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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

16 अगस्त, 2010

मटिल्डाः बचपन का करीश्मा



विजय शर्मा
बच्चे कई दुनिया में एक साथ रहते हैं या यूँ कहा जाए कि रहने को मजबूर होते हैं। एक ओर वे वयस्कों के साथ रहते हैं जिसमें क्रूरता, अत्याचार, धोखाधड़ी, चालबाजी होती है और होते हैं बच्चों को नियंत्रित करने के लिए नियम-कायदे तथा अनुशासन। दूसरी ओर बच्चे अपने हमजोलियों, अपने हम उम्र बच्चों के साथ रहते हैं, जहाँ मासूमियत, साझापन, कल्पनाएँ और हँसी-ख़ुशी होती है। वयस्कों की दुनिया से दूर एक और तीसरी दुनिया में बच्चे रहते हैं। यह है उनकी आंतरिक दुनिया जिसके विषय में वे स्वयं ज्यादा नहीं जानते हुए भी उसकी विभिन्न संवेदनाओं और शक्तियों का अनुभव करते हैं। उनकी इस दुनिया में न तो व्यस्कों को रुचि होती है न ही वे इसके विषय में ख़ास जानते-समझते हैं। मनोवैग्यानिक भले ही उनकी इस दुनिया में सेंध लगाने का प्रयास कर रहे हों पर कुछ ख़ास नहीं जान पाएँ हैं, क्योंकि हर बच्चे की यह दुनिया बिलकुल अलग है। ऎसी ही कई अनोखी दुनिया में जी रही है एक छोटी बच्ची मटिल्डा।
मटिल्डा एक छोटी-सी, प्यारी-सी और अति संवेदनशील एवं अति तीव्र बुद्धि की बच्ची है। दुर्भाग्य से उसका जन्म एक ऎसे परिवार में हुआ है, जहाँ वह पूरी तौर पर मिसफिट है। घर में उसका भाई उसके ठीक विपरित खाओ-पीओ और मस्त रहो का नमूना है। उसे बहन को तंग करने में ख़ास मज़ा आता है। माँ जिसे बच्चों की देखभाल करनी चाहिए और बच्चों में अच्छे सँस्कार डालने चाहिए, वह अपने आप में एक और नमूना है। दिन-रात बिन्गो खेलने, टीवी पर बकवास सीरियल देखने और तेलीफ़ोन पर गप्प मारने, गॉसिप करने से जीनिया वर्मबुड को फुरसत नहीं है। वह अपने और टीवी के परदे के बीच किसी तीसरे को सहन नहीं कर सकती है। मटिल्डा का पिता हैरी वर्मबुड भी है, मगर वह भी नैतिक-अनैतिक की चिंता से उपर एक धूर्त व्यापारी है, जो पुरानी कार धोखे से अपने ग्राहकों को बेचता है, जिसका भेद प्रशासन को मिल चुका है और एफ बी आई के जासूस जिसकी निगरानी कर रहे हैं। पढ़ने-लिखने को बेकार क काम मानते हुए वह लाइब्रेरी से लाई मटिल्डा की एक किताब सिर्फ़ इसलिए नष्ट कर देता है, क्योंकि इस किताब का नाम ‘मोबी डिक’ है। किताब प्रसिद्ध लेखक हरमन मेल्विल की है इसका उसे भान नहीं है, मगर शीर्षक का ‘डिक’ शब्द उसे अश्लील लगता है और वह उसे नष्ट कर देता है। मटिल्डा के माता-पिता वयस्क हैं, मगर प्रौढ़ता के कोई लक्षण उनके अन्दर नहीं हैं।
माता-पिता बच्चों के प्रति इतने लापरवाह हैं कि उन्हें मटिल्डा की उम्र याद नहीं है, वे बराबर उसे चार साल की कहते हैं और वह हर बार उन्हें सुधार कर कहती है कि वह साढ़े छः साल की है, इस पर उसे झूठा कहा जाता है और उसे मुँह बन्द रखने का आदेश मिलता है। चुपचाप अच्छे बच्चे की तरह जाकर टीवी देखने का आदेश दिया जाता है। और माता-पिता सोचने लगते हैं कि ज़रूर इस लड़की में कुछ गड़बड़ी है।

ऎसे परिवार में कुशाग्र बुद्धि मटिल्डा क्या करे ? वह पढ़ना चाहती है। चुटकी बजाते गणित के भारी भरकम सवाल हल करने में उसे मज़ा आता है। वह मिन्नत करती है कि उसे स्कूल भेजा जाए। उसका पिता एक स्कूल की हेड मिस ट्रंचबुल को एक पुरानी कार बेचने में सफल हो जाता है। बदले में मटिल्डा का उस स्कूल में दाखिला करा दिया जाता है। इलाके का यह क्रंचमहाल एलीमेंट्री स्कूल भी अपने ढंग का अनोखा स्कूल है। हेड मिस्ट्रेस ओलम्पिक की पूर्व खिलाड़ी है। उसे हैमर थ्रो में मेडल मिला है। वह इतनी क्रू है कि हैमर की भाँति ही वह बच्चों को भी बाल पकड़ कर घुमा कर खिड़की के बाहर फेंकती है। इस स्कूल में क्रूरतम सज़ा का प्रावधान है। बच्चों को एक संकरी अलमारी में सीधे खड़े करके बन्द कर देना, इस अलमारी की भीतरी दीवालों पर नुकीली कीलें और काँच के तीखे टुकड़े लगे हुए हैं। बच्चे के ज़रा भी हिलने-डुलने की गुंज़ाइश नहीं है। इसमें बन्द होने की कल्पना मात्र से बच्चों के भीतर होने वाली दहशत की कल्पना कठिन नहीं हैं।

