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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

30 अगस्त, 2018

रविन्द्र स्वप्निल प्रजापति की कविताएँ


रविन्द्र स्वप्निल 


बारिश में खड़े लोग

एक शेड के नीचे कुछ लोग पानी के कारण पेंटिंग बन कर खड़े हैं
कुछ लड़के हाथ मे बेग लिए कुछ उम्रदराज और तीन लड़कियां हैं

झमाझम पानी में आधे अधूरे से
भीगना चाह कर भी भीगने से बचना चाहते हैं
ये कुछ लोग इसलिए नही खड़े हैं कि उनके पास बहूत सा समय है
वे एक मजबूरी में नही खड़े बे पानी बरसने से खड़े है
वे नही जानते कि पानी क्यों बरस रहा है
उनके काम के दौरान

शेड में खड़े लोग इंसान है
वे देख रहे है कुछ गाड़ियां उनके सामने गुजर रही हैं
जिन पर लिखा हुआ है ऑन गवर्नमेंट ड्यूटी
कुछ पर विधानसभा के पास लगे हुए है
कुछ इठनी चमकती हुई जा रही है जैसे वो किसी राजनीतिक पार्टी की पदाधिकारी हों
कोई लगती जैसे किसी उद्योगपति की लाडली हो

सब गाड़ियां किसी न किसी काम मे गुजर रही हैं
पानी उनके लिए अवरोध नही जब तक गले तक न आये

लड़के अपनी दोस्त से कह रहे हैं
क्यों नही हम इन खाली गाड़ियों में कहीं तक जा सकते
या तेरे पापा की गाड़ी बुलवा ले

पानी जैसे बरसता है वैसे बरस रहा है
हवा इधर से आती और उधर को जाती है
बारिश के मजे में भीगना एक दिन की शिकायत भर है
शरीर पर गिरी बूंद जिंदगी भर लिखी रहती है
लड़का कहता है चल भीगने का मजा लें कुछ भीगते हुए चलें
तीन लड़के एक दुसरे के बैग में अपना भीगने वाला समान रखते हैं
फिर बारिश में एक एकसाथ कदम रखते हैं

सवाल अब भी यही था
शेड में खड़े बाकी लोगों का क्या होगा
कुछ लोग जा सकते है तो कुछ लोग क्यों नही जा सकते

कितना अधूरा है बारिश का मजा
और कितने अधूरे है हम
कुछ लोगो के खड़े हो ने और कुछ लोगो के भीगने पर किस तरह बदल जाते है दृश्य

क्या सबके पास बारिश में जाने और भीगने के विकल्प समान हैं
नही है क्योंकि शरीर और उम्र के मायने भी तय करते हैं कुछ चीजें

लेकिन कोई एक चीज हम तय करते है
हमारा सिस्टम तय करता है
बारिश में शेड के नीचे खड़े लोगों को देखें
और इस बारे में सोचें कि आखिर कुछ चीजें कौन तय करता है
जिसके तहत कुछ का भीगना मजबूरी है
कुछ का भीगना मस्ती
कुछ का शेड के नीचे बेचेन से खड़े होकर
बारिश को देखना क्या है

क्योंकि मुझे दिखने वाले हर दृश्य का
मेरी दुनिया से कोई रिश्ता तो है




समझौता

समझौतों की एक लंबी सी सड़क है मेरा जीवन
जिसमे कुछ दब गया है जैसे महापथ पर दबी होती हैं डूब की नोकें

तुम मेरे समझौतों में किसी दूब की नोक से छुपी हो
मेरे हर समझौते को तुम न जाने कितने हजार सालो से सह रही हो

मैं इस तरह एक महामार्ग बना
और तुम उसके दोनो तरफ कुछ दूब

समझौता तुमहरे प्यार को ऊंचाई नही देता
बल्कि मेरे होने को थोड़ा और चौड़ा कर देता है

जहां तुम हर बार कुछ तिनको की तरह प्रतिरोध करते हुए उग आती हो

महापथ होने की सबसे खराब शर्त है कि वो
हर सपने को एक समझौते में दर्ज करता है
उसके जीवन में इतने सपने होते है कि वो
कि हर सपने को वो पूरा करने की तरफ जाने वाला मार्ग लगता है
सच ये है कि जीवन के मार्ग मे हर सपना सिर्फ चमकता है

समझौते कही नही ले जाते
वे सिर्फ महामार्ग बनते है जिन पर
राजा नबाब और कुछ गणमान्य गुजरते हैं

कभी कभी कोई प्रेमी उनको क्रॉस करते हैं
तब महा पथ जैसा ये जीवन कितना छोटा हो जाता है
जो प्यार मे भटक कर रास्ता तलासते है
उनके पैर समझौतों पर लहूलुहान हो जाते हैं
राजाओं और गणमान्य के अलावा कोई प्रेमी कभी समझोंतो पर पैर नही रखता
दूब की नोकें कोई समझौता सहन  नही करती
उन पर सिर्फ प्रेमी ही पैर रख सकते हैं

देखो मेरी प्यार मेने जीवन के पैर महापथ से नीचे रख लिए
अब मैं तुम्हरी हरियाली में चल रहा हूं







मेरे देश की सुन्दर लड़कियो

मेरे देश की सुन्दर लड़कियो
तुमको पानी की जरूरत होगी
तुम किसी धर्म के किताब को नही पी सकोगी

तुमको खाने की जरूरत होगी
तुम किसी किताब को नही खा पायोगी
तुमको कपड़ों की जरूरत होगी तो राजनीति का कोई टुकड़ा ओढ़ने के काम भी नही आता

क्या कर रहे है वो लोग जो कहते है हम राजनीति करते हैं
वे अपनी दलाली को राजनीति कहने लगे
तो कंपनियां भी कहने लगती हैं खाने और पानी से ज्यादा जरूरी है शैम्पू करना

जब अंतरराष्ट्रीय दलाली को अंतरराष्ट्रीय राजनीति कहा जाने लगे
सरकारें जनता को नहीं
कंपनियों के हित बचाने में पुलिस लगा दें
इस तरह के सारे कुकर्म देशभक्ति के ब्रांड में पैक किये जाने लगे

पेट्रोल की कीमतें देशभक्ति के नाम पर गले से नीचे उतार दी जाएं
बेरोजगारी को भी देशभक्ति के उन्माद में जीवन का हिस्सा बना दिया जाए

देशसेवा सोचने विचारने वालो के कानों में भों भों करने लगे
कानून के सामने भावनाएं नंगा नाच करने लगें
देश की लड़कियों समझना खतरा कुछ अलग तरह का है

वाचाल सौदागरों की गिरफ्त में हो देश
सरकारी रामधुन में व्यस्त मीडिया
मंत्री के भ्रष्टाचार को अधिकारियों का भ्रष्टाचार बताये
संसद लोकपाल कानून के लिए अन्ना हजारे के मरने का इंतज़ार करने लगे

समझना कुछ अजीब तरह के खतरे आसपास ही हैं
सौदेबाजी में उलझा कोई देश क्रांति नही कर सकता

इसलिए तुम सांसदों और विधान भवनों के सामने जाओ
उनके अपने बालों में कंघी करो
जब विधायक और सांसद जनप्रतिनिधि का चोला पहनकर
किसी कंपनी के लिए
नकली देशभक्ति की आवाज बुलंद करें

तुम उनके सामने अपनी दोनो बाँह उठा कर
बाल बांधने लगना

ताकि उनको पता चल सके कि वे किसी क्रांति की जद में हैं
कि शरीर और उम्र के मायने भी तय करते हैं कुछ चीजें

लेकिन कोई एक चीज हम तय करते है
हमारा सिस्टम तय करता है
बारिश में शेड के नीचे खड़े लोगों को देखें
और इस बारे में सोचें कि आखिर कुछ चीजें कौन तय करता है
जिसके तहत कुछ का भीगना मजबूरी है
कुछ का भीगना मस्ती
कुछ का शेड के नीचे बेचेन से खड़े होकर
बारिश को देखना क्या है
क्योंकि मुझे दिखने वाले हर दृश्य का
मेरी दुनिया से कोई रिश्ता तो है




हिस्सा

जिंदगी का थोड़ा सा हिस्सा हूं
तुम्हारा
मुझे उतनी ही जगह देना जितने पर खड़ा रह सकूँ

तुम्हारे दायरे में जो हैं उस सब मे नही हो सकता मैं
मगर हूं उस जगह में पूरा जितने में खड़ा हूं

नही बांध सकता तुमको अपने होने के लिए
नहीं अलग कर सकता कोई हिस्सा अपने लिए

तुम्हारी जिंदगी में सब जगह नहीं हो सकता
बस एक सिरा भर छूता रहूं तुम्हारे होने का







होर्डिंग पर मुस्कुराती हुई तुम

तुमको प्यार किया
और तुम आंखों से उतर कर होर्डिंग पर मुस्कुराई

मैं ऑफिस जाने के लिए तैयार हो रहा था और
तुम साबुन की तरह मेरी बॉडी पर घूमने लगीं
प्यार कुछ क्षणों की तरह सफेद फोम बनता जा रहा था
अचानक साबुन मेरे हाथ से छुटी और
मैंने तुम्हें होर्डिंग पर महसूस किया


जल्दबाजी में प्यार अजीब से आकार ले सकता है
जैसे बहुत स्पीड वाली मोटरसाइकल में बदल जाना
या किसी क्रीम की तरह चेहरे पर महकना
किसी विज्ञापन में तुम्हारा समुद्र की तरफ घूमने जाना
और वहां एक बेंच पर बिअर के साथ दिखना

मेरी जल्दबाजी तुमको कितनी तरह से बदल देती है
तुम होर्डिंग से उतर कर किचिन में पोहा बना रही होती हो

तभी तुम्हारें हाथ ठहर जाते है
और जल्दी ही सबसे अच्छे नमक के विज्ञापन में
प्रचार करने चली जाती हो

सरकार दांडी मार्च वाले नमक सत्यग्रह का एड देती है
तुम उसी समय मुझे शर्ट खरीदने के लिए बोलती हो
और शर्ट के विज्ञापन में दिखाई देने लगती हो

जबकि मुझे देखना चाहिए था
एक इंटरनेशनल ब्रांड में बंगलादेशी मजदूरों का शोषण
जहां चालीस रुपए की लेबर से तीन हजार की शर्ट तैयार होती है
जिसके धागों में किसानों के बीटी कॉटन से उजड़ते खेत
और ब्रांडेड आटे में पिसा सच
उनके कर्ज आत्महत्याएं और अभावग्रस्त जीवन के साथ
मैं नहीं देख पाता होर्डिंंग के पीछे एंगलों में उलझी
होर्डिंग लगाने वाले मजदूरों की तकलीफें

जब मैं न्यूज़ देख रहा होता हूँ
तुम विज्ञापनों में बहते जीवन को सहेज कर रख देती हो
ऐसा बहुत कुछ होता है जो फैला रह जाता है रोज
तुम रात को होर्डिंंग से उतर बेडरूम में आ जाती हो

और उनींदी उंगलियों में से टीवी रिमोट हटा कर कहती हो-सो जाओ
मैं नींद में सोचता हूं ये विज्ञापन था या सच में तुम मुझे सुला रही थीं






साथ चलना

साथ चलना कभी-कभी और किसी-किसी के साथ होता है
रोज रोज नहीं ये कभी कभी होता है

तुम मेरे साथ चलो या मैं तुम्हारे साथ
एक ही बात है कि हम साथ चल सकें कुछ समय
और कुछ दूर तक

ये बातें किसी को पता न चलें और जान भी जाएं तो समझ न पाएं
हर सवाल का उत्तर साथ चलना हो तो साथ चलना बड़ी बात है

हम साथ चल रहे हैं ये मायने रखता है
जिंदगी में साथ चलना कभी-कभी और मुश्किल से आता है
साथ चलने में हाथ पकडऩा जरूरी नहीं होता





बोर कब होना चाहिए

उसने मेरी बोरियत को रिबन की तरह लपेटा
और पर्स में रख लिया
वह मेरे साथ बोगलबेलिया सी बैठी है

हम कुछ देर चुप रहे फिर उसने पूछा
इस शहर को देख कर तुम बोर नहीं होते

मैंने भी पूछा- तुम बताओ हमें बोर कब होना चाहिए
उसने कहा- कभी नहीं और पेड़ की छांव बन गई
वह ठंडी हवा में हिली और कहा-
चलो तुम अच्छा सा रास्ता बन जाओ

मैं इस शहर में एक अच्छा रास्ता हूं
और वह मेरे आसपास घने पेड़ों की छांव



वह साथ है मेरे

एक खोज बन गया हूं
और डूबता जाता हूँ एक अनंत गहराई में
मेरे चारों तरफ वह हवाओं सी रहती है
वह साथ है और मैं लगातार डूब रहा हूं





दुनिया का पहला ड्राफ्ट

दुनिया की डिजाइन को इतना सरल नहीं बनाया था
कि किसी कागज पर लिखने से
कोई जमीन और पेड़ों पर काबिज हो जाए

दुनिया में आज की और पुरानी डिजाइन में फर्क है
आज पहले ड्राफ्ट को चेंज कर दिया गया

सरकार जैसी कोई चीज उसमें नहीं थी
नहीं था राजा और न कोई पानी पर हक जमाता था
सरकार को किसने बनाया है जिसे पक्षियों की चिंता भी नहीं है
और उन लोगों से जो जंगल का पेड़ काटने से पहले
जंगल से पूछते थे
क्या सरकार ने उनसे पूछा है कि तुम्हारे जंगल हम ले रहे हैं

क्या सरकार होने का अर्थ सबसे ज्यादा बेईमान होना है
जो लगातार छीनती है जंगल की नदियों का पानी
और जंगल के पक्षियों का खाना और दाना

कागज पर लिख देने से सरकार का कुछ नहीं हो सकता
इस ड्राफ्ट को बदला जाना जरूरी है




नदी एक फोटो भर बची है

नदी के किनारों ने चांद को देखना छोड़ दिया
दुनिया भी अब चांद को नहीं देखती

हर खूबसूरत नजारा अब सिर्फ एक फोटो है
जिसे अपने शहर के पास नहीं देख सकते

नदी देखने के लिए अब फोटों खरीदना होते हैं
नदी पर अब कोई नहीं जाता
हमने अपनी दुनिया को फोटों में बदलना सीख लिया
खेत और फसलें भी एक फोटों की तरह हैं

हवाओं को एसी में सहेज लिया है हमने
और किसी दिन जिंदगी भी एक फोटो में बदल जाएगी

क्या नदी अब सिर्फ फोटो भर बची है








बिजली के तार पर बैठा पक्षी

मेरे दिन बनने से पहले
तुमने ओंठों पर सुबह की लिपस्टिक लगा ली थी
जंगल की नदी में मुंह धो लिया था

तुम धरती के अंदर से उपजा फूल थीं
जिसके चारों तरफ किरणों का पराग फैल चुका था
और मैं अपने आप उगा घास का फैलाव

हम अपने असंगत प्रेम के रेगिस्तान में दौड़ रहे थे
हमारी मुस्कुराहटें हवाओं के झौंके बन गई
उलट पलट गया था सब कुछ
हम अचानक चाय पीते पीते पूल में नहाने लगे थे

तुम शाम की किरणें बनकर बैठी थीं
मैं पहाड़ बन कर तुम्हारे माथे पर ऊंगलियां फिरा रहा था

रात तुम्हारी एक सहेली थी
जिसने अपने पहाड़ पर थोड़ी सी जगह दी
सुबह तक तुम तुम जंगल में पत्तियों की तरह छा गई
मैं बिजली के तार पर पक्षी की तरह बैठ गया




पहाड़ पर खड़ा होकर देखता हूं तुम्हें

मैंने तुमको पहाड़ पर खड़े होकर देखा
मैंने तुमको कार की खिड़की से देखा
मोर और हिरण के फोटो लिए
किसानों को काम करने के अलावा
पहाड़ और जंगल के घने पेड़ों को देखा
मेरे पास सिर्फ देखना ही देखना बचा था

रद्दी कागज, प्यार के दो पल और एक आह
ओह तुम कितनी अच्छी लगती हो

मैंने तुमको जिया और मैं तुममें रहा
तुम नहीं फेंकती हो मुझे रद्दी कागज की तरह

मैं छोड़ जाता हूँ तुम्हें काम का बहाना देकर
शहर में रह कर भूल चुका हूँ फिर भी

बड़ा सवाल है पहाड़ जंगल और नदी क्यों याद आते हैं?




