चल रहे हैं...। कुछ कैमरे में कैद हो रहे हैं कुछ बिसन की आँखों में छप गए हैं नागिन की आँखों की तरह......। कितनी बार पूछा था उसने रूपम से ’क्या कुछ घुनघुनाहट सुनती हो?.....क्या कोई आवाज फुसफुसाती है तुम्हारे घर में! क्या तुम्हें कभी किसी आँख में खून उतरता नजर आता है.....गौर से देखना रूपम कई बार बहुत शांत चेहरे भ्रम पैदा करते हैं और सपाट आँखें बड़ी बेदर्द बन जाती हैं। तुम्हें बहुत दुलार तो नहीं किया जा रहा है? हाँ ध्यान देना। व्यवहार अचानक नहीं बदलते और अगर ऐसा है तो सचेत हो जाना। सुन रही हो न!‘
एक चीख जो रह रह कर बजती है बिसन के कानों में.....वो चीख रह-रह के तड़प उठती है। जैसे किसी बकरी के हलाल होने के पहले का आर्त स्वर।’हत्यारो!‘ गुस्से से दाँत कटकटाता हुआ सोचता है वह। माँ और बहन को संबोधित कई गालियों को वह मन ही मन चबाता है। ......अब तो उन लोगों की खैर नहीं.....उनकी भलाई इसी में थी कि वो मेरा भी वही हाल करते।
कुत्तां के झूंड सूंघते हुए भटक रहे हैं इधर-उधर चारों तरफ.....एक-एक घर...एक-एक गली-चौराहे....पुआल के ढेरों के पास....आस-पास के खेतों में थोड़ी ऊँची छिपने लायक फसलों में घुसकर। आज वो सब कुछ तहस-नहस कर देंगे....। वह बचेगा....। उसे बचे रहना है इसलिए। बचे रहने के अलावा और कोई चारा नहीं है उसके पास।
उसने पास के गाँव के कसाइयों के चेहरे देखे हैं...। इस्माइल! हाँ सबसे कुरूप और सिद्धहस्त कसाई। कोई भाव नहीं....इतना सख्त जैसे पत्थर। जैसे खुरदुरी छाल वाले किसी वृक्ष का तना। जैसे मसाला पीसने की सिलौटी....कई जगह कटी-फटी....जानबूझ कर खुरदुरापन लाने की कोशिश। आँखों में खून की पतली-पतली नशों का जाल। जितनी बार जितने मांस के टुकड़े करने हों....जितनी बार गले पर छुरी चलानी हो चेहरे पर कोई शिकन नहीं। एक अभ्यस्त हाथ। हत्या करने के निरंतर अभ्यास से सधे हुए।....बस वैसे ही चेहरे....वैसे ही क्रूर हाथ। पर क्यों खून के प्यासे ये चेहरे और क्रूर हाथ अपनों के गर्दन तक पहुँचने पर कांपते नहीं। उन लोगों के खून में वह कौन सा केमिकल है क्या बता सकता है कोई क्रिमिनल पैथोलॉजिस्ट?.....कोई चाहे न बताए लेकिन वह हर एक की केमिकल एनलिसिस करवाएगा।
“मैं तुम्हारी सारी शान गांड में घुसा दूँगा बिजन सिंह.....। जिस शान के लिए तुमने ऐसा किया है मैं उसी शान में बंबू करूँगा...।”
बिसन चीखना चाहता है। उसे बार-बार अपने गाँव के मेले के ड्रामे में निभाए गए पाठ की याद आती है... वही कसम!....खून के बदले खून! बार-बार उसे बिमला का बीच बाजार में बंदूक चलाना याद आता है। ठीक किया था उसने अपने बाप के हत्यारे को सैकड़ो लोगों के सामने बीच बाजार में कुत्ते की मौत मारा।
कितना छोकड़ा और हंसोड़ था वह। पहली बार अपने पिता से घर-घर फूल पहुँचाने का काम उसने लिया था। तब जबकि पास के कस्बे के कॉलेज में वह पढ़ने लगा था।....कई तरह के फूल....चंपा...गेंदा....गुलाब अरहुल और भी कई और एक बड़े आंगन में पिंडे पर फूल चढ़ाते हुए ही देखा कि उसके थैले में रखे फूलों से भी एक खूबसूरत फूल इसी आंगन में है....रूपम! उसके सामने तो सारे फूल बौने हैं। एकदम फीके!
“ऐ! एक फूल हमें भी देना रोज बालों में लगाने के लिए।”
“बालों में फूल! ये तो पुराना फैशन है। पहले संथालिनें लगाती थीं। अब तो उन्होंने भी लगाना छोड़ दिया है।”
“पुराना है तो क्या हमें तो चाहिए, बस!”
और फिर उसने न जाने कहाँ-कहाँ से अच्छे फूल ढूंढे....किसकी-किसकी फुलवारी से फूल न चुराए....। पास के कस्बे के कॉलेज से लौटकर शाम में भटकता और देख आता.। फूल ढूंढ आता कि यहीं से रात को या खूब सवेरे अपना इल्म दिखाना है। हर रोज अच्छे, ताजे और सुगंधित फूल.....। फूल...फूल...फूल....
बिजन सिंह मूँछ ऐंठता है.....“क्यों बे लौंडे ये मोटरसाईकिल कब से?....किसका है?......तेरा है?.........ये कैसे? कितना पैसा है तेरे बाप को? तेरा बाप फूल बेच के करोड़पति तो नहीं हो रहा? ठहर पता तो चले तेरा बाप क्या करता है?....और सुन क्या नाम है तेरा? हाँ, बिसना इधर हमरे बस्ती में जादा गाड़ी चलाने की कोनो जरूरत नहीं, समझे....हाँ, उधर अपने घर तरफ फेरो गाड़ी।”
शैलेश याद करने की कोशिश करता है....न जाने उसकी बाईक किस अनजान गड्ढे में पड़ी होगी....यहाँ से बहुत दूर किसी खेत के बगल में किसी गहरे गड्ढे में...कई पगडंडियों से चलते-फिसलते....चोर तरीकों से चलकर....चोर रास्तों से आकर और फिर उस गड्ढे में देर तक घूमते पहियों की अजीब चुरमुरी जुबान में कहानियाँ सुनती हुई....।
बिसन का घर किसी अंधेरे कोने में पड़ा होगा.....सब कुछ उसी अंधेरे की तरफ बढ़ता चला गया है....या अंधेरा ही बढ़कर उस सबकुछ में धँसता चला गया है...। कहाँ जाना है?....अब कौन सा रास्ता है? सब कुछ तो खत्म हुआ....जैसे कोई किया हुआ वादा कलगी हो फसल की! जो टूट बिखर गई हो हवा के एक जालिम झोंके से। फिर कलगी के बिना उस हरियाली का क्या मक्सद? खत्म हो गया हो...वक्त का, खुद का।
ओखली में थकूच दिए गए अन्न के दाने की तरह ही उसे मूसलों से तोड़ा गया। उसे टूटना नहीं था फिर भी बेवक्त ही वह टूटी। ऐसा कि अब उस कड़ी को जोड़ना संभव नहीं है। इस पल की प्रतीक्षा होती रही थी...गुपचुप.....होठों को चुप्पा की तरह उसके बीचों-बीच अंगुलियाँ ले जाकर। इसकी तैयारियाँ पहले से चल रही थी।
