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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

30 जुलाई, 2014

रोबो


                                                         

                                                              एस.आर. हरनोट

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एक आदमी नेता बन गया। कुछ दिनों बाद उसकी ताजपोशी मंत्री के पद पर हो गई। उसे लगने लगा कि अब वह दुनिया का सबसे खुश और ताकतवर प्राणी है। कुछ दिनों बाद उसके साथ अजीबोगरीब घटनाएँ घटने लगीं। उसे हर कहीं नींद आ जाती और तरह-तरह के भयानक सपने दिखने लगते। रात-दिन वह कई तरह के भय से परेशान रहने लगा था।
स्वप्न में कभी उसे लगता कि जिस कार से वह दौरे पर जा रहा है, वह अचानक दुर्घटनाग्रस्त हो गई है या उसमें किसी उग्रवादी या विपक्षी दल के आदमी ने बम रख दिया है और रिमोट से कार के परखचे उड़ा दिए है - और कभी उसे यह भी नजर आता कि वह खुद ही अपने जिस्म के लीथड़ों को इकट्ठा कर रहा है।
कभी जब वह अपने दफ्तर में काम कर रहा होता तो अचानक कुर्सी पर बैठे ही उसे नींद आ जाया करती। तब उसे यह लगता कि उसके सुरक्षा गार्ड, चपरासी और निजी स्टाफ के कर्मचारी किसी दूसरे देश से आए जासूस या उग्रवादी हैं। उन सभी के पास एके-47 हैं और वे उसकी हत्या करने के लिए उसके पीछे दौड़ रहे हैं।
मंत्री को सपने में यह भी दिखता कि जिस जनसभा में वह भाषण दे रहा है, अचानक एक-दो नकाबपोश भीड़ को चीरते हुए उसकी तरफ दौड़े आ रहे हैं। उन्होंने उस पर धड़ाधड़ गोलियाँ बरसा दी हैं और वह वहीं ढेर हो गया है।
अपने कमरे में आराम फरमाते कभी वह अचानक चीखने लगता। उसे कमरे की दीवारें, खिड़कियाँ और सारा सामान हिलता नजर आता। फर्श और छतें गिरतीं-ढहतीं लगने लगतीं। जैसे भयानक भूकंप आ गया हो, बादल फट गए हों या फिर उसके ऊपर आसमानी बिजली गिर पड़ी हो। कभी नजर आता कि किसी नदी में भयंकर बाढ़ आ गई हो और वह अपने मकान, सरकारी कार और बच्चों वह प्रेमिकाओं सहित उसमें बह गया हो।
कभी वह सपने में ही सख्त बीमार हो जाता। उसे लगता कि वह दिल की बीमारी से मर रहा है। कैंसर से जूझ रहा है। एड्स ने उस पर हमला कर दिया है। उसकी साँस फूलने लगी है। उसे दमा हो गया है। वह पीलिया से ग्रस्त है। उसके हाथ, बाजू, और टाँगें अधरंग से टेढ़ी-मेढ़ी हो गई हैं।
कभी उसे लगता कि उसके अंग अपनी जगह पर नहीं है। जहाँ नाक होना चाहिए वहाँ कान उग गए हैं, जहाँ कान होने चाहिए वहाँ आँखें लग गई हैं और सिर टाँगों के बीच लटका हुआ है। कई बार चलते-फिरते, महत्वपूर्ण बैठकों में भाग लेते हुए भी उसे महसूस होता कि उसके गले में किसी ने एक ढोलकी टाँग दी है और वह हिजड़ों के बीच नाचने लगा है।
इस स्वप्न-संभ्रम ने उसे अंदर से हिला सा दिया था। इसे न तो वह किसी के सामने प्रकट कर पाता और न तत्काल ऐसी विचित्र मनोस्थिति से निजात पाने का उसे कोई उपाय ही सूझता। उसने इस संकट का गहराई से विश्लेषण किया था। सोचा कि वह तो एक मंत्री है। आम आदमी नहीं है। कोई डर या भय उसके नजदीक कैसे आ सकता है। यकीनन वह ऐसी पोजीशन में है कि अपनी सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम कर सके। क्योंकि अगर वह सुरक्षित है तो उसका घर, उसकी गृहस्थी सुरक्षित है, जनता सुरक्षित है, प्रदेश तथा देश दानों सुरक्षित हैं। इसलिए उसने इस भय को मूल से समाप्त करने के उपाय ढूँढ़ने शुरू कर दिए।
पहला उपाय कार दुर्घटना से बचने का किया गया। विदेश से ऐसी कार मँगवाई गई जिस पर देशी मौसम, गोला-बारूद, ईंट-पत्थर का कोई प्रभाव न पड़ सके। इसी के साथ उसने अपने लिए बुलेट प्रूफ गांधी टोपी, नेहरू-कट सदरी, कुरता-पायजामा और बूट भी मँगवा लिए थे।
दूसरे उपाय थे भूकंप इत्यादि से बचने के लिए सुरक्षा। उसने अपने लिए एक ऐसी कोठी बनवाई जिसके निर्माण के लिए विदेशी इंजीनियर और कारीगर लाए गए। उसमें हजारों-लाखों टन लोहा कूटा-भरा गया। यानी अपने क्षेत्र की मीलों लंबी रेल पटरियाँ, सिंचाई योजना की पाइपें, स्कूलों, स्वास्थ्य केंद्रों तथा दूसरे भवनों में लगनेवाला सरिया, सीमेंट, रेत और बजरी सब उस मकान में खपा लिए गए। इस आलीशान कोठी में कई तरह के अत्याधुनिक उपकरण भी लगाए गए थे जो भूकंप आने, बादल फटने या बाढ़ आने की पूर्व सूचना देने में सक्षम थे।
मंत्री ने तीसरा उपाय अपने सुरक्षाकर्मियों, निजी स्टाफ इत्यादि के अचानक आक्रमण से बचने का भी कर दिया। उस विदेशी कार के साथ कई रोबोगार्ड और रोबोडॉग तैनात थे जो हर समय मंत्री महोदय के साथ रहते थे।
चौथे विकल्प के तहत थे बीमारियों से निजात पाने के उपाय। देशी डाक्टरों के बजाय कई विदेशी डाक्टर नियुक्त कर लिए गए थे। उन्हे अपनी कोठी और दफ्तर के आसपास रखा गया था। मंत्री सदा जवान बना रहे उसके लिए दूसरे महकमों के साथ उसने अपने मंत्रालय के साथ स्वास्थ्य विभाग भी नत्थी कर लिया था।
