साक्षात्कार: लीलाधर जगूड़ी
कवि को शब्द की कान और आंख एक साथ बनना पड़ता है
(वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी से शशिभूषण बडोनी की बातचीत)
शशिभूषण बड़ोनीः आजकल जो कविता युवा लिख रहे हैं उनमे आपकी नजर में किस तरह के अनुभव आ रहे हैं।
लीलाधर जगूड़ीः मेरी समझ से न कोई युवा कविता होती है, न कोई बूढ़ी कविता होती है.....कविता हो...कहानी हो ...उपन्यास हो...और चाहे कोई भी विधा हो किसी भी उमर में वह एक लेखक या रचनाकार की अभिव्यक्ति का माध्यम हुआ करती है। उम्र का भी महत्त्व है लेकिन उसी तक सीमित रहना ठीक नही है। खराब लेखक बचपन में अगर खराब लिखता है तो यह उम्मीद की जाती है...कि वह आगे ठीक लिखेगा...यदि वृद्ध होकर भी वह खराब लिखता है तो वह मरने के बाद भी अच्छा नही लिख सकता....खराब लेखक मरने के बाद खराब लिखता है और खराब ही लिखता है। दुनिया में बहुत से लोग हुये हैं जो अपनी जवानी के प्रथम चरण में बीस से चालीस वर्ष के भीतर मर गये और उन्होंने अपना अच्छा लिखा हुआ हमारे लिये विरासत में छोड़ा है। और बहुत से लोग शतायु होकर मरे हैं...पर उनकी अपेक्षा तीगुनी-चौगुनी अच्छी रचनायें लेकर नहीं मरे हैं। लिखने का भी एक जुनून होता है.....और वह किसी भी उम्र में जाग सकता है। किसी भी उम्र में अच्छी रचना आ सकती है।
तुलसी दास और टालस्टॉय बुढ़ापे में अच्छे लिखने के उदाहरण हैं....। केशवदास जैसे बुढ़ापे में खराब लेखक के भी हमारे यहां उदाहरण मौजुद हैं। फिर भी उनकी मेहनत देखते बनती है। उन्हें समझने के लिये जरूरत से ज्यादा टैक्नीकल होना जरूरी नहीं। इतना बहुज्ञ की कहीं से भी कोई अपको अल्पज्ञ न समझ सके। वैज्ञानिक दृष्टि और टैक्नीकल होने में अन्तर है।
आज के युवा लेखक (यही सवाल था न?) कहानी जैसी कहानी और कविता जैसी कविता लिख रहे हैं...वह विस्फोटक नहीं लगते.....बल्कि मैं यूं कहूं कि न वह बहुत ज्यादा ठंडे लगते हैं न बहुत ज्यादा गरम। ऐसे लगता हैं जैसे कोई देहरादून की घोसी गली से कोई एक और अखबार निकल आया है...। किसी दूसरे अखबार का आखिरी समाचार उसमें पहला समाचार हो सकता है......और पहला समाचार उसका आखिरी समाचार हो सकता है। समाचार सब मिलते-जुलते हैं।
युवा का मतलब है, नयी जमीन तोड़ने वाला.... नये संदर्भ ढूढ़ने वाला..... नयी भाषा रचने वाला..... और जैसे कुछ नहीं कहा गया है........वैसा कुछ कहने वाला .....। बल्कि युवा लोगों ने तो कभी -कभी आश्चर्यजनित अनुभव से परिपूरित को बूढ़ा दिखाई देना चाहिए। लगना चाहिए कि इसके पास इतनी अनुभव सम्पदा कहां से आ गयी? युवा होना अनुभवहीन होना नही है....। युवा होने का मतलब ज्ञानबद्व होना। ज्ञानबद्व व्यक्ति परम्परा कायम कर सकता है। मूर्ख युवा उसी डाल को काट सकता है जिस पर बैठा हो...। कालीदास बनने के लिये पेड़ से उतर कर जमीन पर आना जरूरी है और पापड़ बेलना भी। अनेक पराजयों से गुजरने के बाद ही कालीदास हुआ जा सकता है। अपनी पुरानी जीभ भी काट कर चढानी पड़ सकती है। मतलब की नयी जबान पैदा करनी पड़ेगी। कालीदास ने अपने लेखन को ही नही अपनी श्रृति को भी सुधारा। अस्ति कश्चित वाग् विशेषः। कवि को शब्द की कान और आंख एक साथ बनना पड़ता है। अनुभव के पापड़ बेलने वाले युवाओं की रचना अलग से दिखती है और दिखानी चाहिए। रचना का भाव कलेवर एक स्थापत्य की तरह भी दिखना चाहिए। आज के युवा लोगों की रचनाओं में ना तो टैक्नॉलॉजी की आहट ज्यादा दिखती है और न वे पिछ़डेपन का यशोगान करने से अपने को बचा पाते हैं......। मैं अक्सर देखता हूं कि अभी भी लोग गांव की बदहाली को सौंदर्य और शान्ति के प्रतिक के रूप में देखते हैं। जबकि गांव आज दूर्दशा का प्रतीक है। चारों ओैर शहर बनने की होड़ लगी हुयी है। इस होड़ की अन्दरूनी विडंबना की कहानी और कविता कभी देखी है आपने?
शशिभूषण बड़ोनीः बडे़-बडे़ साहित्यकार भी लेखन की शुरुआत कविता से करते हैं लेकिन बाद में वह कविता को कोई बड़ी विद्या नही मानते। मसलन नामवर सिंह, राजेंद्र यादव आदि ने भी शुरुआत कविता लेखन से ही की थी....।
लीलाधर जगूड़ी : बडे़-बडे़ साहित्यकार कविता से शुरुआत जरूर करते है, लेकिन अन्त तक भी वह कविता को साध नहीं पाते हैं और फिर कविता का पिंड छोड़ देते हैं.... यह अच्छी बात नहीं। ठीक उसी तरह कुछ लोग कविता के अलावा कुछ नहीं लिखते और कविता के पीछे डण्डा चलाते रहते हैं। इससे भी कविता कमजोर होती है...यह भी अच्छी बात नहीं। कवि के गद्य और उसकी कविता के गद्य में स्पष्ट फर्क होना चाहिए। विनोद कुमार शुक्ल जैसा घालमेल नहीं।नामवर सिंह का उदाहरण कविता से शुरुआत करने के मामले में एक अच्छा उदाहरण है।.....क्योंकि उन्होने कविता के मर्म को सबसे अधिक समझा है। और समझाया है...। जितना वे लोग नहीं समझा सके जो जिंदगीभर कविता लिखते रहते हैैं, कविता का मर्मज्ञ होना भी कवि होने से कम नहीं।खराब कविता लिखने से अच्छा है कि कविता की अच्छी आलोचना...अच्छी समीक्षा प्रस्तुत की जाय...और नामवर जी ने कविता की समझ को जिस ऊंचाई तक पहुचाया है....वह बहुत कम लोग पहुंचा पाते हैं। जहां तक बात राजेन्द्र यादव की है वे कुछ अच्छी कहानी लिख सके तो सिर्फ इसलिए की उन्हें अच्छी कविता की समझ थी... अन्यथा उनका सारा लेखन कविता की मुखालफत करते हुये गुजर गया और आज भी वही अंश उनके साहित्य में पठनीय है जिनके गद्य को कविता के संस्पर्श ने समृद्व किया है। अच्छी कविता के बिना अच्छा गद्य लिखा नही जा सकता। राजेन्द्र यादव इसके भी प्रमुख उदाहरण हैं।
कविता को बड़ी विधा अच्छे कवि ही बना सकते हैं....अन्यथा छोटे और खराब कवि तो अपनी और कविता दोनों की छीछालेदार करके रख देगें। दो-दो सौ पृष्ठ, पांच-पांच सौ पृष्ठ के उपन्यास कभी-कभी बेकार लगते हैं, दस पंद्रह पंक्तियों की अच्छी सी कविता के सामने। लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो, उस घोड़े से पूछो जिसके मुहं में लगाम है, इस एक पंक्ति पर एक कहानी या एक निबंध लिखा जा सकता है।
कविता से शायद हर लेखक इसलिए भी शुरुआत करता है क्योंकि कविता हर संवेदनशील व्यक्ति को अभिव्यक्ति के लोकतंत्र में शामिल करती है। कविता यह भी याद दिलाती है कि व्यक्ति अधिक पढ़ा हो चाहे कम पढ़ा लिखा हो, और चाहे एक दिन भी स्कूल न गया हो, फिर भी उसके अपने को अभिव्यक्त करने का अधिकार है। और इसी अभिव्यक्ति के अधिकार को कबीर ने हमारे बीच रखा है।
बड़ी चीज विधाएं नहीं होती.....बड़ी चीज विचार होते हैैं......विध का महत्त्व नहीं है.....विचार का महत्त्व है जो उस विधा में आ रखा है, एक ही विचार अपने लिए कई विधाएं चुन सकता है। इसीलिए भाषा और विधा से अधिक महत्त्व विचार का है। विधा यदि विचार को बदल दे-तब विधा का भी महत्त्व बढ़ जाता है। बहुत सी भाषाएं ऐसी है-दुनिया में जिनके लिपि नही हैं.....उनकी मौखिक उक्तियां लिपिबद्व की गई हैं, और वे आज भी रोमांचित करती हैं,
लिपि का इसीलिए महत्त्व है कि उसमें विचार होते हैं। अक्षुण्ता के साथ टिके रहने के लिए विचार कोई लिपि मांगते हैं। ऐसे में जाहिर है कि विचारक की लिपि ही विचार की लिपि बन जायेगी। लिपि इसलिए की हम विचार को डीकोड करने का संकेत समझ सकें।
शशिभूषण बड़ोनीः आपकी कविता में जो चरित्र चित्रण होता है उनमें आप पात्र कहां से लेते हैं?
लीलाधर जगूड़ी : मेरी कविता के पात्र प्रायः परिस्थितिवश आते है? और पात्र साभिप्रायः जीवन की स्थितियों से? भाषा की स्थितियों से और लिखने के उदे्श्य की स्थितियों से आते हैं बाकि सारा जीवन तो पात्रों अ-पात्रों से भरा हुआ है.....उसमें से आने वाले सुपात्रों और कुपात्रों से भरपूर पात्रता होती है।
मेरी कविताओं में वे संभवतः निर्धारित विषयों के अनुसार न आये लेकिन मानवीय परिस्थिति के रूप में वे वहां आ ही जाते हैं। कभी-कभी तो प्रकृति और परिस्थिति ही पात्रों की संरचना कर देती है, घटनायें ही थीम बन जाती है। और थीम ही घटना बन जाते है।
शशिभूषण बड़ोनीः कहानीकार यदि कविता लिखता है तो उसको महत्व नही मिलता......कवि के रूप में उसकी उतनी पहचान नही बन पाती। लेकिन यदि कवि कोई कहानी लिखता हे तो उसमें प्रभाव उत्पन्न होता है...... महत्त्वपूर्ण भी मानी जाती है......अक्सर पहचान भी मिलती है। क्या कारण हो सकता है इसका आपकी दृष्टि में?
लीलाधर जगूड़ी : हिन्दी साहित्य में कथा लेखन का आकलन करते हुये अक्सर यह पाया गया है कि पेशेवर कथा लेखकों की अपेक्षा कवियों ने ज्यादा श्रेष्ठ कहानियां लिखी हैं....। यह ठीक है कि सिर्फ कहानियां व उपन्यास लिखने वाले प्रेमचंद ने बहुत अच्छी कहानियां लिखी हैं...लेकिन भारतीय जन-जीवन के यर्थात को, उसकी विसंगतियों को जितनी सरल ओैर सड़क छाप भाषा में जय शंकर प्रसाद ने काहानियां लिखी हैं उनकी कहानियां और उपन्यास .....प्रेमचंद के कहानी और उपन्यासों पर भारी पड़तें है। यह अलग बात है कि आलोचकों ने यह तुलानात्मक अध्ययन अभी तक किया नहीं है। करेंगे तो लोकवादी आधुनिक कहानी के जनक जयशंकर प्रसाद को एक नयी पहचान मिलेगी। जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘घीसू‘, बेडी, गुंडा, जयदोल, पुरस्कार इत्यादि। उपन्यासों मे कंकाल और तितली, गोदान के यथार्थ पर भारी पड़तें है, अपने युग के यथार्थ पर निराला के चतुरी चमार, कुल्ली भाट प्रेमचन्द के युगीन यथार्थ पर भारी पड़ते हैं। प्रेमचंद कविता लिखने में सर्वाथा विफल रहे हैं लेकिन जीवनानुभव से भरी कहानियों में उनका जवाब नही है। कविता में कथा, कहानी में कथा, नाटक में कथा, दरअसल कथा तत्वों के कई रूप हैं। जिन कथाकारों की कहानियों में भाषा की संरचना कविता जैसी या कविता के निकट पड़ती है.......उनकी कहानियां निर्मल वर्मा, कृष्णा सोबती और ज्ञानरंजन की तरह आप पढ़े बिना नहीं रह सकते हैं और न उन्हें भुला सकते हैं।
कविता लिखना जरूरी नही है, कविता एक सत्व (मदबमद्ध है। वह तत्व जिसमें पड़ जाता है....वह रचना रोचक और स्मरणीय हो जाती है......तब चाहे वह नाटक की भाषा हो...कहानी की भाषा हो या निबंध की हो या कविता की हो। काव्यात्मक सत्व के बिना वह आकर्षण पैदा हो ही नहीं सकता। जयशंकर प्रसाद अधुनिक हिन्दी कहानियों, उपन्यास और कविता के जनक हैं। हिन्दी साहित्य का आधुनिक रूप प्रसाद जी से शुरू होता है। उनके नाटक और भी महत्त्वपूर्ण है। मोहन राकेश की कहानियां व नाटको में कविता के कौशल का सुन्दर इस्तेमाल हुआ है। प्रेमचंद जी ने अगर कविताएं
भी लिखी होती तो उनके उपन्यासों की भाषा दूसरे ही ढंग की होती। मगर जो की नहीं है उसका गम क्या है? अज्ञेय, रघुवीर सहाय, राजकमल चौधरी, कुंवर नारायण, सर्वेश्वर दयाल शक्सेना, श्रीकांत वर्मा, ज्ञान रंजन, काशीनाथ सिंह, ममता कालिया, उदयप्रकाश, एकांत श्रीवास्तव आदि की कहानियां और उपन्यास कविता का भी स्वाद चाखती हैं। मनोहर श्याम जोशी और कृष्णा सोबती की कहानियां और उपन्यास उनकी काव्यात्मक भाषा का भी नमुना है। जिन कहानीकारों ने कविता लिखी हैं, अथवा जिन कवियों ने कहानियां भी लिखी है उनमें से विनोद कुमार शुक्ल एक आदर्श उदाहरण हैं कि वे दोनों विधाओं में गण्य तथा मान्य है। इसलिए यह आरोप मुझे सुचिंतित और युक्तिसंगत नहीं लगता।झगड़ा विधाओं का नहीं होना चाहिए। झगड़ा हो तो इस बात का हो कि विधाओं में विचार क्या आ रहे हैं और क्या वे विचार पहली बार आ रहे हैं ? कहानियां और उपन्यास में जो जीवन स्थितियां आयी हैं वे आज की जीवन के कौन से विचारों की पूरक हैं।
शशिभूषण बड़ोनीः आप कविता क्यों लिखते हैं ?