परिचय
रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
जन्म     - 15 जून 1970 
ग्राम    - सियलपुर, तहसील -सिरोंज, जिला- विदिशा, मप्र
शिक्षा    - एम ए हिंदी साहित्य, बीएड, स्क्रिप्ट लेखन सर्टिफिकेट कोर्स इग्नू, नई दिल्ली
प्रशिक्षण  
- हर्ष मंदर, जावेद अख्तर, गोबिन्द निहलानी, हरीश शेट्टी  द्वारा सामाजिक संरचना और सौहार्द    पर दस दिवसीय प्रशिक्षण, मुंबई 2006
- समाज में शांति की स्थापना पर दस दिनों का विभिन्न लेखकों पत्रकारों से प्रशिक्षण 2007
- हिंदी कहानी पर मांडू में राष्ट्रीय कहानी शिविर में प्रशिक्षण, कार्यशाला में चयनित कहानी कई   जगह प्रकाशित एवं चर्चित
- शांतिकुंज हरिद्वार से एक माह का समाजसेवी प्रशिक्षण
कार्यानुभव
- राज एक्सप्रेस, भोपाल में रविवारीय प्रभारी, 2004-2006,
- वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली में प्रसिद्ध लेखक सुधीश पचौरी के साथ वाक् में सहायक संपादक 2006-07,
- जिला साक्षरता मिशन विदिशा में सांस्कृतिक कार्यक्रम एवं प्रवेशिका में पाठों का लेखन,
- शासकीय माध्यमिक शाला में अध्यापन 1998-2003,
- मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा पांच वर्षों तक पाठक मंच विदिशा का संचालन,
- फिल्म समीक्षा पर प्रो जवरीमल्ल पारख, प्रोफेसर सत्यकाम और डॉ. असगर वजाहत से प्रशिक्षण   2006, नई दिल्ली।
- प्रगतिशील लेखक संघ का सदस्य एवं विभिन्न कार्यशालाओं में भागीदारी

रेडियो टीवी एवं समाज सेवा
    बच्चों के लिए रेडियो नाटक 'मां के आसपास भोपाल के लिए लेखन एवं विभिन्न संगोष्ठियों में भागीदारी।
    दूरदर्शन भोपाल एवं नई दिल्ली से परिचर्चा एवं कविता पाठ प्रसारित पर्यावरण एवं साहित्य के विषयों पर लेखन
    विभिन्न विज्ञापनों की कॉपी राइटिंग (स्क्रिप्ट लेखन)
    ग्रीनअर्थ विलेज वेलफेयर सोसायटी की स्थापना २०१०, पर्यावरण एवं जैविक खेती के लिए कार्य
    आदिवासी ग्राम छेड़का में ग्राम उन्नयन हेतु कार्य 2016 -17
प्रकाशन
 इंडिया टुडे द्वारा दस सबसे संभावनाशील रचनाकारों में चयनित 2001, आजकल प्रकाशन विभाग नई दिल्ली, द्वारा तीस युवा रचनाकारों में कविताओं का चयन,1996, कविताओं पर मंगलेश डबराल, लीलाधर मंडलोई और सुधीश पचौरी सहित देश के जाने माने साहित्यकारों द्वारा समीक्षा। ज्ञानोदय के पानी विशेषांक में विशिष्ठ कविता'मुझे कैसे पता चला कि सूखा है का प्रकाशन। युवा लेखन विषेशांक में लेख और कविताओं का प्रकशन, भारतीय अमेरिकी मित्रों का उपक्रम अन्यथा में एनआरआई झुग्गी बस्ती पर रिपोतार्ज का प्रकाशन।
रचनाएं
आउट लुक में कहानी 2008, कविताएं आदि। इंडिया टुडे, लोकमत समाचार, सहारा समय, राष्ट्रीय सहारा, हिंदुस्तान, दैनिक भास्कर, हंस, कथादेश, वागर्थ, वाक्, नया ज्ञानोदय, आलोचना, समकालीन भारतीय साहित्य, वीथिका, वसुधा, पहल, इंद्रप्रस्थ भारती, मुधमति, सरिता, मुक्ता, अक्षर पर्व, वितान, बहुमत आदि साहित विभिन्न संकलनों में रचनाओं का प्रकाशन

साक्षात्कार
धु्रव शुक्ल, राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, प्रो मैनेजर पांडे, प्रो विश्वनाथ त्रिपाठी, अरणकमल, विनीत तिवारी, पुण्यप्रसून बाजपेयी, महरुन्ननिसा परवेज, मंजूर एहतेशाम, कमला प्रसाद, उदयन वाजपेयी, धनंजय वर्मा, रमेशचंद्र शाह, सत्येन कुमार, विनय दुबे, फरीदुद्दीन डागर, रामेश्वर मिश्र पंकज आदि से साक्षात्कार एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनका प्रकाशन।

अनुवाद
बंगला एवं पंजाबी भाषा में कविताओं का अनुवाद।

पुस्तकें
कोलाज (कविता संग्रह) अफेयर, (टू लाइनर प्यार के अहसास) अफेयर रिटन्र्स एक गर्लफे्रेंड की दुनिया
वोटों की राजनीति (लोकतांत्रिक जीवन दर्शन) और कर्ज है तो क्या हुआ (किसान आत्महत्या) पर केंद्रित पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य
आधा बिस्किट, (प्रेम कविता संग्रह) मन का ट्रैक्टर (कहानी संग्रह) खिड़की खिलौना, बाल कविताएं। 

संपर्क
111, आरएमपी नगर, फेस-1, विदिशा, मध्यप्रदेश
टॉप- 12, हाईलाइफ कॉम्पलेक्स, जिंसी जहांगीराबाद, भोपाल मप्र 
मोबाइल संपर्क- 82699 43607 / 9826782660
 Ravindra Swapnil Prajapati
कोलाज कला: साहित्य संस्कृति सबके लिए


   www.greenNearth.org
   http://ravindraswapnil.blogspot.com
   www.kavitakoshravindraswapnil.com
मैं क्यों लिखता हूं ?

सुभाष चन्द्र कुशवाहा


रचनाओं में लेखक का अतीत और वर्तमान छिपा होता है। वह विगत के यथार्थ से ग्रहण कर आगत को बुनता है । आगत के बेहतर स्वप्न या बुरे दुःस्वप्न को देखता है । बेहतर या बुरी दुनिया की परिकल्पना करता है। यह परिकल्पना कागजों पर उतरकर लेखन का स्वरूप ग्रहण करती है। लेखक क्यों लिखता है, इसका जवाब लेखक की रचनाओं में छिपा होता है। रचनाएं खुद बताती हैं कि क्यों लिखी गयीं या लिखी जा रही हैं? इस संबंध में मौन साधे बहुत कुछ बोलती हैं रचनाएं ।
मेरा सृजन कार्य कोई अपवाद नहीं रहा। वह उस नकार के सकार से शुरु हुआ, जो आर्थिक विपन्नता और गांव की सामंती समाज से उपजा । मजबूर हाथों के हथियार सदृश निकलने लगे शब्द। लेखन ही वह माध्यम था जो मेरे अंदर के असंतोष को लिपिबद्ध करता । अगर मैं लेखन की ओर न अग्रसर होता तो निश्चय ही अराजक होता। रचनाओं ने जीवन को अराजक बनने से रोक लिया ।
गांव का पूरा परिदृश्य सताये हुए लोगों का था। मेरे पिता परिवार के साथ, गांव में अपने होने और जीने का लड़ाई लड़ रहे थे। उनके साथ हम भाई-बहन भी लड़ने लगे। उसी लड़ाई के दौरान मन में विचार उमड़े जो समय के साथ संवरते गये। मुझे लगने लगा कि मैं इसलिए लिखता हूं कि यह आभास देता है कि मैं ज्यादा से ज्यादा निर्बल और सताये समाज के साथ खड़ा हो रहा हूं । जातिवाद से लड़ रहा हूं। ऊंच-नीच की मानसिकता को नकार रहा हूं।

सुभाष चन्द्र कुशवाहा


हर लेखक के नकार की अपनी अलग शैली होती है। अलग शब्द और विचार होते हैं यद्यपि कि वे समाज की आर्थिक और राजनैतिक बुनावटों से ही बंधे होते हैं फिर भी होते हैं नितांत अपने। जब जीवन रूखा और खुरदुरा हो तो कोमलता और कलात्मकता का क्या काम?  इसलिए भी मेरी रचनाएं कलात्मकता के बजाय, रूखे और साफ-सपाट पीड़ा व्यक्त करने को उतावली रहीं । उतावलेपन का परिणाम कह लें या यह कि उनमें कहन ज्यादा रहा ।  कथा और गल्प ज्यादा रहा ।  शाब्दिक रंगबाजी बहुत कम रही । मेरी रचनाएं पक्षधर रहीं । होती गयीं। आप कह सकते हैं तो कहें कि मैं पक्षधरता के लिए भी लिखता हूं।  मेरे अंदर शोषक के विरूद्ध और शासित के प्रति, गांव के सामंतों के विरूद्ध,  गरीब खेतिहर मजदूर के साथ खड़ी होने की बेचैनी मन में रही । इस बेचैनी में कहीं न कहीं मुझे जीवन के उन सभी पक्षों को चुनने की ऊर्जा दी, जो गरीब और बेजुबानों की जुबान बन सके।
पक्षधरता बुरी नहीं होती अगर वह मानवीय संवेदना से युक्त हो।  संभ्रांत लोगों के इतिहास के विरूद्ध, आम आदमी के संघर्ष के साथ पक्षधरता करती रचनाएं, जिस मानवीय समाज की परिकल्पना करती हैं, वही सामाजिक सरोकारों का साहित्य होता है। आप कलात्मकता के साथ बेशक रहना चाहें, रहें, यह आपकी पसंद है मगर किसे गेहूं की जरूरत है और किसे गुलाब की, यह सोचने की दृष्टि भी अगर आपमें नहीं है तो आप सामाजिक सरोकारों के सबसे बड़े दुश्मन हैं। मैं गेहूं के साथ हूं जहां कोई सुगंध नहीं है। कोई सौंदर्य भी नहीं है मगर भूखों की भूख मिटाने में कारगर है। आप साहित्य के बहाने, कलात्मकता और शैलीगत प्रयोगों से अपने कुलीनतावादी एजेंडे को स्थापित करने का काम जब तक करते रहेंगे तब तक मैं या मेरे जैसे लेखक आपकी सोच और समझ के विरूद्ध अपनी लेखनी चलाते रहेंगे। विश्वास कीजिए, बिना किसी लाग-लपेट के कहना है कि इसी पक्षधरता की पहचान के लिए लिख रहा हूं।  जातिदंश को झेलते हुए, जातिवाद को नकारने, धार्मिक शोषण से सताये जाने के कारण उस धर्म को नकारने, ऊंच-नीच और अश्पृस्यता को करीब से देखते हुए उसे नकारने के लिए शाब्दिक स्वर देते रहना ही अपने लेखन का मकसद है।
 कहानियों से लेकर इतिहास लेखन तक, वैचारिक आलेखों से लेकर लोकसंस्कृतियों के सामाजिक पक्ष तक, ऐसा लगता है जैसे मैं अपने अतीत से मुक्त होने की लड़ाई लड़ रहा हूं । मेरा लेखन, उस लड़ाई को विजयश्री में बदले या न बदले, मेरे  मन को सकून देता है।  लगता है मैं जिंदा हूं। सोचता हूं, उपेक्षित समाज की पीड़ा, उसका इतिहास, उस वर्ग से आया लेखक नहीं लिखेगा तो कौन लिखेगा? चिड़ियों का इतिहास बहेलिये तो नहीं लिख सकते न?

हिन्दी इतिहास राजे-रजवाड़ों की कहानियों के सिवाय क्या है? गैरबराबरी के समाज में संवेदना और सरोकार हर किसी के लिए समान नहीं हो सकते। गरीबी और भूख से जूझता समाज, शिक्षा और सेहत, जीवन के लिए जरूरी होते हुए भी, उसकी उपेक्षा करता है। जैसे वह उसके लिए काम का न हो। तात्कालिक जरूरत उसके लिए रोटी की जुगाड़ होती है।  ऐसे समाज से जब आप आते हैं तो आपकी पहली दृष्टि भी वहीं केंद्रित होनी चाहिए, जहां जीवन तपा होता है।  मैंने अपनी रचना की शुरुआत, गांव-जवार, खेत-खलिहानों से शुरु की।  ‘भूख’ कहानी की उपज, लेखन के शुरुआती दिनों की देन है।
  गांव और घर के शुरूआती अनुभव के बिना साहित्य सृजन संभव न था । विचारों की दृष्टि ने उन अनुभवों के मूल्यांकन की दृष्टि दी जो मेरी पूंजी है। जाति-दंश की पीड़ा ने मेरे अन्दर समाज को परखने, समझने की दृष्टि दी । मैंने इसी दृष्टि से सामन्तां की कुटिल चालां का प्रतिकार करना शुरू किया । मैं शुरू से ही गांव के सामन्तां को पसन्द नहीं करता था।  हमेशा उनसे उलझता रहता । मन में आक्रोश की आग सघन थी । उसके ताप से गुस्सा आना स्वाभाविक था । इसलिए मुझ्ो लोग गुस्सैल प्रवृत्ति का समझने लगे थ्ो । जाति-दंश के अनुभवों ने मेरी वैचारिक ऊर्जा को बचाने में कारगर भूमिका निभाई । गांवां के शादी-बारात में कहा जाता है -‘अब बड़ आदमी लोग खाना खाने चलें ।.......अब छोट आदमी लोग खाना खाने चलें ।’ मैं जब भी यह सुनता, अन्दर से तिलमिला जाता । एक बार एक भूमिहार की बारात में मैं जानबूझ कर तथाकथित बड़ी जाति वालां के पंगत में बैठकर खाने लगा था । जब मेरे गांव के एक भूमिहार ने इसका विरोध किया तो मैं उसे अपशब्द कहते हुए उठा और बारात से वापस लौट आया था ।

शिक्षा के दरवाजे तक जाति पीछा करती रही।  मेरे पाठशाला के मास्टर साहब, हर बच्चे को जाति सूचक शब्दों से बुलाते।  ‘का हो कोईरी भाई, तुहों पढ़ब त बैगन के उगाई’ उनके शब्द कान को छेदते हुए दिमाग में ऐसे घुसे कि वह बाबू साहब कई कहानियों में भिन्न-भिन्न वेष में आए।  मैं उन्हें अतीत से वर्तमान में खींच लाया।

मैं बहुत जल्द इस तथ्य को समझ गया था कि जातिवाद, हिन्दूधर्म का प्राण है, उसकी संस्कृति है और विशुद्ध रूप से ब्राहमणवाद द्वारा सोची-समझी चालाकी, धूर्तता और आधिपत्य स्थापित करने वाले सिद्धान्त पर आधारित है । वामपन्थी विचारधारा ने मुझ्ो एक दिशा दी, विचारां की दिशा । उसके बाद मेरे लिए हर अन्यायी बिन्दु का विश्लेषण करना आसान होता गया । उसके बाद ही मैंने समझा कि हिन्दू समाज में अर्थवाद के साथ-साथ, कुलीनतावाद या वर्चस्ववाद का सिद्धान्त प्रभावी है । तभी तो आज भी आर्थिक और श्ौक्षिक रूप से मजबूत दलितां या पिछड़ां को वह सामाजिक सम्मान नहीं मिल पाया है जो ब्राहमणां या ठाकुरां को जन्मजात प्राप्त है। गांव के उच्च शिक्षित पिछड़े या दलित वर्ग को, उन्हीं के समाज के लोग नमस्कार नहीं करते हैं जबकि ठाकुरां या ब्राह्मणां के अशिक्षित लोगां को,  चाहें वे उम्र में छोटे ही क्यां न हां , पिछड़ी या दलित जाति वाले सामान्यतः नमस्कार करते हैं । मुझ्ो इस बात का बचपन से ही मलाल रहा कि मेरे पिता जी का नाम लेकर गांव के भूमिहार जाति के लड़के बुलाते थ्ो । कई बार ऐसा हुआ कि मैं उसके प्रतिकार में उनके बाप का नाम लेकर बुलाने लगा । कई बार टकराव भी हुआ । लेकिन एक बात का सन्तोष तो रहा कि मैं बहुत ज्यादा झुका नहीं और ज्यादातर अपने प्रतिकार को स्थापित कर ले गया । जाति-दंश की अभिव्यक्ति मेरी तमाम कहानियां में हुई है । चाहें वह ‘होशियारी खटक रही है’, ‘भटकुंइया इनार का खजाना’ या ‘पैंतरा’ हो । प्राथमिक पाठशाला में गांव के मास्टर द्वारा प्रयोग किए गए जाति सूचक शब्दां को अभी तक भुला नहीं पाया हूं और वह मेरी एक, दो कहानियां में व्यक्त भी हुई हैं । सामन्तां के अत्याचार से उपजे विचार मेरी तमाम कहानियां में व्यक्त हुए हैं । कई संघर्ष तो मेरे सामने घटित हुए हैं । उनमें से कई अब भी मस्तिष्क में नाचते रहते हैं । मेरी कुछ कहानियां जैसे ‘शिकार’, ‘फैसला’ या  ‘गले में पट्टा’  में मैंने इनको अभिव्यक्ति दी है । ‘जाति-दंश की कहानियां, संपादित कथा संचयन की योजना इसी वैचारिक धरातल के कारण बनी थी ।



घोर अभावों, भूख और असुरक्षा के बीच गुजरे बचपन के दुर्दिन ने मनमस्तिष्क को प्रभावित किया था।  दुर्दिन में पटीदारों के जुल्म, साहूकारों का कर्ज, पल-पल अभाव की जिंदगी का दर्द, मैं कभी भूल नहीं पाता ।  मेरी अधिकांश कहानियों में जीवन के अभावों की अभिव्यक्ति है । वे ही मुझे आंदोलित करती हैं । दुर्दिन में तमाम जीवन यथार्थ, गणित के मौलिक सिद्धान्तों की तरह मस्तिष्क में चिरस्थाई हो जाते हैं । इससे हम जीवन को जोड़ सकते हैं, घटा सकते हैं । गुणा और भाग कर बेहतर भविष्य का, मानवीय संस्कृति का अक्स तैयार कर सकते हैं ।  मैं जब ‘भूख’ कहानी लिख रहा था तब दुर्दिन हमारे मस्तिष्क में छिपे उस गणितीय  सिद्धान्त को प्रयोग में ला रहा था जो समाज के उपेक्षित वर्ग को आज भी भूख मिटाने के संघर्ष में मौत दे रहा है और बदले में न्याय के नाम पर कुछ  राहत या अनुदान बांट रहा है । कुल मिलाकर दुर्दिन में उपजे सिद्धान्त, विश्वसनीय होते हैं । वे अन्यायपरक दुनिया का प्रतिकार  करते हैं और रचना को विश्वसनीय बनाते हैं । ‘दूसरे अन्त की तलाश’ कहानी में मैंने ऐसे ही अनुदान, राहत के प्रतिकार को अभिव्यक्ति दी है । नून, तेल जैसी जीवन की बुनियादी जरूरतां के बीच पता नहीं कहां से मोबाइल घुसा दिया जाता है । एक सुविधा के बरक्स, तमाम असुविधाएं बांट दी जाती हैं जो भविष्य में तमाम तरह की सामाजिकता विरोधी संस्कृति बांट देती है । यह विचार उपजते ही मैंने ‘नून, तेल, मोबाइल’ कहानी लिखा था ।

मैंने अपनी रचानाओं में कहीं भी कर्मकांडां, अंधविश्वासों,  साम्प्रदायिकता और पतनशील संस्कृति को स्थान नहीं दिया है । इन्हें स्थान देना मेरे लिए अस्वाभाविक और बनावटी होता ।  मैंने ऐसे समाज से जिन्दगी की यात्रा शुरू की जहां होली, दिवाली और मुहर्रम, हिन्दू-मुसलिम एक साथ मनाते थे । ताजिया बनाने का खर्च दोनों वहन करते हैं।  कीर्तन गायकी में मुसलमान भी शामिल होते हैं और होलिका दहन की लकड़ी जुटाने में सबसे आगे मुसलमान लड़के होते हैं। दोनों एक दूसरे की संस्कृतियों में घुसे पड़े हैं। यही कारण है कि मेरी अधिकांश कहानियां के पात्र हिन्दू और मुसलिम दोनां हैं । कहने का आशय सिर्फ यह है कि समाज में हो रहे तमाम उथल-पुथल की प्रतिछाया पड़ने के बावजूद, अब भी गांवां में दोनां संप्रदाय के लोग, एक-दूसरे से घुले-मिले हैं । इन तमाम तथ्यां को मैंने ‘अमीन मियां सनक गये हैं’, ‘हाकिम सराय का आखिरी आदमी’, ‘संशय’ और ‘कुमार्गी’ कहानियां में व्यक्त किया है ।
एक समीक्षक ने एक बार मेरे पात्रों को देख कर लिखा था कि कहीं कहानीकार ने सयास तरीके से अपनी हर कहानी में मुस्लिम पात्र तो नहीं डाले हैं ? एक आलोचक ने लिखा कि ‘मुस्लिम औरते मांग में सिंदूर?’ कहीं यह अतिरेक तो नहीं? अब मैं उन्हें कैसे समझाता कि अभी भी निकाह के बाद सिंदूर लगाने का रिवाज हमारे पूर्वांचल के मुस्लिम समाज में मौजूद है। हां, समाज के विभाजनकारी तत्वों के प्रतिरोध के कारण कुछ पढ़े-लिखे या शहरों की यात्रा कर आये मुस्लिम परिवारों में यह रिवाज कम हुआ है मगर समाप्त नहीं हुआ है। मेरी हाल की कुछ कहानियों-‘अमीन मियां सनक गये हैं,’ गांव के सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचाने वाले तत्वों की सिनाख्त करने का प्रयास है।

