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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

30 अगस्त, 2018

हिन्दी उपन्यासों में थर्ड जेंडर

डॉ पुष्पा गुप्ता

जेंडर शब्द लिंग सूचक होता है। ‘थर्ड जेंडर’- शब्द रूप में या साकार जब सामने आता है तो उसका अर्थ परम्परागत स्त्री या पुरूष से इतर व्यक्तित्व होता है। भारत जैसे देश में जहाँ शिवलिंग और योनि की पूजा होती है, जहाँ शिव अर्धनारीश्वर रूप की सामाजिक स्वीकृति है, जहाँ यह माना जाता है कि एक मनुष्य के भीतर स्त्री और पुरुष दोनों भावों का संतुलन ही उसे सफलता की ओर ले जाता है, वहाँ लैंगिक द्वैत से भिन्न यानि परम्परित स्वरूप से अलग यानि अनुपम और अद्वितीय थर्ड जेंडर व्यक्तित्व को सामाजिक रूप से हाशिए पर धकेल दिया गया है। जहाँ नर में नारायण का वास माना जाता हो, जहाँ तैतीस करोड़ देवी-देवता हों, जहाँ विभिन्न गुणों के आधार पर वृक्षों को पूजा जाता हो, जहाँ अपनी सभ्यता और संस्कृति के श्रेष्ठतम होने का दम भरा जाता हो, वहाँ केवल एक जननांग दोष के कारण जीते-जागते व्यक्तियों को पशुवत जीवन जीना पड़ता हो, वहाँ यह त्रासद विडम्बना नहीं तो और क्या माना जाएगा?

डॉ पुष्पा गुप्ता

दूसरों के सिर ठीकरा फोड़ने की मानवीय वृत्ति के अनुरूप यदि हम थर्ड जेंडर की वर्तमान स्थिति के लिए अंग्रेजों को दोषी ठहराएँ या और भी पीछे चले जाएं, बहुतेरे तर्क उपलब्ध हो जाऐंगे या घुमा फिरा कर स्थिति को तार्किक सिद्ध कर दिया जाएगा। पर तब भी हम इस अपराध से कैसे मुक्त हो सकते हैं कि स्वतंत्रता के बाद हमने थर्ड जेंडर के लिए क्या किया? बात-बात पर आंदोलनों की तलवार भांजती तथाकथित स्वयंसेवी संस्थाओं और मानवाधिकार आयोग ने इनके लिए क्या किया?
लेकिन पिछले कुछ दशकों में थर्ड जेंडर के प्रति सामाजिक संवेदनशीलता का विकास हुआ है। संविधान इन्हें वोट का अधिकार देता है। सामान्य स्थितियों में पले-बढ़े इस वर्ग के लोग राजनैतिक परिदृश्य और सरकारी नौकरियों में उच्च पदों पर पहुंच रहे हैं। दिल्ली के तीन विश्वविद्यालयों ने इन्हें शिक्षा के अवसर प्रदान करने की पहल की है। लेकिन यह अपर्याप्त है, इस क्षेत्र में ठोस सुधार की अनंत संभावनाएँ अभी शेष हैं।
सन् 2014 में स्ळठज् यानि-स्त्री समलैंगिक, पुरूष समलैंगिक, उभयलिंगी और ट्रांसजेंडर को सामाजिक एवं संवैधानिक मान्यता प्रदान की है। इसने ‘भ्रामकता’ को जन्म दिया है क्योंकि समलैंगिक या उभयलिंगी व्यक्तित्व यौन व्यवहार के अन्तर्गत आता है जबकि थर्ड जेंडर आंगिक विकार के अन्तर्गत जो कि जन्मजात होता है। दोनों की मूलभूत प्रकृति में अंतर है। लेकिन इस कानूनी स्वीकृति ने यौन व्यवहार संबंधी असामान्यता को अपराध-बोध से मुक्त कर दिया है।
हिंदी कथा साहित्य में विधा की दृष्टि से उपन्यास का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। जिसमें मानव जीवन से संबद्ध तमाम कोनों-अंतरों को झांकने की कोशिश की गई है। परन्तु आलेख के संदर्भ में अध्ययन की दृष्टि से जब मैंने थर्ड जेंडर से जुड़े उपन्यासों को खोजना प्रारम्भ किया तो पाया कि यह विषय इतना उपेक्षित है कि अंगुलियों पर गिने जाने योग्य रचनाएँ ही उपलब्ध होती हैं।
यह एक सत्य है कि यह विषय अत्यन्त बीहड़ है और इसमें प्रवेश का मार्ग अत्यन्त जोखिम भरा है। समाज से इनका अलगाव, इनके प्रति समाज में फैले अंधविश्वास, जागृति और शिक्षा के अभाव में इनके द्वारा किया जाने वाला व्यवहार-कुल मिला कर ऐसा परिदृश्य बनता है कि संवेदनशील कृति की रचना योग्य तथ्यों का अभाव ही रहता है। इसलिए इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री के आधार पर लिखी जाने वाली रचनाओं में तथ्यों का पुर्नप्रस्तुतीकरण प्रमुख हो जाता है और कथा गौण हो जाती है। उपलब्ध रचनाओं में विषय की संवेदनशीलता को गहराई से रेखांकित किए जाने की आवश्यकता अभी शेष है। पर कुछ उपन्यास इतने प्रभावशाली बन पड़े हैं कि मन में आशा का संचार करते हैं।
कथ्य के साथ लेखक के ट्रीटमेंट के आधार पर थर्ड जेंडर से जुड़े उपन्यासों को चार श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है :-
1. जहाँ थर्ड जेंडर केन्द्रीय पात्र के रूप में उपस्थित हैं :-
मैं भी औरत हूँ : अनुसूया त्यागी (2011)
किन्नर कथा : महेन्द्र भीष्म (2014)
मैं पायल : महेन्द्र भीष्म (2016)
पोस्ट बॉक्स नं0 203 नाला सोपारा :  चित्रा मुद्गल (2016)
जिन्दगी 50-50 : भगवंत अनमोल (2017)


मैं भी औरत हूँ : अनुसूया त्यागी (2011)