वयस्कों की इसी क्रू दुनिया के बरअक्स बच्चों की एक और दुनिया है। वे बड़ों से भयभीत है, मगर उनमें आपस में बड़ा भाईचारा है। वे एक-दूसरे को बड़ों के अत्याचार से बचाने के लिए एकजुट हैं। सज़ा पाने की परवाहन करते हुए भी शरारत करने वाले अपने साथी का नाम बताने को राजी नहीं हैं। वे ज़िन्दगी की छोटी-छोटी ख़ुशियों का मज़ा उठाते हैं। बात-बात पर हँसते हैं। क्रूरता का सामना अपनी मासूमियत और शरारतों से करते हैं।

इसी स्कूल में मटिल्डा की क्लास टीचर मिस जेनीफर हनी है। यह प्यारी-सी टीचर बच्चों को बहुत प्यार करती है,मगर बच्चों को हेड मिस्ट्रेस की क्रूरता से नहीं बचा पाती है। कारण वह स्वयं उससे भयभीत है। वह बच्चों को समझाती है। उसे ही सबसे पहले मटिल्डा की प्रतिभा का पता चलता है। आगे चलकर मटिल्डा की बहादुरी मिस हनी में भी साहस का संचार करती है, इसलिए जब अंत में ट्रंचबुल उसकी कलाई मरोड़ कर दोबारा उसका हाथ तोड़ने की बात कहती है तो वह अपना हाथ छुड़ाकर कह पाती है, ‘अब मैं सात साल की नहीं हूँ आॉन्ट ट्रंचबुल’ और बच्चों को उनके संबंधों का पता चलता है। वे चकित रह जाते हैं। मटिल्डा मिस हनी को उसका जायज प्राप्य दिलाने में कामयाब रहती है।

हम सबके भीतर दुनिया की असीमित शक्ति है, मगर वयस्क होने पर हम उसे भुला बैठते हैं। ज़िन्दगी में हार मान बैठते हैं। मिस हनी भी मान बैठी है कि उसे इसी तरह निरीह जीवन बिताना है। मटिल्डा के रूप में उसे एक प्यारा साथी मिलता है, जिससे वह अपनी ज़िन्दगी के कै पहलू साझा करती है। इसी बीच मटिल्डा को अपनी टेलेकाइनेटिक (वह यह नाम नहीं जानती है) शक्ति का पता चलता है।पहले यह शक्ति आकस्मिक और मटिल्डा के हाथ के बाहर होती है। शीघ्र ही वह अभ्यास और दृढ़ इच्छा सक्ति से इसे वस में कर लेती है। अब वह अपनी इस आंतरिक शक्ति का मनचाहा उपयोग कर सकती है। अपनी, मिस हनी तथा स्कूल के अन्य बच्चों की कई समस्याओं का चुटकी बजाते समाधान कर देती है। मिस ट्रंचबुल को भी स्कूल से भागने पर मजबूर कर देती है। इस तरह यह छोटि बच्ची अपनी सूझ-बूझ और विशिष्ट सक्ति से परिस्थितियों को मनचाहा मोड़ देने में कामयाब रहती है। वैसे बाद में इस शक्ति का उपयोग वह मात्र छोते-मोटे कामों, जैसे अलमारी से किताब निकालने के लिए ही करती है।

नॉर्वीजियन माता-पिता की संतान रोअल डाल का जन्म 1916 में हुआ। द्वितिय विश्व युद्ध में घायल होने के बाद लीबिया में फाइटर पायलेट के रूप में भी काम किया। विंग कमांडर के पद तह पहुँचने वाले रोअल डाल ने सेना में रहते हुए ही कहानियाँ लिखनी शुरू कर दीं। ये कहानियाँ पहले अमेरिका की विभिन्न प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही थीं बाद में किताब के रूप में भी प्रकाशित ह्ने लगीं। जल्द ही वे बेस्ट सेलर होने लगीं। कई कहानियों का टेलीविजन पर नाट्यरूपांतर भी हुआ। ‘बॉय’ तथा ‘ गोइंग सोलो’नाम से दो भागों में उनकी आत्मकथा भी उपलब्ध है। उन्के सत्तरवें जन्मदिन पर उनके सम्मान में 1986 में वाइकिंग प्रकाशन ने ‘टू फेबल्स’ प्रकाशित की। उनकी मृत्यु 1990 में हुई परंतु अपनी कहानियों के साथ वे सदा पाठकों को याद रहेंगे।

