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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

16 अगस्त, 2018


मंजुला बिष्ट  की कविताएँ







एक 

तब भी,
ये सब मेरे लिए कोई विशेष विचारणीय विषय नही थे,

जब,
तालु में प्रतिवाद हेतु निमिष मात्र भी कम्पन न बचा था
मुट्ठियाँ भी अधिक देर तक भींचने हेतु सामर्थ्यहीन थी
शरीर भी आत्मा के गाहे-बगाहे उठने वाले विरोध से आज़िज़ होने लगा था
नुक्कड़ी-पंचायतों के फ़ौरी फैसलों बेहद ही बेस्वाद हो चले थे!

परन्तु जब,शब्द
व्याकरण में ढलने की अनुशीलता
व ज़ुबानी तमीज़ खोने को आतुर होने लगे थे।

जिंदगी... यथार्थ के प्रति खदबदाहट के चरम पर थी।

तब,वह
स्वयं को उस कंगली दुनिया के एक छोर में पाना था
जहाँ, मुझे बस उतना ही ठौर हासिल था
जितना,मन पसन्द कीचड़ न मिलने पर
मैंने कभी पैरों के पंजे टिकाने भर की जगह खोजी थी !

अब,
मेरा कविताई की कोख़ में आँखे खोलना बहुत ज़रूरी था!

कविता,
शाब्दिक-विवशता की वह मौन-अनगूँज है;जहाँ
प्राण-वायु भी सहज-समर्पण करने को विवश है !
और..
इसी विवशता में स्वयं को धिक्कारने व सहलाने जैसा बहुत कुछ अभी भी जिंदा रह पाता है !

आख़िर,
धरती के परिभ्रमण-पथ के चक्रांश में,मुझे
कविता की दुनिया में भी झांकने को कितना ठौर चाहिये था?

दो पैरों के पंजो के उचकने भर की ही न !



दो

देवालयों के प्रांगण में
लम्बी कतारों में....
माँ की कमर के कोटरों से
झाँकते शिशुओं की आँखें...
दुग्ध-गन्ध से चिहुँक उठते
शिशुओं के जीभ फिराते होंठ...
जैसे,होंठों की कोमलता ही
संसार मे पूर्ण-तृप्त बिंदु घोषित हो।

पैरों की ऐंठन को सहलाती बूढ़ी अम्मा
लाठी को ताकता बूढ़ा चश्मा,
छोटी दीदी का
मंदिर के अहाते में नन्हें की माँ बन जाना।
नये मंगलसूत्र का साथी की ओर झुक जाना
कतार के अंत में
परिणाम -पूर्व विद्यार्थी का कुछ ज्यादा बुदबुदाना।

इन्ही कतारों से दूर कहीं
एक ही थाली का कई हाथों से गुज़रकर
पुनः पवित्र चरणों पर अर्पित हो जाना।

आस्था को प्रतिष्ठित करने से पहले
धैर्यवान होने के सतत अभ्यास-मात्र हैं।







तीन

कुछ सहेजते हुए थकन नही होती
बिखरता हुआ देखने में होती है!

किसी से नफरत के नाम पर हमनें ख़ुद
को सबसे अधिक सजाएं सुनायी हैं!

कुछ यूँ कहना,"मेरे लिये यह सब करो!"
कोई यह कह देता,"मैं क्या कर सकता हूँ?"

किसी ताबूत की अंतिम निर्मम कील
का अनुभवी हथौड़ा
या तो किसी राज़दार के पास था
या किसी बेहद क़रीबी के पास!

किसी चूहे के लिये "मसखरा हत्यारा" बनते हुए
बिल्ली भी मजबूत प्रतिद्वंदी से भयाक्रांत रहती है !

कुछ,किसी,कोई ..जैसे अनिश्चयवाचक सर्वनाम शब्दों
को अपनी बातों में शामिल करना ;

हमें आरामदायक अवस्था देता है
जहाँ, संशय होते हुए भी
स्वयं के अनावृत्त होने की कम सम्भावना होती है !