अनुसूया त्यागी का यह उपन्यास जननांग विकार से युक्त दो लड़कियों रोशनी और मंजुला की कहानी है। जिनकी विकृति के विषय में माँ-बाप को देर से पता चलता है। यह उपन्यास का कमजोर बिंदु है क्योंकि इन दोनों के केस में डाक्टर द्वारा आपरेशन कर योनि का विकास किया गया था। माँ, प्रसव करने वाली दाई या डाक्टर (जिनका उपन्यास में उल्लेख नहीं है), संयुक्त परिवार होने के कारण शेष परिवारी जन-क्या कोई भी बचपन से किशोरावस्था तक उन दोनों के विकार को नहीं जान पाए, एक अविश्वसनीय तथ्य लगता है। इसीलिए लेखिका द्वारा कथा को सत्य घटना पर आधारित बताना और अपनी व्यक्तिगत संबद्धता की बात करना भी संदिग्ध हो जाता है। पेशे से चिकित्सक लेखिका ने एक तथ्यात्मक भूल की ओर ध्यान नहीं दिया है-थर्ड जेंडर वाले बच्चे का जन्म आनुवांशिक विकार के कारण नहीं, हार्मोन्स के असंतुलन के कारण होता है। अतः एक ही परिवार में दो ऐसे बच्चों का जन्म मात्र संयोग ही कहा जा सकता है।
लेकिन उपन्यास का शेष कथानक समाज के लिए एक मिसाल माना जा सकता है, क्योंकि अपनी बेटियों के इस विकार को जानने के बाद मास्टर जी और उनकी पत्नी ने कोई हाय-तौबा, रोना-पीटना या भगवान को कोसना कुछ भी नहीं किया। बल्कि ग्रामीण परिवेश और संयुक्त परिवार व्यवस्था के बावजूद वो किया जिसका साहस अक्सर उच्च शिक्षित और साधन संपन्न लोग भी नहीं कर पाते। वह दोनों अपनी बेटियों को स्त्री रोग विशेषज्ञ के पास ले जाते हैं। डॉक्टर के द्वारा यह समझाने पर कि मंजुला सामान्य जीवन के साथ मातृत्व सुख भी भोग सकती है और रोशनी सामान्य जीवन तो जी सकती है, पर शरीर में गर्भाशय न होने के कारण माँ नहीं बन सकती। वह इस सत्य को सहज रूप से स्वीकार करते हैं।
मास्टर जी, पिता से एकमुश्त धन लेते हैं, किसी को भी बिना बताए दोनों का आपरेशन कराते हैं, ताकि उनकी बेटियों को किसी भी तरह से सामाजिक उपहास न झेलना पड़े। उन्होंने बेटियों का वर्तमान सुधार कर उनके उज्ज्वल भविष्य की नींव रखी। मंजुला और रोशनी की उच्च शिक्षा दिलाई। मंजुला ने विवाह और संतान सुख पाया। रोशनी एक प्रसिद्ध कंपनी की सी.ई.ओ. बनी, पर उसके भीतर स्थित गं्रथि का शमन ओंकार के साथ स्थापित संबंध के बाद ही होता है। दोनें विवाह करते हैं, सरोगेट मदर के द्वारा संतान उत्पत्ति का प्रयास करते हैं, धोखा खाते हैं, एक बच्ची को गोद लेते हैं, अरसे बाद अपने बेटे को पाते हैं, दत्तक पुत्री से उसका विवाह करते हैं।
उपन्यास एक सार्थक दिशा देता है कि चिकित्सा शास्त्र का सहारा लेकर ऐसे विकार ग्रस्त बच्चों को जीवन दान दिया जा सकता है। परिवार में उपलब्ध सामान्य परिस्थितियाँ और उचित मार्गदर्शन इस तरह की परिस्थिति को सकारात्मक दिशा की ओर ले जाता है। यह उपन्यास एक स्टीरियो टाईप से अलग औरत की छवि बनाता है कि स्त्री मात्र गर्भाशय नहीं है। वह दिल-दिमाग युक्त एक जीवित स्पन्दन है।
लेखिका इस एक विकार के समानान्तर अन्य सामाजिक विकृतियों को भी दिखाती हैं -गाँव के घरों में शौचालय का अभाव, शौच के लिए जाने पर शारीरिक उत्पीड़न का भय या उससे गुजरना, मर्दवादी पुरूषों नकुल और सौरभ द्वारा रोशनी का त्याग, यौन शुचिता का प्रश्न आदि। यहाँ लेखिका यह भी सिद्ध करती है कि यदि पुरूष सभी रूपों में मानवीय गरिमा के साथ उपस्थित हों - जैसे मास्टर तुलसीराम, डॉ0 विपिन, दादा जी और ओंकार-तो कोई भी स्त्री समाज में स्वयं को असुरक्षित और हीन अनुभव न करे।



किन्नर कथा : महेन्द्र भीष्म (2014)






सामाजिक कार्यकर्त्ता और न्याय व्यवस्था से संबंद्ध लेखक महेन्द्र भीष्म ने बुंदेला इतिहास की एक समृद्ध रियासत को कथा भूमि बनाया है और कथानक को सत्य घटना पर आधृत बताया है। साथ ही कथा की ऐतिहासिकता और प्रामाणिकता के लिए कुछ तिथियाँ भी दी हैं। उपन्यास दो उच्च कुलों में उत्पन्न तारा और सोना की कथा कहता है जिसमें लेखक ने बीच-बीच में ‘थर्ड जेंडर’ पर सैद्धान्तिक विवेचन को गूंथा है जो कथा में संवेदना जगाने के स्थान पर कथा को बोझिल करता है। किन्नर समाज के विषय में विस्तृत जानकारी दिए बिना भी कथा सूत्र को विकसित किया जा सकता था। यहाँ कथा फीचर में तब्दील होती दिखाई देती है।
पर लेखक यह सिद्ध करने में सफल हुआ है कि ‘थर्ड जेंडर’ बच्चा या बच्ची अपनी कुलीन पृष्ठभूमि के बावजूद अपने ही घर में उपेक्षा का दंश झेलता है। यही कारण है कि देर से ही सही सोना की अपूर्णता का ज्ञान जगतसिंह पर गाज बनकर गिरता है। अपनी तथाकथित प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए वह दीवान को उसकी हत्या का आदेश दे देते हैं। ऐन मौके पर दीवान के भीतर का मनुष्य जाग जाता है। घटना क्रम सोना को सज्जन और नैतिक मूल्यों से परिपूर्ण किन्नर गुरू तारा तक पहुंचा देता है, जहां एक पूर्ण स्त्री मातिन द्वारा सोना उर्फ चन्दा का पालन पोषण होता है। तारा गुरू अपने परिवार के संपर्क में है। अपने अतीत और वर्तमान के अंतर को गहराई से जीती तारा गुरू केवल साधारण किन्नर बनकर नहीं रह जाती। बल्कि लेखक ने यह दिखाया है कि औरों से अलग तारा गुरू के डेरे के किन्नर सत्मार्ग पर चलकर भी अच्छा जीवन बिताते हैं। स्वयं खेतीबाड़ी भी करते हैं यहाँ तक कि तारा गुरू अपने डेरे पर आने वाले किन्नरों का चिकित्सीय परीक्षण करवाती है। यदि किसी को इलाज से सामान्य जीवन मिलता है तो स्वयं के खर्च पर वह भी करवाती है।
चन्दा राई नृत्य में दक्ष है। जब तक तारा गुरू जीवित रहती है कभी जैतपुर का रूख नहीं करती। लेकिन उसकी मृत्यु के बाद तारा गुरू की प्रतिज्ञा से अनजान सोनिया जैतपुर का आमंत्रण स्वीकार कर लेती है। इसी संयोगात्मक स्थिति का समावेश लेखक ने समाधान देने के लिए किया है। गढ़ी में पहुँचकर बचपन की स्मृतियों का साक्षात्कार चंदा को उद्विग्न कर देता है। इसीलिए नृत्य के दौरान वह अस्वस्थ होकर गिर पड़ती है। एक नाटकीय घटनाक्रम से पूरा परिवार फिर एक साथ है।
सुखांत की तर्ज पर लेखक ने जगतसिंह का हृदय-परिवर्तन दिखाया है। कुंवर द्वारा स्थिति को समझे बगैर गोली चलाने के बाद भी चंदा उर्फ सोना को लंबे आपरेशन के बाद जीवनदान मिलता है। शोभना द्वारा परिवार में सोना की स्थिति के बारे में हुई चर्चा के बाद चिकित्सीय परीक्षण और सामान्य आपरेशन के बाद सोना के सुखद भविष्य की तस्वीर दिखाई गई है।
तारा गुरू का भतीजा मनीष चंदा की वास्तविकता जानकर भी उससे प्रेम करता है, उसके साथ जीवनयापन करना चाहता है। यह स्थिति सकारात्मक है क्योंकि हमारे यहाँ तो शेष सभी आंगिक विकार युक्त लोगों का समान्यतः घर-बार का सुख मिल जाता है। पर थर्ड जेंडर के लोगों को इससे वंचित ही रहना पड़ता है।
यहाँ एक ओर तथ्य की ओर लेखक ने ध्यान दिलाया है कि उपन्यास के रचनाकाल में हमारे देश में इस तरह की सामाजिक जागृति का नितांत अभाव था, लेकिन विदेशों में इस तरह की सुविधाएँ उपलब्ध थीं। इसके अतिरिक्त शिक्षा ही एकमात्र ऐसा माध्यम है जो मनुष्यों को मानसिक जकड़बन्दी से मुक्त कर मानसिक विकास की ओर ले जा सकता है। परम्पारित मान्यताओं और किन्नरों के प्रति पूर्वाग्रहों को चिकित्सा शास्त्र के आलोक मे ंपरख कर इस उपेक्षित वर्ग को भी सामान्य जीवन दिया जा सकता है। तब इनके सामने अपनी अस्मिता की रक्षा का प्रश्न नहीं रहेगा।



मैं पायल : महेन्द्र भीष्म (2016)







