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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

01 अगस्त, 2018

कहानी: 

एक जोड़ी पान

 ज़िया ज़मीर 



ज़िया  ज़मीर 


हाजी जी कोई सत्तर बरस के रहे होंगे मगर वो नज़र अस्सी बरस के आते थे। वज़्न चालीस किलो से बिल्कुल ज़्यादा नहीं था। दरमियाना क़द, उचके हुए कंधे और कमज़ोर ऐसे कि पसलियां कुर्ते में से भी चमकती थीं। फेफड़ों की एलर्जी से परेशान रहते थे। बदलता मौसम उनके लिए किसी अज़ाब से कम नहीं था। इनहेलर हाथ में इस तरह लिए फिरते जैसे लड़के मोबाइल लिए फिरते हैं। पायजामा छोटी मोरी का पहनते थे मगर टांगे इतनी बारीक थीं कि वो भी ढीला पड़ा रहता था। दाढ़ी का पूरा ख़त नहीं था सिर्फ थोडी पर बाल घने थे। दाढ़ी जितनी भी थी पूरी तरह चमकदार थी। कुछ दूर चलते, दीवार का सहारा लेकर खड़े हो जाते और रूठी हुई सांसो को दुरुस्त करने लगते। उन्होंने उम्र भर कोई काम नहीं किया था और इस बात पर उन्हें फक्र भी था। उनके बुज़ुर्गों ने खूब दौलत जमा की थी।  ज़मीन जायदाद बहुत थी मगर नस्लों ने अय्याशी और आराम तलबी में सब खत्म कर दिया था।

हाजी जी तक आते-आते एक चार सौ गज़ का मकान रह गया था। जिसमें बारह कमरे थे। चार कमरे उन्होंने अपने चारों लड़कों को दे दिए थे। इस मकान में सड़क की तरफ छ: दुकानें भी थीं। हाजी जी ने तमाम दुकानें और सात कमरे किराए पर उठा रखे थे। एक कमरा अपने लिए रख छोड़ा था जिसमें वह अपनी बूढ़ी बीवी 'हज्जन'  के साथ रहते थे।

 हाजी जी के चारों बेटे नाकारापन में अपने बाप से भी चार हाथ आगे थे। बड़ा बेटा रशीद कोई पैंतालीस बरस का था। उसके हिस्से में दो कमरों और एक दुकान की किरायेदारी आई थी और वह इसी में खुश था। उसकी बीवी काम न करने पर उसे खूब लताड़ती थी मगर जवान टस से मस नहीं होता था। उसे दूसरे के फटे में टांग अड़ाने का बड़ा शौक था, नेतागिरी के कुछ कीड़े भी मौजूद थे, पंचायत का भी शौकीन था। दिन भर इन्हीं कामों में लगा रहता। दो बेटियां थी और दोनों जवान होने लगी थीं। बड़ी बेटी ने ट्यूशन पढ़ा पढ़ा कर बी ए पास कर लिया था और फुल टाइम ट्यूशन पढ़ाती थी। छोटी बेटी बारहवीं का इम्तिहान दोबारा दे रही थी, उसने हाईस्कूल भी दो बार में पास किया था।

हाजी जी का दूसरा बेटा हमीद पतंगबाज था। बयालीस बरस मुकम्मल कर चुका था। उसके हिस्से में भी बड़े बेटे जितनी किराएदारी आई थी। इसके अलावा हर मंगल को पुराने खेल के मैदान में पेंच लड़ाकर पैसे जमा कर लेता था। उसकी शादी सही उम्र में हुई थी मगर बीवी सही नहीं निकली। निकाह के चौथे दिन मायके चली गई और फिर वापस नहीं आई। सुना गया कि वो अपने बड़े बहनोई से हिलगी हुई थी। हमीद ने उसे न तो तलाक दिया न ही दूसरी शादी की हिम्मत दिखाई। पतंगबाजी और यारबाज़ी ही अब उसकी ज़िंदगी थी।

 हाजी जी का तीसरा बेटा वहीद बेवकूफी की इंतिहा था। एक कमरे और दो दुकानों की किरायेदारी उसके हिस्से आई थी, मगर सीधेपन की वजह से अक्सर किराया वसूल नहीं कर पाता था। उसे कबूतर बाज़ी का बहुत शौक़ था। कबूतर बाज़ी का चलता-फिरता इन्साइक्लोपीडिया था। कबूतरों पर उस की गिरफ्त कमाल की थी। कैसा ही बिगड़ा हुआ कबूतर हो एक हफ्ते में उसके इशारों का गुलाम हो जाता था। कबूतर बाज़ी से ही उसकी गुज़र बसर होती थी। चालीस बरस की होने को आया था, मगर बड़े भाई हमीद की शादी की नाकामी और बेइज़्ज़ती का उसको इतना खौफ हुआ कि उसने शादी ही नहीं की।



