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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

16 जनवरी, 2019


कहानी:



                                  फांसी
                               रचना त्यागी


     घर की पुरानी दीवारों को चमकाया जा रहा है। रंग-रोगन के नाम पर चूने का पानी पिलाया जा रहा है बूढ़ी दीवारों को। दीवारों पर जगह-जगह पान की पीक से छितरी कलाकृतियाँ, पंजों के निशान, दीवार से बेवफ़ाई कर गिरी कीलों के पीछे छूटे हुए गहरे-उथले सुराख़नुमा ज़ख्मों  और काले-पीले धब्बों को विदा करने का वक़्त आ गया है।


रचना त्यागी



काला और फत्ते लकड़ी की सीढ़ी पर चढ़े पुताई कर रहे हैं- एक हाथ में चूने के घोल का डब्बा और दूसरे में घिसा हुआ चौड़ा ब्रश ! देश में लोकतंत्र की अवधारणा-सा घिसा ! ब्रश दीवारों के साथ कभी नरमी, तो कभी बेरहमी से ऐसे पेश आ रहा है, जैसे नेता लोग चुनावों से पहले और बाद में जनता से पेश आते  हैं।

       ग़रीबी इंसान को हरफ़नमौला बना देती है। सब ज़रूरी काम ख़ुद-ब-ख़ुद करने आ जाते हैं, बिना किसी प्रशिक्षण के। दीवारें रंगना हो, या बिजली की पुरानी लड़ियाँ दुरुस्त करना ; बाल काटने हों, या दुपट्टों के फ़टे घिसे हिस्सों को सोने-चाँदी के फूलों से छिपाना; हाथों में मेहँदी रचानी हो, या पके हुए केशों को हिना से छिपाना ; किसी टपकते नल को दुरुस्त करना हो, या छत से गुज़रती बिजली की तार से अपने हिस्से की रिहाईश चुराना .... सब उनके लिए बाएँ हाथ का खेल है। और फिर यह घर है ही कितना ! एक कमरा, जिसके आगे छत से ढका एक अहाता और फिर बिना छत का लावारिस सा बड़ा अहाता, जिसमें मुर्गियाँ और बत्तखें आबाद रहती हैं, धुले हुए कपड़े सूखते हैं। सर्दी के दिनों में यहीं खाट बिछी रहती है, जिस पर कोई आया-गया बैठता है।  इसी अहाते से सूरज ढलने के साथ लहसुन-मिर्ची की चटनी की तीख़ी गन्ध मोहल्ले भर को ललचाती हुई उठनी शुरु होती है। सारा मोहल्ला जान जाता है, कि शाम के खाने की तैयारी होने लगी है रज़िया के यहाँ।

 "जल्दी करो न ! कब से टंगे हो सीढ़ी पे ! सीढ़ी खींच दूँगी !" मुन्नी ने झूठी नाराज़गी भरी शिक़ायत की।
"छिपकली ! सीढ़ी खींचेगी ? अब ले !..... "  कहते हुए काले के एक बूँद चूने का पानी मुन्नी पर टपका दिया।
"हाय अल्ला !!! ..... देखो इस बदजात को !"  मुन्नी ने अपनी कलाई पर गिरी चूने के पानी की बूँद को बड़ी तेज़ी से दुपट्टे से पोंछते हुए घबराये स्वर में कहा।

"अच्छा ! शैतान की नानी ! अब क्या हुआ ? शादी तेरी, मज़े करे तू, और काम करें हम ? फीस लगेगी इस सारी मेहनत की ! बता रा हूँ ! इत्ते दिन से छुट्टी कर रा हूँ इस्कूल से ! मेरी जगह तू पिट लेगी मास्टर से ? आई बड़ी हुकम चलने वाली !!"
"मुँह धो के आ ! फीस वाला !"

   अब काले को मौका मिल गया काम छोड़ने का। ब्रश हाथ में लिए हुए झट नीचे उतर आया और मुन्नी की कलाई पकड़कर ब्रश दिखाता हुआ बोला -"अब बोल जरा ! बनाऊँ तुझे ताजमहल ? कित्ता मजा आएगा जब दूल्हा मियां तुझे ताजमहल बना देखकर रिस्ता तोड़ देंगे !"
यह कहकर वह ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा। मुन्नी के चेहरे पर उड़ती हवाईयां असली थीं, या उस वक़्त चल रहे आनंददायी नाटक का हिस्सा, यह कहना मुश्क़िल है। फत्ते चुपचाप सीढ़ी पर चढ़ा अपना काम करता हुआ दोनों की बातें सुन रहा था। जबसे मुन्नी के रिश्ते की बात हुई थी, वह चुप रहने लगा था। जो भी काम कह दो, चुपचाप सर झुकाकर करता जाता था। चाहे बाहर से सौदा लाना हो, या बिस्तरों को धूप लगानी हो; अली मास्टर के यहाँ से सिले हुए जोड़े लाने हों, या मुन्नी का मोबाइल रीचार्ज कराना हो; मेहमानों के आने पर दौड़कर दूकान से बिस्कुट, नमकीन लाना हो, या टीवी ठीक करना। बिलकुल चुप ! वरना रिश्ता ठीक होने से पहले कोई दिन ऐसा न जाता था, जिस दिन उसकी और मुन्नी की झड़प न होती हो। फत्ते ने दसवीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी और अब अपने पिता, मदन के साथ रेडियो ठीक करने की दूकान पर बैठता था। कुछ ही सालों में सब काम सीख गया था।

"तेरे पास न हैं पैसे, तो दूल्हा मियां दे देंगे ! वो तो अमीर है ! बम्बई में नौकरी कर रे ऐं !"  काले की छींटाकशी जारी थी।
"तुझे मोबाइल दिला सके हैं, तो हमें  पैसे न दे सकें ? और मुझे सब पता है, तुझे आफत क्यूँ हो री ऐ हमें यां से निकालने की !! हमे निकाल के कमरा बंद करके फोन पे गुटर गूं करेगी अपने कबूतर से ! है न ??"

मुन्नी गुस्सा दिखाना चाह रही थी, पर मन में उठती ख़ुशी की लहर ने सारा काम बिगाड़ दिया और उसके रोकते-रोकते भी एक लजीली मुस्कान गुलाबी होंठों पर आ बैठी।
उसे तुरंत संभालना पड़ा - "हाँ, तो ? तेरे क्यूँ आग लग री है ? मोबाइल तो होता ही बात करने के लिए है !"

"अरी नजमा इस्कूल से आ गई, अक न ?"

रज़िया की आवाज़ ने दोनों की नोकझोंक को रोका।

"अम्मी ! तुम आ गईं ! नजमा आने वाली होगी।" मुन्नी ने मोबाइल में समय देखते हुए कहा। वह रज़िया के लिए पानी लाने चली गई। रज़िया ने पानी पीकर गिलास नीचे रखते हुए कहा, "अरे बेटा ! हुआ न ऐ अबी ? सुबह से लगे हो।  कुछ खा लो !"

