परख तैंतीस
कविता धरती का कर्ज़ है!
गणेश गनी
हिंदी साहित्य के इर्दगिर्द अन्य भारतीय भाषाओं में लिखा साहित्य भी रहता है, जिसको लगभग अनदेखा कर दिया जाता है। भारत में खूबसूरत लिखने वाले कवियों की गिनती विश्व भर के बेहतरीन कवियों से कहीं अधिक है। जितने अनूदित कवियों को मैंने पढ़ा, उस आधार पर कह रहा हूँ। जो बड़ी बड़ी बातें विदेशी कवियों की बताई जाती हैं, वो सारी बातें संस्कृत और खड़ी बोली के कवियों ने पहले ही कह दी हैं, बल्कि उनसे भी खूबसूरत। हिंदी में कुछ युवा और कुछ अल्पज्ञात कवि कमाल का लिख रहे हैं और भारत के अन्य भाषाओं के कवि कमाल का लिख गए हैं। हिंदी साहित्य में एक बड़ी अजीब बात देखने को मिलती है कि बड़े लेखक नए लेकिन बेहतरीन लिखने वालों के प्रति एक पंक्ति भी नहीं कहते। उन्हें लगता है कि उनका एक ब्रह्मवाक्य कहीं इन्हें स्थापित न कर दे। यही सोच उन बड़े लेखकों को छोटा बना देती है। एक और बात भी मुझे अजीब लगती है कि ये बड़े लेखक अपनी छपी कविताओं को दोबारा क्यों नहीं पढ़ते! यदि पढ़ते तो स्वयं ही ख़ारिज़ कर देते।
विदेशी कविता को भी अजब गजब तरीके से कई कवियों ने उड़ाया है। जबकि कविता चाहती है कि वो कवि उसे लिखे जो बेहतर इंसान हो पहले और फिर एक सम्वेदनशील हृदय का मालिक। कवि राज्यवर्द्धन ने ठीक कहा:
बीज की तरह कवि
धरती में बो देता है कविता
कविता धरती का कर्ज है !
इसलिए कवि को लिखनी होती है कविता।
कविता एक बड़ी जिम्मेदारी भी है। कुछ अच्छे कवि भी हैं लेकिन उन पर मुझे शक है क्योंकि वे अच्छे इंसान कतई नहीं हैं। वे कविता की टेक्नीक जानते हैं इसलिए जुगाड़बाजी से अच्छी कविता बना लेते हैं। ऐसी कविताएं उन मकानों जैसी लगती हैं, जो सुंदर तो हैं मगर खाली खाली हैं। लेकिन जो सच है, वो कवि राज्यवर्द्धन ने एक स्थान पर कहा है:
कविता सही समय पर सही बात कहने की कला है!
दरअसल काल्पनिक और नकली कविता का दौर बरसों से चला आ रहा है। उधार की भाषा, चोरी के बिम्बों से जमकर कविता लिखी जा रही है। तो ज़ाहिर है ऐसी कविता में आत्मा नहीं होगी। यह मात्र बिजूका जैसा ही एहसास देगी।
एक पुरानी बोध कथा है। कोई डेढ़ हजार वर्ष पहले चीन के सम्राट ने सारे राज्य के दस चित्रकारों को खबर की कि वह राज्य की मोहर बनाना चाहता है जिस पर एक बांग देते हुए मुर्गे का जीवंत चित्र हो। जो यह बनाकर ला सकेगा, वह पुरुस्कृत भी होगा, राज्य का कलागुरु भी नियुक्त हो जाएगा। देश के दूर-दूर कोनों से श्रेष्ठतम चित्रकार बोलते हुए मुर्गे के चित्र बनाकर राजधानी में उपस्थित हुए लेकिन कौन तय करेगा कि कौन-सा चित्र सुन्दर है। हजारों चित्र आये थे। राजधानी में एक बूढ़ा कलाकार था। सम्राट ने उसे बुलाया कि वह चुनाव करे, कौन-सा चित्र श्रेष्ठतम बना है। वही राज्य की मोहर पर जायेगा। उस चित्रकार ने उन चित्रों को एक बड़े भवन में बंद कर लिया और स्वयं भी उस भवन के भीतर बंद हो गया! सांझ होते-होते उसने खबर दी कि एक भी चित्र ठीक नहीं