‘मैं पायल’ के रूप में महेन्द्र भीष्म ने पाठकों के समक्ष ‘थर्ड जेंडर’ पर दूसरी रचना प्रस्तुत की है। यह एक वास्तविक चरित्र पायल सिंह के जीवन संघर्ष को आधार बनाकर लिखा गया है। अतः यह जीवनी परक उपन्यास की श्रेणी में आता है। इसलिए इसमें यथार्थ का खुरदुरा धरातल हैं, यह रचना पायल के जीवट की कहानी कहते हुए समाज के अमानवीय और मानवीय दोनों पक्षों को सामने रखती है।
पायल उर्फ जुगनी का जीवन इस बात का प्रमाण है कि अपने ही परिवार में उपेक्षा का दंश झेलना इतना यंत्रणापूर्ण हो जाता है कि बच्चा घर छोड़ने के लिए विवश हो जाता है। लेकिन बाहर के संसार की निर्ममता के बीच भी स्नेह और कोमलता का एहसास उसे मरने नहीं देता। वह रेल, रेलवे स्टेशन पर प्रौढ़ों के द्वारा यौन शोषण का शिकार होती है। अपनी बुद्धिमता से वेशभूषा बदल कर वह तात्कालिक तौर पर अपनी रक्षा कर लेती हैं। पंडित जी के यहाँ नौकरी, सिनेमा हाल में नौकरी इन स्थानों पर मानवीय चेहरा पाठकों के समक्ष आता है। लेकिन प्रमोद द्वारा छेड़छाड़ के दौरान पायल का स्त्रीरूप उजागर हो जाता है तो संतोष सिंह दूसरे स्थान पर पायल की नौकरी की व्यवस्था करते हैं।
पायल के भीतर लगातार आगे बढ़ने की भावना बलवती है इसलिए वह गेट कीपर से प्रोजेक्टर रूम आपरेटर बन जाती है। फिल्मों का सर्वव्यापी प्रभाव भी उसे आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करता रहता है। वह अपनी मिमिक्री करने की योग्यता, अपनी गायन योग्य आवाज के बल पर लखनऊ में अपना कैरियर बनाना चाहती है लेकिन किन्नरों द्वारा पकड़ ली जाती है। एक दुखद घटनाक्रम पायल के तन-मन दोनों को आहत करता है। वह वापस कानपुर लौटकर स्वयं के शरीर के स्तर पर भी बलिष्ठ बनाती है। अगला घटनाक्रम उसे लखनऊ आकाशवाणी में काम दिला देता है। वह अपनी योग्यता के बल पर प्रसिद्धि और धन दोनों की अधिकारिणी बन गई थी। अशोक के रूप में प्रेम भी पायल को मिला, पर उसी अशोक ने अपने को जीवन से निष्कासित कर देने की प्रतिहिंसा में पायल को पायल गुरू बनने के लिए प्रेरित किया। पायल ने आगे बढ़ने के क्रम में इंटरनेट और यू ट्यूब का उपयोग भी करना सीखा।
पायल के जीवन में आए उतार-चढ़ाव समाज के गलीच व सुन्दर दोनों पक्षों को उद्घाटित करते हैं। पर किन्नर की नियति नहीं बदलती या सामाजिक यथास्थितिवाद उसे बदलने नहीं देता। यह भी स्पष्ट होता है कि यदि सभी किन्नर व्यक्तिगत रूप से अपनी स्थिति में सुधार लाना चाहें और अपना मानसिक एवं वैयक्तिक विकास करते हुए अन्य क्षेत्रों में रोजगार की संभावनाओं को तलाशें तो सकारात्मक परिणाम मिल सकते हैं।



पोस्ट बॉक्स नं0 203 नाला सोपारा : चित्रा मुद्गल (2016)







वरिष्ठ लेखिका चित्रा मुद्गल का नवीनतम उपन्यास ‘पोस्ट बॉक्स नं0 203 नाला सोपारा’, थर्ड जेंडर को आधार बनाकर पर्याप्त संवेदनशीलता से लिखा गया है। लेखिका ने इसकी घटनाओं की प्रत्यक्ष दर्शिता का कोई दावा नहीं किया है। लेकिन उपन्यास का समर्पण - ‘नरोत्तम, यह उपन्यास तुम्हारी ओर से ही तुम्हारी बा के लिए’ ही इस सत्यता को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है। फिर कुछेक साक्षात्कारों में उन्होंने इस घटना के नायक के जीवन को अपने नाला सोपारा के प्रवास के दिनों में देखने और कथानायक को अपने घर में रखने की बात भी स्वीकारी है। यही कारण है कि उन्हें उपन्यास के प्रारम्भ में डिस्क्लेमर देने की आवश्यकता अनुभव हुई।
उपन्यास की संवेदना के चरम को आत्मसात करने के लिए आवश्यकता है कि उसे अंत से पढ़ा जाए। क्योकि अंत यानि समाचार-दो, जिसमें एक किन्नर की लाश बरामद होने की बात और हत्या में अंडरवर्ल्ड की भूमिका की बात कही गई है। अनुमान से यह स्पष्ट है कि लाश बिन्नी उर्फ विनोद की है। यह मात्र एक साधारण घटना समझ कर छोड़ी नहीं जा सकती। यह छोटा सा समाचार राजनीति और वोट बैंक के समीकरण को अनावृत करता है। विधायक जी जान चुके थे कि कुशाग्र विनोद उनके हाथ की कठपुतली बन संकेतों पर नहीं नाचेगा। क्योंकि वह आरक्षण की नहीं, किन्नरों के स्वविवेक की जागृति की बात कर रहा है। दूसरी घटना-विधायक जी के भतीजे और उसके मित्रों द्वारा पूनम जोशी के साथ अमानवीय और बर्बर बलात्कार को अंजाम देना है। विधायक जी पूनम जोशी और बिन्नी के बीच के कोमल संबध्ां को पहचानते थे। इसीलिए दुर्घटना के बाद विनोद को वापस साथ नहीं लाए और आनन-फानन में चंडीगढ़ के स्थानीय नेताओं के साथ मिलकर सभा का आयोजन करा डाला। वापिस दिल्ली लौटने पर भी वह अस्पताल से उसकी दूरी बनाए रखना चाहते थे, बल्कि सभा और स्थानीय कार्यक्रमों में उलझाना चाहते थे। ताकि इस क्रूर घटना की बारीकियाँ उस तक न पहुँचे और वह उसका राजनैतिक उपयोग न कर सके। विनोद का बंबई जाना उनके लिए एक सुनहरा अवसर है और उसका भरपूर उपयोग करते हुए विनोद की हत्या करा दी जाती है।
बिन्नी चौहद वर्ष तक परिवार में रहकर संस्कारित एवं शिक्षित होता है। वह पढ़ने में तेज़ है, भविष्य में गणितज्ञ बनना चाहता है। प्रारम्भ में तो मंजुल को दिखाकर चंपाबाई को टरका दिया जाता है, लेकिन बाद में ऐसा न हो सका और उसे एक नितान्त ही अपरिचित संसार का अंश बनने को विवश होना पड़ा। यह त्रासदी बहुआयामी है। माँ-बाप सामाजिक शर्म से बचने के लिए सब कुछ बेचकर घर बदल देते हैं। संबंधियों और स्कूल दोनों स्थानों पर अलग-अलग झूठी कहानी सुना कर बिन्नी की मृत्यु प्रचारित कर दी जाती है। सिद्धार्थ भविष्य में भी अनजान भय से मुक्त नहीं हो पाता और अपनी संतान के जन्म के समय भी डरा हुआ रहता है। मंजुल का बचपन मां की गहन मानसिक पीड़ा की छाया में ढक जाता है। अपनी मृत्यु से पूर्व जब बन्दना बेन समाज की रूढ़ मान्यताओं से विद्रोह कर अपने मन की करना चाहती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
जब बिन्नी उर्फ विनोद उर्फ बिमली की माँ बंदना बेन का माफीनामा सार्वजनिक रूप से प्रकाशित होता है यानि जब जीवन अपनी समग्रता में बांहें पसार कर विनोद की तरफ आता है, निर्मम राजनीति उसे लील लेती है।
चित्रा जी ने उपन्यास के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति, स्थिति, व्यवस्था को कठघरे में खड़ा किया है। दूसरों के कंधों पर बन्दूक रखना सबसे आसान है। इसलिए शुरूआत घर से ही होनी चाहिए। जब परिवार ही इन जननांग दोषी बच्चों को डंके की चोट पर स्वीकारेगा, तो समाज कैसे उसे प्रताड़ित करेगा? संविधान इन्हें शिक्षा का अधिकार देगा तो शिक्षा संस्थाएं कैसे मना करेंगी? फिर राजनीतिज्ञों के लिए ये केवल वोट बैंक नहीं रहेंगें? लेखिका ने स्वयं किन्नरों को भी उनकी अपनी स्थिति के लिए दोषी ठहराया है क्योंकि अपने जीवन में जिस विस्थापन, उपेक्षा, अपमान को वे स्वयं झेलते हैं। आगे आने वालीपीढ़ियों के लिए भी वैसी ही पृष्ठभूमि तैयार कर देते हैं। क्योंकि उनका उद्देश्य भी अपनी शक्ति बढ़ाना होता है। इन्हें यह निर्णय परिवार के विवेक पर छोड़ देना चाहिए कि बच्चा परिवार का अंश रहेगा या किन्नरों के डेरे का। तब निश्चित ही परिवार, समाज के अनावश्यक भय से मुक्त होकर अपनी संतान को स्वयं ही पालेगा। यदि यह वर्ग स्वयं शिक्षा की ओर कदम बढ़ाए तो इनके अड्डे यौनाचार और रोग के प्रतीक न बनकर अपनी विकलांगता पर विजय का प्रतीक बन जाएँ। समाज की एक सार्थक इकाई के रूप में तब यह वर्ग स्वयं को स्थापित कर सकेगा।
परम्परित पत्र-विधान शैली के बीच-बीच में स्मृतियों के गलियारे में आवाजाही करते हुए बिन्नी अपने जीवन को, उसकी सम्पूर्ण त्रासदी को मार्मिक ढंग से व्यक्त करता है। लेखिका कहना चाहती है कि रूढ़, परम्परित, मानसिक पूर्वाग्रहों को केवल बातों के सहारे परिवर्तित नहीं किया जा सकता, बल्कि एक या दो पीढ़ियों को अपना सर्वस्व बलिदान कर नवीन विचार को समाज की मानसिकता में प्रत्यारोपित करना पड़ेगा, तभी न समाज बदलेगा।



