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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

11 जनवरी, 2019


कहानीठहरी हुई धूप


भारतीय राजनीति किस भयानक तरीके से अपनी सत्ता के लिये जाति,नस्ल,साँप्रदायिकता का दुरुपयोग करती रही है,हम सब वाकिफ हैं।इसी के साथ हमारी न्याय व्यवस्था की गति इतनी धीमी है कि जहाँ एक तरफ लाखों निर्दोष  जेलों में सड़ रहे हैं,वहीं जो अभियुक्त हैं,उनको दोषी ठहराने में जैसे एक युग बीत जाता है।1984 के सिक्खविरोधी दंंगों के कुछ अपराधियों को 34 बरस बाद  जाकर हाइ कोर्ट  उम्र कैद की सज़ा सुना पाती है तो इसके बदहाल स्वरूप का अंदाजा लगाया जा सकता है,कि ये किस कदर सुस्त ही नहीं,वरन,पूर्वाग्रह या पक्षपातपूर्ण कार्य करता है। इस कड़ी में गुजरात दंगों के पीड़ित ,या बिहार में सामंती रणवीर सेना द्वारा किये कई नरसंहार के शिकार आज भी अपने लिये न्याय की अंतहीन प्रतीक्षा में हैं।

दिल्ली हाई कोर्ट में दिए फैसले नेे उन घावों को पुन: हरा कर दिया जो कभी अपनी यह कहानी लिखते हए मैंने महसूस किया था।देश में इस बीच साँप्रदायिक ताकतों ने अपना जैसा बर्बर,खौफनाक रूप अख़्तियार कर लिया है,वह बेहद नंगे रूप में हम सबके सामने है।इस मसले पर पेचीदगियाँ और खाई और गहरी की जा चुकी हैं, जिसने हमारी चुनौतियों को और-और बढ़ा दिया है।वस्तुत:भारतीय राष्ट्र-राज्य में जाति,धर्म,संप्रदाय के उभार को बेहद खतरनाक मोड़ पर फासीवादी ताकतों द्वारा  आज ले आया गया है।
मेरी यह कहानी 'ठहरी हुई धूप' उसी आहट को 34 बरस पहले सुनकर, बालमन पर पड़ते साँप्रदायिक ज़हर के प्रभाव को सामने लाने लिखी गई थी। थोड़ी- बहुत चर्चा हुई थी।इसका अनुवाद पंजाबी में भी हुआ था। यह कहानी फिर मुझे प्रासंगिक लगी है,इसीलिए बिज़ूका के माध्यम से आपके समक्ष ला रहा हूँ।बिज़ूका का शुुक्रिया।
              उम्मीद है आप पसंद करेंगे।
                       कैलाश बनवासी