ये क्रूर तैयारियाँ दर्ज है मल्टीमीडिया मोबाइल के चिप में। फिनलैण्ड की कंपनी नोकिया मोबाइल सैट में जो गाँव-गाँव तक पहुँचाए हैं।यह अलग बात है कि वे अन्य चीजों को नहीं पहुँचा सके...शायद यह उनका मक्सद भी नहीं था।प्यार और मुहब्बत को खैर वे अपने छोटे सेटों के माध्यम से कैसे पहुँचाते! पर खेतिहरों से लेकर गाँव के कारीगर, छोटे व्यापारी और किशोर नौजवानों तक मुनाफे के कारोबार और जातिवादी नफरत के साथ जरूर पहुँच गए ये मल्टीमीडिया सैट। जिससे वीडियो रिकार्डिंग और आवाज को सुरक्षित रखने की कला भी नौजवान खेल-खेल में ही सीख गए। तो इसी एक मँहगे मल्टीमीडिया सैट में वो सारी करतूत दर्ज होकर पुलिस के पास गई...वाया शैलेश। पहले प्रदीप फिर बिसन फिर शैलेश और तब थानेदार चन्द्रशेखर पांडेय के पास। जब यह नोकिया सैट थानेदार के हाथ में पहुँचा तो रात के ठीक बारह बज रहे थे। थानेदार और आधे दर्जन सिपाही नींद की सीटी बजा रहे थे। थाने की जीप हाथी की तरह पड़ी थी। थानेदार ने वीडियो को गौर से देखा और फिर जमुहाई लेता लंबी-चौड़ी गप्पें लहराने लगा। शैलेश की बाइक के आगे प्रेस का प्लेट लगा देखकर ही शायद वह पिस्टल के बदले गप्पें ही तान रहा था।'
थानेदार नहीं जाता है उनके साथ। वह कहता है उसकी जीप खराब है। शैलेश बड़ी चालाकी से थानेदार के हाथों से मोबाइल लेकर अपनी बाइक स्टार्ट करता है। एक...दो....तीन...और फुर्र से भगाता है अपनी बाइक। क्या पता इस थानेदार का क्या इरादा है? साला कहीं वह वीडियो डिलीट न कर दे। तीन आदमी और काबासाकी बजाज की बाइक। बाइक के दम तोड़ने के डर के बावजूद वे डर से लड़ते रहे इस उम्मीद में कि डर के आगे शायद जीत हो।......लगभग रात के एक बजे का काला सन्नाटा है। उसकी बाइक किसी गड्ढ़े में पड़ी है और वह बिसन के साथ यह खौफनाक मंजर कैद कर रहा है अपने हैंडीकैम में।
बात फिर उसी फूल पर आकर रुक जाती है। एक दिन प्रदीप ने घर आकर बिसन से कहा था.....
“बिसन! बिजन सिंह की बेटी से तुमने कुछ कहा था क्या?..”
बिसन का गला सूख जाता है।“नहीं तो।”
“अरे घबरा क्यों रहे हो। वह तो सिर्फ ये कह रही थी कि तुम आज-कल उसे फूल लाकर नहीं देते।”
“अच्छा! उससे कहना कि अब यह फूलवाला शहर में एस पी साहबका माली बन गया है और वहीं रह कर फूल की खेती करता है।”
“और कुछ कहना है तो कह दे। मैं उससे कह दूँगा।”
“और क्या कहूँ? कह देना कि कोई दूसरा माली ढूँढ ले।”
दूसरे दिन सुबह ही धनखेतों के बगल में बने मचान पर लेटे हुए गाना सुनते बिसन को प्रदीप फिर खबर देता है
“ओ गबरू जवान! वो तुझसे मिलना चाहती है। मंदिर के पीछे महुआ के पेड़ के नीचे आने को कह गई है। ठीक बारह बजे।”
कई रात नहीं सो पाता है वह। कई रात। रात को उसे तारे अच्छे लगते हैं। गुच्छों में बसे नन्हें-नन्हें मोती। शादी के मंडप के झालर से। वह आधी रात की शीतलता में कुछ ढूँढता है। जी करता है यूँ ही खड़ा रहे वह इस आसमान के नीचे। पिघल जाए। बन जाए ओस की बूंदें। वह देखता है कुछ अजीब। सपने और हकीकत के बीच। हर तरफ फूल ही फूल हैं। फूलों की घाटियों की तरह। एक फूल उसकी देह पर लदा है। बिछा है। कपड़ों की हल्की खसखसाहट की आवाजों के साथ एक देह की खुशबू फूल के साथ लदी है। और वह खुद किसी पुआल के ढेर के बीच पड़ा है। बस्तियों के घर ऊँघते हैं....ताड़ के पेड़ के पत्ते हवा की हल्की सिहरन से खड़खड़ाते हैं....सूरज भी ऊँघता है रतजगा करके....।
लगभग दो महीने बाद एस पी कोठी पर ही वह शैलेश को बताता है तो पाता है कि शैलेश बैठे-बैठे दो हाथ उछल गया है।
“बहुत बड़ा रिस्क है इसमें। जान जा सकती है तेरी।”
“....लो अब क्या जान जाने को बची हुई है। वो तो कब की चली गई है। क्या तुझे लगता है दोस्त कि मैं अब वही हूँ? तुम क्यों नहीं देख रहे हो मेरी बेचैनी। क्यों नहीं समझ रहे हो मेरी लाल आँखों का रहस्य।”
“....तुम्हारा रहस्य रोमांच जाय भांड़ में...। तुम्हारा रोमांस जाए तेल लेने। तुम हकीकत नहीं देख रहे हो। तुम नशे में हो लेकिन मैं सब कुछ देख रहा हूँ। तुम उस जाति के शान को नहीं जानते। तुम उसके खौलते खून से परिचित नहीं हो।”
“मैं सब कुछ जानता हूँ। मैं तो इसके बगल में ही रह कर बड़ा हुआ हूँ। लेकिन यार कुछ भी हो अब मैं पीछे नहीं लौट सकता। मैंने तुम्हें अपना दोस्त मानकर कह दिया अब तुम जानो।”
उस दिन के बाद से देख रहा है वह कि कैसे उसकी जिंदगी बदली है। सब कुछ उलट-पुलट गया है। रिमांड....कस्टडी का खौफ.....प्रोटेक्षन की उम्मीद....एफीडेविट...कोर्ट...मैरेज सर्टीफिकेट। ’कलैक्ट गर्ल्स बर्थ सर्टिफिकेट। यू हैव टू प्रूव दैट सी इज एडल्ट...आई मीन नॉट लैस देन एटीन इयर्स! ’जस्ट रिलैक्स्ड! कुछ भी नहीं होगा। अरे कोई बहाना ढूँढना है। उसे बाइक पर बैठाओ और सीधे जिला मुख्यालय पहुँचो। दो-तीन घंटे का काम है। यू विल बी गिवेन फुल प्रोटेक्सन!‘ वकील से बात करने में सांसे फूल रही है बिसन की। साला! अंग्रेजी को पान की तरह चबाता है। किसी तरह अपनी टूटी-फूटी अंग्रेजी से काम चलाता है बिसन। वकील के घर छोड़कर जाने किस काम के लिए चला गया है शैलेश? “जस्ट डू इट ब्रेव मैन! देयर इज ए गवर्नमेंट स्कीम टू प्रमोट इंटरकास्ट मैरेज। यू , आई मीन बोथ वाइफ एंड हस्बैंड विल बी गिवेन फिफटी थाउजैंड रुपी फॉर दैट। सो कमऑन यंग मैन!”