ज़िन्दगी 50-50 : भगवंत अनमोल (2017)







भगवंत अनमोल- एक 27 वर्षीय इंजीनियर लेखक का यह तीसरा उपन्यास ‘ज़िन्दगी 50-50’ सहज, सरल शैली में एक संवेदनशील विषय पर लिखी ऐसी रचना, जो सिद्ध करती है कि जिन्दगी हमें एक अवसर अवश्य देती है अपनी गलती सुधारने का। यह हम पर निर्भर करता है कि हम उस अवसर का क्या करते हैं?
नायक अनमोल के जीवन के दो छोर हैं-पहला भाई हर्षा या हर्षिता, दूसरा बेटा सूर्या। इन दोनों के बीच घटित हुई और अव अदृश्य प्रेम कथा है जिसकी नायिका अनाया अपने चेहरे पर जन्मजात धब्बे के कारण पहले अनमोल की उपेक्षा और बाद में प्रेम की पात्र बनती है। नायक यह संदेश देना चाहता है कि यदि जन्मजात दाग के साथ प्रेम संभव है तो जननांग विकार युक्त स्त्री या पुरूष को भी स्वीकारा जाना चाहिए। यह अलग बात है कि अनमोल अपने पिता की आड़ लेकर ही अनाया से विवाह नहीं करता। अनमोल के पिता ने अपने रसूख के चलते एक लंबे समय तक हर्षा को अपने साथ ही रखा और शिक्षा दिलायी। लेकिन अपनी सामंती अकड़ के चलते उन्होंने हर्षा की भावनात्मक ज़रूरतों की ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया या कहना चाहिए कि वैसी जागरूकता उनमें थी ही नहीं। यही कारण है कि अपरिचित व्यक्ति द्वारा यौन-अपराध का शिकार होने के बाद भी वे हर्षा को ही दोषी मानते हैं और उस अत्याचार के प्रतिकार का कोई उपाय नहीं करते। आहत और खंडित हर्षा कस्तूरी के डेरे में आ जाता है और उन्हीं के जीवन के अपना लेता है। फिर बस में भीख मांगते समय पिता की आंखों के आंसू हर्षा को मुंबई के मार्ग पर ले जाते हैं। जहाँ उसका सखा और भाई अनमोल है। अनमोल महानगर का अंश बन चुका है। अतः जमीन के प्रति गांववासी पिता की मानसिकता को समझने में असमर्थ है। लेकिन पिता से अपेक्षित हर्षा स्वयं को देह व्यापार में धकेल एड्स का शिकार होता है और पिता को जमीन का सुख देकर आत्महत्या कर लेता है।
अनमोल हर्षा के डायरी लिखने की आदत से परिचित था, हर्षा के मृत्यु के बाद डायरी के अंत में लिखा कि मैं फिर वापस आऊँगी-अनमोल के जीवन में सत्य सिद्ध हो जाता है। पत्नी आशिका से उत्पन्न पुत्र सूर्या भी जननांग दोषी है। हर्षा का अनुभव, उसकी मृत्यु और उसके प्रति प्रेम के कारण-सूर्या के संदर्भ में अनमोल ढ़ाल बन कर खड़ा हो जाता है। एक सामान्य बच्चे के जन्मोत्सव की तरह पार्टी का आयोजन करता है और लोगों द्वारा सूर्या के विकार पर अंगुली उठाने पर अनमोल सभी पड़ोसियों की कलई खोल देता है।
सूर्या के जीवन के प्रत्येक क्षण और मोड़ पर अनमोल अपने वैचारिक औदार्य के साथ खड़ा होता है। सूर्या को उसकी अस्मिता के प्रति किसी भी अतिरिक्त सजगता से बचाते हुए वह उसका लालन-पालन एक सामान्य बच्चे की तरह करता है। बल्बि हर्षा की डायरी ने अनमोल को सूर्या की मनःस्थिति समझने में गाइड़ का काम किया। लड़कियों की तरह सजने-संवरने की उसकी प्रवृति को सामान्य ही माना, क्योंकि सूर्या की इस मानसिक आवश्यकता की तुष्टि आवश्यक थी।
उपन्यास का अंत नाटकीय या संयोगात्मक वृत्ति से परिचालित है। जहां प्रेमिका अनाया से उत्पन्न पुत्र अनमोल (जूनियर) और सूर्या आमने-सामने हैं। अनाया हर्षा के विषय में परिवार की त्रासदी से परिचित थी, उसने अपने बेटे को संस्कारी और नैतिक मूल्यों से युक्त बनाया है इसलिए सूर्या के जेंडर कालम में अन्य पर निशान लगा देखकर वह इंटरव्यू को स्वेच्छा से छोड़ देता है क्योंकि वह मानसिक रूप से इतना परिपक्व है कि सूर्या की असफलता की दशा में उसकी पीड़ा युक्त मनोदशा का अनुमान लगा लेता है। लेखक संप्रेषित कर रहा है कि यदि सभी लोग थर्ड जेंडर को समान समझे, उपहास का पात्र न समझे ंतो सभी सूर्या की भांति अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। किन्नर कस्तूरी का दर्द कि तेरे पिता तुझे घर में भी रखे हुए हैं और पढ़ा भी रहे हैं-मन को झिंझोडता है और इन्हें पारिवारिक परिवेश दिए जाने की मांग करता है। तभी तो ज़िन्दगी 50-50 बनेगी, अपनी कुरूपता और अपने सौंदर्य दोनों के संतुलन से। लेखक ने अपने कथ्य की संप्रेषणीयता की प्रभावशीलता के लिए एक ही परिवार की दो पीढ़ियों में थर्ड जेंडर बच्चों का जन्म दिखाया है, यह मात्र संयोग हो सकता है, क्योंकि चिकित्सा-शास्त्र इस विकार को आनुवांशिक नहीं मानता। लेखक ने कहीं भी अतिरिक्त बयानबाजी से बचते हुए सहजता से समाधान प्रेषित कर दिया है।


2. जहाँ थर्ड जेंडर एक अन्य कथा के समानान्तर रूप में आता है
यमदीप : नीरजा माधव (2002)
तीसरी ताली : प्रदीप सौरभ (2011)


यमदीप : नीरजा माधव (2002)