कहानी 

ठहरी हुई धूप

 कैलाश बनवासी



कैलाश बनवासी 



      हमेशा की तरह मम्मी ने ही जगाया था—ए-ए–s s s ई सीटू ! उठो !
      ऊँ s s s अ....वह नींद में कुनमुनाया.
     --ओए उट्ठ ! सकूल नी जाणा तैनूं ? आँ..अ...?
     सीटू हड़बड़ाकर उठ बैठा.  आँखों में नींद की हलकी पहचान अब भी थी.सुबह का हल्का सफ़ेद उजास भीतर सरक आया था.
     स्कूल? वह सोचने लगा. ठीक. आज ही तो जाना है.कल वह मम्मी से बार-बार पूछता रहा था,मम्मी...कल स्कूल खुलेगा ? तो मम्मी ने कहा था, हाँ,आज कर्फ्यू हट गया है,कल से खुल जायेंगे.
     ये स्कूल भी कैसी अजीब चीज है न? जब खुलती है तो छुट्टियों का जिक्र होने लगता है और छुट्टियाँ हों तो स्कूल का.
    “ तो फिर स्वीटी भी जाएगी ?”
    “वो तो अभी तक सो रही है. उसे भी उठाती हूँ.” मम्मी चादर-कम्बल तह करके दूसरे कमरे में चली गई स्वीटी को उठाने. उनके जाते ही कमरे में  एक भीगी ख़ामोशी भर गयी.ओस से ठंडी हुई. खिड़की के बाहर धुंध भरा सफ़ेद आसमान है. पास की खिड़की से फूलदार लतरें सिर उचककर झाँक रहीं हैं. उनकी कोमल पत्तियों में ओस का गीलापन है...और ठंडापन. पेड़ से चिड़ियों की चहचहाहट आ रही है...
      मम्मी जब स्वीटी को जगा रही थी तभी दीवार घड़ी ने छह बजने की सूचना दी. मम्मी खीजी हुई  थीं—ओ,उट्ठ !छह तो यहीं बज गए ! स्वीटी देर तक सोती है.चोटी है शायद इसलिए.उसे उठाए-उठाते मम्मी भी खासा परेशान हो उठती हैं.झल्लाती हैं. और स्वीटी है कि उठेगी फिर धम्म से बिस्तर पर गिरेगी...चादर ओढ़कर सिकुड़ जाएगी. और गहरी नींद में होने का नाटक करती है—खर्र...खर्र...खर्र...!नक् से जबरदस्ती आवाज निकलती है. खीजकर मम्मी पूरा चादर खींच देती है—रुक बदमाश!  ओए सीटू! ऐन्नू जगा जरा! मस्ती करती है सबेरे-सबेरे ! तब भी वह पूरी ताकत से आँखें मीचे पड़ी रहती है.फिर एक शरारत भरी मुस्कान से उसका चेहरा भर जाता. आखिर हँसते-हँसते उठ जाती. कहीं मम्मी का दिमाग ख़राब हो तो दो-एक चपत भी पड़ जाती. वो जोर-जोर से रोने-चिल्लाने लगती,पापाsssआ !देखो न मम्मी नूँ !

      उसके पापा का बिस्तर खाली था. टहलने निकल गए होंगे सफ़ेद झबरे पप्पी को लेकर. खाली-खाली सड़कों पर खामोशी बिछी होती. जेल रोड...चर्च रोड...जी ई रोड...एक घंटा टहलकर आते हैं. लेकिन आजकल...आजकल नहीं जाते. बस फेन्स के भीतर ही ओस नहाई घास घास पर नंगे पैर टहलते रहते हैं.और पप्पी कूँ-कूँ  करता इधर-उधर घूमता रहता है,जाने क्या कुछ सूंघता हुआ.

     उसके पापा इन दिनों परेशान रहने लगे हैं.पिछले कुछ दिनों से. वासी भी कम बोलने की आदत है.आजकल तो और कम हो गया है.कुछ भी पूछो तो उसी परेशानी की हालत में हाँ-हूँ ठीक है...या ऐसे ही शब्दों को दोहरा देते हैं. इससे ज्यादा कुछ नहीं.फिर उसकी या मम्मी की कुछ पूछने की हिम्मत नहीं पड़ती. लेकिन स्वीटी जरूर टांय-टांय करती रहती है और अपने स्कूल या टीचर आदि के बारे में बताने लगती है. पापा उस पर गुस्सा नहीं करते.बल्कि यह कभी-कभी उन्हें तनाव से रहत दिला देता है.—पापा,आम लोग मतलब आम वाला आदमी होता है ?जो इधर टोकरी उठाए आता है...?