लेखक केवल अतीत जीवी नहीं होता।  वह जिस वर्तमान में जी रहा होता है, वहां भी वह विगत और आगत का विश्लेषण करता है।  राष्ट्रवाद की जब नई परिभाषा लिखी जा रही हो, जब  मॉब लिंचिंग जैसा कुकृत्य आम होता जा रहा हो और महापुरुषों को विकृत करने का खेल बड़ी चालाकी से खेला जा रहा हो तब ऐसे समय से टकराये बिना हम कैसे चल सकते हैं। इसी की प्रतिक्रिया में  ‘हूजी आतंकी,’ ‘मलिकार की मार’ और ‘रियाजुद्दीन मर गया,’ जैसी कहानियां वर्तमान समय और समाज से जुड़ती हैं।   तब मुझे लगता है कि मैं इसलिए ही तो लिख रहा हूं कि लिखना जरूरी है वर्तमान से मुठभेड़ करने के लिए । जिस दुनिया की हम परिकल्पना करते हैं, अगर वह दिखाई नहीं देती तो लिखना जारी रहेगा।
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सुभाष चन्द्र कुशवाहा
बी 4/140 विशालखण्ड, गोमतीनगर, लखनऊ 226010 ।
कादम्बरी : जीवन का सच

विजय शर्मा



रवींद्रनाथ टैगोर का प्रभाव न केवल बंगाल, भारत और विश्व के साहित्य पर पड़ा वरन उनका प्रभाव साहित्य के अलावा अन्य कलाओं पर भी पड़ा। एक कला जिस पर उनका सबसे अधिक प्रभाव दृष्टिगोचार होता है वह है फ़िल्म। हालाँकि फ़िल्म कला और विज्ञान (तकनीकि) का संगम होती है। कवि के रचनाकर्म पर दुनिया भर में विभिन्न भाषाओं में करीब १०० फ़िल्में बनी हैं। पहले चूंकि फ़िल्म सेल्यूलाइड पर बनती थी अत: इनमें से अधिकाँश रील नष्ट हो चुकी हैं। बाकी बची हुई को संभालना आवश्यक है वरना आने वाली पीढ़ी इस विरासत से अनभिज्ञ रह जाएगी। वैसे अब नेशनल फ़िल्म डिवेलपमेंट कॉरपोरेशन यह काम कर रहा है। रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास-कहानियों पर कई फ़िल्म निर्देशकों ने फ़िल्म बनाई हैं साथ ही रवींद्रनाथ टैगोर पर भी फ़िल्म निर्देशकों का ध्यान गया है। उनके जीवन और कर्म पर भी कई फ़िल्में हमें उपलब्ध हैं। हेमेन गुप्ता ने ‘काबुलीवाला’, सुधेंदु राय ने ‘समाप्ति’, तपन सिन्हा ने ‘अतिथि’, ज़ुल वेलानी तथा नागेश कुकुनूर ने ‘डाक घर’, अडुर्थी सुब्बा राव ने ‘मिलन’ (‘नौका डूबी’ पर आधारित), सुमन मुखर्जी ने ‘चतुरंग’, गुलजार ने ‘लेकिन’ (‘क्षुधित पाषाण’ पर आधारित), कुमार साहनी ने ‘चार अध्याय’ बनाई फ़िल्म बनाई है।

विजय शर्मा

स्वयं टैगोर ने अपने एक नाटक ‘नटिर पूजा’ पर एक मूक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी। लेकिन उनकी ख्याति एक कवि, एक लेखक के रूप में अधिक है। रवींद्रानाथ ने जीवन में बहुत बाद में चित्रकला का अभ्यास भी किया और बहुत सारे चित्र बनाए। बड़े-बड़े दिग्गज फ़िल्म निर्देशकों ने उनके काम और उन पर फ़िल्में बनाई हैं। सत्यजित राय और ऋतुपर्ण घोष ऐसे ही दो बड़े निर्देशक हैं जिन्होंने टैगोर के काम और उनके जीवन को अपने काम का हिस्सा बनाया है। सत्यजित राय तथा ऋतुपर्ण घोष दोनों फ़िल्म निर्देशकों ने रवींद्रनाथ टैगोर के जीवन और कार्य पर अलग-अलग डॉक्यूमेंट्री बनाई। लेकिन दोनों एक-दूसरे से बहुत भिन्न डॉक्यूमेंट्री हैं। असल में दो नहीं बल्कि तीन लोगों ने रवींद्रनाथ पर डॉक्यूमेंट्री बनाई। बिजॉन घोषाल ने भी कबि के जीवन पर डॉक्यूमेंट्री बनाई है। यह निजी प्रयास से बनाई गई है और इन दोनों से बहुत अलग है। सत्यजित राय ने टैगोर पर डॉक्यूमेंट्री के अलावा उनके उपन्यास ‘तीन कन्या’ (तीन अलग-अलग कहानियों पर तीन भिन्न-भिन्ना फ़िल्में), ‘घरे बाहरे’, ‘चारूलता’ (‘नष्ट नीड़; उपन्यास पार आधारित) पर फ़िल्म बनाई।

सुमन घोष ने कई लोगों के काम का सहारा ले कर फ़िलम ‘कादम्बरी’ बनाई। फ़िल्म निर्देशक सुमन घोष के लिए फ़िल्म ‘कादम्बरी’ बनाना संतोष की बात रही है। लेकिन उससे भी बहुत ज्यादा यह फ़िल्म बनाना उनके लिए एक बड़ी चुनौती थी। क्योंकि इस फ़िल्म का कथानक एक ऐसे विषय को स्पर्ष करता है जिसे एक समय स्वयं रवींद्रनाथ टैगोर के परिवार ने छिपाने का प्रयास किया था, दूसरी ओर यह नाजुक विषय स्वयं रवींद्रनाथ और उनके एक बड़े भाई ज्योतिंद्रनाथ टैगोर की पत्नी कादम्बरी से जुड़ा हुआ है। यह टैगोर के जीवन का एक छोटा-सा परंतु बहुत नाजुक हिस्सा है। यह त्रासद कथा कवि के जीवन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। अखा जाता है कि कवि अंत-अंत तक इसी संबंध पर रचना करते रहे। सुमन घोष ने इसके पहले कई लघु फ़िल्में बनाई हैं। यह पूरी लंबाई की उनकी पहली फ़ीचर फ़िल्म है।

सुमन घोष एक ऐसा नाजुक विषय लेते हैं, जिसमें जरा-सी चूक रवींद्रनाथ की गरिमा और सम्मान को ठेस पहुँचा सकती है। उनके ऊपर बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी ताकि टैगोर के परिवार की प्रतिष्ठा पर आँच न आए और बंगाली भद्र समाज भी उठ खड़ा न हो। कादम्बरी की भूमिका के लिए उन्होंने कंकणा सेन शर्मा को लिया है। क्योंकि रवींद्रनाथ की भाभी कादम्बरी साँवली सुंदरी थी साथ ही बुद्धिमती भी थीं। कंकणा में भी ये गुण मिलते हैं। अभिनेत्री कादम्बरी की आंतरिक भावनाओं को अभिव्यक्त करने में कंकणा सेन शर्मा सक्षम रही है। आज टैगोर के जीवन का यह पहलु सर्वविदित है। उनके भाई-भाभी में उम्र का बड़ा फ़ासला था। शादी के समय कादम्बरी मात्र नौ वर्ष की एक बालिका थी। जबकि टैगोर के भाई की आयु इक्कीस वर्ष थी। बालिका कादम्बरी चूंकि टैगोर परिवार के एकाउंटेंट की बेटी थी अत: घर में उसकी स्थिति थोड़ी भिन्न थी।  मगर उसमें बुद्धि के साथ-साथ सुरूचि भी थी।

परिवार में रवींद्रनाथ उसके समवयस थे। वे भी शांत प्रवृति के एकाकी जीव थे अत: शुरु से दोनों खेल के साथी बन गए। बचपन से युवावस्था तक दोनों साथ थे। फ़िल्म दिखाती है कि ज्योतिरेंद्रनाथ (कौशिक सेन) पत्नी को प्रेम करते थे लेकिन अपने नाटकों तथा पानी के जहाजों को ले कर अधिक व्यस्त रहते थे, पत्नी को बहुत समय और ध्यान नहीं दे पाते थे। इस दृष्टि से ‘कादम्बरी’ ‘चारुलता’ के निकट खड़ी है। वैसे दोनों के चरित्र में बहुत अंतर है। फ़िल्म में युवा रवीद्रनाथ की भूमिका के लिए निर्देशक ने परमब्रतो चैटर्जी को उनके चेहरे के साम्य से अधिक उनके आंतरिक साम्य के लिए चुना है, ऐसा उनका कहना है। अभिनेता पूरब-पश्चिम का संगम है, साथ ही टैगोर और बांग्ला साहित्य पर उसकी अच्छी पकड़ है।

रवींद्रनाथ की यह भाभी कादम्बरी नि:संतान थी और नौ वर्ष की उम्र में डोली में आने वाली ठाकुरबाड़ी से २३ साल की उम्र में अर्थी पर गई। रवींद्रनाथ की मृणालिनी से शादी के तत्काल बाद उसने आत्महत्या कर ली थी। कहा जाता है कि अपनी वृद्धावस्था तक टैगोर उसे की केंद्र में रख कर रचनाएँ करते रहे। सुमन घोष ने अपनी इस क्लासिक-ऐतिहासिक फ़िल्म की पटकथा के लिए खूब शोध किया। मुख्य रूप से उन्होंने ‘छेलेबेला’ तथा ‘जीवनस्मृति’ जैसी टैगोर की रचानओं को खंगाला। चित्रा देब की ‘ठाकुरबारीर अंतरमहल’,  सुनील गंगोपाध्याय का ‘प्रथम आलो’, मल्लिका सेनगुप्ता की ‘कबीर बौथा’ के साथ-साथ उन्होंने टैगोर के विशेषज्ञों, जैसे प्रशांत कुमार पाल, प्रभात मुखर्जी, कृष्ण कृपलानी, अरुणा चक्रवर्ती, ज्ञाननंदिनी, बिनोदिनी दासी तथा सुधीर कक्कड़ के काम का भी सहारा लिया है। फ़िल्म का संगीत बिक्रम घोष ने दिया है। संगीत में कई परम्परागत संगीत यंत्रों का प्रयोग हुआ है। खासकर विद्यापति का गीत बहुत कर्णप्रिय बन पड़ा है। इनडोर और आउटडोर दोनों लोकेशन का का फ़िल्मांकन बहुत खूबसूरती से हुआ है जिसका श्रेय बरुण मुखर्जी को दिया जाना चाहिए। कवि के जीवन के एक मार्मिक काल खंड को परदे पर लाने का ईमानदार प्रयास! इस मार्मिक-करुण-त्रासद कहानी को परदे पर देखने से दर्शक की संवेदनशीलता में अव्शय इजाफ़ा होगा। इसे देखा जाना चाहिए।
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Dr. Vijay Sharma
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हिन्दी उपन्यासों में थर्ड जेंडर

डॉ पुष्पा गुप्ता

जेंडर शब्द लिंग सूचक होता है। ‘थर्ड जेंडर’- शब्द रूप में या साकार जब सामने आता है तो उसका अर्थ परम्परागत स्त्री या पुरूष से इतर व्यक्तित्व होता है। भारत जैसे देश में जहाँ शिवलिंग और योनि की पूजा होती है, जहाँ शिव अर्धनारीश्वर रूप की सामाजिक स्वीकृति है, जहाँ यह माना जाता है कि एक मनुष्य के भीतर स्त्री और पुरुष दोनों भावों का संतुलन ही उसे सफलता की ओर ले जाता है, वहाँ लैंगिक द्वैत से भिन्न यानि परम्परित स्वरूप से अलग यानि अनुपम और अद्वितीय थर्ड जेंडर व्यक्तित्व को सामाजिक रूप से हाशिए पर धकेल दिया गया है। जहाँ नर में नारायण का वास माना जाता हो, जहाँ तैतीस करोड़ देवी-देवता हों, जहाँ विभिन्न गुणों के आधार पर वृक्षों को पूजा जाता हो, जहाँ अपनी सभ्यता और संस्कृति के श्रेष्ठतम होने का दम भरा जाता हो, वहाँ केवल एक जननांग दोष के कारण जीते-जागते व्यक्तियों को पशुवत जीवन जीना पड़ता हो, वहाँ यह त्रासद विडम्बना नहीं तो और क्या माना जाएगा?

डॉ पुष्पा गुप्ता

दूसरों के सिर ठीकरा फोड़ने की मानवीय वृत्ति के अनुरूप यदि हम थर्ड जेंडर की वर्तमान स्थिति के लिए अंग्रेजों को दोषी ठहराएँ या और भी पीछे चले जाएं, बहुतेरे तर्क उपलब्ध हो जाऐंगे या घुमा फिरा कर स्थिति को तार्किक सिद्ध कर दिया जाएगा। पर तब भी हम इस अपराध से कैसे मुक्त हो सकते हैं कि स्वतंत्रता के बाद हमने थर्ड जेंडर के लिए क्या किया? बात-बात पर आंदोलनों की तलवार भांजती तथाकथित स्वयंसेवी संस्थाओं और मानवाधिकार आयोग ने इनके लिए क्या किया?
लेकिन पिछले कुछ दशकों में थर्ड जेंडर के प्रति सामाजिक संवेदनशीलता का विकास हुआ है। संविधान इन्हें वोट का अधिकार देता है। सामान्य स्थितियों में पले-बढ़े इस वर्ग के लोग राजनैतिक परिदृश्य और सरकारी नौकरियों में उच्च पदों पर पहुंच रहे हैं। दिल्ली के तीन विश्वविद्यालयों ने इन्हें शिक्षा के अवसर प्रदान करने की पहल की है। लेकिन यह अपर्याप्त है, इस क्षेत्र में ठोस सुधार की अनंत संभावनाएँ अभी शेष हैं।
सन् 2014 में स्ळठज् यानि-स्त्री समलैंगिक, पुरूष समलैंगिक, उभयलिंगी और ट्रांसजेंडर को सामाजिक एवं संवैधानिक मान्यता प्रदान की है। इसने ‘भ्रामकता’ को जन्म दिया है क्योंकि समलैंगिक या उभयलिंगी व्यक्तित्व यौन व्यवहार के अन्तर्गत आता है जबकि थर्ड जेंडर आंगिक विकार के अन्तर्गत जो कि जन्मजात होता है। दोनों की मूलभूत प्रकृति में अंतर है। लेकिन इस कानूनी स्वीकृति ने यौन व्यवहार संबंधी असामान्यता को अपराध-बोध से मुक्त कर दिया है।
हिंदी कथा साहित्य में विधा की दृष्टि से उपन्यास का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। जिसमें मानव जीवन से संबद्ध तमाम कोनों-अंतरों को झांकने की कोशिश की गई है। परन्तु आलेख के संदर्भ में अध्ययन की दृष्टि से जब मैंने थर्ड जेंडर से जुड़े उपन्यासों को खोजना प्रारम्भ किया तो पाया कि यह विषय इतना उपेक्षित है कि अंगुलियों पर गिने जाने योग्य रचनाएँ ही उपलब्ध होती हैं।
यह एक सत्य है कि यह विषय अत्यन्त बीहड़ है और इसमें प्रवेश का मार्ग अत्यन्त जोखिम भरा है। समाज से इनका अलगाव, इनके प्रति समाज में फैले अंधविश्वास, जागृति और शिक्षा के अभाव में इनके द्वारा किया जाने वाला व्यवहार-कुल मिला कर ऐसा परिदृश्य बनता है कि संवेदनशील कृति की रचना योग्य तथ्यों का अभाव ही रहता है। इसलिए इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री के आधार पर लिखी जाने वाली रचनाओं में तथ्यों का पुर्नप्रस्तुतीकरण प्रमुख हो जाता है और कथा गौण हो जाती है। उपलब्ध रचनाओं में विषय की संवेदनशीलता को गहराई से रेखांकित किए जाने की आवश्यकता अभी शेष है। पर कुछ उपन्यास इतने प्रभावशाली बन पड़े हैं कि मन में आशा का संचार करते हैं।
कथ्य के साथ लेखक के ट्रीटमेंट के आधार पर थर्ड जेंडर से जुड़े उपन्यासों को चार श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है :-
1. जहाँ थर्ड जेंडर केन्द्रीय पात्र के रूप में उपस्थित हैं :-
मैं भी औरत हूँ : अनुसूया त्यागी (2011)
किन्नर कथा : महेन्द्र भीष्म (2014)
मैं पायल : महेन्द्र भीष्म (2016)
पोस्ट बॉक्स नं0 203 नाला सोपारा :  चित्रा मुद्गल (2016)
जिन्दगी 50-50 : भगवंत अनमोल (2017)


मैं भी औरत हूँ : अनुसूया त्यागी (2011)




अनुसूया त्यागी का यह उपन्यास जननांग विकार से युक्त दो लड़कियों रोशनी और मंजुला की कहानी है। जिनकी विकृति के विषय में माँ-बाप को देर से पता चलता है। यह उपन्यास का कमजोर बिंदु है क्योंकि इन दोनों के केस में डाक्टर द्वारा आपरेशन कर योनि का विकास किया गया था। माँ, प्रसव करने वाली दाई या डाक्टर (जिनका उपन्यास में उल्लेख नहीं है), संयुक्त परिवार होने के कारण शेष परिवारी जन-क्या कोई भी बचपन से किशोरावस्था तक उन दोनों के विकार को नहीं जान पाए, एक अविश्वसनीय तथ्य लगता है। इसीलिए लेखिका द्वारा कथा को सत्य घटना पर आधारित बताना और अपनी व्यक्तिगत संबद्धता की बात करना भी संदिग्ध हो जाता है। पेशे से चिकित्सक लेखिका ने एक तथ्यात्मक भूल की ओर ध्यान नहीं दिया है-थर्ड जेंडर वाले बच्चे का जन्म आनुवांशिक विकार के कारण नहीं, हार्मोन्स के असंतुलन के कारण होता है। अतः एक ही परिवार में दो ऐसे बच्चों का जन्म मात्र संयोग ही कहा जा सकता है।
लेकिन उपन्यास का शेष कथानक समाज के लिए एक मिसाल माना जा सकता है, क्योंकि अपनी बेटियों के इस विकार को जानने के बाद मास्टर जी और उनकी पत्नी ने कोई हाय-तौबा, रोना-पीटना या भगवान को कोसना कुछ भी नहीं किया। बल्कि ग्रामीण परिवेश और संयुक्त परिवार व्यवस्था के बावजूद वो किया जिसका साहस अक्सर उच्च शिक्षित और साधन संपन्न लोग भी नहीं कर पाते। वह दोनों अपनी बेटियों को स्त्री रोग विशेषज्ञ के पास ले जाते हैं। डॉक्टर के द्वारा यह समझाने पर कि मंजुला सामान्य जीवन के साथ मातृत्व सुख भी भोग सकती है और रोशनी सामान्य जीवन तो जी सकती है, पर शरीर में गर्भाशय न होने के कारण माँ नहीं बन सकती। वह इस सत्य को सहज रूप से स्वीकार करते हैं।
मास्टर जी, पिता से एकमुश्त धन लेते हैं, किसी को भी बिना बताए दोनों का आपरेशन कराते हैं, ताकि उनकी बेटियों को किसी भी तरह से सामाजिक उपहास न झेलना पड़े। उन्होंने बेटियों का वर्तमान सुधार कर उनके उज्ज्वल भविष्य की नींव रखी। मंजुला और रोशनी की उच्च शिक्षा दिलाई। मंजुला ने विवाह और संतान सुख पाया। रोशनी एक प्रसिद्ध कंपनी की सी.ई.ओ. बनी, पर उसके भीतर स्थित गं्रथि का शमन ओंकार के साथ स्थापित संबंध के बाद ही होता है। दोनें विवाह करते हैं, सरोगेट मदर के द्वारा संतान उत्पत्ति का प्रयास करते हैं, धोखा खाते हैं, एक बच्ची को गोद लेते हैं, अरसे बाद अपने बेटे को पाते हैं, दत्तक पुत्री से उसका विवाह करते हैं।
उपन्यास एक सार्थक दिशा देता है कि चिकित्सा शास्त्र का सहारा लेकर ऐसे विकार ग्रस्त बच्चों को जीवन दान दिया जा सकता है। परिवार में उपलब्ध सामान्य परिस्थितियाँ और उचित मार्गदर्शन इस तरह की परिस्थिति को सकारात्मक दिशा की ओर ले जाता है। यह उपन्यास एक स्टीरियो टाईप से अलग औरत की छवि बनाता है कि स्त्री मात्र गर्भाशय नहीं है। वह दिल-दिमाग युक्त एक जीवित स्पन्दन है।
लेखिका इस एक विकार के समानान्तर अन्य सामाजिक विकृतियों को भी दिखाती हैं -गाँव के घरों में शौचालय का अभाव, शौच के लिए जाने पर शारीरिक उत्पीड़न का भय या उससे गुजरना, मर्दवादी पुरूषों नकुल और सौरभ द्वारा रोशनी का त्याग, यौन शुचिता का प्रश्न आदि। यहाँ लेखिका यह भी सिद्ध करती है कि यदि पुरूष सभी रूपों में मानवीय गरिमा के साथ उपस्थित हों - जैसे मास्टर तुलसीराम, डॉ0 विपिन, दादा जी और ओंकार-तो कोई भी स्त्री समाज में स्वयं को असुरक्षित और हीन अनुभव न करे।



