image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

28 फ़रवरी, 2019

         
कहानी 


मरी हुई नीयत के लोगों की दुनिया

                                                         
बद्री सिंह भाटिया


 विक्रमार्क ने अपनी पोशाक बदली और नगर दर्शन के लिए चल दिया। मन में काफी दिनों से विचार चल रहा था कि अपने शासन में लोगों का हाल जानना चाहिए। यह व्यक्तिगत रूप से भी देखा, समझा जाए तो ज्यादा ठीक होगा क्योंकि जो स्थितियाँ मन्त्रियों, मुँह लगे व्यक्तियों द्वारा बताई जाती थी वे एक पक्षीय अथवा उसकी पसन्द या इच्छा की ही होती थी। पत्रकार भी वही कुछ छाप रहे थे जो विरोधियों को भड़काने में ज्यादा कारगर होता था। जन सामान्य की भीतर की बातें जानना भी जरूरी था। यह विचार उसके मन में कई दिनों से कुलबुला रहा था। कहीं भीतर वह समझ रहा था कि वह घिर सा गया है और कर कुछ नहीं पा रहा। इसलिए..... उस दिन उसने अपने साथ एक विश्वसनीय सभासद को भी ले लिया था जो उसके बहुत रत्नों में से एक था और बहुत वफ़ादार भी।




बद्री सिंह भाटिया




वे चलते गये। बड़ी सड़क से छोटी। छोटी से मुहल्लों की तंग गलियों में और फिर बड़ी सड़क से एक ओर को निकलती सीधी सड़क पर। इस सड़क पर सन्नाटा था। मगर सामने एक विशाल भवन भी था। भवन की प्रत्येक मंजिल से तेज रोशनी बाहर के अन्धकार को मिटाने में सक्षम थी। भवन के भीतर से आ रही रोशनी से आस-पास ठीक दूरी तक चाँदनी सी रोशनी बिखरी हुई थी। जिस सड़क पर वे चल रहे थे उसके दोनों ओर तराशी गई झाड़ियाँ थीं। सुंदर लग रही थी। बीच-बीच में  दोनों ओर खम्बे थे जिनके सिरों पर भी अण्डाकार टोकरियों के भीतर बल्व जल रहे थे। विक्रमार्क खुश हुआ। बुदबुदाया, ‘काफी सम्पन्नता आ गई है।’ सभासद को बुदबुदाना तो सुना मगर शब्द स्पष्ट समझ नहीं आए। उसने पूछा भी कि क्या कहा, जनाब?

मगर विक्रमार्क ने उत्तर  नहीं दिया और आगे चलते रहने का ईशारा किया। वे आगे बढ़े। भवन के पास एक और भवन। उस भवन के दूसरी ओर एक और भवन। इन भवनों के बाहर खुला मैदान। मैदान में गाड़ियाँ ही गाड़ियाँ। रंगीन जलती बिजली की लड़ियाँ ही लड़ियाँ। उसे लगा यहाँ कोई विवाह हो रहा होगा। परन्तु उसके लिए तो पण्डाल होना चाहिए था। कानफाड़ू संगीत होना चाहिए था। मगर ऐसा कुछ नहीं। वे आगे बढ़े। एक ओर एक छोटी सी रेहड़ीनुमा दुकान थी। यह पनवाड़ी था। वे पनवाड़ी के पास जाकर खड़े हो गये। एक विशिष्ठ जगह सामान्य आदमियों को सामने देख पनवाड़ी ने पूछा-‘कौन भइया? क्या चाहिए?’
‘तुम इतनी रात गए तक दुकान में ही हो?’ विक्रमार्क ने पूछा। उसने पनवाड़ी के प्रश्न का प्रत्युत्तर नहीं दिया।
‘तुमसे मतलब! ये मेरा धन्धा है। पान खाओगे?’
‘हाँ! ले लूँगा।’ विक्रमार्क ने उसके बारे में जानने की गर्ज़ से कहा।
‘कितने का?’





‘मतलब?’
‘पैसे। कितने पैसे का। पाँच, पचास या सौ का?’ समझे। उसने अपने मुंह में रखे पान को जरा भीतर कर और गर्दन ऊपर कर फुफकारते  से कहा। ‘लग रहा है पहली बार आये हो?’ वह बुदबुदाया।
‘क्यों पान का तो एक ही रेट तय है न। इसमें कितने का क्या मतलब? और ये रेट जो तुम...।’ विक्रमार्क ने कहा।
‘नहीं! जिस पान की तुम बात कर रहे हो वह साधारण पान होता है। यहाँ साधारण नहीं मिलता। यहाँ तो पाँच सौ और हजार का भी मिलता है।’
‘उसमें क्या-क्या डालते हो ऐसा? पान, सुपारी, चूना, कत्था, लौंग इलायची खुशबू या कोई तम्बाकू कोई सोना भस्म तो नहीं डालते न!’ विक्रमार्क ने जिज्ञासा से पूछा।
‘भइया ये क्लब हैं। यहाँ अमीर लोग आए होते हैं। भीतर गाना-बजाना चला होता है। फिर रात के तीसरे-चैथे पहर जब वे भीतर से निकलते हैं तो उन्हें पान चाहिए होता है। उनके साथ आई नशे में धुत युवतियाँ कीमती पान की माँग करती हैं। इसलिए ये बनाना पड़ता है। कोई सौ का माँगता है कोई पाँच सौ का। लोग पैसे फेंकते नहीं, फूँकते हैं...क्या समझे?’
‘तुम क्या करते हो?’
‘मैं पहले पैसे पकड़ता हूँ और तब पान देता हूँ।’
‘अरे!’
‘हाँ!’ फिर उसे ध्यान आया कि ये भीतर कैसे आए? पूछा, ‘अरे! तुम तो साधारण आदमी हो। तुम्हें अन्दर किसने आने दिया? वहाँ कोई दरबान नहीं था?’ पानवाड़ी ने विक्रमार्क और सभासद की ओर ध्यान से देख कहा।
‘हाँ! नहीं, एक आदमी था। नशे में धुत। लुढ़का हुआ। इस तरह लेटा था कि उसका डण्डा उसी पर पड़ा था। हमने सोचा कि....चुंधियाती रोशनी देख मन किया कि आगे चलकर देखना चाहिए। इसलिए...।’ उसने बात बीच में छोड़ दी।
‘हूँऽ।... क्या करोगे?
‘क्या हो रहा है यहाँ इस समय?’
‘तुम्हें यहाँ की जिन्दगी का पता नहीं। मुझे भी ज्यादा नहीं मगर इतने वर्षों से यहाँ पान बेचते काफी पता लग गया है। यहाँ की दुनिया ही अलग हे।’
‘कैसी?’
‘तुम्हें नहीं पता। यहाँ आने के लिए सदस्यता का होना जरूरी है। या किसी का गेस्ट बनकर भी आया जा सकता है। तुम्हारे साथ कोई स्त्री भी होनी चाहिए। स्त्री मायने पत्नी या प्रेमिका। वैसे यहाँ ज्यादातर युवा जोड़े प्रेमी-प्रेमिका ही होते हैं। पति-पत्नी जो आते हैं जल्दी चले भी जाते हैं।’
‘प्रेमी जोड़े इतनी रात तक क्लब में? उनके घर में नहीं पूछा जाता कि इतनी रात...खासकर लड़कियों के बारे में।’
‘लड़कियों की ठीक कही। भीतर बाॅर गर्ल भी होती हैं। वे डान्स कर रही होती हैं-उनके साथ प्रेमी जोड़े भी नाच रहे होते हैं। फिर नशे में धुत एक दूसरे से चिपके जीवन का आनन्द ले रहे होते हैं।’
‘अच्छाऽ’
‘हाँ!’ पानवाड़ी ने पान लपेटते हुए कहा। ‘यहाँ की अलग दुनिया के अनेक किस्से हैं। एक बार तो भीतर गोली ही चल गई थी।’
‘वो कैसे?’
‘बस अमीरों के शोहदे। ...अपने ग्रुप में दारू पी रहा था एक। नाच भी रहा था। बीच में नशा कम हुआ तो वह दारू के काऊँटर पर आ गया। वहाँ दारू पीते उसकी नज़र एक अन्य ग्रुप की सुन्दर लड़की पर पड़ गई। वह उसके पास चला गया। सुना यह गया है कि अश्लील हरकतें करने लग गया। लड़की क्लब जरूर आई थी। यहाँ की तहज़ीव से भी वाकिफ़ थी मगर अपने को बचाए रखे थी। या उसका कोई प्रेमी वहाँ अलग नाच, झूम  रहा था। वह उस युवक की हरकतें बरदाश्त नहीं कर सकी। ....ये भी हो सकता है, वह उसे जानती भी हो। क्लब है, रोज-रोज तो ये आते ही हैं। अमीर है, पैसा पिता के पास बहुत है। काम कुछ नहीं है तो क्या करे? खर्च। समय काटने को क्लब....खैर!...।’
विक्रमार्क ने रोका, ‘ये यहाँ शराब में इतना खर्च कर रहे हैं, कहीं और कुछ...।’
‘अरे भइया, इनके पास किसी चीज की कमी नहीं है? अब रोज-रोज तो नहीं खरीद सकते कपड़े न।’
‘कहीं किसी पुण्य कार्य...।’
हंसा पनवाड़ी। ‘किस पुण्य की बात कर रहे हैं? पुण्य जब इनका बाप नहीं करता तब ये क्या करेंगे? इनमें से एक के बाप का मिल है। कपड़ा बनता है वहाँ। मजदूरों ने वेतन बढ़ाने की बात की तो...भइया तुम्हें याद होगा। अखबार तो पढ़ते ही होंगे। लाशें बिछवा दी थीं। पर पैसा नहीं बढ़वाया। तालाबंदी तक कर दी। मजदूर भूखे मरने लगे तब फिर सरकार ने दखल दिया तो कुछ बात बनी।’
‘सरकार कैसी चल रही है?’ विक्रमार्क के साथ आए सभासद ने पूछा।
‘ख़ाक चल रही है। कथनी और करनी में अन्तर होता है। जो वह वो लालकिले और रामलीला मैदान में बोला था, उस पर जरा भी अमल नहीं। झूठ; सरासर...बस बातों का हेरफेर था-अपने से पिछलों को ही गरियाता रहा। और अपनी पीठ थपथपाता रहा। और सुनो उसकी गलती। और देखो, जिन लोगों को जनता ने नहीं माना था। यूँ कहें, स्वीकार नहीं किया था उसने उन्हें मन्त्री बना दिया। एक को तो इतना बड़ा बना दिया कि जिनके पास उसे नतमस्तक होना था, उन्हें उसके पास हाजरी देने को मजबूर कर दिया।’
‘इसमें बुरा क्या है? वो उसको पसन्द है। काम के हैं...। फिर ये राजनीति...।’
‘खाक, काम के? उनसे भी ज्यादा ज्ञानवान लोग हैं। ये कमी नहीं है इस देस में।’ तुनक गया पनवाड़ी।
‘और क्या?’ सहनशील बने विक्रमार्क नेे कहा।
‘और क्या, अब पड़ौसी राज्यों से दोस्ती बढ़ा रहा है ताकि कोई खतरा न हो।’ बस यूँ ही चल रहा है, बेवकूफ सा!’ उसकी बात से सभासद तिलमिलाया। कुछ कहने को उद्धत हुआ मगर विक्रमार्क ने हाथ के इशारे से रोक दिया।
‘क्या करना चाहिए उसे?’