"बस चाची ! हो गया। अब ये बाहर का रह गया है बस। इसे भी आज ही निपटा देंगे।"  फत्ते ने सीढ़ी से उतरकर कहा। वह हाथ धोने के लिए अहाते में लगे नल की ओर बढ़ा, तो झुमरी ठुमक-ठुमक कर आई और उसके पैरों से लिपट गई। झुमरी सब बत्तखों में अलग ही दीखती थी। उसे यह नाम फत्ते ने ही दिया था। उसे झुमरी से बहुत लगाव हो गया था। फत्ते ने मुस्कुराकर नीचे देखा और बैठकर उस पर स्नेह से हाथ फेरने लगा। रज़िया कहीं सोच डूब गई थी।  काले बचा हुआ सामान संभालकर रख रहा था। मुन्नी न जाने कब कमरे में बंद हो गई थी। ऐसी तन्हाई नज़मा के आने के बाद कहाँ मिलती ! अब वह दरवाजा बंद करके अपने दिलबर से जी भर कर मीठी बातें करेगी। कभी-कभी फोन में दोनों एक-दूसरे का चेहरा भी देखेंगे।  ऐसी फ़रमाईश अनीश की ओर से ही आती थी। उसी ने भिवंडी से दिल्ली जाते अपने एक दोस्त के हाथ मुन्नी को यह मोबाइल भिजवाया था। मुन्नी ने पड़ोस की ट्यूशन वाली दीदी से सीख लिया था, कि इसमें कैसे शक़्ल देखते हुए बात करते हैं। तब से उसका ज़्यादातर वक़्त इसी खिलौने के साथ बीतता था, जिसमें उसका अनीश था, उसकी खाला के देवर का लड़का। बचपन में जब खाला के गाँव जाती थी, तब अनीश और मुन्नी गाँव की नहर में नहाते थे, एक-दूसरे के साथ खूब शरारत करते, बागों से आम चोरी करके खाते। तभी से अनीश के नाम पर उसे एक गुदगुदाता एहसास होता था। दोनों के मन में एक-दूसरे की तस्वीर छप गई थी। अब वह महाराष्ट्र में भिवंडी में नौकरी रहा था। बिजली के करघे से कपड़ा बुनने वाली एक फ़ैक्ट्री में काम करता था।

      पिछले दिनों खाला के साथ उनकी देवरानी आई थी और अनीश के लिए मुन्नी का रिश्ता माँग गईं। किसी को क्या ऐतराज़  होता भला ! अच्छा ख़ासा कमाऊ लड़का, घर बैठे-बिठाये ग़रीब की लड़की को मिल जाये, इस से बड़ी ख्वाहिश क्या होगी ! बिन माँगी मुराद पूरी हो रही थी !  दोनों परिवारों ने शादी की तैयारियाँ शुरु कर दी थीं। ज़हूर ने रज़िया के बड़े भाई, यूसुफ़ को 'वली' बनाते हुए कहा था, बस इतनी मेहर की फ़रमाईश रख लेना, कि बच्चों की पढ़ाई पूरी करा सकूँ और बुढ़ापे में रजिया को आराम दे सकूँ।  उसे घर-घर सफ़ाई-बरतन करने से छुटकारा मिले। अब उसके घुटनों में गठिया का दरद रहने लगा है। बैठकर पोंछा नहीं लगाया जाता।  देर          खड़ी भी न रह पाती है। तबीयत खराब होने पे एक भी छुट्टी करती है, तो मैडम लोग पैसे काटती हैं। अल्ला ताला की मेहर है कि ऐसा रिश्ता मिला !

        मोबाइल आने के बाद से मुन्नी की दुनिया उसी में क़ैद हो गई थी। कभी उसके कान, तो कभी ऑंखें वहीं लगी रहतीं। काम से फ़ुरसत पाते ही अनीश उसे फ़ोन मिलाता। अनीश से बातें करते वक़्त मुन्नी का चेहरा इंद्रधनुष हो जाता ..... हैरानी, खिलखिलाहट, नाज़, नाराज़गी, बेइन्तिहा ख़ुशी, हया... सारे रंग उस प्रेम में डूबी लड़की के चेहरे पर साफ़ देखे जा सकते थे।  कई बार तो नज़मा और काले ने छेड़ा भी था, उसकी नक़ल उतारते हुए। तभी से सावधान हो गई थी मुन्नी, और बात करने से पहले तन्हाई का जुगाड़ कर लेती थी। हालाँकि यह बहुत मुश्क़िल था।

तयशुदा दिन पर मँगनी की रस्म हुई। मुन्नी की खाला, उनकी देवरानी, यानि मुन्नी की होने वाली सास, खाला की बेटियों, अनीश की बहनों ने चाँदनी के फूलों से मुन्नी का शृंगार किया। फूल के हार, फूल के गजरे, फूल के हस्तबंद, फूल का टीका !  एकदम फूलकुमारी लग रही थी मुन्नी। छोटे- छोटे फूलों से घिरा एक बड़ा फूल। नज़मा ने फ़ुसफ़ुसा कर कान में कहा -'आपा ! मेरी इस्कूल की किताब में फूलकुमारी का पाठ है। तुम वो ई लग री हो बिल्कुल !"

उसकी फ़ुसफ़ुसाहट छलकी और हँसी की एक जलतरंग कमरे में फैल गई। अनीश की माँ ने चाँदी का एक छल्ला मुन्नी की उँगली में डाल कर उसका माथा चूम लिया। संकोच और प्रेम से बोझिल पलकें कुछ और झुक गईं।





अब शादी की तैयारियों में देर नहीं करनी थी। वक़्त नहीं था। जहूर का ऑटो ऐसे में बहुत काम आ रहा था।  जिस तरफ़ का काम होता, उसी तरफ़ की सवारी पकड़ता। काम का काम, कमाई की कमाई। मियां-बीवी ने अपनी कमाई जोड़नी शुरु की। खर्चों का हिसाब हुआ - मेहमानों का खाना-पीना, मुन्नी को कोई चीज बनवाकर देना, कुछ जोड़े ढंग के कपड़े-लत्ते, बाक़ी तीनों बच्चों के लिए नए जोड़े, जमाई के घरवालों के लिए ज़रूरी जोड़े .... न-न करते भी क़रीब तीस-पैंतीस हज़ार तो चाहियें ही हाथ में ! और की भी ज़रूरत पड़ सकती है। अभी तो ऑटो की ही किस्तें चल रही हैं। मक़ान का कर्जा उतारते-उतारते रज़िया एक पतली जंजीर तक न जोड़ पाई बेटी के लिए ! अब देखेगी, क्या लिया जा सकता है। और फिर गाम में नजीर भाई भी तो हैं ! खेती-बाड़ी से भी काम चल रहा है। उनसे मदद लेंगे। चिंता और निश्चिन्तता के दरिया में उम्मीद की कश्ती हिचकोले खा रही है। रज़िया और ज़हूर हिसाब लगा रहे हैं - कितने पैसे बैंक में हैं, कितने अभी निकाल लें, कितने अभी न छेड़ें। पहले हाथ खुला रखा और बाद में ज़रूरत पड़ी, तो ? रात को सबके सोने के बाद रज़िया चुपके से उठी और अपनी शादी के ट्रंक को खोला। उसमें गद्दों के खूब नीचे दबी एक पोटली निकाली। पोटली अपने कुरते में छिपाकर ग़ुसलख़ाने में गई और रौशनी में गिना - 'पंदरा हजार रूपये !! हाय अल्लाह !! मैं गिनती भूल रही हूँ क्या ?'
फिर से गिना। इस बार पाँच सौ और हज़ार के नोटों की गड्डियाँ अलग-अलग करके गिना। जोड़ फिर से वही। पूरे पन्द्रह हज़ार।'या अल्लाह ! तू बड़ा मेहरबान है परवर दिगार ! अगर ये पैसे छुपा के न रखे होते, तो गाढ़े वक़्त में हाथ पसारने पड़ते ! पर ये जुड़ते-जुड़ते इत्ते हो गए होंगे, ये तो मैंने न सोची थी ! न तो कोई छोटी-मोटी चीज ही बनवा के धर लेती ! चलो ! अब बनवा लूँगी ! अब भी किसी को न बताऊँगी ! सादी के बाद बताऊँगी मुन्नी के अब्बा कू ! कैसे हैरान रह जायँगे !'  रज़िया को उस रात नींद नहीं आई। अपनी वर्षों की बचत का सबसे उत्तम इस्तेमाल सोचती रही। करवटें बदलते-बदलते फज्र की नमाज़ की अजान कानों में पड़ी, तब आँखें बोझिल होनी शुरु हुईं। पर अब तो काम पर लगने का वक़्त था। अपने घर का काम निबटा के जल्दी से कॉलोनी में जाना था। आगे शादी के लिए छुट्टियाँ चाहिएँ, इसलिए मैडमों को खुश करना ज़रूरी था। नहीं तो दूसरी कामवाली रखते कितनी देर लगती है ! इन मैडमों का हाल बुरा है ! अपने बदन की हालत जंग लगे लोहे जैसी कर रखी है। एक दिन कामवाली न आए, तो एक चम्मच तक न धुल सकती इनसे ! पहले सरीर को बिना हिलाये-डुलाये चरबी की परत चढ़ाती रहती हैं, फिर उसे पिघलाने के लिए कसरतखाने में पैसा खरच करती हैं ! ...... सोचते हुए रज़िया तेज़ी से क़दम बढ़ा रही थी, कि शम्मो की आवाज़ से चौंकी।

