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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

07 फ़रवरी, 2019

निर्बंध: सोलह



कश्मीर : तब कहाँ थीं ख़ौफ़ की परछाइयाँ 
  (मार्च 2014 में लिखी डायरी का एक पन्ना

यादवेन्द्र                                     

इस बार तेज बारिश और बर्फ़बारी के बीच होली कश्मीर घाटी में बीती -- सर्दियों की जकड़न के बाद फगुनाहट में मलमल का कुरता निकालने का सुख भूल कर बिलकुल नया अनुभव। श्रीनगर हवाई अड्डे पर पहुँचने से कोई बीस मिनट पहले से ही पहाड़ दिखने शुरू हो गए थे और दूर दूर तक उनपर कश्मीरी पश्मीने की नहीं बल्कि बर्फ़ की सफ़ेद चादर बिछी हुई थी .... हवाई पट्टी पर से बर्फ़ हटा दी गयी थी नहीं तो पूरा हवाई अड्डा किसी इग्लू (ध्रुवों के आसपास रहने वाले लोगों के बर्फ़ के घर ) जैसा दिखाई देता। मेरे लिए उतनी बर्फ़ छू कर देखने का जीवन का पहला अनुभव था।



यादवेन्द्र



कुपवाड़ा साथ ले जाने के लिए ऋचा (बेटे पलाश को साथ लेकर आई थी) के आने में थोड़ी देर हो रही थी इसलिए हमें श्रीनगर हवाई अड्डे पर शीशे की खिड़कियों को लाँघ कर आते धूप के चकत्तों  की तलाश में यहाँ वहाँ टहलते देख कर सरकारी ड्यूटी पर तैनात एक कद्दावर पर खूबसूरत नौजवान पास आया और बिना माँगे सलाह दे गया कि हम बेंचों पर न बैठें नहीं तो ज्यादा सर्दी के कारण टाँगें अकड़ जायेंगी -- चाय कॉफी हवाई अड्डे पर किधर मिलेगी ,साथ में यह भी समझा गया। गर्मागर्म चाय ने शरीर और मन को जब जकड़ से मुक्त किया तब पहली बार समझ आया कि कश्मीरी गर्मजोशी से हमारा यह पहला साक्षात्कार है। 

श्रीनगर में रहते हुए ज़ाहिर है हमारा पहला पड़ाव डल झील थी जो शहर के बीचों बीच फिसलती हुई निकल रही थी पर जिसका दूसरा किनारा बहुतेरी कोशिशों के बाद भी हमें दिखायी नहीं दे पा रहा था। मुझे अपने घर बनारस की गंगा याद गयी जो वास्तव में तंग गलियों से होकर तो नहीं बहती पर इन तंग गलियों से गुजरते हुए बिलकुल घरेलू स्त्री जैसी आपसे आँखें चार करती रहती है। पानी की अनेक धाराएँ इस शहर में बहती दिखती हैं और सड़क पर चलते फिरते इनके अंदर जैसे ही लकड़ी की बड़ी नाव (शिकारा) पर नजर पड़ती है आपको डल झील के साथ उसका जुड़ाव समझ आ जाता है -- यानि रक्त वाहिनी शिराओं की तरह श्रीनगर के अंदर तक डल झील फैली हुई है। 






इस यात्रा में मेरी फूलकुमारी साथ थी और कई बरसों से हम यह हिसाब किताब लगाते रहे थे कि देश के कितने प्रांतों में घूम चुके हैं -- ऐसे में बार बार उत्तर पूर्वी राज्यों के अतिरिक्त हमारी लिस्ट से कश्मीर घाटी छूट जाती थी। उत्तर पूर्वी राज्यों की बात करें तो असम ,सिक्किम और मेघालय सुरक्षित नजर आये … वैसे ही जम्मू और लेह का नंबर तो आ गया पर कश्मीर घाटी जाने के कार्यक्रम अचानक सुर्ख़ियों में आ गयी किसी आतंकी घटना की वजह से बार बार मुल्तवी होती रही। अख़बार पढ़ पढ़ के मन के अंदर श्रीनगर की छवि ऐसी बन गयी थी जैसे जान हथेली पर लेकर दीवाली के दनादन पटाखों के बीच से कोई लंबा सुनसान रास्ता तय करना हो -- और हम थे कि सरफ़रोशी की तमन्ना लेकर घूमने निकलने को तैयार नहीं होते। 

टैक्सी वाले ने पहले तो ये कहा कि आप बिलकुल बेफ़िक्र रहो ,और अगली साँस में कह गया कि आज आज़ादी पसंद अनेक संगठनों ने एक मासूम नौजवान की हत्या के विरोध में कश्मीर बंद का  एलान किया हुआ है -- तब हमें एक एक अदद दूकान बंद होने का सबब समझ में आया। हमें शाकाहारी खाने की जो दूकान बताई गयी थी ,उसमें बड़ा सा ताला  लटका देख हमारा मन और मुँह भी वैसे ही लटक गया। टैक्सी वाला हमें धीरे धीरे बाज़ार और आबादी से दूर लेता जा रहा था और हम दहशत के मारे प्रकट रूप में कुछ बोल नहीं रहे थे पर धड़कनों की बढ़ती हुई आहट को दबाना ना मुमकिन होने लगा। डरते डरते पूछने पर उसने बताया कि मैं आपको साफ़ सुथरे पानी और दूर से पूरे शहर का नज़ारा दिखाने के लिए ही ले जा रहा हूँ ,आप घबराइये मत कोई कुछ नहीं करेगा। 