‘अरे! पैसा बचाना चाहिए। गरीब की सुरक्षा के लिए जो चैकीदार बनाए हैं, उन्हें पहरना चाहिए। वे लूट रहे हैं। इन अमीरों पर चेक लगाना चाहिए। ये तम्बाकू गुटखा पर बैन लगाने से नहीं होगा। इस खुलेआम शराबखोरी पर बैन लगाना चाहिए। ये जो नित हत्याएँ हो रही हैं, बलात्कार हो रहे हैं, इन्हें रोकना चाहिए। और....औरतों की तो कोई इज्जत ही नहीं रही। रोज कुछ न कुछ होता रहता है। रोज किसी न किसी लड़की...अखबार नहीं पढ़ते शायद।’ पनवाड़ी के माथे पर त्योरियाँ चढ़ गई।
विक्रमार्क कुछ आगे कहता, या वे कुछ पूछते, भीतर से एक जोड़ा निकला। सामने झूलता सा एक बड़ी कार की ओर गया। पुरुष के बगल में एक स्त्री थी। वह नंगी तो नहीं पर नंगी जैसी ही थी। मुश्किल से कार का दरवाजा खोला, फिर उस युवती को दूसरे दरवाजे तक ले गया। वापस आकर ड्राइविंग सीट पर बैठा-चलने से पहले अश्लील सी हरकत की और तेज गति से चला गया। विक्रमार्क ने पूछा-इसने पान नहीं लिया?
‘होश ही नहीं है। साथ में नशा जो है। डब्बल नशा। आगेे कहीं ध्यान आयेगा तो शायद लौटे या उधर ही कहीं....’
‘बड़ी चैड़ी गाड़ी है।’
‘पता भी है, एक करोड़ की है-बाहर से मंगवाई है।’
‘अरे! एक करोड़ की?
‘हाँऽ इतनी तो राजा के पास भी नहीं है। तभी तो कहा, गरीब को मजदूरी नहीं। किसान कर्ज में और....।’
‘किसान क्यों कर्ज में? वह तो...।’
‘खाक कमाता है? वह रिवाजों बल्कि बढ़ती रिवाज़ों के ताब तले दबा है। इन रिवाजों को निभाने में भारी खर्च होता है। भइया लोग छोड़ते नहीं। करो तो मुश्किल, न करो तब भी...लोगों को जुबान हिलाते समय थोड़े भी लगता है-कह दिया कुछ भी...आदमी गरीब है, पहलौठी की लड़की है, दहेज देने में दिक्कत। समधी भी कह रहा कि रहने दो पर लोग, रिश्तेदार कह देते हैं-नहीं! पहलौठी की लड़की है, पहला शुभ काम है, जी खोलकर देना है। कहाँ से लाये। बिरादरी कह देती है कि क्या मुश्किल है। बस.... कोई सुझा देता हैे कि साहूकार से लो तो कोई कहता है कि बैंक से ले लो। किश्तों में हटा देना। बस, अब हो गया न कर्ज। नहीं निबटा पाए तो...यही नहीं कई जगह लोगों के मुंह ही खुले हैं-उनका पेट तो भरता ही नहीं, अब क्या हो? ....आधे किसान तो जमीन के लिए कर्ज से कम अपने बच्चों के ब्याह के लिए कर्ज को न अदा करने से मर रहे हैं।...और इधर ये लोग, भई इनका तो भगवान ही मालिक है किसे कब मार दें, पता नहीं। इनकी शादी और जन्मदिन....तौबा-तौबा।’
विक्रमार्क ने लम्बी हूँ की। तभी साथ आए सभासद ने पूछा, ‘अरे! हाँ! उस गोली, जो भीतर चली थी, का क्या बना? आप कह रहे थे।’
‘हाँ! बस उनमें बात बढ़ गई। सुना है लड़की ने गलत हरकत पर चान्टा मार दिया। भइया, औरत सार्वजनिक तौर पर किया अपमान या हरकत बरदाश्त नहीं करती। बस...और इस पर गुस्साए युवक ने अपना अपमान मान कमीज के नीचे से रिवालवर निकाला और ठाॅयं...गोली चलते क्लब में सन्नाटा छा गया, कुछ लोगों की तो शराब उतर गई। वे भाग निकले, मगर उसकी एक सहेली वहीं खड़ी रही। फिर नीचे गिरी अपनी सहेली की ओर झुककर रोने लगी। और....।’ वह चुप हो गया था। कुछ सोचता या सामने गेट से निकलते किसी जोड़े को देखने लगा था।
‘....और...।’







‘और क्या, तब वही जो होता है। कानूनी प्रक्रिया।’
‘अरे! ऐसा हुआ?’
‘हाँ! तुम्हें नहीं पता? सारे अखबारों में खूब चर्चा था।’
‘अं हं! नहीं, नहीं।’ विक्रमार्क हाँ करने लगा था मगर साथ आए सभासद ने रोक दिया।
‘हाँ, कुछ, कुछ सुना है। चलो जी, अब....क्या...।’ उसने कहा।
‘जाने से पहले ये सुन जाओ, सुना है, वो शोहदा एक मन्त्री का लड़का है। अब कानून बनाने वाले के लड़के का क्या होना। दस साल हो गए हैं।’
‘नहीं कुछ होगा ही। कोर्ट ठीक न्याय करेगा।’ सभासद ने कहा।
‘खाक न्याय करेगा। कहते है, जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड। फिर कानून भी बिकता है। बड़ा वकील छोटे जज को कहाँ टिकने देता है।’
‘अरे! तुम अंग्रेजी जानते हो?’
‘भइया बी.ए. पास हैं, फस्र्टक्लास में । सिफारिश नहीं थी। नौकरी नहीं मिली तो ये काम कर दिया। यहाँ मैं आइ.ए.एस. से कम नहीं कमाता। बस ठिहआ जरा छोटा है। पर कार अपने पास भी ठीक है। तीन मंजिला मकान है मेरा।’
‘चलो जी, चलो।’ सभासद अधीर हुआ बोला।
‘क्यों बाबू? इतने उतावले क्यों हो? भीतर जाने की जुगत में हो तो, एक दो कमरों के सीन ही देख आओ। दुनिया का पता चल जायेगा?....पर एक बात बताओ, इतनी रात तुम लोग? पनवाड़ी ने सवाल किया।
‘रहने का आश्रय खोज रहे थे। कहीं....दूर से आए थे। एक रिश्तेदार से मिलने, वो मिला नहीं। तब। यहाँ तुम्हारे साथ....चलो कुछ वक्त कट गया।’
‘पान नहीं खाओगे?’
‘नहीं पान नहीं खाते।’
‘अरे? सादा पान। ठण्ड है कुलंजन डाल दूँगा। खाँसी भी नहीं लगेगी। गला ठीक रहता है।’
‘मंहगा होगा?’
‘तुम्हारे लिए नहीं। लगता है मेरे गाँव के से हो। इसलिए अपने मुल्क से आए बटोही और आश्रयहीन के लिए मुफ्त।...कमाने के लिए भगवान ने बहुत कुछ दिया है।’
‘नहीं। नहीं।’
‘अरे! नहीं काहे की? तुम मेरे जैसे ही हो। जब मैं इस शहर में आया था-ऐसे ही था। ये तो समय ने करवट ली। तब हुआ....।’
उन्होंने पान ले लिया। पाकेट से मुद्रा निकाली। पनवाड़ी के हाथ पर रखी और चल पड़े।’
हज़ार का नोट देख, पनवाड़ी हक्का-बक्का रह गया। वह बकाया के लिए कहने ही वाला था कि एक ग्राहक भीतर से आकर सामने खड़ा हो गया। उसके साथ तीन युवतियाँ भी थीं। उसने चार पान बनाने को कहा। पानवाड़ी पान बनाने लगा। मन ही मन सोचता, वे कौन लोग थे? कहीं कोई सी.आई.डी. या एनफोर्समेन्ट के लोग....वह सोचता गया। एक बार सोचा, कहीं कुछ गलत तो नहीं कहा होगा?
विक्रमार्क और सभासद आगे बढ़े। दोनों चुप। आगे मेन सड़क पर आए तो सभासद ने कहा-‘कैसी दुनिया है? कहाँ लोग मर रहे हैं और कहाँ ये अपने दम्भ में डूबे भ्रष्टाचार में संलिप्त हैं।’

‘हाँ! हमारी झूठी रिवाज़ें। हमें कुछ करना होगा। संस्कृति मन्त्रालय के तहत कानून बनाना होगा। ये सामाजिक बढ़ी-चढ़ी रिवाजे़ं, खत्म होनी चाहिए। आदमी की बलवती इच्छाओं पर लगाम लगानी चाहिए। संस्कार और हमारी संस्कृति की रक्षा....यदि ऐसा नहीं हुआ तो देश रसातल को चला जाएगा। कल मन्त्रिमण्डल की बैठक बुलाई जानी चाहिए। राय मश्विरा करना जरूरी है। समाज को शिक्षित किया जाना जरूरी है।’
 वे अभी आगे बढ़े और कल की केबिनेट के बारे में विचारने लगे ही थे कि यदि ऐसा ही चलता रहा और आम आदमी यूँ ही पीड़ित होता रहा तब शासन की छवि खराब हो जाएगी। विरोधी नहीं छोड़ेगे और राजगद्दी....कोई आक्रमण...प्रश्न चिन्ह उठते वे बतिया ही रहे थे कि एक मोड़ पर खम्बे के नीचे से आवाज़ आई-राजन! विक्रमार्क चैंका। ये तो बेताल की आवाज़ है। वह ठिठका। देखा वास्तव में ही बेताल था। पूछा-‘तुम?’
‘हाँ! जब तुम पनवाड़ी से बतिया रहे थे, मैं भी सुन रहा था। फिर मैं भीतर चला गया था।’
‘भीतर!’
‘हाँ! मुझे किसी के पास की जरूरत नहीं है। पर तुम भीतर क्यों नहीं आए? तुम्हारे और इस सभासद के पास तो....।’
‘इस लिबास में कैसे आते? मैं तो अगले रास्ते की ओर बढ़ रहा था कि नज़र इस ओर उठी। रात की दुनिया और आम आदमी की स्थिति और अपने शासन के बारे पता करना था। इसलिए नहीं गया।’
‘इस मन्त्री को तो यहाँ कई बार देखा है। कई युवतियों के साथ।’
‘यह भी?’ विक्रमार्क ने सभासद की ओर दृष्टि घुमाई। सभासद हैरान कि राजा साहब क्यों ठिठक गये हैं और बतिया किससे बतिया रहे हैं?
‘हाँ! इस हमाम में सब नंगे हैं। बस देखने की आँख नहीं है।’
‘तुमने क्या देखा भीतर?’ विक्रमार्क ने पूछा।
‘क्या नहीं देखा भीतर?’ क्लब के हाल में शराब में मस्त लोग, युवा। कमरों में सम्भ्रान्त लोगों का नग्न रूप। उनकी हरकतें....और भी बहुत कुछ। एक बूढ़े के सिर पर तो चपत भी मारी...उसे अहसास दिलाने कि अब नहीं। दूसरे कमरे में तुम्हारी एक रिश्तेदार भी है।
‘अरे! ऐसा।’






‘हाँ! यहाँ सब आते हैं।....ये मरी हुई नीयत के लोगों की दुनिया है। तुम कल कानून बनाने की सोच रहे हो? जनमानसिकता बदलने की बात कर रहे हो। पर ये कैसे सम्भव होगा? तुम विदेशों से कह रहे हो, यहाँ आओ? वे आएँगे। भौतिक रूप में ही नहीं। एक सांस्कृतिक, सामाजिक छाप लिए। जो वे बनाएँगे वह तो निर्यात हो जाएगा, साथ में यहाँ के पुराने संस्कार भी मगर जो वे यहाँ के संस्कारों में घोलेंगे या कहो छोड़ जायेंगे उसका क्या करोगे? यह सोचना भी आवश्यक है। अपनी खाल में रहना, विचारों, भावनाओं और नएपन की बलवती इच्छाओं को लगाम दोगे तो कुछ बात बनेगी वर्ना....’
विक्रमार्क चुप सोचता रहा। कुछ देर बाद बेताल बोला, ‘यद्यपि मैं गलत नहीं कहता फिर भी तुम सोचना कहीं....। चलता हूँ। फिर मिलेंगे।’
और बेताल चला गया। सभासद उसे किसी से बतियाते हतप्रभ देख रहा था।
०००
बद्री सिंह भाटिया की एक कहानी और नीचे लिंक पर पढ़िए

http://bizooka2009.blogspot.com/2018/09/blog-post_55.html

                                               
                                                               
 बद्री सिंह भाटिया
गांव ग्याणा, डाकखाना मांगू
तहसील अर्की, जिला सोलन हि.प्र. 171102
                                                                                   
 098051 99422
 ई मेल  bsbhatia1947@gmail.com
डॉ हूबनाथ पाण्डेय  के दोहे 

भाग - दो 


हूबनाथ
1..

नेता की संपति बढ़े,
परजा का संहार।
ऐसे राजा मारिए,
कस के जूते चार।।

2..
कबिरा धंधा धर्म का,
इन्कमटैक्स से छूट।
स्वर्ग मिलेगा मुफ़्त में,
लूट सके तो लूट।।


3...
नंगा नाचे झूम कर,
लंपट गाए फाग।
चोर बलैया लेत है,
राजा को बैराग।।


4..
धरमसभा की भीड़ में,
नाचा अधरम ख़ूब।
कबिरा नानक ज्ञानदे,
गए शरम से डूब।।


5...
'ध' न जाने धर्म का,
रंग बिरंगा स्वांग।
लंपट लोभी क्रूर बिच,
बंटी झूठ की भांग।।


6...
स्वारथ ने अंधा किया,
वासना बुद्धि मंद।
नफ़रत ने ताक़त दिया,
हिंसा ने आनंद।।


7...
कैसी पाटी पढ़ि भये,
पूत मात से दूर।
विद्या के आशीष हैं,
लोभी कामी क्रूर।।


8...
बेटा हमको माफ़ कर,
नदी खेत खलिहान।
जंगल पर्वत अन्न जल,
हमने किए मसान।।


9...
मां की ममता तब तलक,
जब तक आंचल दूध।
अपने पैरों हो खड़ा,
अपने तक महदूद।।


10...
किसको सीता चाहिए,
किसको चहिए राम।
नैनों में रावण बसा,
मनहिं बसाए काम।।



11...
नगरदीप में जल रहा,
जिस किसान का ख़ून।
उसे मयस्सर ही नहीं,
इक रोटी दो जून।।


12...
जिसके कपड़े साफ़ हों,
उसको सब कुछ माफ़।
मैला कुचला वस्त्र है,
धरती पर अभिशाप।।


13...
महामानव
मानव मिटता है मगर,
नष्ट न होते मूल्य।
मात पिता गुरु तात तू,
तू गौतम के तुल्य।।


14...
हम पशु से बदतर रहे,
हम थे नहीं मनुष्य।
तेरी ताक़त जब मिली,
हमने गढ़ा भविष्य।।


15...
जो जलता है रात भर,
वही जानता दर्द।
दुखिओं को अपनाय जो,
वह सच्चा हमदर्द।।





16...
अंधकार के गर्त में ,
लोग रहे थे डूब।
सूरज बनकर जो उगा,
वो मेरा महबूब।।



17...
करुणा प्रज्ञा शील शांति,
समता औ इन्साफ़।
वंचित रहते हम सभी,
जो नहि आते आप।।


18...
लोहे जैसा तन दिया,
तो दे दुख की आग।
कंचन कर वापस करूं,
ऐसे मेरे भाग।।


19...
सुख सुविधा संपति नहीं,
नहीं चैन आराम।
यह तन जारौं मसि करौं
लिखूं तिहारो नाम।।



20...
उसकी सड़क पे चांदनी,
इसके घर अंधार।
बलिहारी तेरी बुद्धि को,
भली बनी सरकार।।



21...
कब तक देता जायगा,
बस कर मेरे नाथ।
कुछ तो मुझ पर छोड़ तू,
मेरे भी दो हाथ।।


22....
अनुपम दोहे

जल का अर्थ बता गया,
कल का दिया सनेस।
अनुपम उसकी बात थी,
अनुपम उसका भेस।।



23...