थर्ड जेंडर पर लिखा गया प्रथम उपन्यास अपने शीर्षक की प्रतीकात्मकता से ‘थर्ड जेंडर’ को बखूबी जोड़ता है। यह स्थापित करता है कि यमदीप की भांति किन्नरों को भी अपनी स्थिति सुधारने का प्रयास करने की पहल स्वयं ही करनी होगी।
उपन्यास में दो -नाजबीबी और सोना तथा मानवी और आनंद की कथाएँ समानान्तर चलती हैं। बीच-बीच में एक-दूसरे के निकट से गुजरती हैं। मानवी गांव की स्थितियों से निकलकर शिक्षा ग्रहण करती है। शहर में आकर नौकरी करती है। पत्रकारिता के क्षेत्र में व्याप्त सडांध से टकराती है, बार-बार अपने को बचाती है। जीवन का संघर्ष उसके भीतर पर्याप्त संवेदनशीलता का विकास करता है। तभी तो वह वंचितों के प्रत्येक मुद्दे पर काम करने को लालायित रहती है। परिवार के स्तर पर भी सामान्य, परम्परागत ईर्ष्यालु स्थितियों से जूझती है।
नाजबीबी उर्फ नंदरानी समाज की दृष्टि से किन्नर होने के कारण उपेक्षित है लेकिन उपन्यास में अपनी संपूर्ण मानवीय गरिमा और औदात्य के साथ उपस्थित है। जहाँ तथाकथित मनुष्यों की संवेदना नहीं पसीजती, वहाँ नाजबीबी अपने साथियों के साथ पगली का प्रसव कराती है और पगली की जीवन-समाप्ति पर स्वयं ही बच्ची को पालने का निर्णय लेती है। फिर उसे पालने के लिए किए जाने वाले प्रयासों को जैविक माता-पिता द्वारा किए जाने वाले प्रयासों से किसी भी अर्थ में कम नहीं आंका जा सकता। नाज बीबी छैलू के साथ मिलकर सोना के लिए हर संभव सुविधा जुटाने का प्रयास करती है। कानूनी और पुलिसिया अत्याचार से बचने के लिए उसको छिपा कर पालती है। एक गिरिया रखकर सोना के पालन-पोषण के लिए धन की व्यवस्था करती है। उसके सुख-दुख से प्रभावित होती है। वह स्वयं एक संस्कारी परिवार से पली-बढ़ी थी। माता-पिता ने घर से निष्कासित नहीं किया था, पर शेष बहनों-भाईयों के व्यवहार ने परिवार में दमघोंटू वातावरण बना दिया था, तो नंदरानी ने स्वयं ही स्व-निष्कासन का मार्ग चुन लिया था। यही कारण था कि वह सोना को अच्छी कहानियाँ सुनाकर, अच्छी बातें करके संस्कारवान बनाने का प्रयास करती है। शिक्षा के महत्व से परिचित है इसलिए सोना को स्कूल भेजती है। पर बड़ी होती सोना की मानसिक और शारीरिक अवस्था से अनभिज्ञ है, तभी तो सोना को मासिक की शुरूआत होने पर वे उसे नजदीक के डाक्टर के पास ले जाते हैं। डाक्टर की पुलिस को दी सूचना के आधार पर ही सोना का जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है लेकिन ‘सत्यं शिवं सुन्दरं’ की भारतीय दार्शनिक पद्धति का अनुसरण करते हुए लेखिका ने सोना के पुनरूद्धार का मार्ग प्रशस्त किया है। इसके लिए लेखिका ने मानवी और डी.एम. आनन्द कुमार को माध्यम बनाया है। इसके लिए प्रारम्भ से ही नाजबीबी और मानवी के मध्य एक कोमल तंतु विकसित होते दिखाया है। वह पत्रकार है, निर्भीक है और स्त्रियों के प्रति संवेदनशील है, उनके जीवन से जुड़े मुद्दों को समझने का प्रयत्न करती है। तभी तो प्राणों पर खेलकर सोना की रक्षा के लिए व्यवस्था से टकरा जाती है। ऐसी भ्रष्ट व्यवस्था जिसमें पुलिस और नेता दोनों की मिलीभगत थी और उसके अपने पत्रकार साथी भी उसे अकेला छोड़कर भाग गए थे।
उपन्यास तृतीय लिंग के लोगों के विषय में केवल चर्चा नहीं करता, बल्कि लेखिका द्वारा किया उनका चित्रण लेखिका के गहन अध्ययन का परिचय देता है। समाज के सकारात्मक और नकारात्म्क दोनों पक्षों को उद्घाटित करता है। मानवीय गुण और शिव संकल्प दोनों मिलकर नाज बीबी को एक उपास्य और अनुकरणीय चरित्र के रूप में प्रतिष्ठित कर देते हैं। महताब गुरू के माध्यम से लेखिका ने किन्नर समुदाय के विषय में समाज में व्याप्त बहुत से भ्रमों और अंधविश्वासों की सत्यता को उजागर किया है। उनके द्वारा जीवन के अनुभवों से अर्जित दार्शनिकता किसी शिक्षित और संवेदनशील व्यक्ति से कम नहीं है। वह सामुदायिक एकता को जिस प्रकार जोड़े रख सके और नाजबीबी को सोना के मामले मे संरक्षण और सहयोग दिया, अतुलनीय है। समय-समय पर समाज पर किए उनके तीखे व्यंग्य मर्मांतक है। इनके बीच ही परिवार, समाज, राजनीति, मीडिया सभी के दोहरे चरित्र उभरकर आते हैं। एक ओर प्रश्न उपन्यास रेखांकित करता है कि यदि मीड़िया वास्तव में अपने चरित्र का निर्वाह करे तो समाज से विकारों को समाप्त करने में आसानी हो सकती है। लेकिन बाजार या अर्थ तंत्र के दबाव से मुक्त होकर काम करना भी तो सरल नहीं है। राजनीति का वीभत्स और घृणित रूप तो दिनों दिन सामने आता ही है और अब कोई विस्मय भी नहीं जगाता, पर हां उसका सर्वग्रासी प्रभाव अवश्य सामान्य मनुष्य के जीवन को मलिन करता है।
उपन्यास के अंत में स्त्री-मानवी, पुरूष-आनंद और थर्ड जेंडर-नाजबीबी के संयोग से एक सुन्दर समाज का स्वप्न रचना अभिनन्दनीय है।


तीसरी ताली : प्रदीप सौरभ (2011)