यानी सपनों में जो भी चीजें मंत्री को भयाक्रांत करती रहतीं थीं उनसे तत्काल निजात पाने का वह उपाय ढूँढ़ ही लेता। जो भी धन अपने राज्य की योजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए आबंटित होता उसे वह सहज ही इन उपायों पर खर्च कर डालता। इन उपायों को अमल में लाते-लाते उसकी सरकार के पाँच साल निकल ही गए। उसे न अपने परिवार की फिक्र रही, न गाँव की, न जनता और अपने प्रदेश व देश की। सुरक्षा के इन उपायों के बीच उसे पता भी न चला कि कब चुनाव आ गए। कुछ चमचे किस्म के लोग जरूर मंत्री के साथ आगे-पीछे रहते जिनका सारा दाना-पानी उसकी ही बदौलत चलता था।
मंत्री जैसे अब गहरी नींद से जागा था। अपने चारों तरफ के सुरक्षा कवच को देखा और मन ही मन मुस्करा दिया। दूसरे पल चुनाव का खयाल आया तो जैसे कबाब में हड्डी पड़ गई। उसने एक भद्दी गाली अपने देश की जनता को दी जिसके पास वोट माँगने जाना उसकी मजबूरी थी। उसे विश्वास था कि उसके पास इतने साधन है कि वह अपने जीतने योग्य वोटें तो अर्जित कर लेगा।
बहरहाल, वह दौरे पर निकल पड़ा। हालाँकि उसके पास विदेशी कार थी, रोबोगार्ड और रोबोडॉग थे। बुलेटप्रूफ टोपी, सदरी, कुरता पायजामा और बूट थे। लेकिन जनता यकीनन रोबो नहीं थी। वो तो वही नंगे-भूखे लोग थे। रास्ते में मंत्री कहीं भी कार से नहीं उतरा। जब अपना गाँव आया तो उतरना पड़ा। अब तक लोगों की बुरी हालत हो चुकी थी। उनके पास न रोटी थी, न मकान थे और न तन ढँकने के लिए कपड़ा। जो सामान्य जन सुविधाएँ लोग चाहते थे, वे सभी नदारद थीं। इसलिए जनता में रोष था। मंत्री जानता था कि लोगों के पास रोष व्यक्त करने के लिए कुछ भी नहीं है। न तो ये भूकंप ला सकते हैं, न बाढ़ें, न इनके कहने से बादल ही फट सकते हैं। न इनके पास ए-47 ही है। वैसे भी नंगों-भूखों के पास होता ही क्या है, यह बात मंत्री बखूबी जानता था। पर हुआ कुछ और ही। पल भर में मंत्री की यह धारणा गलत सिद्ध हो गई। जनता ने मंत्री को कई तरह से भयाक्रांत कर दिया।
एक मोची ने मंत्री पर चमड़ेवाला पानी फेंक दिया। एक नाई ने काटे हुए बालों का टोकरा उस पर उड़ेल दिया। एक लक्कड़हारे ने उस पर एक ऐसी लकड़ी फेंकी जिसे कोई भी अपने चूल्हे में जलाता नहीं था। एक किसान ने अपने हल, मोई और जुंगड़े की रस्सियाँ और जोच मंत्री पर डाल दिए। अभी वह सँभला भी नहीं था कि एक दुकानदार सामने से आया और अपनी तकड़ी उसकी कार के आगे पटक दी। मंत्री और उसके चमचों को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। तभी गाँव का एक लुहार भागता हुआ आया और उस पर अपने आरन की राख बिखेर दी। एक जुलाहे ने अपना राछ और एक तुरी ने अपना ढोल उसके आगे फेंक दिया। एक पंडित ने जय श्री राम बोला और अपनी चोटी काट कर मंत्री के मुँह पर दे मारी। एक ठाकुर-कनैत ने अपनी मूँछें मुँड़वाई और खेत की मुँड़ेर के उपर से मंत्री की गांधी टोपी पर झाड़ दी। एक युवा बेरोजगार ने अपने उपर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगा दी। एक भूखा-नंगा बच्चा कहीं से आया, दीवाल पर खड़ा हुआ और मंत्री पर मूत दिया। एक सुंदर लड़की ने उसके सामने अपने कपड़े फाड़ दिए और निपट नंगी हो गई। फिर एक सुहागिन आई और उसने अपने दाएँ बाजू की चूड़ियाँ पत्थर पर हाथ पटक कर तोड़ डालीं जिनकी बारीक किरचें मंत्री और चमचों की आँखों में घुस गईं। इससे पहले कि मंत्री अपनी कार में घुसता, एक बुढ़िया ने उस पर थूक दिया।
मंत्री के गाँव से भागने से पूर्व कुछ और अप्रत्याशित घटनाएँ घटीं। एक कौवे ने सूखे पेड़ की टहनी पर से कार पर बीट कर दी दी। एक काली बिल्ली ने उसका रास्ता काट दिया और एक कुत्ते ने जोर से अपने कान फड़फड़ा दिए।
कार धूल उड़ाती भाग निकली लेकिन मंत्री गाँव के इस अनूठे और चकित कर देने वाले आघातों को नहीं सह पाया क्योंकि उसे इस तरह के स्वप्न कभी भी पिछले पाँच सालों में नहीं दिखे थे और न ही उसने इस तरह की घटनाओं की कभी कल्पना तक की थी। वह सोच रहा था कि जब उसके अपने गाँव में ये सब कुछ घट गया तो अभी तो उसका अपना पूरा चुनाव क्षेत्र है जहाँ पता नहीं और क्या कुछ हो सकता है।
मंत्री अपनी सुरक्षित कोठी में था। परंतु उसे अब पहले के सपनों से अलग सपने दिखने शुरू हो गए थे। वह पहले की तरह ही हर कहीं सो जाता... घर में, दफ्तर में, अपनी कार में, उठते-बैठते, चलते-फिरते, खाते-पीते, नहाते-हगते...। उसको दिखता कि मोची, नाई, ठाकुर, दुकानदार, लुहार, किसान, लक्कड़हारा सब बारी-बारी से उसके पीछे भाग रहे हैं। यानी जो कुछ भी उसके साथ गाँव में घटा था वह अब कुछ दूसरे रूप में सपनों में आने लगा था। ऐसा ही कुछ-कुछ उन सभी चमचों के साथ भी होने लगा था जो मंत्री के साथ थे। इस भय का कोई उपाय-इलाज मंत्री को नजर नहीं आ रहा था। उसे जब ये सपने दिखते तो वह कभी अपनी कोठी के बंकर में घुस जाता, कभी अपनी बुलेट प्रूफ कार में, तो कभी विदेशी डाक्टरों के मकानों में, परंतु इससे छुटकारा पाना अब उसके लिए सचमुच मुश्किल हो गया था।
इस भय से मंत्री कहीं पहले से ज्यादा परेशान भी था। अधिक घबराया हुआ। इस भय ने उसे भीतर ही भीतर जला दिया था... मार दिया था... वह लाखों-करोड़ों रुपयों की संपत्ति का मालिक होते हुए भी अपनी सुरक्षा के इस नए भय से मुक्ति के लिए कोई जतन नहीं करवा पा रहा था। वह भय भी अब न जाने कितनी बद्दुआओं में तब्दील हो चुका था।
और ऐसे हालात का मारा मंत्री एक दिन अपने ही बाथरूम में मृत पाया गया।
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ज़र लग गई है