अमृता शेरगिल 

चौथा और सबसे छोटा नवीद नकारा भी था और अय्याश भी। सट्टेबाज़ी की बुरी लत ने उसको और ख़राब कर दिया था। एक दुकान और एक कमरे की किरायेदारी उसके हिस्से में आई थी, बाक़ी हाथ पैर सट्टेबाज़ी में मार लेता था। सट्टेबाज़ी में तीन बार जेल जा चुका था। मगर सेवा पानी कर जल्दी ही रिहा हो जाता था।

 हाजी जी ने अपने हिस्से में एक कमरे और एक दुकान की किरायेदारी रखी थी। वो कमरा और वो दुकान मैंने किराए पर ले रखी थी। मेरी दुकान में हिंदी और उर्दू की साहित्यिक किताबें और बच्चों के स्कूल का सामान बेचा जाता था। अकेला था तो काम चल रहा था। मेरी अभी शादी नहीं हुई थी।

हाजी जी ख़ाली आदमी थे। मेरी दुकान पर एक-दो दिन छोड़कर आ जाते। मेरा भी टाइम पास हो जाता था। हाजी जी के पास बातों का ख़ज़ाना था। वो पूरे दिन बिना रुके बोल सकते थे। मगर सांस फूलने की वजह से बीच-बीच में रुक जाते और काफी देर को ख़ामोश हो जाते। आज वो पांच दिन बाद दुकान पर आए तो मैंने सलाम करते ही पूछा,
"हाजी जी खैरियत तो है? दिखाई नहीं दिए कई दिन से?" हाजी जी ने दीवार से लगी पुरानी कुर्सी पर बैठते हुए हाथ का इशारा किया कि अभी बताता हूं। पांच सात मिनट बाद उनकी सांसें दुरुस्त हुईं तो बोले,
"यार यह एलर्जी तो दमे में तब्दील होती जा रही है। बड़ी परेशानी में गुज़रे ये चार पांच दिन। ख़ैर तुम सुनाओ कोई नई ताज़ा बात?"
मैंने न में सिर हिला दिया। कुछ देर बाद बोले,
"यार यह बताओ कि हर आदमी अपनी बीवी से ज़लील क्यों होता है?"
मैं मुस्कुरा दिया तो वो फिर खुद बोले,
"तुम क्या बताओगे, तुमने यह गंगा थोड़ी नहाई है।"
मैंने पूछा, "हुआ क्या हाजी जी?"
"अमां होता क्या, हज्जन का जबड़ा घिस गया था। घिसे भी क्यों नहीं, अमां गिलोरियों की रेल बना रक्खी है। कसम खुदा की तुम्हारी दुकान का किराया तो हज्जन का पानदान ही खा जाता है।"
मुझे हंसी आ गई तो वो भी मुस्कुरा दिए।
कुछ देर बाद बोले,
"कहने लगीं जबड़ा घिस गया है, ज़रा धार करा देओ।"
"हम गए और आधा घंटे में जबड़े को नया करवा लाए।"
" फिर तो हज्जन खुश हो गई होंगी? " मैंने पूछा।
हाजी जी मुस्कुराते हुए बोले,
"अमां ऐसी वैसी खुश, वो तो जबड़ा देखकर ऐसी झूमीं गोया उनका रिश्ता आ गया हो, चहक कर बोलीं आज कई बरसों बाद कोई ढंग का काम किया है हाजी जी।"
"फिर आप क्या बोले" मैंने फौरन पूछा।
"बोलते क्या? अमां खिसिया कर रह गए।"
मुझे हंसी आ गयी तो वो भी मुस्कुराते हुए बोले,
"अमांअस्ल कहानी तो अब शुरु होती है "
मैंने कहा," अच्छा "
"अमां जबड़े को मुंह में सरकाते ही हज्जन की आंखें फैल गयीं, अजीब सी डरावनी आवाज़ निकालने लगीं, घैं घैं... पता नहीं क्या हुआ, समझ में नहीं आया, उनका मुंह खुला का खुला रह गया"
"अरे, फिर क्या हुआ? " मेरे चेहरे पर हैरत थी।
"अमां मेरी तो हवाइयां उड़ गयीं, क़सम ख़ुदा की इतनी डरावनी नज़र आ रही थीं उस खुले हुए मुंह में कि क्या बताऊं, फिर मैंने हिम्मत करके दो मुक्के उनकी कमर पर रसीद किए, एक दो चपत गुद्दी पर लगाए तब जाकर कैसेट टेप रिकार्ड से बाहर निकली, बस फिर क्या था हज्जन ने वो सारी ला'नतें हमें दीं जो जो उन्हें याद थीं।"
मैंने हंसते हुए पूछा,
"फिर तोआपको घर में घुसने नहीं दिया होगा हज्जन ने"
"होना तो यही चाहिए था, मगर अल्लाह भला करे पान ईजाद करने वाले का, हमने उसे हर सांस में दुआ दी, जब बात नहीं बन रही थी तो एक जोड़ी पान लगवा कर उनके हुज़ूर हाज़िर हुए और माफी की अर्ज़ी लगायी।"
"फिर क्या हुआ" मेरे सवाल में हैरत थी।
"होना क्या था, हमारी दरख़्वास्त कबूल कर ली गयी"
"वाह क्या कमाल किया एक जोड़ी पान ने" मैंने ख़ुशी से कहा तो उन्होंने हामी में सिर हिला दिया।

