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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

19 अगस्त, 2018

डायरी:

छः
कबीर संजय


रईस

एक दिन मेरी मुलाकात रईस से हुई। वैसे तो पहले भी मैं उसे जानता था। लेकिन, मुलाकात की परिभाषा में जो थोड़ा बहुत अंश शामिल किया जा सकता है वह उसी दिन का है। अक्सर ही में चिकन लेने उस दुकान पर जाता था। बबूल के तने के दो बड़े-बड़े हिस्सों को लेकर वे दो आदमी ऊपर चौकी पर बैठे रहते हैं। मांस काटने के लिए बबूल का यही तना काम में लाया जाता है। बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय।



बबूल के पेड़ को भी कम शाप नहीं। मांस काटने के लिए आधार के तौर पर जिस तने को इस्तेमाल किया जाता है वह आमतौर पर बबूल के तने का एक गोल-मोटी फांक ही होती है। खून और मांस से सने इसके तने की ऊपरी परत सीली होकर सड़ने लगती है। उसे सड़ने से पहले ही चिकन या मटन काटने वाला अपने छुरे से कुरेद लेता है। खून और मांस से बिंधी पेड़ के तने की एक परत उतार ली जाती है। इस तरह से वह दिनोंदिन कम हो जाता है। खतम होता जाता है। उसका आकार छोटा होता जाता है। पता नहीं आप उसे देख पाएंगे कि नहीं। कहीं आपको मांस और खून देकर उल्टी तो नहीं आने लगती। अगर आप देख पाते तो देखते कि कैसे उस मोटे से तने पर चापड़ के ढेरों निशान पड़े होते हैं। मांस को चीरते हुए चापड़ की धार तने को काटते हुए घुसने लगती। तने को वह काट तो नहीं सकती। लेकिन तने पर उसके तमाम निशान पड़ जाते हैं। तेज धार की लकीरें। इन लकीरों से ही उसके ऊपर पड़ने वाले घावों को समझा जा सकता है। अगर आप समझना चाहें।
हां, इधर बीच शॉपिंग मॉल वगैरह में मांस काटने के लिए एक दूसरी चीज का इस्तेमाल भी होने लगा है। ठोस प्लास्टिक का एक सफेद का बेस। वैसा ही जैसा प्याज वगैरह काटनेवाले चाप बोर्ड में होता है। यह एक मोटा सा प्लास्टिक के तख्ते जैसा होता है। इसी पर रखकर मांस की कटाई होती है। खून और मांस से बिंध जाने के बाद उसे साफ कर दिया जाता है। लेकिन, इस पर भी तेज धार वाले चापड़ के तमाम निशान पड़े होते हैं। यह वही लकीरें हैं जो मास के किसी टुकड़े पर पड़ी होती तो उसे अलग कर देतीं। लेकिन, प्लास्टिक ने उसका वेग कम कर दिया और बस उस पर अपने निशान ही पड़ने दिए। बबूल का पेड़ भी ऐसा करता है। बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होये। इस कहावत से शायद बात पूरी नहीं हो सकी। इसलिए इसके बदले में मैं एक दूसरी भी कह सकता हूं। शायद कबीर ने कहा है कि मानुस देह धरे दंड होई। यानी आदमी का शरीर लिया है तो कुछ न कुछ तो दंड भुगतना पड़ेगा। काश की यही बात मैं बबूल के पेड़ को भी समझा पाता। बेटा, बबूल का देह धरा है तो यह दंड तो सहना ही पड़ेगा।