 
ज़र लग गई है
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 नईम

नज़र लग गई है
शायद आशीष दुआओं को
रिश्ते खोज रहे हैं अपनी
चची, बुआओं को

नज़रों के आगे फैले बंजर, पठार हैं
डोली की एवज अरथी ढोते कहार हैं
चलो कबीरा घाटों पर स्नान ध्यान कर-
लौटा दें हम महज शाब्दिक
सभी कृपाओं को

सगुन हुए जाते ये निर्गुन ताने-बाने
घूम रहे हैं जाने किस भ्रम में भरमाने?
पड़े हुये क्यों माया ठगिनी के चक्कर में
पाल रहे हैं
बड़े चाव से हम कुब्जाओं को

रहे न छायादार रूख घर, खेतों, जंगल
भरने को भरते बैठे घट अब भी मंगल
नदियां सूख रही
अंतस बाहर की सारी-
सूखा रोग लग गया शायद सभी प्रथाओं को।
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काशी साधे नहीं सध रही
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 नईम


काशी साधे नहीं सध रही
चलो कबीरा!
मगहर साधें

सौदा-सुलुफ कर किया हो तो
उठकर अपनी
गठरी बांधें
इस बस्ती के बाशिंदे हम
लेकिन सबके सब अनिवासी,
फिर चाहे राजे-रानी हों -
या हो कोई दासी,
कै दिन की लकड़ी की हांडी?
क्योंकर इसमें खिचड़ी रांधें

राजे बेईमान
बजीरा बेपेंदी के लोटे,
छाये हुये चलन में सिक्के
बड़े ठाठ से खोटे
ठगी, पिंडारी के मारे सब
सौदागर हो गये हताहत
चलो कबीरा!