“डर मत यार। मैं सब सम्हाल लूँगा। कुछ घंटे के लिए तो वह बहाना बना के आ सकती है न!...हाँ तो मैनेज कर ले। बस खाली मैरेज सर्टिफिकेट मिल जाए। उसका बाप और उसके लगुए-भगुए तेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। शादी के बाद आराम से रहना। जैसे कुछ हुआ ही नहीं। फिर तुम एस पी साहब से बात करके देखना। अरे अपने काम से तुम खुश कर देना उन्हें। वो अगर चाह लेंगे तो बिजन सिंह के बाप की औकात नहीं है तेरे खिलाफ कुछ करने की।।”
बड़ा आश्वस्त करती हैं शैलेश की आँखें बिसन को। शैलेश की बातों में ठंडक है। प्यारी शीतलता!
शादी के बाद आराम से ही तो था वह! जाड़े की शुरूआत से पहले एस पी साहब के गार्डेन के लिए बीज डालने थे। फूलों की क्रापिंग करनी थी। इस बार वह अनोखे फूलों की कंबिनेशन के साथ एस पी साहब को खुश कर देना चाहता था। इस जाड़े में जब सारे फूल खिल जाएँ और एस पी साहब की मैडम यहाँ आएँ तो पूरी बहार ही उतरी हो गार्डेन में। दोनों सुबह की गुनगुनी धूप में फूलों के बीच बैंठें तो उन्हें अपने हनीमून के दिनों की याद ताजा हो जाए...और वे एक दूसरे को इन्हीं फूलों के बीच आई लव यू बोलने को विवश हो जाएँ। क्या सीन होगा यार!
दूर किसी खेत में खिक्खिर की आवाज से रात का सन्नाटा भंग होता। जलती चिता से हड्डियों के चटखने की आवाज आती है। बाँस की जड़ और आदमी की खोपड़ी के फटने के स्वर में कोई खास अंतर नहीं किया जा सकता। लगता है कि अभी-अभी रूपम की खोपड़ी फट गई है। बिसन के भीतर भी कुछ फटता है...चटाख! बस अब कुछ ही देर की बात है सब कुछ राख में तब्दील हो जाएगा। अपराधी सोचेंगे कि कोई कुछ नहीं जानता। वे लाश को ठिकाने लगाकर उसकी राख तक का नामोनिशान हटा देंगे। लेकिन उन्हें नहीं पता कि उनकी काली करतूतें कहाँ से कैद की जा रही हैं। मुखिया परमेशर सिंह का बेटा श्रवण सिंह खुशी से अपने थ्रीनट-थी से एक आसमानी फायर करता है।
“सबूत खतम बात हजम। अब साले बिसना पर ही कल केस ठोक दो। कि कल से ही नहीं मिल रही है रूपम। उसका बलात्कार कर मार तो नहीं दिया बिसना ने। लिखवा दो एफआईआर में पूरे विस्तार से किउसके फेर में पड़ा रहता था। रूपम की शादी होने के बाद भी साला उसका पीछा नहीं छोड़ रहा था।”
ए ट्वीस्ट इन न द टेल! रूपम की शादी की बात किसी को पता नहीं चलने दी गई। जाने कैसे रूपम की माँ ने किसी खुशमिजाज क्षण में रूपम से कोर्ट मैरेज का सारा भेद दे लिया। रात के किसी गूढ़तम क्षण में बिजन सिंह के कान में बात गई। फिर तो आग में बदल गया बिजन सिंह। एक ही दिन में किसी ठेकेदार के बेटे को दामाद के लिए चुना गया और रूपम बकरी बना दी गई। मुँह में कपड़ा ठूस कर उसे रखा गया। शादी न हुई कोई खिलौर हो गया। और किसी को बिना भनक लगे रूपम रातों रात बिदा कर दी। न गीत बजे न नाच गान हुआ न बाबुल रोया न माई की आँखे भरीं। आँखें तो रूपम की बरसी। इतनी कि नदी में बाढ़ आ जाए।
रात की मोटी तह को चीरती हुई गोली की आवाज दूर-दूर तक तक की शांति को हलचल से भर देती है।....हाँ खुश हैं वो उनका समाज गंदा होने से बच गया! ऐसी करतूतों के लिए सबक देना चाहते थे वे...वे निश्चिंत हैं कि यह सबक सबके लिए पर्याप्त होगा।....कल सुबह से लोग-बाग सड़कों पर घूमते, पान-गुटखा चबाते, गाँजा-बीड़ी पीते, पंचैती करते और ऐसे ही मंडली जमाते हुए चर्चा करेंगे कि अमुक की बेटी को जला कर अच्छा किया गया। साले उस मजनू को भी जला देना चाहिए। कहाँ से कहाँ जा रहे हैं ये नौसिखिए नौजवान। पेट से निकलते ही इश्क लड़ाने लगते हैं....ठीक हुआ...साली के साथ। बचपन से ही उसके चाल-ढाल ठीक नहीं थे।
शैलेश भीड़ का मनोविज्ञान जानता है। वह जानता है कि चोर को मारने में भीड़ कैसे उत्साहित हो जाती है। उसे छोड़ दिया जाए तो वे अपनी जिंदगी की सारी फ्रस्ट्रेशन उसी पर निकाल देंगे सारे कानून को ताक पर रख कर। वह प्यार से घृणा करने वाली भीड़ का भी मनोविज्ञान जानता है। सारे यही चाहेंगे कि उनके सिवा प्यार कोई नहीं करे। अपने लिए जो जिस चीज में वे मजा खोजते हैं दूसरों को ऐसा करता देख वे खीज जाते हैं...बेतूके तर्कों के साथ। धर्म ग्रंथों में उन्हीं देवताओं की पूजा करेंगे जो प्रेम के प्रतीक हैं और अपने आसपास घटित होने वाली घटनाओं पर बड़ी घटिया टिप्पणियाँ करेंगे। ऐसे लोगों के साथ क्या किया जा सकता है? इन्हें समझाना मुश्किल है।
बिसन किसी को नहीं समझा सकेगा। किसी को समझाना भी नहीं चाहता वह। बस जो ऐंठ के चल रहे हैं, मूछों पर ताव दे रहे हैं उन्हें कुछ सिखाना चाहता है। किसी की जिंदगी से खेलना इतना आसान बना दिया है इन लोगों ने। उन्हें कुछ बताना चाहता है। कैसे? उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा। थानेदार की करतूत वह जानता है। साले सब बिके हुए है। लेकिन वह छोड़ेगा नहीं...। लड़ेगा....आखिर तक...। सबूत को मिटने नहीं देगा। शैलेश के कैमरे में कैद लाश जलाने की लाइव तस्वीरें....प्रदीप के मोबाइल में मुखिया सहित सारे पंचों की पंचैती और चिल्ला-चिल्ला कर दिए गए तालीबानी फरमान....सब हैं उसके पास। एक भयानक उत्तेजना उठती है बिसन के शरीर में और उसी उत्तेजना में वह चीखना चाहता है....रूपम की लाश जलाकर जा रहे जल्लादों को चीख कर बताना चाहता है....कोई भी नहीं बच पाओगे। मना लो आज जितनी भी खुशी मनाना चाहते हो....दे लो चाहे जितना ताव देना चाहते हो मूँछों पर...। कल कोई सजा दे या न दे मैं तुमसबों को सजा दूँगा। मैं बिसन।