बना है। एक से एक सुन्दर चित्र आये थे, सम्राट स्वंय देखकर दंग रह गया था लेकिन उस चित्रकार ने कहा, कोई भी चित्र योग्य नहीं है। राजा हैरान हुआ उसने कहा, ‘तुम्हारे मापदंड क्या हैं, तुमने किस भांति जांचा कि चित्र ठीक नहीं हैं। उसने कहा, मापदंड एक ही हो सकता था और वह यह कि मैं चित्रों के पास एक जिन्दा मुर्गे को ले गया और उस मुर्गे ने उन चित्रों के मुर्गों को पहचाना भी नहीं, फिक्र भी नहीं की, चिंता भी नहीं की, अगर वे मुर्गे जीवंत होते चित्रों में तो मुर्गा घबराता या बांग देता, या भागता, लड़ने को तैयार हो जाता! लेकिन उसने बिलकुल उपेक्षा की, उसने चित्रों की तरफ देखा भी नहीं! बस एक ही मापदंड हो सकता था। वह मैंने प्रयोग किया। सम्राट ने कहा- यह तो बड़ी मुसीबत हो गयी मैंने सोचा भी नहीं था कि मुर्गों से परीक्षा करवायी जायेगी चित्रों की! लेकिन उस बूढ़े कलागुरु ने कहा कि मुर्गों के सिवाय कौन पहचान सकता है कि चित्र मुर्गे का है या नहीं ? राजा ने कहा, फिर अब तुम्हीं चित्र बनाओ। उस बूढ़े ने कहा, बड़ी कठिन बात है इस बुढापे में मुर्गे का चित्र बनाना बहुत कठिन बात है। सम्राट ने कहा, तुम इतने बड़े कलाकार, एक मुर्गे का चित्र नहीं बना सकोगे ? उस बूढ़े ने कहा, मुर्गे का चित्र तो बहुत जल्दी बन जाये, लेकिन मुझे मुर्गा होना पड़ेगा और उसके पहले चित्र बनाना बहुत कठिन है। राजा ने कहा, कुछ भी करो। फिर उस बूढ़े ने कहा, कम से कम तीन वर्ष लग जायेंगे। पता नहीं मैं जीवित बचूं या न बचूं।
उसे तीन वर्ष के लिये राजधानी की तरफ से व्यवस्था कर दी गयी और वह बूढ़ा जंगल में चला गया। छ: महीने बाद राजा ने लोगों को भेजा कि पता लगाओ, उस पागल का क्या हुआ? वह क्या कर रहा है ? लोग गए और देखा कि वह बूढा जंगली मुर्गों के पास बैठा हुआ था! एक वर्ष बीत गया, फिर लोग भेजे गए। पहली बार जब लोग भेजे गये थे, तब तो उस बूढ़े चित्रकार ने उन्हें पहचान भी लिया था कि वे उसके मित्र हैं और राजधानी से आये हैं। जब दोबारा वे लोग गये तो वह बूढा करीब-करीब मुर्गा हो चुका था। उसने फिक्र भी नहीं की और उनकी तरफ देखा भी नहीं, वह मुर्गों के पास बैठा रहा। जब तीन वर्ष पूरे हो गये तो राजा ने लोग भेजे कि अब उस चित्रकार को बुला लाओ, चित्र बन गया हो तो। जब वे गये तो उन्होंने देखा कि वह बूढा तो एक मुर्गा हो चुका है, वह मुर्गे जैसी आवाज कर रहा है, वह मुर्गों के बीच बैठा हुआ है, मुर्गे उसके आसपास बैठे हुये हैं। वे उस बूढ़े को उठाकर लाये।
राजा ने कहा, चित्र कहाँ है? पागल, मुझे मुर्गा नहीं चाहिए, मुझे मुर्गे का चित्र चाहिए। तुम मुर्गे होकर आ गये हो। चित्र कहाँ हैं ? उस बूढ़े ने कहा, चित्र तो अभी बन जायेगा । चित्रकला का सामान लाओ तो मैं चित्र बना दूँ और उसने घड़ी भर में चित्र बना दिया और जब मुर्गे कमरे के भीतर लाये गये तो उस चित्र को देखकर मुर्गे डर गये और कमरे के बाहर भागे। राजा ने कहा, क्या जादू किया है इस चित्र में तुमने ?