किन्नर कथा : महेन्द्र भीष्म (2014)






सामाजिक कार्यकर्त्ता और न्याय व्यवस्था से संबंद्ध लेखक महेन्द्र भीष्म ने बुंदेला इतिहास की एक समृद्ध रियासत को कथा भूमि बनाया है और कथानक को सत्य घटना पर आधृत बताया है। साथ ही कथा की ऐतिहासिकता और प्रामाणिकता के लिए कुछ तिथियाँ भी दी हैं। उपन्यास दो उच्च कुलों में उत्पन्न तारा और सोना की कथा कहता है जिसमें लेखक ने बीच-बीच में ‘थर्ड जेंडर’ पर सैद्धान्तिक विवेचन को गूंथा है जो कथा में संवेदना जगाने के स्थान पर कथा को बोझिल करता है। किन्नर समाज के विषय में विस्तृत जानकारी दिए बिना भी कथा सूत्र को विकसित किया जा सकता था। यहाँ कथा फीचर में तब्दील होती दिखाई देती है।
पर लेखक यह सिद्ध करने में सफल हुआ है कि ‘थर्ड जेंडर’ बच्चा या बच्ची अपनी कुलीन पृष्ठभूमि के बावजूद अपने ही घर में उपेक्षा का दंश झेलता है। यही कारण है कि देर से ही सही सोना की अपूर्णता का ज्ञान जगतसिंह पर गाज बनकर गिरता है। अपनी तथाकथित प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए वह दीवान को उसकी हत्या का आदेश दे देते हैं। ऐन मौके पर दीवान के भीतर का मनुष्य जाग जाता है। घटना क्रम सोना को सज्जन और नैतिक मूल्यों से परिपूर्ण किन्नर गुरू तारा तक पहुंचा देता है, जहां एक पूर्ण स्त्री मातिन द्वारा सोना उर्फ चन्दा का पालन पोषण होता है। तारा गुरू अपने परिवार के संपर्क में है। अपने अतीत और वर्तमान के अंतर को गहराई से जीती तारा गुरू केवल साधारण किन्नर बनकर नहीं रह जाती। बल्कि लेखक ने यह दिखाया है कि औरों से अलग तारा गुरू के डेरे के किन्नर सत्मार्ग पर चलकर भी अच्छा जीवन बिताते हैं। स्वयं खेतीबाड़ी भी करते हैं यहाँ तक कि तारा गुरू अपने डेरे पर आने वाले किन्नरों का चिकित्सीय परीक्षण करवाती है। यदि किसी को इलाज से सामान्य जीवन मिलता है तो स्वयं के खर्च पर वह भी करवाती है।
चन्दा राई नृत्य में दक्ष है। जब तक तारा गुरू जीवित रहती है कभी जैतपुर का रूख नहीं करती। लेकिन उसकी मृत्यु के बाद तारा गुरू की प्रतिज्ञा से अनजान सोनिया जैतपुर का आमंत्रण स्वीकार कर लेती है। इसी संयोगात्मक स्थिति का समावेश लेखक ने समाधान देने के लिए किया है। गढ़ी में पहुँचकर बचपन की स्मृतियों का साक्षात्कार चंदा को उद्विग्न कर देता है। इसीलिए नृत्य के दौरान वह अस्वस्थ होकर गिर पड़ती है। एक नाटकीय घटनाक्रम से पूरा परिवार फिर एक साथ है।
सुखांत की तर्ज पर लेखक ने जगतसिंह का हृदय-परिवर्तन दिखाया है। कुंवर द्वारा स्थिति को समझे बगैर गोली चलाने के बाद भी चंदा उर्फ सोना को लंबे आपरेशन के बाद जीवनदान मिलता है। शोभना द्वारा परिवार में सोना की स्थिति के बारे में हुई चर्चा के बाद चिकित्सीय परीक्षण और सामान्य आपरेशन के बाद सोना के सुखद भविष्य की तस्वीर दिखाई गई है।
तारा गुरू का भतीजा मनीष चंदा की वास्तविकता जानकर भी उससे प्रेम करता है, उसके साथ जीवनयापन करना चाहता है। यह स्थिति सकारात्मक है क्योंकि हमारे यहाँ तो शेष सभी आंगिक विकार युक्त लोगों का समान्यतः घर-बार का सुख मिल जाता है। पर थर्ड जेंडर के लोगों को इससे वंचित ही रहना पड़ता है।
यहाँ एक ओर तथ्य की ओर लेखक ने ध्यान दिलाया है कि उपन्यास के रचनाकाल में हमारे देश में इस तरह की सामाजिक जागृति का नितांत अभाव था, लेकिन विदेशों में इस तरह की सुविधाएँ उपलब्ध थीं। इसके अतिरिक्त शिक्षा ही एकमात्र ऐसा माध्यम है जो मनुष्यों को मानसिक जकड़बन्दी से मुक्त कर मानसिक विकास की ओर ले जा सकता है। परम्पारित मान्यताओं और किन्नरों के प्रति पूर्वाग्रहों को चिकित्सा शास्त्र के आलोक मे ंपरख कर इस उपेक्षित वर्ग को भी सामान्य जीवन दिया जा सकता है। तब इनके सामने अपनी अस्मिता की रक्षा का प्रश्न नहीं रहेगा।



मैं पायल : महेन्द्र भीष्म (2016)







‘मैं पायल’ के रूप में महेन्द्र भीष्म ने पाठकों के समक्ष ‘थर्ड जेंडर’ पर दूसरी रचना प्रस्तुत की है। यह एक वास्तविक चरित्र पायल सिंह के जीवन संघर्ष को आधार बनाकर लिखा गया है। अतः यह जीवनी परक उपन्यास की श्रेणी में आता है। इसलिए इसमें यथार्थ का खुरदुरा धरातल हैं, यह रचना पायल के जीवट की कहानी कहते हुए समाज के अमानवीय और मानवीय दोनों पक्षों को सामने रखती है।
पायल उर्फ जुगनी का जीवन इस बात का प्रमाण है कि अपने ही परिवार में उपेक्षा का दंश झेलना इतना यंत्रणापूर्ण हो जाता है कि बच्चा घर छोड़ने के लिए विवश हो जाता है। लेकिन बाहर के संसार की निर्ममता के बीच भी स्नेह और कोमलता का एहसास उसे मरने नहीं देता। वह रेल, रेलवे स्टेशन पर प्रौढ़ों के द्वारा यौन शोषण का शिकार होती है। अपनी बुद्धिमता से वेशभूषा बदल कर वह तात्कालिक तौर पर अपनी रक्षा कर लेती हैं। पंडित जी के यहाँ नौकरी, सिनेमा हाल में नौकरी इन स्थानों पर मानवीय चेहरा पाठकों के समक्ष आता है। लेकिन प्रमोद द्वारा छेड़छाड़ के दौरान पायल का स्त्रीरूप उजागर हो जाता है तो संतोष सिंह दूसरे स्थान पर पायल की नौकरी की व्यवस्था करते हैं।
पायल के भीतर लगातार आगे बढ़ने की भावना बलवती है इसलिए वह गेट कीपर से प्रोजेक्टर रूम आपरेटर बन जाती है। फिल्मों का सर्वव्यापी प्रभाव भी उसे आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करता रहता है। वह अपनी मिमिक्री करने की योग्यता, अपनी गायन योग्य आवाज के बल पर लखनऊ में अपना कैरियर बनाना चाहती है लेकिन किन्नरों द्वारा पकड़ ली जाती है। एक दुखद घटनाक्रम पायल के तन-मन दोनों को आहत करता है। वह वापस कानपुर लौटकर स्वयं के शरीर के स्तर पर भी बलिष्ठ बनाती है। अगला घटनाक्रम उसे लखनऊ आकाशवाणी में काम दिला देता है। वह अपनी योग्यता के बल पर प्रसिद्धि और धन दोनों की अधिकारिणी बन गई थी। अशोक के रूप में प्रेम भी पायल को मिला, पर उसी अशोक ने अपने को जीवन से निष्कासित कर देने की प्रतिहिंसा में पायल को पायल गुरू बनने के लिए प्रेरित किया। पायल ने आगे बढ़ने के क्रम में इंटरनेट और यू ट्यूब का उपयोग भी करना सीखा।
पायल के जीवन में आए उतार-चढ़ाव समाज के गलीच व सुन्दर दोनों पक्षों को उद्घाटित करते हैं। पर किन्नर की नियति नहीं बदलती या सामाजिक यथास्थितिवाद उसे बदलने नहीं देता। यह भी स्पष्ट होता है कि यदि सभी किन्नर व्यक्तिगत रूप से अपनी स्थिति में सुधार लाना चाहें और अपना मानसिक एवं वैयक्तिक विकास करते हुए अन्य क्षेत्रों में रोजगार की संभावनाओं को तलाशें तो सकारात्मक परिणाम मिल सकते हैं।



पोस्ट बॉक्स नं0 203 नाला सोपारा : चित्रा मुद्गल (2016)







वरिष्ठ लेखिका चित्रा मुद्गल का नवीनतम उपन्यास ‘पोस्ट बॉक्स नं0 203 नाला सोपारा’, थर्ड जेंडर को आधार बनाकर पर्याप्त संवेदनशीलता से लिखा गया है। लेखिका ने इसकी घटनाओं की प्रत्यक्ष दर्शिता का कोई दावा नहीं किया है। लेकिन उपन्यास का समर्पण - ‘नरोत्तम, यह उपन्यास तुम्हारी ओर से ही तुम्हारी बा के लिए’ ही इस सत्यता को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है। फिर कुछेक साक्षात्कारों में उन्होंने इस घटना के नायक के जीवन को अपने नाला सोपारा के प्रवास के दिनों में देखने और कथानायक को अपने घर में रखने की बात भी स्वीकारी है। यही कारण है कि उन्हें उपन्यास के प्रारम्भ में डिस्क्लेमर देने की आवश्यकता अनुभव हुई।
उपन्यास की संवेदना के चरम को आत्मसात करने के लिए आवश्यकता है कि उसे अंत से पढ़ा जाए। क्योकि अंत यानि समाचार-दो, जिसमें एक किन्नर की लाश बरामद होने की बात और हत्या में अंडरवर्ल्ड की भूमिका की बात कही गई है। अनुमान से यह स्पष्ट है कि लाश बिन्नी उर्फ विनोद की है। यह मात्र एक साधारण घटना समझ कर छोड़ी नहीं जा सकती। यह छोटा सा समाचार राजनीति और वोट बैंक के समीकरण को अनावृत करता है। विधायक जी जान चुके थे कि कुशाग्र विनोद उनके हाथ की कठपुतली बन संकेतों पर नहीं नाचेगा। क्योंकि वह आरक्षण की नहीं, किन्नरों के स्वविवेक की जागृति की बात कर रहा है। दूसरी घटना-विधायक जी के भतीजे और उसके मित्रों द्वारा पूनम जोशी के साथ अमानवीय और बर्बर बलात्कार को अंजाम देना है। विधायक जी पूनम जोशी और बिन्नी के बीच के कोमल संबध्ां को पहचानते थे। इसीलिए दुर्घटना के बाद विनोद को वापस साथ नहीं लाए और आनन-फानन में चंडीगढ़ के स्थानीय नेताओं के साथ मिलकर सभा का आयोजन करा डाला। वापिस दिल्ली लौटने पर भी वह अस्पताल से उसकी दूरी बनाए रखना चाहते थे, बल्कि सभा और स्थानीय कार्यक्रमों में उलझाना चाहते थे। ताकि इस क्रूर घटना की बारीकियाँ उस तक न पहुँचे और वह उसका राजनैतिक उपयोग न कर सके। विनोद का बंबई जाना उनके लिए एक सुनहरा अवसर है और उसका भरपूर उपयोग करते हुए विनोद की हत्या करा दी जाती है।
बिन्नी चौहद वर्ष तक परिवार में रहकर संस्कारित एवं शिक्षित होता है। वह पढ़ने में तेज़ है, भविष्य में गणितज्ञ बनना चाहता है। प्रारम्भ में तो मंजुल को दिखाकर चंपाबाई को टरका दिया जाता है, लेकिन बाद में ऐसा न हो सका और उसे एक नितान्त ही अपरिचित संसार का अंश बनने को विवश होना पड़ा। यह त्रासदी बहुआयामी है। माँ-बाप सामाजिक शर्म से बचने के लिए सब कुछ बेचकर घर बदल देते हैं। संबंधियों और स्कूल दोनों स्थानों पर अलग-अलग झूठी कहानी सुना कर बिन्नी की मृत्यु प्रचारित कर दी जाती है। सिद्धार्थ भविष्य में भी अनजान भय से मुक्त नहीं हो पाता और अपनी संतान के जन्म के समय भी डरा हुआ रहता है। मंजुल का बचपन मां की गहन मानसिक पीड़ा की छाया में ढक जाता है। अपनी मृत्यु से पूर्व जब बन्दना बेन समाज की रूढ़ मान्यताओं से विद्रोह कर अपने मन की करना चाहती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
जब बिन्नी उर्फ विनोद उर्फ बिमली की माँ बंदना बेन का माफीनामा सार्वजनिक रूप से प्रकाशित होता है यानि जब जीवन अपनी समग्रता में बांहें पसार कर विनोद की तरफ आता है, निर्मम राजनीति उसे लील लेती है।
चित्रा जी ने उपन्यास के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति, स्थिति, व्यवस्था को कठघरे में खड़ा किया है। दूसरों के कंधों पर बन्दूक रखना सबसे आसान है। इसलिए शुरूआत घर से ही होनी चाहिए। जब परिवार ही इन जननांग दोषी बच्चों को डंके की चोट पर स्वीकारेगा, तो समाज कैसे उसे प्रताड़ित करेगा? संविधान इन्हें शिक्षा का अधिकार देगा तो शिक्षा संस्थाएं कैसे मना करेंगी? फिर राजनीतिज्ञों के लिए ये केवल वोट बैंक नहीं रहेंगें? लेखिका ने स्वयं किन्नरों को भी उनकी अपनी स्थिति के लिए दोषी ठहराया है क्योंकि अपने जीवन में जिस विस्थापन, उपेक्षा, अपमान को वे स्वयं झेलते हैं। आगे आने वालीपीढ़ियों के लिए भी वैसी ही पृष्ठभूमि तैयार कर देते हैं। क्योंकि उनका उद्देश्य भी अपनी शक्ति बढ़ाना होता है। इन्हें यह निर्णय परिवार के विवेक पर छोड़ देना चाहिए कि बच्चा परिवार का अंश रहेगा या किन्नरों के डेरे का। तब निश्चित ही परिवार, समाज के अनावश्यक भय से मुक्त होकर अपनी संतान को स्वयं ही पालेगा। यदि यह वर्ग स्वयं शिक्षा की ओर कदम बढ़ाए तो इनके अड्डे यौनाचार और रोग के प्रतीक न बनकर अपनी विकलांगता पर विजय का प्रतीक बन जाएँ। समाज की एक सार्थक इकाई के रूप में तब यह वर्ग स्वयं को स्थापित कर सकेगा।
परम्परित पत्र-विधान शैली के बीच-बीच में स्मृतियों के गलियारे में आवाजाही करते हुए बिन्नी अपने जीवन को, उसकी सम्पूर्ण त्रासदी को मार्मिक ढंग से व्यक्त करता है। लेखिका कहना चाहती है कि रूढ़, परम्परित, मानसिक पूर्वाग्रहों को केवल बातों के सहारे परिवर्तित नहीं किया जा सकता, बल्कि एक या दो पीढ़ियों को अपना सर्वस्व बलिदान कर नवीन विचार को समाज की मानसिकता में प्रत्यारोपित करना पड़ेगा, तभी न समाज बदलेगा।



ज़िन्दगी 50-50 : भगवंत अनमोल (2017)