लीलाधर जगूड़ी : इस प्रश्न को आप यूं भी पूछ सकते हैं कि आप कविता ही क्यों लिखते हैं? वाकई यह चिन्ता का विषय है कि कवियों को केवल कविता लिखने तक ही समित क्यों रहना चाहिए? उन्हें और भी कुछ लिखना चाहिए और मैं तो कहूंगा कि निबंध लुप्तप्रायः विधा हो चुकी है......इसलिए कवि यदि लिखेंगे तो वह महत्वपूर्ण और सुन्दर होंगे। भाषा निबंध मति मंजुल मातनोति।
मैनें कई बार सोचा है कि जिन विषयों में मैं कविता लिखता हूं उन पर यदि मैं कहानियां लिखू। जो बात मैं दस, पंद्रह पंक्तियों में लिखता हूं उसे लिखने के लिए मुझे पांच पृष्ठ तो लिखने ही होंगे। कभी कभी मुझे हर विषय पर कहानियां लिखना भी भाषा का अपव्यय लगता है....। इसलिए कविता की मितव्ययता से ही काम चला लेता हूं।
कविता का एक गणितिय गुण है कि वह भाषा और संदर्भो का संश्लिष्टीकरण करते हुये उन्हें संकेत सूत्र जैसा बनाने की कोशिक करती है.....यानि विज्ञान में जिस तरह कोडिंग की जाती है फिर कोड से डीकोड करना पड़ता है.....यदि ऐसा करोगे तो विस्तार वहां मौजूद है.....अन्यथा सूचनात्मक संकेत और अर्थ की व्यापकता कविता में अक्सर गहराई देने की कोशिश करती है तो अच्छा लगता है...।
शशिभूषण बड़ोनीः आप अपनी अनूठी रचना प्रक्रिया के बारे में थोड़ा बतायेंगे?
लीलाधर जगूड़ीः रचना भी एक शरीर है। शरीर की रचना प्रक्रिया हर एक शरीर में विधमान रहती है। लेकिन यह दिखाई नही देती है। हमारे शरीर का रक्त प्रवाह हमें दिखाई नही देता। शरीर की चेतना सारे तामझाम से अलग है। शरीर की चेतना इन्द्रीयों के समन्वय पर निर्भर करती है। इन्द्रीयों को चेतना की और चेतना को इन्द्रीयों की जरूरत है। इन्द्रीयों से ही अतीद्रिंय आत्मा की अनुभूति होती है। रचना एक पूंजी सक्रियता है। अपने संसार में एक दूसरा संसार बनाना ही रचनात्मक हस्तक्षेप है। रचना का शरीर भी प्रत्यक्ष (यथार्थ) और अप्रत्यक्ष (अयथार्थ) दोनों से बनता है।
हमारे हड्डीयां भी हमें दिखाई नही देती.....। हमारा पाचन तंत्र हमारे द्वारा हमारी आंखों से दिखाई नही देता। इसके लिए अलग से एक्सरे मशीन इजाद की गई है। उस एक्सरे मशीन के द्वारा शरीर की आन्तरिक स्थिति का पता लगाने की कोशिश करते हैं....। ठीक उसी प्रकार किसी रचनाकार की रचना प्रक्रिया उसकी रचनाओं से ही समझी जा सकती है.... और इस तरह मेरी रचनाओं की रचना प्रक्रिया एक जैसी नही परखी जा सकती.....क्योंकि हर रचना का स्वभाव, अनुरोध और प्रतिरोध अलग-अलग होते हैं।
मेरी रचना की प्रक्रिया को किसी एक रचना से भी नही पहचाना जा सकता क्योंकि हर एक रचना के पीछे एक अलग सदेंश भी छिपा होता हे। इसीलिए हर रचना की रचना प्रक्रिया जाहिर है कि परिस्थितिवश भाषा के अपने उपादानों के कारण शब्दावली व मुहावरें की संगति के कारण भिन्न हो जायेगी। हर रचना की रचना प्रक्रिया एक जैसी नही हो सकती। रचना प्रक्रिया बता पाना बहुत कठिन है। आप किसी मां से पूछें की आपने यह बच्चा कैसे जना तो वह क्या बता देगी? मेरे को तो यह दिखाई देता है कि सभी मनुष्यों की रचना प्रक्रिया एक जैसी है, लेकिन समाज में मनुष्यों की स्थिति एक जैसी नही है। उनका जन्म, पालन और जीवनयापन और यहां तक की मरना भी हर एक का अलग-अलग तरह से होता है। इसलिए रचना प्रक्रिया को किसी एक बने बनाये फार्मूले से बांचना या जांचना बहुत मुश्किल है। बहुत सारी अच्छी रचनाये पढ़तें हुये लगता है कि यह विचार रचनाकार के मन में तुरन्त आ टपका होगा.... जबकि वह कई दिनों से राह ढूढ़ रहा होता है।
शशिभूषण बड़ोनीः रचना कथ्य और शिल्प में आप किसे प्रमुख मानते हैं और क्यों?
लीलाधर जगूड़ीः एक अच्छी रचना में कथ्य और शिल्प आपस में गुंथे हुये होते हैं......आज तक कोई रचना केवल शिल्प के लिए नही लिखी गई हे। तथ्य हर बार अपना एक शिल्प ले आता है.....। इसका मतलब यह नही है कि शिल्प का कोई महत्व नही हे। शिल्प का महत्व कुछ-कुछ इस तरह का है, जैसे की किसी के चेहरे नाक-नक्श, किसी का शरीरिक सौष्ठव....किसी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की झलक .......लेकिन इतने मात्र से सम्पूर्ण जीवन के कर्म, विचार....सम्पूर्ण जीवन के व्यवहार समझ में नही आ सकते...। एक रचना के लिए कथ्य भी जरूरी है और शिल्प भी ....।
शिल्प के बिना अच्छा कथ्य भी अपना आकर्षण खो बैठता है। शिल्प की कोई निर्धारित पहचान और सीमा नही है...। कथ्य की तरह शिल्प भी पैदा करना पड़ता है। किसी भी रचना में भाषा, संकेत और ध्वन्यार्थ का पुननिर्माण करना पड़ता है।
शशिभूषण बड़ोनीः अधिकांश रचनाधर्मी मानते है कि विश्व में कोई सम्पूर्ण वैज्ञानिक और सही जीवन दर्शन है तो वह मार्क्सवाद है। ऐसा क्यों मानते हैं?
लीलाधर जगूडीः मार्क्सवाद अच्छा जीवन दर्शन है। लेकिन वही एक सही जीवन दर्शन है...इस पर बहस की काफी गुंजाईस है...। लेकिन हर तरह की बहस के बाद भी तो यह कहना ही पडेगा की मार्क्सवाद भी अधिकांश सुन्दर जीवन दर्शन है। मार्क्सवाद ने मेरी समझ से पहला काम यह किया है कि मनुष्य को भौतिकवादी सोच से प्रचलित होने की वैज्ञानिक नसीहत दी...। उसने बताया की मनुष्य का अध्यात्मवादी होने से अच्छा पदार्थवादी होना है। यदि मनुष्य पदार्थवादी होगा तो वह भौतिकवादी हुये नही रह सकता। पदार्थ की भी एक चेतना होती है..। ठीक मनुष्य की तरह। लेकिन दोनों में बडा फर्क है।
पदार्थो की चेतना से टकराने के लिए मनुष्य बना है। मनुष्यों की चेतना पदार्थों की चेतना से टकराती है या नही, पर मनुष्य पदार्थो के स्वरूप को बदल जरूर देते हैं। सारे ईश्वरवादी अध्यात्मवाद चिंतन की जड़ पदार्थवाद में हे। अगर पदार्थ नही तो...पद (शब्द) का भी कोई अर्थ नही है।
यह एक आश्चर्यजनक साम्य है कि शब्द के लिए इस्तेमाल किये जाने वाला ‘पद‘ शब्द भी पदार्थ के प्रारंभ में लगा दिया गया है। यानि की शब्द के बिना पदार्थ अधूरा है और पदार्थ के बिना शब्द अधूरे हैं। वह एक दूसरे के पूरक पर्याय है।
मार्क्सवाद ने वस्तुओं के उत्पन्न में मूल्य कैसे पैदा होता है ‘यह समझाने की सबसे पहले कोशिश की...। इससे पहले दर्शन शास्त्र में इस विषय पर किसी दार्शनिक के विचार नही पाये जाते हैं। मार्क्स ने बताया की वस्तु का मूल्य मनुष्य के परिश्रम से पैदा होता है। वस्तु , धन, परिश्रम बराबर मुल्य। तब हम यह जान पाये की किसी चीज की कीमत के पिछे छिपी हुई मनुष्य की मेहनत है। मनुष्य की मेहनत से ही चीजें मुल्यवान बन जाती है। वह मनुष्य कोन है? उसे बेचनेवाला या उसे खरीदने वाला? या उसे पैदा करने वाला? मार्क्स कहता है कि वह मनुष्य वह मजदूर है जो उस पदार्थ के सवरूप को अपने परिश्रम से किसी मानवीय उपयोगिता में बदल देता है। हम बाजार के जानते है, पैसे कमाने वाले सेठ को भी जानते हैं लेकिन उत्पादनशील मजदूर को नही जानते। मार्क्स ने पहली बार उसी उत्पादनशील मनुष्य को प्रतिष्ठित किया। उस नगण्य मनुष्य को मार्क्सवाद के कारण उत्पादन की मौलिक इकाई के रूप में सुमार किया जाने लगा। जिसकी पहचान मार्क्स ने शोषित वर्ग के रूप में कराई है..।
कितनी बड़ी विडम्बना है कि इस वर्ग को उत्पादक वर्ग में शामिल ही नही माना जाता था, लेकिन औद्योगिक क्रांत के समय मार्क्स ने मेहनतकश लोगों के द्वारा उत्पादित वस्तु में मुल्यवता पैदा करने की महान घटना को चिन्हित किया और मार्क्स ने कहा कि जो मुनाफा है उसमें इस मेहनतकश का भी हिस्सा होना चाहिए। इससे पहले कि मनुष्यों ने आत्मा पर....परमात्मा पर....भी विश्वाश किया है पर मेहनत करने के बावजूद दरिद्र रह जाने वाली आत्माओं पर विचार नही किया। मार्क्स का दर्शन मेरी दृष्टि में दरिद्र और उत्पीड़ित मेहनतकश आत्माओं के उद्वार का दर्शन है।
शशिभूषण बड़ोनीः कवि के अन्दर व्यक्ति और समाज के हितों के बीच द्वंद्व क्या किसी सार्थक लेखन की भूमिका बनाता है?
लीलाधर जगूडीः व्यक्ति के बिना समाज का निर्माण हो ही नही सकता। व्यक्ति समाज की एक ईकाई है..और समाज कह कर हम कई बार व्यक्ति का अमूर्तिकरण कर देते हैं। क्योंकि अब तक के उदाहरणों से यह ज्ञात होता है कि समाज की अपेक्षा व्यक्तियों ने समाज को बदला है।
कवि भी एक व्यक्ति है। कवि भी एक नागरिक है.... कवि भी एक नियति में पड़ा हुआ अथवा सुखी-दुखी होता हुआ मनुष्य है। मनुष्य माने एक व्यक्ति। सारा समाज मिलकर एक इमारत बना सकता हे....भूगोल का नक्शा बदल सकता है....पर एक अच्छी कविता लिखने के समाज द्वारा कोई उदाहरण प्रस्तुत नही है, एक अच्छी रचना अभी तक एक अकेले व्यक्ति की देन के रूप में पहचानी जाती रही है। लेखन के संसार में इसकी एक अकेले लेखन वाले व्यक्ति का महत्व है ठीक है कि वह सारे समाज की भाषा का, संघर्ष का, निष्पत्तियों का इस्तमाल करता है लेकिन ऐसा वह हर बार अपनी हर रचना में एक अकेले व्यक्ति की तरह कर रहा होता है।
यह जो व्यक्ति और समाज के बीच का द्वंद्व है.. यह हर बार किसी न किसी रचना की भूमिका रचता रहता है। वह कितनी सार्थक और कितनी निरर्थक है यह तो संभवतः किसी दूसरे व्यक्ति को सोचना है...।
शशिभूषण बड़ोनीः अब आपकी उम्र आत्मकथा लिखने की हो चली है। क्या इस ओर सक्रिय हैं?
लीलाधर जगूडीः अभी तो मैं आत्मकथा को जी रहा हूं और
अपने ढंग से रच भी रहा हूं....। थोड़ा और जी लूं...थोडा और रच लूं... तो शायद लिख भी लूंगा?
शशिभूषण बड़ोनीः आप डायरी भी लिखते हैं?
लीलाधर जगूडीः कभी-कभी, नियमित नहीं।
शशिभूषण बड़ोनीः किन-किन लेखकों की डायरियां आपको अच्छी लगीं?
लीलाधर जगूडीः काफ्का की डायरी।
शशिभूषण बड़ोनीः किन-किन की आत्मकथा व संस्मरण?
लीलाधर जगूडीः महात्मा गांधी।
शशिभूषण बड़ोनीः उनकी किन बातों पर आप फिदा हैं?
लीलाधर जगूडीः फिदा नही बल्कि डरा हुआ हूं....क्योंकि सच बोलने वाला ही आत्मकथा लिख सकता है।
शशिभूषण बड़ोनीः : अनुभव का ऐसा कौन सा क्षेत्र है, जहां तक अभी कविता नहीं पहुंच सकी?
लीलाधर जगूडीः बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां कविता को अभी पहुचना है। विज्ञान की लैब में....टेक्नोलोजी के, हर नये अविष्कार के संसार में। क्योंकि मनुष्य अब केवल ईश्वर प्रदत्त नही रह गया है। उसका संसार मनुष्य प्रदत्त ज्यादा हो गया है। कविता को मनुष्य प्रदत्त सांसारिक गुणों में अभी और प्रवेश करना है। कविता को प्रकृति के सामने हमेशा नतमस्तक ही नही रहना है बल्कि मनुष्य द्वारा रची जाती हुई नयी प्रकृति को भी अंकित करना है।
शशिभूषण बड़ोनीः आप किस कवि से अधिक प्रभावित हैं। या रहे हें? उनकी कुछ उल्लेखनीय रचनाएं जिनसे आपके लेखन को गति या दिशा मिली?