"कहाँ खोई हो ? हम बुलाये जा रे ऐं , तुम सुनती ई न हो !"
"जल्दी से खरीदारी कर लो मुन्नी की सादी की ! हाथ में धरा पैसा कब कागज हो जाये, कुछ भरोसा न ऐ !!"

"ऐं ! ऐसे क्यूँ कओ हो ? अल्ला ताला सब सलामत रखे ! इंशा अल्ला सब अच्छा होगा मेरी बच्ची के निकाह मैं !"  रज़िया ने एक ओर थूकते हुए असमंजस भरे स्वर में कहा।

"तूने सुनी न ऐ ? आज सुभे से खबर फैल री ऐ - हजार और पान सो के नोट अब न चलेंगे !”

"हैं !! क्या बक री हो तुम लोग ? नसा वाला पान खाई हो क्या ?"

"अरी हम न ! सरकार खाई है नसा वाला पान ! सुभो के सब अखबारन में खबर छपी ऐ, कि जिसके धोरे हजार-पान सो के नोट हैं, जल्दी से बैंक में जमा करा दो ! अब ये बंद हो गए ऐं !"

रज़िया बहुत कुछ पूछना, कहना चाहती थी, पर उसे शब्द नहीं मिल रहे थे। अवाक् खड़ी अपनी साथिनों का मुँह देख रही थी। उसे लगा, ये सब मुन्नी की शादी के चलते उसे डराने, छेड़ने  के लिए मसखरी कर रही हैं। पर अगर सच हुआ, तो ?
"जाओ री तुम लोग ! ऐसे बखत में ऐसा मजाक करे हैं क्या ?" उसने अपने डर को छिपाकर हँसने की अधूरी कोशिश की।

"अरी बावली हो गई रजिया ? अच्छा, हम पे बिस्वास न है ! जा ! अपनी मैडम से पूछ ले !"

'हाँ।  यही ठीक रहेगा।' हालाँकि शम्मो की इस विश्वास से भरी चुनौती ने उसे हिला दिया था। रजिया के क़दम कोठी की तरफ़ बढ़ने लगे।


"मैडम जी ! हमें दस दिन की छुट्टी चाइये। लड़की की सादी है। अगर तनखा दे देते, तो ..... "

"दस दिन !!"  मालकिन ने मुँह और आँखें ऐसे गोल हो गए, जैसे बड़ी अनहोनी बात देख-सुन ली हो। फिर अचानक उसे कुछ याद आया। अन्दर कमरे में गई और बाहर आकर उसकी ओर कई हरे, गुलाबी नोट बढ़ाते हुए बोली -"अच्छा, तनख्वाह तो ले ही लो। पहली बार इतने दिन की छुट्टी माँगी है तुमने। पर कोशिश करना, जल्दी आने की ! अपनी जगह किसी और को भेज दो, तो अच्छा है !"

नोटों को देखते ही रज़िया को साथिनों की बात याद आई।
"मैडम जी, ये हजार -पान सो के नोट बंद हो गए ऐं क्या ?"
मैडम के भारी-भरकम चेहरे पर क्षणभर के लिए एक लहर आई, और चली गई ....  "नहीं तो ! जब बंद होंगे, तो कहीं नजर क्यों आएँगे ? अच्छा, तू ये पकड़, मुझे कहीं निकलना है।"  इतने सालों में आज मैडम पहली बार तनखा देने की जल्दी में दिखी। उलझन में फँसी रज़िया ने नोट ले लिए और कुछ सोचते हुए मार्किट की तरफ़ बढ़ गई। कुछ ज़रूरी सौदा लेकर पाँच सौ का नोट आगे बढ़ाया, तो दूकानदार ने बढ़ा हुआ हाथ पीछे खींच लिया।

"ये नी चलेगा। छुट्टा लेके आओ !"

"छुट्टा !! भाई, दो सो बारा का समान हुआ। अब इससे जादा छुट्टा क्या दूँ ? कल तो तुमने अस्सी रुपे के समान के लिए भी पान सो का नोट तुड़ा दिया था !"

"कल न ? कल की बात अलग थी भाई !! कल पाँच सौ का नोट बंद थोड़ी हुआ था ! आज हुआ है ! कल पता होता कि आज बंद होने वाला है, तो कल भी न लेता !"

"क्या ?? पान सो का नोट बंद हो गया ?"

"अरे भई !! सबको पता है !! अब न हजार का, न पाँच सौ का चलेगा। छुट्टे लेके आओ।" दूकानदार ने रज़िया के माँगे सामान को पीछे खींचते हुए झुंझलाकर कहा।

रज़िया की आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा। उसे पिछली रात को गिनी अपनी बरसों की बचत याद आई। याद आया कि क्या-क्या इच्छाएँ और ज़रूरतें दबाकर उसने वह पाई-पाई जोड़ी थी ! और जैसे ही पाँच सौ रूपये जुड़ जाते थे, बड़े चाव से उन्हें निकालकर एक पाँच सौ का नोट रखती जाती थी। इसी तरह हज़ार पूरे होने पर उन्हें निकालकर हज़ार के नोट। अमीरी का कैसा अद्भुत स्वाद चखा था उसने वे बड़े नोट जमा करने में ! उस कल्पना में भी कितना सुख था ! पर अब !! अब क्या करेगी वह उन हरे-गुलाबी कागज के टुकड़ों  का ! रज़िया का सिर घूमने लगा।  उसे लगा कि वह एक चक्की में बैठी है और चक्की उसके उतरने से पहले ही घूमना शुरु हो गई....  पहले धीरे-धीरे, फिर उसकी गति बढ़ने लगी... तेज़....तेज़...और तेज़ ! उसके बाद जब रज़िया की आँखें खुलीं, तो वह अपने घर पर थी, खाट पर लेटी हुई।  कई जोड़ी आँखें उस पर टिकी हुई थीं। मुन्नी ने घबराकर पूछा - "क्या हुआ था अम्मी ? तुम सड़क पै कैसे गिर गईं थीं ?"