काशी साधे नहीं सध रही,
तब मगहर ही साधें

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Prastuti: AMITABH MISHRA

29 जुलाई, 2014

गाजा नरसंहार , फिलिस्‍तीनी जनता का महाकाव्‍यात्‍मक प्रतिरोध और इनके ऐतिहासिक निहितार्थ



                                                                      कात्यायनी

आम नागरिकों और मासूम बच्चों की हत्या हार की बदहवासी में बर्बर आक्रान्ता करते हैं गाजा की ही तरह लेबनान में भी इस्रायली जियनवादियों ने नागरिकों और बच्चों का नरसंहार किया था, पर अंतत: उसे वहां अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा था। जो लेबनान में हुआ था, वही गाजा में आज हो रहा है।

गाजा में जल रही प्रतिरोध संघर्ष की आग अब पूरे फिलिस्तीन में फैल गयी है। कल पश्चिमी तट के 50000 फिलिस्तीनियों ने रामल्ला से यरूशलम तक मार्च किया। सात लोगों की हत्या और कई को जख्मी करने के बावजूद इस्रायली सेना उन्हें रोक नहीं सकी। पूरे फिलिस्तीन में तीसरे इन्तिफादा की शुरूआत हो चुकी है जो सच्चाई पूरी दुनिया में बार- बार प्रमाणित हुई है और फिलिस्तीन में पिछले 66 वर्षों के दौरान बार-बार स्थापित हुई है, वही एक बार फिर गाजा में उभरकर सामने आयी है कि बर्बरतम दमन भी मुक्तिकामी जनता के हौसलों को तोड़ नहीं सकता। दुनिया के सबसे संहारक हथियारों के जखीरे भी जन प्रतिरोध के सागर में डूब जाते हैं।

फिलिस्तीन में जन- प्रतिरोध के जिस नये चरण की शुरुआत हुई है, वह पूरे अरब जगत में एक नये परिवर्तनकारी उथल-पुथल भरे दौर का प्रस्थान बिन्दु बनने वाला है। अरब देशों के शेख और शाह तथा अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ नत्थी सरकारें एक स्वतंत्र फिलिस्तीन के अस्तित् से हमेशा ही आतंकित रहती आयी हैं। उन्हे यह भय सताता रहता है कि फिलिस्तीनी मुक्ति की प्रेरणा से उनके देशों में भी जनता उनकी भ्रष्-निरंकुश सत्ताओं के खिलाफ उठ खड़ी होगी। इसलिए वे हमेशाफिलिस्तीनी लक्ष् के साथ विश्वासघात करते आये हैं। दूसरी ओर अरब देशों की जनता की फिलिस्तीनियों के साथ हमेशा से गहरी सहानुभूति और एकजुटता रही है। सउदी अरब, कतर, कुवैत और जार्डन के शाहों-शेखों से लेकर मिस्र के राष्ट्रपति अल सिस्सी तक को पिछले दिनों अरब देशों में आये जनउभार का भूत लगातार सताता रहता है। उन स्वत:स्फूर्त जनउभारों के दबाव को दमन, दुरभिसंधियों , बिखरे हुए नेतृत् के अन्तरविरोधों को उभारने और उनमें अपने एजेण् घुसाने की शातिराना चालों और बुर्जुआ संसदीय चुनावों का स्वांग रचकर विसर्जित तो कर दिया गया, लेकिन साम्राज्यवादी डकैत और अरब शासक यह भली-भांति जानते हैं कि सतह के नीचे आग अभी भी धधक रही है। पूरा मध्यपूर्व एक टाइम बम बना हुआ है।
गाजा नरसंहार के विरोध में समूचे मध्यपूर्व में जनता जैसे सड़कों पर उतर पड़ी, उससे अरब शासकों में आतंक फैल गया। उनकी दिली ख्वाहिश थी कि फिलिस्तीनी प्रतिरोध को जियनवादी कुचल दें, और इससे समूची अरब जनता को एक संदेश जाये। लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो वे बदहवास हो गये फिलिस्तीन के पक्ष में सड़कों पर उमड़ी भीड़ ने उन्हे बाध् कर दिया कि वे इस्रायली हमले के विरोध में कम से कम जुबानी जमा खर्च करें। इस बीच मिस्र के राष्ट्रपति अल सिस्सी ने '' शान्ति के मसीहा'' का चोगा पहनकर एक युद्ध-विराम प्रस्ताव रखा जो वास्तव में गाजा के लोगों के लिए एक अपमानजनक आत्मसमर्पण का प्रस्ताव था। इस प्रस्ताव को हमास ने ठुकरादिया और अपने पुराने युद्धविराम प्रस्ताव की याद दिलाते हुए यह सवाल उठाया कि इस्रायल 2012 में जो करार कर चुका है, उसका भी पालन क्यों नहीं करता? हमास के तर्कों का सोशल मीडिया और दुनिया भर के बुद्धिजीवियों के जरिए काफी प्रचार हुआ और अल सिस्सी की गद्दारी और अधिक नंगे रूप में सामने आयी। अरब जनता के सामने पहले से ही यह स्थिति स्पष् है कि गाजापट्टी की चौतरफा घेरेबंदी और इस्रायल की रोज-रोज की उकसावेबाजी की कार्रवाइयां समाप् किये बिना , निर्दोष फिलिस्तीनी बंदियों की रिहाई के बिना और एकता सरकार बनने की राह में इस्रायल द्वारा डाली जा रही बाधाओं को समाप् किये बिना युद्धविराम का कोई मतलब नहीं बनता। यह जनसमुदाय का दबाव ही था जिसके चलते गाजा की मिस्र से लगी सीमा की सीलबंदी में ढील देते हुए पिछले दिनों अल सिस्सी ने मानवीय सहायता ले जा रही स्वयंसेवकों की एक टीम को मिस्र के रास्ते गाजा में प्रवेश की इजाजत दे दी।