दो दिन बाद हाजी जी बड़े बुझे बुझे से मेरी दुकान में दाखिल हुए। मैंने सलाम किया, उन्होंने जवाब दिया और दुआऐं भी दीं। फिर काफी देर ख़ामोश बैठे रहे। मैं समझा कि सांसें दुरुस्त कर रहे हैं। जब वक़्त ज़्यादा गुज़र गया तो मैंने पूछा,
"हाजी जी खै़रियत तो है? बड़े ख़ामोश हैं"
"मियां दिल तो यह चाहता है कि अब हमेशा के लिए ख़ामोश हो जाएं" उनकी आवाज़ में बहुत थकावट थी।
मैंने कहा, "खुदा न करे, कैसी उदास बातें कर रहे हैं, क्या हुआ?"
"यार, अल्लाह मियां ने हमारे साथ अच्छा नहीं किया। चार लौंडे दे दिए, एक लड़की भी दे देता।"
मेरे चेहरे पर हैरत देख कर बोले,
"घर को घर तो लड़की ही बनाती है उसे तरतीब देती है, सजाती संवारती है। लड़के तो बस घर का इस्तेमाल करते हैं।"
मैं ख़ामोशी से उनको सुन रहा था। उन्होंने कुर्सी पर टेक लगा ली थी।
"मेरे चार लड़के और चारों ऐसे जैसे कि जिस्म पर चार नासूर हों। एक ज़रा सूखता है तो दूसरा रिसने लगता है। अल्लाह लड़की नाम का मरहम भी दे देता।"
काफी देर खामोशी रही।



अमृता शेरगिल 



"कोई नई बात हो गई? "मैंने खामोशी तोड़ते हुए पूछा। हज्जन कल से घुटनों में दर्द से तड़प रही है। चारों से कहा कि मां को डाक्टर को दिखा दो, दवा दिला दो। मगर चारों ने बहाने बना दिये।  बेचारी बुढ़िया सुबह तो रोने लगी। मैंने सालों को बद्दुआ देनी चाही तो मुझे ख़ुदा का वास्ता देकर चुप करा दिया। "
"अरे तो आपने मुझसे कह दिया होता।" मैंने नाराज़ होते हुए कहा।
"कह तो देता मगर यार तुम दुकान छोड़कर कैसे जाते" हाजी जी के लहजे में हिचकिचाहट थी। 
"खाली छोड़कर क्यों जाता, आपको बैठा जाता। अब जाता हूं  दो बजे, आपने बड़ी फिक्र की हाजी जी"
मैंने उन्हें जवाब दिया।
हाजी जी ने मुझे बड़ी दुआएं दी और चारों लड़कों को फिर भरपूर गालियों से नवाज़ा। फिर कहने लगे,
"यार बुढ़ापे में पैसा चाहिए न चाहिए मगर दो लफ्ज़ अपनाइयत के, प्यार के, अगर कोई बोल दे तो यह बुरा वक़्त आसानी से कट जाता है।" कहते-कहते उनका गला रुंध गया और उनकी उदास आंखें नम हो गयीं।