धरती से लेते हुए,
जी उसका सकुचाय।
देखी सूखी बावड़ी,
पहले मन मुरझाय।।


24...
मरती नदिया देख कर,
वह मरता सौ बार।
हम सब बहरे स्वार्थ में,
खाली गई पुकार।।


25...
मरघट में दीपक लिए,
वह निश्छल मुस्कान।
पर्वत पानी पेड़ संग,
बचा रहे इन्सान।।



26...
जितनी सच्ची सादगी,
उतना प्यारा काम।
अपनी धुन में रम रहा,
वह अनुपम अविराम।।




ठीक दो साल पहले आज ही के दिन पर्यावरण संरक्षण की ज़िम्मेदारी हम सब पर सौंप कर चले गए श्री अनुपम मिश्र की स्मृति में सादर!


27...
क्रुद्ध दोहे


तुझसे कैसा मांगना,
तुझसे कैसी होड़।
कितना दुख बरसाएगा,
मेरी चिंता छोड़।।


28...
तेरी चौखट पे भला,
रगड़ूं अपनी नाक।
कैसा सिरजनहार तू,
अपनी कींमत आंक।।



29...
दुर्बल को ही सतायगा,
यह तेरा इन्साफ़।
रिश्वत खाकर पाप को,
तू करता है माफ़।।


30...
तुझको चमचे चाहिए,
झूठे और दलाल।
तेरे दर कैसे गले,
कमज़ोरों की दाल।।


31...
तेरे महल के वास्ते,
आदम चकनाचूर।
दरिदनरायन से बना,
कैसे इतना क्रूर।।


32..
बस कर अपने चोंचले,
आगे बढ़ा दुकान।
कब तक छीनेगा बता,
बच्चों की मुस्कान।।


33...
मैं तो घुटने टेक दूं,
तू रख अपनी टेक।
जिसे अपाहिज कर रखा,
उससे तो रह नेक।।


34...
कल जो भूखा मर गया,
उसका बाप किसान।
तेरे ही सिर जाएगी,
बेकसूर की जान।।

35...

तू जग से नाराज़ है,
मैं तुझसे नाराज़।
मेरी ज़िद तेरी सनक,
उल्फ़त का आगाज़।।


36...
मेरी धरती एक है,
तेरे लाख करोड़।
बस इतना अहसान कर,
हमको हम पर छोड़।।


37...
दाता तेरे द्वार पर,
भूखा पड़ा किसान।
जो तुझको भी पालता
कर उसपर अहसान।।


38...
कबीर आंवा इश्क़ का,
तन मिट्टी का भांड।
बिरहा की ज्वाला जगी,
भस्म हुआ ब्रह्मांड।।


39...
माना मां कमज़ोर है,
तुम तो भोलेनाथ।
इतनी पीड़ा यातना,
कब तुम दोगे साथ।।


40..
देह दिया औ दर्द भी,
हिम्मत देगा कौन।
जमे हुए कैलाश में,
कब छोड़ोगे मौन।।



41...
कितनी आहों बाद तुम,
सुध लोगे बिसनाथ।
विषधर डंसता रात दिन,
दर्द न छोड़े हाथ।।



42..
मां की ममता से भला,
कैसे हो पहचान।
तुम स्वयंभू पैदा हुए,
पीड़ा से अनजान।।


43...
देह दिया तो दर्द भी,
पीड़ा दिया अछोर।
सुख घूरे पर फेंक कर,
दुखवा दिया पछोर।।







44...
सूरज चांद निहारिका,
धरती औ आकाश।
इश्क़ नचाए रात दिन,
इश्क़ रचाए रास।।


45..
मौला तेरे इश्क़ में,
कितने हुए फ़कीर।
मीरां,ललदे,जायसी,
नानक ,सूर ,कबीर।।


46...
सोया चाक जगायके,
देह जिलाऊं आग।
कबिरा नांव कुम्हार तब,
जागे माटी भाग।।


47...
तू कुम्हार मैं चाक हूँ,
मैं माटी तू आग।
मेरे बिन तू कुछ नहीं,
मैं तेरा सौभाग।।


48...
जो डूबा वो तिर गया,
जो भूला सो याद।
जो दिखता वो रब नहीं,
व्यर्थ करे फ़रियाद।।


49...
मंदिर मस्जिद तोरि कै,
पोथिन आग लगाय।
स्वर्ग नरक का नास हो,
तब हो खुसी खुदाय।।


50...
तन पर तेरा हुक्म है,
मन पे मेरा ज़ोर।
अपना सूरज रोक ले,
होगी मुझसे भोर।।



51..
पागल,प्रेमी और कवि
नाम तीन पर एक।
तन मन सबकुछ वार कर,
एक उसी की टेक।।


52..
उसकी मीठी याद सी,
ये जाड़े की धूप।
बांस कइन पर कांपती,
पीत सिंदूरी रूप।।
००


डॉ हूबनाथ पाण्डेय के कुछ दोहे नीचे लिंक पर और पढ़िए

https://bizooka2009.blogspot.com/2019/01/1_24.html?m=1
कौन थी विश्वयुद्ध में जासूसी करने वाली भारतीय शहज़ादी नूर 
———————————-———————————
  जसबीर चावला 

ब्रिटिश प्रधानमंत्री श्री डेविड कैमरन ने अपने एक वक्तव्य में नूर के स्मारक के बारे में कहा था कि -"बहादुर नूर इनायत खान का यह स्मारक उस युवा मुस्लिम महिला के प्रेरक आत्म बलिदान को सच्ची श्रद्धांजलि है,जिसनें ब्रिटिश रेंक में शामिल होकर नस्लवाद और उत्पीड़न के विरुद्ध विश्वव्यापी लड़ाई लड़ी थी।"




जसबीर चावला



कौन थी नूर ? यह गाथा भारतीय मूल की एक ऐसी खूबसूरत लड़की कि है,जिसका परिवार भारत की आजादी के बहुत पहले से ब्रिटेन में निवासरत होनें के कारण वह वहाँ का नागरिक था।लड़की का मन बच्चों सा निश्छल,करुणामय,और मानवतावादी है।वह बुद्ध और गाँधीजी के नान वायलेंस मिशन से प्रभावित है।कई भाषाओं की जानकार है।वीणा और पियानों दोनों बजा लेती है।कलात्मक रुचियों की धनी,अपनें सूफी गुरु पिता के विचारों की है।लड़की का पूरा नाम है नूर-उन-निसा इनायत खान।

द्वितीय विश्व युद्ध में नाजियों द्वारा फ्रांस पर आक्रमण के बाद इस लड़की नूर को परिस्थितियों के दबाव नें ब्रिटेन की तरफ से लडाई में नई भूमिका में उतार दिया।युद्ध और कलात्मकता की दोहरी मानसिकता के कारण नूर कई बार कठोर निर्णयों के दौरान गहरे असमंजस में पड़ जाती है।

नूर का जन्म एक जनवरी 1914 में मास्को में हुआ।पिता इनायत खान भारतीय मूल के अभिजात्य,उदारवादी मुस्लिम थे और इंग्लेंड में रहते थे।पिता इनायत खान की माँ मैसूर के शासक रहे टीपू सुल्तान की वंशज थी इसलिये एक लेखिका ने नूर को प्रिंसेस (शहज़ादी) लिखा।इनायत खान सूफी संप्रदाय के आध्यात्मिक गुरु थे और युरोप,अमेरिका में सहिष्णुता और भाईचारे का संदेश फैलाते थे।वे अमरीकी मूल की महिला रे बेकर से विवाहित थे जो बाद में अमीना बेगम कहलाई।1921 में वे लंदन से पेरिस में आ गयेउनकी आध्यात्मिक सूफी मान्यताओं का नूर पर आजीवन गहरा प्रभाव रहा।1927 में भारत की यात्रा के दौरान हजरत इनायत खान की मृत्यु हो गई।महज तेरह वर्ष की उम्र में नूर अपनी माँ,भाइयों विलायत,हिदायत और बहन खैर-उन-निसा की देखभाल करते हुए घर की मुखिया बन गईं।










नूर प्रतिभाशाली थी।उसने लंदन में अध्ययन शुरू किया।रेडियो पेरिस और 'ले फिगरो' के लिए कहानियां लिखीं।बुद्ध की जातक कथाओं पर आधारित बच्चों के लिये कहानियाँ लिखी।बाल मनोविज्ञान अध्ययन के लिये एक पाठ्यक्रम में दाखिला लिया।

जर्मनी के फ्रांस पर आक्रमण करनें के बाद 26 साल की नूर ने इंग्लेंड में 1940 में वायु सेना में वायरलेस ऑपरेटर के रूप में भर्ती होकर उन्नत वायरलेस कोर्स और गुप्तचरी का प्रशिक्षण लिया।धाराप्रवाह फ्रेंच बोल सकनें के कारण उसे 'एसओई' (स्पेशल आपरेशन एग्जिक्युटिव) के 'एफ' सेक्शन' (फ्रेंच सेक्शन) के चेलेंजिग जाब में ले लिया गया।

फरवरी 1943 में उसके तीन सप्ताह के पाठ्यक्रम में सशस्त्र,निहत्थे मुकाबला करना,वायरलेस और क्रॉस-कंट्री नेवीगेशन का गहन प्रशिक्षण लिया.पहिचान छुपानें के लिये उसनें नर्स की ड्रेस पहनी।वह दूसरों की अपेक्षा अधिक शारीरिक व्यायाम करती थी लेकिन दोहरी मानसिकता के कारण हथियारों से डरती भी थी।।उसके प्रशिक्षक ने उसके स्वभाव के बारे में प्रशंसा करके हुए कहा कि उसमें गहरी नैतिक प्रतिबद्धता है,लेकिन एसओई के सैनिकों को क्रूर निर्णय भी लेनें होते हैं।वहाँ मानवता,आदर्शवाद नहीं चलता।लेकिन एफ सेक्शन में दक्ष वायरलेस ऑपरेटरों की तुरंत आवश्यकता होनें से नूर चुनी गई।

नूर को कोड नाम 'मेडेलीन' देकर फ्रांस के एक गुप्त लैंडिंग क्षेत्र के के लिये 'आरएएफ' के विमान से वायरलेस ऑपरेटर के रूप में भेजा गया।अब उसकी झूठी पहचान एक आया की थी।उसे फ़्रेंच राशन कार्ड और परमिट बनवा कर 'एल' गोलियाँ भी दी कि पकड़ी जाने पर निगल कर जान दे दे। तीन अन्य साथी डायना राउडन,सेसिली,लेफोर्ट,भी अलग जहाज से फ्रांस गई।वहाँ उनका इंतजार कर रहा ब्रिटिश गुप्तचर सेवा का हेनरी डेरीकोर्ट भी था,जो जर्मनी के लिये भी काम करने वाला डबल एजेंट था।उसके द्वारा गेस्टापो को पता था कि ये उड़ानें कहाँ उतरेंगी।इन पर निगाह रखनें के लिये गेस्टापो ने अपनें जासूस नियुक्त कर दिये।नूर फ्रांस में गुप्तचर प्रमुख फार्सिस सुट्टिल,एमिल गैरी,गिल्बर्ट नॉर्मन और एंटेलम से मिली।गिल्बर्ट नॉर्मन उसे अपने रेडियो ठिकाने पर ले गया,जहां से नूर ने कुछ महीनों में बीस महत्वपूर्ण जानकारियाँ भेजी।