रज़िया याद करने की कोशिश करने लगी। उसे बिल्कुल ध्यान नहीं आ रहा था कि उसके साथ क्या हुआ था। शम्मो ने बताया कि वह कोठी से काम निबटा कर आ रही थी, तो रज़िया मार्किट के बड़े कूड़ेदान के पास गिरी पड़ी थी। शम्मो कुछ व्यक्तियों की मदद से उसे एक ऑटो-रिक्शा में लेकर घर आई। रज़िया ने याद करने की कोशिश की। उसे कुछ याद नहीं आया। आख़िरी लम्हात, जो उसकी स्मृति में दर्ज़ थे, वे दूकानदार के द्वारा बताई गई मनहूस ख़बर के थे – ‘अब न हजार का, न पाँच सौ का चलेगा। छुट्टे लेके आओ।‘
उसे अपनी पोटली याद आई, जिसके बारे में कोई नहीं जानता था।  वह बुदबुदाई .... "पोटली !"

"कौन सी पोटली, अम्मी ?"  मुन्नी ने उसके हिना रंगे बालों को सहलाते हुए पूछा।

रज़िया कुछ न बोली।  ख़ामोश रही।  एकदम ख़ामोश। उसकी आँखें मुँदने लगीं और मुँदी आँखों के कोरों से दो धाराएँ निकलकर उसकी दोनों कनपटियों तक आ गईं।

"ऐ कुछ बोलो बी !" पड़ोस में रहने वाली अंजुम आँसू देखकर विचलित हो गई। उसे लगा, लड़की की शादी में दान-जहेज की किसी बात से रज़िया परेशान है।  उसने मुन्नी को चाय बनाने के बहाने हटाकर कहा - "कैसे हो गई रज्जो ? कुछ जहेज-वहेज की बात हुई है क्या ?"

रज़िया ने हौले से 'न' में सिर हिला दिया। इससे अधिक की उसमें ताक़त न थी। शरीर का सारा रक्त एक ख़बर ने सोख लिया था। कमज़ोरी के मारे उसकी ऑंखें बार-बार बंद हो रही थीं। उसका तन और मन, दोनों ही बात करने की स्थिति में न थे। उसे जवाब न देता देखकर औरतें आपस में बात करने लगीं। धुँधली सी आवाज़ें रज़िया के कानों में भी पड़ रहीं थीं ....
"सुनी तुमने ख़बर ? हज्जार पांसो के नोट खत्तम ! फाड़ के फेंक दो या जला दो ! अब किसी काम के न रह गए ऐं !"
"हाय सच्ची ?"

"अल्ला ताला कसम ! सुभे से सब जघे शोर मच रा ऐ ! आली जां के अब्बा गए हे सुभे पेटरोल डलवाने। गए तो असल में नोट तुड़वाने हे। सो रुपे का पेटरोल डलवा के पांसो का नोट दिया, तो वो छुट्टा माँगने लगे। अब छुट्टा तो तब दें, जब लेके गए हों ! वहाँ कई लोगन से पूछा, सबने मने कर दी। नासपीटों ने इस्कूटर की चाबी ई धर ली ! बोले - 'छुट्टे लेके आओ, तब मिलेगा इस्कूटर ! सुभे से भोत आये हैं तुमाए जैसे ! हम कोई चूतिया न बैठे ऐं यहां पै ये कूड़ा जमा करने कू !' एक आदमी ने कई बी- भैया खबरों में तो बता रे ऐं कि पेटरोल पम्प अर डाकटर के पास चलेंगे हजार पांसो के नोट ! अब एकदम से इन्हें कहाँ फेंकें ?"

शम्मो ऐन टाइम पर सस्पेंस की चिंगारी छोड़कर चाय सुड़कने लगी।

"फेर ?"  चाय भूलकर अंजुम ने बेचैनी से पूछा।

"फेर क्या ? पेटरोल वाले का बी हिसाब तो होयेगा उप्पर, बीबी ! करमजला बोला कि जिसने खबर सुनाई है, उसी से छुट्टे करा लाओ !  हमाये अब किस काम के ये नोट ?"

"अल्लाह !! तो अब ये नोट मट्टी हो गए ? कोई कीमत न रई इनकी ?"

"कीमत है चाची ! वो बड़े मंदिर वाले पंडीजी हैं न ! वो सबों के पांसो के नोट लेके छुट्टे दे रे ऐं ! हम लोग को पांसो के एक नोट के बदले तीन सो के छुट्टे अर अपने वालों को चार सो !"
काले ने समस्या का समाधान बताया।

"हाय मैं मर जाऊँ ! दीन के काम में लगा आदमी ऐसे करम कर रिया ऐ ? दोधारी तलवार पै चलेगा यो !"

कुछ देर और दुनिया की अवसरवादी खोखली नैतिकता पर विमर्श के पश्चात् महिलाओं ने अपने-अपने घरों की राह ली।
रात को जहूर के घर लौटने के बाद पुनः यह मुद्दा छिड़ा कि अचानक से सरकार बहादुर ने यह क़दम क्योंकर उठाया। अब शादी की तैयारियों में सबसे बड़ी समस्या नोटों की आन खड़ी हुई थी। दिन बीतने के साथ-साथ इसका विकराल रूप दीखने लगा था। घर का सौदा -सुलुफ़ लेने में तो दिक़्क़त थी ही, कंगाली में आटा भी अपने गीले होने की परम्परा न भूला था। सारी जनता के पास यही नोट सबसे अधिक मात्रा में थे, जिन्हें बंद कर दिया गया था। इन नोटों को बदलने का कोई जुगाड़ न था। सुनने में आ रहा था कि राजा जी ने यह साहसिक क़दम देश के  कालेधन पर लगाम लगाने के लिए उठाया है। आगे भी इस तरह के क़दम उठाते रहेंगे। देशद्रोहियों को सज़ा मिलेगी। युवाओं को रोज़गार मिलेगा। सब कुछ अपने देश में बनेगा। दूसरे मुलुक से ख़रीदने का धन्धा बंद ! दूसरे मुलुक से कोई यहाँ आएगा, तो बस हमारे कारखानों में नौकरी करने ! हम दुनिया का सरताज बनेंगे !

'आह' और 'वाह' में बँटी जनता जनार्दन के आँख-कान अब हरदम अपने सबसे बड़े सेवक के फ़रमान की ओर लगे रहते। कब कौन सा नया तीर कमान से निकल जाये, कोई नहीं जानता था। जितने सिर, उतने क़यास ! 

"भैया, किसानों की तो मोज आ गई !"

"कैसे भला ?"

"अरे, कल की खबर नहीं सुनी ? राजाजी ने भाषण दिया कि किसानों के जनधन खातों में जो लोग पैसा जमा रहे हैं, उसे किसान भाई वापिस न करें। उसे अपना ही पैसा समझें !"
"देखा ! मैं तो पैले ई कहता था, देवता आदमी है ! येई हम गरीबों की सोचेगा ! इसने कही थी न कि किसानों के खाते में में पंदरा लाख रुपे आयेंगे ! चला दिया न चक्कर !! अब तुम देखते जाओ, हमारा भी बखत आने वाला है !"







"अरे, पहले ये तो बताओ कि किसानों के खाते में कोई क्यों डालेगा अपने पैसे ? सारी माया ही पैसे की है। इसके लिए भाई, भाई का खून कर देता है, औलाद माँ-बाप को घर से निकाल देती है, दुधमुंहे बच्चे की माँ किसी पैसे वाले के साथ भाग जाती है। और तुम ये नई कौड़ी लाये हो, लोग किसानों को पैसा बाँट रहे हैं ! किस गाँव की खबर है भाई ?"