ज़िंदगी गुज़र रही थी। एक दिन ख़बर आई कि इलाक़े में नया कोतवाल तबादला होकर आया है। पता चला कि कोतवाल बहुत इमानदार और सख़्त है। उचक्कों की शामत आ गई थी। सब के सब ज़मींदोज़ हो गए थे। नवीद भी आधी रात को आता और पौ फटते ही चला जाता। पेंच बन्द हो गये थे। चौराहों और गलियों में अब लड़कियां बेख़ौफ आती जाती थीं। कबूतरों का लश्कर भी आसमान में दिखाई नहीं देता था। एक दिन हाजी जी आए तो बहुत खुश नज़र आ रहे थे। आते ही बोले, "अमां कुछ ख़बर भी है? पुलिस चोट्टों को पकड़ कर मुर्गा बना लही है। सट्टा बाज़ार उखाड़ा जा रहा है।"
मैंने भी हामी भरी।
हाजी जी कुछ देर बाद बोले, "यार मगर बड़ा डर लगता है कभी-कभी। मैंने उम्र भर कोई काम नहीं किया। एक रुपया नहीं कमाया। मगर अल्लाह ने इस नाकारा आदमी को इज़्ज़त बहुत दिलवाई। न जाने कितनों के झगड़े मैंने निबटाए। न जाने कितने रिश्ते टूटने से बचाए। उम्र के आखिरी पड़ाव में कहीं कमाई हुई यह इज़्ज़त ख़ाक में न मिल जाए। मेरे लड़के ख़ुदा की क़सम बड़े ज़लील हैं। वही किसी दिन मुझे ज़लील न करवा दें।"
"कैसी बातें करते हैं, आपके बेटे जैसे भी हैं आपकी इज़्ज़त तो करते ही हैं" मैंने उन्हें तसल्ली दी।

अभी मैं कुछ और कहता कि मोहल्ले का एक लड़का हाजी जी को ढूंढता हुआ दुकान में घुसा और उन्हें देखते ही तेज़ी से बोला, "हाजी जी नया कोतवाल आया है नवीद भाई को उठाने"
हाजी जी वहीं बैठे रह गए। मेरी तरफ घबरा कर देखा। मेरे चेहरे पर भी परेशानी आ गई थी।
"आपको पूछ रहा है कोतवाल" लड़के ने फिर डरा दिया।

हाजी जी घबरा कर उठे, मैंने साथ चलने को कहा तो उन्होंने हाथ के इशारे से मना कर दिया। कुछ देर बाद पता चला कि कोतवाल धमकी देकर गया है कि अगर कल सुबह तक नवीद कोतवाली नहीं आया तो पूरे घर को उठा लेगा। हज्जन का रो रो कर बुरा हाल था। तीनो भाई नवीन को कोस रहे थे। हाजी जी चारपाई पर सिर पकड़े बैठे थे। अगला दिन निकला और बीत गया। कोई ख़बर नहीं आयी। मगर एक अजीब सा सन्नाटा छाया हुआ था। मेरी तवज्जो भी काम में नहीं थी। दुकान शाम को जल्दी बंद कर दी और कमरे पर आ गया। रात का कोई दो बजा होगा कि चीख़ पुकार की आवाज़ से मेरी आंख खुली। बाहर आया तो पता चला कि नवीद के कोतवाली न पहुंचने पर कोतवाल आया। बड़े भाइयों की तरफ गया। वहां ताले देखकर हाजी जी तरफ गया। नवीद को पूछा। सही जवाब न मिलने पर हाजी जी को अपने साथ ले गया। हज्जन का बुरी तरह रो रहीं थीं ।

उन्होंने कोतवाल के हाथ जोड़े। मगर कोतवाल नहीं पसीजा। जाते जाते कह गया कि नवीद को ले आओ और इन्हें ले जाओ। मैं सदमे में था। भागा हुआ हज्जन के पास गया। वो बेतहाशा रो रही थीं। उन्हें रोता हुआ देखकर मुझे इतना अफसोस नहीं हुआ जितना उन्हें 'तन्हा' रोता हुआ देखकर हुआ। मैंने उनसे सिर्फ यह पूछा कि क्या वो अपना इन्हेलर अपने साथ ले गए। उन्होंने हां में सिर हिलाया और फिर फूट फूट कर रोने लगीं। मैं कुछ देर वहीं बैठा रहा। दूसरे किराएदार और पड़ोसी भी बैठे हुए थे। मशविरा हो रहा था कि क्या किया जाए। मुझे रह-रह कर हाजी की याद आ रहे थे। सोचने लगा कि हाजी जी पर क्या बीत रही होगी? क्या सोच रहे होंगे? क्या कर रहे होंगे? सुबह हुई, दुकान खोलने से पहले मैं कोतवाली पहुंच गया।