गाजा की जनता के बहादुराना प्रतिरोध ने अमेरिकी मध्यस्थता में जियनवादियों से समझौता करके सरकार चला रहे वर्तमान पी.एल.. नेतृत् की रीढ़विहीनता और घुटनाटेकू रवैये को भी और अधिक बेनकाब कर दिया है। पश्चिमी तट पर कल से जिस व्यापक जनउभार की शुरूआत हुई है, उससे यह स्पष् हो गया है कि आने वाले दिनों में वर्तमान पी.एल.. नेतृत् अपनी रही-सही साख भी खोकर ज्यादा से ज्यादा अप्रासंगिक होता चला जायेगा और जनसंघर्षों की कोख से नया जुझारू नेतृत् जन् लेगा।

गाजा के बहादुराना प्रतिरोध ने इस्रायल के भीतर भी एक बड़ा बदलाव पैदा किया है। नस्ली जुनून पैदा करने की जियनवादी शासकों की तमाम कोशिशों के बावजूद पहली बार इतने बड़े पैमाने पर इस्रायल की यहूदी आबादी के एक अच्छे-खासे हिस्से ने, जो कि अमनपसंद है, सड़कों पर उतरकर गाजा नरसंहार का विरोध किया है, गाजा की एक दशक से जारी घेरेबंदी को समाप् करने की मांग की है तथा अनधिकृत क्षेत्रों में यहूदी बस्तियां बसाने का विरोध करते हुए फिलिस्तीन की आजादी के पक्ष में आवाज उठायी है। यहां तक कि बहुतेरे अवकाशप्राप् सैनिकों ने भी इस्रायल की इस एकतरफा नरसंहारी लड़ाई के दौरान 'रिजर्व ' की भूमिका निभाने से मना कर दिया है।