    अख़बार  का बहुत बेसब्री से इंतज़ार रहता है पापा को. अख़बार आते ही सब कुछ भूलकर पढने में लग जाते हैं—जैसे सारी ज़िंदगी का भविष्य उसमें लिखा हो ! और अख़बार भी कैसे डरावने हो गये हैं! पढ़ते-पढ़ते सारा लहू एकाएक जम जाता है! क्रूर,अमानवीय हरकतों से भरी ख़बरें...बड़े-बड़े,काले-काले हर्फों में !कितनी सारी ऐसी ही ऐसी ख़बरें...बेहद डरावनी !...लगता है किसी भयानक जंगल में जानवरों के बीच फेंक दिया गया हो—निहत्थे...निरीह...
    ...ज़िन्दा जला दिए गए...घर लूट लिए गए... आग़...हत्या...लूट...
     पापा को अख़बार वाले लड़के से अख़बार लेते वक़्त अजीब-सा डर लगता है...भीतर ही भीतर एक थरथराहट. और अख़बार की ख़बरें...कितना निर्दयी और हिंसक हो गया है अख़बार !
    पापा बरामदे में इजी चेयर में अख़बार पढ़ते धंसे हैं. मुझे देखकर हलके-से मुस्कुराए—उठ गया !
    “जी पापा.”
    “तैयार हो जा तू जरा जल्दी,” पापा कह रहे हैं, “आज स्कूल जाना है...बस इधर आएगी तो बिठा दूँगा तुझे...ठीक है ?” और पापा ने अख़बार का पन्ना उलट दिया है.वह कुछ सोचता चलने को हुआ,तभी जाने कहाँ से पप्पी आया,और पापा के पैरों पर लोटने-खेलने लगा. इस बेचारे को यह सब क्या मालूम. अगर पता होता तो शायद ही खेलता...जैसे हम नहीं खेल रहे हैं आजकल. इसे क्या मालूम कि क्यों पूरा शहर ही एकदम अपरिचित हो गया है...बिलकुल अजनबी! कैसा हो गया है शहर...और सारे लोग...?
    उसके तैयार होते-न होते सुबह का सुनहला और मुलायम धूप का चौकोर टुकड़ा खिड़की से छनकर कमरे के भीतर कूद आया था. फेंसिंग के भीतर लगे पेड़ों की पत्तियाँ धूप में  झिलमिला रही थीं,एक नई और खिली चमक से. थोड़ी देर पहले का सफ़ेद कोहरा धीरे-धीरे ही सही सिमट रहा था.
    मम्मी उसके जुड़े में सफ़ेद रूमाल बाँध चुकी थी.रसोई से उसका टिफिन तैयार कर ले आयी. फिर टिफिन देते वक़्त उसे जोर देकर समझाती रही, “ देखो बेटा, किसी से भी झगड़ा –लड़ाई नहीं करना...तू बस अपनी पढ़ाई में ध्यान देना,कोई कुछ भी बोले...कहता रहे...
    सीटू मुस्कुरा पड़ा.मम्मी तो मुझे बस ऐसे समझा रही है जैसे मैं कोई पहली बार स्कूल जा रहा हूँ ! क्लास सिक्स का स्टूडेंट हूँ, तो भी मम्मी मुझे आज क्लास वन का समझ रही है !
    “पर मम्मी,कोई पहले से लड़े तब?”
    “ ऊँssहूँ !तब भी नी लड़ना है तुझे...समझा?” मम्मी काफी सख्त़ी से बोलीं, “कोई लड़ाई नई !”                  उसे बहुत अचरज हुआ,क्या हो गया है मम्मी को? वो मम्मी जो हमेशा कहती आई है,कोई मुंडा तैनूँ मारे,तू भी मार के आना !बाद में देख लेंगे.डरना नई है !

    सीटू समझ गया. अभी तक लोगों में गुस्सा है. कितनी तो दुकानें लूट चुके...घर जला चुके..जिंदा जला चुके .. और कितना...? आज कर्फ्यू हटा है तो स्कूल खुल रहे हैं..सब ठीक हो गया होगा बाहर...
    पापा के ऑफिस के दोस्त इधर कई-कई बार आ रहे हैं.पापा और मम्मी को समझाते. कुछ दिनों की बात है. सब ठीक हो जाएगा.एक अंकल ने तो घर का नेम-प्लेट ‘एच.एस. भाटिया’ को निकालकर ,उसकी जगह किसी गोकुल प्रसाद पाण्डेय का पुरानी और खरोंच खाई टीन की पट्टी लगा दी है,हफ्ते दिन पहले.कल शाम चौधरी और वर्मा अंकल आए थे. कितनी देर तक समझाते रहे थे,बात करते रहे थे,जाने क्या-

कुछ...देश...सम्प्रदाय...पंजाब....हत्यारे...लूट...दंगे...उनके चेहरे कभी आवेश में तमतमा जाते,तो कभी कमरे की हलकी रोशनी में उन पर कोई स्याह छाया ठहर जाती,जो फिर देर तक जमी रहती. कोई किसी से नही बोलता था.पापा का चेहरा कितना निरीह लग रहा था,सब कुछ लुट-पिट गया हो जैसे,और कहने के लिए उनके पास अब कुछ बचा ही न हो...
   मम्मी तो जब-तब सुनकर बस रोने लगती थी, ‘ये ज़हर कैसे फ़ैल गया लोगों के बीच? कल तक तो कुछ भी ऐसा नहीं था. अचानक..?