गुप्तचरी ठीक चल रही थी कि अचानक आफत आ गई ।घटनाओं की एक दुर्भाग्यपूर्ण श्रृंखला में सुट्टिल,नॉर्मन और सैकड़ो जासूस परिवारों सहित पकड़े गये।सुट्टिल का नेट वर्क ध्वस्त हो गया।गिरफ्तारी से बचने के लिये नूर,गैरी और गुप्तचरों ने नए सुरक्षित ठिकाने ढूँढे।वायरलेस आपरेटर सुरक्षित जगहों पर चले गये पर नूर ने लंदन जानें के बजाय नेटवर्क फिर से खड़ा करनें के लिये वहीं रुकना बेहतर समझा।इतनी गिरफ़्तारियों के बाद स्थिति भ्रामक हो रही थी।नॉर्मन की गिरफ्तारी के बाद जर्मनों ने उसके कोड और वायरलेस सेट से इंग्लेंड झूठे संदेश भेजे।इंग्लेंड से पेरिस में स्थिति का आकलन करनें भेजे गये अधिकारी का वायरलेस ऑपरेटर भी गेस्टापो ने पकड़ लिया और उससे वे,नॉर्मन के सेट से गलत सूचनाएँ भिजवानें लगे।नूर का काम और भी महत्वपूर्ण हो गया।भारी वायरलेस सेट को सूटकेस में भरकर वह पेरिस की सड़कों पर वाहन से स्थान बदल बदल कर गोपनीय सूचनाएँ भेजती रही।






अगस्त में ग़द्दार हेनरी डेरीकोर्ट ने नूर के वायरलेस कोड से कुछ गुप्तचरों को लंदन वापस उड़ान से भेजनें की बात की।उसनें नूर के गोपनीय दस्तावेज,पत्र,सूचनाएँ,और फ़ोटोग्राफ गेस्टापो के पास पहुँचा दिये।गेस्टापो अब नज़दीक था।नूर को सुरक्षित ठिकाने छोड़कर पुराने दोस्तों के घरों में शरण का जोखिम उठाना पड़ा।काले चश्मे पहनें,बालों को डाई करके रंग बदल कर इधर उधर छुपते रहना रोज का काम था।इस भागदौड़ ने उसे शारीरिक और मनोवैज्ञानिक रूप से बहुत तोड़ा।अक्टूबर के मध्य में इंग्लेंड द्वारा उसके लंदन वापस लौटने के लिये उड़ान की व्यवस्था की गई पर नूर वह उड़ान कभी नहीं पकड़ पाई।चार महीनों तक जर्मनों के हाथों से बचनें के बाद नूर का दुर्भाग्य शुरु हो गया जब गेरी की फ्रांसिसी बहन रेमी ने भी ग़द्दारी कर उसकी गुप्त जानकारी जर्मन जासूसों को एक लाख फ्रेंक में बेच दी।
उसे पेरिस में जर्मनों के मुख्यालय लाया गया।नूर ने वहाँ चालाकी से स्नान के बहाने बाथरूम का दरवाजा बंद कर रोशनदान से निकल कर भागनें का प्रयास किया।वह पकड़ी गई।दुबारा उसने एमआई 6 के (ब्रिटिश सेना का गुप्तचर विभाग) के अधिकारी स्टार और लोन फेय के साथ पाँचवे माले से भागनें का प्रयास किया।कँबल और चादरें जोड़कर रस्सियाँ बनाई गई लेकिन नूर बाथरूम की राड हटा नहीं पाई।सबेरे के तीन बजे आरएएफ़ के विमानों ने वहाँ हवाई हमला कर दिया।अफ़रा तफ़री मच गई।जर्मन चौकन्ने हो गये।बंदियों की सेल की तलाशी में बनाई रस्सियाँ मिल गई।सारा प्लान फेल हो गया।
नूर से जर्मनों ने सूचनाएँ उगलवानें के लिये जबरदस्त मशक़्क़त की।इस पूछताछ से नूर ने अपनें प्रशिक्षण काल के सारे आलोचकों को गलत साबित कर दिया,जिन्हे उसकी क्षमता में विश्वास नहीं था।जर्मन कोई भी सटीक गुप्त सूचना नहीं उगलवा सके।

दूसरी बार भागने के प्रयास से जर्मन किफर गुस्से में था।उसनें उन सबको वहीं गोली मारने की धमकी दी और फिर न भागनें का आश्वासन चाहा।स्टार ने हाँ कर दी पर फेय और नूर ने साफ इंकार किया।उसनें नूर और तीन अन्य महिला एसओई एजेंटों को म्यूनिख के लिए ट्रेन में सवार कर दिया।सबको बदनाम 'फ़ौर्ज़ाइम' जेल में रखा गया।जेलर को गेस्टापो नें आदेश दिया कि नूर को सबसे अलग थलग एकांत कोठरी में हाथ-पैरों में ज़ंजीरे बाँध कर रखे और खाना कम दें।नूर पर भयंकर अत्याचार किये गये।वह शारीरिक रूप से टूट गई लेकिन हारी नहीं।कल्पना की जा सकती है कि दुश्मन देश की एक जवान लड़की पर जर्मनों नें कौनसा अत्याचार नहीं किया होगा। मरणासन्न नूर के अंतिम स्पष्ट शब्द थे "लिबरेट" (आजादी )।12 सेप्टेम्बर को उसे 'दचाऊ केंप' में लाया गया और 13 सेप्टेम्बर 1944 को तीन अन्य एसओई महिलाओं के साथ उसे मौत की सजा सुनाई गई।किसी पादरी को भी प्रार्थना के लिये नहीं बुलाया गया।अधिकारी फ्रेडरिक विल्हेम रूपर्ट ने उसे पिस्तोल से गोली मारी।मारनें के बाद उसनें जवानों से कहा कि इनके शरीर कार्यालय में लायें ताकि वे इनके कोई ज़ेवर हो तो ले सकें।नूर को गोली मारने वाले इस हत्यारे रूपर्ट को युद्ध के बाद मई 1946 में फांसी दी गई।





                        (जर्मनी का बदनाम दचाऊ केंप जहाँ नूर को रखा गया)
नूर पर कई पुस्तके और संसार भर में लेख लिखे गये.नूर पर सबसे ताजी पुस्तक 2006 में प्रकाशित शबानी बासु की 'प्रिंसेस स्पाय' (जासूस राजकुमारी) है।अक्टूबर 1946 में फ्रांस द्वारा नूर की सेवाओं के लिये उसे 'क्रिक्स डी गुएरे' सम्मान दिया।ब्रिटेन नें 'जॉर्ज क्रॉस' से सम्मानित किया।नूर की स्मृति,सम्मान में इंग्लेंड की सरकार नें डाक टिकट जारी किया।जर्मनी के दचाऊ केंप में एक स्मारक पट्टिका,इंग्लेंड में 'दि एयर फोर्सेस मेमोरियल युद्ध स्मारक' और फ्रांस के वैलेनके में 'एफ सेक्शन' की स्मृति में बने स्मारक पर उसका नाम श्रद्धा से अंकित है।नूर का एक स्मारक इंगलेंड में उसके घर के बाहर गॉर्डन स्क्वायर, ब्लूम्सबरी में "नूर इनायत खान मेमोरियल ट्रस्ट" द्वारा बनाया गया है।इस स्मारक का अनावरण नवंम्बर 12 में हुआ।इस स्मारक पर नूर को श्रद्धा सुमन अर्पित करनें भारत रत्न प्रणव मुखर्जी,फिल्म निर्देशिका गुरूविंदर चड्ढा,लेखिका अँरुधती राय भी आ चुके हैं।
इन दिनों 2018 में इंग्लेंड में 2020 में छपने वाले 50 पाउंड के नोट पर नूर सहित तीनों एसओई महिलाओं का फोटो प्रिंट किया जाये इसके लिये इंग्लेंड में एक अभियान चल रहा है।
2012 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री श्री डेविड कैमरन ने अपने एक वक्तव्य में कहा था कि -"बहादुर नूर इनायत खान को कठोर कारावास में डालकर पूछताछ के बहाने जैसा उत्पीड़न हुआ,उसकी गहराई में जाना संभव नही है।उसकी क्रूर मृत्यु उसके अदम्य साहस को दिखलाती है।नागरिक क्षेत्र का सर्वोच्च सम्मान 'जार्ज क्रास' उसकी वीरता को मान्यता देता है।
०००
जसबीर चावला जी का एक लेख और नीचे लिंक पर पढ़िए

24 फ़रवरी, 2019

परख उनचालीस

मुट्ठी भर लोग!

गणेश गनी

मुट्ठी भर  लोग ही बदलाव लाते हैं, मुट्ठी भर लोग ही इतिहास रचते हैं, मुट्ठी भर लोग अपनी तकदीर नहीं बल्कि औरों की तकदीर का खुलासा करने में सक्षम होते हैं। मुट्ठी भींचकर देखना ज़रूरी है गुस्से में कभी कभी, तो मालूम पड़ता है कि मुट्ठी की ताकत हवा को भी जकड़ सकती है। कवि सतीश धर कुछ समझाने की कोशिश कर रहे हैं, पर ये मुट्ठी भर लोग भला समझते कहाँ हैं-

तुमसे  किसने कह दिया
 मुट्ठी भर लोगों की
 तकदीर का खुलासा
हाथ की लकीरें करती है।

समझते ही नहीं ये
खुद से गुस्साये
मुट्ठी भर  लोग ।



सतीश धर



व्यवस्था कभी भी आम आदमी को सुख नहीं दे पायी, बल्कि यह उस वक्त और भी खतरनाक हो जाती है जब वादे करके भूल जाती है। ईरान का एक बादशाह सर्दियों की शाम जब अपने महल में दाखिल हो रहा था तो एक बूढ़े दरबान को देखा जो महल के सदर दरवाज़े पर पुरानी और बारीक वर्दी में पहरा दे रहा था।
बादशाह ने उसके करीब अपनी सवारी को रुकवाया और उस ज़ईफ़ दरबान से पूछने लगा ;
"सर्दी नहीं लग रही ?"
दरबान ने जवाब दिया "बहोत लग रही है हुज़ूर ! मगर क्या करूँ, गर्म वर्दी है नहीं मेरे पास, इसलिए बर्दाश्त करना पड़ता है।"
"मैं अभी महल के अन्दर जाकर अपना ही कोई गर्म जोड़ा भेजता हूँ तुम्हें।"
दरबान ने खुश होकर बादशाह को फर्शी सलाम किया और आजिज़ी का इज़हार किया।
लेकिन बादशाह जैसे ही महल में दाखिल हुआ, दरबान के साथ किया हुआ वादा भूल गया।
सुबह दरवाज़े पर उस बूढ़े दरबान की अकड़ी हुई लाश मिली और करीब ही मिट्टी पर उसकी उंगलियों से लिखी गई ये तहरीर भी ;
"बादशाह सलामत ! मैं कई सालों से सर्दियों में इसी नाज़ुक वर्दी में दरबानी कर रहा था, मगर कल रात आप के गर्म लिबास के वादे ने मेरी जान निकाल दी-

ऐसा पहले भी कई बार हुआ
जब भी गहन अंधेरा पसरा है
चारों ओर
 उम्मीदों से लबरेज़
मुट्ठी भर  ये लोग करते रहे
 चांद-तारों की बात
और
ख़ुफ़िया दरवाज़े के   पहरेदार
तलाशते रहे   ठिकाना ।
उनकी सोच दबी रही  पहरेदारों की गुमटी में
और  हम खिलखिलाते रहे
सुल्तान के तोहफों पर ।

तुम ने  कैसे मान लिया
गिनती में हम कम हैं

मुट्ठी भर लोग ही  काफ़ी होते हैं
इतिहास बदलने के लिए ।

रिश्ते तो हमेशा भरोसे पर टिके रहते हैं। बाइबल में लिखा है, हम विश्वास के आधार पर चलते हैं, दृष्टि के नहीं। दरअसल विश्वास भी तो वादे पर टिका है, तो ज़ाहिर है वादा जान भी ले सकता है। कवि ने आग और बर्फ़ के बीच का नाज़ुक रिश्ता समझ लिया है, तो अब लगता है कि सम्बन्धों की गरमाहट देर तक बनी रह सकती है-

बर्फ़ के देश गए
उस शब्दों के जादूगर ने
आज ही समझाया नासमझ मौसम को
आग और बर्फ़ में
बहुत ही नाज़ुक रिश्ता होता है
आग से तपता अलाव
बर्फ़ से खिलती आग ।

सतीश धर यह भी जानते हैं कि सम्बन्धों की नाज़ुक रेशमी डोर टूटने का ख़तरा हमेशा बना रहता है। कवि कहता है-

धरती पर हंसी की ख्वाहिश में
ख्यालों में मुस्कुराते हैं पेड़
उन्हें क्या मालूम
कमज़ोर पत्तों के लिए
कितना खतरनाक होता है
हवा का एक झोंका ।

सतीश धर बारिश के मौसम में एक दिन महसूस करते हैं कि रोज़ कमा कर खाने वाला हाशिए से बाहर का आदमी आज भला क्या खाएगा। जबकि कवि इस मौसम में प्रेम गीत भी तो लिख सकता है। आज बारिश है और दरवाजे की चौखट पर उम्मीद बैठी है-