उस बूढ़े ने कहा, पहले मुझे मुर्गा हो जाना जरूरी था, तभी में मुर्गे को निर्मित कर सकता था। मुझे मुर्गे को भीतर से जानना पड़ा कि वह क्या होता है और जब तक मैं आत्मसात न हो जाऊँ, मुर्गे के साथ एक न हो जाऊँ तब तक कैसे जान सकता हूँ कि मुर्गा भीतर से क्या है, उसकी आत्मा क्या है?
तो कविता में आत्मा का होना आवश्यक है, सच्चाई का होना लाज़िमी है और यह केवल सच्चे और निश्छल हृदय से ही हो पाना सम्भव है। उन दिनों गाँव में अनपढ़, अवैज्ञानिक सोच और रूढ़िवादी विचारधारा वाली दादी भी आसानी से बता देती थी कि इस बरस शरद ऋतु ठीक समय पर शुरू होगी या कुछ आगे पीछे हो जाएगी, कि हिमपात के दिनों में हिमनदी आगे कहाँ तक खिसकेगी। तब भी नदियां बहती थीं, तब भी बाढ़ आती थी, तब भी हिमस्खलन होता था, परन्तु जानमाल का नुकसान कम से कम होता था। अब स्थिति अलग है। जानमाल की बहुत क्षति होती है क्योंकि नदी की ज़मीन भी छीन ली गई है। कवि राज्यवर्द्धन ठीक यही बात अपनी कविता में कहना चाहते हैं कि नदी को आदमख़ोर हमने बनाया है-
दादी सुनाती थी-
किस्सा
.....लगातार बारिश होने पर
बाढ़ पहले भी आती थी
किसी -किसी साल
चढ़ता था पानी
बित्ता -बित्ता
जैसे कोई शिशु बढ़ता हो धीरे-धीरे
नहीं होती थी
जानमाल की हानि
समय रहते शरण लेते थे लोग
किसी मचान पर
या चले जाते थे
गांव के किसी ऊँचे मकान पर
नदी का क्रोध
होता था जब शांत
उतर जाता था पानी
आहिस्ता-आहिस्ता
जैसे था चढ़ता
कहती थी दादी-
जिस साल आती थी बाढ़
उस वर्ष फसल होती थी दुगनी
बाढ़ जितना लेती थी
उससे कहीं ज्यादा लौटा देती थी
अब कहती है माँ-
जब से नदी पर बना है बांध
तब से नदी
सुंदरवन के बाघ की तरह
आदमखोर हो गई है
रात-बेरात दबे पाँव
अचानक करती है भयानक हमला
खा जाती है-जान माल को
और दे जाती है टीस- अपनों से बिछुड़ने का
जीवन भर के लिए ।
कवि एक खेल देख रहा है। यह खेल सबने देखा भी है और खेला भी है। खेल है चोर, सिपाही, मंत्री और राजा का। लेकिन राज्यवर्द्धन जैसा कवि इस खेल की परतें एक अलग दृष्टिकोण से खोल देता है तो ताज्जुब होता है। खेल के माध्यम से बड़ा ही महत्वपूर्ण विषय कवि ने सामने रखा है और दिलचस्प भी है-
बच्चे खेल रहे थे -
चोर सिपाही मन्त्री राजा के खेल
पकड़ लिया- सिपाही चिल्लाया
राजा के सामने पेश करो-मंत्री का आदेश हुआ
राजा के सामने
चोर पेश हुआ
राजा ने सुनाई सजा
दस नरम दस गरम
सिपाही के
दस नरम दस गरम चपत खाकर
चोर बेहल हुआ
देखता रहा -
बच्चों के इस खेल को
जिसे बचपन में
कभी हमने भी खेला था
.....तभी मन में
अचानक ख्याल आया
कि इस खेल में
चोर सिपाही मंत्री राजा सभी हैं
परन्तु प्रजा क्यों नहीं
यह प्रश्न मथता रहा...
मथता रहा..