लीलाधर जगूडीः मैं जयशंकर प्रसाद जी से ज्यादा प्रभावित रहा हूं...? उनके उपन्यास....उनके नाटक...उनकी कहानियां....उनके निबंध आज भी चुनौती देते हुए दिखते हैं। उनके बाद अज्ञेय जी ऐसे रचनाकार हुए हैं जिन्होंने कविता, कहानी, नाटक, निबंध, उपन्यास आदि को समृद्व किया है। प्रेमचंद की तरह वे केवल कहानी से बंधकर नही रह गये।
शषिभूषण बड़ोनीः गद्य विधा में भी आप कुछ लिख रहे हें?
लीलाधर जगूडीः लिख रहा हूं...। अब पुस्तकाकार भी आपको देखने को मिलेगा।
शशिभूषण बड़ोनीः जब आप लिखते या पढ़ते नहीं है तब आप क्या करना पसंद करते हैं?
लीलाधर जगूडीः अन्य सभी घर के दूसरे सामान्य कार्य करना पसंद करता हूं.....हां लेकिन उस समय भी लिखने और पढ़ने के बारे में ही सोचता रहता हूॅ।
शशिभूषण बड़ोनीः एक दौर था जब कवितायें याद हो जाती थी...कविता नारा भी होती थी...लेकिन आज ऐसा दिखाई नहीं देता ....
लीलाधर जगूडीः पता नहीं वो कौन सा दौर था जब बिना याद किये कविताएं याद हो जाती थी...लेकिन मैं इतना जरूर जानता हूं जिस कविता अथवा कठिन उक्ति को उल्लेखनीय मानते हुए कोई व्यक्ति अगर बार-बार आवृत्ति करेगा तो वह उसे याद हो जायेगी। बहुत से लोगों को गालियां बहुत यादि हो जाती हैं तो बिना प्रयास किये जो याद हो जाए वह ज्यादा महान है, यह मानना मेरे लिए थोड़ा मुश्किल हैं।
पहले कुछ कविताओं के साथ स्मृति का गठबंधन इसलिए हो जाता था क्योंकि कुछ कविताआं में लयात्मकता थी और कुछ कविताओं में तुकात्मकता थी। धीर-धीरे लयात्मकता की कमी के बावजूद लोग तुकात्मकता का ही सहारा लेने लगे और उसे ही छंद मानने लगे। जबकि छंद एक लय और प्रवाह का नाम है, तुक का नाम नहीं। अगर तुक ही छंद होता तो संस्कृत साहित्य तुकांं से भरा होता। संस्कृत काव्य के श्लोकां में एक या दो प्रतिशत तुक के अलावा कहीं तुक मिलाने का आग्रह नहीं होता है, बिल्क बोलने की लय और अर्थ का प्रवाह छंद का निर्माण करता है। यह परंपरा उर्दू शायरी में भी मौजूद हैं।
आधुनिक समय में भी कविता नारे की तरह लिखी जाती रही है....लेकिन वह एक सर्वमान्य व व्यापक विधा का रूप ग्रहण नही कर सकी है। केवल नारा लगाना या बन जाना कविता का पहला और उल्लेखनीय गुण नही है।
शशिभूषण बड़ोनीः आंकडे बतातें हैं कि किताबें ज्यादा छप रही हैं, दूसरी तरफ कहा जाता है कि पढ़ने वाले नहीं हैं? यह विरोधाभास कैसा है?
लीलाधर जगूडीः यह प्रश्न सभी भाषाओं पर एक जैसा लागू नही होता। मलयाली और बंगला भाषा में पुस्तकें खरीद कर पढ़ी जाती हैं....हिंदी में पुस्तकें के लिए भी मुफ्तखोरी है...और जो चीज मुफ्त में मिलती है, उसका कोई महत्व नही होता.....
हिंदी में यह उम्मीद की जाती है कि लेखक अपनी किताब मुफ्त में बांटेगा....तब पाठक उन पुस्तकों को पढ़ने की कृपा करेंगे....यह बहुत अनुचित प्रथा है...।
सभी पुस्तकें बहुत पठनीय नही होती और न संग्रहणीय होती हैं। इसके लिए समाचार पत्र एवं मीडिया को पुस्तक समीक्षा का एक कालम स्थायी रूप से चलाना चाहिए...जिससे पाठकों को अपनी पसंद की पुस्तकों का चयन करने की सुविधा हो, अन्यथा सामान्य तौर पर लोगों को यह पता ही नही होता कि कौन सी किस विषय पर पुस्तक प्रकाशित हुई है, समीक्षा और चर्चाओं के द्वारा पुस्तकों का डंका बजना चाहिए...।
किताबें छप रही हैं....यह महत्वपूर्ण नही है...महत्वपूर्ण यह है कि अच्छी, उपयोगी और संग्रहणीय पुस्तकें कितना छप रही है?कौन सी ऐसी पुस्तक आई है जो जीवन के किसी दुर्लभ नये संदर्भ की जानकारी देती हो.....इसके लिए समीक्षा ही एकमात्र सूचना प्राप्त करने का विश्वसनीय आधार हो सकता है...। यह कहना सरलीकरण होगा कि पुस्तकें छप रही हैं और पाठक नही हैं, क्योंकि मुझे भी अक्सर यह सुनने को मिलता है कि कविता की पुस्तकें नही बिकती हैं और न उनके पाठक हैं ...इसलिए प्रकाशक उन्हें छापने को तैयार नहीं होते।
लेकिन मेरा अनुभव इससे इतर है....। मेरी कोई कविता पुस्तक ऐसी नही है जिसका केवल एक ही संस्करण छपा हो। सिवाय इसके ‘‘ जितने लोग उतने प्रेम ‘‘ जो पिछले साल छपी। पूर्व प्रकाशित लगभग सभी संग्रहों का तीसरा और पांचवा संस्करण प्रकाशित हो गये हैं....इससे मुझे अहसास होता है कि जरूर कहीं न कहीं छोटा -बडा पाठक वर्ग कविता को पढ़ रहा है...। ये जो साल दो साल में हजार दो हजार कविता की किताब बिक जाती हैं....(वह भी कविता की) यह हो सकता है कि किसी कवि के संबंध में सही हो सब के संबंध में नहीं पर इतना जरूर है कि कविता के वाक्य विन्यास ने कविता में अनुभव प्रकट करने के तेवरों ने, कविता की शैलियों ने, कविता में वाक्य विन्यास के शिल्प ने, ऐसा कुछ विशेष किया है जिसकी वजह से समाचार पत्रों के शीर्षकों की शैलियां बदल गयी हैं और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के समाचार वाचन की शैलियां बदल गयी हैं।
मीडिया में समाचार वाचन थियेटरीकल (नाटकीय) सामने आया है उसमें कही न कहीं कविता का बहुत बडा हाथ है। कविता वही अच्छी नही ंहोती बल्कि वह भी अच्छी हो सकती है....जो हमारी हताशा को थोड़ा ही सही पुचकार कर होश में ला दे। कविता का यह भी एक काम हे कि वह अनुभव को विचार में ढालकर इस तरह तराश दे कि वह हमारी स्मृति का हिस्सा हो जाए और वह कविता जीवन में विचार विनियम के काम आने लगे।
साक्षरता इधर बढ़ी है...टेक्नोलोजी बढ़ी है...सूचनाओं के साधन बढ़े हैं वैज्ञानिक चिंतन बढ़ा है...तब यह चिंता का विषय तो होना ही चाहिए कि इधर नौसिखिया टेक्नोलोजी वाले युवा वर्ग के बीच में कविता का सुखद प्रवेश देखने को मिला है, लेकिन ज्ञान के अन्य अनुशासनों में काम करने वाले लोगों के बीच कविता का आना-जाना कुछ कम हे... शायद धीरे-धीरे विज्ञान को भाषा की शक्ति पर भरोसा बढे़गा और वह यंत्र विज्ञान के अलावा शब्द विज्ञान के सामाजिक संपर्क मं भी आएगा, क्योंकि पश्चिम की अनेक भाषाओं में इधर जो कविता संग्रह आए हैं... उनमें वैज्ञानिक पेशे से जुड़े कवियों की संख्या अधिक है...। इसका मतलब यह भी निकलता है कि विज्ञान भी एक काव्योचित न्यास एवं काव्योचित नैतिकता चाहता है। इस दृष्टि से भारतीय भाषाओं में बहुत कम विचार देखने को मिलते हैं...यह पाठकों की कमी नही है बल्कि समर्थ पाठाकें की कमी ज्यादा झलकाता है।
शशिभूषण बड़ोनीः आजकल हिंदी साहित्य में पुरस्कारों की बाढ़ आ रखी है...आप इस पर क्या कहते हैं?
लीलाधर जगूडीः पुरस्कारों की बाढ़ उन्हें दिखाई देती है जिन्हें पुरस्कार नहीं मिलते, लेकिन जो सचमुच पुरस्कार योग्य हैं उन्हें तो पुरस्कारों का अकाल दिखाई देता है। छोटी-छोटी पूंजियों के भी पुरस्कार नहीं हैं। बड़ी पूंजियों के पुरस्कार दो या तीन हैं। पुरस्कारों में सम्मान है लेकिन लेखक को जीवन यापन करने का सामान प्राप्त नहीं होता।लेखक का पोषण स्त्रोत केवल लेखन से हासिल होनेवाला पारिश्रमिक अथवा रायल्टी बगैरह बहुत नगण्य और कमजोर है।
लेखक को सम्मान व सामान दोनों की जरूरत है। सामान से मेरा अभिप्राय जीवन यापन संबधी साधनों से है। बड़े और सम्मानित माने जाने वाले भारत सरकार द्वारा स्थापित साहित्य अकादमी का प्रति वर्ष भारत की प्रत्येक भाषा में एक उत्कृष्ट कृति को लेकर किसी लेखक को सम्मानित करने की परंपरा है जो प्रशंसनीय है...। लेकिन उसमें भी मात्र एक लाख रूपये की राशि सन्निहित है। जो साठ वर्ष के पहले मुश्किल ही मिल पाती है...। हिंदी का संसार बड़ा है और उसके मुकाबले पुरस्कारों का संसार बहुत ही छोटा और नगण्य है। राज्य सरकारों की काई पुरस्कार नीति नहीं है। राज्य सरकारों में साहित्य और कला संरक्षण की कोई चिंता दिखाई नहीं देती। हमारे जो जन प्रतिनिधि चुनकर आते हैं उनका अभी तक एक प्रतिशत भी साहित्य से संबंध नहीं देखा गया है। उनका आर्थिक व्यवसायों से जितना संबंध होता है। सांस्कृतिक उन्नयन करने वाली विधाओं से उनके संबंध लगभग दरिद्र हैं, इसलिए वे रचनात्मक सहित्य की सामाजिक भूमिका भी नहीं जानते हैं...न वे उससे होने वाले अच्छे संबंध के समाज पर विश्वास करते हैं।
बिरला फाउडेंशन से व्यास सम्मान, सरस्वती सम्मान और ज्ञानपीठ द्वारा दिया जाने वाला मूर्ति देवी सम्मान व ज्ञानपीठ सम्मान, इफ्को सम्मान आदि आर्थिक रूप से थोड़ा बड़े सम्मान जरूर हैं लेकिन वे सत्तर और अस्सी वर्ष की उम्र से पहले नहीं मिलतें हैं। इसलिए कम उम्र वाले प्रतिभाशाली लेखक उन सम्मानों से वंचित रह जाते हैं। कम उम्र जीने वाले अच्छे लेखक उन सम्मानों से वंचित रह जाते हैं।
अगर कोई लेखक और रचनाकार है तो उसे पचास से पैंसठ और अधिकतम सत्तर वर्ष तक सम्मान प्राप्त हो जाने चाहिए, ताकि वह अपने जीवन में जीने लायक परिस्थितियों का निर्माण कर सके और अपने बेहतर लेखन से अपने पुरस्कारोत्तर जीवन को स्मरणीय बना सके। हिंदी में अधिकतर पुरस्कार लेखकों को अशक्त उम्र में मिले हैं और उस धन राशि का उपयोग उनके परिवार के ऐसे सदस्यों ने किया है जो साहित्य से किसी तरह का रागात्मक संबंध नहीं रखते, बल्कि साहित्य व साहित्यकारों को निरर्थक व बोझ मानते हैं। कई परिवार तो कवि -लेखक होने से ही घृणा करते हैं।
पुरस्कारों का मतलब है....आत्मविश्वास को प्रोत्साहन देते हुए जीवित रहने के संशाधनों में वृद्वि। ताकि लेखक जब तक जिये तब तक बेहतर लिखे।
शशिभूषण बड़ोनीः कहा गया है कि गद्य कवियों की कसौटी होती है। कविता की कसौटी क्या है? वे कौन से तत्व हैं जिनके होने से रचना कविता कहलाती है, न होने से गद्य?
