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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

24 फ़रवरी, 2019

परख उनचालीस

मुट्ठी भर लोग!

गणेश गनी

मुट्ठी भर  लोग ही बदलाव लाते हैं, मुट्ठी भर लोग ही इतिहास रचते हैं, मुट्ठी भर लोग अपनी तकदीर नहीं बल्कि औरों की तकदीर का खुलासा करने में सक्षम होते हैं। मुट्ठी भींचकर देखना ज़रूरी है गुस्से में कभी कभी, तो मालूम पड़ता है कि मुट्ठी की ताकत हवा को भी जकड़ सकती है। कवि सतीश धर कुछ समझाने की कोशिश कर रहे हैं, पर ये मुट्ठी भर लोग भला समझते कहाँ हैं-

तुमसे  किसने कह दिया
 मुट्ठी भर लोगों की
 तकदीर का खुलासा
हाथ की लकीरें करती है।

समझते ही नहीं ये
खुद से गुस्साये
मुट्ठी भर  लोग ।



सतीश धर



व्यवस्था कभी भी आम आदमी को सुख नहीं दे पायी, बल्कि यह उस वक्त और भी खतरनाक हो जाती है जब वादे करके भूल जाती है। ईरान का एक बादशाह सर्दियों की शाम जब अपने महल में दाखिल हो रहा था तो एक बूढ़े दरबान को देखा जो महल के सदर दरवाज़े पर पुरानी और बारीक वर्दी में पहरा दे रहा था।
बादशाह ने उसके करीब अपनी सवारी को रुकवाया और उस ज़ईफ़ दरबान से पूछने लगा ;
"सर्दी नहीं लग रही ?"
दरबान ने जवाब दिया "बहोत लग रही है हुज़ूर ! मगर क्या करूँ, गर्म वर्दी है नहीं मेरे पास, इसलिए बर्दाश्त करना पड़ता है।"
"मैं अभी महल के अन्दर जाकर अपना ही कोई गर्म जोड़ा भेजता हूँ तुम्हें।"
दरबान ने खुश होकर बादशाह को फर्शी सलाम किया और आजिज़ी का इज़हार किया।
लेकिन बादशाह जैसे ही महल में दाखिल हुआ, दरबान के साथ किया हुआ वादा भूल गया।
सुबह दरवाज़े पर उस बूढ़े दरबान की अकड़ी हुई लाश मिली और करीब ही मिट्टी पर उसकी उंगलियों से लिखी गई ये तहरीर भी ;
"बादशाह सलामत ! मैं कई सालों से सर्दियों में इसी नाज़ुक वर्दी में दरबानी कर रहा था, मगर कल रात आप के गर्म लिबास के वादे ने मेरी जान निकाल दी-

ऐसा पहले भी कई बार हुआ
जब भी गहन अंधेरा पसरा है
चारों ओर
 उम्मीदों से लबरेज़
मुट्ठी भर  ये लोग करते रहे
 चांद-तारों की बात
और
ख़ुफ़िया दरवाज़े के   पहरेदार
तलाशते रहे   ठिकाना ।
उनकी सोच दबी रही  पहरेदारों की गुमटी में
और  हम खिलखिलाते रहे
सुल्तान के तोहफों पर ।

तुम ने  कैसे मान लिया
गिनती में हम कम हैं

मुट्ठी भर लोग ही  काफ़ी होते हैं
इतिहास बदलने के लिए ।

रिश्ते तो हमेशा भरोसे पर टिके रहते हैं। बाइबल में लिखा है, हम विश्वास के आधार पर चलते हैं, दृष्टि के नहीं। दरअसल विश्वास भी तो वादे पर टिका है, तो ज़ाहिर है वादा जान भी ले सकता है। कवि ने आग और बर्फ़ के बीच का नाज़ुक रिश्ता समझ लिया है, तो अब लगता है कि सम्बन्धों की गरमाहट देर तक बनी रह सकती है-

बर्फ़ के देश गए
उस शब्दों के जादूगर ने
आज ही समझाया नासमझ मौसम को
आग और बर्फ़ में
बहुत ही नाज़ुक रिश्ता होता है
आग से तपता अलाव
बर्फ़ से खिलती आग ।