खैर, विषय के अलावा जो कुछ भी है वह सब कुछ विषयांतर है। विषय क्या है। जो मुख्य है। मुख्य क्या है। जो सबसे पहले है, जो सबसे ज्यादा जरूरी है। सबसे ज्यादा जरूरी क्या है। क्या इन प्रश्नों का कोई अंत है। क्या सभी प्रश्नों के उत्तर संभव है। किसी के लिए जो विषय है। वही दूसरे के लिए विषयांतर है। किसी के लिए जो मुख्य है वही दूसरे के लिए सबसे गौड़ है। जो किसी के लिए प्रश्न है, वही दूसरे के लिए उत्तर है। प्रश्न और उत्तर की यह एक अजीब सी भूल-भुलैया नहीं है। जहां पर हम बिना कोई एक छोर पकड़े, दूसरे की तलाश में भटकते रहते हैं। कभी कोई एक सिरा मिलता भी है तो दूसरा छूट जाता है। फिर हम उसको अपनी अंगुलियों की पोरों में पकड़कर दूसरे की तलाश में निकल पड़ते हैं। लेकिन, जब तक हम दूसरा सिरा पकड़े हमारे हाथ से पहले वाला छूट जाता है। ऐसे समय में मुझे तो और भी ज्यादा परेशानी होती है। न जाने क्यूं ऐसा लगता है कि जैसे पानी के अंदर ढेर सारी रस्सियों के जाल में मैं गुम होता जाता हूं। जितना ज्यादा इसे सुलझाऊं उतना ही ज्यादा यह उलझता जाता है। फेफड़े में आक्सीजन कम होती जा रही है। सांसे नहीं बची हैं। ऊपर जाना ही होगा। लेकिन, पहले रस्सियों के इस जाल से पीछा तो छूटे।
चिकन खरीदने जब भी मैं उस दुकान पर जाता था तो उन निस्तेज आंखों से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था। निस्तेज आंखों के संदर्भ मैंने कई किस्से-कहानियों में पढ़े हैं। लेकिन, अपने जीवन में मेरी ऐसी आंखों से सामना कम ही हुआ है। या फिर मैं इसका मतलब भी नहीं समझता रहा हूं। ऊपर ऊंचे चबूतरे पर बैठे दो लोग मटन या चिकन को काटते रहते हैं। (प्रसंगवश यहां पर यह भी कहता चलूं कि चिकन-मटन की दुकानों के डेकोरेशन से भी उनके धर्मों का अंदाजा लगाया जा सकता है। मुसलमान की दुकान है तो अरबी के कुछ अक्षरों में कुछ लिखा वाला पोस्टर दीवार पर चिपका होगा। मक्का मदीना की फोटो भी दिख सकती है। यहीं पर वो पवित्र पत्थर है, जिसे शायद संगे असवद कहते हैं। हिन्दू की दुकान है तो पीछे काली माई का वह फोटो दिखेगा जिसमें वे कटे हुए हाथों की स्कर्ट पहनी होती हैं और उनके वक्ष स्थल को छिपाने के लिए कटी हुई मुंडियों का इस्तेमाल किया जाता है। उनके एक हाथ में खून से भरा हुआ कटोरा है तो दूसरे हाथ में रक्त में सना हथियार। पैरों के नीचे कोई है जिसे वे रौंद रही हैं। ये तो हुई धर्म की बात। फिर जाति की बात। मुसलमानों में चिकन और मटन काटने वाले चिकवा होते हैं और भैसा काटने वाले कसाई। कसाई और चिकवा अलग-अलग है। और वे इसी से पहचाने भी जाते हैं। खैर, दुकान के बाहर लगे हलाल और झटका के बोर्ड से भी मोटा-मोटी हिन्दू और मुसलमान की पहचान की जा सकती है।)