प्रदीप सौरभ का उपन्यास ‘तीसरी ताली’ स्ळठज् यानि स्त्री समलैंगिकता, पुरूष समलैंगिकता, उभयलिंगी कामी और थर्ड जेंडर की कथा है। इस तरह वह जननांग विकार दोषी और असामान्य यौन व्यवहार युक्त व्यक्तियों-दोनों वर्गो की सामाजिक एवं मानसिक त्रासदी को अभिव्यक्त करते हैं। पेशे से पत्रकार लेखक ने अपनी पेशागत कुशलता यानी खोजी वृत्ति का उपयोग करते हुए ढेर सारी नवीन जानकारियां उपलब्ध कराई हैं। लेखक द्वारा पात्र और कथाएँ यथार्थ की भूमि पर चित्रित किए गए हैं। अतः अतिरंजना से बचे रहते हैं, बल्कि उपन्यास भारत के किसी भी भू-भाग के चरित्रों का प्रतिनिधित्व करता दिखाई देता है।
लेखक ने जन्मजात विकार युक्त और परिस्थिति का शिकार होकर बने हिजड़ों-दोनों के अनुभवों की विविधता और समानता को दर्शाया है। थर्ड जेंडर के सम्बन्ध में प्रचलित कुछ विश्वासों को घटनाओं के हवाले से पुष्ट कर दिया है और कुछ नई जानकारियाँ भी प्रस्तुत की है। इन चारों वर्गो के साथ देह और यौनिक व्यवहार जुड़े हैं। लेखक देह व्यापार के संबंध में नवीन जानकारी देता है कि वैश्विक आर्थिक मंदी का भी दुष्प्रभाव देह-व्यापार पर पड़ा है और इस क्षेत्र में भी गिरावट आई है। यह उपन्यास विनीत उर्फ विनीता, राजा उर्फ रानी, ज्योति, मंजू और विजय की कहानी है। यहाँ केवल भोथरी संवेदना का चित्रण नहीं है, बल्कि शिक्षा, प्रशिक्षण और अवसर की उपलब्धता के माध्यम से थर्ड जेंडर के लोगों के आर्थिक, सामाजिक विकास का मार्ग प्रशस्त होता दिखाया गया है।
विनीत-पारिवारिक और सामाजिक उपेक्षा का शिकार है। स्कूलों का वैचारिक पूर्वाग्रह उसे शिक्षा से वंचित रखता है, पर पिता उसे प्रतिष्ठित संस्थान से ब्यूटीशियन का कोर्स करवा देते हैं जो भावी जीवन में उसके उत्कर्ष का माध्यम बनता है। गृह-त्याग, देह-व्यापार और इंस्पेक्टर राज चौधरी तक पहुँचना-उसके जीवन के वे बिंदु थे जो भावी विकास और अस्मिता के सामाजिक स्वीकार में सहायक सिद्ध हुए। एक छोटा सा प्रशिक्षण और परिश्रम या काम की ईमानदारी विनीत के विनीता में रूपान्तरण का मार्ग सुगम कर देती है और वह एक नवीन संकल्पना (भारत के संदर्भ में) ‘गे पार्लर’ का सूत्रपात करती है। इसी के द्वारा यश, प्रसिद्धि, सामाजिक स्वीकार सब कुछ पा जाती है। अब उसका व्यक्तित्व ‘पेजश्री’ का एक मुख्य नाम बन जाता है। ज्योति के द्वारा सामंतवादी कुप्रथा ‘लौंडा रखना’ के विषय में खुलासा किया गया है कि जब तक सामंतवादी सनक के अनुरूप ज्योति का जीवन चलता है, तब तक वह श्याम सुन्दर सिंह का प्रिय रहता है। लेकिन किसी और के चूमने मात्र से ही वह उनके लिए अस्पृश्य हो जाता है। निर्धनता ने पहले उसे लौंडा बनाया और बाद में हिजड़ों के अड्डे तक पहुँचाया। वह अनुभव करता है कि असामान्य सैक्स व्यवहार करते-करते वह अपना सामान्य व्यवहार भूल चुका है और वह स्वेच्छा से लिंगोच्छेदन करवा उसी जमात में शामिल हो जाता है। यह धनवान और निर्धन के समीकरण का एक भयावह और त्रासद पहलू है।
मंजू और राजा के साथ डिम्पल गुरू द्वारा किया गया व्यवहार इस समुदाय के अमानवीय पक्ष को सामने रखता है। किसी भी कारण से हिजड़ों के डेरे का अंश बन गए सामान्य लोगों को क्या अपना यौन व्यवहार थर्ड जेंडर जैसा कर लेना चाहिए? अर्थात जिस प्राकृतिक अभिशाप से वे स्वयं अभिशप्त हैं उससे आगे बढ़कर वे दूसरों के लिए कोई सकारात्मक मार्ग प्रशस्त नहीं करना चाहते। तभी तो अपनी पालित पुत्री मंजू और राजा के प्रेम और मंजू का गर्भवती होना डिम्पल गुरू स्वीकार नहीं कर पाती। प्रतिशोध में मंजू का गर्भाश्यच्छेदन और राजा का लिंगोच्छेन करवा वह उन्हें अपनी बिरादरी में शामिल कर देती है।
मंजू जब तक वास्तविकता से परिचित होती है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। वर्षो बाद सुन्दर मंजू पर फोटोग्राफर विजय की दृष्टि पड़ती है। वह उसे एक कैलेण्डर की मॉडल के रूप में प्रस्तुत करता है। मंजू का स्त्रीत्व उसे विजय की ओर आकर्षित करता है, लेकिन यथार्थ का तीखा प्रहार मंजू पर तब होता है जब उसे विजय के हिजड़ा होने का पता लगता है। लेकिन विजय का चरित्र यह सिद्ध करने में सफल है कि यदि काम का हुनर हाथ में हो और काम करने की मानसिकता हो तो सफलता आपके कदम चूमती है। सुविमल और अनिल, यास्मीन और जुलेखा के माध्यम से लेखक ने समलैंगिकता को दिखाया है और यह भी दिखाया है कि संवैधानिक स्वीकृति किस प्रकार प्राकृतिक रूप से असामान्य यौन-व्यवहार ग्रस्त लोगों को अपराध बोध से मुक्त कर सहज करने की दिशा में कारगर सिद्ध होती है।
इसके अलावा उपन्यास में हिजड़ों के प्रकार, उनके रीति-रिवाज, कुवागम मेला, वहाँ की गतिविधियाँ सब का विस्तृत वर्णन किया गया है, जो पाठक को जानकारी तो देता है, पर कहीं-कहीं रस बाधक भी बनता है।


3. जहाँ थर्ड जेंडर एक उपयोगी पात्र के रूप में उपस्थित है
गुलाम मंडी : निर्मला भुराड़िया (2014)
डॉमनिक की वापसी : विवेक मिश्र (2015)


गुलाम मंडी : निर्मला भुराड़िया (2014)







पत्रकार निर्मला भुराड़िया का उपन्यास ‘गुलाम मंडी’ मूलतः मनुष्यों की खरीद-फरोख्त यानि हृयूमन ट्रैफिकिंग, अपने सौन्दर्य पर मुग्ध कल्याणी, वेश्यावृत्ति, फिल्म उद्योग, एड्स रोगियों, मनोचिकित्सक का काम करते बाबा मिलारेपा, लक्ष्मी, जानकी, मोहन और इन सबके साथ किन्नर रानी और अंगूरी की कथा है। उपन्यास के पूर्वार्ध में एक अध्याय किन्नरों पर दिया गया है लेकिन उससे पहले सर्पदंश के माध्यम से अपनी पीड़ा को कम करवाने का प्रयास करने के क्रम में कल्याणी की अंगूरी और रानी से मुलाकात किन्नरों के डेरे पर ही दिखाई गई है। उपन्यास की भूमिका में लेखिका ने ‘थर्ड जेंडर’ के प्रति कुछ परम्परागत रसमी बातें भी कहीं है जो संवेदनशीलता की परिचायक कही जा सकती है।
किन्नरों के विषय में जो अध्याय है, उसमें लेखिका ने बहुत कुछ वही बताया है जो कि सामान्यतः लोग जानते हैं या अब तो इंटरनेट पर उपलब्ध भी है। लेकिन सौ साल की वृंदा गुरू की मृत्यु के बाद श्मशान घाट में बैठकर हमीदा को औपचारिक रूप से गुरू घोषित करने के लिए जिस रस्म का चित्रण किया गया है, वह नवीन है। वैसे तो हम सब जानते हैं कि बांटने से दुःख हल्का होता है पर समूह में बैठकर सबके सामने अपना दुःख कहना काव्यशास्त्रीय ‘विरेचन’ का एक व्यावहारिक रूप है। इसके माध्यम से लेखिका ने सभी किन्नरों के मुख से उनकी अतीत-गाथा को कहलवाया है। कमोबेश सभी का अतीत और दुःख एक जैसा ही है। रानी बताती है कि किस तरह वह एक पुरूष की प्रेमिका बनी और ड्रग्स की शिकार बना दी गई। उसी प्रेमी ने बेबफाई के संदेह में उसके जननांग को कटवा दिया और बाद में उसे बेच दिया। बाद में वह बचते-बचते वृंदा गुरू के पास आई। राजा उर्फ रानी के पास शिक्षा है जो उपन्यास के उतरार्ध में उसके सामाजिक और मानसिक विकास को चरमोत्कर्ष तक पहुंचाती है।
नायिका कल्याणी के भी वही परम्परागत पूर्वाग्रह युक्त विचार है, लेकिन उसका व्यवहार अपेक्षाकृत संवेदनशील है। इस तरह लेखिका ने जहाँ आत्ममुग्धा कल्याणी के व्यक्तित्व में कुछ संवेदनहीन विशेषताओं -यथा प्रजनन से विमुखता, काले रंग के प्रति घृणा-भाव, क्रोध आदि को समाहित किया है, वहीं हिंजड़ों के प्रति करूणा और जानकी को गोद लेना जैसी घटनाओं के द्वारा उसके व्यक्तित्व में संतुलन लाने का प्रयास किया है।
मॉडलिंग और फिल्मों से जुड़ी कल्याणी अपनी दत्तक पुत्री जानकी उर्फ जेन को अच्छी तरह से पालती-पोसती है। पारिवारिक वातावरण के प्रभाववश जानकी भी ग्लैमर की दुनिया की ओर आकर्षित होती है। विदेशो में स्टेज शो के लिए जानकी को अमेरिका जाने की अनुमति मिल जाती है, क्योंकि गौतम और कल्याणी उसके पीछे के षडयंत्र से पूर्णतया अपरिचित थे। एक नाटकीय घटनाक्रम के बाद जानकी हृयूमन ट्रैफिकिंग का शिकार हो जाती है और एक के बाद एक अलग-अलग स्थानों पर भेज दी जाती है।
हमीदा की हत्या के बाद रानी और अंगूरी दोनों बेरोजगार और बेसहारा हो जाती है। अंगूरी देह-व्यापार की दलदल में फंसकर एड्स की शिकार होती है और रानी को बहुरूपिया बन कर जीवनयापन करना पड़ता है। तभी वह कल्याणी के पुनः संपर्क में आती है, जहां से कल्याणी उसे बंबई लाती है और सेक्स चेंज ऑपरेशन के बाद सामान्य लड़की जैसा व्यक्तित्व बनाने में मदद करती है। एड्स पर डॉक्यूमेंटरी बनाते समय अंगूरी भी कल्याणी के संपर्क में आती है। वह भी कल्याणी की संवेदना का आश्रय पाती है।
यही रानी स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ काम करती हुई अमेरिका पहुँचती है। वह कल्याणी के दुःख से परिचित है और अपने प्रति कल्याणी के द्वारा किए गए उपकार से भी कृतज्ञ है। वह अपने स्तर पर जानकी की खोज करती है, वहाँ के एशियाई लोगों की सहायता से वह हृयूमन ट्रैफिकिंग की अपरिचित गुफाओं से परिचित होती है और अंत में जानकी को भारत लाने में सफल होती है। वहीं अंगूरी विरेचन की पद्धति के उपयोग के द्वारा जानकी के सामान्य जीवन धारा में लाने का प्रयास करती है।
कुल मिलाकर लेखिका ने चिकित्सा सुविधा के उपयोग के द्वारा किन्नरों को सामान्य जीवन दान की वकालत की है और शिक्षा को विकास के एक उपकरण के रूप में उपयोगी सिद्ध किया है।