सतीश धर यह भी जानते हैं कि सम्बन्धों की नाज़ुक रेशमी डोर टूटने का ख़तरा हमेशा बना रहता है। कवि कहता है-

धरती पर हंसी की ख्वाहिश में
ख्यालों में मुस्कुराते हैं पेड़
उन्हें क्या मालूम
कमज़ोर पत्तों के लिए
कितना खतरनाक होता है
हवा का एक झोंका ।

सतीश धर बारिश के मौसम में एक दिन महसूस करते हैं कि रोज़ कमा कर खाने वाला हाशिए से बाहर का आदमी आज भला क्या खाएगा। जबकि कवि इस मौसम में प्रेम गीत भी तो लिख सकता है। आज बारिश है और दरवाजे की चौखट पर उम्मीद बैठी है-

आज बारिश है
लबालब भरी हैं सड़कें
कंपकपाती ठंड ने  तोड़ दिए हैं
सारे भरम
जानती है साईकिल
उसके गीले जूतों में नहीं होती पालिश
न ही चमकती है क़िस्मत ऐसे मौसम में।

खाली पेट कैसे चलेगा
साईकिल का पहिया
दरवाज़े की  चौखट पर बैठी है
उम्मीद..
आज बारिश है
आज वह नहीँ आएगा ।

सतीश धर प्यासी नदी की बात करते हैं तो यह भी जताना नहीं भूलते कि एक सागर भी है लबालब भरा हुआ, जो आंखों में छुपाए रखा है। कवि की छोटी छोटी कविताएँ बहुत असरदार हैं-

आँख खुली तो देखा..
एक बूंद पानी को
तरस रही थी नदी
और मैं
आँखों में छिपाये
प्यार का अथाह साग़र
भटकता रहा
ख्यालों के वीरान जंगल में ।

सतीश धर की एक कविता हक़ की लड़ाई पर जम गई बर्फ़! कमाल की है। कवि ने संकेतों में बड़ी शानदार बात कही है-

जंगल में कभी हक़ की लड़ाई नहीं होती।
जंगल के राजा से डरती है प्रजा
जंगलराज में कोई जलसा-जुलूस नहीं
कोई नारा-धरना नहीं
बस  राजा से नज़र बचा कर
जीने की कशमकश।

ऐसा ही होता है
जब हक़ की लड़ाई
लड़ता थक जाता है  आदमी
और जंगल की प्रजा
उतर आती है बस्तियों में
समझाने
सर्द मौसम में हक़ की लड़ाई मुश्किल होती है इसलिए
दुबके रहने में भलाई है
जंगल का राजा
फ़रियाद के बहाने
कर रहा तलाश एक शिकार ।

आईना कविता में सम्वेदना के ताने बाने पर बात साफ़गोई से की गई है। कवि अपने शब्द न ज़ाया करता है और न ही बचाता है। वह शब्दों से खेलता है-

बहुत पुराने दुश्मन
जब दोस्ती की तलाश में
एक दूसरे के करीब आना चाहते हैं
आईना उनकी तक़दीर का खुलासा करता है ।

आईने की दरियादिली याद आती है खूब
जब चेहरे के निशां दिखा कर
सुनाता है किस्से एक लंबी यात्रा के ।