आज बारिश है
लबालब भरी हैं सड़कें
कंपकपाती ठंड ने  तोड़ दिए हैं
सारे भरम
जानती है साईकिल
उसके गीले जूतों में नहीं होती पालिश
न ही चमकती है क़िस्मत ऐसे मौसम में।

खाली पेट कैसे चलेगा
साईकिल का पहिया
दरवाज़े की  चौखट पर बैठी है
उम्मीद..
आज बारिश है
आज वह नहीँ आएगा ।

सतीश धर प्यासी नदी की बात करते हैं तो यह भी जताना नहीं भूलते कि एक सागर भी है लबालब भरा हुआ, जो आंखों में छुपाए रखा है। कवि की छोटी छोटी कविताएँ बहुत असरदार हैं-

आँख खुली तो देखा..
एक बूंद पानी को
तरस रही थी नदी
और मैं
आँखों में छिपाये
प्यार का अथाह साग़र
भटकता रहा
ख्यालों के वीरान जंगल में ।

सतीश धर की एक कविता हक़ की लड़ाई पर जम गई बर्फ़! कमाल की है। कवि ने संकेतों में बड़ी शानदार बात कही है-

जंगल में कभी हक़ की लड़ाई नहीं होती।
जंगल के राजा से डरती है प्रजा
जंगलराज में कोई जलसा-जुलूस नहीं
कोई नारा-धरना नहीं
बस  राजा से नज़र बचा कर
जीने की कशमकश।

ऐसा ही होता है
जब हक़ की लड़ाई
लड़ता थक जाता है  आदमी
और जंगल की प्रजा
उतर आती है बस्तियों में
समझाने
सर्द मौसम में हक़ की लड़ाई मुश्किल होती है इसलिए
दुबके रहने में भलाई है
जंगल का राजा
फ़रियाद के बहाने
कर रहा तलाश एक शिकार ।

आईना कविता में सम्वेदना के ताने बाने पर बात साफ़गोई से की गई है। कवि अपने शब्द न ज़ाया करता है और न ही बचाता है। वह शब्दों से खेलता है-

बहुत पुराने दुश्मन
जब दोस्ती की तलाश में
एक दूसरे के करीब आना चाहते हैं
आईना उनकी तक़दीर का खुलासा करता है ।

आईने की दरियादिली याद आती है खूब
जब चेहरे के निशां दिखा कर
सुनाता है किस्से एक लंबी यात्रा के ।

संवेदनहीनता हमारे अंदर कब अपना घर बसा ले पता ही नहीं चलता। सुबह भुंतर हवाई अड्डे के ऊपर से एक छोटा जहाज उड़ान भर रहा था तो नीचे हवाई अड्डे के पास सड़क पर एक आदमी एक काले रंग के कुत्ते को अपनी गाड़ी के नीचे घसीटते हए तेज़ रफ़्तार से निकल गया, यह बेज़ुबान मृत्यु को चकमा तो दे गया पर इसके रोने की तेज़ आवाज़ गाड़ी वाले के कानों तक नहीं पहुंची। कुछ समय बाद रोपा गांव में पहुंचा तो देखा एक आदमी एक भूरे रंग के कुत्ते को पिछली टांग से बांधे पुल पर से होते हुए खींचकर ले जा रहा है। अभी कुछ सोच पाता कि उसने रस्सी को झटका दिया और नीचे नदी किनारे फैंक दिया। वापिस लौटते हुए उसे मैंने पूछा, ठेकेदार जी यह क्या था?
गुरुजी कुत्ता पागल हो गया था।
अच्छा, कैसे पता चला?
ओ गुरुजी, मुझे खाया (काटा)।
ओह! तो इसलिये कुत्ते को गोली मार दी?
नहीं, डण्डे से मारा।
ओह! काटा किधर?
यहाँ टांग में।
ओह! दिखाओ, खून बह रहा होगा।
नहीं गुरुजी, बच गया, दांत नहीं चुभे।
यह सब सुनकर मुझे जैसे सदमा लगा। मुझे लगा कि वास्तव में यह आदमी पागल हुआ है। आगे जाकर सड़क से नीचे देखा तो सबसे अधिक वफादार कहे जाने वाला निरीह प्राणी बेसुध पड़ा था पत्थरों में। मेरे साथ खड़े अध्यापक जगदीश ने कहा, देखो यह थोड़ा थोड़ा हिल रहा है, अभी भी जिंदा ही है। दिन में केशव से बात हुई तो उन्होंने भी यही कहा कि यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है। अधिकतर लोग हिंसक हैं।
शाम को वापसी पर मन नहीं माना तो फिर सड़क से नीचे नज़र गई तो देखा कि उसका पेट थोड़ा थोड़ा अब भी हिल रहा है। पर वह लगभग मृत जैसा ही था। बचा पाना असम्भव था। दूर से देखा तो अपने स्कूल के बच्चों को उधर रुके देखा। दो बच्चे नीचे उतरकर पास से देखकर ऊपर लौट आए। उन्हें भी निराशा हाथ लगी। एक तसल्ली हुई कि बच्चों में सम्वेदनशीलता अभी ज़िन्दा है।आज का दिन बेचैनी भरा रहा है। रात भर सो नहीं पाऊंगा।
एक कवि कुछ यूं सोचता है-

इस पृथ्वी के तमाम जीवों पर
खोजबीन जारी है

उनके सोने- जागने
 जीने-मरने
औऱ
हंसने-रोने पर
सोचता है एक कवि ।

मैं सोचता हूँ कि क्या सच में संवेदनशील होना हिम्मत का काम है-

अपनी हंसी छोड़कर
अपने दुःखों को समेट
दूसरों के दुःख में शामिल होना
उसे महसूस करना
हिम्मत का काम है।

हिम्मत से शब्द जुटा कर
लिखी जाती है जैसे कविता
उसी साहस से ही भोगा जाता है
दूसरों का दुख ।

कवि ने इस कठिन समय में भी आस नहीं छोड़ी है। छोड़े भी क्यों? आस पर संसार टिका है। बच्चों पर कवि को विश्वास है, उनकी भाषा पर उम्मीद है-

बहुत कुछ है इस बालकनी में
मेरे
तुम्हारे और
उसके लिए l
मेरे लिए
फूलों से भरे गमले
तुम्हारे लिए
चाय की चुस्कियों पर
घर संसार की चर्चा
और
उसके लिए
चिड़िया के अब बालकनी में ना आने की परेशानी l
मत उदास हो
मेरे बच्चे!
वो जो आकाश में उड़ रही है
चिड़िया
ज़रूर आयेगी तुम्हारे पास
ख़ुशी के नए तराने सुनाने
बस तुम उठो
उसे बुला कर कहो:
चिड़िया आ
चिड़िया आ
दाना खा
दाना खा ।

सतीश धर की कविताओं में अलग अलग रंग हैं, विश्वास, सरोकार, सम्बन्ध, प्रेम, उम्मीद, सपने, सुख, दुःख आदि आदि-

एक दिन मैंने उससे पूछा:
प्रेम क्या होता है।?
वह पहले हंसी
फिर आंखें भर आईं
बोली:
करके देखो।

एक दिन मैंने उससे पूछा:
नफरत क्या होती है?
उसकी आँखें भर आईं
औऱ हंस कर बोली;
अपने दिल से पूछो ।।
०००

गणेश गनी



परख अड़तीस नीचे लिंक पर पढ़िए

हमें दंगों पर कविता लिखनी है
गणेश गनी


https://bizooka2009.blogspot.com/2019/02/blog-post_17.html?m=1




निर्बंध: सत्रह


सुरक्षाकर्मियों से ज्यादा जान गँवाते हैं गैंगमैन

यादवेन्द्र
                                                                                                                                  

यादवेन्द्र
      

6 नवंबर 2018  के अख़बारों में एक छोटी सी खबर छपी थी कि कुछ  गैंगमैन दोपहर में हरदोई के पास संडीला और उमरताली के बीच रेलवे ट्रैक पर काम कर रहे थे। सुरक्षा की दृष्टि  से और आती जाती गाड़ियों के ड्राइवरों को वे दूर से दिख जाये  इसलिए कुछ दूरी पर उन्होंने लाल रंग का कपड़ा  बांध रखा था। तभी वहाँ  अचानक कोलकाता से अमृतसर जा रही अकालतख्त एक्सप्रेस आ गई और आनन् फानन में  सभी गैंगमैनों को रौंदते हुए तेज रफ्तार से आगे निकल गई। 

मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी निभा रहे इन कामगारों को  न तो ट्रेन आने की कोई सूचना दी गई न ही संकेत।  हादसे में तीन गैंगमैनों  की कटी लाशें तो तत्काल बरामद कर ली गई जबकि एक की लाश के टुकड़े  दूर दूर तक बिखर गए। 








2009 के जनवरी महीने में हरियाणा के पलवल के पास एक साथ छह और गाज़ियाबाद के पास चार  गैंगमैन  ड्यूटी देते हुए तेज रफ़्तार गाड़ियों से कट कर मर गए थे। कुछ समय पहले  बंगलुरु के बाहरी इलाके में डबल रेलवे लाइन पर काम करते हुए दो गैंगमैन भी इसी तरह मारे गए थे -- इनमें से एक को तो तैंतीस साल का कार्यानुभव था। आमने सामने से आती दो गाड़ियों को देख कर दोनों लाइनों के बीच की सँकरी सी जगह में उनका सुरक्षित बचना संभव नहीं था सो वे दोनों विपरीत दिशाओं में भागे -- पर उनका अनुमान गलत निकला और दोनों उलटी दिशाओं से आती गाड़ियों के नीचे आकर उनकी असमय मौत हो गयी। राजस्थान में  बाँदीकुईं रेलवे स्टेशन के पास दिल्ली आगरा इंटरसिटी एक्सप्रेस से कुचल कर दो गैंग मैन काम करते हुए अपनी जान गँवा बैठे। ऐसे हादसों के बारे में पढ़ते पढ़ते  हम अभ्यस्त हो चुके हैं और रेलवे भी बेहद कुशल श्रमिकों की जान बचाने के स्थायी समाधान के बारे में सोचने के बदले कुछ मुआवजे देकर अपने  मुक्त हो जाता है। 

अनुमान है कि भारतीय रेल में लगभग सवा दो लाख  ( इनमें लगभग दस हजार महिलाएँ भी शामिल हैं जो मुख्यतः मृत रेलकर्मियों की आश्रित थीं )  गैंगमैन नियुक्त हैं और इनकी निगरानी और मुस्तैद ड्यूटी की बदौलत भारत की रेल प्रणाली संचालित होती है। जहाँ तक महिला गैंगमैनों के काम का सवाल है ज्यादातर मामलों में इन्हें रात की और बेहद श्रमसाध्य ड्यूटी से अलग ही रखा जाता है पर पिछले साल अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस ( 8 मार्च 2018 ) को गौहाटी के नॉर्थईस्ट फ्रंटियर रेलवे ने बीस महिला गैंगमैनों की एक टोली बनाने की घोषणा की - इसकी सदस्य महिलायें पहले पुरुष प्रधान गैंगों में काम कर चुकी हैं पर अब सर्व महिला दल की सदस्य होंगी।कुछ माह पहले आंध्र प्रदेश/ तेलंगाना में तीन महिला गैंगमैन तेज तफ्तार गाडी से कुचल कर मर गयी थीं। इस साल से रेलवे गैंगमैन जैसी कठिन ड्यूटी के लिए महिलाओं की नियुक्ति पर प्रतिबंध लगाने की कवायद कर रहा है।   ये चौबीसों घंटे घूम घूम कर पैंसठ हजार किलोमीटर से ज्यादा रेल लाइनों की हालत देखते रहते हैं और यदि कोई कमी हुई तो तत्काल इसका निदान करते हैं -- उनके वश में यह न हुआ तो  ऊपर के अधिकारियों को रिपोर्ट करते हैं।पर उनकी ड्यूटी के हर पल मौत पास में मुँह खोले खड़ा रहता है। 