   ‘ तू हिम्मत नाल काम ले ! वाहे गुरु दी मरजी! रब्ब सब ठीक कर देगा.’ पापा मम्मी को दिलासा देने की कोशिश कर रहे थे,तब भी मम्मी का रोना कम नही हुआ था...बल्कि दिल्ली और इंदौर वाले भाइयों की याद एकदम उभर आई थी...जिनका कुछ पता नहीं चल रहा....भीतर से बहुत गहरी हूक उठी थी...
    “भाभी,आई नो...व्हाट इज द मैटर....डोंट वरी...  सब ठीक हो जाएगा....ठीक हो जाएगा...” बहुत अच्छा बोलने वाले चौधरी अंकल भी ढंग से समझा नहीं पा रहे थे...आवाज़ जगह-जगह अटक रही थी.
    “बस प्राजी,आप लोग हैं तो बहुत सहारा है...”मम्मी का सफ़ेद चेहरा आंसुओं से तर हो चुका था.

     “चल ओए सीटू...बस भी आती होगी अब.”
   पापा ने आवाज़ दी. पीठ पर स्कूल बैग संभाले वह पापा के पीछे हो लिया. उसने मुड़कर मम्मी को टाटा किया....बाजू में खड़ी स्वीटी को जीभ दिखाकर चिढ़ाया,तो बदले में उसने भी वैसे ही चिढ़ाया.स्वीटी की क्लास ग्यारह बजे से लगती है.

सड़क के मोड़ पर उसने मुड़कर देखा था घर की तरफ.आश्चर्य हुआ,मम्मी अब तक गेट के पास ही कड़ी थी.मम्मी भी अजीब है.वह क्या कोई दूसरे गाँव जा रहा है?
 मम्मी कल और आज,कितनी दफे पापा से कह चुकी है,ज़रा ड्राइवर को समझा देना... इसके टीचर को भी कह देना,पूरा-पूरा ध्यान रक्खे.टीचरों का क्या है ?अपने गप्प से ही फुरसत मिले तब ना?..मेरा तो जी डर रहा है... मोड़ पर इमली का खूब बड़ा और घना पेड़ है.बस यहीं रुकती है.कालोनी के स्कूली बच्चे यहाँ जमा होते हैं,बस का इंतजार करते.
वहाँ गौतम,अखिल और शेष खड़े थे,उसके क्लासमेट
उनके पहुँचने पर सीटू ने देखा,असहजता की छाया उनके भोले चेहरों पर फ़ैल गई है,नमस्ते करना तक भूल गए थे वे.पापा ने उन्हें देख मुस्कुराने की कोशिश की...सीटू को लगा,इस कोशिश में उनका चेहरा ज्यादा विकृत हो रहा है...
    न-नमस्ते अंकल !  अखिल ने हड़बड़ा कर जैसे औपचारिकता पूरी की.
    “नमस्ते बेटा ! बस नहीं आई क्या ?”
    “टाइम तो हो गया अंकल...” गौतम परेशान-सा दायीं ओर देख रहा है,जिधर से बस आती है.
    उसके पापा को भी एकाएक समझ नहीं आया,अब क्या करे? सात पचीस हो गए हैं...बस आज आएगी भी या...?तभी उनकी आँखें अखिल पर गयीं,जो बहुत ध्यान से उन्हें देख रहा था...उन्हें नहीं,उनके दाहिने हाथ के स्टील के वजनदार कड़े को...जो धूप में चमचमा रहा था. ...भयभीत आँखें...उसके पापा को यह बहुत अटपटा लगा.पर क्या कर  सकते थे इस वक़्त...समय ही इतना डरावना है कि...