गाजा के नरसंहार और उसके शौर्यपूर्ण जन- प्रतिरोध ने इराक, लीबिया, सीरिया और मिस्र की घटनाओं के बाद समूचे मध्यपूर्व को एक नयी डिजाइन में ढालने की अमेरिका और नाटो की परियोजना को भी पलीता लगाने का काम किया है। मध्यपूर्व की तेल सम्पदा पर अपना कब्जा बरकरार रखने के लिए ही अमेरिका और पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने प्रत्यक्ष सैनिक हस्तक्षेप करके और धार्मिक कट्टरपंथी ग्रुपों को भरपूर मदद देकर इराक और लीबिया में तख्तापलट करवाये और सीरिया में गृहयुद्ध उकसाया। इसी उद्देश् से इन ताकतों ने अरब देशों के जनउभारों को कुचलने तथा उनमें फूट पैदा करके और अपने एजेण् घुसाकर उन्हे विपथगामी बनाने और विसर्जित करने का काम किया। सीरिया और इराक के एक बड़े हिस्से पर कब्जा जमाकर खुद को नया खलीफा घोषित करने वाला आतंकवादी संगठन आई.एस.आई.एस. का सरगना अल बगदादी दरअसल एक अमेरिकी एजेण् है जिसने सी.आई.. और मोसाद से प्रशिक्षण हासिल किया है। सी.आई.. के पूर्व कर्मचारी स्नोडेन के ताजा खुलासे ने इस सच्चाई को पुष् कर दिया है। तरह-तरह के इस्लामी कट्टरपंथी गिरोहों को शह देकर जन-प्रतिरोध संघर्षों को विखण्डित-दिग्भ्रमित और विसर्जित करने का यह अमेरिकी नुस्खा पुराना है, जो अफगानिस्तान में और अरब देशों में पहले भी आजमाया जा चुका है। अफगानिस्तान में सोवियत साम्राज्यवाद-विरोधी जन प्रतिरोध को गलत दिशा में ले जाने के लिए वहां धार्मिक कट्टरपंथी गिरोहों को अमेरिका ने शह दिया। नजीबुल्ला सरकार के पतन के बाद इन गिरोहों के आपसी संघर्षो ने जब वहां गृहयुद्ध की स्थिति पैदा कर दी तो अमेरिका ने पाकिस्तान में तालिबानों के दस्ते तैयार किये और अल कायदा का तालिबान के साथ गंठजोड़ तैयार करके उन्हें अफगानिस्तान में घुसाया। जब अमेरिकी उद्देश् पूरा हो गया और ये धार्मिक कट्टरपंथी गिरोह अमेरिका के लिए ही भस्मासुर की भूमिका निभाने लगे तो इन्हे किनारे लगाकर अमेरिका ने अफगानिस्तान में अपने पिट्ठू और पूर्व सी.आई.. एजेण् करजई को सत्ता में बिठा दिया। धार्मिक कट्टरपंथी गिरोहों को शह देकर प्रतिरोध संघर्षों को फूट और विसर्जन का शिकार बनाना अमेरिका और सभी पश्चिमी साम्राज्यवादियों का पुराना आजमूदा नुस्खा है। जब इन गिरोहों का काम पूरा हो जाता है तो अमेरिका इन्हे जोर-शोर से ''आतंकवादी'' बताने लगता है और सारी सहायता बंद करके ठिकाने लगाने में लग जाता है। धार्मिक कट्टरपंथी जुनून की अपनी गति होती है। कालान्तर में वह साम्राज्यवादियों की इच्छा से स्वतंत्र आचरण करने लगता है और उनके लिए भस्मासुर बन जाता है। तब साम्राज्यवादी उन्हे ठिकाने लगा देते हैं और आसानी से ''जनतंत्र बहाली'' के नाम पर देश-विशेष में अपनी पिट्ठू सरकार स्थापित कर देते हैं। वर्तमान समय में अमेरिका की नीति पूरे मध्-पूर्व में शिया-सुन्नी-कुर्द-दुर्ज-ईसाई आबादी के बीच आत्मघाती-भ्रातृघाती गृहयुद्धों जैसी स्थिति पैदा कर देने की है ताकि साम्राज्यवाद और देशी बुर्जुआ सत्ताओं के विरुद्ध एकजुट जन प्रतिरोध की विकासमान सम्भावनाओं को नष् किया जा सके। बाद में गृहयुद्ध जैसी स्थिति में मसीहा बनकर प्रवेश करना और शांति-स्थापना और जनतंत्र-बहाली के नाम पर अपने ऊपर निर्भर कमजोर बुर्जुआ सत्ताएं स्थापित करके अपना उल्लू सीधा करना -- यही अमेरिका की वर्तमान मध्यपूर्व नीति है और फिलहाल अल बगदादी इसका मुख् मोहरा है। लेकिन गाजा नरसंहार के शौर्यपूर्ण प्रतिरोध के पक्ष में पैदा हुई सर्व अरब जन-एकजुटता की भावना ने अमेरिकी मंसूबों पर फिलहाल काफी हद तक पानी फेर दिया है। हालांकि अल बगदादी की मुहिम जारी है। लेकिन आम अरब जनता में एक बार फिर साम्राज्यवाद विरोधी एकजुटता की लहर हिलोरें मारने लगी है। यह सवाल अरब जगत में सड़कों पर उठने लगा है कि दुनिया भर के मुस्लिमों के खलीफा होने का दावा करने वाला अल बगदादी गाजा के मसले पर चुप क्यों है और ठीक इसी समय इराक में गृहयुद्ध छेड़कर अमेरिका और इस्रायल के पक्ष को मजबूत क्यों कर रहा है? नये '' खलीफा'' की खिलाफत एक प्रहसन बन चुकी है। अल बगदादी के द्वारा अमेरिकी मध् पूर्व और खाड़ी क्षेत्र में अपनी जिस नयी डिजाइन को अमली जामा पहनाने की जमीन तैयार कर रहा था, उस पर गाजा के बहादुर फिलिस्तीनियों की कुर्बानियों ने काफी हद तक पानी फेर दिया है।