दिसंबर 2013 में "इंडियन  एक्सप्रेस" ने एक रेलवे गैंगमैन ( जिसे अब कागज पर ट्रैकमैन कहा जाता है) के एक औसत दिन का विवरण देते हुए बड़ी अचरजभरी पर कान खड़े कर देने वाली बात लिखी - देश के पिछले कुछ सालों के असमय मृत्यु के आँकड़े देखें तो सर्वाधिक सशस्त्र मुठभेड़  वाले प्रदेशों में सुरक्षा बल के जवान की तुलना में रेलवे के किसी गैंगमैन की ड्यूटी करते हुए मारे जाने की संभावना ज्यादा होती है। वैसे रेलवे की ओर से ड्यूटी निभाते हुए मारे जाने वाले गैंगमैनों की मृत्यु के जो आंकड़े दिए जाते हैं वे अविश्वसनीय लगते हैं - 2012 और 2017 के बीच 768 मौतों के बारे में कहा गया ( 2016 - 17 में 96 )पर 22 सितंबर 2017 का 'इंडिया  टुडे' साल भर में दो सौ गैंगमैनों के मरने की बात लिखता है ... 31 जनवरी 2016 का 'फाइनेंशियल एक्सप्रेस' प्रतिवर्ष चार सौ और 5 फरवरी 2016 का 'हंस इंडिया डॉट कॉम' गैंगमैनों की मृत्यु की औसत  वार्षिक संख्या पाँच सौ बताता है। आई आई टी कानपुर ,जो भारतीय रेलवे को आधुनिक सुरक्षात्मक उपायों के लिए परामर्श देता है, अपने सूचना तंत्र पर प्रति वर्ष दुर्घटनाओं में मरने वाले गैंगमैनों की संख्या चार सौ बताता है। उसने समग्र सुरक्षा के लिए "सिमरन" प्रणाली विकसित है और गैंगमैनों की सुरक्षा के लिए उपग्रह आधारित "गैंगमैन वार्निंग सिस्टम" विकसित करने का दावा भी किया है जिसमें किसी ट्रेन के दो किलोमीटर दूर रहते हुए ही उन्हें इसकी सूचना मिल जायेगी जिससे वे समय रहते सुरक्षित दूरी पर जा खड़े हों।इसी तरह आई आई टी मद्रास और कुछ अन्य संस्थान 'रक्षक' प्रणाली बना लेने का दावा करते हैं जो अस्सी हजार का है और वॉकी टाकी की तरह काम करता है - पर जमीनी हकीकत यह है कि बरसों के प्रयास और अच्छी खासी राशि खर्च करने के बाद भी रेल यात्रियों की सुरक्षा में लगे गैंगमैनों के  जान गँवाने का सिलसिला थम नहीं रहा है। 

इनके काम करने की स्थितियाँ जान के जोखिम के अलावा भी इतनी विकट और क्रूर हैं तकनिकी विकास के दावों पर हँसने का मन होता है - बारह घंटे की शिफ्ट करने वाले हर गैंगमैन को बीस किलो से ज्यादा वजन के औजार अनिवार्य तौर पर साथ रखने होते हैं ... इनमें से एक सामान भी पीछे छूटा तो काम पूरा नहीं किया जा सकता। रेलवे बोर्ड के एक पूर्व चेयरमैन ने दशकों बीत जाने के बाद इन रेल सैनिकों की व्यथा और मुश्किल समझी और सुधार के उपाय शुरू किये। उन्हीं के प्रयत्नों से अब जाकर  कम वजन वाले हथौड़े और लैंप इत्यादि डिजाइन किये जा रहे हैं और उनको रेनकोट ,जूते  इत्यादि मुहैय्या कराये जाने शुरू हुए हैं।     
         





जब सरकार की सारी  ऊर्जा और फ़ोकस बुलेट ट्रेन बनाने पर लगा हो तब इन मजदूरों की कुछ मौतें क्या मायना रखती हैं। 

यह महज इत्तेफाक है कि इस टिप्पणी को लिखते वक्त मुझे ताईवानी मजदूरों के दमन को प्रतिबिंबित करने वाली एक कविता मिली --
ताइवान के एक कलाकार लेखक "BoTh Ali Alone" ( सरकारी दमन से बचने के लिए रखा गया छद्म नाम) ने  पीड़ित मजदूरों की तकलीफ से खुद को अलग और मसरूफ रखने वाले सुविधा संपन्न वर्ग की ओर इशारा करते हुए यह  कविता लिखी।          

http://globalvoicesonline.org/2013/02/11 से ली गयी यह कविता यहाँ प्रस्तुत है: 

रेल की पटरी पर सोना  

यह एक द्वीप है जिसपर लोगबाग़
लगातार ट्रेन में चढ़े रहते हैं 
जब से उन्होंने कदम रखा धरती पर।
उनके जीवन का इकलौता ध्येय है
कि आगे बढ़ते रहें रेलवे के साथ साथ 
उनकी जेबों में रेल का टिकट भी पड़ा रहता है 
पर अफ़सोस,रेल से बाहर की दुनिया 
उन्होंने देखी  नहीं कभी ...
डिब्बे की सभी खिड़कियाँ ढँकी हुई हैं 
लुभावने नज़ारे दिखलाने वाले मॉनीटर्स से।  

ट्रेन से नीचे कदम बिलकुल मत रखना 
एक बार उतर गए ट्रेन से तो समझ लो 
वापस इसपर चढ़ने की कोई तरकीब नहीं ... 
तुम आस पास देखोगे तो मालूम होगा 
सरकार बनवाती जा रही है रेल पर रेल 
जिस से यह तुम्हें ले जा  सके चप्पे चप्पे पर  
पर असलियत यह है कि इस द्वीप पर बची नहीं 
कोई जगह जहाँ जाया जा सके अब घूमने फिरने
क्यों कि जहाँ जहाँ तक जाती है निगाह 
नजर आती है सिर्फ रेल ही रेल।

जिनके पास नहीं हैं पैसे रेल का टिकट खरीदने  के 
वे किसी तरह गुजारा कर रहे हैं रेल की पटरियों के बीच ..
जब कभी गुजर जाती है ट्रेन धड़धड़ाती हुई उनके ऊपर से   
डिब्बे के अन्दर बैठे लोगों को शिकायत होती है 
कि आज इतने झटके क्यों खा रही है ट्रेन।  
०००

निर्बंध की पिछली कड़ी नीचे लिंक पर पढ़िए


निर्बंध: सोलह



कश्मीर : तब कहाँ थीं ख़ौफ़ की परछाइयाँ 
  (मार्च 2014 में लिखी डायरी का एक पन्ना


यादवेन्द्र 
पूर्व मुख्य वैज्ञानिक
सीएसआईआर - सीबीआरआई , रूड़की

पता : 72, आदित्य नगर कॉलोनी,

जगदेव पथ, बेली रोड,
पटना - 800014  


मोबाइल - +91 9411100294
साक्षात्कार: मंगलेश डबराल


ताकत के तंत्र और कविता की विडम्बना
( मंगलेश डबराल से बातचीत )



शशिभूषण बड़ोनी: मंगलेश जी सर्वप्रथम आपको अभी कुछ दिन पहले मिले 'परिवार पुरस्कार' की हार्दिक बधाई। एक औपचारिक  से प्रश्न से शुरुआत  करूंगा - साहित्य आपके जीवन मे कैसे आया? कविता लिखने की शुरुआत कैसे हुई?








मंगलेश डबराल: धन्यवाद। ज़्यादातर लेखकों की तरह मेरे लिखने की शुरुआत भी काफी पहले बचपन में हुई थी क्योंकि घर में साहित्य आयुर्वेद संस्कृत का वातावरण था मेरे ज्योतिर्विद दादा ने गढ़वाली कहावतों का संग्रह किया था और पिता गढ़वाली में कविता लिखते,  गाते और नाटकों का निर्देशन करते थे। बचपन में मुझे छंद, अलंकार, तत्सम,  संस्कृतनिष्ठ शब्द आदि बहुत आकर्षित करते थे। कालिदास का 'मेघदूत' सस्वर पढ़ना अच्छा लगता था और जयशंकर प्रसाद का 'आंसू'  कंठस्थ था। मैं उसे गुनगुनाता और आंसू बहाता था। दरअसल प्रसाद की कहानियों की आविष्ट भाषा से मैं चमत्कृत था। प्रसाद की एक कहानी 'आकाशदीप' मेरे स्कूली पाठ्यक्रम में लगी थी और मैंने उसकी नकल पर एक कहानी लिख डाली जिसमें उसकी नायिका का नाम चम्पा से बदल कर पद्मा कर दिया और बहुत से वाक्य भी हूबहू उतार लिये। भगवती चरण वर्मा का उपन्यास 'चित्रलेखा' भी उन्हीं दिनों पढ़ लिया था जो प्रसाद की भाषा का ही एक और रूप लगता था। बाद में मैंने निराला और सुमित्रानदन पंत की रचनाओं और बच्चन की 'निशा निमंत्रण' को पढ़ा और फिर कुछ नवछायावादी किस्म की या गीतनुमा कविता लिखने लगा। यह सोचकर आश्चर्य होता है कि मेरे बचपन में, एक ऐसे सुदूर गांव के घर में, जहाँ डाकिया कई मील पैदल चलकर डाक लाता था, ये सब किताबें मौजूद थीं। उत्तर प्रदेश से तब एक सरकारी पत्रिका 'त्रिपथगा' प्रकाशित होती थी जिसमें मैंने माखनलाल चतुर्वेदी के बहुत से गीत पढ़े। उसमें मैंने कई गीत भेजे लेकिन कोई छपा नहीं। मेरे पिता की साहित्यिक और सांगीतिक गतिविधि और यह सब साहित्य पढ़ने के नतीजे में मैं लिखने लगा। कुछ वर्ष बाद लीलाधर जगूड़ी से मुलाक़ात हुई जो उन दिनों आधुनिक युवा कवि के रूप में तेज़ी से उभर रहे थे और उनके माध्यम से मैं आधुनिक कविता के सम्पर्क में आया।     


शशिभूषण बड़ोनी: आपके साहित्येतर  संगीत प्रेम को हम जानते हैं । कुछ इसकी शुरुआत के बारे में भी बताएं ? किस तरह यह रूझान बढ़ा?

मंगलेश डबराल: संगीत की नक़ल करना एक बात है और संगीत जानना दूसरी बात। मुझे संगीत का बाकायदा ज्ञान नहीं है और यह मेरे जीवन के कुछ बड़े दुखों में से है। कई संगीतकारों का शास्त्रीय गायन और वादन ज़रूर सुना है,  जिनमें से कुछ मुझे शिक्षा देने पर भी राज़ी हुए लेकिन अखबारों में काम करने की व्यस्तता के कारण मैं सीखने का वक़्त नहीं निकाल पाया। संगीत की मेरी जो भी ललक और समझ है वह मेरे पिता के कारण है। वे हारमोनियम बजाते और गाते थे। दुर्गा,  सारंग,  मालकौंस,  पीलू, पहाड़ी जैसे कई  राग और गढ़वाली और जौनसारी के बहुत से मार्मिक या श्रृंगारिक लोकगीत। वे वैद्य थे, कवि, गायक, अभिनेता, रंगकर्मी और मंच-सज्जाकार थे और एक विलक्षण प्रतिभा थे जो स्थानीय स्तर पर ही जीने के लिए बनी थी। उन्होंने एक बड़े लोकगायक और कम्युनिस्ट कार्यकर्ता  गुणानंद पथिक से संगीत सीखा था। दुनिया से जाने से पहले संगीत सीखने की हसरत अब भी मेरे भीतर है। फिलहाल मेरे हिस्से में इतनी ही खुशी है कि मैं महान प्रतिभाओ के संगीत को पूरी विकलता के साथ सुन पाया और संगीत पर कुछ कविताएँ भी लिख सका।








शशिभूषण बड़ोनी: आप एक कवि व साहित्यकार के रूप में बहुत समादृत व्यक्तित्व हैं । आपका योगदान साहित्यक पत्रकारिता में बहुत है। किन्तु आज तो ज्यादातर पत्र-पत्रिकायें (व्यावसायिक) साहित्य को हाशिये पर धकेल रहे हैं। अखबारों में तो केवल जनसत्ता ही बचा है जो अभी भी पूरी तरह गम्भीर साहित्य हर रविवार दे रहा है। इस विडम्बना के बारे में कुछ बताएं ?


