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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

19 अगस्त, 2018

मैं क्यों लिखता हूँ

पंकज सुबीर 



पंकज सुबीर


यह प्रश्न मैं अपने आप से भी कई बार पूछता हूँ कि मैं क्यों लिखता हूँ ? वह कौन सी बेचैनी है मेरे अंदर, जो मुझे बार-बार खींच ले आती है इस दिशा में। कभी-कभी ऐसा लगता है कि लेखक के रूप में मेरे अंदर आदम की छटपटाहट भर गई है। आदम जो धरती पर आया पहले पुरुष के रूप में और उसके बाद उसने कितना कुछ नहीं देखा इस पृथ्वी पर।

 सभ्यताओं का विकास, विनाश, एक ही पृथ्वी का कई-कई पृथ्वियों में बँट जाना, आदम की संतानों का कई-कई वर्गों में, संप्रदायों में बँट जाना। अब ऐसा लगता ही नहीं है कि यह जो पूरी पृथ्वी पर इन्सान बस रहे हैं, यह सब किसी एक आदम की संतानें हैं। इन सब में एक ही "आदम का लहू" है। आदम इन सबको देखता रहा और दुखी होता रहा, उस बूढ़े पिता की तरह, जो तिनका-तिनका जोड़ कर बनाए गए अपने आशियाने को बँटते हुए देखता है। आदम हर युग में लेखकों की रूह में जीवित रहा और उन्हीं की आँखों से पृथ्वी को देखता रहा है।

 मुझे लगता है कि मेरे अंदर भी वही है। एक सुंदर पृथ्वी, एक जीवित ग्रह, और उस पर बसी एक पूरी मानव सभ्यता को धीरे-धीरे एक बार फिर से विनाश की ओर बढ़ता देखता हूँ, तो बाबा आदम की तरह इच्छा होती है कि इसे रोका जाए, कैसे भी, कुछ भी कर के इसे रोका जाए। रोका जाए... मगर कैसे रोका जाए..? तब कहीं इस प्रयास में लिखने की शुरूआत होती है।

 क्षरण एक धीमी प्रक्रिया है, किन्तु वही अंततः नष्ट करती है, लेखक की दृष्टि से जब उस क्षरण को होता हुआ देखता हूँ, तो कोशिश करता हूँ कि इसे रोका जाए, और जो रोक नहीं सकते, तो बताया जाए। उन सब को बताया जाए जो इस प्रक्रिया में शामिल हैं, इस प्रक्रिया का हिस्सा हैं। जो क्षरण भी हैं और जो क्षरित भी हैं। और उनको यह बात स्वयं ही पता नहीं है। जब तक उनको कोई बताएगा नहीं, तब तक उन्हें यह बात पता चलनी भी नहीं है। हर युग में, हर काल में "बता देना" ही लेखक का दायित्व होता है। जिन्हें नहीं पता, उन्हें बताया जाना। इसलिए जब अपने लेखन के कारणों की तलाश करता हूँ तो पाता हूँ कि मैं "बता देने" के लिए लिखता हूँ। बता देना अपने वर्तमान समय में शामिल लोगों को।

हर लेखक अपने अंदर एक ख़ालीपन, एक अधूरापन, एक गहरी अँधेरी ख़ला लेकर पैदा होता है। यह जो अंदर का सन्नाटा होता है, यह उसे हर क्षण अपनी ओर खींचता है। जैसे किसी ब्लैक होल के आस-पास का प्रबल गुरुत्वाकर्षण हर पिंड को अपनी तरफ़ खींचता है, वैसे ही मेरे अंदर की वह ख़ला मुझे खींचती है, बाहरी दुनिया से अंदर की ओर। हर अधूरापन अपने आप को पूर्ण कर लेना चाहता है, मेरे लिए लेखन उस ख़ालीपन को पूरा करने की एक कोशिश है, जिसे अपने अंदर लिए मैं गहन, नीरव अंतरिक्ष में सदियों से भटक रहा हूँ। आकाशगंगा के किनारे किसी पुच्छल तारे की तरह बैठा मैं सब कुछ देखने और लिखने की कोशिश करता हूँ- ताकि सनद रहे, कि देखा गया, लिखा गया।

 हर लेखक अपने आप में एक इतिहासकार होता है, बस अंतर इतना होता है कि इतिहासकार अपने समाज को लिखता है और लेखक अपने समय को। जहाँ इतिहासकार चूक जाते हैं, वहाँ लेखक काम कर जाता है। किसी भी बीते हुए समय को जानने के लिए लोग इतिहास के पास नहीं बल्कि साहित्य के पास जाते हैं। शायद मेरा लेखन इसलिए भी होता है कि मैं चाहता हूँ कि यह जो वर्तमान समय है, वह ठीक प्रकार से लिपिबद्ध हो जाए। इस समय की सारी चिंताएँ, सारी परेशानियाँ, सारी विकृतियाँ, सारी कुरूपताएँ, सारी विद्रूपताएँ... सब कुछ ठीक प्रकार से लिख दिया जाए। मेरे अंदर का लेखक अपने समय को लेकर हमेशा चिंतित रहता है, और यह चिंता ही शायद मुझे लिखने के लिए मजबूर करती है। यह जो "ठीक प्रकार" है यह ही शायद मेरे लेखन का मूल कारण है। हर समय में तीन प्रकार से सूचनाएँ लिपिबद्ध होती हैं, एक वह जो सत्ता करती है, एक वह जो धर्म करता है और तीसरा प्रकार साहित्य का होता है। पहला और दूसरा तरीक़ा पूर्वाग्रह से ग्रस्त होता है, या यूँ भी कह सकते हैं कि उसमें बस पूर्वाग्रह ही होता है, वह लिखवाया ही जाता है कि अपने आप को दर्ज किया जा सके। लेखक के रूप में मैं इसलिए लिखता हूँ कि पहले दोनों प्रकारों से दर्ज की गई सूचनाओं को ख़ारिज कर सकूँ। आज नहीं, भविष्य में...।

