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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

20 जनवरी, 2019


 पल्लवी त्रिवेदी की कविताएं





पल्लवी त्रिवेदी




बैक-बेंचर

मैं जीवन भर मृत्यु सीखने का प्रयत्न करती रही
कि मृत्यु के वक्त दिल धड़क रहा होगा धीमे-धीमे ध्यान की-सी स्थिति में
और होंठों पर होगी एक स्थिर लौ सरीखी मुस्कान
लेकिन जब-जब मृत्यु ने हल्का सा स्पर्श भी किया
तो भय से सूखते होंठों पर जिव्हा फिराते हुए मैं ज़िन्दगी से और कसकर लिपट गयी

मैं जीवन भर दुख से निपटने के गुर सीखती रही
कि जब आएगा दुख
तो सुख के ठीक बगल में बिठाऊंगी उसे एक अतिथि की तरह
पर जब दुख एक शिकारी बाज की तरह आकर छाती पर बैठा
तो उसके ताकतवर पंजे खुरचते-खुरचते अपना हृदय लहूलुहान कर बैठी
मैं सीखे हुए तरीके याद करने की कोशिश ही करती रह गयी
वह कलेजा नोंचकर चोंच में भरता रहा

मैं प्रेम में विदा के सबसे माकूल तरीके खोजती रही
कि विदा के बाद जब भी मिलूं महबूब से तो
एक आंख आत्मा में गहरे दबे हुए प्रेम से और दूसरी आंख उसके स्पर्श की गर्माहट से छलक उठे
मगर हुआ यह कि जब मिली महबूब से अरसे बाद
तो एक आंख में लज्जा थी विदा की गरिमा को न निभा सकने की
और दूसरी आंख में था
कभी कम न हो सका प्रेम,चंद शिकवे,एक अनपूछा सवाल,
आहत मन की हज़ारों किरचें और एक हूक भरी गहरी छटपटाहट

सारे सबक एन इम्तिहान के वक्त भूल बैठी मैं
जीवन की क्लास की सबसे कमजोर विद्यार्थी हूँ
पीछे की बेंच पर ही अपना जीवन जीती आयी हूँ
नीचे सर किये डबडबायी आंखों से हथेलियां आगे कर बेंत खाती आयी हूँ
आगे वालों के अवार्ड्स पर तालियां बजाती आयी हूँ
अव्वल आने वाले छात्रों की हंसी में कभी उपहास तो कभी एक बेचारगी देखकर
रुआँसी होकर खम्बे के पीछे छुपती आयी हूँ
देखना ...उसी बेंच पर आधे किये होमवर्क की खुली कॉपी पर सर रखकर मर जाउंगी एक दिन

हम बैक बेंचर कुछ और सीख पाते हों या नहीं
पर तमाम दूसरे बैक बेंचरों की बे-आवाज़ रुलाई सुनकर
उनकी हथेलियों के अदृश्य ज़ख्मों पर मरहम लगाना ज़रूर सीख जाते हैं


अनुप्रिया

         
                         
  
उदासी में प्रेम

वो एक बेहद उदास लम्हा था
उस लम्हे में मैं प्रेम के शिखर पर थी

दुनिया छोड़ सकती थी उसके लिए
अपने अहम को ठोकर मार सकती थी
उसे उसकी प्रेमिका के घर तक पहुंचा सकती थी
अगर वो बीच सफ़र में छोड़ जाता तो बिना किसी शिकवे के अलविदा कह सकती थी
अपने कत्ल के लिए उसे बिना सोचे क्षमा कर सकती थी

मैंने उदास लम्हों में हमेशा बिना शर्त प्रेम किया
वो अलग बात कि उदासी कभी बिना शर्त नहीं मिली

पल दर पल घटता बी.पी., डूबती चढ़ती नब्ज़ और बेतरतीब बेचैन सांसें उदासी के तोहफे हैं
उदास मन की धक-धक किसी वायलिन की आधी रात बजती गीली धुन है

क्या हैरत कि
जब भी खोज होगी जीने के सबसे ज़रूरी सामानों की
उदासी सबसे ऊपर औंधी रखी होगी
प्रेम के एन बगल की शेल्फ पर