इसी ब्रिटिश उपन्यासकार, कहानीकार तथा स्क्रीनप्ले लिखने वाले रोअल डाल ने बच्चों के लिए बहुत सारी बेस्टसेलर किताबें लिखीं है। ‘जेम्स एंड द जायन्ट’, ‘चार्ली एंड द चॉकलेट फैक्टरी’, ‘द विचेज’, ‘मटिल्डा’ आदि बच्चों के लिए उनकी प्रसिद्ध किताबें हैं। उनकी किताबें मनुष्य के श्याम पक्ष को बड़ी शिद्दत से उभारती हैं और हँसी-हँसी में बड़ा सन्देश दे जाती हैं। वग डार्क ह्यूमर के लिए जाने जाते है। ‘चार्ली एंड द चॉकलेट फैक्टरी’ तथा ‘मटिल्डा’ पर लोकप्रिय फ़िल्में बनी जिन्हें दर्शकों के साथ-साथ फ़िल्म समीक्षकों ने भी सराहा । उन्हीं की किताब ‘मटिल्डा’ पर इसी नाम से डैनी डेविवो ने फ़िल्म बनाई है। डैनी डेविटो एक प्रतिभाशाली बहुगुण सम्पन्न कलाकार हैं। उन्होंने बड़ी ख़ूबसूरती से मटिल्डा किताब को रूपहले पर्दे पर रूपांतरित किया है। पहलि बार देखने पर यह भले ही एक सामान्य-सी फ़िल्म लगे, लेकिन दूसरी बार ध्यान से देखने पर मनोवैग्यानिक सूझ और गहराई तथा ख़ूबसूरती का अन्दाज़ा होता है। एक क्लासिक की यही विशेषता होती है। उसए जितनी बार पढ़ा या देखा जाए उसमें निखार आता जाता है। नई-नई बातें दिखाई पड़ती हैं, इसीलिए इस किताब और फ़िल्म को क्लासिक का दर्जा दिया जा सकता है। मटिल्डा के किरदार में मारा विल्सन ने कमाल का अभिनय किया है। इसके लिए उसे यंग स्टार अवार्ड प्राप्त हुआ। बच्ची तथा अन्य बच्चों से इतना बेहतरीन अभिनय करा ले जाने के लिए डैनी डिविटो तारीफ़ के काबिल हैं। फ़िल्म में वे पिता हैरी तथा कथावाचक की भूमिका में भी सर्वोत्तम प्रभाव डालने में सफल हुए हैं। माँ जीनिया की भूमिका में रिया परमैन ने बहुत प्रमाणिक अभिनय किया है। भोली सुकुमार और सुन्दर मिस हनी के लिए एम्बर्थ डेविट्ज का चुनाव सटीक है। मटिल्डा के भाई माइकेल ‘मिकी’ वर्मवुड के लिए ब्रायन लेविनसन अन्य चरित्रों के लिए भी अनुकुल अभीनेताओं का चुनाव इस फ़िल्म की विशेषता है।

मटिल्डा के आसपास के वयस्क हमें अपने जीवन में ख़ूब देखने को मिलते हैं। हम स्वयं भी अक्सर जाने अनजाने में वैसा ही व्यवहार करते हैं जैसा इस फ़िल्म के विभिन्न वयस्क क़िरदार करते हैं। यह बात दीगर है कि फ़िल्म में इसे फ़िल्म और हॉलीवुड की शैली में बढ़ा-चढ़ाकर प्रदर्शित किया है। साथ ही इसमें हास्य और व्यंग्य की चासनी भी मिलाई गई है। यह हास्य व्यंग्य कहीं भ भोंडा, भदेस और फूहड़ नहीं होता है। हमारे आसपास ऎसे शिक्षक-शिक्षिकाओं की कमी नहीं है जो मिस ट्रंचबुल की भाँति छात्रों को मुसीबत मानते हैं। भले ही अपनी इस दिली भावना को वे सार्वजनिक रूप से उजागर न करते हो।