सीटू अपने साथियों के बीच जा खड़ा हुआ.बतियाने लगा.इतने दिन बाद जो मिले हैं.लेकिन जाने क्यों उसे लगा,इनमें वह पहले जैसा उत्साह नहीं है..कोई चीज़ है जो उन्हें ऐसा करने से रोक रही है...
    बस आयी. सफ़ेद और धूली-पूँछी और खुश लगी,गोया इतने दिनों—दस दिनों-के बाद आने में उसको भी बहुत ख़ुशी हो रही हो ! साफ़ पारदर्शी खिड़कियाँ.रुकने पर वहाँ हल्का शोर हो गया...साथियों को इतने दिन बाद देखने की भीतर से छलकती खुशी !
    अचानक बस की एक खिड़की से किसी की तेज़ आवाज़ गूँजी—अरे,देख...सरदार...!
    फिर तो सभी बच्चे उसके पापा को ही देखने लगे,अजीब निगाहों से...कुछ भय..कुछ गुस्सा...
   और वहाँ से आती फुसफुसाहटों को सुना जा सकता था...
   --येई  तो हैं हत्यारे...
   --अरे! इन ने मारा इंदिरा गांधी को ?
   --चुप. सुन लेगा! तो...
    किसी के डपटने पर वे चुप हो गए.फिर आपस में ही फुसफुसाने लगे,कोई महत्वपूर्ण बात कहने के अंदाज़ में.
   --ऊँ s s हूँ...इन्ने नहीं...दूसरा है वो. वो आदमी तो पकड़ा गया....न्यूज नइ सुना तू ?
   -- अरे इसको थोड़ी पता है! ये तो पूरा डफर है ! मालूम नइ तेरे को... लास्ट मंथली टेस्ट में इसको मिस ने कित्ता नंबर दिया है? जीरो ! बताने वाला बच्चा एकदम खिलखिला पड़ा.
   ---अच्छा, और तेरे को ? साइंस में कित्ता मिला है जरा बता वो भी ? ओनली थ्री आउट ऑफ़ ट्वेंटी! अपमानित बच्चे ने प्रतिकार में उड़ेल दी अपनी बहुमूल्य जानकारी.और हिंदी में भी फेल! चल बता,सरदार पटेल की बर्थ कब और कहाँ हुई...?
   फिर सरदार !बच्चे फिर खिलखिलाए खुलकर.
   किसी ने नीचे झाँका.तो बताया,अबे मोटू,देख...सरदार नीचे ड्राइवर से कुछ बात कर रहा है.
   कहाँ...? किस तरफ...?
   बच्चे झाँकने लगे.अपनी सीटों से उछलकर. सीटू के पापा बस ड्राइवर को कुछ समझा रहे थे. बच्चों को कुछ सुनाई नहीं पड़ा. वे उसके पापा के हाथ हिलाकर बात करने के ढंग से अनुमान लगाने लगे,कोई सीरियस बात हो रही है.
   बस ड्राइवर को उसके पापा ने बहुत अच्छी तरह समझा दिया है.अब परेशान होने की कोई बात नहीं है.बाद में उसके स्कूल जा के प्रिंसिपल से भी मिल लेगा.ड्राइवर ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा था—आओ चिंता बिलकुल न करें सरदार जी...आपका बच्चा हमारी बस में चढ़ा,समझो हमारा हो गया. छुट्टी के बाद सही-सलामत घर पहुंचेगा बच्चा !ये हमारी जिम्मेदारी!






   ड्राइवर के बरसों से धूल-गर्द खाता चेहरा...पिलियाई किन्तु ठहरी हुई अधेड़ आँखों को देखकर उसके पापा को भरोसा मिला था. बहुत. इसीलिए उनने उससे बहुत गर्मजोशी से हाथ मिलाया था—खुरदरी किन्तु गर्म हथेली. और उसकी हथेली की गरमी चुपचाप पापा के भीतर सरक आई थी.बल मिला था.विश्वास बढ़ा था...सब पहले जैसा ही है...इंसानियत कम नहीं हुई है,इतनी नफरतों की आग़ के बावजूद.
    सूनी सड़क पर चलते हुए सहसा उनकी चाल में एक बेफिक्री आई. सोच रहे थे,अच्छा हुआ,जो सीटू का बस नहीं छुड़वाया...वो तो साइकिल से जाऊँगा कहता था इस साल...साइकिल से जाना अभी ठीक नहीं...अकेला देखकर...कहीं कुछ...वह इससे आगे नहीं सोच पाए.