धर्म और सत्ता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, इस कड़वी हक़ीक़त को सामने लाने के लिए मैं लिखता हूँ। भविष्य में जब कोई धर्म और सत्ता द्वारा दर्ज किए गए इतिहास को पढ़ेगा, तो उस "प्रस्तुत सत्य" के इतर भी कोई "दूसरा सत्य" था, इसके संकेत उसे कहीं तो मिलने चाहिए। उसके मन में शंका पैदा होनी चाहिए। यह शंका लेखक पैदा करेगा। लेखक का मूल कार्य ही शंका पैदा करना है। हर स्थापित किए गए सत्य के प्रति शंका पैदा करना। मैं चाहता हूँ कि आने वाला समय इस वर्तमान समय के द्वारा स्थापित किए सत्यों को लेकर शंका करे, इसीलिए मैं लिखता हूँ। मेरा मानना है कि जिसे स्थापित करना पड़े, वह सत्य नहीं होता। इसलिए मैं शंका पैदा करने के लिए लिखता हूँ। "शंका पैदा करना" अपने बाद आने वाले समय में शामिल होने वाले लोगों के मन में।
मैं लिखता हूँ कि मेरा दायित्व है दोनो के प्रति मेरे समय में शामिल लोगों के प्रति भी और मेरे बाद के समय में शामिल होने वालों के प्रति भी। यह बताना कि किसी भी समय में कोई भी, कुछ भी निरपेक्ष नहीं होता, सब कुछ सापेक्ष ही होता है। "निरपेक्ष" शब्द से बड़ा झूठ कोई दूसरा नहीं है। निरपेक्ष के इस झूठ के बारे में बताना और निरपेक्ष के प्रति शंका पैदा करने के लिए मैं लिखता हूँ।

मेरे लिए लेखन कोई शौक़, कोई प्रसिद्धि पाने का ज़रिया नहीं है, किसी भी लेखक के लिए नहीं होना चाहिए। मैं लिखता हूँ कि अपने आप को ख़ुश कर सकूँ। हर नई रचना के बाद एक गहरी साँस लेता हूँ और उसकी ठंडक को अपने अंदर से गुज़रता हुआ महसूस करता हूँ। वह विषय जो बीज बन कर मेरे अंदर छटपटा रहा था, उसे ज़मीन से अँखुआ कर फूटते हुए देखने का सुख महसूस करने के लिए लिखता हूँ। जब तक वह सुख महसूस होता रहेगा, तब तक मैं लिखता रहना चाहूँगा।
(समाप्त)
००

परिचय
पंकज सुबीर,
 पी.सी. लैब, शॉप नं. 3-4-5-6,
 सम्राट कॉम्प्लेक्स बेसमेण्ट,
 बस स्टैण्ड के सामने, सीहोर, मध्य प्रदेश 466001,
 मोबाइल : 09977855399, दूरभाष : 07562-405545, 
ई मेल : subeerin@gmail.com

प्रकाशित पुस्तकें
ये वो सहर तो नहीं (उपन्यास- भारतीय ज्ञानपीठ), अकाल में उत्सव (उपन्यास, शिवना प्रकाशन), ईस्ट इंडिया कम्पनी (कहानी संग्रह-भारतीय ज्ञानपीठ), महुआ घटवारिन (कहानी संग्रह- सामयिक प्रकाशन), कसाब.गांधी एट यरवदा.इन (कहानी संग्रह- शिवना प्रकाशन), चौपड़े की चुड़ैलें (कहानी संग्रह- शिवना प्रकाशन), अभी तुम इश्क़ में हो (प्रेम संग्रह- शिवना प्रकाशन) नई सदी का कथा समय (संपादन), विमर्श- नक़्क़ाशीदार केबिनेट (संपादन)।
सम्मान एवं पुरस्कार
कहानी चौपड़े की चुड़ैलें को राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान 2016। उपन्यास ये वो सहर तो नहीं को भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा वर्ष 2009 का ज्ञानपीठ युवा पुरस्कार। उपन्यास ये वो सहर तो नहीं को इंडिपेंडेंट मीडिया सोसायटी (पाखी पत्रिका) द्वारा वर्ष 2011 का स्व. जे. सी. जोशी शब्द साधक जनप्रिय सम्मान। उपन्यास ये वो सहर तो नहीं को मप्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा वागीश्वरी पुरस्कार। कहानी संग्रह ईस्ट इंडिया कम्पनी वर्ष 2008 में भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार हेतु अनुशंसित। कहानी संग्रह महुआ घटवारिन को कथा यूके द्वारा वर्ष 2013 में लंदन के हाउस ऑफ कामंस के सभागार में अंतर्राष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान। समग्र लेखन हेतु वर्ष 2014 में वनमाली कथा सम्मान। समग्र लेखन हेतु वर्ष 2017 में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति का श्री शैलेश मटियानी चित्रा कुमार पुरस्कार। समग्र लेखन हेतु 53 वाँ अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान। अमेरिका तथा कैनेडा में हिन्दी लेखन हेतु विशेष रूप से सम्मानित किया गया।
विशेष
तीन कहानियों पर हिन्दी फीचर फिल्मों का निर्माण कार्य चल रहा है। एक कहानी कुफ्र पर लघु फिल्म बन कर रिलीज़ हो चुकी है। कहानी दो एकांत पर बनी फिल्म बियाबान की पटकथा, संवाद तथा गीत लेखन।
संपादक : विभोम स्वर, संपादक : शिवना साहित्यिकी

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