भगवंत अनमोल- एक 27 वर्षीय इंजीनियर लेखक का यह तीसरा उपन्यास ‘ज़िन्दगी 50-50’ सहज, सरल शैली में एक संवेदनशील विषय पर लिखी ऐसी रचना, जो सिद्ध करती है कि जिन्दगी हमें एक अवसर अवश्य देती है अपनी गलती सुधारने का। यह हम पर निर्भर करता है कि हम उस अवसर का क्या करते हैं?
नायक अनमोल के जीवन के दो छोर हैं-पहला भाई हर्षा या हर्षिता, दूसरा बेटा सूर्या। इन दोनों के बीच घटित हुई और अव अदृश्य प्रेम कथा है जिसकी नायिका अनाया अपने चेहरे पर जन्मजात धब्बे के कारण पहले अनमोल की उपेक्षा और बाद में प्रेम की पात्र बनती है। नायक यह संदेश देना चाहता है कि यदि जन्मजात दाग के साथ प्रेम संभव है तो जननांग विकार युक्त स्त्री या पुरूष को भी स्वीकारा जाना चाहिए। यह अलग बात है कि अनमोल अपने पिता की आड़ लेकर ही अनाया से विवाह नहीं करता। अनमोल के पिता ने अपने रसूख के चलते एक लंबे समय तक हर्षा को अपने साथ ही रखा और शिक्षा दिलायी। लेकिन अपनी सामंती अकड़ के चलते उन्होंने हर्षा की भावनात्मक ज़रूरतों की ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया या कहना चाहिए कि वैसी जागरूकता उनमें थी ही नहीं। यही कारण है कि अपरिचित व्यक्ति द्वारा यौन-अपराध का शिकार होने के बाद भी वे हर्षा को ही दोषी मानते हैं और उस अत्याचार के प्रतिकार का कोई उपाय नहीं करते। आहत और खंडित हर्षा कस्तूरी के डेरे में आ जाता है और उन्हीं के जीवन के अपना लेता है। फिर बस में भीख मांगते समय पिता की आंखों के आंसू हर्षा को मुंबई के मार्ग पर ले जाते हैं। जहाँ उसका सखा और भाई अनमोल है। अनमोल महानगर का अंश बन चुका है। अतः जमीन के प्रति गांववासी पिता की मानसिकता को समझने में असमर्थ है। लेकिन पिता से अपेक्षित हर्षा स्वयं को देह व्यापार में धकेल एड्स का शिकार होता है और पिता को जमीन का सुख देकर आत्महत्या कर लेता है।
अनमोल हर्षा के डायरी लिखने की आदत से परिचित था, हर्षा के मृत्यु के बाद डायरी के अंत में लिखा कि मैं फिर वापस आऊँगी-अनमोल के जीवन में सत्य सिद्ध हो जाता है। पत्नी आशिका से उत्पन्न पुत्र सूर्या भी जननांग दोषी है। हर्षा का अनुभव, उसकी मृत्यु और उसके प्रति प्रेम के कारण-सूर्या के संदर्भ में अनमोल ढ़ाल बन कर खड़ा हो जाता है। एक सामान्य बच्चे के जन्मोत्सव की तरह पार्टी का आयोजन करता है और लोगों द्वारा सूर्या के विकार पर अंगुली उठाने पर अनमोल सभी पड़ोसियों की कलई खोल देता है।
सूर्या के जीवन के प्रत्येक क्षण और मोड़ पर अनमोल अपने वैचारिक औदार्य के साथ खड़ा होता है। सूर्या को उसकी अस्मिता के प्रति किसी भी अतिरिक्त सजगता से बचाते हुए वह उसका लालन-पालन एक सामान्य बच्चे की तरह करता है। बल्बि हर्षा की डायरी ने अनमोल को सूर्या की मनःस्थिति समझने में गाइड़ का काम किया। लड़कियों की तरह सजने-संवरने की उसकी प्रवृति को सामान्य ही माना, क्योंकि सूर्या की इस मानसिक आवश्यकता की तुष्टि आवश्यक थी।
उपन्यास का अंत नाटकीय या संयोगात्मक वृत्ति से परिचालित है। जहां प्रेमिका अनाया से उत्पन्न पुत्र अनमोल (जूनियर) और सूर्या आमने-सामने हैं। अनाया हर्षा के विषय में परिवार की त्रासदी से परिचित थी, उसने अपने बेटे को संस्कारी और नैतिक मूल्यों से युक्त बनाया है इसलिए सूर्या के जेंडर कालम में अन्य पर निशान लगा देखकर वह इंटरव्यू को स्वेच्छा से छोड़ देता है क्योंकि वह मानसिक रूप से इतना परिपक्व है कि सूर्या की असफलता की दशा में उसकी पीड़ा युक्त मनोदशा का अनुमान लगा लेता है। लेखक संप्रेषित कर रहा है कि यदि सभी लोग थर्ड जेंडर को समान समझे, उपहास का पात्र न समझे ंतो सभी सूर्या की भांति अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। किन्नर कस्तूरी का दर्द कि तेरे पिता तुझे घर में भी रखे हुए हैं और पढ़ा भी रहे हैं-मन को झिंझोडता है और इन्हें पारिवारिक परिवेश दिए जाने की मांग करता है। तभी तो ज़िन्दगी 50-50 बनेगी, अपनी कुरूपता और अपने सौंदर्य दोनों के संतुलन से। लेखक ने अपने कथ्य की संप्रेषणीयता की प्रभावशीलता के लिए एक ही परिवार की दो पीढ़ियों में थर्ड जेंडर बच्चों का जन्म दिखाया है, यह मात्र संयोग हो सकता है, क्योंकि चिकित्सा-शास्त्र इस विकार को आनुवांशिक नहीं मानता। लेखक ने कहीं भी अतिरिक्त बयानबाजी से बचते हुए सहजता से समाधान प्रेषित कर दिया है।


2. जहाँ थर्ड जेंडर एक अन्य कथा के समानान्तर रूप में आता है
यमदीप : नीरजा माधव (2002)
तीसरी ताली : प्रदीप सौरभ (2011)


यमदीप : नीरजा माधव (2002)







थर्ड जेंडर पर लिखा गया प्रथम उपन्यास अपने शीर्षक की प्रतीकात्मकता से ‘थर्ड जेंडर’ को बखूबी जोड़ता है। यह स्थापित करता है कि यमदीप की भांति किन्नरों को भी अपनी स्थिति सुधारने का प्रयास करने की पहल स्वयं ही करनी होगी।
उपन्यास में दो -नाजबीबी और सोना तथा मानवी और आनंद की कथाएँ समानान्तर चलती हैं। बीच-बीच में एक-दूसरे के निकट से गुजरती हैं। मानवी गांव की स्थितियों से निकलकर शिक्षा ग्रहण करती है। शहर में आकर नौकरी करती है। पत्रकारिता के क्षेत्र में व्याप्त सडांध से टकराती है, बार-बार अपने को बचाती है। जीवन का संघर्ष उसके भीतर पर्याप्त संवेदनशीलता का विकास करता है। तभी तो वह वंचितों के प्रत्येक मुद्दे पर काम करने को लालायित रहती है। परिवार के स्तर पर भी सामान्य, परम्परागत ईर्ष्यालु स्थितियों से जूझती है।
नाजबीबी उर्फ नंदरानी समाज की दृष्टि से किन्नर होने के कारण उपेक्षित है लेकिन उपन्यास में अपनी संपूर्ण मानवीय गरिमा और औदात्य के साथ उपस्थित है। जहाँ तथाकथित मनुष्यों की संवेदना नहीं पसीजती, वहाँ नाजबीबी अपने साथियों के साथ पगली का प्रसव कराती है और पगली की जीवन-समाप्ति पर स्वयं ही बच्ची को पालने का निर्णय लेती है। फिर उसे पालने के लिए किए जाने वाले प्रयासों को जैविक माता-पिता द्वारा किए जाने वाले प्रयासों से किसी भी अर्थ में कम नहीं आंका जा सकता। नाज बीबी छैलू के साथ मिलकर सोना के लिए हर संभव सुविधा जुटाने का प्रयास करती है। कानूनी और पुलिसिया अत्याचार से बचने के लिए उसको छिपा कर पालती है। एक गिरिया रखकर सोना के पालन-पोषण के लिए धन की व्यवस्था करती है। उसके सुख-दुख से प्रभावित होती है। वह स्वयं एक संस्कारी परिवार से पली-बढ़ी थी। माता-पिता ने घर से निष्कासित नहीं किया था, पर शेष बहनों-भाईयों के व्यवहार ने परिवार में दमघोंटू वातावरण बना दिया था, तो नंदरानी ने स्वयं ही स्व-निष्कासन का मार्ग चुन लिया था। यही कारण था कि वह सोना को अच्छी कहानियाँ सुनाकर, अच्छी बातें करके संस्कारवान बनाने का प्रयास करती है। शिक्षा के महत्व से परिचित है इसलिए सोना को स्कूल भेजती है। पर बड़ी होती सोना की मानसिक और शारीरिक अवस्था से अनभिज्ञ है, तभी तो सोना को मासिक की शुरूआत होने पर वे उसे नजदीक के डाक्टर के पास ले जाते हैं। डाक्टर की पुलिस को दी सूचना के आधार पर ही सोना का जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है लेकिन ‘सत्यं शिवं सुन्दरं’ की भारतीय दार्शनिक पद्धति का अनुसरण करते हुए लेखिका ने सोना के पुनरूद्धार का मार्ग प्रशस्त किया है। इसके लिए लेखिका ने मानवी और डी.एम. आनन्द कुमार को माध्यम बनाया है। इसके लिए प्रारम्भ से ही नाजबीबी और मानवी के मध्य एक कोमल तंतु विकसित होते दिखाया है। वह पत्रकार है, निर्भीक है और स्त्रियों के प्रति संवेदनशील है, उनके जीवन से जुड़े मुद्दों को समझने का प्रयत्न करती है। तभी तो प्राणों पर खेलकर सोना की रक्षा के लिए व्यवस्था से टकरा जाती है। ऐसी भ्रष्ट व्यवस्था जिसमें पुलिस और नेता दोनों की मिलीभगत थी और उसके अपने पत्रकार साथी भी उसे अकेला छोड़कर भाग गए थे।
उपन्यास तृतीय लिंग के लोगों के विषय में केवल चर्चा नहीं करता, बल्कि लेखिका द्वारा किया उनका चित्रण लेखिका के गहन अध्ययन का परिचय देता है। समाज के सकारात्मक और नकारात्म्क दोनों पक्षों को उद्घाटित करता है। मानवीय गुण और शिव संकल्प दोनों मिलकर नाज बीबी को एक उपास्य और अनुकरणीय चरित्र के रूप में प्रतिष्ठित कर देते हैं। महताब गुरू के माध्यम से लेखिका ने किन्नर समुदाय के विषय में समाज में व्याप्त बहुत से भ्रमों और अंधविश्वासों की सत्यता को उजागर किया है। उनके द्वारा जीवन के अनुभवों से अर्जित दार्शनिकता किसी शिक्षित और संवेदनशील व्यक्ति से कम नहीं है। वह सामुदायिक एकता को जिस प्रकार जोड़े रख सके और नाजबीबी को सोना के मामले मे संरक्षण और सहयोग दिया, अतुलनीय है। समय-समय पर समाज पर किए उनके तीखे व्यंग्य मर्मांतक है। इनके बीच ही परिवार, समाज, राजनीति, मीडिया सभी के दोहरे चरित्र उभरकर आते हैं। एक ओर प्रश्न उपन्यास रेखांकित करता है कि यदि मीड़िया वास्तव में अपने चरित्र का निर्वाह करे तो समाज से विकारों को समाप्त करने में आसानी हो सकती है। लेकिन बाजार या अर्थ तंत्र के दबाव से मुक्त होकर काम करना भी तो सरल नहीं है। राजनीति का वीभत्स और घृणित रूप तो दिनों दिन सामने आता ही है और अब कोई विस्मय भी नहीं जगाता, पर हां उसका सर्वग्रासी प्रभाव अवश्य सामान्य मनुष्य के जीवन को मलिन करता है।
उपन्यास के अंत में स्त्री-मानवी, पुरूष-आनंद और थर्ड जेंडर-नाजबीबी के संयोग से एक सुन्दर समाज का स्वप्न रचना अभिनन्दनीय है।


तीसरी ताली : प्रदीप सौरभ (2011)








प्रदीप सौरभ का उपन्यास ‘तीसरी ताली’ स्ळठज् यानि स्त्री समलैंगिकता, पुरूष समलैंगिकता, उभयलिंगी कामी और थर्ड जेंडर की कथा है। इस तरह वह जननांग विकार दोषी और असामान्य यौन व्यवहार युक्त व्यक्तियों-दोनों वर्गो की सामाजिक एवं मानसिक त्रासदी को अभिव्यक्त करते हैं। पेशे से पत्रकार लेखक ने अपनी पेशागत कुशलता यानी खोजी वृत्ति का उपयोग करते हुए ढेर सारी नवीन जानकारियां उपलब्ध कराई हैं। लेखक द्वारा पात्र और कथाएँ यथार्थ की भूमि पर चित्रित किए गए हैं। अतः अतिरंजना से बचे रहते हैं, बल्कि उपन्यास भारत के किसी भी भू-भाग के चरित्रों का प्रतिनिधित्व करता दिखाई देता है।
लेखक ने जन्मजात विकार युक्त और परिस्थिति का शिकार होकर बने हिजड़ों-दोनों के अनुभवों की विविधता और समानता को दर्शाया है। थर्ड जेंडर के सम्बन्ध में प्रचलित कुछ विश्वासों को घटनाओं के हवाले से पुष्ट कर दिया है और कुछ नई जानकारियाँ भी प्रस्तुत की है। इन चारों वर्गो के साथ देह और यौनिक व्यवहार जुड़े हैं। लेखक देह व्यापार के संबंध में नवीन जानकारी देता है कि वैश्विक आर्थिक मंदी का भी दुष्प्रभाव देह-व्यापार पर पड़ा है और इस क्षेत्र में भी गिरावट आई है। यह उपन्यास विनीत उर्फ विनीता, राजा उर्फ रानी, ज्योति, मंजू और विजय की कहानी है। यहाँ केवल भोथरी संवेदना का चित्रण नहीं है, बल्कि शिक्षा, प्रशिक्षण और अवसर की उपलब्धता के माध्यम से थर्ड जेंडर के लोगों के आर्थिक, सामाजिक विकास का मार्ग प्रशस्त होता दिखाया गया है।
विनीत-पारिवारिक और सामाजिक उपेक्षा का शिकार है। स्कूलों का वैचारिक पूर्वाग्रह उसे शिक्षा से वंचित रखता है, पर पिता उसे प्रतिष्ठित संस्थान से ब्यूटीशियन का कोर्स करवा देते हैं जो भावी जीवन में उसके उत्कर्ष का माध्यम बनता है। गृह-त्याग, देह-व्यापार और इंस्पेक्टर राज चौधरी तक पहुँचना-उसके जीवन के वे बिंदु थे जो भावी विकास और अस्मिता के सामाजिक स्वीकार में सहायक सिद्ध हुए। एक छोटा सा प्रशिक्षण और परिश्रम या काम की ईमानदारी विनीत के विनीता में रूपान्तरण का मार्ग सुगम कर देती है और वह एक नवीन संकल्पना (भारत के संदर्भ में) ‘गे पार्लर’ का सूत्रपात करती है। इसी के द्वारा यश, प्रसिद्धि, सामाजिक स्वीकार सब कुछ पा जाती है। अब उसका व्यक्तित्व ‘पेजश्री’ का एक मुख्य नाम बन जाता है। ज्योति के द्वारा सामंतवादी कुप्रथा ‘लौंडा रखना’ के विषय में खुलासा किया गया है कि जब तक सामंतवादी सनक के अनुरूप ज्योति का जीवन चलता है, तब तक वह श्याम सुन्दर सिंह का प्रिय रहता है। लेकिन किसी और के चूमने मात्र से ही वह उनके लिए अस्पृश्य हो जाता है। निर्धनता ने पहले उसे लौंडा बनाया और बाद में हिजड़ों के अड्डे तक पहुँचाया। वह अनुभव करता है कि असामान्य सैक्स व्यवहार करते-करते वह अपना सामान्य व्यवहार भूल चुका है और वह स्वेच्छा से लिंगोच्छेदन करवा उसी जमात में शामिल हो जाता है। यह धनवान और निर्धन के समीकरण का एक भयावह और त्रासद पहलू है।
मंजू और राजा के साथ डिम्पल गुरू द्वारा किया गया व्यवहार इस समुदाय के अमानवीय पक्ष को सामने रखता है। किसी भी कारण से हिजड़ों के डेरे का अंश बन गए सामान्य लोगों को क्या अपना यौन व्यवहार थर्ड जेंडर जैसा कर लेना चाहिए? अर्थात जिस प्राकृतिक अभिशाप से वे स्वयं अभिशप्त हैं उससे आगे बढ़कर वे दूसरों के लिए कोई सकारात्मक मार्ग प्रशस्त नहीं करना चाहते। तभी तो अपनी पालित पुत्री मंजू और राजा के प्रेम और मंजू का गर्भवती होना डिम्पल गुरू स्वीकार नहीं कर पाती। प्रतिशोध में मंजू का गर्भाश्यच्छेदन और राजा का लिंगोच्छेन करवा वह उन्हें अपनी बिरादरी में शामिल कर देती है।
मंजू जब तक वास्तविकता से परिचित होती है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। वर्षो बाद सुन्दर मंजू पर फोटोग्राफर विजय की दृष्टि पड़ती है। वह उसे एक कैलेण्डर की मॉडल के रूप में प्रस्तुत करता है। मंजू का स्त्रीत्व उसे विजय की ओर आकर्षित करता है, लेकिन यथार्थ का तीखा प्रहार मंजू पर तब होता है जब उसे विजय के हिजड़ा होने का पता लगता है। लेकिन विजय का चरित्र यह सिद्ध करने में सफल है कि यदि काम का हुनर हाथ में हो और काम करने की मानसिकता हो तो सफलता आपके कदम चूमती है। सुविमल और अनिल, यास्मीन और जुलेखा के माध्यम से लेखक ने समलैंगिकता को दिखाया है और यह भी दिखाया है कि संवैधानिक स्वीकृति किस प्रकार प्राकृतिक रूप से असामान्य यौन-व्यवहार ग्रस्त लोगों को अपराध बोध से मुक्त कर सहज करने की दिशा में कारगर सिद्ध होती है।
इसके अलावा उपन्यास में हिजड़ों के प्रकार, उनके रीति-रिवाज, कुवागम मेला, वहाँ की गतिविधियाँ सब का विस्तृत वर्णन किया गया है, जो पाठक को जानकारी तो देता है, पर कहीं-कहीं रस बाधक भी बनता है।


3. जहाँ थर्ड जेंडर एक उपयोगी पात्र के रूप में उपस्थित है
गुलाम मंडी : निर्मला भुराड़िया (2014)
डॉमनिक की वापसी : विवेक मिश्र (2015)


गुलाम मंडी : निर्मला भुराड़िया (2014)