 उन्हें एक कमरे में रखा गया था। मैंने कोतवाल से इजाज़त मांगी और कमरे में दाख़िल हुआ। उन्होंने मुझे देखा और नज़रें झुका लीं। एक रात में वो और ज़्यादा कमजोर और बीमार दिखाई दे रहे थे। चेहरे पर जाने किस गुनाह का एहसास था। वो नज़रें नहीं मिला पा रहे थे। आंखों से आंसू टपक का दामन में जज़्ब हो रहे थे। मेरी आंखें भी नम हो गयीं।
कुछ देर बाद मैंने ही पहल की, "आप संभालें अपने आप को"
"यार मरने से पहले यह दिन भी देखना था"
मैं खामोश हो गया।
"हमारे ताया आज़ादी की लड़ाई में जेल गए और हमें देखो हम किस तरह जेल में आए हैं" यह कह कर वो और सिसकने लगे।
"आप ऐसा क्यों सोचते हैं" मैंने उन्हें समझाया। "सब जानते हैं कि आपकी कोई ग़लती नहीं है"
मेरी बात दरमियान में काटते हुए हाजी जी तेज़ आवाज़ में बोले, "ग़लती नहीं है मगर सज़ा तो मिल रही है, दामन पर दाग़ तो लग ही गया"
"कोई बात नहीं, सब ठीक हो जाएगा" मैंने समझाने की कोशिश की।
"मियां, लाचार आदमी इसी उम्मीद पर उम्र गुज़ार देता है कि सब कुछ ठीक हो जाएगा" उनकी इस बात का मेरे पास कोई जवाब नहीं था तो ख़ामोश हो गया। कुछ देर ख़ामोशी रही।
"बेटे" हाजी जी की आवाज़ में इस मर्तबा मज़बूती थी।
"एक काम करना है तुम्हें"
"जी" मैंने फौरन कहा।

"जानते हो कि हज्जन को पान खाने की बुरी आदत है। छः घंटे हो गए। उसके पास रात आख़िरी जोड़ी रह गयी थी। रो रो कर और तबीयत गिरा ली होगी। एक जोड़ी पान चाहियें। वो भी यहां। इसके अलावा एक बात यह है कि मक्खी जितने बड़े मच्छर हैं यहाँ और ये मच्छर तो फिर भी बर्दाश्त हो जाएं, मगर मुझसे चूहे बिल्कुल बर्दाश्त नहीं होते। एक लम्हे को भी आंख नहीं झपकी। जब एक जोड़ी पान लाओ तो ज़रा सा आटा और एक पैकेट चूहा मार दवा भी लेते आना। इंतज़ाम करना है इनका। जब तक नवीद नहीं आएगा कोतवाल मुझे नहीं छोड़ेगा। मैं इस चूहों के साथ नहीं रह सकता। हज्जन से कहना, दुआ करें। सब ठीक हो जाएगा और औलाद को बद्दुआ न दें। मां की बद्दुआ अल्लाह बड़ी जल्दी क़ुबूल करता है।"






मैंने हर बात की हामी भरी और एक घंटे में वापसी का कह कर लौट आया। सबसे पहले हज्जन को हाजी जी की ख़ैरियत की खबर देने पहुंचा और हाजी जी का बताया सामान लेकर कोतवाली वापस गया। हाजी जी की नसीहत पर अमल करते हुए मैंने तैनात हवलदार को 'सलाम' कर लिया था। सभी चीज़ें वसूल कर हाजी जी के चेहरे पर सुकून आ गया था। सबसे पहले एक जोड़ी पान और एक मोड़ा हुआ काग़ज़ एक थैली में बंद किया और मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा, "यह थैलिया हज्जन को जाकर देना और दोपहर में जाकर इसमें रखे काग़ज़ को उसे पढ़कर सुना देना। कुछ ज़रूरी बातें लिख दीं हैं। अब तुम जाओ तुम्हें दुकान खोलनी होगी।"

"मैं शाम को आता हूं " कहकर मैं वापस आ गया। हज्जन को थैली दी और दोपहर को आकर ख़त सुनाने की बात कही। अभी दुकान खोले एक घंटा भी नहीं हुआ था कि ख़बर आयी कि हाजी जी ने चूहा मार दवा खा ली है। पुलिस उन्हें बड़े अस्पताल ले गई है। मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन निकल गई। भागा भागा बड़े अस्पताल पहुंचा। पता चला कि हाजी जी आईसीयू में हैं। हज्जन अकेली बैठी तड़प रहीं थीं। कोई अपना उनके पास नहीं था। कुछ मुहल्ले वाले और एक दो किराएदार मौजूद थे। सब लोग कह रहे थे कि चूहा मार दवा उनके पास तक कैसे पहुंची?