लीलाधर जगूडीः कविता की मूल उत्पत्ति कवि से होती है। अगर कवि नहीं है तो कविता नहीं है। कविता एक सामूहिक उत्पादन नहीं है। कविता को किसी कंपनी के विज्ञापन की तरह भी नही खिवाया जा सकता है। कविता उस व्यक्ति पर निर्भर करती है जो एक अकेला व्यक्ति है, उसे ही अपने उपादानों, संकटों और अभिव्यक्ति सामर्थ्यो के बारे में सोचना है...। उसे ही यह तय करना है कि क्या करना है और उसके परिणाम वह क्या चाहता है? कविता की सफलता का श्रेय कवि को ही जाता है। समाज को नहीं।इसलिए यह बहुत जरूरी है कि कवि के बिना बनाये जाने वाले संशाधनों के बारे में भी थोड़ा गहराई से विचार कर लिया जाए।
पहली चीज तो यह है कि ‘कवि‘ शब्द का अर्थ क्या है? और दूसरी बात यह है कि ‘कविता‘ शब्द का क्या अर्थ है? गद्य तो हम सभी लोग जानते हैं। गद्य शब्द गद् धातु से बना है जिसका अर्थ होता है बोलना। इसी धातु से एक और शब्द बनता है-निगदति जिसका मतलब होता है-सोच समझकर बोलना, तो बोलना गद्य है.....इसीलिए बोलने में ही कविता है। इसी बोलने को गद्य कह कर प्रशंसित किया गया है कि कवियों को बोलना अच्छा होता है...। बोलना मानी उक्ति।आधुनिक समय में गद्य का मतलब केवल प्रोज तक सिमट कर रह गया है....इसलिए शमशेर बहादुर सिंह ने एक कविता में कहा है कि? ‘बात बोलेगी-हम नहीं। भेद खोलेगी बात ही‘। यह बात का बोलना ही कवि की बात का बोलना है....और बोलना भी ऐसा जो भेद खोल रहा हो....किसी रहस्य को अनावृत्त कर रहा हो...उक्ति वैशिष्ठ्य ही काव्य है।कहने का अभिप्राय यह है कि गद्य सिर्फ ‘प्रोज‘ नहीं है गद्य ‘बोलना‘ भी है .... और बोलने से ही सारे साहित्य की शक्तियां जुड़ी हुई हैं...विधाएं जुड़ी हुई हैं, बोलने से कथा और नाटक दोनों जुड़े हुऐ हैं...। बोलने से कविता तो पहले ही जुड़ चुकी थी। कविता बोलने की आदिम विधा है। आदिकाल से औरा आज तक कविता के स्परूप में और उदृदेश्य में परिवर्तन आते रहे हैं....और वह अपने को अभिव्यक्ति के समकालीन संसार में एकदम अपने ढंग से शामिल करती रही है....। लेकिन उसका बोलना नहीं रुका।
कवि का एक अर्थ यह भी है कि जिसकी अभिव्यक्ति-कथन -विशेष‘ पर टिकी रहती हो.....। कथन-विशेष की तार्किकता कविता का निर्माण करती है। बहुत से लोग अब कविता को एकदम कहानी की तरह लिखने लगे हैं....बहुत से लेग कहानी को भी कविता की तरह लिखने लगे हैं....। विधाओं का वर्चस्व टूट रहा है....। अभिव्यक्ति में भी तरह-तरह के लोकतंत्र पैदा हो रहे हैं।कौन किस विधा को किस-किस तौर तरीके से साध सकता है....आगे बढ़ा सकता है....और एक वैचारिक गुरूत्वाकर्षण उसके भीतर पैदा कर सकता है...वही शायद उस विधा का सर्वोत्कृष्ट रचनाकार हो सकता है। आज की कविता के लिए समाचार और सूचनाएं जिस शिल्प में और जिस भाषा में आ रही हैं वे संदर्भ को समृद्व करने में तो सहायक होती हैं, लेकिन यदि वे कथ्य का अंतिम निष्कर्ष भी बनना चाहती हैं तो इससे रचनाएं कमजोर हो जायेंगी। रचनाओं का निष्कर्ष दूसरी विधाओं से निकलने वाले मंतव्य से अलग होना चाहिेए।
शशिशशभू बड़ोनीः विधाओं का जो परसपर झगड़ा दिखाई देता है उसके बारे में आपका क्या विचार है?
लीलाधर जगूडीः अच्छा गद्य भी अच्छी कविता की तरह एक समझदारी भरा आकर्षण चाहता है। इसी तरह एक अच्छी कविता केवल कविता ही नही होती, बल्कि वह अभिव्यंजना की जितनी भंगिमाएं होती हैं उन सबको अपने में समेटने की ताकत लिए हुए होती है।कविता में शब्दों की मितव्ययिता के साथ-साथ जिनोम और डी0एन0ए0 जैसे भाषा के कोड्स भी उसमें होते हैं...। कोई कहानी एक और दो पृष्ठ में उपन्यास के बराबर प्रभाव डाल देती है लेकिन कोई उपन्यास एक कहानी के बराबर भी प्रभावशाली नही हो पाता। ऐसा क्यों होता है? ऐसा शायद इसलिए होता है कि न तो विस्तार का कोई अंत है और न संक्षिप्तीकरण का कोई एक सुनिश्चित मानदंड हैं। दोनों में भाषिक प्रयोगों की तरह-तरह से गुंजाइश बनी रहती है। कौन लेखक और कौन कवि उसका किस तरह इस्तेमाल करता है....इसी से उसके रचना संसार की झलक मिलती है।
कुछ लोगें ने यह प्रथा चला दी है कि मै जिस विधा में काम करता हूॅ वही श्रेष्ठ है....बल्कि होना तो चह चाहिए था कि हर वह विधा श्रेष्ठ है जिसमें कोई सार्थक अभिव्यंजना हुई हो। विधाओं का महत्व नही....महत्व विचार का है....भाव भंगिमाओं का है....अभिव्यक्ति के संघर्ष का है कथित का भी महत्व है और अकथनीय का भी।
उपन्यास और कहानी में केवल कहानी याद नही रहती बल्कि भाषा का सौष्ठव, उसकी संवेदना और अभिव्यक्ति का लावण्य भी याद रहता है। क्या कहानीकार इस संघर्ष से गुजर रहा है कि वह कथ्य के ही नही भाषा के साथ-साथ भी कुछ काम कर रहा है जबकि अच्छे कवि अपनी कविता में तरह-तरह के सूचनात्मक प्रयोग करते रहते हैं...इसलिए भी कविता का थोड़ा महत्व बढ़ जाता है । कविता में केवल प्रकृति भी तभी अच्छी लगती है जब वह द्वंद्व और संघर्ष में हो। वरना प्रकृति को केवल सौदर्य प्रसाधन बनाने से बात नही बनेगी।
कुछ लोग कविता पर यह आरोप लगाते हैं कि वह जटिल होती हैं, और उसे समझना पड़ता है.....उनसे मेरा निवेदन है कि समझने की कुशलता को वे अपने जीवन से विदा क्यों करना चाहते हैं। विधाओं का झगड़ा इस प्रकार मुझे नकली लगता है। असली है वह निष्पत्ति जो बताती है कि लेखक कहना क्या चाहता है? एक विधा को भी नया स्वरूप देते हुये वह आखिर जीवन का कौन सा पहलू अनुभव करना चाहता है जो अब तक अगम्य और अबाध रहा हो।
शशिभूषण बड़ोनीः क्या आधुनिक साहित्य लोक जीवन से कटता जा रहा है?
लीलाधर जगूडीः हर भाषा का अपना एक लोक होता है। भाषा चाहे पुरानी हो, चाहे कम संख्या वाले लोग उसे बोलते हों, याकि अधिक संख्या वाले लोग उसे बोलते हैं...सारी भाषाएं लोक-भाषाएं हैं...जनभाषाएं हैं।
लोकभाषाओं में से ही कोई भाषा, बहुसंख्यक लोगों की भाषा बन जाती है....और जो भाषाएं अल्पसंख्यक लोगों की रह जाती हैं....उन भाषाओं में लिखने वाले लेखक यह कहते रहते हैं कि वे लोक भाषा लेखक हैं। जबकि प्रत्येक भाषा लोकभाषा है। लेकभाषा को अल्पसंख्यकों की भाषा न मानकर बहुसंख्यकों की भाषा की ही तरह मनुष्य की आत्मा की भाषा मानना चाहिए।
आजकल यह प्रचलन भी है कि फलां लेखक तो जनकवि है, फलां लेखक तो जनलेखक है और बाकी तो कवि और लेखक साधारण हैं...यह भी नासमझी भरी अवधारणा है। हर कवि जन कवि है। किसी कवि ने आज तक जन विरोधी कविता नही लिखी है। हां...यह जरूर हुआ है कि जन कविता के नाम पर एक तरह की विषय वस्तु और आंदोलन से चिपके रहे हैं। उनकी असहमति उन स्थानीय मुद्दो से भी जुड़ी हुई रही है....जो कहीं न कहीं राष्ट्र के विकास की मुख्य धारा के कारक हैं या अवरोधक हैं। लेकिन लोक के आग्रह के कारण उसे एक विशिष्ट गुण मनवाने की चेष्टा की जाती रही है।
आधुनिक साहित्य का भी आधुनिक लोक जीवन है, उसी आधुनिक लोक जीवन से वह नये प्रश्न पैदा करता है। किसी राजभाषा या कि राष्ट्रभाषा का भी लोक जीवन होता है।
शशिभूषण बड़ोनीः पुस्तकों के लोकार्पण बहुत हो रहे हैं....आप भी लोकार्पण के इन समारोह में बहुत जाते हैं .... क्या लोकार्पण से किसी कृति का सही मूल्यांकन हो पाता है?
लीलाधर जगूडीः यह बहुत अच्छा प्रश्न है! अच्छा हुआ आपने लोकापर्ण की जगह विमोचन शब्द का प्रयोग नहीं किया। विमोचन में त्यागने ... छोड़ने और अलग होने की अर्थ ध्वनि ज्यादा है। किसी पुस्तक को लोकार्पित और जनार्पित करना ज्यादा अच्छा लगता है बजाय उस विमोचित करने के।
लोकार्पण के अवसर पर वाकई किसी पुस्तक का सही मूल्यांकन नहीं हो पाता है। जो आलोचक या लेखक या रचनाकार वहां अपने विचार प्रकट करते हैं....पुस्तक के महिमा मंडन की दृष्टि से करते हैं.... वहां तार्किक विवेचन कम और लेखकों द्वारा लेखक को खुश करने का इरादा ज्यादा होता है ताकि उसे आयोजन पर होने वाले खर्च का दुख न हो।
मेरी राय में साल दो साल के बाद किसी अच्छी कृति पर व्याख्या विमर्श कार्यक्रम होना चाहिए। जिसमें उन तमाम प्रश्नों को शामिल किया जाना चाहिए जो पुस्तक के द्वारा इस बीच पैदा हुए हैं, अन्यथा प्रश्नहीन पुस्तकों के लोकापर्ण करने का क्या लाभ हैं। उन्हें तो दरअसल विमोचित ही किया जाना चाहिए। बहुत से लेखकों ने लोकार्पण के अवसर पर दिये गये भाषणों को अपनी कृति की वास्तविक समीक्षा मान लिया है....उन्हें इस मोह से बाहर आने की जरूरत है। प्राचीन काल में विमर्श हुआ है....भाष्य हुआ है.....लोकार्पण नही। अगर कोई कृति वैचारिक रूप से हमारे जीवन में प्रवेश नहीं करती है तो फिर उसका लोकार्पण हो अथवा न हों क्या फर्क पड़ता है।
शशिभूषण बड़ोनीः फिर आलोचना के विकास की कौन सी परिस्थिति और पद्वति आप बताना चाहेंगे?