ऐन वक्त पर जब वह पेड़ की ओट से बाहर आना चाहता है उन लोगों के सामने और लगभग चीखना चाहता है शैलेश उसे पकड़ कर खींच लेता है और उसके मुँह पर हाथ रखकर आवाज निकलने से रोकता है। थोड़ी ही देर में बिसन का समूचा शरीर अवसन्न होकर फिर रूलाई से काँपने लगता है। शैलेश के पास कोई उपाय नहीं है इस दर्द के निवारण का। वह जानता है कि वक्त की मोटी बर्फ की परत ही इसे ढक सकती है। वह ऐसे वक्त के बारे में सोचकर मन को थिराना चाहता है कि बिसन और वह अपने सारे सबूतों के साथ कोर्ट पहुँचे हैं।सबसे मशहूर वकील उनका केस लड़ रहा है। कोर्ट में सबूतों की बौछार हो रही है। चारों तरफ से इस ब्रूटल किलिंग की थू थू हो रही है। अपराधी घिरे हैं चारो तरफ से। गाँव की सड़कों पर पुलिस की जीप और डीएसपी की जिप्सी भर्र-भर्र दौड़ रही है। जैसे वे कुत्ते ढूंढते फिरते थे बिसन को वैसे ही पुलिस कुत्ते की तरह सूँघती फिर रही है एक एक घर....पुआल के ढेर....जंगल-झाड़ी...मुखिया का बथान....हर जगह।कुछ क्रूर चेहरे जेल की काली सलाखों के पीछे पहुँच चुके हैं और कुछ चेहरे भागते फिर रहे हैं। खेत-खलिहान की मेड़ों पर उसके भागने के निशान अब भी मौजूद हैं। वे बेतहाशा भाग रहे हैं और एक अंधेरा जो उन्होंने ही पैदा किया है वही अंधेरा परछाईं की तरह उनके पीछे भाग रहा है....।
शैलेश की गोद में बिसन का शरीर थिर पड़ा है बिल्कुल बेजान लगता हुआ। आधी रोटी की तरह फेंके हुए चाँद के टुकड़े को बादल ने निगल लिया है। लेकिन दूर पूरब कहीं आसमान में रोशनी की एक हल्की रेखा तैरती है पिछले दरवाजे से दाखिल अंधेरे को दूर ढकेलने की हल्की कोशिश के साथ....।
......यह सही है कि हर कोई चाँद को छू नहीं पाता...। पर हाँ! नीली पृथ्वी और सफेद चाँद के बीच भी कहीं दुधिया सपनों के फूल जरूर उगते होंगे.....!
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श्रीधर करुणानिधि की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/09/blog-post_20.html?m=1
परिचय
नाम-श्रीधर करुणानिधि
जन्म पूर्णिया जिले के दिबरा बाजार गाँव में
शिक्षा- एम॰ ए॰(हिन्दी साहित्य) स्वर्ण पदक,
पी-एच॰ डी॰, पटना विश्वविद्यालय, पटना।
प्रकाशित रचनाएँ- ’दैनिक हिन्दुस्तान‘,
’उन्नयन‘(जिनसे उम्मीद है कॉलम में),’पाखी‘, ‘‘वागर्थ’ ’बया‘ ’वसुधा‘, ’परिकथा‘ ’साहित्य अमृत’,’जनपथ‘ ’छपते छपते‘, ’संवदिया‘, ’प्रसंग‘, ’अभिधा‘‘ ’साहिती सारिका‘, शब्द-प्रवाह‘, पगडंडी‘, ’साँवली‘, ’अभिनव मीमांसा‘’परिषद् पत्रिका‘ बिज़ूका आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ और आलेख प्रकाशित। आकाशवाणी पटना से कहानियों का तथा दूरदर्शन, पटना से काव्यपाठ का प्रसारण।
प्रकाशित पुस्तकें-1. ’’वैश्वीकरण और हिन्दी का बदलता हुआ स्वरूप‘‘(आलोचना पुस्तक, अभिधा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर, बिहार
2. ’’खिलखिलाता हुआ कुछ‘‘(कविता-संग्रह, साहित्य संसद प्रकाशन, नई दिल्ली)
संपर्क-
श्रीधर करुणानिधि
द्वारा- श्री मती इंदु शुक्ला
आलमगंज चौकी, गुलजारबाग पटना
मोबाइल- 09709719758
ई-मेल- shreedhar0080@gmail.com
अंधेरा कुछ इस तरह दाखिल हुआ
श्रीधर करुणानिधि
(घटना सच्ची हो यह उतना जरूरी नहीं जितना कि सच्चाई में हमारा विश्वास)
परिंदे जब खूब ऊँची उड़ान भरते हैं तो उनके कुछ पंख टूट जाते हैं। क्योंकि पृथ्वी उड़ती चीजों से बेपनाह मुहब्बत करती है इसलिए हर कोई चाँद को नहीं छू पाता। पर हाँ!नीली पृथ्वी और सफेद चाँद के बीच भी कहीं दुधिया सपनों के फूल उगते हैं.....।
श्रीधर करुणानिधि |
फूल कई हैं...तरह-तरह के.....सबके अपने....अपनी पसंद के....। चाँद भी तो कई हैं...। सबके अपने....। खास पसंद के। इसलिए ऊफनती नदी में उतरने के लिए नावों का होना शायद उतना जरूरी नहीं है जितना जरूरी एक चाँद के सहारे की.....।
मुर्दा हो गया है गाँव! चारों ओर सन्नाटा है। बियाबान मे कोई चीज चीखती है जैसे। उल्लू और चमगादड़ों के पंखों की फड़फड़ाहट और चीख से अलग बरसाती नदी से मिलकर भी उससे न घुलती हुई एक रवादार आवाज। झिंगुरों और कई अनोखे कीट-पतंगों की बेसुरी आवाज को बड़ी आसानी से बेधती हुई.....। कहीं आग तो जल रही है.....। लेकिन धुएँ को नहीं उठने दिया जा रहा.......। एक कनस्तर में काले धुएँ को जैसे बंद किया जा रहा...।
बिसन की तरह शैलेश को भी जाने क्यों ऐसा लगता है कि एक जलती चिता माचिस की तीली की तरह ही जलती है। अन्तर सिर्फ इतना है कि तीली जलकर तुरंत बुझ जाती है और चिता हमेशा धधकती रहती है। कभी बाहर कभी मन के किसी कोने में। चिता की छूटी हुई राख से कोई फोनिक्स पक्षी की तरह जन्म नहीं लेता। रूपम भी नहीं....।
नीचे आम के पेड़ों की काली छाया है और ऊपर चाँद रोटी के आधे टुकड़े की तरह पड़ा है धरती-जैसे मटमैले आसमान में। बगल में लेटा है अघाए कुत्ते की तरह पसरा हुआ बादल!....।
बगीचे के पेड़ हैं कि खत्म ही नहीं हो रहे। दोनों तेजी से दौड़ते हुए कभी अचानक रुक जाते हैं। कभी कदमों की आहट को एकदम छिपाने की कोशिश में बाघ की तरह आहिस्ता चलते हैं। कभी इस पेड......कभी उस पेड़....। ओट तलाशते दोनों छिपते हैं एक मोटे पेड़ के पीछे....। उन लोगों से एकदम नजदीक! साहुड़ की झाड़ियों के बगल में....। शैलेश हैंडीकैम ऑन कर खुद से सवाल करता है....। ऐसा क्यों होता है यार? क्यों?.......वह अपनी स्मृति पर जोर डालकर सोचता है...याद करो शैलेश उस नौजवान का तराशा हुआ पुष्ट शरीर! क्या पीतल की मूर्ति की तरह गढ़ा था! हाँ! कोई ऐसा ही पेड़ था। रात भर उस नौजवान का शरीर पेड़ से टंगा रहा। उसके गले में कुएँ से पानी भरने की मोटी रस्सी बंधी थी...। सुबह दिशा-फराकत के लिए गई महिला चीखती हुई गाँव भागी थी।फिर धूल उड़ाती पुलिस की जीप पहुँची। सैकड़ों की जमा भीड़ के बीच उस नौजवान को नीचे उतारा गया था। नरम दूब पर लेटे हुए उनकी आँखों में गहरी नींद उतर आई थी। ऐसी नींद जो कभी नहीं टूटती.....। क्या तुमने सोचा शैलेश वह नौजवान उस रात पास के गाँव के मेले में इतना चहकता क्यों देखा गया था? क्यों रस्सी से लटकते हुए भी उसके हाथ की बंद मुट्ठियों में कान की बालियों का एक जोड़ा पड़ा था....क्यों?क्योंकि उसे किसी चाँद के सहारे नदी पार करनी थी। हाँ! वही आधी रोटी की तरह फेंका हुआ चाँद इतनी खूबसूरती से एक नाव भी बन सकता है....क्या तुमने कभी सोचा?