"बाँट नी रहे हैं जी ! बस अपनी काली कमाई का रंग बदलने के वास्ते उसे अनपढ़ किसानों के खाते विच डाल रहे हैं ! ओ सयाणे जाणदे ने, अपने खाते विच एन्ने सारे पंज सो ते हजार दे नोट जमा कराण जायेंगे, ते पकड़े जाने हैं ! नी जमा करांदे, ते नोट दी कोई कीमत नी रहणी ! ऐत्थे वी ते लोकां इसी वास्ते बैंकों दे अग्गे लम्बी लेण विच लग रे ने, कि बंद हुए नोट जमा करा के नए लै लें।"

"अच्छा ! मल्लब हम अपने पांच सौ और हजार के नोट बैंक में दे के नए नोट ले सकते हैं ? यानि वो बेकार नई हुए हैं ?"  जहूर की बुझी आँखों में आस का एक नन्हा तारा टिमटिमाया।
"ओजी किस्मत दी गल है ! लम्बी-लम्बी लेनें लाग री ऐं। जे त्वाडा नंबर आ गया, होर बैंक वालों दे नाल नए नोट खतम नई हुए, ते तैनू मिल जाण दी पूरी उम्मीद है। नइ ते रब्ब मालिक !"

करतार सिंह ने जहूर समेत अन्य ऑटो रिक्शा चालकों की जानकारी दुरुस्त की।

     जहूर ने रात को रज़िया से सलाह की। ऑटो-स्टैंड पर हुई सारी बातचीत बताई। रज़िया को अपनी मिट्टी हुई पोटली एक बार फिर क़ीमती लगने लगी। पर दोनों का ध्यान किसानों के खाते में जमा हुए पैसे पर पहले था। गाँव में जहूर का बड़ा भाई नज़ीर दोनों भाइयों के हिस्से की खेती संभाल रहा था। ज़मीन ही कितनी थी ! ढाई-ढाई बीघा दोनों भाइयों के हिस्से में !  पर जहूर और रज़िया को पूरी उम्मीद थी, कि दोनों भाइयों के जनधन खाते में कुछ रक़म ज़रूर डाली गई होगी। यहाँ पर बैंक जाकर पैसे बदलने का काम तो कभी भी हो सकता था। ठण्ड दिनों-दिन बढ़ती जा रही थी। शादी का दिन नज़दीक़ आ रहा था और हाथ में कुछ नहीं था। थोड़ा-बहुत जो था, वो भी बैंक में।  नक़दी का टोटा ऐसा पड़ा, कि लोगों ने ऑटो में बैठना बंद कर दिया। थोड़ी सी भी दूर जाने के लिए वो बलात्कारों के लिए बदनाम कम्पनी की टैक्सी लेने से नहीं झिझकते थे, क्योंकि टैक्सी उनसे नोट नहीं माँगती थी। बस, अंगूठे से मोबाइल के कुछ बटन दबाये, और हो गया भुगतान ! सिरिफ़ अँगूठा चलाने वाली नस्ल आबाद थी। बाक़ियों के हाथ कट चुके थे।







अगले दिन जहूर गाँव पहुँच गया। जनधन खाते के मामले  में भाई को टटोला, तो एक नई ही तस्वीर उजागर हुई। ऐसी तस्वीर, जिसकी जहूर ने कल्पना ही न की थी !

ग़रीब, अनपढ़ नज़ीर को फुसलाकर अँगूठा लगवाकर उनके जनधन खाते में पुराने नोटों की शक़्ल में लाखों रुपये जमा कर कर दिए गए थे। उसे कहा गया था कि अँगूठा लगाने के बदले पाँच दिन बाद बीस हज़ार रूपये मिलेंगे। एक महीना होने को आया, बीस हज़ार मिलना तो दूर, बैंक वाले बार-बार उसे बुलाकर पूछताछ कर रहे थे कि उसके पास डेढ़ लाख रुपया कहाँ से आया ! बेचारे नज़ीर ने तो कभी सपने में भी लाख की रक़म न देखी थी। क्या कहता !  उसे बार-बार डराया-धमकाया जा रहा था कि नंबर दो का पैसा जमा कराने के जुर्म में सरकार सख़्ती कर रही है, जेल  भी हो सकती है। इस डर ने ग़रीब को अधमरा कर दिया था। कौन सी दुश्मनी निकाली बैरी ने ! उसने तो एक रिश्तेदार के साथ आए अनजान आदमी की मदद की थी, इस लालच में, कि आज तक बीस हजार एक साथ नहीं देखे हैं। हाथ में होंगे, तो कई रुके हुए काम पूरे कर लेगा !  उसे  क्या पता था कि वो जमा हुआ पैसा कालेधन के नाम पर उसे ही सलाखों के पीछे पहुँचा देगा ! अब कलप रहा था उस मनहूस घड़ी को ! यह धोखा  नज़ीर के अलावा चार और किसानों  के साथ हुआ था, जिसका  शिकार बिजेसर की विधवा रामदेई भी हुई थी। रोते-रोते आँखें सूज गईं थीं उसकी। अर्द्धमूर्छा की सी अवस्था में रहने लगी थी।  वह तो भला हो गाँव में अपनापे की संस्कृति का, जिसके चलते उसके बच्चे  इस-उस की कृपा पर पल रहे थे।  शहर में होती तो न अब तक वह  सलामत रहती, न उसके बच्चे !

     विपदा जब आती है, तो छप्पर फाड़कर आती है। सिर्फ़ जनधन खाता ही किसान के गले की हड्डी नहीं बना था, बल्कि इस बार फसल से होने वाली आमदनी भी न हुई थी। तैयार की तैयार फ़सल खेत में यूँ खड़ी सूख गई थी, जैसे धन के अभाव में सात फेरों की आस लिए  विवाह योग्य कन्या का यौवन सूख गया हो ! बदनसीब किसान सिर पकड़कर बैठ गए थे। जैसे दिन-दिन लाड-प्यार से अपनी निगरानी में पाली लड़की की अस्मत कोई लुटेरा लूट गया हो ! कारण - पैसा न होने के कारण  फ़सल की कटाई और ढुलाई के लिए श्रमिक न मिलना। कोई किसान यदि किसी तरह इस समस्या पर पार पाकर मण्डी तक फ़सल पहुँचाने में सफल हो भी जाता,  तो आगे की राह में नक़दी की कमी उसे अपना महत्व याद दिलाना न भूलती !  मण्डी में व्यापारी किसानों को चैक थमा देते,  जिसे भुनाने में किसान को बैंक के इतने  चक्कर लगाने पड़ते, कि उसे दिन में तारे नज़र आने लगते।
 गाँव के परले छोर पर रहने वाला रामदीन इन हालात से इतना हताश हुआ, कि अपनी इहलीला समाप्त कर ली थी। अकरम का दिमाग चल गया था। बिरजू ने दुःख और गुस्से में अपनी खड़ी फ़सल में आग लगा दी थी।

जहूर बहुत भारी मन से गाँव से निकला। वापसी की बस  में बैठा लगातार आँखें पोंछता रहा। उसे समझ नहीं आ रहा था कि गरीब लोगों को किस कसूर की सज़ा मिल रही है। सब कह रहे हैं, मुलुक के गद्दारों को सज़ा मिलेगी। उनका इंसाफ़ होगा। काले पैसे वाले चुन-चुन कर पकड़े जाएँगे। फिर हमारे साथ ये सब क्यों हो रहा है ! हमने कौन सी गद्दारी की है मुलुक के साथ ! कौन सा पैसा छिपाया है ?  उसने आँसू रोकने की  गरज  से ध्यान हटाने की कोशिश की। बस की खिड़की से बाहर देखा। घुप्प अँधेरा था। बस के भीतर देखा। सन्नाटा था। इक्का-दुक्का आवाज़ों के बीच एक आवाज़ उसके कानों में पड़ी। एक पच्चीस-छब्बीस साल का लड़का अपने साथ बैठी हमउम्र लड़की से कह रहा था- "तुम्हें पता है, ऐसे अहमक़ तुग़लक़ों का अंजाम क्या होता है ?"