 बुरा वक्त और लाल डिबिया

चींटियां इकठ्ठा करती हैं राशन
मधुमक्खी जमा करती है पराग
गृहिणी पाई-पाई जोड़ती है सिक्के
और प्रेमिकाएं इकठ्ठा करती हैं प्रेमी की आँखों से झरता नेह अपने कठिन वक्तों के लिए
पृथ्वी जुगत लगा रही है ज़रा सा हरा बचाये रखने की
आकाश सीखता है रफूगरी के गुर अपने पैरहन के एक बड़े से छेद को भरने के लिए
मैं भी सबसे खराब दिनों के लिए एक लाल डिबिया में इकट्ठा करती जाती हूँ थोड़ा सामान
जिसमे चिड़ियों के गीत, बच्चों की हंसी ,गिल्लू के पंजों की कोमल छुअन, गाढ़ी उदासी भरी शामें
और स्मृतियां उन लोगों की
जिनसे माफ़ी और प्रेम मिला बिना शर्त
बुरे वक्तों की परिभाषायें ढेर हैं
सबका बुरा वक्त बेहद निजी होता है
जब भी मेरे भीतर की मनुष्यता दम तोड़ती दिखाई देती है
मेरा बुरा समय प्रारम्भ होने लगता है
मेरी लाल डिबिया एक बढ़िया किस्म का पैराशूट है
हर बार एन वक्त पर खुल ही जाती है
यूं मैं हर बार बच जाती हूँ और
पृथ्वी भी...



अनुप्रिया


                                                             
जीवन–मृत्यु

मृत्यु के ठीक एक क्षण पूर्व जागी कामनाएं जीवन का जलसा है
सबसे खुले कहकहों के बीच मर जाने की इच्छा मृत्यु की विराटता है
जीवन एक कठोर पिता है
जीना सिखाने का भ्रम पैदा करके
मृत्यु सिखाता हुआ
मृत्यु एक करुण और उदार माँ
हर बार बाहों में लेकर जीवन को सौंपती हुई
हम और कुछ नहीं..
दो भव्य घटनाओं की बार-बार जन्मती सन्तान हैं



                                                            
अकेला आदमी


अकेला आदमी इतना भी अकेला नही होता
जितना वह दिखाई पड़ता है

सिर्फ अकेला आदमी ही जानता है खुद को तकिया बनाकर सोना
सिर्फ वही अपने घर के एक कोने को बना पाता है एक लाड़ भरी गोद
सबसे पीड़ादायक पलों में उसका कांधा उसके सर के नीचे सरक आता है धीरे से
जाने कब उंगलियां जा पहुंचती हैं बालों के बीच डिस्प्रिन की तरह सरदर्द को घोलने

सिर्फ उसी को आता है हुनर अपनी बाहों में अपने जुड़वां अदृश्य पार्टनर के साथ नाचने का
उसके हृदय में रहता है वह खुद अपने बेस्टेस्ट फ्रेंड की तरह

अकेला आदमी चाँद है जो घटता बढ़ता है अपनी कलाओं में
वह पूर्ण भी है ज़रूरी अधूरेपन की पूर्ण संभावना के साथ
और अपूर्ण भी पूर्णता की गुंजाइश लिए

सुनो सब..
अकेला नहीं होता आदमी जीवन में दोस्तों की अनुपस्थिति से
वो अकेला होता है जीवन में खुद की अनुपस्थिति से


               
                                           
                                                             
एकांत

मैं अपने निपट अकेलेपन में अपने ही अंदर जाती हूँ
खुद से ज्यादा अनबूझी जगह कोई नहीं
खुद से ज्यादा अनजाना कोई नहीं
अपने भीतर घूमना ब्रम्हांड में घूमना है
मौन इस यात्रा का सबसे ज़रूरी सामान है
और एकांत एकमात्र साथी
तब तीनों काल मेरे भीतर चक्कर काटते हैं
अतीत एक समंदर की तरह सामने आता है
जिसके किनारे बैठ बस देखती हूँ आती जाती लहरों को तटस्थ दृष्टि से
उन अजन्मी लहरों को भी पहचान लेती हूँ जो कभी किनारे लगी ही नहीं
तटस्थता से अच्छा औज़ार नहीं दृष्टि प्रखर करने का
और प्रखरता से अच्छा औज़ार नहीं स्वयं के शल्य के लिए
वर्तमान को मैं एक नदी की तरह देखती हूँ
नदी में निरन्तर एक नौका चल रही है
जिसमे लगातार छिद्र होते जाते हैं
नाविक मैं स्वयं हूँ
एक हाथ में मेरे चप्पू है
दूसरे हाथ से मैं छिद्रों को बंद करती जाती हूँ
भविष्य मेरे सामने एक मोटा ताला जड़ा संदूक है
चाबी उस छेदों वाली नौका में छुपी हुई है और
खोलने का तरीका समंदर के अंदर किसी मछली के पेट में