हाथों में लाठियाँ हैं.....। बंदूक हैं....। छर्रेदार मास्केट है....। थ्रीनट-थी के ग्रामीण लोहार निर्मित संस्करण हैं....। गंड़ासे कुट्टी काटने वाले.....। हंसुए....। संठी के ढेर....। उपले और सूखी लकड़ियों के टुकड़े....।अंतिम सांसे चल रही हैं एक नाजुक शरीर की.....। हुक-हुक कर रही है उसकी खून से सनी छातियाँ....। तड़प रही है एक रोहू मछली की तरह एक बेहद प्यासी मछली.....आह! यार शैलेश तुम सोच रहे थे एक दनदनाती गाड़ी आएगी, कोई इंस्पेक्टर सिपाहियों सहित उतरेगा और तितर-बितर हो जाएगा सब कुछ। तुम चमत्कार की उम्मीद कर रहे थे?तुम भी उसे नहीं बचा सके न! वक्त बहुत नाजुक होता है यार....हमें तुरंत निर्णय लेना होता है......एक पल की देरी हुई और कुछ का कुछ हो गया....।
हल्की रुलाई की आवाज झाड़ियों से निकलना चाहती है। एक हाथ से हैंडीकैम संभाले शैलेश दूसरे हाथ से बिसन का मुँह बंद करता है। उसका पूरा शरीर रुलाई और हिचकियों से काँप रहा है। अभी कितनी खतरनाक हो सकती है आवाज की छोटी सी खरोंच भी। इतनी कम दूरी पर इतना वीभत्स दृश्य चल रहा है और उसने किस चालाकी से अपने आपको बिसन के साथ बचा रखा है वही जानता है। थोड़ी सी भनक से इसी बियाबान बगीचे में दो भूत और पैदा हो सकते हैं। लहकती चिता को चारो ओर से घेरे रखवालोंके छर्रेदार मास्केट और थ्रीनट-थ्री की एक-एक गोलियाँ काफी हैं इस बगीचे का परमानेंट मेंबर बन जाने के लिए। ठीक उस नौजवान की तरह या लोचो राम की तरह जिसे आज भी चाँदनी रात में उजली चादर ओढ़े घूमते हुए कुछ लोग अक्सर देखते हैं।
मीठा पानी इसे जरा भी नहीं हिलाता-डुलाता? दूर नहीं कर पाता इसकी शिथिलता?.....दृश्य चल रहे हैं...। कुछ कैमरे में कैद हो रहे हैं कुछ बिसन की आँखों में छप गए हैं नागिन की आँखों की तरह......। कितनी बार पूछा था उसने रूपम से ’क्या कुछ घुनघुनाहट सुनती हो?.....क्या कोई आवाज फुसफुसाती है तुम्हारे घर में! क्या तुम्हें कभी किसी आँख में खून उतरता नजर आता है.....गौर से देखना रूपम कई बार बहुत शांत चेहरे भ्रम पैदा करते हैं और सपाट आँखें बड़ी बेदर्द बन जाती हैं। तुम्हें बहुत दुलार तो नहीं किया जा रहा है? हाँ ध्यान देना। व्यवहार अचानक नहीं बदलते और अगर ऐसा है तो सचेत हो जाना। सुन रही हो न!‘
एक चीख जो रह रह कर बजती है बिसन के कानों में.....वो चीख रह-रह के तड़प उठती है। जैसे किसी बकरी के हलाल होने के पहले का आर्त स्वर।’हत्यारो!‘ गुस्से से दाँत कटकटाता हुआ सोचता है वह। माँ और बहन को संबोधित कई गालियों को वह मन ही मन चबाता है। ......अब तो उन लोगों की खैर नहीं.....उनकी भलाई इसी में थी कि वो मेरा भी वही हाल करते।
कुत्तां के झूंड सूंघते हुए भटक रहे हैं इधर-उधर चारों तरफ.....एक-एक घर...एक-एक गली-चौराहे....पुआल के ढेरों के पास....आस-पास के खेतों में थोड़ी ऊँची छिपने लायक फसलों में घुसकर। आज वो सब कुछ तहस-नहस कर देंगे....। वह बचेगा....। उसे बचे रहना है इसलिए। बचे रहने के अलावा और कोई चारा नहीं है उसके पास।
उसने पास के गाँव के कसाइयों के चेहरे देखे हैं...। इस्माइल! हाँ सबसे कुरूप और सिद्धहस्त कसाई। कोई भाव नहीं....इतना सख्त जैसे पत्थर। जैसे खुरदुरी छाल वाले किसी वृक्ष का तना। जैसे मसाला पीसने की सिलौटी....कई जगह कटी-फटी....जानबूझ कर खुरदुरापन लाने की कोशिश। आँखों में खून की पतली-पतली नशों का जाल। जितनी बार जितने मांस के टुकड़े करने हों....जितनी बार गले पर छुरी चलानी हो चेहरे पर कोई शिकन नहीं। एक अभ्यस्त हाथ। हत्या करने के निरंतर अभ्यास से सधे हुए।....बस वैसे ही चेहरे....वैसे ही क्रूर हाथ। पर क्यों खून के प्यासे ये चेहरे और क्रूर हाथ अपनों के गर्दन तक पहुँचने पर कांपते नहीं। उन लोगों के खून में वह कौन सा केमिकल है क्या बता सकता है कोई क्रिमिनल पैथोलॉजिस्ट?.....कोई चाहे न बताए लेकिन वह हर एक की केमिकल एनलिसिस करवाएगा।
“मैं तुम्हारी सारी शान गांड में घुसा दूँगा बिजन सिंह.....। जिस शान के लिए तुमने ऐसा किया है मैं उसी शान में बंबू करूँगा...।”
बिसन चीखना चाहता है। उसे बार-बार अपने गाँव के मेले के ड्रामे में निभाए गए पाठ की याद आती है... वही कसम!....खून के बदले खून! बार-बार उसे बिमला का बीच बाजार में बंदूक चलाना याद आता है। ठीक किया था उसने अपने बाप के हत्यारे को सैकड़ो लोगों के सामने बीच बाजार में कुत्ते की मौत मारा।
कितना छोकड़ा और हंसोड़ था वह। पहली बार अपने पिता से घर-घर फूल पहुँचाने का काम उसने लिया था। तब जबकि पास के कस्बे के कॉलेज में वह पढ़ने लगा था।....कई तरह के फूल....चंपा...गेंदा....गुलाब अरहुल और भी कई और एक बड़े आंगन में पिंडे पर फूल चढ़ाते हुए ही देखा कि उसके थैले में रखे फूलों से भी एक खूबसूरत फूल इसी आंगन में है....रूपम! उसके सामने तो सारे फूल बौने हैं। एकदम फीके!