डॉमनिक की वापसी : विवेक मिश्र (2015)






विवेक मिश्र का उपन्यास ‘डॉमनिक की वापसी’ अपने ही नाम के नाटक के नायक दीपांश की कहानी है। उसके जीवन में वास्तविक प्रेम और नाटक के नायक के रूप में प्रेमी की भूमिका-भीतर और बाहर दोनों ओर प्रेम है। लेकिन वास्तव में कहीं भी प्रेम नहीं है। इति, शिमोर्ग, हिमानी अलग-अलग रूपों में दीपांश की जीवन-यात्रा बनाम नाटक यात्रा का अंश बनती है। लेकिन वास्तव में कोई भी उसे समझ नहीं पाती।
अभिनय की भाव-प्रवणता के कारण ही रेबेका उर्फ रिद्धि, दीपांश के संपर्क में आती है। वह देह-व्यापार की दुनिया का एक हिस्सा है, लेकिन उसका अपना एक समृद्ध, गुणी कलाकार वाला अतीत है। जीवन की उलझनों के बीच वह प्रेम के नाम पर ठगी जाकर इस दलदल का हिस्सा बनने को विवश हुई। इति के संदर्भ में दीपांश की सहायता करने के बाद वह दीपांश के निकट आती है।
दीपांश के भटकाव को स्थिरता देने के लिए रेबेका उसे अनन्त बाह्य रूप से थर्ड जेंडर के पास ले जाती है। अनन्त यहाँ अपने जननांग विकार के बावजूद एक प्रभावशाली व्यक्तित्व के रूप में ही दिखाई देते हैं। उनके पास मानो हर कलाकार की मनःस्थिति को समझने की सामर्थ्य है। वह क्लासिकल नृत्य के ज्ञाता है। संगीत के पश्चिम और पूर्वी दोनों रूपों का इतिहास मानों उन्हें कंठस्थ है। वह लड़कियों को व्यवसाय के लिए नहीं बल्कि उनके व्यक्तित्व के परिष्कार के लिए नृत्य सिखाते हैं। यही नहीं, वह अपराध की दुनिया से बचा कर लाई गई दानी जैसी लड़की के पालन-पोषण का दायित्व भी उठाए हुए हैं। वह रेबेका की परिणति भी जानते थे, इसलिए उन्होंने दीपांश के साथ रेबेका को लोरिक गायक और आधिक्या देवी के पास भेजा। ताकि जिस प्रतिशोध की ज्वाला में वह प्रतिक्षण स्वयं को जलाती रहती है, उससे मुक्त हो सके। लोरिक गायक के सान्निध्य में प्रेम की वास्तविकता को समझ सके और आधिक्या देवी के मुख से ज्ञानेश्वर के प्रति प्रेम की स्वीकारोक्ति को सुनकर अपने पिता की मनःस्थिति समझ सके और उनके व्यवहार के लिए उन्हें क्षमा कर सके।
उपन्यास का अंत भी लेखक ने अनन्त की भविष्योन्मुखी पंक्तियों के द्वारा ही किया है। इस उपन्यास में अनन्त की भूमिका छोटी, परन्तु प्रभावशाली है। वह रंगमंच के धुरन्धरों, फिल्म निर्देशक या टैलेन्ट सर्च के नाम पर लूटने वाले लोगों-सभी से अलग और उदात्त दिखाई देते हैं। अनन्त के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से लेखक ने यह भी सम्प्रेषित किया है कि कला केवल अभ्यास, साधना और समर्पण की अनुचरी बनकर रहती है। उसके अमृत-स्वरूप् का अवगाहन उसमें डूब कर ही किया जा सकता है। साधना ही सिद्धि है, अंग-विशेष नहीं-तभी तो कला का उत्कर्ष अनंत को प्राप्त हुआ।

4. जहाँ पात्र के रूप में थर्ड जेंडर का उल्लेख मात्र करके छोड़ दिया गया हो
प्रति संसार : मनोज रूपड़ा (2008)




प्रति संसार : मनोज रूपड़ा (2008)