"क्या ?"

"फांसी !"

"श्श्श ....!! पागल हो गए हो क्या ? कुछ भी बक रहे हो ! किसी ने सुन लिया, तो ?"

"सुन ले, तो सुन ले ! यहाँ की जनता इतनी बेवकूफ़ न होती, तो किसी की क्या मजाल थी देश को झुनझुना समझकर मनचाहे ढंग से बजाने की !  और वैसे भी मैं कोई मनगढ़ंत बात नहीं कह रहा हूँ ! जो हो चुका है, वो बता रहा हूँ !"
"क्या हो चुका है ?"

"फांसी ! नोटबंदी के लिए ! हमारे देश में नहीं, उत्तरी कोरिया में !"

"नॉनसेंस ! आई डोंट बिलीव दिस !"

"पता था मुझे ! तुम्हें यक़ीन दिलाने के लिए सबूत साथ में रखना पड़ता है। वैसे ये तुम्हें दिखाने के लिए नहीं रखा था ! इत्तेफ़ाक़ है कि पिछले दिनों एक इकोनॉमिक सर्वे के लिए कुछ रेफ़रेंसिज़ की ज़रूरत थी, तब ये प्रिंट लिया था। तब से इसी बैग में रह गया।"


जहूर को उन दोनों की बातें पूरी तरह समझ नहीं आ रही थीं और सुनने में व्यवधान भी हो रहा था। लेकिन उसके कानों में कुछ शब्द पड़ने से, ख़ासकर उस लड़की के लड़के को धीमे बोलने की नसीहत के बाद से जहूर उत्सुक हो गया था उनकी बातचीत सुनने के लिए।   

चीं $$$$.......

 ब्रेक की ज़ोरदार आवाज़ के साथ बस रुकी। कुछ सवारियाँ उतर गईं। जहूर को मौक़ा मिला और वह लपककर लड़का-लड़की के ठीक पीछे खाली हुई सीट पर बैठ गया।
वे दोनों सिर जोड़कर कुछ देख रहे थे।

लड़की फुसफुसा रही थी- "ओ माय गॉड ! तुम सच कह रहे थे अमन ! इसमें लिखा है कि 2010 में उत्तरी कोरिया के शासक ने वहाँ की  करेंसी का दाम सौ गुना कम कर दिया था। देश भूखों मरने लगा था। इन हालातों के लिए वहाँ के वित्तमंत्री को फां.......सी की सज़ा हुई ! ये क्या ? फ़ैसला तो शासक का था न ? फिर फांसी वित्तमंत्री को क्यों ?"

"देख लो ! फ़ैसला लेने वाले नहीं, दूसरे लोग ही मरते हैं ! और ये सब कालाबाज़ारी रोकने के नाम पर हुआ। अच्छा, अब ये पढ़ो !" लड़के ने कुछ पन्ने पलटकर दिए।

लड़की पढ़ने लगी ...."1987 में म्यांमार में विमुद्रीकरण हुआ। वहाँ सैन्य सरकार थी, जिसने बिना तैयारी के एकदम से देश की 80%  मुद्रा को बंद कर दिया। जवाब में वहाँ की जनता ने विरोध का रास्ता अपनाया। छात्र  सड़कों पर उतर आये और जमकर धरने- प्रदर्शन हुए। एक साल तक ये सब रोकने की कोशिशें जब नाक़ाम हो गयीं, तो  सरकार का दमन चक्र  चला। हज़ारों लोग मारे गए।"


लड़की ने लम्बी साँस लेकर छोड़ी और सोच में पड़ गई।
"क्या सोच रही हो ? भई, जब मरना ही है, तो बैंकों की लाइन में लगकर, टेंशन या हार्ट अटैक से क्यों ! दरियादिली से विरोध करते हुए क्यों नहीं ?"

"अमन ! मुझे डर लग रहा है ! तुम क्या करने वाले हो ?"
लड़के की उन्मुक्त हँसी फूटी। ऐसा लगा, जैसे अँधेरे में कोई उजली किरण फूटी हो। उसने हौले से लड़की के पर हाथ पर हाथ रखते हुए कहा -"डोंट वरी डियर ! जब हम दोनों एक-दूसरे के साथ हैं, तो डरने की क्या बात !"

"तुम बहुत चालाकी से बात को घुमा देते हो !" लड़की के स्वर में झुंझलाहट उतर आई।

"अच्छा, आगे तो पढ़ो ! फिर बात करेंगे।"

लड़की ने नज़रें फिर से कागज़ पर गड़ा लीं। जर्मनी,घाना, नाइज़ीरिया, म्यांमार, ज़ायरे, सोवियत संघ, इंग्लैण्ड, ऑस्ट्रेलिया, ज़िम्बाब्वे, फिलीपीन्स आदि कितने ही देशों के विमुद्रीकरण के क़िस्से थे उस लेख में ! कहीं सफलता, असफलता की कहानी। कहीं शासकों के गद्दी से हाथ धोने तक का अंजाम ! इतने व्यापक स्तर पर लड़की ने कभी न जाना था। लेकिन उसका ध्यान रह-रहकर एक ही ओर जा रहा था।

"अमन ! सच बताओ ! ये सब रिसर्च किसलिए ? तुम्हारे इरादे मुझे ठीक नहीं लग रहे !"

"इरादों पर शक़ मत करो डियर ! एकदम नेक हैं। ये रिसर्च तो एक बड़े प्रोजेक्ट का हिस्सा थी। इसे लेकर परेशान मत हो। पर हाँ ! हाथ पर हाथ रखकर तमाशा तो नहीं देखूँगा। कुछ न कुछ तो करूँगा ज़रूर !"

"क्या करोगे ? सरकार पर केस ?"

"देखते हैं !"

दोनों चुप हो गए।

जहूर के कानों में देर तक उनके शब्द गूँजते रहे .... तुग़लक़, नोटबंदी, फांसी, विरोध, केस !

   घर पहुँचकर जहूर ने गाँव के हालात रज़िया को बताये, तो धक् रह गई वह ! उसकी आँखों के सामने रामदीन, बिरजू और रामदेई का चेहरा घूमने लगा। मन की दीवारों पर कुछ नमी सी रिसती महसूस हुई।

   जहूर और रज़िया के पास एटीएम कार्ड तो था नहीं, इसलिए बैंक से पैसे निकलवाने के लिए अगली सुबह जहूर लाइन में लग गया। सुबह से शाम तक लाइन कुछ ही क़दम सरकी और बैंक बंद हो गया। भूखा-प्यासा जहूर उतरा चेहरा लिए घर लौट आया। उसे चक्कर आ रहे थे। फत्ते वहीं था। उससे जहूर की हालत देखी न गई। मुन्नी घर से निकलती नहीं थी इन दिनों। नज़मा और शफ़ीक़ छोटे थे और स्कूल जाते थे। साबिर तो अभी चार साल का ही था।  उसकी देखभाल मुन्नी करती थी। बची रज़िया, तो उसके गठियाग्रस्त घुटनों में इतनी ताक़त न बची थी, कि देर तक खड़ी रह सके। फत्ते ने एक बार फिर ख़ुद को आगे किया ....