निशात बाग़ से थोड़ा पहले उसने  एक जेटी पर रोका  जहाँ एक भी सैलानी नहीं था ,पाँच छह शिकारे  वाले बैठे लूडो खेल रहे थे। जब टैक्सी वाले को सबने सलाम किया तो मन की आशंका और बलवती हो गयी ,एक दूसरे की पहचान वाले सब मिलकर कहीं कोई साजिश तो नहीं करेंगे --- हम वयस्क तो चलो फिर भी आगा पीछा कुछ मुकाबला कर सकते हैं  पर ये बेचारा दो साल का मेरा नाती पलाश ? इतनी दूर चले आने के  बाद वापस लौटना न तो संभव था और न ही सुरक्षित -- हम जितना ही अपने चेहरे मोहरे से निश्चिन्त दिखने की कोशिश करते उतने ही बदहवास नज़र आते। खैर डगमगाते कदमों (और मन से भी) से हम शिकारे  पर सवार हुए और वह बड़े शांत भाव से धीरे धीरे पानी पर फिसलते हुए आगे बढ़ने लगा … झील के पानी में हमारे मनों के अंदर दुबकी हुई आशंकाओं का कहीं कोई हिलोर नहीं थी। तट से दूर जाते हुए मनोरम नज़ारों की वजह से बहुत अच्छा लग रहा था ,पर मन था कि पल पल में ही लौट कर गहरे अविश्वास,आशंकाओं और भय की गिरफ़्त में आ जाता … जहाज के पंछी सरीखा जो जल का असीमित विस्तार देख कर बार बार जहाज पर ही लौट आता है।

अभी सौ मीटर भी आगे नहीं चले होंगे कि एक शिकारा  तेज चलते चलतेआया और हमारे शिकारे से जुड़ कर चलने लगा ,जाहिर है हमारी धड़कनें और तेज हो गयीं। उस शिकारे वाले ने हमारे शिकारे को पकड़ लिया --हमारी तो जान मुँह को आ गयी और अपनी निर्दोष मस्ती में खोये हुए बच्चे को हम सब ने मिलकर किनारे से दूसरी तरफ खींच लिया। नाव एकदम से डगमगा गयी ,दूसरे शिकारे वाले ने शायद हमारे मन की हलचल भाँप ली, बोला: बच्चे की कश्मीरी लिबास में फोटो खिंचवा लो साहब। हमने सामने आयी स्थिति के साथ समझौता करना ही उचित समझा और फोटो खिंचवाने को राजी हो गये। 








साथ चलते चलते उसने सिल्क की रंग बिरंगी पोशाक निकाली और बच्चे को अपनी नाव पर माँगने लगा। मैंने पलाश को अपनी गोद में बिठाया और फोटो वाले से कहा कि जो पहनाना हो यहीं बैठे बैठे पहना दो। .... मेरी उहापोह देखते हुए मेरे शिकारे वाले ने कहा: साहब, आप बच्चे को दूसरी नाव में जाने दो ,हमारा तो रोज का धंधा है। बेटी से पूछ कर मैंने बच्चे को दूसरी नाव में जाने दिया पर जोर से खुद दूसरी नाव खुद पकडे रहा .... हाँलाकि झील के शांत पानी और दोनों शिकारे  वालों के हाव भाव और वाणी ने अनकहे ही हमारे मन के अंदर सहजता का भाव भरना शुरू कर दिया था। बड़े इत्मीनान और शौक से उसने बच्चे को फिरन  पहनाया ,कमर पर दुपट्टे जैसा कपडा बाँधा फिर पगड़ी बाँधी ....अच्छी तरह सजाने के बाद बच्चे के हाथ में एक लम्बी भारी भरकम पतवार थमा दी। उसके बाद एक फोटो खींचने की बात तय होने के बावज़ूद उसने अलग अलग पोज़ में बच्चे की सात आठ फोटो खींची। सैर से लौटते हुए एक घंटे बाद  उसने फिर बीच रास्ते हमें पकड़ा और सारी फोटो दिखाते हुए बोला : आप जो चाहें चुन लीजिये साहब। बगैर किसी दबाव और आग्रह  के हमने उस से सभी फोटो ले लीं --- अलग अलग भंगिमाओं में पलाश इतना सुन्दर लग रहा था कि हमसे एक भी फोटो छोड़ते न बनी। 
इसके बाद उसने हमें बड़े मित्रभाव और गर्मजोशी के साथ बीच झील गरमा गरम कहवा भी पिलाया।
पर उस अशांत समाज में मेहनत  मज़दूरी करके जीवन यापन करने वाले उस मामूली  फ़ोटोग्राफ़र ने सिर्फ हमारा दिल ही नहीं जीता बल्कि हमारे तमाम निराधार पूर्वाग्रहों को भी बिना कुछ बोले यूँ ही चुटकी बजाते हुए धराशायी कर दिया।हमें अकारण उससे अविश्वास और डर पर बाद में शर्मिंदगी हुई।       ०००

सभी तस्वीर : यादवेन्द्र



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*Y.Pandey     *
Chief Scientist
Central Building Research Institute 
Roorkee( Uttarakhand)
INDIA
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