मैंने हज्जन को ढांढस बंधाया कि हाजी जी ठीक हो जाएंगे। उनके हाथ में हाजी जी की दी हुई थैली थी। मैंने उसमें से काग़ज़ निकाला और पढ़ने लगा, लिखा था,

"हज्जन! क्या कहूं, तुमने मेरी तमाम ग़लतियों को देर-सवेर माफ कर दिया। मैंने तुम्हें खुशी के कुछ ही दिन दिखाए, मगर तुम सब्र वाली औरत थीं, तो तुमने इन महरूमियों में अपनी उम्र काट दी। मगर मैं अंदर ही अंदर घुटता रहा। एक गुनाह मुझसे यह भी हुआ कि मैंने तुम्हारे पेट से चार ज़ख़्म पैदा कराए, जो ताउम्र हमारे जिस्मों से रिस्ते रहे। शायद तुम्हारे नसीब में दुख ज़्यादा थे वरना मुझ नाकारा से क्यों ब्याही जातीं। मगर अल्लाह भला करे एक जोड़ी पान का। जब जब हमारी गाड़ी पटरी से उतरती दिखाई दी, एक जोड़ी पान ने संभाला दे दिया। तुमने मेरी बड़ी ख़ताएं माफ कीं हैं। अब यह आख़िरी ख़ता भी माफ कर देना। इस उम्र में कोतवाली आना और इस तरह आना! क्या कहूं, बाहर आकर किसी से नज़रें मिलाने की हिम्मत नहीं है। इसलिए जा रहा हूं। जानता हूँ कि ख़ुदकुशी बहुत बड़ा गुनाह है। मगर अब जीना मौत से भी बदतर होगा। तुम्हारे लिए एक जोड़ी पान भेजें हैं। शायद तुम इस मर्तबा भी माफ कर दो।
ख़ुदा हाफिज। "
हज्जन ने ख़त सुना तो और तड़पने लगीं।
तभी आईसीयू से डॉक्टर बाहर आए और हम से कहा,
"वी आर वेरी सॉरी"
मैं पत्थर बना काग़ज़ को घूर रहा था। हज्जन ने पान की जोड़ी फेंक दी थी।

ज़िया ज़मीर


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 परिचय 

नाम : ज़िया ज़मीर 
पिताजी का नाम: श्री ज़मीर दरवेश ( प्रसिद्ध शायर)
जन्मतिथि: 07.07.1977 
जन्म स्थान: सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) 
शिक्षा: एम. एस-सी (मैथ्स), एल. एल. बी.,  एम. ए. (उर्दू)
व्यवसाय: कर अधिवक्ता
साहित्यिक साधना: वर्ष 2001 से। 
साहित्य की विधाएं: ग़ज़ल, नज़्म, नात, आलोचनात्मक आलेख, समीक्षाएं, कथा, लघुकथा, विश्लेषणात्मक लेख। 
प्रकाशित पुस्तकें: 1. ख़्वाब ख़्वाब लम्हे(ग़ज़ल संग्रह) 2010 
2. दिल मदीने में है  (नात संग्रह) 2014 
पुरस्कार: 1. ग़ज़ल संग्रह  बिहार उर्दू अकादमी द्वारा पुरस्कृत। 
2. नात संग्रह उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी द्वारा पुरस्कृत। 
3. नात संग्रह हम्द ओ नात फाउंडेशन मुरादाबाद द्वारा पुरस्कृत। 
विशेष: 1. सेमिनार, कवि सम्मेलनों,  मुशायरों में प्रतिभाग। 
2. आकाशवाणी और दूरदर्शन पर रचनाओं का प्रसारण। 
3. हिंदी उर्दू के राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय समाचार पत्रों एवं साहित्यिक पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। 
सम्पर्क: निकट ज़ैड बुक डिपो, चौकी हसन ख़ां, मुरादाबाद। 
मो.  08755681225
email: ziazameer2012@gmal.com

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