   यद्यपि बस की साड़ी खिड़कियाँ बंद हैं,फिर भी किसी संध से ठंडी हवा भीतर घुस जाती है.कान सनसना जाते हैं.नवम्बर के दूसरे सप्ताह की ठण्ड.इस बार दिसंबर से भी ज़्यादा सर्द और चुभने वाली हो गई है. सारे बच्चे स्वेटर और कोट से लदे-फदे हैं.सूरज गरमी दे रहा है,पर बहुत धीरे-धीरे...
    सीटू की बगल में उसका ख़ास दोस्त अनिल बैठा है-- बात-बात पर ख़ूब चहकने वाला ! पर आज चुप-चुप-सा है,न जाने क्यों. वह उनकी कालोनी के पास के मुहल्ले विवेकानंद नगर से आता है.क्रिकेट खेलने वह सीटू के कालोनी के ग्राउण्ड में आता है.अक्सर बस में,उसके साथ तीन-चार और शरारती दोस्त मिल जाते हैं,फिर वो धूम की पूछो मत! फ़िल्मी गाने हों या पोएम,या यहाँ-वहाँ से सुने चुटकुले...धमाल मचाते रहते हैं,इतना कि बस कंडक्टर या ड्राइवर को जब-तब टोकना पड़ता है. सीटू को तो जो जी चाहे कहकर चिढाते रहते हैं –और जुड्डा !कि हाल है बाश्शाओ ! चंगा सी! या उसके नन्हें-से प्याजनुमा जूड़े को छूकर कहेंगे- ओए टमेटो ! कभी बोलेंगे, सरदारजी, बारा बज गए ! और खिलखिला पड़ेंगे बेतहाशा.
   ‘अच्छा,वो चुटकुला सुना है---दुनिया का सबसे छोटा चुटकुला ! ---कि दो सरदार शतरंज खेल रहे थे !’
    आज ये सब चुप हैं.उस पर हंसते थे,बुरा लगता था.पर यह तो...?
   “सीटू,तेरे पापा की दुकान है कोई ?” पीछे की सीट से शैलेश पूछ रहा है.
   “नहीं तो ! पापा तो ऑफिस जॉब करते हैं...यहीं एल.आई.सी. में...क्यों..?”
   “नहीं. मैं तो ऐसेइ पूछ रहा था. सोचता था, दुकान होगा किसी चीज का.”
    वह हँस पड़ा—“नहीं यार! पर हमारे कुछ रिश्तेदारों की है.”
   “--हमारे मुहल्ले में न...एक सरदार को बहुत मारा लोगों ने !बिचारे की पूरी दुकान लूट डाली!उसकी कपडे की दुकान थी...फिर जीतता कपडा जो चाहे,लूट के ले जा रहा था...सच्ची!”
    बात की डोर सामने की सीट पर बैठे चश्मुद्दीन संजय ने पकड़ ली—ऊँssअ...ये तो कुछ भी नइ ! मेरा भाई है न दीपू...वो उधर गया था,मार्केट की तरफ.साथ में उसके दोस्त भी थे. डैडी ने मना किया था,तब भी गया था. दुफेर में आया तो एक घड़ी लाया था...कान में लगा के सुना,बजती थी टिक-टिक. और पता है,वो चौक वाली शराब की दुकान है न,उसको भी लूटा! पापा के लिए दो बोतल भी लाया. बता रहा था,लोग सड़क पर बोतल-पे बोतल फोड़ रहे थे...”
   “‘तेरे पापा डांटें नइ उसको ?’’ किसी ने पूछा.
   “ डांटेंगे क्यों ? उल्टे खुश हो गए ! उनका हफ्ते भर का जुगाड़ जो हो गया था !’’ वह हँसने लगा.
    सीटू का खून अब मानो जमने लगा था.गहरे सन्नाटे में...हतवाक.
    लेकिन लड़के अपनी-अपनी सुनाने में लगे थे.—‘ तुम्हारे घर दूधवाला आता था? हमारावाला तो आता ही नहीं था. कर्फ्यू जो लगा था. हफ्ते भर पाउडर दूध की चाय पीते रहे. मजा नहीं आता था.’
    ‘हमारे चाचा का एक दोस्त वीडियो वाला है. घर में रोज पिक्चर देखते थे...बहुत मजा आया !’
फिर एक बोला,’तूने इन्द्रा गांधी को देखा ? टी.वी.में ? कैसे वो सोई सामान पड़ी थी. और बाप रे! कित्ती भीड़ ! भयंकर भीड़ !’ 
     ‘हाँ ,हमने भी देखा....राजीव गाँधी भी था...एकदम उदास...’
     ‘तूने अमिताभ बच्चन को देखा ?’
     सीटू को याद आ गया. उन लोगों ने भी देखा था. सब कुछ. मम्मी तो एकदम रोने लगी थी जब चिता को अग्नि दी गयी थी...कैसा तो जी हो गया था..पापा भी बहुत उदास थे..और डरे हुए भी...कि कब न जाने क्या हो जाए..?
    पीं ई ई ई....पीं ई ई ई ...
    बस बुरी तरह चीख रही थी. आस-पास को झिंझोड़ती. यह शहर की व्यस्त सड़कों में है.रास्ते में लोगों की भीड़-भाड़ है.कर्फ्यू  खुले आज पहला दिन भी है. शायद इसीलिये. कर्फ्यू में पूरा शहर एक सहमे हुए सन्नाटे में कैद हो गया था. गली और सड़कें सब सूनी हो गई थीं. दरवाज़े बंद.कोई बाहर झांकता नहीं था.पुलिस की गाड़ियों के साइरन जब-तब बजते रहते थे...डर को और-और गहरा करते हुए. पापा उस शाम बाहर निकले थे. लगभग अँधेरा हो जाने के बाद.कोई बहुत ज़रूरी फोन करना था. मम्मी ने मना भी किया था,पर माने नहीं थे.उनको लगा था,अभी हमारे यहाँ इत्ती बुरी हालत नहीं हुई है,जितनी कि दिल्ली..या भोपाल...वह भी पापा के साथ था,स्कूटर की पिछली सीट पर. पापा बहुत सावधान थे. पर मालवीय चौक में सहसा कुछ लोगों की भीड़ मिल गई और उनकी आवाज़ें...
     ---अरे सरदार! पकड़ साले को!
     ---मारो साले  को!!