ट्रंचबुल को वही स्कूल अच्छा लगता है, जिसमें बच्चे न हों, वह न देखने में भयानक है, वरन उसका एक एक काम-चलना, बोलना, खाना पीना सब भयानक और राक्षसी जैसा है। उसका पक्का विश्वास है कि गुरू से ज्यादा उसका सोटा पढ़ाता है। वह मानती है कि वह वयस्क है, बच्चे छोटे हैं अतः वह सही है.. वे ग़लत हैं। उसे सज़ा देने का अधिकार है और सज़ा झेलना उनका कर्तव्य। पाम फेरिस काफी समय तक अपना रूप नहीं बदलती थी और बच्चों को तंग किया करती ताकि वे उससे भयभीत रहें और जब अगली बार शूटिंग हो तो वे उसके संग वैसे भी डरता हुआ अभिनय करें।
इस फ़िल्म को मात्र मनोरंजन का नाम देकर नहीं छोड़ा जा सकता है। ऎसे माता-पिता की भी हमारे समाज में कमी नहीं है जिनके पास अपने बच्चों के लिए समय नहीं है और जो बच्चों के कौतुहल, उनकी जिग्यासा से उकताए रहते हैं वे यह भूल जाते हैं कि सीखने की प्रक्रिया तभी तक चलती है जब तक कोई व्यक्ति जिग्यासू है, प्रश्न पूछता है। जिस दिन आदमी प्रश्न पूछना बंद कर देता है उसका कौतुहल मर जाता है। उसी पल से उसका सीखना समाप्त हो जाता है। एक तरह से उसकी मृत्यु हो जाती है। हम व्यस्क बच्चों की इस मृत्यु के ज़िम्मेदार हैं। कुछ समय न होने का बहाना और कुछ स्वयं की अग्यानता हमें बच्चों के प्रश्न पूछने की आदत से खिजाती है। उनके मासूम प्रश्नों के उत्तर वयस्कों को मालूम नहीं होते हैं और वे चिढ़ जाते हैं और उनकी प्रश्न करने की इच्छा मर जाती है, उनका सीखना दम तोड़ देता है।
मटिल्डा भाग्यशाली है उसे मिस हनी जैसी हमदर्द टीचर मिली है और वह किताबों से प्रेम करती है। उसके आसपास के वातावरण को देख कर आश्चर्य होता है कि वह किताबों की ओर कैसे मुड़ी। किताबों का चस्का बचपन में लगता है और ताउम्र साथ देता है। अक़्सर किताबों की रुचि रखने बच्चों को कोई गाइड करने वाला नहीं होता है कि वे क्या पढ़े और क्या न पढ़े। इस तरह किताबों के जंगल में घुस कर राह बनाने का अपना सुख है, मगर समय भी बरबाद होता है। जिन बच्चों को कोई सही दिशा निर्देश मिल जाता है वे कम समय में ज्यादा अच्छी किताबों का आन्नद उठा सकते हैं। मटिल्डा ने बहुत कम उम्र में व्यस्कों की किताबें भी पढ़ डाली है, लेकिन फ़िल्म के अंत में मिस हनी और वे मिल कर बच्चों की किताबें ही पढ़ती दिखाई गई है। इससे दोनों के मासूम होने को प्रतीकात्मक ढंग से दिखाया गया है। बड़े-बड़े काम करने वाली मटिल्डा अंततः छोटी बच्ची ही है। उसे लाड़ प्यार दुलार की आवश्यकता है। उसे सही देखभाल चाहिए। उसे एक साथी की आवश्यकता है। कितने बच्चे ऎसे होते हैं जिन्हें यह सब मिल पाता है ?

फ़िल्म कटाक्ष करती है कि वयस्क चाहे वह अभिभावक हों अथवा स्कूल के लोग बच्चों के संग कैसा व्यवहार करते हैं यह शिक्षा विमर्श उत्पन्न करती है। शिक्षा के नाम पर बच्चों को क्या मिलता है ? कैसे मिलता है ? इस पर प्रकाश डालती है। पिता की ठगी की सज़ा बेटी को मिलती है। हेड मटिल्डा से बदला लेती है.. क्या आये दिन हम ऎसी घटनाएँ देखते-सुनते और उनके बारे में पढ़ते नहीं हैं ? क्या इसी डर से हमारे यहाँ पेरेंट टीचर एसोशिएशन या मीट दिखावा मात्र बन कर नहीं रह जाते हैं जो संस्था बच्चों के विकास और प्रगति के लिए कायम होनी चाहिए वह मात्र मखौल बन कर रह गयी है। मटिल्डा फ़िल्म के कथ्य और संवाद दोनों जहाँ मनोरंजन करते हैं वहीं सोचने विचारने को प्रेरित भी करते हैं। फ़िल्म का संगीत पक्ष बड़ा मनोरम है। इसमें कॉमेडी के साथ-साथ एडवेंचर का भरपूर मसाला है। कल्पना की उड़ान है तो जादूई और करीश्माई तत्व भी हैं। इस साफ़ सुथरी फ़िल्म को परिवार की दो-तीन पीढ़ियाँ एक साथ बैठ कर देख सकती हैं और आनन्द उठा सकती हैं।