कई दिनों तक
इस यक्ष प्रश्न को
माँ पिताजी भाई बहन
नानी दादी चाची बुआ
सभी से पूछा
किसी का भी जवाब
सटीक नहीं लगा
और यक्ष प्रश्न
करता रहा परेशान
परेशानी के दौर में
एक दिन सपने में आया
एक दानिशमंद
पूछना चाहता था-
उससे भी यही प्रश्न
मगर नहीं पूछा
देखकर मेरी ओर
वह मन्द मन्द मुस्कराया
और कहा-
जानना चाहते हो ना कि
इस खेल में प्रजा क्यों नहीं हैं
अरे! इस खेल में
'चोर' ही असल में
बेबस प्रजा है
राजा मंत्री और सिपाही ने
मिलकर चली है चाल
छिपाने को अपना अपराध
प्रजा को ही
चोर घोषित कर दिया है
और बेचारी प्रजा
न जाने कब से
इसकी सजा भुगत रही है.....
और कह नहीं पा रही है कि
वह चोर नहीं है
नहीं हैं।
राज्यवर्द्धन कहते हैं, कविता तो दसों दिशाओं में खुलती है। कविता से कुछ भी अज्ञात नहीं। कविता आकाश सी विस्तृत और सागर सी अछोपरंतु आलोचकों को आज कवि और कविता दोनों से बहुत चिढ़ है क्योंकि उन्हें लगता है कि जिसको कुछ नहीं आता है वे भी कवि बने घूम रहे हैं। यश प्राप्तिर है। कविता प्रेम और प्रतिरोध का सुन्दर समन्वय है। यदि कविता ने सामान्य जन को भी अभिव्यक्ति का मौका दिया है तो इसमें बुरा क्या है?
यह तो कविता की ताकत है कि सामान्य जन भी इस विधा में अपने को अभिव्यक्त करने का साहस कर पा रहे हैं। कविता ने अभिव्यक्ति का लोकतांत्रिककरण किया है। अगर लोग कविता के माध्यम से अपनी 'मन की बात 'कह रहे हैं तो ,इसमें बुराई क्या है? कविता करने वाले अधिकांश कवि अपनी स्थिति जानते हैं कि वे कोई महाकवि नहीं होने जा रहे हैं।बस इच्छा है कि मैं भी कुछ कहना चाहता हूँ और कविता उन्हें यह मौका देती है।
परख बत्तीस नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2019/01/blog-post_15.html?m=1
कविता धरती का कर्ज़ है!
गणेश गनी
राज्यवर्धन |
हिंदी साहित्य के इर्दगिर्द अन्य भारतीय भाषाओं में लिखा साहित्य भी रहता है, जिसको लगभग अनदेखा कर दिया जाता है। भारत में खूबसूरत लिखने वाले कवियों की गिनती विश्व भर के बेहतरीन कवियों से कहीं अधिक है। जितने अनूदित कवियों को मैंने पढ़ा, उस आधार पर कह रहा हूँ। जो बड़ी बड़ी बातें विदेशी कवियों की बताई जाती हैं, वो सारी बातें संस्कृत और खड़ी बोली के कवियों ने पहले ही कह दी हैं, बल्कि उनसे भी खूबसूरत। हिंदी में कुछ युवा और कुछ अल्पज्ञात कवि कमाल का लिख रहे हैं और भारत के अन्य भाषाओं के कवि कमाल का लिख गए हैं। हिंदी साहित्य में एक बड़ी अजीब बात देखने को मिलती है कि बड़े लेखक नए लेकिन बेहतरीन लिखने वालों के प्रति एक पंक्ति भी नहीं कहते। उन्हें लगता है कि उनका एक ब्रह्मवाक्य कहीं इन्हें स्थापित न कर दे। यही सोच उन बड़े लेखकों को छोटा बना देती है। एक और बात भी मुझे अजीब लगती है कि ये बड़े लेखक अपनी छपी कविताओं को दोबारा क्यों नहीं पढ़ते! यदि पढ़ते तो स्वयं ही ख़ारिज़ कर देते।
विदेशी कविता को भी अजब गजब तरीके से कई कवियों ने उड़ाया है। जबकि कविता चाहती है कि वो कवि उसे लिखे जो बेहतर इंसान हो पहले और फिर एक सम्वेदनशील हृदय का मालिक। कवि राज्यवर्द्धन ने ठीक कहा:
बीज की तरह कवि
धरती में बो देता है कविता
कविता धरती का कर्ज है !