गाजा नरसंहार और उसक अदम् प्रतिरोध के इन दिनों ने आने वाले दिनों में विश् राजनीतिक परिदृश् में होने वाले कुछ अहम बदलावों के पूर्वसंकेत भी दिये हैं और इन बदलावों को प्रारम्भिक संवेग देने में एक अहम भूमिका भी निभायी है। गत शताब्दी के साठ और सत्तर के दशकों के दौरान जब ख्रुश्चोवी संशोधनवाद की लहर के ऐतिहासिक प्रतिगामी प्रभाव के बावजूद राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों की लहर ऊफान पर थी और माओकालीन चीन में लगातार प्रगतिपथ पर अग्रसर नये-नये समाजवादी प्रयोग पूरी दुनिया के मुक्तिकामी जनों को प्रभावित कर रहें थे, तब वियतनामी मुक्तियुद्ध के पक्ष में , समूचे हिन्दचीन और कोरियाई प्रायद्वीप में अमेरिकी साम्राज्यवादी सामरिक हस्तक्षेप के विरोध में, क्यूबा की क्रान्ति को कुचलने की अमेरिकी साजिशों के विरोध में, . अफ्रीका में जारी रंगभेदवादी सत्ता विरोधी मुक्ति संघर्ष तथा नामीबिया, जिम्बाब्वे, अंगोला आदि अफ्रीकी देशों में जारी मुक्तिसंघर्षों के पक्ष में, ईरान और निकारागुआ की क्रान्तियों को कुचलने की अमेरिकी कोशिशों के विरोध में तथा फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के पक्ष में पूरी दुनिया के बड़े- बड़े जन प्रदर्शनों का होना आम बात थी। अमेरिका और यूरोप के मध्यवर्गीय युवा 1960 के दशक में जब अपनी बुर्जुआ व्यवस्थाओं के विरुद्ध अराजक रूमानी विद्रोह के रास्ते पर थे, तब वे वियतनामी क्रान्ति , क्यूबा की क्रान्ति, फिलिस्तीन और चीन के पक्ष में भी मुखर होकर आवाज उठाते थे। माओ और चे के बिल्ले लगाना पश्चिमी विद्रोही युवाओं में आम बात हुआ करती थी। उस दौर के बाद स्थितियों में भारी बदलाव आये चीन में 1976 में माओ की मृत्यु के बाद हुई पूंजीवादी पुनर्स्थापना , तीसरी दुनिया के देशों में राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों की विजय के बाद स्थापित देशी बुर्जुआ सत्ताओं के क्रमश: भ्रष् और निरंकुश रूप में सामने आते जाना , गोर्बाचोव का ग्लासनोस् पेरेस्त्रोइका और फिर सोवियत संघ तथा उसके खेमे के विघटन के बाद एकछत्र अमेरिकी चौधराहट में पूरी दुनिया में नवउदारवादी नीतियों का फैलाव -- इस घटनाक्रम विकास ने बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दो दशकों के दौरान यह सिद्ध कर दिया कि इतिहास की प्रगतिमुखी धारा फिलहाली तौर पर विपर्यय के भंवर में जा फंसी है। गत शताब्दी के सातवें दशक के अंत में क्रान्ति की लहर पर प्रतिक्रान्ति की लहर हावी हो गयी और अंतिम दशक तक उसने अपना निर्णायक वर्चस् स्थापित कर लिया हालांकि जनता के संघर्ष कभी रुके नहीं(रुकते भी नहीं), लेकिन प्रतिकूल वैश्विक परिवेश में वे पराजित और विसर्जित होते रहे। इस दौरान भी , अपने नेतृत् के मुख् हिस्से की गद्दारी और आत्मसमर्पण के बावजूद फिलिस्तीनी जन अपनी मुक्ति के लिए लड़ते रहे। पहले और दूसरे इन्तिफादा जैसे अभूतपूर्व जनउभार इसी प्रतिकूल वैश्विक परिवेश में हुए। नयी शताब्दी में , हालांकि प्रतिक्रान्तिकारी लहर हावी बनी रही, लेकिन कुछ ऐसी घटनाएं भी घटीं जिन्होंने आने वाले दिनों के पूर्वसंकेत दे दिये। एक, लातिन अमेरिका में साम्राज्यवाद विरोधी जन- प्रतिरोध की लहर ने नवउदारवाद के सामने चुनौती पेश करने की शुरुआत कर दी। दूसरे, विश् पूंजीवाद के असाध् ढांचागत संकटों का विस्फोट पहले दशक के उत्तरार्द्ध में अमेरिका और यूरोप में गम्भीर मंदी के रूप में हुआ और दशकों बाद ऐसा हुआ कि भारी जन सैलाब सड़कों पर उमड़ पड़ा। साथ ही जो चीन पूंजीवादी मानकों से सबसे तेज गति से विकसित हो रहा था, वहीं आम जनता का प्रतिरोध भी सबसे तेजी से विकसित हुआ। रूस और पूर्वी यूरोपीय देशों में भी आर्थिक संकट ने सामाजिक संकट का रूप ले लिया। तीसरी बात, विश् पूंजीवाद के गहराते संकट के दौर  में विश् बाजार में भागीदारी के लिए अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा फिर से मुखर होने लगी है, नये अन्तरराष्ट्रीय समीकरण बनने लगे हैं तथा रूस और चीन अपना नया ब्लाक बनाकर अमेरिकी वर्च्रस् को चुनौती देने की तैयारियों में लग गये हैं।

इसी बदलते विश् परिवेश में गाजा का नया घटनाक्रम विकसित हुआ है और लगभग चार दशकों बाद ऐसा नजारा सामने आया है कि पूरी दुनिया के सैकड़ों शहरों में लाखों लाख लोग जियनवादी नस्ली नरसंहार का विरोध करते हुए गाजा के संघर्षरत लोगों के पक्ष में सड़कों पर उतर आये हैं। फिलिस्तीनी मुक्ति के पक्ष में यह अन्तरराष्ट्रीय एकजुटता अपने आप में बहुत कुछ बताती है। इसके महत्वपूर्ण ऐतिहासिक निहितार्थ हैं। इसमें भविष् के अहम पूर्वसंकेत छिपे हुए हैं।