पत्रकार निर्मला भुराड़िया का उपन्यास ‘गुलाम मंडी’ मूलतः मनुष्यों की खरीद-फरोख्त यानि हृयूमन ट्रैफिकिंग, अपने सौन्दर्य पर मुग्ध कल्याणी, वेश्यावृत्ति, फिल्म उद्योग, एड्स रोगियों, मनोचिकित्सक का काम करते बाबा मिलारेपा, लक्ष्मी, जानकी, मोहन और इन सबके साथ किन्नर रानी और अंगूरी की कथा है। उपन्यास के पूर्वार्ध में एक अध्याय किन्नरों पर दिया गया है लेकिन उससे पहले सर्पदंश के माध्यम से अपनी पीड़ा को कम करवाने का प्रयास करने के क्रम में कल्याणी की अंगूरी और रानी से मुलाकात किन्नरों के डेरे पर ही दिखाई गई है। उपन्यास की भूमिका में लेखिका ने ‘थर्ड जेंडर’ के प्रति कुछ परम्परागत रसमी बातें भी कहीं है जो संवेदनशीलता की परिचायक कही जा सकती है।
किन्नरों के विषय में जो अध्याय है, उसमें लेखिका ने बहुत कुछ वही बताया है जो कि सामान्यतः लोग जानते हैं या अब तो इंटरनेट पर उपलब्ध भी है। लेकिन सौ साल की वृंदा गुरू की मृत्यु के बाद श्मशान घाट में बैठकर हमीदा को औपचारिक रूप से गुरू घोषित करने के लिए जिस रस्म का चित्रण किया गया है, वह नवीन है। वैसे तो हम सब जानते हैं कि बांटने से दुःख हल्का होता है पर समूह में बैठकर सबके सामने अपना दुःख कहना काव्यशास्त्रीय ‘विरेचन’ का एक व्यावहारिक रूप है। इसके माध्यम से लेखिका ने सभी किन्नरों के मुख से उनकी अतीत-गाथा को कहलवाया है। कमोबेश सभी का अतीत और दुःख एक जैसा ही है। रानी बताती है कि किस तरह वह एक पुरूष की प्रेमिका बनी और ड्रग्स की शिकार बना दी गई। उसी प्रेमी ने बेबफाई के संदेह में उसके जननांग को कटवा दिया और बाद में उसे बेच दिया। बाद में वह बचते-बचते वृंदा गुरू के पास आई। राजा उर्फ रानी के पास शिक्षा है जो उपन्यास के उतरार्ध में उसके सामाजिक और मानसिक विकास को चरमोत्कर्ष तक पहुंचाती है।
नायिका कल्याणी के भी वही परम्परागत पूर्वाग्रह युक्त विचार है, लेकिन उसका व्यवहार अपेक्षाकृत संवेदनशील है। इस तरह लेखिका ने जहाँ आत्ममुग्धा कल्याणी के व्यक्तित्व में कुछ संवेदनहीन विशेषताओं -यथा प्रजनन से विमुखता, काले रंग के प्रति घृणा-भाव, क्रोध आदि को समाहित किया है, वहीं हिंजड़ों के प्रति करूणा और जानकी को गोद लेना जैसी घटनाओं के द्वारा उसके व्यक्तित्व में संतुलन लाने का प्रयास किया है।
मॉडलिंग और फिल्मों से जुड़ी कल्याणी अपनी दत्तक पुत्री जानकी उर्फ जेन को अच्छी तरह से पालती-पोसती है। पारिवारिक वातावरण के प्रभाववश जानकी भी ग्लैमर की दुनिया की ओर आकर्षित होती है। विदेशो में स्टेज शो के लिए जानकी को अमेरिका जाने की अनुमति मिल जाती है, क्योंकि गौतम और कल्याणी उसके पीछे के षडयंत्र से पूर्णतया अपरिचित थे। एक नाटकीय घटनाक्रम के बाद जानकी हृयूमन ट्रैफिकिंग का शिकार हो जाती है और एक के बाद एक अलग-अलग स्थानों पर भेज दी जाती है।
हमीदा की हत्या के बाद रानी और अंगूरी दोनों बेरोजगार और बेसहारा हो जाती है। अंगूरी देह-व्यापार की दलदल में फंसकर एड्स की शिकार होती है और रानी को बहुरूपिया बन कर जीवनयापन करना पड़ता है। तभी वह कल्याणी के पुनः संपर्क में आती है, जहां से कल्याणी उसे बंबई लाती है और सेक्स चेंज ऑपरेशन के बाद सामान्य लड़की जैसा व्यक्तित्व बनाने में मदद करती है। एड्स पर डॉक्यूमेंटरी बनाते समय अंगूरी भी कल्याणी के संपर्क में आती है। वह भी कल्याणी की संवेदना का आश्रय पाती है।
यही रानी स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ काम करती हुई अमेरिका पहुँचती है। वह कल्याणी के दुःख से परिचित है और अपने प्रति कल्याणी के द्वारा किए गए उपकार से भी कृतज्ञ है। वह अपने स्तर पर जानकी की खोज करती है, वहाँ के एशियाई लोगों की सहायता से वह हृयूमन ट्रैफिकिंग की अपरिचित गुफाओं से परिचित होती है और अंत में जानकी को भारत लाने में सफल होती है। वहीं अंगूरी विरेचन की पद्धति के उपयोग के द्वारा जानकी के सामान्य जीवन धारा में लाने का प्रयास करती है।
कुल मिलाकर लेखिका ने चिकित्सा सुविधा के उपयोग के द्वारा किन्नरों को सामान्य जीवन दान की वकालत की है और शिक्षा को विकास के एक उपकरण के रूप में उपयोगी सिद्ध किया है।




डॉमनिक की वापसी : विवेक मिश्र (2015)






विवेक मिश्र का उपन्यास ‘डॉमनिक की वापसी’ अपने ही नाम के नाटक के नायक दीपांश की कहानी है। उसके जीवन में वास्तविक प्रेम और नाटक के नायक के रूप में प्रेमी की भूमिका-भीतर और बाहर दोनों ओर प्रेम है। लेकिन वास्तव में कहीं भी प्रेम नहीं है। इति, शिमोर्ग, हिमानी अलग-अलग रूपों में दीपांश की जीवन-यात्रा बनाम नाटक यात्रा का अंश बनती है। लेकिन वास्तव में कोई भी उसे समझ नहीं पाती।
अभिनय की भाव-प्रवणता के कारण ही रेबेका उर्फ रिद्धि, दीपांश के संपर्क में आती है। वह देह-व्यापार की दुनिया का एक हिस्सा है, लेकिन उसका अपना एक समृद्ध, गुणी कलाकार वाला अतीत है। जीवन की उलझनों के बीच वह प्रेम के नाम पर ठगी जाकर इस दलदल का हिस्सा बनने को विवश हुई। इति के संदर्भ में दीपांश की सहायता करने के बाद वह दीपांश के निकट आती है।
दीपांश के भटकाव को स्थिरता देने के लिए रेबेका उसे अनन्त बाह्य रूप से थर्ड जेंडर के पास ले जाती है। अनन्त यहाँ अपने जननांग विकार के बावजूद एक प्रभावशाली व्यक्तित्व के रूप में ही दिखाई देते हैं। उनके पास मानो हर कलाकार की मनःस्थिति को समझने की सामर्थ्य है। वह क्लासिकल नृत्य के ज्ञाता है। संगीत के पश्चिम और पूर्वी दोनों रूपों का इतिहास मानों उन्हें कंठस्थ है। वह लड़कियों को व्यवसाय के लिए नहीं बल्कि उनके व्यक्तित्व के परिष्कार के लिए नृत्य सिखाते हैं। यही नहीं, वह अपराध की दुनिया से बचा कर लाई गई दानी जैसी लड़की के पालन-पोषण का दायित्व भी उठाए हुए हैं। वह रेबेका की परिणति भी जानते थे, इसलिए उन्होंने दीपांश के साथ रेबेका को लोरिक गायक और आधिक्या देवी के पास भेजा। ताकि जिस प्रतिशोध की ज्वाला में वह प्रतिक्षण स्वयं को जलाती रहती है, उससे मुक्त हो सके। लोरिक गायक के सान्निध्य में प्रेम की वास्तविकता को समझ सके और आधिक्या देवी के मुख से ज्ञानेश्वर के प्रति प्रेम की स्वीकारोक्ति को सुनकर अपने पिता की मनःस्थिति समझ सके और उनके व्यवहार के लिए उन्हें क्षमा कर सके।
उपन्यास का अंत भी लेखक ने अनन्त की भविष्योन्मुखी पंक्तियों के द्वारा ही किया है। इस उपन्यास में अनन्त की भूमिका छोटी, परन्तु प्रभावशाली है। वह रंगमंच के धुरन्धरों, फिल्म निर्देशक या टैलेन्ट सर्च के नाम पर लूटने वाले लोगों-सभी से अलग और उदात्त दिखाई देते हैं। अनन्त के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से लेखक ने यह भी सम्प्रेषित किया है कि कला केवल अभ्यास, साधना और समर्पण की अनुचरी बनकर रहती है। उसके अमृत-स्वरूप् का अवगाहन उसमें डूब कर ही किया जा सकता है। साधना ही सिद्धि है, अंग-विशेष नहीं-तभी तो कला का उत्कर्ष अनंत को प्राप्त हुआ।

4. जहाँ पात्र के रूप में थर्ड जेंडर का उल्लेख मात्र करके छोड़ दिया गया हो
प्रति संसार : मनोज रूपड़ा (2008)




प्रति संसार : मनोज रूपड़ा (2008)







मनोज रूपड़ा के उपन्यास ‘प्रतिसंसार’ का शीर्षक अत्यन्त प्रतीकात्मक है। प्रत्येक व्यक्ति बाहर एक संसार में रहता है और उसके भीतर एक प्रति संसार सदैव जीवित रहता है। इस भीतर-बाहर के संतुलन को साधने में असमर्थ संवेदनशील लोग नायक आनन्द जैसे हो जाते हैं।
मनोविज्ञान की भाषा में आनन्द एक जटिल मनोवैज्ञानिक केस है। लेखक ने प्रत्यक्ष रूप से नहीं कुछेक वाक्यों के माध्यम से यह दिखाया है कि नायक सामान्य नहीं अपितु जननांग दोषी है। वह स्वयं अपने शरीर के दोष से अपरिचित है। ट्रेन के सामने आकर आत्महत्या करने का भयावह दृश्य उसे डराता है और भागते हुए वह एक सैक्स वर्कर द्वारा पकड़ लिया जाता है - अपनी कोठरी में ले जाकर जब वह उसके अंडरवियर का इलास्टिक खींचती है और ज़ोर से हंसने लगती है-यह आनन्द के थर्ड जेंडर से सम्बन्धित होने का पहला संकेत है। दूसरा संकेत मनोचिकित्सक डॉ0 विश्वनाथन देते हैं कि वह सैक्स क्रिया को कभी व्यवहार में नहीं ला पाएगा, इसी लिए नग्न और अर्धनग्न स्त्री मूर्तियां आनन्द को उत्तेजित नहीं करती। हिंजड़ों की बस्ती में एक हिजड़े द्वारा यह कहना कि भागना तो भटकाव है तू हमारी बिरादरी का है, हमारे साथ रहकर ही चैन पा सकेगा। चूंकि आनन्द एक बड़े उद्योगपति का बेटा है , अतः थर्ड जेंडर संबंधी अपमान, अवमानना का कोई अनुभव उसके पास नहीं है। इसलिए इस बिंदु पर पाठक उसकी स्थिति पर तरस खा सकता है, पर पाठक की संवेदना और सहानुभूति का अधिकारी वह नहीं बन पाता। कुल मिलाकर यथार्थ और मनोविज्ञान की भूल भूलैया में उलझ कर वह एक केस स्टडी भर बन कर रह गया।
साहित्य का मूल उद्देश्य पाठक की भावनाओं को झंकृत करना होता है, ताकि समाज के अंधेरे कोनों को प्रकाश से परिपूर्ण किया जा सके। जो स्थितियाँ या मुद्दे अनछुए रह गए हैं, उन पर संवेदनशील ढंग से विचार किया जा सके और सामूहिक प्रयास के द्वारा उनका परिष्कार किया जा सके। इस संदर्भ में उपन्यासों के विवेचन के पश्चात जो बिंदु मन में आते हैं , वह है कि किन्नर या हिजड़ा होकर जन्म लेना किसी भी व्यक्ति का स्वयं का चुनाव नहीं होता। इसलिए वह किसी भी तरह से पारिवारिक एवं सामाजिक लज्जा का कारण या बहिष्कार का पात्र नहीं है। इन्हें परिवार में सामान्य बच्चे की तरह पालन-पोषण का अधिकार होना चाहिए। शिक्षा, नौकरी, व्यवसाय सभी में इनके लिए समान अवसर और भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए। सामाजिक स्तर पर जागरूकता अभियानों का संचालन किया जाना चाहिए ताकि मुख्यधारा से जुड़ने का मार्ग आसान हो जाए। यह बताया जाना चाहिए कि इस तरह के बच्चे का जन्म अभिशाप नहीं है, बल्कि प्रकृति द्वारा दिया गया अनुपम उपहार है और परम्परागत से भिन्न काम करना विशिष्टता का सूचक होता है। इन्हें ‘अन्य’ वर्ग में स्थान देकर अलगाववादी व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए। बल्कि अपनी शारीरिक संरचना और मनःस्थिति के अनुरूप स्त्री या पुरूष वर्ग को चुनने की छूट दी जानी चाहिए। जिस तरह अन्य प्रकार की शारीरिक विकलांगता को सामाजिक-संवैधानिक स्तर पर स्वीकार किया जाता है और विशिष्ट प्रावधानों की व्यवस्था की गई है, वैसा ही अधिकार इन्हें भी मिलना चाहिए। चिकित्सा सुविधाओं के क्षेत्र में भी इनके लिए विशेष सुविधाओं की व्यवस्था होनी चाहिए। इनके स्वयं के भीतर आत्म सम्मान पैदा करने के लिए तथा इनकी आवास संबंधी स्थितियों में सुधार के लिए सरकारी, गैर-सरकारी स्वयं संस्थाओं को भी आगे आकर काम करना चाहिए।
इन्हें अपनी धार्मिक मान्यता के अनुसार दिन के प्रकाश में सामान्य ढंग से अंतिम संस्कार का अधिकार होना चाहिए। जिस प्रकार कन्या भ्रूण हत्या को कानूनन अपराध माना जाता है। उसी प्रकार थर्ड जेंडर के बच्चों का परिवार से निष्कासन अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। वैसे तो जन्म और मृत्यु का पंजीकरण परिवार का दायित्व होता है पर ऐसे बच्चों के जन्म के पंजीकरण का दायित्व अस्पताल और संबंधित डॉक्टर का होना चाहिए, ताकि प्राकृतिक रूप में जननांग दोषी को सूचीबद्ध किया जा सके और उसके लिए निश्चित और निर्धारित सामाजिक सुविधाओं संबंधी जानकारी को माता-पिता तक प्रेषित किया जा सके, ताकि बच्चा मां-बाप के लिए बोझ न बनें। जन्म के पश्चात् टीकाकरण आदि के समय पूरा चिकित्सीय परीक्षण होना चाहिए। यदि छोटे-मोटे आपरेशन के बाद सामान्य जीवन की संभावना दिखाई देती हो, तो वह सुविधा उन्हें अवश्य प्रदान की जानी चाहिए। इन मामलों में लापरवाही के लिए गैर-जमानती कैद होनी चाहिए, ताकि इन्हें सामाजिक शोषण से बचाया जा सके। न्याय पालिका सम्बन्धी मामलों में वकील की व्यवस्था सरकार का दायित्व होना चाहिए। जिस प्रकार तलाकशुदा माता-पिता का बच्चा आजीवन उनकी संपति का अधिकारी होता है, उसी तरह इन बच्चों को भी माता-पिता की संपति का अधिकार मिलना चाहिए, ताकि परिवार का कोई भी सदस्य इनका अधिकार छीन न सके। इनके लिए ओल्ड एज होम का भी प्रावधान होना चाहिए। सार्वजनिक स्थलों पर इनके लिए शौचालय की विशिष्ट व्यवस्था होनी चाहिए। जिस प्रकार पूर्वोत्तर के लोगों के लिए विशिष्ट शब्दों का प्रयोग कानूनी रूप से प्रतिबंधित कर दिया गया है, उसी प्रकार थर्ड जेंडर के लोगों के लिए प्रयोग किए जाने वाले शब्दों पर भी प्रतिबंध होना चाहिए। इसके अतिरिक्त जो हिजड़ें ऐसे बच्चों के जन्म की सूचना पाकर बच्चों को छीनकर ले जाते हैं और एक नरक जैसा जीवन जीने का अभिशप्त कर देते हैं, ऐसी जोर-जबरदस्ती को कानूनी अपराध मानकर कार्यवाही की जानी चाहिए, ताकि इन बच्चों का परिवार में रहना और सामान्य जीवन का अधिकार पा सकना सुनिश्चित किया जा सके। इसके अतिरिक्त सरकार द्वारा इस वर्ग के लोगों के साथ अन्य यौन व्यवहार वाले लोगों को भी रख दिया गया है, जबकि उनके लिए विशिष्ट व्यवस्था की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे व्यक्ति इनके समुदाय में मानो घुसपैठिये हैं, जो इनके अधिकार छीनने जैसा लगता है। इसलिए उन्हें इस वर्ग से अलग रखा जाना चाहिए।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है यदि समाज, सरकार और कला, साहित्य आदि सभी मिलकर इस वर्ग के उत्थान का प्रयास करें तो वह दिन दूर नहीं रहेगा जब थर्ड जेंडर के लोग सामान्य जीवन जी सकेंगे।

संदर्भ ग्रंथ सूची
यमदीप : नीरजा माधव (2002), सुनील साहित्य सदन, दिल्ली
प्रतिसंसार : मनोज रूपड़ा (2008), ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली
मैं भी औरत हूँ : अनुसूया त्यागी (2009), परमेश्वरी प्रकाशन, दिल्ली
तीसरी ताली : प्रदीप सौरभ (2011), वाणी प्रकाशन, दिल्ली
किन्नर कथा : महेन्द्र भीष्म (2014), सामायिक प्रकाशन, दिल्ली
गुलाम मंडी : निर्मला भुराड़िया (2014), सामायिक प्रकाशन, दिल्ली
डॉमनिक की वापसी : विवेक मिश्र (2015), किताबघर प्रकाशन, दिल्ली
मैं पायल : महेन्द्र भीष्म (2016), अमन प्रकाशन, कानपुर
पोस्ट बॉक्स नं0 203 नाला सोपारा : चित्रा मुद्गल (2016) सामायिक प्रकाशन
ज़िन्दगी 50-50 : भगवंत अनमोल (2017), राजपाल एंड संस, दिल्ली
भारतीय साहित्य एवं समाज में तृतीय लिंगी विमर्श-संपादक : डॉ0 विजेन्द्र प्रतापसिंह, रवि कुमार गोंड (2016) अमन प्रकाशन, कानपुर
विमर्श का तीसरा पक्ष-संपादक : डॉ. विजेन्द्र प्रतापसिंह, रवि कुमार गोंड, (2016) अनंग प्रकाशन, दिल्ली
वाड़्मय : त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका-संपादक : डॉ0 एम. फिरोज़ अहमद
जनवरी-मार्च 2017
अप्रैल-जून 2017
जुलाई-दिसम्बर 2017 (संयुक्तांक)
जनसत्ता-हिन्दी दैनिक - 12 मार्च 2015
पावस व्याख्यान माला : हिन्दी भवन, भोपाल 23-24 जुलाई 2016 के अंतर्गत डॉ0 शरद सिंह का व्याख्यान
सागर दिनकर - हिन्दी दैनिक, 27 जुलाई 2017, चर्चा प्लस कॉलम
तद्भव : संपादक-अखिलेश, वर्ष 5 अंक 2, पूर्णाक 35 मई 2017
नया ज्ञानोदय : संपादक लीलाधर मंडलोई, अंक 165, नवम्बर 2016

डॉ0 पुष्पा गुप्ता
बी-2/70, तृतीय तल,
सफ़दरजंग एन्कलेव
नई दिल्ली-110029
सम्पर्क - 9873712335
ईमेल - 1234चहनचजं/हउंपसण्बवउ

26 अगस्त, 2018

कहानी:

कनपटी का दर्द


सपना सिंह


उसे चक्‍कर आता सा लग रहा है। कोई बात ज्‍यादा देर तक सोच ले तो यही होता है। कितना तो इलाज कराया,पर ये दर्द जब उभर ही आता है। सुनीता जीजी का फोन आया है। आने वाली है, दो कहीने बाद की टिकट है। कोई कमरा देखने को बोली है। मीना भर रहेगी, बच्‍चों से मिल लेगी। बच्‍चों का मोह ही है जो खुद को खतरेमेंडाल चली आती है इतनी दूर से। पर, ममता कहॉं कमरा खोजे, आसपास रखनातो अपनेलिए भी खतरा। कोई देख ले, जीजा को पता चल जाये.... तो पाही लगा के धर देंगे उसके सात पुश्‍तों की। कहीं गडा़से से काट ही न दे सुनीता को। उसके अपने जंजाल कम हैं क्‍या जो ये भी एक सरबत्‍थन आ गया। अजय के आने की तारीख भी नजदीक आ रही। उसके रहने तक एक महीना वो घर से बाहर भी कदम नहीं रख सकती, उसपर बूटी भी बिगड़कर गॉंव जा बैठी है। बूटी का ध्‍यान आते ही ममता की आँखे फिर भर आईं। तवे पर रक्‍खा पराठा धुंधला दिखने लगा। ओमी उसके मुंह पर झुक आया।