लीलाधर जगूडीः देखिए, आलोचना तभी विकसित होगी जब कृति-केंद्रित हो। किसी कृति के जन्म लेने की वजह क्या है? क्या वह उन्हीं जाने हुए विषयों के विमर्श को कोई नया मोड़ दे रही है अथवा वह कोई अब तक अज्ञात किसी दुनिया को सामने ला रही है...। केवल वर्णन मात्र से कोई कृति बड़ी नहीं हो जाती। पर यदि वर्णन में अब तक ऐसे वर्णन इस्तेमाल न किये गये हों तो फिर वर्णनों का भी महत्त्व बढ़ जाएगा। घटनाएं क्या हैं? अप्रत्याशित ही अमर होता है। प्रत्याशित को अनिश्चित और सुनिश्चित क्या रूप देने जा रहे हैं। बहतु सारी चीजें अनिश्चत और संदेह से पैदा होती हैं। वे ऐसी जगह पहुंचा देती हैं कि लेखक को डिक्टेट करने लगती हैं।
लेखक का रचा हुआ यह संकट है या परिस्थितियों ने उसे रचा और लेखक सिर्फ उसका संग्रहकर्ता मात्र है। लेखक का जीवन उन परिस्थितियों का कितना शिकार हुआ जिनसे निकलकर वह रचना पाठक के समक्ष आती है। पाठक वहीं पर महान और निर्णायक हो सकता है। जहां उसने बहुत सी परिस्थितियों से गुजरने वाले जीवन को देखा और विचारा हो। वही पाठक आलोचक बन सकता है वरना पचास फीसदी तो लेखक ही अपनी कृति में स्वयं भी आलोचक का धर्म निभा रहा होता है। कवि और लेखक अगर अपने अंर्तमन में आलोचक नही हैं तो वे श्रेष्ठ कवि और लेखक नहीं हो सकते। ‘‘तुम कहते हो हम हां भर लेंगे गांवों के लिए। पर शहर अधिक सुविधा देता है नंगे पावों के लिए।इन पंक्तियों की जो व्याख्या छायावादी काव्यभाषा के बरक्स कथाकार काशीनाथ सिंह ने की थी वह बात लिखते समय मेरे मन में नही थी। उस व्याख्या ने बताया कि हिंदी साहित्य में कितने प्रकार के नंगे पांव हैं। यह भी बताया कि ‘शरद की चांदनी से उजल-धुले/तुम्हारे पांव मेरी गोद में‘ का अर्थ जीवन से कितना कट गया है।
शशिभूषण बड़ोनीः सर , आपने इस बातचीत के लिए इतना बहुमूल्य समय दिया, ....हार्दिक आभारी हूं।
लीलाधर जगूडीः आपका भी।
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लीलाधर जगूड़ी परिचय:
जन्म: 01 जुलाई 1944
स्थान
धंगण गाँव, टिहरी जिला, उत्तराखंड, भारत
कविता संग्रह
शंखमुखी शिखरों पर, नाटक जारी है, इस यात्रा में, रात अब भी मौजूद है, बची हुई पृथ्वी, घबराए हुए शब्द, भय भी शक्ति देता है, अनुभव के आकाश में चाँद, महाकाव्य के बिना, ईश्वर की अध्यक्षता में, खबर का मुँह विज्ञापन से ढँका है
नाटक
पाँच बेटे
गद्य
मेरे साक्षात्कार नाटक जारी है(1972); इस यात्रा में(1974); शंखमुखी शिखरों पर (1964); रात अभी मौजूद है(1976); बची हुई पृथ्वी (1977); घबराये हुए शब्द(1981) अनुभव के आकाश में चाँद / लीलाधर जगूड़ी
साहित्य अकादमी पुरस्कार, पद्मश्री सम्मान, रघुवीर सहाय सम्मान
संपर्क
: सीता कुटी, सरस्वती एनक्लेव, बद्रीपुर रोड, जोगीवाला, देहरादून, उत्तराखंड टेलीफोन : 0135- 266548, 094117- 33588
कविता सुनिए
प्रेम किये दु:ख होए
पल्लवी त्रिवेदी
https://youtu.be/_BYBtEwWQvA
कवि को शब्द की कान और आंख एक साथ बनना पड़ता है
(वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी से शशिभूषण बडोनी की बातचीत)
लीलाधर जगूड़ी |
शशिभूषण बड़ोनीः आजकल जो कविता युवा लिख रहे हैं उनमे आपकी नजर में किस तरह के अनुभव आ रहे हैं।
लीलाधर जगूड़ीः मेरी समझ से न कोई युवा कविता होती है, न कोई बूढ़ी कविता होती है.....कविता हो...कहानी हो ...उपन्यास हो...और चाहे कोई भी विधा हो किसी भी उमर में वह एक लेखक या रचनाकार की अभिव्यक्ति का माध्यम हुआ करती है। उम्र का भी महत्त्व है लेकिन उसी तक सीमित रहना ठीक नही है। खराब लेखक बचपन में अगर खराब लिखता है तो यह उम्मीद की जाती है...कि वह आगे ठीक लिखेगा...यदि वृद्ध होकर भी वह खराब लिखता है तो वह मरने के बाद भी अच्छा नही लिख सकता....खराब लेखक मरने के बाद खराब लिखता है और खराब ही लिखता है। दुनिया में बहुत से लोग हुये हैं जो अपनी जवानी के प्रथम चरण में बीस से चालीस वर्ष के भीतर मर गये और उन्होंने अपना अच्छा लिखा हुआ हमारे लिये विरासत में छोड़ा है। और बहुत से लोग शतायु होकर मरे हैं...पर उनकी अपेक्षा तीगुनी-चौगुनी अच्छी रचनायें लेकर नहीं मरे हैं। लिखने का भी एक जुनून होता है.....और वह किसी भी उम्र में जाग सकता है। किसी भी उम्र में अच्छी रचना आ सकती है।
तुलसी दास और टालस्टॉय बुढ़ापे में अच्छे लिखने के उदाहरण हैं....। केशवदास जैसे बुढ़ापे में खराब लेखक के भी हमारे यहां उदाहरण मौजुद हैं। फिर भी उनकी मेहनत देखते बनती है। उन्हें समझने के लिये जरूरत से ज्यादा टैक्नीकल होना जरूरी नहीं। इतना बहुज्ञ की कहीं से भी कोई अपको अल्पज्ञ न समझ सके। वैज्ञानिक दृष्टि और टैक्नीकल होने में अन्तर है।
आज के युवा लेखक (यही सवाल था न?) कहानी जैसी कहानी और कविता जैसी कविता लिख रहे हैं...वह विस्फोटक नहीं लगते.....बल्कि मैं यूं कहूं कि न वह बहुत ज्यादा ठंडे लगते हैं न बहुत ज्यादा गरम। ऐसे लगता हैं जैसे कोई देहरादून की घोसी गली से कोई एक और अखबार निकल आया है...। किसी दूसरे अखबार का आखिरी समाचार उसमें पहला समाचार हो सकता है......और पहला समाचार उसका आखिरी समाचार हो सकता है। समाचार सब मिलते-जुलते हैं।
युवा का मतलब है, नयी जमीन तोड़ने वाला.... नये संदर्भ ढूढ़ने वाला..... नयी भाषा रचने वाला..... और जैसे कुछ नहीं कहा गया है........वैसा कुछ कहने वाला .....। बल्कि युवा लोगों ने तो कभी -कभी आश्चर्यजनित अनुभव से परिपूरित को बूढ़ा दिखाई देना चाहिए। लगना चाहिए कि इसके पास इतनी अनुभव सम्पदा कहां से आ गयी? युवा होना अनुभवहीन होना नही है....। युवा होने का मतलब ज्ञानबद्व होना। ज्ञानबद्व व्यक्ति परम्परा कायम कर सकता है। मूर्ख युवा उसी डाल को काट सकता है जिस पर बैठा हो...। कालीदास बनने के लिये पेड़ से उतर कर जमीन पर आना जरूरी है और पापड़ बेलना भी। अनेक पराजयों से गुजरने के बाद ही कालीदास हुआ जा सकता है। अपनी पुरानी जीभ भी काट कर चढानी पड़ सकती है। मतलब की नयी जबान पैदा करनी पड़ेगी। कालीदास ने अपने लेखन को ही नही अपनी श्रृति को भी सुधारा। अस्ति कश्चित वाग् विशेषः। कवि को शब्द की कान और आंख एक साथ बनना पड़ता है। अनुभव के पापड़ बेलने वाले युवाओं की रचना अलग से दिखती है और दिखानी चाहिए। रचना का भाव कलेवर एक स्थापत्य की तरह भी दिखना चाहिए। आज के युवा लोगों की रचनाओं में ना तो टैक्नॉलॉजी की आहट ज्यादा दिखती है और न वे पिछ़डेपन का यशोगान करने से अपने को बचा पाते हैं......। मैं अक्सर देखता हूं कि अभी भी लोग गांव की बदहाली को सौंदर्य और शान्ति के प्रतिक के रूप में देखते हैं। जबकि गांव आज दूर्दशा का प्रतीक है। चारों ओैर शहर बनने की होड़ लगी हुयी है। इस होड़ की अन्दरूनी विडंबना की कहानी और कविता कभी देखी है आपने?
शशिभूषण बड़ोनीः बडे़-बडे़ साहित्यकार भी लेखन की शुरुआत कविता से करते हैं लेकिन बाद में वह कविता को कोई बड़ी विद्या नही मानते। मसलन नामवर सिंह, राजेंद्र यादव आदि ने भी शुरुआत कविता लेखन से ही की थी....।
लीलाधर जगूड़ी : बडे़-बडे़ साहित्यकार कविता से शुरुआत जरूर करते है, लेकिन अन्त तक भी वह कविता को साध नहीं पाते हैं और फिर कविता का पिंड छोड़ देते हैं.... यह अच्छी बात नहीं। ठीक उसी तरह कुछ लोग कविता के अलावा कुछ नहीं लिखते और कविता के पीछे डण्डा चलाते रहते हैं। इससे भी कविता कमजोर होती है...यह भी अच्छी बात नहीं। कवि के गद्य और उसकी कविता के गद्य में स्पष्ट फर्क होना चाहिए। विनोद कुमार शुक्ल जैसा घालमेल नहीं।नामवर सिंह का उदाहरण कविता से शुरुआत करने के मामले में एक अच्छा उदाहरण है।.....क्योंकि उन्होने कविता के मर्म को सबसे अधिक समझा है। और समझाया है...। जितना वे लोग नहीं समझा सके जो जिंदगीभर कविता लिखते रहते हैैं, कविता का मर्मज्ञ होना भी कवि होने से कम नहीं।खराब कविता लिखने से अच्छा है कि कविता की अच्छी आलोचना...अच्छी समीक्षा प्रस्तुत की जाय...और नामवर जी ने कविता की समझ को जिस ऊंचाई तक पहुचाया है....वह बहुत कम लोग पहुंचा पाते हैं। जहां तक बात राजेन्द्र यादव की है वे कुछ अच्छी कहानी लिख सके तो सिर्फ इसलिए की उन्हें अच्छी कविता की समझ थी... अन्यथा उनका सारा लेखन कविता की मुखालफत करते हुये गुजर गया और आज भी वही अंश उनके साहित्य में पठनीय है जिनके गद्य को कविता के संस्पर्श ने समृद्व किया है। अच्छी कविता के बिना अच्छा गद्य लिखा नही जा सकता। राजेन्द्र यादव इसके भी प्रमुख उदाहरण हैं।
कविता को बड़ी विधा अच्छे कवि ही बना सकते हैं....अन्यथा छोटे और खराब कवि तो अपनी और कविता दोनों की छीछालेदार करके रख देगें। दो-दो सौ पृष्ठ, पांच-पांच सौ पृष्ठ के उपन्यास कभी-कभी बेकार लगते हैं, दस पंद्रह पंक्तियों की अच्छी सी कविता के सामने। लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो, उस घोड़े से पूछो जिसके मुहं में लगाम है, इस एक पंक्ति पर एक कहानी या एक निबंध लिखा जा सकता है।
कविता से शायद हर लेखक इसलिए भी शुरुआत करता है क्योंकि कविता हर संवेदनशील व्यक्ति को अभिव्यक्ति के लोकतंत्र में शामिल करती है। कविता यह भी याद दिलाती है कि व्यक्ति अधिक पढ़ा हो चाहे कम पढ़ा लिखा हो, और चाहे एक दिन भी स्कूल न गया हो, फिर भी उसके अपने को अभिव्यक्त करने का अधिकार है। और इसी अभिव्यक्ति के अधिकार को कबीर ने हमारे बीच रखा है।
बड़ी चीज विधाएं नहीं होती.....बड़ी चीज विचार होते हैैं......विध का महत्त्व नहीं है.....विचार का महत्त्व है जो उस विधा में आ रखा है, एक ही विचार अपने लिए कई विधाएं चुन सकता है। इसीलिए भाषा और विधा से अधिक महत्त्व विचार का है। विधा यदि विचार को बदल दे-तब विधा का भी महत्त्व बढ़ जाता है। बहुत सी भाषाएं ऐसी है-दुनिया में जिनके लिपि नही हैं.....उनकी मौखिक उक्तियां लिपिबद्व की गई हैं, और वे आज भी रोमांचित करती हैं,
लिपि का इसीलिए महत्त्व है कि उसमें विचार होते हैं। अक्षुण्ता के साथ टिके रहने के लिए विचार कोई लिपि मांगते हैं। ऐसे में जाहिर है कि विचारक की लिपि ही विचार की लिपि बन जायेगी। लिपि इसलिए की हम विचार को डीकोड करने का संकेत समझ सकें।
शशिभूषण बड़ोनीः आपकी कविता में जो चरित्र चित्रण होता है उनमें आप पात्र कहां से लेते हैं?
लीलाधर जगूड़ी : मेरी कविता के पात्र प्रायः परिस्थितिवश आते है? और पात्र साभिप्रायः जीवन की स्थितियों से? भाषा की स्थितियों से और लिखने के उदे्श्य की स्थितियों से आते हैं बाकि सारा जीवन तो पात्रों अ-पात्रों से भरा हुआ है.....उसमें से आने वाले सुपात्रों और कुपात्रों से भरपूर पात्रता होती है।
मेरी कविताओं में वे संभवतः निर्धारित विषयों के अनुसार न आये लेकिन मानवीय परिस्थिति के रूप में वे वहां आ ही जाते हैं। कभी-कभी तो प्रकृति और परिस्थिति ही पात्रों की संरचना कर देती है, घटनायें ही थीम बन जाती है। और थीम ही घटना बन जाते है।
शशिभूषण बड़ोनीः कहानीकार यदि कविता लिखता है तो उसको महत्व नही मिलता......कवि के रूप में उसकी उतनी पहचान नही बन पाती। लेकिन यदि कवि कोई कहानी लिखता हे तो उसमें प्रभाव उत्पन्न होता है...... महत्त्वपूर्ण भी मानी जाती है......अक्सर पहचान भी मिलती है। क्या कारण हो सकता है इसका आपकी दृष्टि में?
लीलाधर जगूड़ी : हिन्दी साहित्य में कथा लेखन का आकलन करते हुये अक्सर यह पाया गया है कि पेशेवर कथा लेखकों की अपेक्षा कवियों ने ज्यादा श्रेष्ठ कहानियां लिखी हैं....। यह ठीक है कि सिर्फ कहानियां व उपन्यास लिखने वाले प्रेमचंद ने बहुत अच्छी कहानियां लिखी हैं...लेकिन भारतीय जन-जीवन के यर्थात को, उसकी विसंगतियों को जितनी सरल ओैर सड़क छाप भाषा में जय शंकर प्रसाद ने काहानियां लिखी हैं उनकी कहानियां और उपन्यास .....प्रेमचंद के कहानी और उपन्यासों पर भारी पड़तें है। यह अलग बात है कि आलोचकों ने यह तुलानात्मक अध्ययन अभी तक किया नहीं है। करेंगे तो लोकवादी आधुनिक कहानी के जनक जयशंकर प्रसाद को एक नयी पहचान मिलेगी। जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘घीसू‘, बेडी, गुंडा, जयदोल, पुरस्कार इत्यादि। उपन्यासों मे कंकाल और तितली, गोदान के यथार्थ पर भारी पड़तें है, अपने युग के यथार्थ पर निराला के चतुरी चमार, कुल्ली भाट प्रेमचन्द के युगीन यथार्थ पर भारी पड़ते हैं। प्रेमचंद कविता लिखने में सर्वाथा विफल रहे हैं लेकिन जीवनानुभव से भरी कहानियों में उनका जवाब नही है। कविता में कथा, कहानी में कथा, नाटक में कथा, दरअसल कथा तत्वों के कई रूप हैं। जिन कथाकारों की कहानियों में भाषा की संरचना कविता जैसी या कविता के निकट पड़ती है.......उनकी कहानियां निर्मल वर्मा, कृष्णा सोबती और ज्ञानरंजन की तरह आप पढ़े बिना नहीं रह सकते हैं और न उन्हें भुला सकते हैं।
कविता लिखना जरूरी नही है, कविता एक सत्व (मदबमद्ध है। वह तत्व जिसमें पड़ जाता है....वह रचना रोचक और स्मरणीय हो जाती है......तब चाहे वह नाटक की भाषा हो...कहानी की भाषा हो या निबंध की हो या कविता की हो। काव्यात्मक सत्व के बिना वह आकर्षण पैदा हो ही नहीं सकता। जयशंकर प्रसाद अधुनिक हिन्दी कहानियों, उपन्यास और कविता के जनक हैं। हिन्दी साहित्य का आधुनिक रूप प्रसाद जी से शुरू होता है। उनके नाटक और भी महत्त्वपूर्ण है। मोहन राकेश की कहानियां व नाटको में कविता के कौशल का सुन्दर इस्तेमाल हुआ है। प्रेमचंद जी ने अगर कविताएं
भी लिखी होती तो उनके उपन्यासों की भाषा दूसरे ही ढंग की होती। मगर जो की नहीं है उसका गम क्या है? अज्ञेय, रघुवीर सहाय, राजकमल चौधरी, कुंवर नारायण, सर्वेश्वर दयाल शक्सेना, श्रीकांत वर्मा, ज्ञान रंजन, काशीनाथ सिंह, ममता कालिया, उदयप्रकाश, एकांत श्रीवास्तव आदि की कहानियां और उपन्यास कविता का भी स्वाद चाखती हैं। मनोहर श्याम जोशी और कृष्णा सोबती की कहानियां और उपन्यास उनकी काव्यात्मक भाषा का भी नमुना है। जिन कहानीकारों ने कविता लिखी हैं, अथवा जिन कवियों ने कहानियां भी लिखी है उनमें से विनोद कुमार शुक्ल एक आदर्श उदाहरण हैं कि वे दोनों विधाओं में गण्य तथा मान्य है। इसलिए यह आरोप मुझे सुचिंतित और युक्तिसंगत नहीं लगता।झगड़ा विधाओं का नहीं होना चाहिए। झगड़ा हो तो इस बात का हो कि विधाओं में विचार क्या आ रहे हैं और क्या वे विचार पहली बार आ रहे हैं ? कहानियां और उपन्यास में जो जीवन स्थितियां आयी हैं वे आज की जीवन के कौन से विचारों की पूरक हैं।
शशिभूषण बड़ोनीः आप कविता क्यों लिखते हैं ?