       


                                   
चार

जिस तारे को देखकर
माँ ने कहा था
वे मेरे बाबा है !
उसी तारे के लिये माँ की सखी,
बिन लिफ़ाफ़े के रक्षा-सूत्र भेजती रही।

वही तारा पड़ोसी के नन्हें का
चंदा मामा का पड़ोसी बन बैठता ;
तो कभी किसी गुलाबी पलकों की
ख्वाबों की चादर का एक लटकन भी !

किसी खपरैल में मिट्टी के तेल का कनस्तर
भी इसलिये सुरक्षित रह पाया
क्योंकि, आँगन में तारों की घनी बैठक सजी थी।

न जाने कितने किरदार बनकर
एक तारा ताउम्र
मुक्ताकाश में हमें ख़ुद से मिलाता रहा।

कल रात
जब वह टूट रहा था
जल्दी से आँखे बंद कर
"विश-लिस्ट" पूरी होने की दुआ माँगी गयी।

वैसे भी यहाँ
किसको क्या असर पड़ता है ?
एक काल्पनिक किरदार ही तो लापता है!

आज,
सबने अपनी पसन्द का नया तारा खोज लिया है
जिसका आकाश में उमदराज़ होने से ज़्यादा
उसका टूटना धरती के लिये
शुभ -लाभ का द्योतक़ है!

यही तो होता है न,
"रिक्त स्थान की पूर्ति करों "....प्रश्न
जिसमें कुछ विकल्प उपलब्ध होते हैं
वे ,सदैव अधिक सुविधाजनक सिद्ध होते हैं ।





पांच 

हॄदय की उन गाँठों की मुक्ति बहुत ज़रूरी हैं
जहाँ शुचिता व शुभता,
दरिद्र भाव लिये इतनी अकुलाहट में हो....

जैसे,जेठ की दुपहरीे में रेत में पड़ी
किसी मछली ने ;
अपनी पथराई आँखों में हमारे लिये
अपनी बची उम्र देने की भरसक कोशिश की हो।

उन गाँठों के चटखने की चीत्कार
इतनी सतही थी कि
हॄदय उस महीन अंतर को नही समझ पा रहा था

जहाँ,
भिखारी के कटोरे व कमंडल में रखे हुए अन्न का,
अपना -अपना स्थान होता है।

यह मुक्तिबोध;
एक ऐसी समग्र व्यवस्था लिये हो
जिसका निर्मम प्रहरी
बन्द किये हुए नगर-द्वार को खोलने का कौशल
पूर्ण विस्मृत कर चुका हो।

किसी भी मुक्ति में हम स्वयं मुक्त होते रहते हैं
कोई अन्य नही;
जैसे,लौह-क्षरण में लौह तत्व,
 क्रमशः ही.....







छ:

पुष्प....
सृष्टि में ;
प्रेम का 'दूजा नाम' बनकर सहज प्रस्फुटित था!

जिसे,विलोपित होने तक;
'अपनी सी गंध' में संलिप्त हो मुमुक्षु हो जाना था!

लेक़िन,
प्रेम में कुछ षड्यंत्र के क़िस्से सुनकर,
कुछ उतावले व बौखलाए पुष्पों ने ;
कीटभक्षी पुष्पों का रूप धरा है !

जो,जीवन-संघर्ष में
किसी शव से लिपटे हुए;
उसकी दुर्गंध में गलते जाएंगे!

पुष्पों को क़िताब के बीच सहजेने से पहले
उनका इतिहास पढ़ना ज़रूरी है!



सात 

पुरुष !
तुमने कितनी कुटिलता से ;
स्त्री की मैत्रीय-ऊष्मा के सुविधाजनक अर्थों को
आदम की प्रागैतिहासिक शब्दकोश से चुन लिये न!