मनोज रूपड़ा के उपन्यास ‘प्रतिसंसार’ का शीर्षक अत्यन्त प्रतीकात्मक है। प्रत्येक व्यक्ति बाहर एक संसार में रहता है और उसके भीतर एक प्रति संसार सदैव जीवित रहता है। इस भीतर-बाहर के संतुलन को साधने में असमर्थ संवेदनशील लोग नायक आनन्द जैसे हो जाते हैं।
मनोविज्ञान की भाषा में आनन्द एक जटिल मनोवैज्ञानिक केस है। लेखक ने प्रत्यक्ष रूप से नहीं कुछेक वाक्यों के माध्यम से यह दिखाया है कि नायक सामान्य नहीं अपितु जननांग दोषी है। वह स्वयं अपने शरीर के दोष से अपरिचित है। ट्रेन के सामने आकर आत्महत्या करने का भयावह दृश्य उसे डराता है और भागते हुए वह एक सैक्स वर्कर द्वारा पकड़ लिया जाता है - अपनी कोठरी में ले जाकर जब वह उसके अंडरवियर का इलास्टिक खींचती है और ज़ोर से हंसने लगती है-यह आनन्द के थर्ड जेंडर से सम्बन्धित होने का पहला संकेत है। दूसरा संकेत मनोचिकित्सक डॉ0 विश्वनाथन देते हैं कि वह सैक्स क्रिया को कभी व्यवहार में नहीं ला पाएगा, इसी लिए नग्न और अर्धनग्न स्त्री मूर्तियां आनन्द को उत्तेजित नहीं करती। हिंजड़ों की बस्ती में एक हिजड़े द्वारा यह कहना कि भागना तो भटकाव है तू हमारी बिरादरी का है, हमारे साथ रहकर ही चैन पा सकेगा। चूंकि आनन्द एक बड़े उद्योगपति का बेटा है , अतः थर्ड जेंडर संबंधी अपमान, अवमानना का कोई अनुभव उसके पास नहीं है। इसलिए इस बिंदु पर पाठक उसकी स्थिति पर तरस खा सकता है, पर पाठक की संवेदना और सहानुभूति का अधिकारी वह नहीं बन पाता। कुल मिलाकर यथार्थ और मनोविज्ञान की भूल भूलैया में उलझ कर वह एक केस स्टडी भर बन कर रह गया।
साहित्य का मूल उद्देश्य पाठक की भावनाओं को झंकृत करना होता है, ताकि समाज के अंधेरे कोनों को प्रकाश से परिपूर्ण किया जा सके। जो स्थितियाँ या मुद्दे अनछुए रह गए हैं, उन पर संवेदनशील ढंग से विचार किया जा सके और सामूहिक प्रयास के द्वारा उनका परिष्कार किया जा सके। इस संदर्भ में उपन्यासों के विवेचन के पश्चात जो बिंदु मन में आते हैं , वह है कि किन्नर या हिजड़ा होकर जन्म लेना किसी भी व्यक्ति का स्वयं का चुनाव नहीं होता। इसलिए वह किसी भी तरह से पारिवारिक एवं सामाजिक लज्जा का कारण या बहिष्कार का पात्र नहीं है। इन्हें परिवार में सामान्य बच्चे की तरह पालन-पोषण का अधिकार होना चाहिए। शिक्षा, नौकरी, व्यवसाय सभी में इनके लिए समान अवसर और भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए। सामाजिक स्तर पर जागरूकता अभियानों का संचालन किया जाना चाहिए ताकि मुख्यधारा से जुड़ने का मार्ग आसान हो जाए। यह बताया जाना चाहिए कि इस तरह के बच्चे का जन्म अभिशाप नहीं है, बल्कि प्रकृति द्वारा दिया गया अनुपम उपहार है और परम्परागत से भिन्न काम करना विशिष्टता का सूचक होता है। इन्हें ‘अन्य’ वर्ग में स्थान देकर अलगाववादी व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए। बल्कि अपनी शारीरिक संरचना और मनःस्थिति के अनुरूप स्त्री या पुरूष वर्ग को चुनने की छूट दी जानी चाहिए। जिस तरह अन्य प्रकार की शारीरिक विकलांगता को सामाजिक-संवैधानिक स्तर पर स्वीकार किया जाता है और विशिष्ट प्रावधानों की व्यवस्था की गई है, वैसा ही अधिकार इन्हें भी मिलना चाहिए। चिकित्सा सुविधाओं के क्षेत्र में भी इनके लिए विशेष सुविधाओं की व्यवस्था होनी चाहिए। इनके स्वयं के भीतर आत्म सम्मान पैदा करने के लिए तथा इनकी आवास संबंधी स्थितियों में सुधार के लिए सरकारी, गैर-सरकारी स्वयं संस्थाओं को भी आगे आकर काम करना चाहिए।
इन्हें अपनी धार्मिक मान्यता के अनुसार दिन के प्रकाश में सामान्य ढंग से अंतिम संस्कार का अधिकार होना चाहिए। जिस प्रकार कन्या भ्रूण हत्या को कानूनन अपराध माना जाता है। उसी प्रकार थर्ड जेंडर के बच्चों का परिवार से निष्कासन अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। वैसे तो जन्म और मृत्यु का पंजीकरण परिवार का दायित्व होता है पर ऐसे बच्चों के जन्म के पंजीकरण का दायित्व अस्पताल और संबंधित डॉक्टर का होना चाहिए, ताकि प्राकृतिक रूप में जननांग दोषी को सूचीबद्ध किया जा सके और उसके लिए निश्चित और निर्धारित सामाजिक सुविधाओं संबंधी जानकारी को माता-पिता तक प्रेषित किया जा सके, ताकि बच्चा मां-बाप के लिए बोझ न बनें। जन्म के पश्चात् टीकाकरण आदि के समय पूरा चिकित्सीय परीक्षण होना चाहिए। यदि छोटे-मोटे आपरेशन के बाद सामान्य जीवन की संभावना दिखाई देती हो, तो वह सुविधा उन्हें अवश्य प्रदान की जानी चाहिए। इन मामलों में लापरवाही के लिए गैर-जमानती कैद होनी चाहिए, ताकि इन्हें सामाजिक शोषण से बचाया जा सके। न्याय पालिका सम्बन्धी मामलों में वकील की व्यवस्था सरकार का दायित्व होना चाहिए। जिस प्रकार तलाकशुदा माता-पिता का बच्चा आजीवन उनकी संपति का अधिकारी होता है, उसी तरह इन बच्चों को भी माता-पिता की संपति का अधिकार मिलना चाहिए, ताकि परिवार का कोई भी सदस्य इनका अधिकार छीन न सके। इनके लिए ओल्ड एज होम का भी प्रावधान होना चाहिए। सार्वजनिक स्थलों पर इनके लिए शौचालय की विशिष्ट व्यवस्था होनी चाहिए। जिस प्रकार पूर्वोत्तर के लोगों के लिए विशिष्ट शब्दों का प्रयोग कानूनी रूप से प्रतिबंधित कर दिया गया है, उसी प्रकार थर्ड जेंडर के लोगों के लिए प्रयोग किए जाने वाले शब्दों पर भी प्रतिबंध होना चाहिए। इसके अतिरिक्त जो हिजड़ें ऐसे बच्चों के जन्म की सूचना पाकर बच्चों को छीनकर ले जाते हैं और एक नरक जैसा जीवन जीने का अभिशप्त कर देते हैं, ऐसी जोर-जबरदस्ती को कानूनी अपराध मानकर कार्यवाही की जानी चाहिए, ताकि इन बच्चों का परिवार में रहना और सामान्य जीवन का अधिकार पा सकना सुनिश्चित किया जा सके। इसके अतिरिक्त सरकार द्वारा इस वर्ग के लोगों के साथ अन्य यौन व्यवहार वाले लोगों को भी रख दिया गया है, जबकि उनके लिए विशिष्ट व्यवस्था की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे व्यक्ति इनके समुदाय में मानो घुसपैठिये हैं, जो इनके अधिकार छीनने जैसा लगता है। इसलिए उन्हें इस वर्ग से अलग रखा जाना चाहिए।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है यदि समाज, सरकार और कला, साहित्य आदि सभी मिलकर इस वर्ग के उत्थान का प्रयास करें तो वह दिन दूर नहीं रहेगा जब थर्ड जेंडर के लोग सामान्य जीवन जी सकेंगे।

संदर्भ ग्रंथ सूची
यमदीप : नीरजा माधव (2002), सुनील साहित्य सदन, दिल्ली
प्रतिसंसार : मनोज रूपड़ा (2008), ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली
मैं भी औरत हूँ : अनुसूया त्यागी (2009), परमेश्वरी प्रकाशन, दिल्ली
तीसरी ताली : प्रदीप सौरभ (2011), वाणी प्रकाशन, दिल्ली
किन्नर कथा : महेन्द्र भीष्म (2014), सामायिक प्रकाशन, दिल्ली
गुलाम मंडी : निर्मला भुराड़िया (2014), सामायिक प्रकाशन, दिल्ली
डॉमनिक की वापसी : विवेक मिश्र (2015), किताबघर प्रकाशन, दिल्ली
मैं पायल : महेन्द्र भीष्म (2016), अमन प्रकाशन, कानपुर
पोस्ट बॉक्स नं0 203 नाला सोपारा : चित्रा मुद्गल (2016) सामायिक प्रकाशन
ज़िन्दगी 50-50 : भगवंत अनमोल (2017), राजपाल एंड संस, दिल्ली
भारतीय साहित्य एवं समाज में तृतीय लिंगी विमर्श-संपादक : डॉ0 विजेन्द्र प्रतापसिंह, रवि कुमार गोंड (2016) अमन प्रकाशन, कानपुर
विमर्श का तीसरा पक्ष-संपादक : डॉ. विजेन्द्र प्रतापसिंह, रवि कुमार गोंड, (2016) अनंग प्रकाशन, दिल्ली
वाड़्मय : त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका-संपादक : डॉ0 एम. फिरोज़ अहमद
जनवरी-मार्च 2017
अप्रैल-जून 2017
जुलाई-दिसम्बर 2017 (संयुक्तांक)
जनसत्ता-हिन्दी दैनिक - 12 मार्च 2015
पावस व्याख्यान माला : हिन्दी भवन, भोपाल 23-24 जुलाई 2016 के अंतर्गत डॉ0 शरद सिंह का व्याख्यान
सागर दिनकर - हिन्दी दैनिक, 27 जुलाई 2017, चर्चा प्लस कॉलम
तद्भव : संपादक-अखिलेश, वर्ष 5 अंक 2, पूर्णाक 35 मई 2017
नया ज्ञानोदय : संपादक लीलाधर मंडलोई, अंक 165, नवम्बर 2016

डॉ0 पुष्पा गुप्ता
बी-2/70, तृतीय तल,
सफ़दरजंग एन्कलेव
नई दिल्ली-110029
सम्पर्क - 9873712335
ईमेल - 1234चहनचजं/हउंपसण्बवउ

3 टिप्‍पणियां:

  1. सर, आप का हार्दिक धन्यवाद ,स्थान देने के लिये।

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  2. बहुत बढ़िया , सशिद्ध और दिल स्हहस्पी से
    भरा

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  3. बहुत बढ़िया शोध पूर्ण आलेख। दिलचस्प भाषा।

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