उस ऊंचे से चबूतरे के बगल में एक पतली सी दीवार के पार्टीशन में वो मुर्गे को छीलने काम किया करता था। वो कोई दस-ग्यारह साल का बच्चा था। जब मैं दुकान पर पहुंचा, मैंने चिकन का रेट पूछा। एक किलो मुर्गा तैयार करने को कहा, उस वक्त उसके एक हाथ में चाय का गिलास था और दूसरे हाथ की उंगलियों में मट्ठी पकड़ी हुई थी। मेरा आर्डर सुनते ही उसने चाय का गिलास उसी पार्टीशन की दीवार पर रख दिया। चाय से भाप उठ रही थी। हाथ में पकड़ी मट्ठी को उसने चाय के गिलास पर ढक्कन की तरह रख दिया। मेरे मन में पहला खयाल यही उठा कि भाप से मट्ठी का निचला सिरा कितना गीला हो जाएगा। फिर वो खाने लायक नहीं रहेगी।
पर मेरी चिंताओं से उसे क्या कोई मतलब था। उसने तो मुर्गे के दड़बे में हाथ डाला। यहां पर बहुत सारे मुर्गे अपने अंजाम से अंजान चुपचाप बैठे हुए थे। कुछ दाना भी चुग रहे थे। उन्हीं में से टटोल-टटोलकर उसने एक किलो के मुर्गे का अंदाजा लगाया। उसी को उसने पकड़ लिया। दड़बे में मुरगियों की कुछ सेकेंड की फड़फडाहट रही। को-क्को को की आवाज आती रही। फिर शांत हो गई। बड़े ही निस्तेज भाव से उसने मुर्गे की गर्दन उलट दी। फिर कुछ बुदबुदाते हुए उसने मुर्गे की गर्दन रेत दी। उसकी बुदबुदाहट में छिपे मंत्रों से वह मुर्गा अब हलाल हो चुका था। नहीं तो वह झटका ही रहता। आधी गर्दन कटी मुर्गे को उसने एक प्लास्टिक की बड़ी बाल्टी में डाल दिया। वहां पर मुर्गा कुछ देर छपपटाता रहा। उसके शरीर से निकलती जान बाल्टी की दीवार पर टक्कर मारती रही। फिर वो शांत हो गया।
उसने बाल्टी में हाथ डालकर मुर्गे को निकाल लिया। उसके छीलने की शुरुआत की। पूरे पंखों के साथ उसकी ऊपरी त्वचा निकाल दी। उसके अंदर की अंतड़ियां साफ की और छिला हुआ मुर्गा उसने ऊपर उछाल दिया। यहां पर मुर्गे के पीस तैयार किए जाने हैं। मुर्गे के शरीर से भी भाप निकल रही थी। खून और मांस के तमाम कतरों से डूबे एक कपड़े से उसने हाथ पोंछे और एक हाथ में मट्ठी और एक हाथ में चाय पकड़ ली। चाय में से अभी भी भाप निकल रही थी। उसने उसका एक घूंट लिया और चाय को सहारा देने के लिए मट्ठी का एक छोटा सा टुकड़ा कुतर लिया। चाय के साथ मट्ठी मुंह में घुल गई थी। इस बीच मैं लगातार उसकी आंखों की ओर से देखता रहा। हां, वही निस्तेज आंखें। उसमें जान नहीं थी। न ही कहीं दिलचस्पी थी। उसकी दिलचस्पी की कोई चीज सामने दिख भी नहीं रही थी। चिकन और मटन की बोटियों में बनने के बाद जो स्वाद आता है, वह उसके कटने के समय क्यों नहीं होती। क्यों खून के हल्के धब्बों और मांस के उन गुलाबी टुकड़ों से एक विस्तृष्णा सी होती है। वितृष्णा नहीं भी हो तो कम से कम वे स्वादिष्ट तो नहीं ही दिखती। मुर्गा छीलने वाले उस छोटे से बच्चे को मुर्गे की उन मशहूर चिकन लेग का स्वाद कितना आता होगा।
उस चेहरे में जमाने भर की ऊब समाई हुई थी। हल्के भूरे बाल। खड़े-खड़े। कुछ उलझे, कुछ सुलझे। गालों पर मैल की हल्की परत जमी हुई थी। कहीं-कहीं ये परत फट भी रही थी। होंठों की पपड़ियां फटी हुई थी। उसके कपड़े पर भी खून और मांस के छोटे कतरों के निशान लगे हुए थे।