      वे दौड़े.पापा ने तुरंत स्कूटर मोड़ लिया था और फुल स्पीड पर गाड़ी छोड़ दी थी...न जाने किन-किन गली-सड़कों से गाड़ी भगा रहे थे. अँधेरा था,तब भी पापा ने हेडलाइट चालू नहीं की थी. किसी तरह आधे घंटे बाद घर पहुँचे थे...
    ...‘अरे वो देख...कित्ता बड़ा मकान जल गया है !’ कोई बस में चिल्लाया.
      सड़क में यहाँ भीड़ थी.बस रेंग रही थी धीरे-धीरे... उसने देखा, बहुत बड़ा मकान था. जल गया नहीं, जलाया गया था. हिंसक बर्बरता से. मकान जलकर लगभग ढह चुका था...अधजले काले दरवाज़े...खिड़कियाँ...छत....राख और धुआँ...
     काला धुआँ अभी-भी ऊपर बिखर रहा था..किसी कोने से..पूरा मकान श्मशान में बदल गया था.जहाँ-तहाँ लकड़ियों के जल चुकने के बाद सफ़ेद अवशेष पड़े हुए थे...वहाँ की राख शायद अभी भी गर्म होगी...
     धीरे-धीरे बस आगे निकल गई.
     “तुम लोगों का कुछ नहीं जलाया गया ?”
    “नहीं...” उसने अपनी आँखें उस लड़के पर जमा दीं जिसे उनके कुछ नहीं जलाए जाने पर आश्चर्य      हो रहा था.
      लड़के कुछ और भी सवाल करते रहे.वह कुछ बता नहीं पा रहा था.. गले से बोल ही नहीं फूट रहे थे...रूंध गया था... बताए भी कैसे ? और क्या ? कैसे बताए कि वे खुद सप्ताह भर बाद बाहर की दुनिया देख रहे हैं ! गुरप्रीत अंकल का पूरा परिवार बाहर से ताला लगाकर भीतर बंद था !पहचान छुपाने कितनों ने अपने बाल कटवा लिए... कैसे बताता कि गुरुनानक नगर वाली आंटी का पूरा घर जला दिया गया ! कि इंदौर और दिल्ली वाले मामा की कोई ख़बर नहीं. कहीं जला तो नहीं डाला लोगों ने...? अंधे हो गए है लोग ! पागल हो गए हैं !
     आतंक...यातना...! दस दिनों से सुई की तरह हर पल चुभ रहा है...सोते-जागते...
स्कूल में मन नहीं लग रहा था. सीटू ने सोचा,उसे स्कूल नहीं आना चाहिए था.क्योंकि हर टीचर की आँखें उस पर एक पल के लिए ठहर जाती थीं...अजीब और ठंडी आँखें...फिर सहसा याद आते ही वे पढ़ना शुरू कर देते—‘ओ,येस...’
 