निर्देशक फ़िल्म विधा की माँग के अनुसार कहीं-कहीं पर किताब से विचलित भी होता है, मगर मूल आत्मा को नहीं छेड़ता है, वह ज्यों कि त्यों सुरक्षित है। छोटे-मोटे परिवर्तन हुए हैं जैसे किताब में मटिल्डा की जिस किताब को उसका पिता नष्ट करता है वह हरमन मेलविल कीमोबी डिक न होकर जॉन स्टीनबेक की रेड पोनी है। इसी तरह मिस ट्रंचबुल के स्कूल से पलायन के बाद फ़िल्म में मिस हनी स्कूल की प्रमुख बनती है, मगर किताब में ऎसा नहीं है, वहाँ एक अन्य शिक्षिका यह पद सम्भालती है। जब मिस ट्रंचबुल मिस हनी की क्लास ख़ुद लेने का फ़ैसला करती है तो जो सारा कुछ वहाँ बच्चों और उसके बीच होता है वह किताब में इतने विस्तार से नहीं है, मगर यहाँ वह मिस ट्रंचबुल और मटिल्डा के बीच एक लम्बी प्रतिद्वंद्विता बन जाता है। इस द्वंद्विता में मिस ट्रंचबुल का शारीरिक बल और मटिल्डा की मानसिक शक्ति के बीच मानो प्रतियोगिता हो रही है, ऎसा लगता है। जब मिस ट्रंचबुल एक बच्ची को उसकी चोटी से उठा कर, नचा कर फेंकती है तो वह किताब में ज़मीन पर गिरती है और उसे चोट लगती है जबकि फ़िल्म में उसे चोट नहीं लगती है। वह फूलों पर गिरती है और फूल लाकर अपनी टीचर को देती है। किताब में नीग्रो बच्ची को नीग्रो नहीं कहा गया है, वहाँ वह सिर्फ़ छोटी-सी निन्फ है। कथानक में हेरफेर फ़िल्म की माँग है। यह एक फंतासी फ़िल्म है अतः किताब की ग़रीब मिस हनी फ़िल्म में बहुत धनी न होते हुए ग़रीब भी नहीं है और भोतिक रूप से एक आरामदायक ज़िन्दगी बिताती दिखाई गयी है। मटिल्डा को जब मिस ट्रंचबुल सज़ा देने के लिए अलमारी में बंद होने का आदेश देती है तो मिस हनी उसे बचा लेती है, मगर किताब में उसे बंद किया जाता है। किताब में मटिल्डा कई क्लासिक किताबें पढ़ती है और बहुत अच्छा खाना बनाती है। लिखित कहानी ब्रिटेन में घटित होती है जबकि फ़िल्म अमेरिका में। एफबीआई की कहानी फ़िल्म में कई फ्रेम घेरती है जबकि किताब में वह महत्त्वपूर्ण नहीं है। फ़िल्म चाक्षुस कला है अतः इसमें स्पेशल इफेक्ट्स का भरपूर उपयोग किया गया है। वह दृश्य मनमोहक है जब मटिल्डा अपनी शक्ति का ज़श्न मनाती है और गाना गाकर नाचती हुई विभिन्न वस्तुओं को उनकी जगह से उठाती हटाती है।

1996 में बनी इस फ़िल्म ने जमकर पुरस्कार बटोरे। मारा विल्सन को यंग स्टार अवार्ड, डेनी डिविटो को बेस्ट डायरेक्टर अवार्ड (ओडियंस अवार्ड, स्टारबॉय अवार्ड), डेनी डिविटो को स्पोर्टिंग रोल अवार्ड आदि कई पुरस्कार मिले। इसे अन्य कई श्रेणियों में नामित किया गया था। रोअल डाल की किताब पर आधारित स्क्रीनप्ले निकोलस कज़ान ने तैयार किया है।
इस फ़िल्म के संवाद के क्या कहने ट्रंचबुल का विचार स्कूल के विषय में बताया जा चुका है। आ ज़रा मटिल्डा की माँ की बात भी सुनें। जब मिस हनी उसे बताती है कि आपकी बेटी बहुत इंटेलीजेंट है वह कहती है, एक लड़की इंटेलीजेंट होकर कहीं नहीं पहुँच सकती है। फिर वह मिस हनी और अपनी तुलना करते हुए कहती है ख़ुद पर और मुझ पर नज़र डालो। तुमने किताबें चुनी और मैंने सुन्दरता। मेरे पास एक अच्छा घर, एक वंडरफुल पति है और तुम रेंटा बहाते बच्चों को ए बी सी पढ़ाने की ग़ुलामी कर रही हो। तुम चाहती हो कि मटिल्डा कॉलेज जाए.. और हँसती है।

पिता-पुत्री के संवाद का नमूना देखें
हैरीः किताब ? तुम्हें किताब क्यों चाहिए ?
मटिल्डाः पढ़ने के लिए..।
हैरीः पढ़ने के लिए..? तुम किताब क्यों पढ़ना चाहती हो जब तुम टी वी के सामने बैठी हो ? ऎसा कुछ नहीं है जो किताब से मिलता है और टी वी से तेज़ी से नहीं मिल सकता है।
इसी तरह जब मटिल्डा पिता को ठगी करने से रोकना चाहती है उसका पिता कहता है, ‘मैं स्मार्ट हूँ तुम डम हो.., मैं बड़ा हूँ.. तुम छोटी हो.., मैं सही हूँ… तुम ग़लत हो.. और इसके विषय में तुम कौछ नहीं कर सकती हो..’ बस बात ख़तम। ट्रंचबुल के लिए बच्चे पैदा करना ग़लती है और उसने यह कभी नहीं किया। उसके लिए बच्चे गन्दी चीज़ हैं। स्कूल में क्लास के बोर्ड पर उसके द्वारा लिखा हैः यदि तुम मज़े कर रहे हो तो तुम सीख नहीं रहे हो। ’ उसकी समझ में नहीं आता है कि बच्चे बड़े होने में इतना समय क्यों लगाते हैं। उसे लगता है कि शायद जानबूझ कर उसे तंग करने के लिए वे ऎसा करते हैं। वह मिस हनी को धमकी देते हुए कहती है तुम्हें स्पेलिंग सिखाने के लिए कहा गया है, कविता नहीं। मिस ट्रंचबुल की भाषा सुन कर मुझे स्कूल टीचर्स के एके सेमीनार की याद आती है। इस सेमीनार के दौरान सेमीनार संचालक ने एक एक्टीविटी के दौरान टीचर्स से कहा कि वे ईमानदारी से उन शब्दों की लिस्ट बनाएँ जो वे बच्चों के साथ प्रयोग करते हैं उन्हें यह भी कहा गया कि इस सूची को किसी से शेयर करने की बाध्यता नहीं है। लिस्ट बनाने के बाद कुछ शिक्षकों ने शेयर किया और क़रीब-क़रीब सब शर्मिन्दा थे कि वे इस तरह की शब्दावली का प्रयोग करते हैं कि जिन शब्दों का उच्चारण करने से आज उनका माथा झुक रहा है।