कितना पैसा मिलता होगा, उसे एक मुर्गा काटने और छीलने के। मैंने मन ही मन सोचा और अंदाजा लगाने लगा। मेरा अंदाजा है कि एक मुर्गा काटने और उसे छीलने के कम से कम दस रुपये तो मिलते ही होंगे। आखिर आसान काम तो नहीं ही है।
एक मुर्गा छीलने के इसको कितने पैसे देते हो। मैंने लड़के की तरफ इशारा करते हुए दुकान मालिक से पूछा।
दुकान मालिक बबूल के कटे हुए तने पर मुर्गे को रखकर मेरे लिए बोटियां तैयार कर रहा था। उसे इस प्रश्न की उम्मीद नहीं थी। उसने प्रश्नवाचक निगाह से मेरी तरफ देखा और जवाब दिया, एक मुर्गे के दो रुपये।
अच्छा, दिन भर पचास मुर्गा तो काट ही लेता होगा।
हां, ज्यादा भी हो जां। कई-कई बार सौ भी हो जां।
मैंने मन ही मन हिसाब लगाया। यानी एक दिन में सौ रुपये और किसी-किसी दिन दो सौ रुपये। इतने रुपये में वो मुर्गे की गर्दन उलट कर उसकी नटई पर अपनी चाकू फेर देता है। मंत्रों को पढ़कर उसे हलाल बनाने से भी नहीं चूकता और उसके सारे पंख छीलकर, अंतड़ियां निकालकर, पोटा साफ करके दुकानदार को सौंप देता है, ताकि उसकी बोटियां तैयार की जा सकें। इसके बाद वह उस खून और मांस से रंगे हुए कपड़े के टुकड़े से वैसे ही हाथ पोछता है जैसा कि आमतौर पर कोई भी कातिल कत्ल करने के बाद उसके छींटे पोंछता होगा। शायद ही कोई कातिल होगा जिसे खून के उन छींटों से भी प्यार हो।
इसे स्कूल क्यों नहीं भेजते।
जाता था जी। अब नहीं जाता।
क्या उम्र होगी इसकी।
दस-ग्यारह का होगा।
फिर तो स्कूल भेजना चाहिए।
जाता था जी। वहां पर नशे की लत में पड़ गया। दिन भर नशेड़ियों के चक्कर में। जभी तो यहां लाना पड़ा।
नशेड़ियों के चक्कर में, वो कैसे। घर में कोई देखता नहीं।
अजी, यहां कौन देखभाल को पड़ा है। बाप मजूरी किए था। बीमार होकर मर गया। अम्मा इसकी घरों में काम करे है। अब ये दिन भर भागा-भागा फिरे। फिर नशेड़ियों की संगत में पड़ गया। हमारे मोहल्ले का ही है। तो यहां ले आए। चल कुछ काम तो करेगा। अब दिन भर काम करता है। शाम को घर में जाकर मदद भी करता है।
नाम क्या है इसका।
रईस। रईस नाम है। इसका।
इस दौरान पूरे समय तक रईस मेरी तरफ देखता रहा। उसे इन सवालों की तो कोई उम्मीद नहीं थी। मेरी बोटियां तैयार हो गई थीं। दुकानदार ने उसे पहले एक पालीथीन में ऱखा। फिर उस पालीथीन को काली पालीथीन में रख दिया। मैंने पैसे चुकाए और दुकान से बाहर आ गया।
रईस नाम का एक और कामगर अपने काम का सख्त प्रशिक्षण ले रहा था। वो दुनिया के बाजार में अपनी मेहनत बेचने के लिए आ चुका था। वो भी बहुत कम उम्र में।
कैसा रईस है वो।
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कबीर संजय की डायरी की पांचवीं कड़ी नीचे लिंक पर पढ़िए


ली ची 

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