लीलाधर जगूड़ी : इस प्रश्न को आप यूं भी पूछ सकते हैं कि आप कविता ही क्यों लिखते हैं? वाकई यह चिन्ता का विषय है कि कवियों को केवल कविता लिखने तक ही समित क्यों रहना चाहिए? उन्हें और भी कुछ लिखना चाहिए और मैं तो कहूंगा कि निबंध लुप्तप्रायः विधा हो चुकी है......इसलिए कवि यदि लिखेंगे तो वह महत्वपूर्ण और सुन्दर होंगे। भाषा निबंध मति मंजुल मातनोति।
मैनें कई बार सोचा है कि जिन विषयों में मैं कविता लिखता हूं उन पर यदि मैं कहानियां लिखू। जो बात मैं दस, पंद्रह पंक्तियों में लिखता हूं उसे लिखने के लिए मुझे पांच पृष्ठ तो लिखने ही होंगे। कभी कभी मुझे हर विषय पर कहानियां लिखना भी भाषा का अपव्यय लगता है....। इसलिए कविता की मितव्ययता से ही काम चला लेता हूं।
कविता का एक गणितिय गुण है कि वह भाषा और संदर्भो का संश्लिष्टीकरण करते हुये उन्हें संकेत सूत्र जैसा बनाने की कोशिक करती है.....यानि विज्ञान में जिस तरह कोडिंग की जाती है फिर कोड से डीकोड करना पड़ता है.....यदि ऐसा करोगे तो विस्तार वहां मौजूद है.....अन्यथा सूचनात्मक संकेत और अर्थ की व्यापकता कविता में अक्सर गहराई देने की कोशिश करती है तो अच्छा लगता है...।
शशिभूषण बड़ोनीः आप अपनी अनूठी रचना प्रक्रिया के बारे में थोड़ा बतायेंगे?
लीलाधर जगूड़ीः रचना भी एक शरीर है। शरीर की रचना प्रक्रिया हर एक शरीर में विधमान रहती है। लेकिन यह दिखाई नही देती है। हमारे शरीर का रक्त प्रवाह हमें दिखाई नही देता। शरीर की चेतना सारे तामझाम से अलग है। शरीर की चेतना इन्द्रीयों के समन्वय पर निर्भर करती है। इन्द्रीयों को चेतना की और चेतना को इन्द्रीयों की जरूरत है। इन्द्रीयों से ही अतीद्रिंय आत्मा की अनुभूति होती है। रचना एक पूंजी सक्रियता है। अपने संसार में एक दूसरा संसार बनाना ही रचनात्मक हस्तक्षेप है। रचना का शरीर भी प्रत्यक्ष (यथार्थ) और अप्रत्यक्ष (अयथार्थ) दोनों से बनता है।
हमारे हड्डीयां भी हमें दिखाई नही देती.....। हमारा पाचन तंत्र हमारे द्वारा हमारी आंखों से दिखाई नही देता। इसके लिए अलग से एक्सरे मशीन इजाद की गई है। उस एक्सरे मशीन के द्वारा शरीर की आन्तरिक स्थिति का पता लगाने की कोशिश करते हैं....। ठीक उसी प्रकार किसी रचनाकार की रचना प्रक्रिया उसकी रचनाओं से ही समझी जा सकती है.... और इस तरह मेरी रचनाओं की रचना प्रक्रिया एक जैसी नही परखी जा सकती.....क्योंकि हर रचना का स्वभाव, अनुरोध और प्रतिरोध अलग-अलग होते हैं।
मेरी रचना की प्रक्रिया को किसी एक रचना से भी नही पहचाना जा सकता क्योंकि हर एक रचना के पीछे एक अलग सदेंश भी छिपा होता हे। इसीलिए हर रचना की रचना प्रक्रिया जाहिर है कि परिस्थितिवश भाषा के अपने उपादानों के कारण शब्दावली व मुहावरें की संगति के कारण भिन्न हो जायेगी। हर रचना की रचना प्रक्रिया एक जैसी नही हो सकती। रचना प्रक्रिया बता पाना बहुत कठिन है। आप किसी मां से पूछें की आपने यह बच्चा कैसे जना तो वह क्या बता देगी? मेरे को तो यह दिखाई देता है कि सभी मनुष्यों की रचना प्रक्रिया एक जैसी है, लेकिन समाज में मनुष्यों की स्थिति एक जैसी नही है। उनका जन्म, पालन और जीवनयापन और यहां तक की मरना भी हर एक का अलग-अलग तरह से होता है। इसलिए रचना प्रक्रिया को किसी एक बने बनाये फार्मूले से बांचना या जांचना बहुत मुश्किल है। बहुत सारी अच्छी रचनाये पढ़तें हुये लगता है कि यह विचार रचनाकार के मन में तुरन्त आ टपका होगा.... जबकि वह कई दिनों से राह ढूढ़ रहा होता है।
शशिभूषण बड़ोनीः रचना कथ्य और शिल्प में आप किसे प्रमुख मानते हैं और क्यों?
लीलाधर जगूड़ीः एक अच्छी रचना में कथ्य और शिल्प आपस में गुंथे हुये होते हैं......आज तक कोई रचना केवल शिल्प के लिए नही लिखी गई हे। तथ्य हर बार अपना एक शिल्प ले आता है.....। इसका मतलब यह नही है कि शिल्प का कोई महत्व नही हे। शिल्प का महत्व कुछ-कुछ इस तरह का है, जैसे की किसी के चेहरे नाक-नक्श, किसी का शरीरिक सौष्ठव....किसी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की झलक .......लेकिन इतने मात्र से सम्पूर्ण जीवन के कर्म, विचार....सम्पूर्ण जीवन के व्यवहार समझ में नही आ सकते...। एक रचना के लिए कथ्य भी जरूरी है और शिल्प भी ....।
शिल्प के बिना अच्छा कथ्य भी अपना आकर्षण खो बैठता है। शिल्प की कोई निर्धारित पहचान और सीमा नही है...। कथ्य की तरह शिल्प भी पैदा करना पड़ता है। किसी भी रचना में भाषा, संकेत और ध्वन्यार्थ का पुननिर्माण करना पड़ता है।
शशिभूषण बड़ोनीः अधिकांश रचनाधर्मी मानते है कि विश्व में कोई सम्पूर्ण वैज्ञानिक और सही जीवन दर्शन है तो वह मार्क्सवाद है। ऐसा क्यों मानते हैं?
लीलाधर जगूडीः मार्क्सवाद अच्छा जीवन दर्शन है। लेकिन वही एक सही जीवन दर्शन है...इस पर बहस की काफी गुंजाईस है...। लेकिन हर तरह की बहस के बाद भी तो यह कहना ही पडेगा की मार्क्सवाद भी अधिकांश सुन्दर जीवन दर्शन है। मार्क्सवाद ने मेरी समझ से पहला काम यह किया है कि मनुष्य को भौतिकवादी सोच से प्रचलित होने की वैज्ञानिक नसीहत दी...। उसने बताया की मनुष्य का अध्यात्मवादी होने से अच्छा पदार्थवादी होना है। यदि मनुष्य पदार्थवादी होगा तो वह भौतिकवादी हुये नही रह सकता। पदार्थ की भी एक चेतना होती है..। ठीक मनुष्य की तरह। लेकिन दोनों में बडा फर्क है।
पदार्थो की चेतना से टकराने के लिए मनुष्य बना है। मनुष्यों की चेतना पदार्थों की चेतना से टकराती है या नही, पर मनुष्य पदार्थो के स्वरूप को बदल जरूर देते हैं। सारे ईश्वरवादी अध्यात्मवाद चिंतन की जड़ पदार्थवाद में हे। अगर पदार्थ नही तो...पद (शब्द) का भी कोई अर्थ नही है।
यह एक आश्चर्यजनक साम्य है कि शब्द के लिए इस्तेमाल किये जाने वाला ‘पद‘ शब्द भी पदार्थ के प्रारंभ में लगा दिया गया है। यानि की शब्द के बिना पदार्थ अधूरा है और पदार्थ के बिना शब्द अधूरे हैं। वह एक दूसरे के पूरक पर्याय है।
मार्क्सवाद ने वस्तुओं के उत्पन्न में मूल्य कैसे पैदा होता है ‘यह समझाने की सबसे पहले कोशिश की...। इससे पहले दर्शन शास्त्र में इस विषय पर किसी दार्शनिक के विचार नही पाये जाते हैं। मार्क्स ने बताया की वस्तु का मूल्य मनुष्य के परिश्रम से पैदा होता है। वस्तु , धन, परिश्रम बराबर मुल्य। तब हम यह जान पाये की किसी चीज की कीमत के पिछे छिपी हुई मनुष्य की मेहनत है। मनुष्य की मेहनत से ही चीजें मुल्यवान बन जाती है। वह मनुष्य कोन है? उसे बेचनेवाला या उसे खरीदने वाला? या उसे पैदा करने वाला? मार्क्स कहता है कि वह मनुष्य वह मजदूर है जो उस पदार्थ के सवरूप को अपने परिश्रम से किसी मानवीय उपयोगिता में बदल देता है। हम बाजार के जानते है, पैसे कमाने वाले सेठ को भी जानते हैं लेकिन उत्पादनशील मजदूर को नही जानते। मार्क्स ने पहली बार उसी उत्पादनशील मनुष्य को प्रतिष्ठित किया। उस नगण्य मनुष्य को मार्क्सवाद के कारण उत्पादन की मौलिक इकाई के रूप में सुमार किया जाने लगा। जिसकी पहचान मार्क्स ने शोषित वर्ग के रूप में कराई है..।
कितनी बड़ी विडम्बना है कि इस वर्ग को उत्पादक वर्ग में शामिल ही नही माना जाता था, लेकिन औद्योगिक क्रांत के समय मार्क्स ने मेहनतकश लोगों के द्वारा उत्पादित वस्तु में मुल्यवता पैदा करने की महान घटना को चिन्हित किया और मार्क्स ने कहा कि जो मुनाफा है उसमें इस मेहनतकश का भी हिस्सा होना चाहिए। इससे पहले कि मनुष्यों ने आत्मा पर....परमात्मा पर....भी विश्वाश किया है पर मेहनत करने के बावजूद दरिद्र रह जाने वाली आत्माओं पर विचार नही किया। मार्क्स का दर्शन मेरी दृष्टि में दरिद्र और उत्पीड़ित मेहनतकश आत्माओं के उद्वार का दर्शन है।
शशिभूषण बड़ोनीः कवि के अन्दर व्यक्ति और समाज के हितों के बीच द्वंद्व क्या किसी सार्थक लेखन की भूमिका बनाता है?
लीलाधर जगूडीः व्यक्ति के बिना समाज का निर्माण हो ही नही सकता। व्यक्ति समाज की एक ईकाई है..और समाज कह कर हम कई बार व्यक्ति का अमूर्तिकरण कर देते हैं। क्योंकि अब तक के उदाहरणों से यह ज्ञात होता है कि समाज की अपेक्षा व्यक्तियों ने समाज को बदला है।
कवि भी एक व्यक्ति है। कवि भी एक नागरिक है.... कवि भी एक नियति में पड़ा हुआ अथवा सुखी-दुखी होता हुआ मनुष्य है। मनुष्य माने एक व्यक्ति। सारा समाज मिलकर एक इमारत बना सकता हे....भूगोल का नक्शा बदल सकता है....पर एक अच्छी कविता लिखने के समाज द्वारा कोई उदाहरण प्रस्तुत नही है, एक अच्छी रचना अभी तक एक अकेले व्यक्ति की देन के रूप में पहचानी जाती रही है। लेखन के संसार में इसकी एक अकेले लेखन वाले व्यक्ति का महत्व है ठीक है कि वह सारे समाज की भाषा का, संघर्ष का, निष्पत्तियों का इस्तमाल करता है लेकिन ऐसा वह हर बार अपनी हर रचना में एक अकेले व्यक्ति की तरह कर रहा होता है।
यह जो व्यक्ति और समाज के बीच का द्वंद्व है.. यह हर बार किसी न किसी रचना की भूमिका रचता रहता है। वह कितनी सार्थक और कितनी निरर्थक है यह तो संभवतः किसी दूसरे व्यक्ति को सोचना है...।
शशिभूषण बड़ोनीः अब आपकी उम्र आत्मकथा लिखने की हो चली है। क्या इस ओर सक्रिय हैं?
लीलाधर जगूडीः अभी तो मैं आत्मकथा को जी रहा हूं और
अपने ढंग से रच भी रहा हूं....। थोड़ा और जी लूं...थोडा और रच लूं... तो शायद लिख भी लूंगा?
शशिभूषण बड़ोनीः आप डायरी भी लिखते हैं?
लीलाधर जगूडीः कभी-कभी, नियमित नहीं।
शशिभूषण बड़ोनीः किन-किन लेखकों की डायरियां आपको अच्छी लगीं?
लीलाधर जगूडीः काफ्का की डायरी।
शशिभूषण बड़ोनीः किन-किन की आत्मकथा व संस्मरण?
लीलाधर जगूडीः महात्मा गांधी।
शशिभूषण बड़ोनीः उनकी किन बातों पर आप फिदा हैं?
लीलाधर जगूडीः फिदा नही बल्कि डरा हुआ हूं....क्योंकि सच बोलने वाला ही आत्मकथा लिख सकता है।
शशिभूषण बड़ोनीः : अनुभव का ऐसा कौन सा क्षेत्र है, जहां तक अभी कविता नहीं पहुंच सकी?
लीलाधर जगूडीः बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां कविता को अभी पहुचना है। विज्ञान की लैब में....टेक्नोलोजी के, हर नये अविष्कार के संसार में। क्योंकि मनुष्य अब केवल ईश्वर प्रदत्त नही रह गया है। उसका संसार मनुष्य प्रदत्त ज्यादा हो गया है। कविता को मनुष्य प्रदत्त सांसारिक गुणों में अभी और प्रवेश करना है। कविता को प्रकृति के सामने हमेशा नतमस्तक ही नही रहना है बल्कि मनुष्य द्वारा रची जाती हुई नयी प्रकृति को भी अंकित करना है।
शशिभूषण बड़ोनीः आप किस कवि से अधिक प्रभावित हैं। या रहे हें? उनकी कुछ उल्लेखनीय रचनाएं जिनसे आपके लेखन को गति या दिशा मिली?