संवेदनहीनता हमारे अंदर कब अपना घर बसा ले पता ही नहीं चलता। सुबह भुंतर हवाई अड्डे के ऊपर से एक छोटा जहाज उड़ान भर रहा था तो नीचे हवाई अड्डे के पास सड़क पर एक आदमी एक काले रंग के कुत्ते को अपनी गाड़ी के नीचे घसीटते हए तेज़ रफ़्तार से निकल गया, यह बेज़ुबान मृत्यु को चकमा तो दे गया पर इसके रोने की तेज़ आवाज़ गाड़ी वाले के कानों तक नहीं पहुंची। कुछ समय बाद रोपा गांव में पहुंचा तो देखा एक आदमी एक भूरे रंग के कुत्ते को पिछली टांग से बांधे पुल पर से होते हुए खींचकर ले जा रहा है। अभी कुछ सोच पाता कि उसने रस्सी को झटका दिया और नीचे नदी किनारे फैंक दिया। वापिस लौटते हुए उसे मैंने पूछा, ठेकेदार जी यह क्या था?
गुरुजी कुत्ता पागल हो गया था।
अच्छा, कैसे पता चला?
ओ गुरुजी, मुझे खाया (काटा)।
ओह! तो इसलिये कुत्ते को गोली मार दी?
नहीं, डण्डे से मारा।
ओह! काटा किधर?
यहाँ टांग में।
ओह! दिखाओ, खून बह रहा होगा।
नहीं गुरुजी, बच गया, दांत नहीं चुभे।
यह सब सुनकर मुझे जैसे सदमा लगा। मुझे लगा कि वास्तव में यह आदमी पागल हुआ है। आगे जाकर सड़क से नीचे देखा तो सबसे अधिक वफादार कहे जाने वाला निरीह प्राणी बेसुध पड़ा था पत्थरों में। मेरे साथ खड़े अध्यापक जगदीश ने कहा, देखो यह थोड़ा थोड़ा हिल रहा है, अभी भी जिंदा ही है। दिन में केशव से बात हुई तो उन्होंने भी यही कहा कि यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है। अधिकतर लोग हिंसक हैं।
शाम को वापसी पर मन नहीं माना तो फिर सड़क से नीचे नज़र गई तो देखा कि उसका पेट थोड़ा थोड़ा अब भी हिल रहा है। पर वह लगभग मृत जैसा ही था। बचा पाना असम्भव था। दूर से देखा तो अपने स्कूल के बच्चों को उधर रुके देखा। दो बच्चे नीचे उतरकर पास से देखकर ऊपर लौट आए। उन्हें भी निराशा हाथ लगी। एक तसल्ली हुई कि बच्चों में सम्वेदनशीलता अभी ज़िन्दा है।आज का दिन बेचैनी भरा रहा है। रात भर सो नहीं पाऊंगा।
एक कवि कुछ यूं सोचता है-

इस पृथ्वी के तमाम जीवों पर
खोजबीन जारी है

उनके सोने- जागने
 जीने-मरने
औऱ
हंसने-रोने पर
सोचता है एक कवि ।

मैं सोचता हूँ कि क्या सच में संवेदनशील होना हिम्मत का काम है-

अपनी हंसी छोड़कर
अपने दुःखों को समेट
दूसरों के दुःख में शामिल होना
उसे महसूस करना
हिम्मत का काम है।

हिम्मत से शब्द जुटा कर
लिखी जाती है जैसे कविता
उसी साहस से ही भोगा जाता है
दूसरों का दुख ।

कवि ने इस कठिन समय में भी आस नहीं छोड़ी है। छोड़े भी क्यों? आस पर संसार टिका है। बच्चों पर कवि को विश्वास है, उनकी भाषा पर उम्मीद है-

बहुत कुछ है इस बालकनी में
मेरे
तुम्हारे और
उसके लिए l
मेरे लिए
फूलों से भरे गमले
तुम्हारे लिए
चाय की चुस्कियों पर
घर संसार की चर्चा
और
उसके लिए
चिड़िया के अब बालकनी में ना आने की परेशानी l
मत उदास हो
मेरे बच्चे!
वो जो आकाश में उड़ रही है
चिड़िया
ज़रूर आयेगी तुम्हारे पास
ख़ुशी के नए तराने सुनाने
बस तुम उठो
उसे बुला कर कहो:
चिड़िया आ
चिड़िया आ
दाना खा
दाना खा ।

सतीश धर की कविताओं में अलग अलग रंग हैं, विश्वास, सरोकार, सम्बन्ध, प्रेम, उम्मीद, सपने, सुख, दुःख आदि आदि-

एक दिन मैंने उससे पूछा:
प्रेम क्या होता है।?
वह पहले हंसी
फिर आंखें भर आईं
बोली:
करके देखो।

एक दिन मैंने उससे पूछा:
नफरत क्या होती है?
उसकी आँखें भर आईं
औऱ हंस कर बोली;
अपने दिल से पूछो ।।
०००

गणेश गनी



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हमें दंगों पर कविता लिखनी है
गणेश गनी


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