“ऐ! एक फूल हमें भी देना रोज बालों में लगाने के लिए।”
“बालों में फूल! ये तो पुराना फैशन है। पहले संथालिनें लगाती थीं। अब तो उन्होंने भी लगाना छोड़ दिया है।”
“पुराना है तो क्या हमें तो चाहिए, बस!”
और फिर उसने न जाने कहाँ-कहाँ से अच्छे फूल ढूंढे....किसकी-किसकी फुलवारी से फूल न चुराए....। पास के कस्बे के कॉलेज से लौटकर शाम में भटकता और देख आता.। फूल ढूंढ आता कि यहीं से रात को या खूब सवेरे अपना इल्म दिखाना है। हर रोज अच्छे, ताजे और सुगंधित फूल.....। फूल...फूल...फूल....
बिजन सिंह मूँछ ऐंठता है.....“क्यों बे लौंडे ये मोटरसाईकिल कब से?....किसका है?......तेरा है?.........ये कैसे? कितना पैसा है तेरे बाप को? तेरा बाप फूल बेच के करोड़पति तो नहीं हो रहा? ठहर पता तो चले तेरा बाप क्या करता है?....और सुन क्या नाम है तेरा? हाँ, बिसना इधर हमरे बस्ती में जादा गाड़ी चलाने की कोनो जरूरत नहीं, समझे....हाँ, उधर अपने घर तरफ फेरो गाड़ी।”
शैलेश याद करने की कोशिश करता है....न जाने उसकी बाईक किस अनजान गड्ढे में पड़ी होगी....यहाँ से बहुत दूर किसी खेत के बगल में किसी गहरे गड्ढे में...कई पगडंडियों से चलते-फिसलते....चोर तरीकों से चलकर....चोर रास्तों से आकर और फिर उस गड्ढे में देर तक घूमते पहियों की अजीब चुरमुरी जुबान में कहानियाँ सुनती हुई....।
बिसन का घर किसी अंधेरे कोने में पड़ा होगा.....सब कुछ उसी अंधेरे की तरफ बढ़ता चला गया है....या अंधेरा ही बढ़कर उस सबकुछ में धँसता चला गया है...। कहाँ जाना है?....अब कौन सा रास्ता है? सब कुछ तो खत्म हुआ....जैसे कोई किया हुआ वादा कलगी हो फसल की! जो टूट बिखर गई हो हवा के एक जालिम झोंके से। फिर कलगी के बिना उस हरियाली का क्या मक्सद? खत्म हो गया हो...वक्त का, खुद का।
ओखली में थकूच दिए गए अन्न के दाने की तरह ही उसे मूसलों से तोड़ा गया। उसे टूटना नहीं था फिर भी बेवक्त ही वह टूटी। ऐसा कि अब उस कड़ी को जोड़ना संभव नहीं है। इस पल की प्रतीक्षा होती रही थी...गुपचुप.....होठों को चुप्पा की तरह उसके बीचों-बीच अंगुलियाँ ले जाकर। इसकी तैयारियाँ पहले से चल रही थी।
ये क्रूर तैयारियाँ दर्ज है मल्टीमीडिया मोबाइल के चिप में। फिनलैण्ड की कंपनी नोकिया मोबाइल सैट में जो गाँव-गाँव तक पहुँचाए हैं।यह अलग बात है कि वे अन्य चीजों को नहीं पहुँचा सके...शायद यह उनका मक्सद भी नहीं था।प्यार और मुहब्बत को खैर वे अपने छोटे सेटों के माध्यम से कैसे पहुँचाते! पर खेतिहरों से लेकर गाँव के कारीगर, छोटे व्यापारी और किशोर नौजवानों तक मुनाफे के कारोबार और जातिवादी नफरत के साथ जरूर पहुँच गए ये मल्टीमीडिया सैट। जिससे वीडियो रिकार्डिंग और आवाज को सुरक्षित रखने की कला भी नौजवान खेल-खेल में ही सीख गए। तो इसी एक मँहगे मल्टीमीडिया सैट में वो सारी करतूत दर्ज होकर पुलिस के पास गई...वाया शैलेश। पहले प्रदीप फिर बिसन फिर शैलेश और तब थानेदार चन्द्रशेखर पांडेय के पास। जब यह नोकिया सैट थानेदार के हाथ में पहुँचा तो रात के ठीक बारह बज रहे थे। थानेदार और आधे दर्जन सिपाही नींद की सीटी बजा रहे थे। थाने की जीप हाथी की तरह पड़ी थी। थानेदार ने वीडियो को गौर से देखा और फिर जमुहाई लेता लंबी-चौड़ी गप्पें लहराने लगा। शैलेश की बाइक के आगे प्रेस का प्लेट लगा देखकर ही शायद वह पिस्टल के बदले गप्पें ही तान रहा था।'
थानेदार नहीं जाता है उनके साथ। वह कहता है उसकी जीप खराब है। शैलेश बड़ी चालाकी से थानेदार के हाथों से मोबाइल लेकर अपनी बाइक स्टार्ट करता है। एक...दो....तीन...और फुर्र से भगाता है अपनी बाइक। क्या पता इस थानेदार का क्या इरादा है? साला कहीं वह वीडियो डिलीट न कर दे। तीन आदमी और काबासाकी बजाज की बाइक। बाइक के दम तोड़ने के डर के बावजूद वे डर से लड़ते रहे इस उम्मीद में कि डर के आगे शायद जीत हो।......लगभग रात के एक बजे का काला सन्नाटा है। उसकी बाइक किसी गड्ढ़े में पड़ी है और वह बिसन के साथ यह खौफनाक मंजर कैद कर रहा है अपने हैंडीकैम में।
बात फिर उसी फूल पर आकर रुक जाती है। एक दिन प्रदीप ने घर आकर बिसन से कहा था.....
“बिसन! बिजन सिंह की बेटी से तुमने कुछ कहा था क्या?..”