इसलिए कवि को लिखनी होती है कविता।
कविता एक बड़ी जिम्मेदारी भी है। कुछ अच्छे कवि भी हैं लेकिन उन पर मुझे शक है क्योंकि वे अच्छे इंसान कतई नहीं हैं। वे कविता की टेक्नीक जानते हैं इसलिए जुगाड़बाजी से अच्छी कविता बना लेते हैं। ऐसी कविताएं उन मकानों जैसी लगती हैं, जो सुंदर तो हैं मगर खाली खाली हैं। लेकिन जो सच है, वो कवि राज्यवर्द्धन ने एक स्थान पर कहा है:
कविता सही समय पर सही बात कहने की कला है!
दरअसल काल्पनिक और नकली कविता का दौर बरसों से चला आ रहा है। उधार की भाषा, चोरी के बिम्बों से जमकर कविता लिखी जा रही है। तो ज़ाहिर है ऐसी कविता में आत्मा नहीं होगी। यह मात्र बिजूका जैसा ही एहसास देगी।
एक पुरानी बोध कथा है। कोई डेढ़ हजार वर्ष पहले चीन के सम्राट ने सारे राज्य के दस चित्रकारों को खबर की कि वह राज्य की मोहर बनाना चाहता है जिस पर एक बांग देते हुए मुर्गे का जीवंत चित्र हो। जो यह बनाकर ला सकेगा, वह पुरुस्कृत भी होगा, राज्य का कलागुरु भी नियुक्त हो जाएगा। देश के दूर-दूर कोनों से श्रेष्ठतम चित्रकार बोलते हुए मुर्गे के चित्र बनाकर राजधानी में उपस्थित हुए लेकिन कौन तय करेगा कि कौन-सा चित्र सुन्दर है। हजारों चित्र आये थे। राजधानी में एक बूढ़ा कलाकार था। सम्राट ने उसे बुलाया कि वह चुनाव करे, कौन-सा चित्र श्रेष्ठतम बना है। वही राज्य की मोहर पर जायेगा। उस चित्रकार ने उन चित्रों को एक बड़े भवन में बंद कर लिया और स्वयं भी उस भवन के भीतर बंद हो गया! सांझ होते-होते उसने खबर दी कि एक भी चित्र ठीक नहीं बना है। एक से एक सुन्दर चित्र आये थे, सम्राट स्वंय देखकर दंग रह गया था लेकिन उस चित्रकार ने कहा, कोई भी चित्र योग्य नहीं है। राजा हैरान हुआ उसने कहा, ‘तुम्हारे मापदंड क्या हैं, तुमने किस भांति जांचा कि चित्र ठीक नहीं हैं। उसने कहा, मापदंड एक ही हो सकता था और वह यह कि मैं चित्रों के पास एक जिन्दा मुर्गे को ले गया और उस मुर्गे ने उन चित्रों के मुर्गों को पहचाना भी नहीं, फिक्र भी नहीं की, चिंता भी नहीं की, अगर वे मुर्गे जीवंत होते चित्रों में तो मुर्गा घबराता या बांग देता, या भागता, लड़ने को तैयार हो जाता! लेकिन उसने बिलकुल उपेक्षा की, उसने चित्रों की तरफ देखा भी नहीं! बस एक ही मापदंड हो सकता था। वह मैंने प्रयोग किया। सम्राट ने कहा- यह तो बड़ी मुसीबत हो गयी मैंने सोचा भी नहीं था कि मुर्गों से परीक्षा करवायी जायेगी चित्रों की! लेकिन उस बूढ़े कलागुरु ने कहा कि मुर्गों के सिवाय कौन पहचान सकता है कि चित्र मुर्गे का है या नहीं ? राजा ने कहा, फिर अब तुम्हीं चित्र बनाओ। उस बूढ़े ने कहा, बड़ी कठिन बात है इस बुढापे में मुर्गे का चित्र बनाना बहुत कठिन बात है। सम्राट ने कहा, तुम इतने बड़े कलाकार, एक मुर्गे का चित्र नहीं बना सकोगे ? उस बूढ़े ने कहा, मुर्गे का चित्र तो बहुत जल्दी बन जाये, लेकिन मुझे मुर्गा होना पड़ेगा और उसके पहले चित्र बनाना बहुत कठिन है। राजा ने कहा, कुछ भी करो। फिर उस बूढ़े ने कहा, कम से कम तीन वर्ष लग जायेंगे। पता नहीं मैं जीवित बचूं या न बचूं।