इस फ़िल्म से संबंधित कुछ बातें जानना मज़ेदार होगा। फ़िल्म में मिस हनी के पिता मैग्नस का फोटो असल लेखक रोअल डाल का फोटो है। मिस हनी के बचपन की अपनी गुड़िया का नाम लिसी डॉल है असल में यह नाम कहानीकार की पत्नी का नाम है डाल ही डॉल बन गया है। मारा विल्सन जब मटिल्डा की भूमिका कर रही थी उसी दौरान उसकी असली माँ कैंसर से गुज़र गयी परंतु वह शूटिंग करती रही और इसे देख कर सब चकित थे। पहले केयली और ईटन टाईडॉल को मटिल्डा के रोल के लिए चुना गया था, मगर दोनों को फ्लू और बुखार हो गया और यह भूमिका मारा विल्सन की झोली में आई। अगर किसी ने यह फ़िल्म अभी तक नहीं देखी है तो उसे यह फ़िल्म अवश्य देखनी चाहिए। ख़ुद भी देखें अपने बच्चों को दिखाएँ अपने मित्रों को दिखाएँ और तो और उनके बच्चों को भी दिखाएँ। सब स्कूलों और सब शिक्षक-शि़क्षिकाओं और स्कूल प्रमुख को अवश्य दिखाएँ।

फ़िल्मः मटिल्डा (1996)
निर्देशकः डैनी डिविटो
निर्माताः डैनी डिविटो, माइकेल सीगल तथा अन्य
लेखकः रोअल डाल
स्क्रीन प्लेः निकोलस कज़ान
कथावाचकः डैनी डिविटो
अभिनयः मारा विल्सन,डैनी डिविटो, पाम फेरिस, रिया पर्लमैन, एम्बर्थ डेविड्ट्ज़
संगीतः डेविड न्यूमैन
समयः 98 मिनट

05 अगस्त, 2010

पाथेर पांचाली: Song of the little road

पाथेर पांचाली सत्यजित राय की एक निर्देशक के रूप में पहली फिल्म थी जो आज विश्व की सार्वकालिक महान फिल्मों में गिनी जाती है .1955 में आई यह फिल्म अपु त्रयी ( Apu - Trilogy )की पहली फिल्म थी , हालाँकि इस फिल्म को बनाते समय राय का तीन फिल्में बनाने का कोई इरादा नहीं था . यह फिल्म 1929 में प्रकाशित बिभुतिनाथ बंदोपाध्याय के उपन्यास 'पाथेर पांचाली ' पर आधारित थी . 1920 के आसपास के बंगाल के परिवेश पर लिखा गया यह उपन्यास भी प्रथमतया एक पत्रिका में धारावाहिक के रूप में छपा और बाद में पाठकों के लिए पुस्तक रूप में . कहा जाता रहा है की यह असल में लेखक के आरंभिक जीवन का ही चित्रण था. ये कहानी अपने पुश्तैनी घर को किसी कीमत पर न छोड़ने के लिए संघर्षरत एक परिवार की कहानी है . यह उस दौर की कहानी है जब देश में ज़मींदारी प्रथा का बोलबाला था , खासकर बंगाल में ! ग़रीब और छोटा किसान किस तरह हमेशा से ही ऋण से ग्रस्त रहा है और कभी न खत्म होने वाली उसकी परेशानियाँ किस तरह लगातार बढती ही रही हैं , ये बात इस फिल्म में बहुत गहराई से अनुभव की जा सकती है .

शीर्षक के शाब्दिक अर्थ की बात करें तो पाथेर शब्द का बंगाली में मतलब होता है ‘पथ का ’ और पांचाली बंगाल में गायी जाने वाली कथात्मक शैली का लोकगीत है . इस आधार पर इसका अर्थ हुआ पथ का गीत जिसके प्रस्तावित कई नामों में इसके अंग्रेज़ी संस्करण में नाम स्वीकृत हुआ ‘ Song of the little road ’ यानि ‘ एक छोटे - से रास्ते का गीत ’ .