बिसन का गला सूख जाता है।“नहीं तो।”
“अरे घबरा क्यों रहे हो। वह तो सिर्फ ये कह रही थी कि तुम आज-कल उसे फूल लाकर नहीं देते।”
“अच्छा! उससे कहना कि अब यह फूलवाला शहर में एस पी साहबका माली बन गया है और वहीं रह कर फूल की खेती करता है।”
“और कुछ कहना है तो कह दे। मैं उससे कह दूँगा।”
“और क्या कहूँ? कह देना कि कोई दूसरा माली ढूँढ ले।”
दूसरे दिन सुबह ही धनखेतों के बगल में बने मचान पर लेटे हुए गाना सुनते बिसन को प्रदीप फिर खबर देता है
“ओ गबरू जवान! वो तुझसे मिलना चाहती है। मंदिर के पीछे महुआ के पेड़ के नीचे आने को कह गई है। ठीक बारह बजे।”
कई रात नहीं सो पाता है वह। कई रात। रात को उसे तारे अच्छे लगते हैं। गुच्छों में बसे नन्हें-नन्हें मोती। शादी के मंडप के झालर से। वह आधी रात की शीतलता में कुछ ढूँढता है। जी करता है यूँ ही खड़ा रहे वह इस आसमान के नीचे। पिघल जाए। बन जाए ओस की बूंदें। वह देखता है कुछ अजीब। सपने और हकीकत के बीच। हर तरफ फूल ही फूल हैं। फूलों की घाटियों की तरह। एक फूल उसकी देह पर लदा है। बिछा है। कपड़ों की हल्की खसखसाहट की आवाजों के साथ एक देह की खुशबू फूल के साथ लदी है। और वह खुद किसी पुआल के ढेर के बीच पड़ा है। बस्तियों के घर ऊँघते हैं....ताड़ के पेड़ के पत्ते हवा की हल्की सिहरन से खड़खड़ाते हैं....सूरज भी ऊँघता है रतजगा करके....।
लगभग दो महीने बाद एस पी कोठी पर ही वह शैलेश को बताता है तो पाता है कि शैलेश बैठे-बैठे दो हाथ उछल गया है।
“बहुत बड़ा रिस्क है इसमें। जान जा सकती है तेरी।”
“....लो अब क्या जान जाने को बची हुई है। वो तो कब की चली गई है। क्या तुझे लगता है दोस्त कि मैं अब वही हूँ? तुम क्यों नहीं देख रहे हो मेरी बेचैनी। क्यों नहीं समझ रहे हो मेरी लाल आँखों का रहस्य।”
“....तुम्हारा रहस्य रोमांच जाय भांड़ में...। तुम्हारा रोमांस जाए तेल लेने। तुम हकीकत नहीं देख रहे हो। तुम नशे में हो लेकिन मैं सब कुछ देख रहा हूँ। तुम उस जाति के शान को नहीं जानते। तुम उसके खौलते खून से परिचित नहीं हो।”
“मैं सब कुछ जानता हूँ। मैं तो इसके बगल में ही रह कर बड़ा हुआ हूँ। लेकिन यार कुछ भी हो अब मैं पीछे नहीं लौट सकता। मैंने तुम्हें अपना दोस्त मानकर कह दिया अब तुम जानो।”
उस दिन के बाद से देख रहा है वह कि कैसे उसकी जिंदगी बदली है। सब कुछ उलट-पुलट गया है। रिमांड....कस्टडी का खौफ.....प्रोटेक्षन की उम्मीद....एफीडेविट...कोर्ट...मैरेज सर्टीफिकेट। ’कलैक्ट गर्ल्स बर्थ सर्टिफिकेट। यू हैव टू प्रूव दैट सी इज एडल्ट...आई मीन नॉट लैस देन एटीन इयर्स! ’जस्ट रिलैक्स्ड! कुछ भी नहीं होगा। अरे कोई बहाना ढूँढना है। उसे बाइक पर बैठाओ और सीधे जिला मुख्यालय पहुँचो। दो-तीन घंटे का काम है। यू विल बी गिवेन फुल प्रोटेक्सन!‘ वकील से बात करने में सांसे फूल रही है बिसन की। साला! अंग्रेजी को पान की तरह चबाता है। किसी तरह अपनी टूटी-फूटी अंग्रेजी से काम चलाता है बिसन। वकील के घर छोड़कर जाने किस काम के लिए चला गया है शैलेश? “जस्ट डू इट ब्रेव मैन! देयर इज ए गवर्नमेंट स्कीम टू प्रमोट इंटरकास्ट मैरेज। यू , आई मीन बोथ वाइफ एंड हस्बैंड विल बी गिवेन फिफटी थाउजैंड रुपी फॉर दैट। सो कमऑन यंग मैन!”
“डर मत यार। मैं सब सम्हाल लूँगा। कुछ घंटे के लिए तो वह बहाना बना के आ सकती है न!...हाँ तो मैनेज कर ले। बस खाली मैरेज सर्टिफिकेट मिल जाए। उसका बाप और उसके लगुए-भगुए तेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। शादी के बाद आराम से रहना। जैसे कुछ हुआ ही नहीं। फिर तुम एस पी साहब से बात करके देखना। अरे अपने काम से तुम खुश कर देना उन्हें। वो अगर चाह लेंगे तो बिजन सिंह के बाप की औकात नहीं है तेरे खिलाफ कुछ करने की।।”
बड़ा आश्वस्त करती हैं शैलेश की आँखें बिसन को। शैलेश की बातों में ठंडक है। प्यारी शीतलता!
शादी के बाद आराम से ही तो था वह! जाड़े की शुरूआत से पहले एस पी साहब के गार्डेन के लिए बीज डालने थे। फूलों की क्रापिंग करनी थी। इस बार वह अनोखे फूलों की कंबिनेशन के साथ एस पी साहब को खुश कर देना चाहता था। इस जाड़े में जब सारे फूल खिल जाएँ और एस पी साहब की मैडम यहाँ आएँ तो पूरी बहार ही उतरी हो गार्डेन में। दोनों सुबह की गुनगुनी धूप में फूलों के बीच बैंठें तो उन्हें अपने हनीमून के दिनों की याद ताजा हो जाए...और वे एक दूसरे को इन्हीं फूलों के बीच आई लव यू बोलने को विवश हो जाएँ। क्या सीन होगा यार!
दूर किसी खेत में खिक्खिर की आवाज से रात का सन्नाटा भंग होता। जलती चिता से हड्डियों के चटखने की आवाज आती है। बाँस की जड़ और आदमी की खोपड़ी के फटने के स्वर में कोई खास अंतर नहीं किया जा सकता। लगता है कि अभी-अभी रूपम की खोपड़ी फट गई है। बिसन के भीतर भी कुछ फटता है...चटाख! बस अब कुछ ही देर की बात है सब कुछ राख में तब्दील हो जाएगा। अपराधी सोचेंगे कि कोई कुछ नहीं जानता। वे लाश को ठिकाने लगाकर उसकी राख तक का नामोनिशान हटा देंगे। लेकिन उन्हें नहीं पता कि उनकी काली करतूतें कहाँ से कैद की जा रही हैं। मुखिया परमेशर सिंह का बेटा श्रवण सिंह खुशी से अपने थ्रीनट-थी से एक आसमानी फायर करता है।
“सबूत खतम बात हजम। अब साले बिसना पर ही कल केस ठोक दो। कि कल से ही नहीं मिल रही है रूपम। उसका बलात्कार कर मार तो नहीं दिया बिसना ने। लिखवा दो एफआईआर में पूरे विस्तार से किउसके फेर में पड़ा रहता था। रूपम की शादी होने के बाद भी साला उसका पीछा नहीं छोड़ रहा था।”
ए ट्वीस्ट इन न द टेल! रूपम की शादी की बात किसी को पता नहीं चलने दी गई। जाने कैसे रूपम की माँ ने किसी खुशमिजाज क्षण में रूपम से कोर्ट मैरेज का सारा भेद दे लिया। रात के किसी गूढ़तम क्षण में बिजन सिंह के कान में बात गई। फिर तो आग में बदल गया बिजन सिंह। एक ही दिन में किसी ठेकेदार के बेटे को दामाद के लिए चुना गया और रूपम बकरी बना दी गई। मुँह में कपड़ा ठूस कर उसे रखा गया। शादी न हुई कोई खिलौर हो गया। और किसी को बिना भनक लगे रूपम रातों रात बिदा कर दी। न गीत बजे न नाच गान हुआ न बाबुल रोया न माई की आँखे भरीं। आँखें तो रूपम की बरसी। इतनी कि नदी में बाढ़ आ जाए।