मंगलेश डबराल: हिंदी में अब कोई साहित्यिक पत्रकारिता नहीं रह गयी है। यह देखकर दुखद आश्चर्य होता है कि कितनी जल्दी हिंदी पत्रकारिता में ऐतिहासिक उलटफेर हो गये। हिंदी के अखबारों में न साहित्य के लिए जगह है न किताबों की चर्चा-समीक्षा के लिए और न किसी लेखक के लिए, सिर्फ जब किसी महत्वपूर्ण लेखक की मृत्यु हो जाती है या उसे कोई कायदे का पुरस्कार मिल जाता है तो हड़बड़ी मचती है और उस पर लिखने के लिए किसी से संपर्क किया जाता है। कुल मिलाकर मृत्यु के समय हमारे लेखक अखबारों में जगह पाते हैं। सम्पादकीय पृष्ठ के अग्रलेख भी ज़्यादातर अंग्रेज़ी पत्रकारों के अनूदित और कई जगह एक साथ छपने वाले लेख होते हैं। इसकी वजह शायद यह है कि हिंदी अखबारों के कर्ता-धर्ता किसी हीनता-ग्रंथि से पीड़ित हैं, उन्हें लगता है कि हिंदी गरीबों की भाषा है और गरीबों को गंभीर चीज़ों की ज़रुरत नहीं है। उनके दिमाग में सिर्फ़ बाज़ार बसा हुआ है और वे अंग्रेज़ी को ही बाज़ार की ज़बान मानते हैं। हिंदी अखबारों में कुछ साल से अंग्रेज़ी शब्दों की भरमार होने की वजह भी यही है।
'जनसत्ता' एक बड़ा प्रयोग था। इस बात का सबूत कि थोड़ा सा साहस कितना बड़ा परिवर्तन ला सकता है। उसका साहित्यिक और कलाओं से संबंधित पहलू भी बहुत यादगार किस्म का था और जितने लेखक उससे जुड़े थे शायद कभी किसी दूसरे अखबार से नहीं जुड़े होंगे वह सभी क्षेत्रों में व्यवस्था और सत्ता की आलोचना का कैनवस था और राजनीतिक स्तर पर भी उसमें दर्ज हर बात सच्ची और प्रामाणिक मानी जाती थी। यह लम्बे समय तक जारी रहा फिर धीरे-धीरे अखबार की गिरावट का दौर आया और अब वह इस बात का प्रतीक है कि चीज़ें किस तरह नष्ट हो जाती हैं।


शशिभूषण बड़ोनी:आज कल संचार क्रांति के कारण ज्यादातर लोंगो का किताबें पढना बन्द सा हो गया है, यहाँ तक कि साहित्य प्रेमी भी अब फेसबुक , ब्लॉग, व्हाट्सऐप  में उलझे रहतें है। पुस्तक सस्कृति पर इस सबका जो प्रभाव पडने जा रहा है कुछ उस बारे में आपका दृष्टिकोण 
 जानना चाहूंगा।



मंगलेश डबराल : टेक्नोलोजी आम तौर पर अच्छी और लोकतांत्रिक होती है।वह विकास के सोपानों को ही बतलाती है। उसकी अच्छाई या खराबी इससे तय होती है कि उसे कौन नियंत्रित कर रहा है। जनता या शासक वर्ग। लेकिन ताकतवर लोगों द्वारा नियंत्रित तकनीक भी एक हद तक आम लोगों के काम आने लगती है, इस अर्थ में संचार क्रांति सोशल मीडिया, ब्लॉग, फेसबुक वगैरह ने साहित्य को ज़्यादा लोकतांत्रिक, सुगम और साध्य बनाया है। आज पहले की तुलना में कहीं ज़्यादा लोग लिख और पढ़ रहे हैं जिनमें युवाओं और महिलाओं की संख्या बहुत है यानी इन नये माध्यमों ने साहित्य का लोकतत्रीकरण किया है लेकिन जहां तक पुस्तक-संस्कृति की बात है वह शायद हिंदी समाज में कभी नहीं रही। कहते हैं कि देवकीनंदन खत्री के 'चंद्रकांता संतति' जैसे उपन्यासों को पढ़ने के लिए लोगों ने हिंदी सीखी लेकिन तब भी उत्तर भारतीय समाज में पुस्तकों के प्रति ऐसा कोई लगाव नहीं था जैसा बांग्ला या कुछ दूसरे समाजों में दीखता है जहाँ जन्म या विवाह आदि के समय किताबें देना अच्छा माना जाता है। हिंदी अंचल में  वर या वधू को पुस्तक भेंट करने वाले पर लोग तरस ही खायेंगे और हमारे बड़े लेखकों की किताबें भी कितनी बिकती हैं? पचास करोड़ लोगों के बीच साल में एक हज़ार प्रतियां बिक जायें तो गनीमत है लेकिन मुझे लगता है कि हिंदी में पाठकों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है। सोशल मीडिया ऑनलाइन खरीद और पुस्तक मेलों में पेपरबैक संस्करणों के कारण और फिर महिलाओं, दलितों, आदिवासियों के भी बड़े तबके नये पाठकों के रूप में उभरे हैं। कुछ ऐसे छोटे प्रकाशक भी हैं जो सोशल मीडिया पर विज्ञापन करके अपनी किताबें बेच रहे हैं।

शशिभूषण बड़ोनी: आपने गद्य विधा में भी खूब लिखा है। ‘लेखक की रोटी’ ‘एक बार आयोबा’, ‘कवि का अकेलापन’ आदि पुस्तकें , डायरी, लेखरूप में हैं  और बहुत लोकप्रिय हुई हैं । ‘आया हुआ आदमी’ कहानी मेरे जेहन में है, एक अति पठ्नीय, बोधगम्य कहानी है। इधर आपके  गद्य  कुछ पुस्तक रूप में आ रहे हैं ?

मंगलेश डबराल: गद्य बहुत शक्तिशाली विधा है क्योंकि जीवन की, हमारे व्यवहारों की भाषा वही है। हम कविता में वार्तालाप नहीं करते, अगर करेंगे तो वह नाटक या प्रहसन में बदल जायेगा। गद्य ही एक स्तर पर अनुभव के किसी सघन बिंदु पर कविता बनता है और अब लगता है कि सुंदर पठनीय गद्य शायद कविता में ही बचा हुआ है। मेरे भीतर गद्य के प्रति बहुत आकर्षण रहा है। हालाँकि व्यवस्थित ढंग से गद्य नही लिख पाया लेकिन छिटपुट लिखता रहा हूँ। अखबारों में काम करने के दौरान या कोई साहित्यिक, सांस्कृतिक टिप्पणी या यात्रा-वृतांत में  मेरा बहुत सा गद्य पड़ा है और इस वर्ष के अंत तक दो गद्य पुस्तकें प्रकाशित होंगी, एक यात्रा संस्मरण और लेखों का एक संचयन।

'आया हुआ आदमी' मेरी पहली प्रकाशित कहानी है और वह मेरे लिए एक भूली हुई कहानी भी है। वह एक सीमित समय की मोहभंग और व्यर्थतावाद की संवेदना व्यक्त करने वाली रचना थी जो समय बीतने के साथ अप्रासंगिक हो गयी।
 उसमे याद रखने की वजह  यही है कि उसे पढ़ने के बाद हमारे समय के एक बड़े कथाकार और 'पहल' के संपादक ज्ञानरंजन ने मुझे प्रशंसा करते हुए एक पोस्टकार्ड लिखा था जिसके बाद मेरी उनसे एक सुंदर मित्रता शुरू हुई जो आज तक जारी है। उस पोस्टकार्ड को मैं एक तमगे की तरह संभाल कर रखता हूँ।







शशिभूषण बड़ोनी: लेखक के जीवन में पुरस्कारों या सम्मानों का क्या महत्व है? क्या यह सृजन के लिए कुछ सहायक होते हैं ?

मंगलेश डबराल: पुरस्कार सृजन के लिए कैसे सहायक हो सकते हैं? लेकिन अगर कोई रचनाकार आर्थिक अभाव मे हो, जैसा कि
 हिन्दी समाज में बहुत है, और उसे दो वक़्त की रोटी जुटाने की समस्या से जूझना पड़ रहा हो तो पुरस्कार ज़रूर सहायक होते हैं। और अगर वे सचमुच अच्छे हों, सिर्फ़ साहित्यिक वजहों से दिये जाते हों, उनके निर्णायक सच्चे लोग हों तो वे कहीं न कहीं समाज की तरफ़ से अपने लेखक को पहचानने और अपनाने के रूपक भी होते हैं। उनमे मिलने वाला धन काफी काम का होता है लेकिन हिंदी में बहुत से ऐसे पुरस्कार हो गये हैं जिनको देने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता।
सबसे दुखद पहलू यह है कि कोई हिंदी लेखक अपनी पुस्तकों की बिक्री और रॉयल्टी से जीवन-यापन नहीं कर सकता क्योंकि पहले तो किताबें बहुत ज्यादा, पश्चिमी देशों जितनी नहीं बिकतीं और दूसरे कोई प्रकाशक सही जानकारी नहीं देता कि किस लेखक की कितनी किताबें बिकी हैं आम तौर पर किताबों की बिक्री का एक बड़ा हिस्सा छिपा लिया जाता है ऐसे में लेखकों का पुरस्कार-प्रार्थी होना चकित नही करता।

शशिभूषण बड़ोनी: आज जब अधिकांश लोग बाजार वाद कि चपेट में आकर अत्यधिक स्वार्थी व आत्मकेंद्रित  होते जा रहें है। ऐसे में मुझे आपकी कविता याद आती है।।।।।।।। ‘ताकत की दुनिया’ शीर्षक  से। इसकी ये पंक्तियां बहुत कुछ कहती हैं - 'मैं सैकडो, हजारों जूते लेकर क्या करूंगा? मेरे लिये एक जोडी जूते ही ठीक से रखना कठिन है!' आज बाजारवाद इतना क्रूर क्यों  हो गया है?


मंगलेश डबराल: 'ताकत की दुनिया' लिखते समय शायद बाज़ार सत्ता तंत्र और वैश्विक महाशक्तियाँ मेरे दिमाग में थीं लेकिन इसके साथ कई तानाशाहों की खब्तें और सनकें अमेरिका द्वारा तेल और प्रभुत्व के लिए अफ़गानिस्तान, इराक़, लीबिया, सीरिया आदि देशों पर किये गये हमलों की घटनायें भी थीं और ये ख़बरें भी कि फ़िलीपींस के तानाशाह मार्कोस जब सत्ता से बेदखल हुए तो उनकी पत्नी इमेल्दा मार्कोस के पास हज़ारों सैंडिलों और कपड़ों का कितना बड़ा ज़खीरा बरामद हुआ।
बाज़ार एक बहुत क्रूर जगह हो चुका है अपनी पूरी चमक-दमक और भव्यता के साथ यह वैश्विक आवारा पूंजी का चरम रूप है जो हर विचार को, हर सवाल को और समाज के हर जलते हुए सवाल को बुझा  देना चाहता है। उसने लोगों को निकृष्टतम उपभोक्ता में बदल दिया है। एक उपभोग से दूसरे उपभोग की तरफ जाता हुआ एक प्रश्नविहीन पुतला ! कार्ल मार्क्स और ऐंगेल्स ने कम्युनिस्ट पार्टी के  घोषणापत्र में पूंजी की प्रक्रियाओं और परिणतियों को बहुत पहले विश्लेषित कर लिया था। वर्तमान वित्तीय पूंजी अपने साम्राज्य और शोषण को बढाने के लिए विज्ञापनों, कई तरह के प्रचार और टेक्नोलॉजी के माध्यम से सहमति और समरूपता का निर्माण करती है और समाज को अधिक से अधिक बाज़ार पर निर्भर बनाती है। इस प्रक्रिया पर प्रसिद्ध विचारक और भाषाशास्त्री नोम चौम्स्की की किताब 'मैनुफैक्चेरिंग कंसेंट' बहुत चर्चित हुई है। गौरतलब यह है की बाज़ार और सत्ता तंत्रो की सबसे ज़्यादा चीरफाड़ कविता ही कर रही है और यथासंभव प्रतिरोध भी जारी रखे हुए है। कोई भी अच्छी कविता ताकत के विरुद्ध होती है और बाज़ारवाद को अस्वीकार करती है।

शशिभूषण बड़ोनी: आपने संभवत: सत्तर के दशक  में  लेखन शुरू  किया होगा, तब के परिदृश्य  में व आज के साहित्यिक परिदृश्य में क्या अन्तर देखते हैं ? 

मंगलेश डबराल:  तब और अब में फ़र्क़ स्वाभाविक है लेकिन मुझे लगता है कि बहुत ज़्यादा फर्क़ नही आया है। यह सही है कि लिखनेवाले बढ़े हैं। दलित, आदिवासी, स्त्री लेखन और विभिन्न हाशियों पर हो रही अभिव्यक्ति ने ज़ोरशोर से अपनी सार्थक उपस्थितियां दर्ज की हैं और साहित्य मध्यवर्गीय घेरेबंदियों से निकल कर अनुभवों के ज़्यादा व्यापक और नये संसार में गया है। मसलन,  हिंदी कविता में आदिवासी और दलित यथार्थ पहले लगभग नहीं था और स्त्रियों के अनुभव भी सीमित, अल्प-मुखर और कुछ कातर, असहाय किस्म के थे लेकिन अब बहुत सी महिला कवि पुरुष वर्चस्व, उपेक्षाएँ, अन्याय के परिदृश्यों को  प्रतिरोधात्मक स्वर में ही नहीं व्यक्त कर रही हैं बल्कि अपने स्वायत्त संसारों को भी रेखांकित कर रही हैं। यह एक बड़ा बदलाव है। बहुत से युवा आदिवासी कवि अपने भीषण यथार्थ के बीच एक आदिम रक्त के भीतर से बात कर रहे हैं लेकिन यह भी सही है कि ऐसी कृतियां अभी सामने नहीं आयी हैं जिनसे परिदृश्य सचमुच बदला हुआ लगे। मसलन, मराठी में नामदेव ढसाल की कविता या दया पवार की 'अछूत' जैसी कृतियां जिन्होंने मराठी कविता और गद्य के स्वरूप को बदल कर रख दिया था, लेकिन मुझे लगता है अभी हमें कुछ इंतज़ार करना चाहिए।   

शशिभूषण बड़ोनी: उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद यहां के आम आदमी व गाँवों  में महिलाओं की माली हालत में कुछ बदलाव आपको दिखाई पडता है? इनके दैनिक जीवन के संघर्ष  कुछ कम हुए  हैं ?