लीलाधर जगूडीः मैं जयशंकर प्रसाद जी से ज्यादा प्रभावित रहा हूं...? उनके उपन्यास....उनके नाटक...उनकी कहानियां....उनके निबंध आज भी चुनौती देते हुए दिखते हैं। उनके बाद अज्ञेय जी ऐसे रचनाकार हुए हैं जिन्होंने कविता, कहानी, नाटक, निबंध, उपन्यास आदि को समृद्व किया है। प्रेमचंद की तरह वे केवल कहानी से बंधकर नही रह गये।
शषिभूषण बड़ोनीः गद्य विधा में भी आप कुछ लिख रहे हें?
लीलाधर जगूडीः लिख रहा हूं...। अब पुस्तकाकार भी आपको देखने को मिलेगा।
शशिभूषण बड़ोनीः जब आप लिखते या पढ़ते नहीं है तब आप क्या करना पसंद करते हैं?
लीलाधर जगूडीः अन्य सभी घर के दूसरे सामान्य कार्य करना पसंद करता हूं.....हां लेकिन उस समय भी लिखने और पढ़ने के बारे में ही सोचता रहता हूॅ।
शशिभूषण बड़ोनीः एक दौर था जब कवितायें याद हो जाती थी...कविता नारा भी होती थी...लेकिन आज ऐसा दिखाई नहीं देता ....
लीलाधर जगूडीः पता नहीं वो कौन सा दौर था जब बिना याद किये कविताएं याद हो जाती थी...लेकिन मैं इतना जरूर जानता हूं जिस कविता अथवा कठिन उक्ति को उल्लेखनीय मानते हुए कोई व्यक्ति अगर बार-बार आवृत्ति करेगा तो वह उसे याद हो जायेगी। बहुत से लोगों को गालियां बहुत यादि हो जाती हैं तो बिना प्रयास किये जो याद हो जाए वह ज्यादा महान है, यह मानना मेरे लिए थोड़ा मुश्किल हैं।
पहले कुछ कविताओं के साथ स्मृति का गठबंधन इसलिए हो जाता था क्योंकि कुछ कविताआं में लयात्मकता थी और कुछ कविताओं में तुकात्मकता थी। धीर-धीरे लयात्मकता की कमी के बावजूद लोग तुकात्मकता का ही सहारा लेने लगे और उसे ही छंद मानने लगे। जबकि छंद एक लय और प्रवाह का नाम है, तुक का नाम नहीं। अगर तुक ही छंद होता तो संस्कृत साहित्य तुकांं से भरा होता। संस्कृत काव्य के श्लोकां में एक या दो प्रतिशत तुक के अलावा कहीं तुक मिलाने का आग्रह नहीं होता है, बिल्क बोलने की लय और अर्थ का प्रवाह छंद का निर्माण करता है। यह परंपरा उर्दू शायरी में भी मौजूद हैं।
आधुनिक समय में भी कविता नारे की तरह लिखी जाती रही है....लेकिन वह एक सर्वमान्य व व्यापक विधा का रूप ग्रहण नही कर सकी है। केवल नारा लगाना या बन जाना कविता का पहला और उल्लेखनीय गुण नही है।
शशिभूषण बड़ोनीः आंकडे बतातें हैं कि किताबें ज्यादा छप रही हैं, दूसरी तरफ कहा जाता है कि पढ़ने वाले नहीं हैं? यह विरोधाभास कैसा है?
लीलाधर जगूडीः यह प्रश्न सभी भाषाओं पर एक जैसा लागू नही होता। मलयाली और बंगला भाषा में पुस्तकें खरीद कर पढ़ी जाती हैं....हिंदी में पुस्तकें के लिए भी मुफ्तखोरी है...और जो चीज मुफ्त में मिलती है, उसका कोई महत्व नही होता.....
हिंदी में यह उम्मीद की जाती है कि लेखक अपनी किताब मुफ्त में बांटेगा....तब पाठक उन पुस्तकों को पढ़ने की कृपा करेंगे....यह बहुत अनुचित प्रथा है...।
सभी पुस्तकें बहुत पठनीय नही होती और न संग्रहणीय होती हैं। इसके लिए समाचार पत्र एवं मीडिया को पुस्तक समीक्षा का एक कालम स्थायी रूप से चलाना चाहिए...जिससे पाठकों को अपनी पसंद की पुस्तकों का चयन करने की सुविधा हो, अन्यथा सामान्य तौर पर लोगों को यह पता ही नही होता कि कौन सी किस विषय पर पुस्तक प्रकाशित हुई है, समीक्षा और चर्चाओं के द्वारा पुस्तकों का डंका बजना चाहिए...।
किताबें छप रही हैं....यह महत्वपूर्ण नही है...महत्वपूर्ण यह है कि अच्छी, उपयोगी और संग्रहणीय पुस्तकें कितना छप रही है?कौन सी ऐसी पुस्तक आई है जो जीवन के किसी दुर्लभ नये संदर्भ की जानकारी देती हो.....इसके लिए समीक्षा ही एकमात्र सूचना प्राप्त करने का विश्वसनीय आधार हो सकता है...। यह कहना सरलीकरण होगा कि पुस्तकें छप रही हैं और पाठक नही हैं, क्योंकि मुझे भी अक्सर यह सुनने को मिलता है कि कविता की पुस्तकें नही बिकती हैं और न उनके पाठक हैं ...इसलिए प्रकाशक उन्हें छापने को तैयार नहीं होते।
लेकिन मेरा अनुभव इससे इतर है....। मेरी कोई कविता पुस्तक ऐसी नही है जिसका केवल एक ही संस्करण छपा हो। सिवाय इसके ‘‘ जितने लोग उतने प्रेम ‘‘ जो पिछले साल छपी। पूर्व प्रकाशित लगभग सभी संग्रहों का तीसरा और पांचवा संस्करण प्रकाशित हो गये हैं....इससे मुझे अहसास होता है कि जरूर कहीं न कहीं छोटा -बडा पाठक वर्ग कविता को पढ़ रहा है...। ये जो साल दो साल में हजार दो हजार कविता की किताब बिक जाती हैं....(वह भी कविता की) यह हो सकता है कि किसी कवि के संबंध में सही हो सब के संबंध में नहीं पर इतना जरूर है कि कविता के वाक्य विन्यास ने कविता में अनुभव प्रकट करने के तेवरों ने, कविता की शैलियों ने, कविता में वाक्य विन्यास के शिल्प ने, ऐसा कुछ विशेष किया है जिसकी वजह से समाचार पत्रों के शीर्षकों की शैलियां बदल गयी हैं और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के समाचार वाचन की शैलियां बदल गयी हैं।
मीडिया में समाचार वाचन थियेटरीकल (नाटकीय) सामने आया है उसमें कही न कहीं कविता का बहुत बडा हाथ है। कविता वही अच्छी नही ंहोती बल्कि वह भी अच्छी हो सकती है....जो हमारी हताशा को थोड़ा ही सही पुचकार कर होश में ला दे। कविता का यह भी एक काम हे कि वह अनुभव को विचार में ढालकर इस तरह तराश दे कि वह हमारी स्मृति का हिस्सा हो जाए और वह कविता जीवन में विचार विनियम के काम आने लगे।
साक्षरता इधर बढ़ी है...टेक्नोलोजी बढ़ी है...सूचनाओं के साधन बढ़े हैं वैज्ञानिक चिंतन बढ़ा है...तब यह चिंता का विषय तो होना ही चाहिए कि इधर नौसिखिया टेक्नोलोजी वाले युवा वर्ग के बीच में कविता का सुखद प्रवेश देखने को मिला है, लेकिन ज्ञान के अन्य अनुशासनों में काम करने वाले लोगों के बीच कविता का आना-जाना कुछ कम हे... शायद धीरे-धीरे विज्ञान को भाषा की शक्ति पर भरोसा बढे़गा और वह यंत्र विज्ञान के अलावा शब्द विज्ञान के सामाजिक संपर्क मं भी आएगा, क्योंकि पश्चिम की अनेक भाषाओं में इधर जो कविता संग्रह आए हैं... उनमें वैज्ञानिक पेशे से जुड़े कवियों की संख्या अधिक है...। इसका मतलब यह भी निकलता है कि विज्ञान भी एक काव्योचित न्यास एवं काव्योचित नैतिकता चाहता है। इस दृष्टि से भारतीय भाषाओं में बहुत कम विचार देखने को मिलते हैं...यह पाठकों की कमी नही है बल्कि समर्थ पाठाकें की कमी ज्यादा झलकाता है।
शशिभूषण बड़ोनीः आजकल हिंदी साहित्य में पुरस्कारों की बाढ़ आ रखी है...आप इस पर क्या कहते हैं?
लीलाधर जगूडीः पुरस्कारों की बाढ़ उन्हें दिखाई देती है जिन्हें पुरस्कार नहीं मिलते, लेकिन जो सचमुच पुरस्कार योग्य हैं उन्हें तो पुरस्कारों का अकाल दिखाई देता है। छोटी-छोटी पूंजियों के भी पुरस्कार नहीं हैं। बड़ी पूंजियों के पुरस्कार दो या तीन हैं। पुरस्कारों में सम्मान है लेकिन लेखक को जीवन यापन करने का सामान प्राप्त नहीं होता।लेखक का पोषण स्त्रोत केवल लेखन से हासिल होनेवाला पारिश्रमिक अथवा रायल्टी बगैरह बहुत नगण्य और कमजोर है।
लेखक को सम्मान व सामान दोनों की जरूरत है। सामान से मेरा अभिप्राय जीवन यापन संबधी साधनों से है। बड़े और सम्मानित माने जाने वाले भारत सरकार द्वारा स्थापित साहित्य अकादमी का प्रति वर्ष भारत की प्रत्येक भाषा में एक उत्कृष्ट कृति को लेकर किसी लेखक को सम्मानित करने की परंपरा है जो प्रशंसनीय है...। लेकिन उसमें भी मात्र एक लाख रूपये की राशि सन्निहित है। जो साठ वर्ष के पहले मुश्किल ही मिल पाती है...। हिंदी का संसार बड़ा है और उसके मुकाबले पुरस्कारों का संसार बहुत ही छोटा और नगण्य है। राज्य सरकारों की काई पुरस्कार नीति नहीं है। राज्य सरकारों में साहित्य और कला संरक्षण की कोई चिंता दिखाई नहीं देती। हमारे जो जन प्रतिनिधि चुनकर आते हैं उनका अभी तक एक प्रतिशत भी साहित्य से संबंध नहीं देखा गया है। उनका आर्थिक व्यवसायों से जितना संबंध होता है। सांस्कृतिक उन्नयन करने वाली विधाओं से उनके संबंध लगभग दरिद्र हैं, इसलिए वे रचनात्मक सहित्य की सामाजिक भूमिका भी नहीं जानते हैं...न वे उससे होने वाले अच्छे संबंध के समाज पर विश्वास करते हैं।
बिरला फाउडेंशन से व्यास सम्मान, सरस्वती सम्मान और ज्ञानपीठ द्वारा दिया जाने वाला मूर्ति देवी सम्मान व ज्ञानपीठ सम्मान, इफ्को सम्मान आदि आर्थिक रूप से थोड़ा बड़े सम्मान जरूर हैं लेकिन वे सत्तर और अस्सी वर्ष की उम्र से पहले नहीं मिलतें हैं। इसलिए कम उम्र वाले प्रतिभाशाली लेखक उन सम्मानों से वंचित रह जाते हैं। कम उम्र जीने वाले अच्छे लेखक उन सम्मानों से वंचित रह जाते हैं।
अगर कोई लेखक और रचनाकार है तो उसे पचास से पैंसठ और अधिकतम सत्तर वर्ष तक सम्मान प्राप्त हो जाने चाहिए, ताकि वह अपने जीवन में जीने लायक परिस्थितियों का निर्माण कर सके और अपने बेहतर लेखन से अपने पुरस्कारोत्तर जीवन को स्मरणीय बना सके। हिंदी में अधिकतर पुरस्कार लेखकों को अशक्त उम्र में मिले हैं और उस धन राशि का उपयोग उनके परिवार के ऐसे सदस्यों ने किया है जो साहित्य से किसी तरह का रागात्मक संबंध नहीं रखते, बल्कि साहित्य व साहित्यकारों को निरर्थक व बोझ मानते हैं। कई परिवार तो कवि -लेखक होने से ही घृणा करते हैं।
पुरस्कारों का मतलब है....आत्मविश्वास को प्रोत्साहन देते हुए जीवित रहने के संशाधनों में वृद्वि। ताकि लेखक जब तक जिये तब तक बेहतर लिखे।
शशिभूषण बड़ोनीः कहा गया है कि गद्य कवियों की कसौटी होती है। कविता की कसौटी क्या है? वे कौन से तत्व हैं जिनके होने से रचना कविता कहलाती है, न होने से गद्य?