पिता सोते नहीं

एक दिन
पहाड़ की गोद से मचलकर एक नदी फिसल कर भागी
पर्वत मुस्कुराकर आवाज़ देता रहा
नदी एक हिरनी की तरह कुलांच भरती रही
पहाड़ जागता हुआ सचेत खड़ा है एक पिता की तरह
नदी मैदानों में सितोलिया खेल रही है
घाटियों से गुज़रते हुए कोई अलबेली धुन गुनगुना रही है
कभी बेसुध हो नाच रही है तो कभी शहरो से गप्पें हांक रही है
कभी पलटकर पहाड़ को जीभ चिढ़ा रही है
पहाड़ बस मुस्कुराये जाता है
एक नन्ही बिटिया को पिता की ऊँगली थामे मेले में घूमते देखा था आसमान ने
और चाँद ने बलाएँ लेकर दुआएं बिखेरी थीं अंतरिक्ष में
नदी की दायीं बांह में बंधा है पहाड़ी मिटटी का तावीज़
और बालों में टँकी है एक मेले से खरीदी हेयरपिन
नदिया दौड़े जाती है आँखें मीचे
अपने किनारों के कांधों पर चढ़कर
और रात को
थक कर सो जाती है सीने पर दोनों हाथ समेटे
पहाड़ सदियों से सोया नहीं है
उसके बाएं हाथ की ऊँगली में अटका है
नदी की फ्रिल वाली फ्रॉक का रेशमी बेल्ट
पहाड़ मोह में नहीं , पुत्री के प्रेम में है
आज़ादी उसका नदी को दिया सबसे बड़ा उपहार है
पिता की गोद से फिसलकर भी कौन बिटिया ओझल होती है भला
अगर सिर्फ आँखें बंद कर लेना सोना नहीं तो
पिता कभी सोते नहीं
बिटिया को देते हैं दो सफ़ेद पंख
और बस करते हैं परवाह आखिरी सांस तक



अनुप्रिया



अधूरा प्रेम

मेरी नींद की वीरान गलियों में एक घायल स्वप्न लगातार टहलता है

प्रेम एक गुलाबी मछली है
जिसे निगलना होता है बिना कांटा हटाये
यही कांटा आंखों में अटक जाया करता है
और मछली हृदय में !

कांटा निकालो,मछली मर जाएगी
नहीं निकालोगे तो तुम मर जाओगे

दुनिया के तमाम प्रेमी खुद मरकर मछली को पालने वाले मछुआरे हैं
स्वप्न के तलवे लहूलुहान हैं
आंख में गड़ा कांटा अंत मे सपनों के पैरों में जा चुभता है

नींद में लगी चोटों का रक्त हृदय से रिसता है
नींद में उपजी पीड़ा जाग की पीड़ा का सबसे साफ प्रतिबिम्ब है
मैं किसी अधूरी कविता की आखिरी पंक्ति हूँ
जो बार-बार बिगड़ती रहती है उस एक मुकम्मल लफ्ज़ की खोज में

स्वप्न की मर्मभेदी कराह से टूट जाती नींद घबराकर
अधूरी जाग,अधूरी नींद,अधूरा स्वप्न

और..हर रात यही
सिर्फ यही
आह...अधूरा प्रेम !
000

पल्लवी त्रिवेदी की कविता नीचे लिंक पर सुनिए

प्रेम किये दु:ख  होए
पल्लवी त्रिवेदी

https://youtu.be/_BYBtEwWQvA



परिचय
मध्यप्रदेश के शिवपुरी शहर की मूल निवासी । ०८ सितम्बर १९७४ को ग्वालियर में जन्म ।
सम्प्रति – मध्यप्रदेश में अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक के रूप में भोपाल में पदस्थ ।
प्रकाशन-  एक व्यंग्य संग्रह अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा  प्रकाशित।
                 एक कविता संग्रह " तुम जहाँ भी हो " प्रकाशित !
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविता ,कहानी ,व्यंग्य व यात्रा संस्मरण का नियमित रूप से प्रकाशन !
विविध – लेखन के अतिरिक्त यात्राओं,संगीत व फोटोग्राफी का शौक ! विभिन्न पत्रिकाओं व पुस्तकों के
कवर के रूप में तस्वीरों का प्रकाशन ।


5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत हूँ मार्मिक कविताये है।
    प्रेम और मृत्यु का जो चित्रण आप अपनी कविताओं में की है वो सिर्फ शब्द नही बल्कि जीवन का अनुभव है।
    सादर

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  2. बहुत हूँ मार्मिक कविताये है।
    प्रेम और मृत्यु का जो चित्रण आप अपनी कविताओं में की है वो सिर्फ शब्द नही बल्कि जीवन का अनुभव है।
    सादर

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  3. बहुत अच्छी कविताएं. खासकर 'पिता कभी सोते नहीं'और
    'अधूरा प्रेम'. पढ़कर मजा आ गया. बधाई.

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  4. पल्लवी जी से पहली बार अवगत हुआ.
    उनकी कविताएँ भा गयी हैं..
    भाषा को बिना अलंकृत किये जैसी है वैसी ही रख देना और उसकी सुन्दरता साफ़ दिखाई देना ये खासियत मुझे बहुत अच्छी लगी.
    ठीक हो न जाएँ 

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  5. बहुत सुंदर कविताएं एवं अनुप्रिया दीदी के रेखाचित्र भी।

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