अपु त्रयी की यह पहली फिल्म अपु के परिवार के सदस्यों के जीवन पर केन्द्रित है जिनमे उसके पिता हरिहर राय मंदिर में एक पुजारी हैं और उसी से जो थोडा बहुत मिलता है अपना घर चलते हैं . अपु की माँ सर्बजया बड़ी मुश्किल से अपने दोनों बच्चों अपु और दुर्गा का पालन पोषण कर रही है . दुर्गा अपु की बड़ी बहन है . इस परिवार में एक और सदस्य है इंदिर ठाकरुन जो वैसे तो अपु की बुआ है लेकिन उम्र में इतनी बड़ी है की दादी लगती है .दाँत गिर चुके हैं , झुक कर चलती है , घर के कोने में बने एक छोटे - से कुट्टड में रहती है और अपना खाना कम पड़ने पर जब तब सर्बजया की रसोई से खाने की चीज़ें चुपचाप ले जाती है . इस बात पर वह कई बार सर्बजया के गुस्से का शिकार भी हो जाती है . कई बार बात ज्यादा बिगड़ जाने पर अपनी फटी चटाई और पोटली लेकर अपने एक रिश्तेदार के यहाँ चली जाती है , जहाँ कुछ दिन रहकर वापस भी आ जाती है . दुर्गा कई बार पड़ोसियों के बग़ीचे से फल चुराकर अपनी बूढी बुआ के लिए ले आती है .इसके लिए कई बार वह पड़ोसन की डांट भी खाती है .यह बग़ीचा असल में हरिहर के ही बाप - दादाओं का था जो क़र्ज़ न चुका पाने के कारण हड़प लिया गया था . अपनी बेटी को इस तरह चोरी करता देख सर्बजया के स्वाभिमान को ठेस पहुँचती है और वह अपनी लड़की पर इसके लिए कई बार नाराज़ भी होती है . एक बार तो बात बहुत ही आगे बढ़ जाती है जब पड़ोसन उस पर एक हार चुराने का आरोप लगा देती है जिसका असल मकसद सर्बजया को पुराने क़र्ज़ न चुकाने के लिए शर्मिंदा करना होता है . दुर्गा अपु से बड़ी होने के कारण उसका एक माँ की तरह ख्याल रखती है . दोनों साथ - साथ खेलते हैं, खेतों- मैदानों के बीच दौड़ते हैं , मिठाई वाले के आने पर दूर तक उसके पीछे-पीछे चले जाते हैं , पिता से बाइस्कोप में चित्र देखने की जिद करते हैं , रामलीला देखने जाते है. गाँव के बच्चों की ट्रेन की आवाज़ इन बच्चों के लिए बहुत कौतुहल का विषय है जिसे बच्चे कभी देख नहीं पाए हैं .एक दिन हिम्मत करके दोनों खेतों और मैदानों के बीच से होते हुए पटरी के पास जा पहुचते हैं और पहली बार ट्रेन को देखते हैं . बच्चों के लिए ये दिन एक बड़ी उपलब्धि से कम नहीं है . एक दिन खेलकर लौटते वक़्त रास्ते में उन्हें अपनी बुआ इंदिर दिखाई देती है जो भूख और कमज़ोरी की वजह से मर चुकी है. बूढी बुआ द्वारा अक्सर गुनगुनाया जाने वाला गीत उसकी मृत्यु के बाद पार्श्व में बजता रहता है.

हरिहर अंततः पैसा कमाने के लिए नौकरी ढूँढने बाहर जाने का निर्णय लेता है और अपने परिवार वालों को ये आस बंधाकर निकलता है की एक दिन उसे अच्छी नौकरी मिलते ही उनके सारे दुःख दूर हो जायेंगे, घर की मरम्मत हो सकेगी , वे लोग अच्छे कपडे पहन सकेंगे. वह गाँव - शहरों में काम की तलाश में भटकता फिरता है और घर चिट्ठियां भेजता रहता है. दुःख के समय में सर्बजया के लिए ये चिट्ठियां बहुत बड़ा सहारा और उम्मीद है . इस सबके बीच एक दिन बारिश में ज्यादा भीग जाने से दुर्गा बीमार हो जाती है और पैसे के आभाव में उसकी हालत और बिगडती चली जाती है . एक भयानक तूफानी रात के बाद एक दिन वह भी दम तोड़ देती है . यह फिल्म का बहुत ही मर्मस्पर्शी क्षण है . आख़िरकार एक दिन हरिहर नौकरी मिलने के बाद ख़ुशी - ख़ुशी घर लौटता है . उसके हाथों में सबके लिए कुछ न कुछ उपहार हैं . बारिश के कारण घर की बद से बदतर हुई हालत उसे इतना परेशान नहीं करती जितना घर में बिखरा हुआ सन्नाटा . कुछ ही देर बाद घर में पसरी हुई चुप्पी विलाप में बदल जाती है जब हरिहर को पता चलता है की उसकी एकमात्र बेटी दुर्गा मर चुकी है . इस त्रासदी के बीच अंततः वे लोग अपना पुश्तैनी घर और गाँव छोड़ कर जाने का निर्णय ले लेते हैं . अंतिम दृश्यों में परित्यक्त घर है जिसमें सिर्फ उजाड़ पसरा हुआ है. एक सांप रेंगता हुआ घर के भीतर घुसता है. एक बैलगाड़ी संकरे रास्ते से गाँव से बाहर जा रही है , जिसमें तीन उदास और मजबूर चेहरे पीछे छूटते गाँव को सूनी आँखों से देख रहे हैं . पीछे छूटता रास्ता इस उदास चुप्पी का गीत गा रहा है .