उसे तीन वर्ष के लिये राजधानी की तरफ से व्यवस्था कर दी गयी और वह बूढ़ा जंगल में चला गया। छ: महीने बाद राजा ने लोगों को भेजा कि पता लगाओ, उस पागल का क्या हुआ? वह क्या कर रहा है ? लोग गए और देखा कि वह बूढा जंगली मुर्गों के पास बैठा हुआ था! एक वर्ष बीत गया, फिर लोग भेजे गए। पहली बार जब लोग भेजे गये थे, तब तो उस बूढ़े चित्रकार ने उन्हें पहचान भी लिया था कि वे उसके मित्र हैं और राजधानी से आये हैं। जब दोबारा वे लोग गये तो वह बूढा करीब-करीब मुर्गा हो चुका था। उसने फिक्र भी नहीं की और उनकी तरफ देखा भी नहीं, वह मुर्गों के पास बैठा रहा। जब तीन वर्ष पूरे हो गये तो राजा ने लोग भेजे कि अब उस चित्रकार को बुला लाओ, चित्र बन गया हो तो। जब वे गये तो उन्होंने देखा कि वह बूढा तो एक मुर्गा हो चुका है, वह मुर्गे जैसी आवाज कर रहा है, वह मुर्गों के बीच बैठा हुआ है, मुर्गे उसके आसपास बैठे हुये हैं। वे उस बूढ़े को उठाकर लाये।
राजा ने कहा, चित्र कहाँ है? पागल, मुझे मुर्गा नहीं चाहिए, मुझे मुर्गे का चित्र चाहिए। तुम मुर्गे होकर आ गये हो। चित्र कहाँ हैं ? उस बूढ़े ने कहा, चित्र तो अभी बन जायेगा । चित्रकला का सामान लाओ तो मैं चित्र बना दूँ और उसने घड़ी भर में चित्र बना दिया और जब मुर्गे कमरे के भीतर लाये गये तो उस चित्र को देखकर मुर्गे डर गये और कमरे के बाहर भागे। राजा ने कहा, क्या जादू किया है इस चित्र में तुमने ?
उस बूढ़े ने कहा, पहले मुझे मुर्गा हो जाना जरूरी था, तभी में मुर्गे को निर्मित कर सकता था। मुझे मुर्गे को भीतर से जानना पड़ा कि वह क्या होता है और जब तक मैं आत्मसात न हो जाऊँ, मुर्गे के साथ एक न हो जाऊँ तब तक कैसे जान सकता हूँ कि मुर्गा भीतर से क्या है, उसकी आत्मा क्या है?
तो कविता में आत्मा का होना आवश्यक है, सच्चाई का होना लाज़िमी है और यह केवल सच्चे और निश्छल हृदय से ही हो पाना सम्भव है। उन दिनों गाँव में अनपढ़, अवैज्ञानिक सोच और रूढ़िवादी विचारधारा वाली दादी भी आसानी से बता देती थी कि इस बरस शरद ऋतु ठीक समय पर शुरू होगी या कुछ आगे पीछे हो जाएगी, कि हिमपात के दिनों में हिमनदी आगे कहाँ तक खिसकेगी। तब भी नदियां बहती थीं, तब भी बाढ़ आती थी, तब भी हिमस्खलन होता था, परन्तु जानमाल का नुकसान कम से कम होता था। अब स्थिति अलग है। जानमाल की बहुत क्षति होती है क्योंकि नदी की ज़मीन भी छीन ली गई है। कवि राज्यवर्द्धन ठीक यही बात अपनी कविता में कहना चाहते हैं कि नदी को आदमख़ोर हमने बनाया है-
दादी सुनाती थी-
किस्सा
.....लगातार बारिश होने पर
बाढ़ पहले भी आती थी
किसी -किसी साल
चढ़ता था पानी
बित्ता -बित्ता
जैसे कोई शिशु बढ़ता हो धीरे-धीरे
नहीं होती थी
जानमाल की हानि
समय रहते शरण लेते थे लोग
किसी मचान पर
या चले जाते थे
गांव के किसी ऊँचे मकान पर
नदी का क्रोध
होता था जब शांत
उतर जाता था पानी
आहिस्ता-आहिस्ता