रात की मोटी तह को चीरती हुई गोली की आवाज दूर-दूर तक तक की शांति को हलचल से भर देती है।....हाँ खुश हैं वो उनका समाज गंदा होने से बच गया! ऐसी करतूतों के लिए सबक देना चाहते थे वे...वे निश्चिंत हैं कि यह सबक सबके लिए पर्याप्त होगा।....कल सुबह से लोग-बाग सड़कों पर घूमते, पान-गुटखा चबाते, गाँजा-बीड़ी पीते, पंचैती करते और ऐसे ही मंडली जमाते हुए चर्चा करेंगे कि अमुक की बेटी को जला कर अच्छा किया गया। साले उस मजनू को भी जला देना चाहिए। कहाँ से कहाँ जा रहे हैं ये नौसिखिए नौजवान। पेट से निकलते ही इश्क लड़ाने लगते हैं....ठीक हुआ...साली के साथ। बचपन से ही उसके चाल-ढाल ठीक नहीं थे।
शैलेश भीड़ का मनोविज्ञान जानता है। वह जानता है कि चोर को मारने में भीड़ कैसे उत्साहित हो जाती है। उसे छोड़ दिया जाए तो वे अपनी जिंदगी की सारी फ्रस्ट्रेशन उसी पर निकाल देंगे सारे कानून को ताक पर रख कर। वह प्यार से घृणा करने वाली भीड़ का भी मनोविज्ञान जानता है। सारे यही चाहेंगे कि उनके सिवा प्यार कोई नहीं करे। अपने लिए जो जिस चीज में वे मजा खोजते हैं दूसरों को ऐसा करता देख वे खीज जाते हैं...बेतूके तर्कों के साथ। धर्म ग्रंथों में उन्हीं देवताओं की पूजा करेंगे जो प्रेम के प्रतीक हैं और अपने आसपास घटित होने वाली घटनाओं पर बड़ी घटिया टिप्पणियाँ करेंगे। ऐसे लोगों के साथ क्या किया जा सकता है? इन्हें समझाना मुश्किल है।
बिसन किसी को नहीं समझा सकेगा। किसी को समझाना भी नहीं चाहता वह। बस जो ऐंठ के चल रहे हैं, मूछों पर ताव दे रहे हैं उन्हें कुछ सिखाना चाहता है। किसी की जिंदगी से खेलना इतना आसान बना दिया है इन लोगों ने। उन्हें कुछ बताना चाहता है। कैसे? उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा। थानेदार की करतूत वह जानता है। साले सब बिके हुए है। लेकिन वह छोड़ेगा नहीं...। लड़ेगा....आखिर तक...। सबूत को मिटने नहीं देगा। शैलेश के कैमरे में कैद लाश जलाने की लाइव तस्वीरें....प्रदीप के मोबाइल में मुखिया सहित सारे पंचों की पंचैती और चिल्ला-चिल्ला कर दिए गए तालीबानी फरमान....सब हैं उसके पास। एक भयानक उत्तेजना उठती है बिसन के शरीर में और उसी उत्तेजना में वह चीखना चाहता है....रूपम की लाश जलाकर जा रहे जल्लादों को चीख कर बताना चाहता है....कोई भी नहीं बच पाओगे। मना लो आज जितनी भी खुशी मनाना चाहते हो....दे लो चाहे जितना ताव देना चाहते हो मूँछों पर...। कल कोई सजा दे या न दे मैं तुमसबों को सजा दूँगा। मैं बिसन।
ऐन वक्त पर जब वह पेड़ की ओट से बाहर आना चाहता है उन लोगों के सामने और लगभग चीखना चाहता है शैलेश उसे पकड़ कर खींच लेता है और उसके मुँह पर हाथ रखकर आवाज निकलने से रोकता है। थोड़ी ही देर में बिसन का समूचा शरीर अवसन्न होकर फिर रूलाई से काँपने लगता है। शैलेश के पास कोई उपाय नहीं है इस दर्द के निवारण का। वह जानता है कि वक्त की मोटी बर्फ की परत ही इसे ढक सकती है। वह ऐसे वक्त के बारे में सोचकर मन को थिराना चाहता है कि बिसन और वह अपने सारे सबूतों के साथ कोर्ट पहुँचे हैं।सबसे मशहूर वकील उनका केस लड़ रहा है। कोर्ट में सबूतों की बौछार हो रही है। चारों तरफ से इस ब्रूटल किलिंग की थू थू हो रही है। अपराधी घिरे हैं चारो तरफ से। गाँव की सड़कों पर पुलिस की जीप और डीएसपी की जिप्सी भर्र-भर्र दौड़ रही है। जैसे वे कुत्ते ढूंढते फिरते थे बिसन को वैसे ही पुलिस कुत्ते की तरह सूँघती फिर रही है एक एक घर....पुआल के ढेर....जंगल-झाड़ी...मुखिया का बथान....हर जगह।कुछ क्रूर चेहरे जेल की काली सलाखों के पीछे पहुँच चुके हैं और कुछ चेहरे भागते फिर रहे हैं। खेत-खलिहान की मेड़ों पर उसके भागने के निशान अब भी मौजूद हैं। वे बेतहाशा भाग रहे हैं और एक अंधेरा जो उन्होंने ही पैदा किया है वही अंधेरा परछाईं की तरह उनके पीछे भाग रहा है....।
शैलेश की गोद में बिसन का शरीर थिर पड़ा है बिल्कुल बेजान लगता हुआ। आधी रोटी की तरह फेंके हुए चाँद के टुकड़े को बादल ने निगल लिया है। लेकिन दूर पूरब कहीं आसमान में रोशनी की एक हल्की रेखा तैरती है पिछले दरवाजे से दाखिल अंधेरे को दूर ढकेलने की हल्की कोशिश के साथ....।
......यह सही है कि हर कोई चाँद को छू नहीं पाता...। पर हाँ! नीली पृथ्वी और सफेद चाँद के बीच भी कहीं दुधिया सपनों के फूल जरूर उगते होंगे.....!
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श्रीधर करुणानिधि की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/09/blog-post_20.html?m=1
परिचय
नाम-श्रीधर करुणानिधि
जन्म पूर्णिया जिले के दिबरा बाजार गाँव में
शिक्षा- एम॰ ए॰(हिन्दी साहित्य) स्वर्ण पदक,
पी-एच॰ डी॰, पटना विश्वविद्यालय, पटना।
प्रकाशित रचनाएँ- ’दैनिक हिन्दुस्तान‘,
’उन्नयन‘(जिनसे उम्मीद है कॉलम में),’पाखी‘, ‘‘वागर्थ’ ’बया‘ ’वसुधा‘, ’परिकथा‘ ’साहित्य अमृत’,’जनपथ‘ ’छपते छपते‘, ’संवदिया‘, ’प्रसंग‘, ’अभिधा‘‘ ’साहिती सारिका‘, शब्द-प्रवाह‘, पगडंडी‘, ’साँवली‘, ’अभिनव मीमांसा‘’परिषद् पत्रिका‘ बिज़ूका आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ और आलेख प्रकाशित। आकाशवाणी पटना से कहानियों का तथा दूरदर्शन, पटना से काव्यपाठ का प्रसारण।
प्रकाशित पुस्तकें-1. ’’वैश्वीकरण और हिन्दी का बदलता हुआ स्वरूप‘‘(आलोचना पुस्तक, अभिधा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर, बिहार
2. ’’खिलखिलाता हुआ कुछ‘‘(कविता-संग्रह, साहित्य संसद प्रकाशन, नई दिल्ली)
संपर्क-
श्रीधर करुणानिधि
द्वारा- श्री मती इंदु शुक्ला
आलमगंज चौकी, गुलजारबाग पटना
मोबाइल- 09709719758
ई-मेल- shreedhar0080@gmail.com
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