और,
स्त्री ने भी उस शब्दजाल से घबराकर वही किया,जो
हव्वा-माँ ने होंठोंं पर अँगुली रखकर फुसफुसाया था ;
उसने छाती की चटखती पसलियों
व देह से पिघलकर छूटती परतों को
अपनी कांपती चुनर में समेटा भर था
और धौंकती छाती पूर्व-गति के अभ्यास पर आ गयी थी !

क्योंकि,
वह जानती थी कि
स्त्रियों के नितांत एकांत में बहाए हुए
रंगहीन आँसू अपने इतिहास के दाग दिखाने में असमर्थ हैं !

इन घुटती तन्हा शिकायतों की एकल सुनवाई तो
आधुनिक नारियों की गोल-मेज सम्मेलनों तक में बामुश्किल दर्ज़ हो पाती हैं।




आठ 

वह ऐसे आया
जैसे,बस 'आना' था

अब उसे कमरे की अव्यस्था पर ज़्यादा खीज नही होती
जबकि,उसका कमरा आज भी उसका ही है
बस,अब वह 'वहाँ' रहता नही है
अब ,वह ठहरता भर है ।

दादी की अनुभवी आँखें पड़ोस से आती
शिशु-रुदन को सूँघ लेती है
उन्हें,दूसरी कन्या के आगमन का अर्थ भलीभाँति पता है!

शिशु के हाथ में शगुन पकड़ाती दादी
प्रसूता के सर पर हाथ रख कहती है...

"अब बेटे भी "मेहमान" हो गए हैं,जो
बेटियों की तरह"त्यौहार"पर ही घर आते हैं!







नौ 

गम्भीर व आत्मीय चर्चाओं में
उस वर्जित नाम का जिक्र आता रहा,
जिसका प्रवेश जीवन-वृत में निषेध घोषित था।

वांछित व अवांछित विदाई के बाद
रिक्त हुई जगह में
किसी के रहने का भान;
उसके नही रहने में ज्यादा होता रहा ..।

साँसों की लय में
साँस छोड़ना ;
सदैव लेने से ज्यादा महत्व रखती है ।

कोई भी मृत्यु किसी एक क्षण में
मात्र,एक श्वास लेना भूल जाना ही तो था !

अनुपस्थिति,
एक तरह की अनिवार्य उपस्थिति होती है
 अवांछित भी...
                                                 




दस 

जब
मैं अनभिज्ञ नही रही कि
आकाश ने सभी ध्वनि-प्रतिध्वनि को धारण किया हुआ है

तब
मेरे लिये यह समझना मुश्किल न था
कि क्यों ईश्वर का घर मेरे लियेे
सदैव विस्तीर्ण.... आकाश रहा है!

जब
मैं महसूसने लगी
वर्षाकाल में बूँदों के थमने का अर्थ
तो,जान पायी कि

प्रकृति में रुकना,सबसे खूबसूरत
लेकिन उपेक्षित क्षण है
जो, हम सबके भाग्य की एक आवश्यक माँग है

जहाँ, हमारा होना
स्वयं को बिन दर्पण देखे पहचान लेना होता है

स्वयं से प्यार करते रहना भी ....आकाश हो जाना है!
००
मंजुला बिष्ट की एक रचना और नीचे लिंक पर पढ़िए


पत्र-पेटी जिसे खोले जाने का इंतज़ार है
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/07/blog-post_13.html?m=1




परिचय

मंजुला बिष्ट

बीए,बीएड
कविता ,शे'र व कहानी लेखन में रुचि
मूलनिवास उदयपुर (राजस्थान)में,
इनकी रचनाएँ दैनिक भास्कर,राजस्थान-पत्रिका सुबह-सबेरे,प्रभात-ख़बर व अन्य स्थानीय अखबार ,पर्तों की पड़ताल पत्रिका,स्वर्णवाणी ,वेब-दुनिया व अन्य वेब पत्रिका में प्रकाशित होती रहती हैं।

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