जैसे था चढ़ता
कहती थी दादी-
जिस साल आती थी बाढ़
उस वर्ष फसल होती थी दुगनी
बाढ़ जितना लेती थी
उससे कहीं ज्यादा लौटा देती थी
अब कहती है माँ-
जब से नदी पर बना है बांध
तब से नदी
सुंदरवन के बाघ की तरह
आदमखोर हो गई है
रात-बेरात दबे पाँव
अचानक करती है भयानक हमला
खा जाती है-जान माल को
और दे जाती है टीस- अपनों से बिछुड़ने का
जीवन भर के लिए ।
कवि एक खेल देख रहा है। यह खेल सबने देखा भी है और खेला भी है। खेल है चोर, सिपाही, मंत्री और राजा का। लेकिन राज्यवर्द्धन जैसा कवि इस खेल की परतें एक अलग दृष्टिकोण से खोल देता है तो ताज्जुब होता है। खेल के माध्यम से बड़ा ही महत्वपूर्ण विषय कवि ने सामने रखा है और दिलचस्प भी है-
बच्चे खेल रहे थे -
चोर सिपाही मन्त्री राजा के खेल
पकड़ लिया- सिपाही चिल्लाया
राजा के सामने पेश करो-मंत्री का आदेश हुआ
राजा के सामने
चोर पेश हुआ
राजा ने सुनाई सजा
दस नरम दस गरम
सिपाही के
दस नरम दस गरम चपत खाकर
चोर बेहल हुआ
देखता रहा -
बच्चों के इस खेल को
जिसे बचपन में
कभी हमने भी खेला था
.....तभी मन में
अचानक ख्याल आया
कि इस खेल में
चोर सिपाही मंत्री राजा सभी हैं
परन्तु प्रजा क्यों नहीं
यह प्रश्न मथता रहा...
मथता रहा..
कई दिनों तक
इस यक्ष प्रश्न को
माँ पिताजी भाई बहन
नानी दादी चाची बुआ
सभी से पूछा
किसी का भी जवाब
सटीक नहीं लगा
और यक्ष प्रश्न
करता रहा परेशान
परेशानी के दौर में
एक दिन सपने में आया
एक दानिशमंद
पूछना चाहता था-
उससे भी यही प्रश्न
मगर नहीं पूछा
देखकर मेरी ओर
वह मन्द मन्द मुस्कराया
और कहा-
जानना चाहते हो ना कि
इस खेल में प्रजा क्यों नहीं हैं
अरे! इस खेल में
'चोर' ही असल में
बेबस प्रजा है
राजा मंत्री और सिपाही ने
मिलकर चली है चाल
छिपाने को अपना अपराध
प्रजा को ही
चोर घोषित कर दिया है
और बेचारी प्रजा
न जाने कब से
इसकी सजा भुगत रही है.....
और कह नहीं पा रही है कि
वह चोर नहीं है
नहीं हैं।
राज्यवर्द्धन कहते हैं, कविता तो दसों दिशाओं में खुलती है। कविता से कुछ भी अज्ञात नहीं। कविता आकाश सी विस्तृत और सागर सी अछोपरंतु आलोचकों को आज कवि और कविता दोनों से बहुत चिढ़ है क्योंकि उन्हें लगता है कि जिसको कुछ नहीं आता है वे भी कवि बने घूम रहे हैं। यश प्राप्तिर है। कविता प्रेम और प्रतिरोध का सुन्दर समन्वय है। यदि कविता ने सामान्य जन को भी अभिव्यक्ति का मौका दिया है तो इसमें बुरा क्या है?
गणेश गनी |
यह तो कविता की ताकत है कि सामान्य जन भी इस विधा में अपने को अभिव्यक्त करने का साहस कर पा रहे हैं। कविता ने अभिव्यक्ति का लोकतांत्रिककरण किया है। अगर लोग कविता के माध्यम से अपनी 'मन की बात 'कह रहे हैं तो ,इसमें बुराई क्या है? कविता करने वाले अधिकांश कवि अपनी स्थिति जानते हैं कि वे कोई महाकवि नहीं होने जा रहे हैं।बस इच्छा है कि मैं भी कुछ कहना चाहता हूँ और कविता उन्हें यह मौका देती है।
परख बत्तीस नीचे लिंक पर पढ़िए
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