"चचा ! मैं लग जाऊँ कल तुम्हारी जगह लाइन में ?"

तीन जोड़ी कृतज्ञ नेत्र उसकी ओर उठे।

"न बेटा ! परवर दिगार तेरी उमर दराज करे ! पर मैंने देख ली है आज ! जिसका खाता है, उसे ही जाना पड़े है। किसी और को न दे रे हैं पैसे !"

फत्ते अपनी मजबूरी पर सिर झुकाकर बैठ गया। मुन्नी साबिर को सुलाने के बहाने बड़ी देर तक वहाँ टहलती रही। इन दिनों वह फ़ोन से फ़ारिग हो गई थी। जाने उसके सुंदर चेहरे पर अनीश से बात न हो पाने की मायूसी थी, या उसका काम छूट जाने की ! कपड़े का कारोबार ठप हो गया था। नक़दी की कमी के चलते न ही मालिक के पास पीछे से कच्चा माल आ पा  रहा था, और न कारीगरों को देने के लिए पैसे थे। वह ख़ुद बड़े घाटे से जूझ रहा था।  दो-तीन जगह और काम की तलाश की अनीश ने, कोई रखने को तैयार न था।  बल्कि सब लोग काम से निकाले जा रहे थे।   सब अपने गाँव-शहर वापिस लौट आये थे। फ़ोन करने के लिए, इश्क़-मोहब्बत करने के लिए पैसे लगते हैं। जब तक इश्क़ की मशीन में सिक्का डलता रहा, वह चलती रही। अब क्या होगा ? यह दोनों ही नहीं जानते थे ! उनका भाग्य विधाता कोई और था !

अगली सुबह बूढ़ी हड्डियाँ समेटकर अल्लाह का नाम लेकर जहूर फिर बैंक पहुँचा। आज उसका नंबर लाइन में बहुत आगे था। पहले बीस में ! उसने मन ही मन ऊपर वाले का शुक्रिया अदा किया और अपनी बारी का इंतज़ार करते खड़ा रहा। कुछ देर बाद अचानक शोर शराबा उठा। उसने उचककर आगे देखने की कोशिश की। दीखा तो कुछ नहीं, पर कुछ आवाज़ें, कुछ गालियाँ उसके कानों में पड़ीं ..."स्साले ! सब मिले हुए हैं !! चोर-चोर मौसेरे भाई ! रोज़ कहते हैं -कल आना ! इनकी माँ की ....!!"

अचानक काँच टूटने आवाज़ आई। भगदड़ मच गई। जहूर संभल न पाया और लड़खड़ाकर गिर गया। किसी तरह पूरी ताक़त बटोर कर वह खड़ा हुआ। पुलिस की गाड़ी का सायरन नज़दीक आ रहा था। वह घबराकर पास की एक दूकान की ओट में हो गया। बुरे वक़्त का क्या कहना ! इस सा वफ़ादार कोई नहीं ! अगर दामन थामने पर आ जाये, तो जान जाने पर ही छोड़े ! जहूर बहुत देर तक दम साधे वहीं खड़ा रहा। पुलिस की गाड़ी जाने के बाद धीरे-धीरे चलकर आया तो लोगों से पता चला कि बैंक खुलने के एक घण्टे बाद ही कैश ख़त्म हो गया था और कई दिनों से आ रहे लोग तैश में आ गये थे। जहूर को पता चल रहा था कि कई लोग दफ़्तरों से छुट्टी ले लेकर लाइन में लग रहे थे। कुछ उसके जैसे बूढ़े, कुछ बीमार लोग, गर्भवती महिलाएँ भी थीं।

      उस रात जहूर खाना खाकर लेटा, तो उसकी कंपकंपी छूटने लगी। शफ़ीक़ ने अम्मी को बताया। रज़िया खाने की तश्तरी पटककर दौड़ी-दौड़ी आई। बुढ़ऊ का माथा छुआ। तेज़ अलाव-सा तप रहा था। उसके गले में आवाज़ फँस गई। बड़ी मुश्क़िल से शफ़ीक़ से बोल पाई -"फत्ते कू बुला !"

     जहूर का हाल सुनकर फ़त्ते भागा-भागा आया और उल्टे पैरों लौट गया। कुछ देर बाद डॉक्टर को साथ लिए लौटा। डॉक्टर ने लक्षण जाँचकर न्यूमोनिया का शक़ बताते हुए ख़ून की जाँच कराने को कहा। बुखार उतरने की दवा लिखकर दी। फीस के समय रज़िया की आँखें बह निकलीं। डॉक्टर हाथ जोड़कर चुपचाप चला गया। बाहर फ़त्ते और डॉक्टर की फुसफुसाहट सुनाई दे रही थी। फ़त्ते दवाई लेकर आया।

अगली सुबह जहूर का एक साथी अपना ऑटो रिक्शा लेकर आया। रज़िया ने जहूर के बार-बार मना करने पर भी उसे खून की जाँच कराने के लिए कंबल की कई तहों में लपेटकर फ़त्ते के हवाले कर दिया।

     जहूर के निकलने के बाद रज़िया बुक्का फाड़कर रोई। आस-पड़ोस की औरतें किसी अनहोनी की आशंका में दौड़ी आईं। वे चाहकर भी उसकी मदद करने में असमर्थ थीं। उसकी समस्या का समाधान किसी के पास न था। सभी इस आपातकाल से जूझ रहे थे। अच्छे दिनों में भी उन नाशुक्रों का दम घुट रहा था। वे इनके बीतने की प्रतीक्षा कर रहे थे।

   जहूर को टैस्ट में न्यूमोनिया निकला। समधियों को बताकर शादी कुछ दिन आगे सरकाई गई। लेकिन जहूर को एक डर ने जकड़ लिया था। जाने क्यों उसे लगने लगा था कि आने वाला वक़्त और भी भयावह होगा। जो करना है, जल्द से जल्द करना है। सबके लाख समझाने पर भी बुखार के कम होते ही वह माघ की कड़कती ठण्ड में कंबल लपेटकर तड़के ही बैंक के सामने जा खड़ा हुआ। निकलते समय वह बहुत आशावान था कि आज खाली हाथ नहीं लौटेगा। मन ही मन मंसूबे बनाने लगा कि पैसे निकलने पर सबसे पहले क्या करना है, फिर क्या करना है ! बैंक के सामने पहुँचकर वह दंग रह गया। ऐसी हाड़ कंपकंपाती शीत में लोग बैंक के सामने सोये हुए थे। चौकीदार तो नहीं ? पर चौकीदार तो जागने के लिए होता है ! उसने एटीएम के केबिन में बैठे चौकीदार से पूछा, तो पता चला कि ये पिछली रात से ही लाइन में पहला नंबर लगाने के लिए यहाँ सोये हैं। जहूर उनकी मजबूरी के बारे में सोचने लगा ... 'क्या इन्हें मुझसे जादा जरूरत है पैसे की ? क्या काम होगा ऐसा ?'



उस दिन तक़दीर ने जहूर का साथ दिया। उसका नंबर आ गया। वह बैंक के भीतर गया, तो ठण्ड से राहत मिली।
"किसलिए चाहिएँ पैसे ?"