मंगलेश डबराल:  उत्तराखंड में जन्म लेने के बावजूद मैं ज़्यादातर बाहर ही रहा और अब कभी।कभी वहाँ जा पाता हूँ। लेकिन मैं जहां भी रहा मुझे अपना  बचपन हमेशा भीतर महसूस होता रहा। पत्रकारिता करने की वजह से भी मैं उत्तराखंड के कामकाज को देखता रहा हूँ। कुल मिलाकर वह  पृथक राज्य तो बन गया लेकिन पर्वतीय राज्य नहीं बन पाया और न उन लोगों के स्वप्न पूरे हुए जिन्होंने पहाड़ की जनता के अपने राज्य की कल्पना में की थी और उसके लिए लम्बा संघर्ष किया था। तत्कालीन भाजपा सरकार ने राज्य के गठन के साथ ही उन सभी संगठनों को हाशिये पर फेंक दिया जिन्हें राज्य के संचालन में सक्रिय भूमिका दी जानी चाहिए थी। उत्तराखंड की पहली भाजपा सरकार एक बड़ी दुर्घटना थी और तबसे अफसरशाही और दलाल ताकतें इतनी विकराल और भ्रष्ट हो चुकी हैं कि न तो गैरसैण में राजधानी बन सकती है न गांवों से पलायन और विस्थापन रुक सकता है और न कोई बड़ा परिवर्तन हो सकता है। यह कितना डरावना है कि अब इस राज्य के करीब बीस फीसद गाँव पूरी तरह निर्जन और भुतहे हैं और तीस फीसद गाँवों से बीस-पच्चीस फीसद पलायन हो चुका है। पौड़ी गढ़वाल में बोंदुल गाँव की श्रीमती विमला देवी की कहानी पिछले दिनों सामने आयी थी जो गाँव में बिलकुल अकेली रहती हैं और जंगली जानवरों के डर से पांच बजे के बाद घर से बाहर नहीं जातीं। पृथक राज्य बनाने के बाद थोडा सा धार्मिक पर्यटन बढ़ा है। सड़कें बनी हैं  लेकिन न तो कोई नया पर्यटन स्थल खोजा या बनाया गया है न किसी क्षेत्र में बड़ी प्रतिभाएं सामने आयी हैं और न किसी ने यह सवाल उठाया है की आखिर इतने वर्षों में यहाँ की सरकारों ने क्या किया है जो लोग विस्थापित नहीं हुए वे भी खेती करना लगभग छोड़ चुके हैं और ज़्यादातर अपने ही अंचल में सड़क बनाने वाले दिहाड़ी मजदूरों में बदल गए हैं। खेती-किसानी का फल देर से मिलता है लेकिन मजदूरी तुरंत नकद पैसा दे देती है जो उतनी ही जल्द खर्च हो जाता है। यह लोगों को अपने ही घर में विस्थापित बनाने का भयानक उदाहरण है।


शशिभूषण बड़ोनी: लेखन का सबसे मुष्किल पक्ष आपको क्या लगता है?

मंगलेश डबराल : शायद लेखन के सभी पक्ष कठिन हैं। आम तौर पर माना जाता है कि किसी रचना का आरम्भ करना, उसका पहला वाक्य लिखना सबसे मुश्किल होता है लेकिन रचना को किस जगह ख़त्म किया जाये यह तय करना भी कम कठिन नहीं है। मेरे लिखने की प्रक्रिया कुछ ऐसी है कि अक्सर किसी रचना के बीच का कोई दृश्यध्वाक्य सबसे पहले आता है और कई बार जो लिखना चाहता हूँ वह नहीं लिखा जाता बल्कि वह कुछ और ही शक्ल ले लेता है। दरअसल लिखने का सबसे कठिन और त्रासद पहलू यह है की हम जिस शिद्दत से जो कुछ लिखने की सोचते हैं उसे ठीक उसी तरह नहीं लिख सकते, शायद उसका पचास-साठ  फीसद ही शब्दों में उतर पाता है। दिमाग और काग़ज़ के बीच एक बड़ी और अदृश्य दूरी है। ग्रीक दार्शनिक हेराक्लिट्स  का एक प्रसिद्ध कथन है कि 'आप जिस नदी में नहाने की सोचते हैं, उसमें कभी नहीं नहा सकते क्योंकि सोचने और नहाने के बीच नदी बदल चुकी होती है'।

शशिभूषण बड़ोनी: आपने विश्व  साहित्य की  कई कृतियों के अनुवाद भी किये हैं । कुछ ऐसी कृतियों के नाम जो साहित्य प्रेमियों को पढनी चाहिए?


 मंगलेश डबराल: ऐसी कोई भी सूची अधूरी ही होगी। इतना महान साहित्य दुनिया में लिखा गया है और उसका लिखा जाना बंद नहीं हुआ है।मेरा ज्ञान बहुत सीमित है लेकिन बीसवी सदी की जो रचनाएँ मुझे बड़ी और ज़रूरी लगती हैं उनमें टॉलस्टॉय की 'पुनरू थान'  (रेसुररेक्शन)   चेख़व  की कहानियां और नाटक, काफ्का का उपन्यास 'ट्रायल' और कहानी 'मेटामोर्फोसिस' कामू का 'आउटसाइडर', जुजे सारामागो के हिस्ट्री ऑफ़ ड सीज ऑफ़ लिस्बन',' ब्लाइंडनेस' गाब्रिएल गार्सिया मार्केस के उपन्यास 'वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सोलिट्यूड ' और  'ऑटम  ऑफ़ पैट्रिआर्क'  अरुंधती रॉय का' द गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स' मंटो की 'टोबा टेक सिंह' , 'खोल दो' और कई दूसरी कहानियां लू शुन की रचनाएँ इतालो काल्विनो के इफ ओन अ विंटर्स नाइट, अ ट्रैवलर और इनविजिबल सिटीज, रसूल हमजातोव और मक्सिम गोर्की के आत्मपरक वृत्तान्त, प्रेमचंद और रेणु के उपन्यास और कहानियाँ श्रीलाल शुक्ल का राग दरबारी, राही मासूम रजा का आधा गाँव,ज्ञानरंजन, निर्मल वर्मा और अमरकांत  की कहानियां, हरिशंकर परसाई के व्यंग्य, नेरुदा, ब्रेख्त, नाजिम हिकमत, एर्नेस्तो कार्देनाल, यानिस रित्सोस, शिम्बोर्स्का रूज़ेविच, एलन गिन्सबर्ग, निराला, शमशेर बहादुर सिंह, नागार्जुन, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, कुंवर नारायण आदि की कविताएँ शामिल हैं। लेकिन यह सूची एकदम अधूरी और निजी है, इसमें किसी जीवित लेखक का नाम नहीं है और दूसरी भारतीय भाषाओं की रचनाएँ इसमें छूट गयी हैं। तेईस भाषाओं से चयन करना बहुत मुश्किल है।



शशिभूषण बड़ोनी: आपने गुणानन्द पथिक, घनश्याम  शैलानी , मोहन थपलियाल आदि लोक  कवियों, लेखकों पर बहुत मार्मिक कवितायें लिखी हैं । उनसे जुडी कुछ यादें ?

मंगलेश डबराल :  मोहन थपलियाल मेरे घनिष्ठ मित्र थे। हमने कुछ समय एक ही अखबार में काम किया। गुणानंद पथिक कम्युनिस्ट जनकवि और गायक थे। बाँध में डूब चुके टिहरी शहर के बस अड्डे पर मैं उन्हें अक्सर पूरे स्वाभिमान और ऊर्जा के साथ अपने गले में हारमोनियम लटकाए हुए और गाते हुए देखता था। वे अपने गीतों की पुस्तिकाएं भी बेचा करते जिनमें जन-जागरण और परिवर्तन का आवाह्न होता था । मैं तब ग्यारहवीं या बारहवीं कक्षा में पढता था लेकिन उस  अद्भुत गायन-वादन से पैदा होने वाली सिहरन आज भी मेरी स्मृति में है।पथिक जी ने मेरे पिता को संगीत की शिक्षा दी थी और कुछ वक़्त तक उन्हें संगीत सिखाने घर भी आये पथिक जी जीवन के अंत तक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता रहे और अंत तक गरीबी में रहे।
केशव अनुरागी ढोल और लोकगायन की बड़ी प्रतिभा थे । वे त्यौहारों और मांगलिक कार्यों में ढोल-दमाऊ या नगाड़ा बजाने वाले बाजगी समुदाय के थे जिन्हें पहाड़ में औजी कहा जाता है। उन्होंने ढोल के तालों पर दुर्लभ किस्म का शोध कार्य किया था और कुछ समय कुमार गंधर्व से भी संगीत सीखा था। उनके पास बाजगियों का संगीत अपने शुद्धतम रूप में तो था ही, बहुत से लोकगीतों को उन्होंने नयी धुनों से भी समृद्ध किया। वे आकाशवाणी दिल्ली में प्रोड्यूसर थे। दिल्ली में नए-नए आये लेखकों के लिए आकाशवाणी एक बड़ा सहारा था। मैं जब भी वहां जाता, अनुरागी जी से मिलना बहुत अच्छा लगता। पहाड़ी गीतों को शास्त्रीय स्पर्श देते हुए गाने की उनकी शैली से मैं अभिभूत था। दिल्ली में रहने वाले ज़्यादातर पहाड़ी सवर्ण  उनका सम्मान तो करते थे लेकिन दलित समुदाय के इस जीनियस से दुआ-सलाम पाने की उम्मीद भी रखते थे। इस सवर्ण अहंकार से अनुरागी का सामना बार-बार हुआ और एक कसक उनके भीतर बनी रही। अनुरागी जी पर कविता लिखते हुए मुझे उनके विलक्षण संगीत और उनकी सामाजिक हैसियत के बीच की फांक का भी ध्यान था। बाद में सुनने में आया कि अनुरागी जी का परिवार इस कविता से बहुत खुश नहीं है। इसकी ठीक-ठीक वजह पता नहीं है लेकिन मेरा ख़याल है कि इस सन्दर्भ में समाजशास्त्री एम एन श्रीनिवास की सांस्कृतिकरण की अवधारणा काम करती दिखती है।

शशिभूषण बड़ोनी: एक रचनाकार के रूप में आज के समाज कि कौन सी चीज आपको सबसे ज्यादा बेचेन करती है?





शशिभूषण बड़ोनी




मंगलेश डबराल:  हमारे समाज का जो अपराधीकरण और बर्बरीकरण इन दिनों किया जा रहा है, आम नागरिकों को जिस तरह सांप्रदायिक और अमानुषिक बनाया जा रहा है और राजनीति जिस तरह हमारी भाषा को भ्रष्ट झूठा और आक्रामक, हिंसक बना रही है वह विचलित करने वाला है। यह देखना बहुत त्रासद है कि किस तरह सहानुभूति, मददगारी, प्रेम और करुणा जैसे मूल्यों को नियोजित ढंग से ख़त्म किया जा रहा है और एक निकृष्ट मनुष्य निर्मित हो रहा है। अफवाहों के आधार पर हत्या, उन्मादी भीड़ द्वारा हत्या,आलोचना या विरोध करने वालों की हत्या, अलग तरह का जीवन या विचार के लोगों की हत्या, धमकी, अपमान, झूठी खबरों का व्यापक प्रसार, तर्क और विवेक के  बजाय अंधविश्वासों का प्रचार, इतिहास के  बजाय मिथकों पर विश्वास, विद्वता की बजाय मूर्खता को तरजीह, वास्तविक धर्म के  बजाय पाखंडियों और अपराधियों का गुणगान। ये सब एक समाज और मनुष्य की आतंरिक मृत्यु के लक्षण हैं। हमारे नेता प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान और टेक्नोलॉजी के बारे में आये दिन जो हास्यास्पद और अहमकाना बयान देते रहते हैं वे हमारे अज्ञान के घनघोर रसातल की तरफ जाने के उदाहरण हैं। ऐसा समाज बाहरी तौर पर कितना ही खाता - पीता नजर आये भीतर से मरता हुआ होता है। दूसरी तरफ इन हालात पर कोई बड़ी बेचैनी नहीं नज़र आती, लोग विभ्रम और घुटन में हैं, लेकिन जैसा रघुवीर सहाय ने बहुत पहले अपनी एक कविता में कहा था 'क्रोध होगा पर विरोध नहीं'। आज ऐसी ही स्थिति है। हम देख सकते हैं कि हमारे चारों और कैसा मृतक समाज बन रहा है, लोग जैसे सब कुछ भूल गए हैं और सिर्फ बदला लेना याद रखे हुए हैं। रघुवीर सहाय की ही एक और कविता में राजा अपने मंत्री से कहता है कि 'समाज का मरना पहचानो मंत्री जी तभी हमारी सत्ता ज्यादा सुरक्षित रहेगी'। ये शब्द आज भयानक सत्य साबित होते दिख रहे हैं। एक भीतरी मृत्यु के दौर में कविता लिखना और उससे कोई उम्मीद करना अत्यंत विडम्बनापूर्ण लगता है।

०००        
साभार: शशिभूषण बड़ोनी की किताब






नीचे लिंक पर पढ़िए लीलाधर जगूड़ी का साक्षात्कार



कवि  को शब्द की कान और आंख एक साथ बनना पड़ता है