पश्चिमी देशों के शासक स्वयं अपने देशों की जनता के इन विरोध-प्रदर्शनों से हैरान-परेशान हैं मध्यपूर्व और फिलिस्तीन को लेकर उनकी आम सहमति टूटने लगी है और उनमें मतभेद पैदा होने लगे हैं। अमेरिका की यहूदी आबादी का एक हिस्सा भी जियनवाद का विरोध करने लगा है और परम्परागत रूप से डेमोक्रेटिक पार्टी का समर्थक और इस्रायल को बढ़-चढ़कर वित्तीय मदद देने वाला यहूदी मूल के अमेरिकी पूंजीपतियों का धड़ा भी सकते में है। यूरोप और अमेरिका के बुद्धिजीवी इस्रायल का अकादमिक बायकाट कर रहे हैं। वहां के बहुतेरे कलाकार, लेखक, छात्र और मानवाधिकारकर्मी स्वयंसेवक दस्ते बनाकर गाजा कूच का आह्वान कर रहे हैं और यह दबाव बना रहे हैं कि मिस्र उन्हे गाजा में प्रवेश की इजाजत दे। लेबनान के बाद, इस्रायल गाजा में तो हार ही रहा है, उसक सरपरस् पश्चिमी देश भी नीतिगत स्तर पर अपने देशों के भीतर एक लड़ाई हार रहे हैं।

अमेरिका और पश्चिमी देशों की तमाम कोशिशों के बावजूद, कमोबेश 1980 के दशक के पूर्वार्द्ध तक अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में इस्रायली जियनवादी अलग-थलग थे उनका हुक्का-पानी बंद था। नवउदारवाद के दौर में उसका यह अलगाव तेजी से टूटा। तीसरी दुनिया के बहुतेरे देशों से उसके व्यावसायिक और सामरिक सहकार के सम्बन् प्रगाढ़ हुए। गौरतलब है कि कभी फिलिस्तीन के पक्ष में अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर सर्वाधिक मुखर रहने वालों में से एक, भारत आज इस्रायली हथियारों का सबसे बड़ा खरीदार है और आंतरिक सुरक्षा के मामलों में अमेरिकी एजेंसी एफ.बी.आई. के बाद 'मोसाद' भारत का सबसे बड़ा मददगार है। इस अवैध प्रणयलीला को नरसिंह राव की कांग्रेसी सरकार ने शुरू किया था जिसे अटल सरकार ने आगे बढ़ाया और अब मोदी सरकार नयी ऊंचाइयों  तक ले जाना चाहती है। इस प्रगाढ़ता के पीछे केवल भारतीय बुर्जुआ वर्ग के हितों और अन्तरराष्ट्रीय समीकरणों का पहलू ही काम नहीं कर रहा है। इसका एक विचारधारात्मक पक्ष भी है। सभी फासिस्टों का आपस में वैचारिक नैकट्य स्वाभाविक है। हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथ की जितनी निकटतानात्सियों के नस्लवाद से है, उतनी ही निकटता जियनवादियों के नस्लवाद से भी है। यही नहीं, इस मामले में ओसामा, मुल्ला उमर, अल बगदादी भी इन्हीं के चचेरे-ममेरे भाई ठहरते हैं। जिस मोदी सरकार ने गाजा नरसंहार पर संसद में चर्चा तक कराने से इन्कार कर दिया था, उसी को यदि संयुक् राष्ट्रसंघ में फिलिस्तीन के पक्ष में मत देना पड़ा तो इसका मुख् कारण यह था कि दिल्ली सहित भारत के दर्जनों शहरों में गाजा नरसंहार के विरोध में जो पचासों प्रदर्शन हुए और पूरी दुनिया में फिलिस्तीन के पक्ष में सड़कों पर जो एक नयी लहर दिखाई पड़ी, उसके दबाव की अनदेखी करना मोदी के लिए असंभव था। उसे 'ब्रिक्' सहित अन् देशों के साथ अपने रिश्तों का भी ध्यान रखना था।

ऐसे मुर्दादिल बुद्धिजीवियों की कमी नहीं , जो इस बर्बर नरसंहार के समय भी घरों में बैठे रहे और ऐसे जन-प्रदर्शनों को रस् अदायगी बताते हुए कहते रहे कि दिल्ली या लखनऊ के प्रदर्शनों से गाजा में भला क्या फर्क पड़ेगा। ऐसे लोग इतिहास की गति और विश् जनता की सक्रिय एकजुटता के प्रभाव को एकदम नहीं समझते। दिल्ली, मंगलूर, मुंबई, श्रीनगर, कारगिल, लखनऊ से लेकर दुनिया के कई सौ शहरों के लाखों-लाख इंसाफपसंद लोग जब सड़कों पर उतर पड़े तो इससे निश्चय ही विश् स्तर पर केवल जियनवाद के विरुद्ध, बल्कि उसकी सरपरस् साम्राज्यवादी ताकतों के विरुद्ध एक माहौल तैयार हुआ है। इस माहौल ने भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों के बुर्जुआ शासकों पर अमेरिका और सभी साम्राज्यवादी ताकतों पर तथा जियनवादी बर्बरों पर प्रभावी ढंग से दबाव बनाया है। वे सोचने लगे हैं और फिलहाली तौर पर ही सही ,पीछे कदम खींचने की राह ढूंढ़ने लगे हैं। जितनी ही वे देर करेंगे, उतना ही फंसते जायेंगे।
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