"साब, लड़की की सादी है।"

"कार्ड दिखाओ"

"........ ! साब ! कार्ड तो न छपवाया ! हम तो यूँ ई बुला ले हैं अपने लोगों को !"

बैंक कर्मचारी हैरानी से उसकी शक़्ल ताकने लगा। कुछ बुदबुदाया .... "स्साले .....तुम लोगों के सब काम 'यूँही' हो जाते हैं !"

"हैं जी ?"

"कुछ नहीं ! कार्ड नहीं है, तो कोई तो सबूत होगा शादी का ? कोई रसीद ! बैंड वाले की, केटरर की ?"

जहूर हक्का बक्का खड़ा था। उसे गुमान ही न था कि शादी के सबूत माँगे जाएँगे !

"साब जी ! हमारे यहाँ ये सब न हो है ! लड़के वालों का मन होगा, तो बैंड बाजा ले आयेंगे। हमारे तो जी औरतें ई गा-बजा ले हैं घर में !..... "

"अबे, कुछ तो होगा तेरे पास !! मैं कैसे मान लूँ कि तू सच कह रहा है ?"

जहूर के जुड़े हाथ और आँखों के भीगे कोर देखकर वह थोड़ा नर्म पड़ा।

"अच्छा ठीक है ! आधार कार्ड है ?"

"हाँ जी, वो है !" उम्मीद की बुझती लौ एक बार फिर फड़फड़ाई ।

"ला !"

जहूर के चेहरे पर एक लम्हा पहले आया सुकूँ फ़ाख़्ता हो गया।

"जी....वो तो घर पे है ! अभी ले आऊँ ? भाग के जाऊँगा और आऊँगा !"

जहूर ने गिड़गिड़ाते हुए पूछा।

कर्मचारी के चेहरे का रंग लाल हो गया।

"स्साले ! घण्टे भर से बकर-बकर लगा रखी है ! न कोई कागज है, न आधार ! यहाँ क्या तेरी ..... !!"  आगे के शब्द दाँतों के बीच पिस गए।     

जहूर बाहर आया। 'कोई एक बार में सब बात बताता क्यूँ नहीं है कि पैसे कैसे मिलेंगे ? कभी 'ये' नहीं, कभी 'वो' नहीं !'
उसने डबडबाई आँखों से तेज़ी से बढ़ती से लाइन को देखा और कुछ सोचकर चला गया। करतार ऑटो लेकर उसका इंतज़ार कर रहा था। जबसे जहूर के न्यूमोनिया की ख़बर ऑटो वालों को पता चली थी, एक न एक ऑटोवाला घर से आते-जाते उसे बैठा लेता था। वैसे भी सवारियाँ तो थीं नहीं इन दिनों।

जहूर का उतरा चेहरा देखकर करतार ने उसका ध्यान बँटाने के लिए कहा - "ओजी, सुणा ऐ त्वाड्डे राजे साब जी ने इक होर अनोखी गल्ल कर दी ऐ !"

"हम्म ? क्या ?"

"कैंदे ने कि जेड़ा इक म्हीने बाद ये नोटबंदी दा फैसला गाल्त निकला, तां देश दी जनता मैनू फांसी दी सज़ा सुनाण दी हकदार ऐ ! हाहाहा ..... ! ऐ वी बंदा नौटंकी ई ऐ !"

'फांसी !' जहूर को बस वाले लड़का-लड़की याद आ गये। वो भी तो कुछ इस तरह बातें कर रहे थे। लड़का बोला था कि जरूर कुछ करेगा ! क्यूँ नहीं किया उसने ? बस इतना कर देता कि बैंक से पैसे निकलवाने के लिए कोई शादी लायक लड़की के बाप से शादी का कारड, ख़र्चों की रसीद और आधार कारड न माँगे ! उसने ऐसा किया होता, तो मुझे आज जरूर पैसे मिल जाते ! झूठा ! सब झूठे ! बात तो फांसी की करता था और इतना भी न किया ! इत्ते सारे कागज पढ़ने का क्या फायदा हुआ ! हो सकता है लड़की ने रोक लिया हो ! पर पढ़े तो उसने भी थे कागज ! उसका भी क्या फायदा हुआ पढ़ने का ! किसी ने कुछ न करा ! बात दुनिया भर की कर रहे थे !


जहूर को पढ़े-लिखे लोगों पर बहुत क्रोध आने लगा। और ख़ुद पर तरस ! क्यों ? कारण उसे भी नहीं पता।

    रज़िया के रोकते-रोकते, अपनी क़सम देने के बावजूद जहूर अगली सुबह फिर फज्र की अज़ान के वक़्त निकला और बैंक पहुँच गया। अब तो बस एक हाथ की दूरी पर था पैसा। कल आधार होता, तो कल ही न मिल जाता ! गलती अपनी भी तो थी ! मैं क्यूँ न लेके चला था घर से ?

    जब काम बनने की उम्मीद होने लगती है, तो उदात्तता स्वयं चली आती है स्वभाव में। हम दूसरों के प्रति अति क्षमाशील और स्वयं के प्रति ईमानदारी से अति आलोचनात्मक हो जाते हैं। दूसरों की अच्छाईयाँ और अपनी कमियाँ स्वतः दीखने लगती हैं। कुछ ऐसी ही दार्शनिक अवस्था में था जहूर। बैंक खुलने में कुछ घण्टों का वक़्त था। उसने वहीं कंबल बिछाकर फज्र की नमाज़ अदा की और गरमाहट पाने के लिए बैंक के दरवाज़े से सटकर बैठ गया। कंबल कसकर लपेट रखा था। आज ठण्ड हद से ज़्यादा थी। उसका शरीर बिल्कुल खोखला हो चुका था। अपने प्रति लापरवाही से रुष्ट था। ज़रा सी प्रतिकूल परिस्थितियाँ देखते ही बग़ावत कर देता था। कई दिनों की कमज़ोरी के बावजूद हुई भागदौड़ ने जहूर को बुरी तरह थका दिया था। उसकी आँखें मुंदने लगीं। नींद ने सहज ही धर दबोचा। वह गहरी नींद में था, कि शोर सुनाई दिया -'राजा जी को फांसी हो गई !' उसे भगदड़ की आवाज़ सुनाई दी, पर ऑंखें खोलने का मन न हुआ। आलस्य में आँखें मूँदे कोलाहल सुनता रहा.... सब उतावले थे। इस ख़बर का सच जानने को सब एक-दूसरे पर पैर रखकर भागे जा रहे थे..... कब ? कहाँ ? कैसे ? किसने दी ? ख़ुद राजाजी ने ? जनता ने ? कौन सी जनता ? पढ़ी लिखी या अपढ़ ? किसान या दूकानदार ? अमीर या ग़रीब ? .....


        दिन चढ़ आया था। बैंक के आगे भीड़ बढ़ती जा रही थी। पुलिस की गाड़ियाँ खड़ी थीं। एम्बुलेंस सायरन बजाती नज़दीक़ आ रही थी। एक आदमी बैंक के आगे ढेर हो गया था। एक सरदार अपने ऑटो से उतरकर भीड़ को चीरते हुए तेज़ी से आगे आया और बैंक के दरवाज़े पर ठंडी पड़ी देह की गठरी को देखते ही फूट-फूटकर रो पड़ा। उसने उस ठंडी गठरी को कलेजे से लगा लिया। 
०००

साभार: परिकथा ( जनवरी 2019 )
सभी चित्र: गूगल से साभार

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