सपना सिंह

‘तुम का कल लही हो...’’ तीन साल का ओमी रोने का मतलब नहीं जानता अभी। मॉं की आँखे क्‍यों पानी पानी हो जाती हैं वक्‍त बेवक्‍त। कल रात भी वह उसके बगल में लेटी मुंह पर हाथ धरकर रो रही थी नि:शब्‍द। आखिर ऐसा क्‍या कह दिया बूटी को उसने जो बूटी बिगड़ कर गॉंव चली गयी। बचपन से दूनो भाई बहन को अपने साथ रखी थी। भाई लोग कितना समझाते थे उसको... आपन जी के तो ठिकाना नहीं है, एक बच्‍चा गोद में है ही अब दू जनी को और ले आई। पर ये मोह कैसे छोड़ती। जब शादी करके गॉंव  आई थी तो बूटी आठ नौ बरस की थी और छोटू दस बरस का/ चचिया सास के ये दूनो बच्‍चे हर वक्‍त उसको घेरे रहते। चाचा ससुर साल भर हुए जहरीली शराब पीने से मर गये थे। उस समय बम्‍बई में था ये परिवार, बूटी, छोटू, अच्‍छे स्‍कूल में पढ़ते थे। इनसे बड़ा भाई गुजरात में नौकरी करता था। पिता का साया उठ जाने पर चाची इन्‍हें लेकर गॉंव आ गयी। बच्‍चे खोये से रहते। खसकर बूटी गॉंव के माहौल से बिल्‍कुल सामान्‍जस्‍य नहीं बिठा पा रही थी। स्‍कूल की साखियॉं छूट गयीं थीं। यहां गांव की लड़कियों से उसका मेल नहीं बैठता था। सुबह उठते ही गुडमार्निंग और सोते समय गुडनाईट कहने की आदत थी बूटी को। अब गाँव के रे तरे वाली भाषा न बोलते बनता न समझते। ममता जब शादी होकर आई तो दोनेा भाई बहन को मानो जीवन मिल गया। ममता भी उनसे हिल-‍मिल गयी। वही बूटी आज बिगड़ कर गॉंव चली गयी। ऐसा क्‍या कह दिया था उसने? लड़की जात है, कुछ गुन सहूर न सीखेगी तो कल को सब उसका ही नाम धरेगें-भाभी कुछ सिखार्इ नहीं । थोड़़ा सा ही बोली थी, का बूटी अइसे लउधनापन करियो तो कइसे चली । नहावे के बाद बाथरूम से गंदगी तो साफ कर दिया करो । इतनी सी बात और बूटी दिल से लगा बइठी । सोच-सोच के ममता की ऑंखें भर आतीं । दिमाग में फिर बीती बातें चलचित्र तरह चलने लगीं । वो बातें जिन्‍हे वो भुलाना चाहती पर ज‍ब कोई नया दुख ऑंखें गीली करता पुराना दुख: फिर उपट पड़ता।
बारह साल पहले  जब विवाह  हुआ था, तैसे आज तक सुख मानो
फटकता नहीं। ओमी के होने के बाद पिछले तीन साल से शायद हाथ उठाना बंद है । आज भी उसकी सखियॉं, ननदें, भाभी, भाई, सभी कहते – जो जानों – जबसे ओमी हुआ, तबसे ममता मार नही खाई । ममता फीकी हंसी हंस देती है । मार खाना मानों उसकी नियति बन चुकी थी । पहले तो दो तीन महीने सीधे मुँह बात न करे सिर्फ रात को देह का रिश्‍ता । सुबह उठे तो मुँह ऐसा मानों कुनैन खाया हो । उधर वो बंबई गया इधर ये पेट से हो गयी । फोन करता, बच्‍चा गिराने को कहता, मायके आई, मॉं से कहा । मॉं ने मना कर दिया पहला पेट नसा गया तो बाद में दिक्‍कत होगी । अब जो है, सो हो जाने दे... फिर भले आपरेशन करा लियो ।
वो मायके मे ही थी जब वो आया, और तुरंत चलने का फरमान जारी कर दिया।  मॉं ने मना किया संझा के बेरा , अइसे में नही निकलते। बुरी हवा लग जाती है। पर वो कहाँ मानने वाला था।माँ ने चाय का पूछा, वही बोली चाय तो पीते नहीं दूध दे दो... दूध लेकर वही गयी, रखकर कुछ खाने को लेने अन्‍दर गयी। आई तो दूध वैसे रक्‍खा था। पीने को कहा तो बोला तुम पियो, तुम्‍हे ज्‍यादा जरुरत । जिद पे उतर आया- पियो । मना करने पर जानती थी यहीं तमाशा खड़ा कर देगा । लोक लज्‍जा उसे नहीं व्‍यापती, चुपचाप उठाकर दूध पी ली । माँ के मना करने के बावजूद ‘कुछ नही होगा’ कहकर चल दिया । आधे रास्‍ते ही पेट में अजब सी मरोड़ हुई मानो कोई खुरेच रहा हो । दर्द बढ़ता गया । बरदाश्‍त न हुआԫ तो बोली, दवाखाने ले चलो । बोला चल, सब ठीक हो जायेगा अइसने दर्द है । पर वह दर्द से ऐंठने लगी तो वापस लौट आया, उसे मायके छोड़ अपना घर चला गया । रात भर वह दर्द से तड़पती रही । मॉं, काकू घबरा गये अम्‍मा बड़बड़ाई-कह रहे थे इत्‍ती बेरा न ले जा । सुबह तीन बजे पुतरी की तरह छोटा सा जीव बाहर आ गया । हथेली भर का, ऑंख, कान, नाक, सब बने, नन्‍हे-नन्‍हे होठ भी बन गये थे । कच्‍चा शरीर उसपर बच्‍चा न बचने की सोच ने उसे काठ बना दिया था । न खाने का होश, न पहनने का । महीनों यही हालत रही । एक रात उसकी बड़बड़ से झल्‍लाकर वह फूट पड़ी थी ‘कभी ओकरे बारे में सोचा जिसे आने के पहले ही मार दिये ?
“ क्‍या-क्‍या बोली ? मैं मारा... ” उसकी नजरों से जान गयी कि, जो दूध उसे बड़ी मिन्‍नत से पिलाया था । बाद में अम्‍मा उसे पीर बाबा के पास ले गयी थी, उन्‍होने साफ- साफ बता दिया । दूसरी बार उसने बताया ही नही और जब वह बम्‍बई से आया तो कुनाल पेट में लात मारने लगा था । वह मसमसा कर रह गया । जब तक रहा मुँह फुलाये रहा... बात-बात पर मार पीट । जाने कौन सी खुन्‍नस समाई थी उसे । मॉं-बाप को खरी खोटी सुनाता... उनकी वजह से उसकी ट्रेनिंग अधूरी रह गयी कराते की। नहीं तो जाने कौन सा बेल्‍ट मिल जाता तो वो भी स्‍वतंत्र रूप से बच्‍चो को सिखा सकता था, अभी तो असिस्‍टेंट ही है ।
सुबह 6 बजे तक कराटे की क्‍लास में जाता है फिर आकर नहा धोकर काम पर । ये एक मूर्ति बनाने का कारखाना था, लाखों की मूर्तियाँ बनती थीं बिकती थीं। शाम को वह बाल काटने का काम करता। सपना था कि पैसा इक्‍कठा करके एक दुकान बना लेगा ‘ हेयर कटिंग सैलून । सामान तो सब है उसके पास, बस दुकान नही । कराटे भी सिखाने लगता, जिंदगी बन जाती । पर ये शादी की बेड़ी । अपनी खुन्‍नस निकालने का यही एक रास्‍ता समझ में आता । जब तक रहता सिर्फ मुँह टेढ़ा करके ही बात करता । न खुद सोता न उसे सोने देता । कभी उसके व्‍यवहार से आहत होकर उसे परे करती तो और गाली खाती काहे आयेगी पास कउनो यार रक्‍खी है न, वही पास जा उसकी छाती पर बैठ मुँह दबाकर एक हाथ से चॉंटे मार मार गाल सुजा देता । कभी सर पकड़ कर सीधे दीवार पर दे मारता । बूटी की अम्‍मा सुबह उसकी लस्‍त देह और अड़हुल के फूल जैसी सूजी ऑंखे देखकर गहरी सांस लेकर यही कह पाती- ‘फिर नही सोई न ममता...’ वही बेचारी को कभी कभार उसका पक्ष लेकर अजय को डपट देती  थीं। बाकी घर में जैसे किसी की ऑंखे ही नहीं थीं। जब अजय मारपीट करता तो सास ससुर कोई न कोई काम से बाहर निकल जाते। कभी बूटी की अम्‍मा बोलती दादी बैठी-बैठी गला फाड़ती पर वह तो  दानव बना रहता।
ऐसे ही हालात में कुनु आ गया गोद में। पर हालात नहीं बदले इसी बीच देवर का ब्‍याह भी हो गया। देवरानी हर बात में उससे उन्‍नीस थी, इक्‍कीस नहीं पर, किस्‍मत की धनी थी।देवर आगे पीछे डोलता। कभी दूनो जने शहर चले जाते सिनेमा देखने, कभी मंदिर, कभी डोसा, चाट, मोमोज खाने। जो कभी न जाते तो देवर शहर से लौटते में ले आता। अगले दिन कूड़े के ढेर पर दोना, और सिल्‍वर पैकेट देखकर वह समझ जाती कि रात में चाउमीन या मोमोज आया था।
उसे हसरत होती, उसके हिस्‍से में तो चन्‍द कोमल लमहे भी न थे। अजय को तो हर आदमी पर शक था, कभी कादे जो उसके साथ कहीं गयी भी तो घर आकर बेदम मार खायी। उ आदमी तुमको क्‍यों ताक रहा था... तुम उसको पहले से जानती होगी...। वह लाख कहती , वो नहीं जानती, उसने तो देखा भी नहीं उसे कौन देख रहा था। पर उसे कुछ नहीं मानना होता। वह कहती ‘अगर इतना शक है तो उसे भी अपने साथ ले चले। तो जवाब देता-तेरी तकवारी करूंगा कि अपना काम करूंगा। वो कहती, ठीक है कमरे में बंद करके जाना काम पर हॉं कमरे से लगा लैट्रीन, बाथरूम हो। वो कहता- हॉं तेरे बाप ने कोई राजकाज थमा दिया है जो महारानी जी के लिए लैट्रीन वाला कमरा ले लूं, पता है, बम्‍बई में लैट्रीन वाला कमरा कितने में मिलता है?एक दिन इतना मारा‍ कि बेहोश हो गयी। होश में आई तो मन कड़ा करके शहर आ गयी भाई के पास।  भाभी ने बड़बड़ाना शुरू किया, खूब खरी खोटी सुनाई भाई को। उस दिन समझ गई, जब अपना समय खराब होता है, तो कोई साथ नहीं देता, अपने भी मुंह फेर लेते है।
बड़ी जीजी का मकान भी यही शहर में था, कई कोठरियो वाला, सभी किराये से उठा रक्‍खे थे, उसे भी एक दे दिया: अपना एक मालिश का काम और एक झाड़ू पोछे का काम भी दे दिया पर अजय को चैन कहॉं भाइयों को बहनों को फोन करके गरिआता। जीजा को गंदी गाली देता। भाई भी उसे समझाते, गॉंव से काहे आ गयी। दो जून खाने को तो सास-ससुर नहीं तरसाते थे, सिर पर छत थी। ससुराल छोड़ दी तो फिर कहॉं ठिकाना पायेगी। क्‍या वो जानती नहीं थी, भाइयों की सीख के पीछे का छिपा हुआ डर।  बहुतेरे डर थे। एक बहन का अपजस तो ढो ही रहे थे दोनो भाई। वो भी तो, बहने भावज सभी तो सुनीता को मरा बताती। सिर्फ बताती ही नहीं थीं, मान ही चुकी थी मरा हुआ। एक बहन ने जो करतूत करी थी दूसरी भी वही न कर बैठे। फिर अपनी ग़हस्‍थी बिखरने का डर। बहन के प्रति मोह चाहे जितना हो, पर अपनी ग़हर्स्‍थी को खतरे में थोड़े डाला जा सकता।
पन्‍द्रह दिन बाद ही गयी गाँव, सबकी ऑंखो में आश्‍चर्य था। सबने यही सोचा होगा, गयी तो अब न आयेगी। दो दिन रही चलते वक्‍त एक बोरिया गेंहूं, एक बोरिया चावल, दो –तीन किलो के लगभग दाल, आलू, प्‍याज, सब ऑटो में रखवा ली गॉंव में, मालिश, जचगी, शादी, मुण्‍डन, कथा, इत्‍यादि कामों में रूपया की जगह अनाज ही ज्‍यादा मिलता था, सो उसकी कमी घर में नहीं थी। बाबू और दद्दा बाल बनाने भी जाते थे तो पैसा भी रहता था। देवर का शहर में श्रृगार पटार की दुकान थी ही।
पन्‍द्रह दिन पर वह एक चक्‍कर गॉव लगा आती। इस बीच उसे एक ब्‍यूटी पार्लर में भी काम मिल गया साफ सफाई का। ब्‍यूटी पार्लर वाली दीदी ब्राह्मण थी। अक्‍सर मोनिक्‍योर, पेडिक्‍योर वाली कस्‍टमर उनसे अपने पैर छुआते हिचकिचातीं पाप लगेगा, कहकर। उन्‍होने ममता को सिखा दिया फिर धीरे-धीरे ममता ने बहुत कुछ सीख लिया। थ्रेडिंग, वैक्सिंग, क्‍लीन-अप में उसका हाथ साफ हो गया था। उधर अजय को पता चला तो तांडव शुरू कर दिया। ब्‍यूटी पार्लर में काम करने वाली सभी लड़कियॉं औरतें वेश्‍या होती हैं। वह समझाने की कोशिश करती-ऐसा नहीं है। दीदी का इतना बड़ा घर है, सास, ससुर है बच्‍चे हैं, आदमी है उनके यहॉं ये सब नहीं होता। पर अजय के दिमाग में जो बात एक बार घुस गयी तो घुस ही गयी। इस बार आया तो इसी बात को लेकर लड़ बैठा, फिर मार पीट, गालियॉं! मायके वालों को तो सब दिन गरियाता था, भाई को जीजा को किसी को नहीं छोड़ा इस बार बाप को गरियाने लगा। तेरा बाप ससुर तुझे राखे थे, तुझसे धंधा कराता था। रंडीवाजी की आदत है तुझे। जभी तो पार्लर में काम करती है। उसकी ऑंखो के आगे नीरीह बाप का चेहरा आ गया। जाने पस्‍त देह में कहॉं की शक्ति आ गयी। झटपट उठी थी और खींच कर एक चांटा उसके मुह पर धर दिया-कान खोल के सुनि लेख, तू  जो हमें एतना मारते गरिआते हो न हमार इज्‍जत नाहीं खराब होत है अइसे। पर हम जो सबके सामने पएक झापड़ भी लगा देव न तुमका तो सब इज्‍जत मिट्टी हो जाई तोहार।
अजय की एक रट थी, कि वह पार्लर की नौकरी छोड़ दे, वह खर्चा भेजेगा, भाइयों ने समझाया, जैसा कहता है वैसा कर लो- हर्ज क्‍या है। आखिर उसने छोड़‍ दिया।  पार्लर वाली दीदी खूब गुस्‍साई-एक हुनर आ रहा था हाथ में अपना ही नुकसान कर रही हो। कहो तो  मैं बात करूँ उससे । पर उसने मना कर दिया, जानती थी अजय को कोई नहीं समझा सकता। अब तो पांच साल हो गये पार्लर छोड़  घर पर ही सिलाई करती है। कभी कभार मालिश का काम मिल जाता है। महीना सवा महीना जच्‍चा बच्‍चा की मालिश करने का अच्‍छा पैसा मिलता है। एक समय का अस्‍सी रूपये। कभी-कभी  पार्लर में  कुछ औरतें आती थीं मसाज करवाने脉! दीदी को करते देखा उसने... खुद भी किया था कई बार: देर सारा तेल चपोर कर धीरे-धीरे सहलाते हुए बस उंगलियों को घुमाना। उसे हंसी आती। ऐसे होती है कहीं मालिश? दम लगाता है। शुक्‍लाईन के पैर में फाटन चढ़ती है तो ममता को ही बुलाती। ममता ऐसी मालिश करती की सारा दर्द उड़न हू हो जाता। पार्लर में तो एक बार की मालिश का दीदी पांच सौ लेती थीं। पर उसे कौन देगा इतना,  उसे तो अस्‍सी के लिए भी झिकझिक करनी पड़ती है। छोटी भाभी सिर्फ मालिश करके ही कितना कमा लेती है। उधर का पूरा मोहल्‍ला वही जाती है। पर वह तो सारा दिन यही काम नहीं कर सकती। ओमी अभी छोटा है। फिर अजय के आने पर उसे काम छोड़ना पड़ता है। साल में दो बार एक महीने के लिये आता है पर वो एक महीने उसके लिए आता है पर वो एक महीने उसके लिए दु:स्‍वप्‍न से बीतते हैं। कहां जा रही, क्‍या कर रही, वहॉं क्‍यों देख रही ... हर  वक्‍त की कड़कड़। आजकल नया ओरहन है- बच्‍चों का ध्‍यान नहीं रखती। कोई काम ठीक से नहीं करती। सच भी था, अजय के रहते उसका कोई काम ठीक से नहीं होता। कभी चूल्‍हे पे चाय फदक जायेगी तो दाल जल जायेगी। बच्‍चे भी कहना नहीं सुनते उसका। बस पापा पापा करते रहते। कुनाल को अपना मानने से इंकार किया था अजय ने। बोले, मेरा नहीं है जिस यार के पास से लायी है, ले जा वहीं।
पर अभी तो चिन्‍ता जिज्‍जी की है। जब गयी थी तो किसी का मोह नहीं की थी। न ब्याही हुई बेटी के ससुराल में सम्‍मान की फिक्र हुई। न जवान होते बेटों के शर्मिदा होने की। न विवाह लायक बेटी के भविष्‍य की चिन्‍ता की, न हाड़-मास गलाकर बनाये गये घर के प्रति मोह जागा। बस निकल ली, सब छोड़ कर मरने। बताती तो यही है, मरने ही गये थे। नदी किनारे चप्‍पल,चूड़ी, उतार कर रख दी थी, जाने क्‍या सोच कर पण्डित को फोन लगा बैठी, शायद यही एक मोह बचा था, मरने से पहले उसे बता दे, बेचारा कहॉं ढूढ़ता फिरेगा उसे। पंडित हड़बड़ा गया, बोला कुछ न करिहे, तोहे हमार कसम बस  एक बार मिलने दे, बात करना है, फिर जो जी में आये करिहो। पर हमरे आने तक वहीं रूकि रहो।
वह बिना खाये पीये डेढ़ दिन इन्‍तजार करती रही। जानती थी, घर में कोई चिन्‍ता नहीं करने वाला, जब भी ऐसा होता वह घर से दो तीन दिन के लिए टर जाती थी, गॉंव में ही किसी के घर पनाह लेती या टैम्‍पो करके दूसरे गॉंव रहने वाली बहन के घर चली जाती।
पण्डित ने पहले तो बहुतेरा समझाया, घर लौट जाने को कहा-मत फोन कर हमें, जो ओके शक है तो। न बात करना, फोन पटक दे ओकरे माथे पर जैसा उ कहे वही कर। मरके का मिली? लइके अनाथ हो जइहें। मानुख का देह एक दिन तो खतमें होई, अपने से काहे इका अंत करै। पर वह टस से मस नहीं सिर्फ एक रट, लौट के अब उ घर में कदम न रखिहों, जी फाट गया है जीने का कोई चाव नहीं, अच्‍छा  है, आ गये, तुमसे भी दुआ सलाम हो गया जाति बेरा।
पण्डित, एक टक उसकी ऑंख में ऑंख डाल कर बुदबुदाया हमरे साथ चलेगी...?
‘’पागल हो गया है क्‍या इ मनई...’’ सुनीता जानती थी पण्डित बाल बच्‍चेदार आदमी है।
‘’तू बोल , हमरे साथ चलेगी?
कहॉं ले जायेगा...? ‘’अपने घर?’’
‘’नहीं...तू आपन दिया छोड़ ठिया तो हमहूं आपन ठिया छोड़ देब... फिर जहॉं किस्‍तम! पर तुम्‍हें मरने इहॉं न छोड़न!
कितनी कम पहचान थी सुनीता की पंण्डित से। सात महीने पहले छत्‍तीसगढ़ के बालाघाट से फोन आया था इन्‍हीं पण्डितजी का कि उसके आदमी का एक्‍सीडेंट हो गया है। देवर के साथ गयी थी वो। पण्डित जी ने हर तरह से मदद की थी। रूपया पैसा- देह जांगर सबसे। उस परदेस में देवता बनकर खड़े रहे! ड्राइवर थे टिरक के उसके आदमी की तरह ही। पर, उतना दोस्‍ताना न था, बस आते जाते दुआ सलाम हो जाती किसी ढ़ाबे पर एक्‍सीडेंट की खबर उसने ही दी थी फोन पर। कैसी ठहरी हुई मुलायम आवाज थी। उसने आजतक अपने आस पास के मर्दों को इ लहजे और ध्‍वनि में बात करते नहीं सुना। सामने से देखा तो जान पाई पण्डित  को। उस परदेस में हर तरह की मदद की उन्‍होने। कभी गलत निगाह से नहीं देखा। फिर अब इ उमर हो गयी थी उसकी दामाद उतार चुकी थी,  उसे कोई का गलत नजर से देखेगा आदमी सक्‍की था, पर इधर बिटिया के ब्‍याह के बाद उहो शान्‍त हो गया था। वहीं अस्‍पताल के गम्‍भीर वार्ड में या बाहर ओसारे में पण्डित देर-देर तक बैठे रहता। कभी वो देवर को बेड के पास बिठा बाहर आ जाती। उसी बात-चीत में पता चला पण्डित की घरवाली गॉंव में है। तीन लड़के हैं। महतारी बाप घेरघार के शादी कर दिये थे। बाकी अपनी घरवाली उसे कब्‍बो पसंद नहीं आई। पमपिलाट सी तो है। हट्टी कट्टी। जब बियाह के आयी थी तभै मेहरारू जैसी लगे थी,  नयी लरकोरी नहीं। घर में तो बस गयी पर दिल उजाड़ ही रहा। सुनीता को मन ही मन खूब हंसी आती पण्डित की बात पे। खूब कहते हैं... बिना दिल में बसाये ही तीन तीन लइकन के बाप बन गये? वो भी तो पांच बच्‍चन की महतारी है, पति के लिए तन मन से खटती रही... कितनी सलीके और सुघड़ता से घर को संवारा सारे ब्रत उपवास रहे पति और परिवार की भलाई के लिए नियम से कुलदेवता की पूजा की आज उसके अस्‍पताल में पड़े होने पर कितनी असुविधा उठाकर यहां पड़ी है,  पर सच पूछों तो क्‍या सच में वह कह सकती है कि वह उसके दिल में बसता है।
वही 15-20 दिन का परिचय था पंडित से । अस्‍पताल से छुट्टी हुई तो घर आ गयी। सदा का शक्‍की मर्द अब बिमारी में पड़े पड़े और उग्र हो गया था। आंख से ओझल हुई नहीं कि चीखना पुकारना शुरू। दिशा मैदान जाती तो साथ जाता, थोड़ाआड़ लेकर बैठती तो चीखता, उधर काहे जा रही, यही बैठ, गांव भर में तमाशा कर रक्‍खा था। जवान बेटे-बेटी के सोने तक का इंतजार न करता, सकारे कमरे में बुलाने लगता, वह संकोच करती जाने में जवान बेटा बेटी के सामने खटिया पर कइसे पहुंचे। पर उ तो आंखी निकाल-निकाल धमकाता। बेटी उसे ठेलती, जा रे अम्‍मा कमरे में नही अबे मारे लगिहें बप्‍पा। वह सांस रोके उसके बगल में पड़ी रहती। वह वहाशिर्या की तरह उसे नोचता झंझाड़ता फिर थक कर सो जाता। पर वह सारी रात जगती। बिस्‍तर के नीचे रखी दँराती की धार उसे सोने नहीं देती थी। हर वक्‍त एक भय समाया रहता। जरा देर को ऑंख झपकती तो सपने में वह दँराती लेकर उसकी गर्दन पर सवार दिखता। पसीने पसीने वह उठ बैठती सूखते हलक को पानी से गीला करने चारपाई से नीचे उतरती दबे पांव तो भी वह उठ जाता फिर वही गाली गलौज- अपने यार से मिलने जाती रही चोरी से, गाली, मार उसी रात में रोहा पीटा! जीवन नरक बना दिया था उसके शक ने। नहाने, खाने, गहने मूतने हर कहीं सिर पे सवार: कब तक रहती ऐसे डर-डर के। एक ही उपाय सूझा था, नदी में कूद जाये सारे झंझटो से एक बार में ही मुक्ति। कौउन जाने सीता माता अइसने आजिज आ के खाई खंदक में कूद गयीं होंगी। लिखने वाले ने लिख दिया ‘धरती में समा गयी।‘ पर जान देना इतना आसान है का। हरहरात जलधारा देख हिम्‍मत छूट गयी। वहीं किनारे कपारे पे हाथ धरकर बैठी थी। मनोमन थी मोबाईल साथा था। कुछ न सूझा तो पंडित का नम्‍बर दबा दिया था।
अब पंडित सामने बैठा था, उससे पूछ रहा था- साथ चलेगी। इस आदमी में जाने का है, बिना कुछ कहे मन बांध लेता है। जाने क्‍यों इस वक्‍त वह सब भूल गयी। न बेटा ध्‍यान आया, न बियाही गयी बेटी ध्‍यान आई। न जवान बेटी का ख्‍याल आया। न बूढ़े- मॉं बाप ध्‍यान, बहने रिश्‍तेदारी सब भूल गयी, भाई-भौजाई, भतीजे-भतीजी कुछ ध्‍यान नहीं आया, बस दराती लिए उस आदमी का चेहरा, जिससे उसे दर नफरत थी, जिससे दूर जाने के लिए, उसे मर जाना गवारा था, पर क्‍यों मरे, जब जिंदगी उसके सामने  पण्डित के रूप में खड़ी थी जाने इस आदमी की ऑंखे कैसा भरोसा थमा रही थीं उसे। नदी में कूद जाना कठिन था या उसके साथ चले जाना, उसकी समझ में ये नहीं आया। बस वो जाना चाहती थी कहीं भी... अपने वर्तमान से दूर! दोनौ अपने वर्तमान से नाखुश, विचलित थे, दूर निकल गये। पंण्डित ने उसके मोबाइल के जरूरी नम्‍बर अपने मोबाइल में सेव किये, अपने साथ लाई साड़ी दी पहनने को। चप्‍पल, मो‍बाइल किनारे पर और साड़ी नदी में बहा दोनो चले गये, पीछे ये अफवाह रह गयी कि सुनीता आजिज आकर नदी में कुद गयी। नदी खंगाली गयी, कोई लाश नहीं मिली। वह चली गयी है, परिवार के लोग समझ गये। किसके साथ गयी है कुछ दिन बाद ये भी समझ गये। बच्‍चों ने भी राहत की सांस ली थी जानकर कि मरी नहीं चली गयी है अम्‍मा। यहॉं रहती तो मर ही जाती, या बाप के हाथो मारी जाती।
डेढ़ साल कोई खबर नहीं फिर एक दिन भाई के पास फोन आया भाई चौक गया, बुरा भला कहने लगा- जब चली गयी तो फिर पीछे क्‍यो लौटना? अब लौटकर क्‍यो शर्मिंदा करना चाहती है। उसे लोग भूल रहे भूल गये।
पर कह देने से क्‍या भूल जाता है कोई? वह भूल पाई क्‍या? अपना घर, अपने बच्‍चे? ठीक है, वो चली गयी... गलत की। पर कल को भगवान न करे उनकी बिटिया ऐसा कर लेगी तो? बहन के लिए, भाई का कलेजा कैसा पत्‍थर हो गया। जहॉं महतारी बाप ठेल दिये हम बहनों को वहीं के हो गये सब। कभी बाप से पूछा कि, बहिन की शादी जहॉं करि रहे हो, वहॉं सब ठीक है न। लइका के स्‍वभाव व्‍यवहार सब जॉंच परख लिये हो न पर दूनों भाई में से किसने, कब ऐसी दिलचस्‍पी दिखाई, याद नहीं पड़ता ममता को। बस शादी ठीक हो गयी। ठीक है। बाप ने जो जो काम सहेजा उसे पूरा कर दिया। थोड़ी दौड़ भाग करके अच्‍छा बेटा, अच्‍छा भाई होने का फर्ज अदा कर दिया बस।
ममता कभी – कभी सुनीता के बारे में सोचती हुई आश्‍चर्य से भर जाती है। कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उसका जीवन इस तरह बदलेगा। सुनीता ने भी तो कहॉं सोचा था, ऐसा कुछ होगा। हालात वर्दाश्‍त से बाहर होते तो सिर्फ मरना याद आता। उस दिन भी मरने ही तो निकली थी, पर जी गयी। प्रेम, सम्‍मान सब दिया पण्‍डित ने, पर कितना सब छूट गया। मानो नया जनम हो,  इसी जनम में। कभी-कभी कितनी बेकली से गॉंव याद आता। ईट गारे से बनाया अपना घर याद आता। तिनका तिनका उसे जोड़ा था अपना हाड़ जलाया था उस घरके लिए,  पूरे घर की धूरी थी वो। कैसे संभले होंगे बच्‍चे। यादें ऑंसू बन कर ऑंख के कगारों को तोड़ बाहर छलक जातीं। पण्डित का जी कैसा तो हो जाता। अपराधी सा महसूसने लगता। कहता, मेरे सामने मत रोया कर, लगता है गलत कर दिया तुझे लाकर। वह अपने ऑंसू छिपाती। ऐसे देवतुल्‍य मनुष्‍्य को कष्‍ट देकर एक और पाप सिर क्‍यों ले।
ममता याद करती है जब पण्डित से पहली बार मिली थी, तो उसने भी उलाहना दिया था। घर छुड़ा दिया बहन का। बच्‍चे अनाथ हो गये, ऐसे नहीं करना था।
पण्डित जी रूऑंसे हो गये- का करें, प्‍यार मुहब्‍बत करते थे, कैसे छोड़ देते मरने को। अब पछतावा होता है। समझना चाहिए था। घर लौटा देते तो ठीक रहता। पर गलती तो हो गयी,  अब का कर सकते... बस निभा देंगे।
अब तो लगभग सभी जान चुके हैं,  सुनीता मरी नहीं। घर वाला एक शातिर। जब कभी आता जोर-जोर सुनीता के लिए। मानों कितना तड़प रहा हो। घुमा फिराकर कहता वो गॉंव के फलाने कह रहे थे वो सतना में देखे हैं। या फिर कोई कह रहा था भोपाल में देखे हैं, या फिर छत्‍तीसगढ़ में है दूनो जन। बड़ी जीजी बरज देती- काहे उके जी को कलपते हो। तुमको तो छोड दी न, अब चाहे मरे या जीये, तुम्‍हें क्‍या? आपन मस्‍त रहो, ऐसी औरत के लिए रोना सोभा नहीं देता मुझको, तुम भी दूसरी कर लो, घर देखने को कोई तो चाहिए।
ममता को दया आती जीजा का बिसूरना देखकर, जी चाहता नम्‍बर दे दे, बात करा दे। पर बड़ी जीजी ने सख्‍ती से मना किया था। कभी भूल के भी उसके सामने जबान न खोला कि सुनीता कहाँ है, वरना उ हरामी उन दोनों जनि को जिन्‍दा न छोड़ेगा। जब तक साथ थी तो रोआइन परान किये थे महाराज अब परेम अधिया रहा है। लेकिन एक स्‍त्री का कोई भी कदम सिर्फ उसे ही नहीं प्रभावित करता। कुनवे की हर स्‍त्री जाने अनजाने उससे प्रभावित होती है। सुनीता का जाना, उसे मरा मान लेना, बस क्‍या बात खत्‍म हो जाती इससे।
ममता तो भुक्‍त भोगी है। आये दिन के ताने। जा चली जा। जैसे तेरी बहन चली गयी। गॉंव क्‍या अभी भी बदला है। हाथ में मोबाईल आ जाने और झोपड़ी पर टी.वी.की छतरी लग जाने से बदलाव थोड़ी आता आदमी तो वही है। मिट्टी, हवा थोड़ी बदली है। ससुर तक शक करते। अभी बाबा ससुर को मछेह खा ली थी, पिछले हफ्ते, गॉंव का एक रिश्‍ते में देवर जा रहा था अपनी बाइक से। भाई-भाभी और कुनाल एक बाईक पर थे वह ओमी को लेकर दूसरी बाइक पर बैठ गयी। पापा अचानक बोले ‘न रे ममती, आज हम स्‍वप्‍न देखे, कि तू दुनो लइकन के लइ के कोरिया के साथ चली गयी। ममता उस दम तो हंस पड़ी थी- का पापा अपना एइसे सोचते हैं। ‘देख बहुरिया तैं जाये तो जाये, हमरे नतियन के मत लै जैहों।
  संशय脉! हर एक निगाह में उसे ले कर संशय रहताहै, उधर बम्‍बई में रहते अजय को दिन रात संशय रहता, इधर ससुर सास के मन में खटका बना रहता। भाइयों के मन भी डर रहता । आज पास के हर हम उम्र अधेड़ मर्द उनकी शक के दायरे में रहते। ममता मन ही मन सोचती है, जो आज अजय बम्‍बई में न रहता, जो वो यहीं उसके साथ रहती तो क्‍या वो उसकी वो बेदमपिटाई और गालियाँ सहती जाती। कभी तो जी भरता उसका। आखिर तीन साल में ही वो उकता गयी। गॉंव छोड़कर शहर आ गयी। अपने बूते कुछ करने। इस समय फिर अजय का दिमाग फिरा हुआ है। जाने कौन उसका कान भर रहा वहॉं कि ममता काम पे जाती है। अटपटे टाइम फोन करेगा-बच्‍चों से बात कराओ- वह कह देगी बच्‍चे स्‍कूल है। ‘अच्‍छा सारे दुनियां के बच्‍चो की छुट्टी हो गयी- तेरे ही बच्‍चे-यारे हैं, जो इस गरमी में स्‍कूल जा रहे’ फिर गालियों की बौछार’ इस बार पैसे नहीं भेजेंगे, चला लेना खर्चा। हम भी जोड़ेंगे पैसा। आखिर वकील को देना पडे़गा।
बूटी को फोन लगायेगा-बूटी झूठ बोलेगी, भाभी नहा रही या भाभी पानी भरने गयी है! जी तो उसका भी उकता गया है। पर क्‍या उकता जाने से कुछ चीजें छोड़ी जा सकती हैं। जीजी तो तेईससाल झेली। मार,गाली,शक सब कुछ। हर दु:ख की एक उमर होती है अपनी उमर बिता कर वह दु:ख भी मर जाता है। फिर से नया दु:ख पैदा होता है जीजी एक दु:ख से छूट गयी, पर हजार दु:ख उसकी जान को लग गये।ममता कैसे छूटेगी¬¬...? उसे कौन तारेगा! वह बार-बार अपने को ये विश्‍वास देती है- नहीं वो जीज्‍जी जैसा कभी कुछ नहीं करेगी। वह कही नहीं जायेगी, अजय भले उसे छोड़ दे, पर वह उसे नहीं छोड़ेगी। जिज्‍जी जैसी किस्‍मत उसकी नहीं। अभी तो जीवन एक अनदेखे डर की लम्‍बी सड़क बना है। जिसपर उसे सिर्फ चलना है, कोई छॉंव नहीं जहॉं ठहर कर सुस्‍ता ले। सिर्फ चलना, चलते रहना।
मोबाईल फिर बजा है, वह बेमन से स्‍क्रीन देखती है। अजय का नाम देख उसके चेहरे का भाव कड़वा जाता है, वह दीवार पर टंगी घड़ी की ओर देखती है- कौन सा बहाना बनायेगी सोचते हुई फोन ऑन कर देती है- उसकी ‘हलो’ सुन उधर से फिर गालियाँ – मादर ... कहॉं घुसड़ी थी इतना देर काहे हुई फोन उठाने में...कमीनी कुत्‍ती... उधर से आवाज तेज और तेज हो रही इधर उसके हृदय में मथानी सा कोई मथ रहा... घ़ृणा मथा कर मानो बाहर आ रही... और अचानक वह चीख उठी... ‘’मादर...’’ तू तेरा खानदान, तेरा बाप, तेरा भाई...तू सन ‘मादर...’
उधर सन्‍नाटा खिचा था और इधर बूटी, छोटू ओभी और बाटर दरवाजे पर आता कुणाल सन्‍नाटा चेहरा लिए खड़े उसे देख रहे थे-पर पता नहीं क्‍यों, वह एक गहरे राहत में थी हर बार की तरह दायीं तरह दायीं कनपटी से उठता तीखा दर्द आज नहीं था... बिल्‍कुल नहीं।
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सपना सिंह की एक रचना और नीचे लिंक पर पढ़िए
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