   कुछ दिन बाद,दोपहर का वक़्त.
   कालोनी के क्रिकेट ग्राउंड से खेलकर लौट रहे हैं वे.सीटू,अनिल,विजय...
   रास्ते में सीटू का घर आ गया.
  “ अबे चल,पानी पीना है न तेरे को ?” कुछ देर पहले अनिल ने सीटू से कहा था,इसलिए सीटू ने कहा.
    बरामदे में लाकर बिठाया. ‘मैं अभी आया पानी लेकर...’ वो बैठ नही रहे थे तो सीटू ने जिद से कहा, ‘अबे बैठो न...’ जाते-जाते फैन ऑन कर गया कि पसीना सूख सके.
     फ्रिज से पानी की बोतल निकल कर ले आया सीटू.
     ले ! गिलास में भरकर उसने आगे बढ़ा दिया.
    अनिल को प्यास लगी थी.  उसने हाथ आगे बढाया. थोड़ा हिचकिचा गया... हड़बड़ाकर बोला,   ‘..अरे... पहले तू पी न...?’
    सीटू को गुस्सा आ गया, “अबे प्यास तेरे को लगी है कि मेरे को...?”
    “ऊँ हूँ ...पहले तू पी.”
     वह झल्लाया,”क्या है यार तू पी तू पी !” और गटागट पी गया.
     अनिल उसका पीना बड़े ध्यान से देख रहा था.जैसे पी लेने के बाद कुछ होने वाला है...
     चल,अब तो पी ! उसने गिलास भरकर उसकी तरफ बढ़ा दिया.
    अनिल पी गया. मुँह पोंछता हुआ बोला, ‘ठंडा है. थैंक्स. अच्छा अब चलें...’
    “बैठेगा नइ ?’’
    “नहीं यार....डैडी गरम हो रहे होंगे...” 
    वे दोनों गेट से बाहर निकल आए.

     बाहर तेज़ धूप थी,चमकती हुई.
     रास्ते में अनिल विजय से बोला, “तेरे को मालूम,मैं पानी पहले क्यों नहीं पिया ?”
    “ठंडा था इसलिए...?”
    “अबे नइ ! तू नहीं जानता. हिन्दुओं ने सिक्खों का मारा है ना...इसीलिए अब पंजाबी भी हिन्दुओं को मारने वाले हैं...मैंने सुना है... क्या मालूम,पानी में जहर मिला होता तो...!!”
    “ सच्ची ? अरे, ऐसा तो मैंने सोचाइ नई !”
     कालोनी की सड़क सुनसान थी. पेड़-पौधे अलसाए खड़े थे. उदास और चुपचाप. धूप जहाँ की तहाँ ठहरी हुई।
००
कैलाश बनवासी की एक कहानी और नीचे लिंक पर पढ़िए


रोज़ का एक दिन
कैलाश बनवासी
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कैलाश बनवासी, 
41, मुखर्जी नगर,
सिकोलाभाठा.दुर्ग (छ.ग.) 
मो.  98279 93920

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