लीलाधर जगूडीः कविता की मूल उत्पत्ति कवि से होती है। अगर कवि नहीं है तो कविता नहीं है। कविता एक सामूहिक उत्पादन नहीं है। कविता को किसी कंपनी के विज्ञापन की तरह भी नही खिवाया जा सकता है। कविता उस व्यक्ति पर निर्भर करती है जो एक अकेला व्यक्ति है, उसे ही अपने उपादानों, संकटों और अभिव्यक्ति सामर्थ्यो के बारे में सोचना है...। उसे ही यह तय करना है कि क्या करना है और उसके परिणाम वह क्या चाहता है? कविता की सफलता का श्रेय कवि को ही जाता है। समाज को नहीं।इसलिए यह बहुत जरूरी है कि कवि के बिना बनाये जाने वाले संशाधनों के बारे में भी थोड़ा गहराई से विचार कर लिया जाए।
पहली चीज तो यह है कि ‘कवि‘ शब्द का अर्थ क्या है? और दूसरी बात यह है कि ‘कविता‘ शब्द का क्या अर्थ है? गद्य तो हम सभी लोग जानते हैं। गद्य शब्द गद् धातु से बना है जिसका अर्थ होता है बोलना। इसी धातु से एक और शब्द बनता है-निगदति जिसका मतलब होता है-सोच समझकर बोलना, तो बोलना गद्य है.....इसीलिए बोलने में ही कविता है। इसी बोलने को गद्य कह कर प्रशंसित किया गया है कि कवियों को बोलना अच्छा होता है...। बोलना मानी उक्ति।आधुनिक समय में गद्य का मतलब केवल प्रोज तक सिमट कर रह गया है....इसलिए शमशेर बहादुर सिंह ने एक कविता में कहा है कि? ‘बात बोलेगी-हम नहीं। भेद खोलेगी बात ही‘। यह बात का बोलना ही कवि की बात का बोलना है....और बोलना भी ऐसा जो भेद खोल रहा हो....किसी रहस्य को अनावृत्त कर रहा हो...उक्ति वैशिष्ठ्य ही काव्य है।कहने का अभिप्राय यह है कि गद्य सिर्फ ‘प्रोज‘ नहीं है गद्य ‘बोलना‘ भी है .... और बोलने से ही सारे साहित्य की शक्तियां जुड़ी हुई हैं...विधाएं जुड़ी हुई हैं, बोलने से कथा और नाटक दोनों जुड़े हुऐ हैं...। बोलने से कविता तो पहले ही जुड़ चुकी थी। कविता बोलने की आदिम विधा है। आदिकाल से औरा आज तक कविता के स्परूप में और उदृदेश्य में परिवर्तन आते रहे हैं....और वह अपने को अभिव्यक्ति के समकालीन संसार में एकदम अपने ढंग से शामिल करती रही है....। लेकिन उसका बोलना नहीं रुका।
कवि का एक अर्थ यह भी है कि जिसकी अभिव्यक्ति-कथन -विशेष‘ पर टिकी रहती हो.....। कथन-विशेष की तार्किकता कविता का निर्माण करती है। बहुत से लोग अब कविता को एकदम कहानी की तरह लिखने लगे हैं....बहुत से लेग कहानी को भी कविता की तरह लिखने लगे हैं....। विधाओं का वर्चस्व टूट रहा है....। अभिव्यक्ति में भी तरह-तरह के लोकतंत्र पैदा हो रहे हैं।कौन किस विधा को किस-किस तौर तरीके से साध सकता है....आगे बढ़ा सकता है....और एक वैचारिक गुरूत्वाकर्षण उसके भीतर पैदा कर सकता है...वही शायद उस विधा का सर्वोत्कृष्ट रचनाकार हो सकता है। आज की कविता के लिए समाचार और सूचनाएं जिस शिल्प में और जिस भाषा में आ रही हैं वे संदर्भ को समृद्व करने में तो सहायक होती हैं, लेकिन यदि वे कथ्य का अंतिम निष्कर्ष भी बनना चाहती हैं तो इससे रचनाएं कमजोर हो जायेंगी। रचनाओं का निष्कर्ष दूसरी विधाओं से निकलने वाले मंतव्य से अलग होना चाहिेए।
शशिशशभू बड़ोनीः विधाओं का जो परसपर झगड़ा दिखाई देता है उसके बारे में आपका क्या विचार है?
लीलाधर जगूडीः अच्छा गद्य भी अच्छी कविता की तरह एक समझदारी भरा आकर्षण चाहता है। इसी तरह एक अच्छी कविता केवल कविता ही नही होती, बल्कि वह अभिव्यंजना की जितनी भंगिमाएं होती हैं उन सबको अपने में समेटने की ताकत लिए हुए होती है।कविता में शब्दों की मितव्ययिता के साथ-साथ जिनोम और डी0एन0ए0 जैसे भाषा के कोड्स भी उसमें होते हैं...। कोई कहानी एक और दो पृष्ठ में उपन्यास के बराबर प्रभाव डाल देती है लेकिन कोई उपन्यास एक कहानी के बराबर भी प्रभावशाली नही हो पाता। ऐसा क्यों होता है? ऐसा शायद इसलिए होता है कि न तो विस्तार का कोई अंत है और न संक्षिप्तीकरण का कोई एक सुनिश्चित मानदंड हैं। दोनों में भाषिक प्रयोगों की तरह-तरह से गुंजाइश बनी रहती है। कौन लेखक और कौन कवि उसका किस तरह इस्तेमाल करता है....इसी से उसके रचना संसार की झलक मिलती है।
कुछ लोगें ने यह प्रथा चला दी है कि मै जिस विधा में काम करता हूॅ वही श्रेष्ठ है....बल्कि होना तो चह चाहिए था कि हर वह विधा श्रेष्ठ है जिसमें कोई सार्थक अभिव्यंजना हुई हो। विधाओं का महत्व नही....महत्व विचार का है....भाव भंगिमाओं का है....अभिव्यक्ति के संघर्ष का है कथित का भी महत्व है और अकथनीय का भी।
उपन्यास और कहानी में केवल कहानी याद नही रहती बल्कि भाषा का सौष्ठव, उसकी संवेदना और अभिव्यक्ति का लावण्य भी याद रहता है। क्या कहानीकार इस संघर्ष से गुजर रहा है कि वह कथ्य के ही नही भाषा के साथ-साथ भी कुछ काम कर रहा है जबकि अच्छे कवि अपनी कविता में तरह-तरह के सूचनात्मक प्रयोग करते रहते हैं...इसलिए भी कविता का थोड़ा महत्व बढ़ जाता है । कविता में केवल प्रकृति भी तभी अच्छी लगती है जब वह द्वंद्व और संघर्ष में हो। वरना प्रकृति को केवल सौदर्य प्रसाधन बनाने से बात नही बनेगी।
कुछ लोग कविता पर यह आरोप लगाते हैं कि वह जटिल होती हैं, और उसे समझना पड़ता है.....उनसे मेरा निवेदन है कि समझने की कुशलता को वे अपने जीवन से विदा क्यों करना चाहते हैं। विधाओं का झगड़ा इस प्रकार मुझे नकली लगता है। असली है वह निष्पत्ति जो बताती है कि लेखक कहना क्या चाहता है? एक विधा को भी नया स्वरूप देते हुये वह आखिर जीवन का कौन सा पहलू अनुभव करना चाहता है जो अब तक अगम्य और अबाध रहा हो।
शशिभूषण बड़ोनीः क्या आधुनिक साहित्य लोक जीवन से कटता जा रहा है?
लीलाधर जगूडीः हर भाषा का अपना एक लोक होता है। भाषा चाहे पुरानी हो, चाहे कम संख्या वाले लोग उसे बोलते हों, याकि अधिक संख्या वाले लोग उसे बोलते हैं...सारी भाषाएं लोक-भाषाएं हैं...जनभाषाएं हैं।
लोकभाषाओं में से ही कोई भाषा, बहुसंख्यक लोगों की भाषा बन जाती है....और जो भाषाएं अल्पसंख्यक लोगों की रह जाती हैं....उन भाषाओं में लिखने वाले लेखक यह कहते रहते हैं कि वे लोक भाषा लेखक हैं। जबकि प्रत्येक भाषा लोकभाषा है। लेकभाषा को अल्पसंख्यकों की भाषा न मानकर बहुसंख्यकों की भाषा की ही तरह मनुष्य की आत्मा की भाषा मानना चाहिए।
आजकल यह प्रचलन भी है कि फलां लेखक तो जनकवि है, फलां लेखक तो जनलेखक है और बाकी तो कवि और लेखक साधारण हैं...यह भी नासमझी भरी अवधारणा है। हर कवि जन कवि है। किसी कवि ने आज तक जन विरोधी कविता नही लिखी है। हां...यह जरूर हुआ है कि जन कविता के नाम पर एक तरह की विषय वस्तु और आंदोलन से चिपके रहे हैं। उनकी असहमति उन स्थानीय मुद्दो से भी जुड़ी हुई रही है....जो कहीं न कहीं राष्ट्र के विकास की मुख्य धारा के कारक हैं या अवरोधक हैं। लेकिन लोक के आग्रह के कारण उसे एक विशिष्ट गुण मनवाने की चेष्टा की जाती रही है।
आधुनिक साहित्य का भी आधुनिक लोक जीवन है, उसी आधुनिक लोक जीवन से वह नये प्रश्न पैदा करता है। किसी राजभाषा या कि राष्ट्रभाषा का भी लोक जीवन होता है।
शशिभूषण बड़ोनीः पुस्तकों के लोकार्पण बहुत हो रहे हैं....आप भी लोकार्पण के इन समारोह में बहुत जाते हैं .... क्या लोकार्पण से किसी कृति का सही मूल्यांकन हो पाता है?
लीलाधर जगूडीः यह बहुत अच्छा प्रश्न है! अच्छा हुआ आपने लोकापर्ण की जगह विमोचन शब्द का प्रयोग नहीं किया। विमोचन में त्यागने ... छोड़ने और अलग होने की अर्थ ध्वनि ज्यादा है। किसी पुस्तक को लोकार्पित और जनार्पित करना ज्यादा अच्छा लगता है बजाय उस विमोचित करने के।
लोकार्पण के अवसर पर वाकई किसी पुस्तक का सही मूल्यांकन नहीं हो पाता है। जो आलोचक या लेखक या रचनाकार वहां अपने विचार प्रकट करते हैं....पुस्तक के महिमा मंडन की दृष्टि से करते हैं.... वहां तार्किक विवेचन कम और लेखकों द्वारा लेखक को खुश करने का इरादा ज्यादा होता है ताकि उसे आयोजन पर होने वाले खर्च का दुख न हो।
मेरी राय में साल दो साल के बाद किसी अच्छी कृति पर व्याख्या विमर्श कार्यक्रम होना चाहिए। जिसमें उन तमाम प्रश्नों को शामिल किया जाना चाहिए जो पुस्तक के द्वारा इस बीच पैदा हुए हैं, अन्यथा प्रश्नहीन पुस्तकों के लोकापर्ण करने का क्या लाभ हैं। उन्हें तो दरअसल विमोचित ही किया जाना चाहिए। बहुत से लेखकों ने लोकार्पण के अवसर पर दिये गये भाषणों को अपनी कृति की वास्तविक समीक्षा मान लिया है....उन्हें इस मोह से बाहर आने की जरूरत है। प्राचीन काल में विमर्श हुआ है....भाष्य हुआ है.....लोकार्पण नही। अगर कोई कृति वैचारिक रूप से हमारे जीवन में प्रवेश नहीं करती है तो फिर उसका लोकार्पण हो अथवा न हों क्या फर्क पड़ता है।
शशिभूषण बड़ोनी |
शशिभूषण बड़ोनीः फिर आलोचना के विकास की कौन सी परिस्थिति और पद्वति आप बताना चाहेंगे?
लीलाधर जगूडीः देखिए, आलोचना तभी विकसित होगी जब कृति-केंद्रित हो। किसी कृति के जन्म लेने की वजह क्या है? क्या वह उन्हीं जाने हुए विषयों के विमर्श को कोई नया मोड़ दे रही है अथवा वह कोई अब तक अज्ञात किसी दुनिया को सामने ला रही है...। केवल वर्णन मात्र से कोई कृति बड़ी नहीं हो जाती। पर यदि वर्णन में अब तक ऐसे वर्णन इस्तेमाल न किये गये हों तो फिर वर्णनों का भी महत्त्व बढ़ जाएगा। घटनाएं क्या हैं? अप्रत्याशित ही अमर होता है। प्रत्याशित को अनिश्चित और सुनिश्चित क्या रूप देने जा रहे हैं। बहतु सारी चीजें अनिश्चत और संदेह से पैदा होती हैं। वे ऐसी जगह पहुंचा देती हैं कि लेखक को डिक्टेट करने लगती हैं।
लेखक का रचा हुआ यह संकट है या परिस्थितियों ने उसे रचा और लेखक सिर्फ उसका संग्रहकर्ता मात्र है। लेखक का जीवन उन परिस्थितियों का कितना शिकार हुआ जिनसे निकलकर वह रचना पाठक के समक्ष आती है। पाठक वहीं पर महान और निर्णायक हो सकता है। जहां उसने बहुत सी परिस्थितियों से गुजरने वाले जीवन को देखा और विचारा हो। वही पाठक आलोचक बन सकता है वरना पचास फीसदी तो लेखक ही अपनी कृति में स्वयं भी आलोचक का धर्म निभा रहा होता है। कवि और लेखक अगर अपने अंर्तमन में आलोचक नही हैं तो वे श्रेष्ठ कवि और लेखक नहीं हो सकते। ‘‘तुम कहते हो हम हां भर लेंगे गांवों के लिए। पर शहर अधिक सुविधा देता है नंगे पावों के लिए।इन पंक्तियों की जो व्याख्या छायावादी काव्यभाषा के बरक्स कथाकार काशीनाथ सिंह ने की थी वह बात लिखते समय मेरे मन में नही थी। उस व्याख्या ने बताया कि हिंदी साहित्य में कितने प्रकार के नंगे पांव हैं। यह भी बताया कि ‘शरद की चांदनी से उजल-धुले/तुम्हारे पांव मेरी गोद में‘ का अर्थ जीवन से कितना कट गया है।
शशिभूषण बड़ोनीः सर , आपने इस बातचीत के लिए इतना बहुमूल्य समय दिया, ....हार्दिक आभारी हूं।
लीलाधर जगूडीः आपका भी।
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लीलाधर जगूड़ी परिचय:
जन्म: 01 जुलाई 1944
स्थान
धंगण गाँव, टिहरी जिला, उत्तराखंड, भारत
कविता संग्रह
शंखमुखी शिखरों पर, नाटक जारी है, इस यात्रा में, रात अब भी मौजूद है, बची हुई पृथ्वी, घबराए हुए शब्द, भय भी शक्ति देता है, अनुभव के आकाश में चाँद, महाकाव्य के बिना, ईश्वर की अध्यक्षता में, खबर का मुँह विज्ञापन से ढँका है
नाटक
पाँच बेटे
गद्य
मेरे साक्षात्कार नाटक जारी है(1972); इस यात्रा में(1974); शंखमुखी शिखरों पर (1964); रात अभी मौजूद है(1976); बची हुई पृथ्वी (1977); घबराये हुए शब्द(1981) अनुभव के आकाश में चाँद / लीलाधर जगूड़ी
साहित्य अकादमी पुरस्कार, पद्मश्री सम्मान, रघुवीर सहाय सम्मान
संपर्क
: सीता कुटी, सरस्वती एनक्लेव, बद्रीपुर रोड, जोगीवाला, देहरादून, उत्तराखंड टेलीफोन : 0135- 266548, 094117- 33588
कविता सुनिए
प्रेम किये दु:ख होए
पल्लवी त्रिवेदी
https://youtu.be/_BYBtEwWQvA
सही प्रश्नों के सही उत्तर
जवाब देंहटाएंमहत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली साक्षात्कार ।
जवाब देंहटाएंशशिभूषण बड़ौनी एवं वरिष्ठ साहित्यकार लीलाधर जगूड़ी जी को बधाई।
राजेश पाल ।
महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली साक्षात्कार ।
जवाब देंहटाएंशशिभूषण बड़ौनी एवं वरिष्ठ साहित्यकार लीलाधर जगूड़ी जी को बधाई।
राजेश पाल ।