हर फिल्मकार मूल कहानी में कुछ न कुछ फेर बदल करता ही है . सत्यजित राय ने भी कुछेक चीज़ों में बदलाव किये . जैसे बच्चों का ट्रेन देखने के लिए घर दूर निकल जाना मूल उपन्यास में कहीं नहीं था . बूढी बुआ इंदिर की मौत उपन्यास में बहुत पहले हो जाती है और उस वक़्त वह घर पर ही होती है .

सत्यजित राय न सिर्फ अच्छे फ़िल्मकार थे बल्कि एक अच्छे चित्रकार भी थे . वे अपनी फिल्मों के दृश्यों के स्केच भी खुद बनाया करते थे . पाथेर पांचाली की स्क्रिप्ट पूरी तरह लिखित रूप में नहीं थी. दृश्यों को कहीं गद्य के माध्यम से समझाया गया था तो कहीं सिर्फ रेखाचित्रों के माध्यम से. राय की टीम के ज़्यादातर लोग और कलाकार उनकी तरह नए थे. सिनेमेटोग्राफर के रूप में राय के साथ सुब्रता मित्र थे जो महज 22 साल की उम्र में पहली बार किसी फिल्म के लिए सिनेमेटोग्राफी कर रहे थे . कुछेक अनुभवी लोगों में आर्ट डिरेक्टर बंसी चन्द्रगुप्त थे जो पहले भी कुछ बड़े निर्देशकों के साथ काम कर चुके थे . लेकिन इस सबके बावजूद आखिर सत्यजित ने पाथेर पांचाली बना कर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा लिया .

1949 के दौरान सत्यजित एक विज्ञापन एजेंसी में काम करते थे जब इस उपन्यास पर फिल्म बनाने का विचार उन्हें आया . मशहूर फ़्रांसिसी फिल्मकार ज्यां रेनोइर उन दिनों अपनी फिल्म द रिवर की शूटिंग के लिए कोलकाता आये हुए थे . फिल्म की लोकेशंस दिखाने के सिलसिले में राय की उनसे मुलाकात हुई . राय ने उन्हें इस उपन्यास पर अपनी योजना के बारे में बताया तो ज्यां ने उन्हें यह फिल्म बनाने के लिए प्रोत्साहित किया . 1950 में राय को जब अपनी कंपनी की तरफ से लन्दन भेजा गया तो वहाँ अपने 6 महीने के प्रवास के दौरान उन्होंने तकरीबन 100 फिल्में देखीं जिनमें डी सिका की बाइसिकल थीफ ने उन्हें सबसे ज्यादा प्रभावित किया . कहते हैं इसी फिल्म को देखने के बाद राय ने तय कर लिया था की उन्हें अब सिर्फ और सिर्फ फ़िल्मकार ही बनना है .

देश के जाने मने सितार वादक पं.रविशंकर ने इस फिल्म में संगीत दिया था . फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक भारतीय संगीत के रागों पर आधारित था . बीच- बीच में सितार के स्ट्रोक दृश्यों के प्रभाव को और ज्यादा बढ़ाते हैं . बाँसुरी का प्रभाव गज़ब का है. इसके संगीत के बारे में कहा गया कि यह एक साथ दर्शक को दुःख और जीवन्तता की अनुभूति करवाता है . इन्ही कारणों से पाथेर पांचाली के संगीत को द गार्जियन में प्रकाशित टॉप 50 अंतर्राष्ट्रीय फिल्म साउंडट्रैक्स में शुमार किया गया .

पाथेर पांचाली को उस साल कान्स फिल्म फेस्टिवल में भी प्रदर्शित किया गया जहाँ यह सराही भी गयी और पुरस्कृत भी हुई . राष्ट्रीय पुरस्कारों के अलावा दुनिया भर के कई फिल्म फेस्टिवल्स में इसे कई पुरस्कार मिले. महान जापानी फिल्मकार अकिरा कुरोसावा ने फिल्म की रिलीज़ के कई साल बाद कहा था ".... मुझे यह फिल्म देखने के कई मौके मिले और हर बार मैंने खुद को और ज़्यादा अभिभूत पाया. इसमें एक विशाल नदी के प्रवाह का गाम्भीर्य और भव्यता है ..... बिना किसी अतिरिक्त प्रयास और बिना किसी अप्रत्याशित झटके के राय एक तस्वीर बनाते हैं और दर्शकों को झंझोड़ कर रख देते हैं. कैसे कर पाते हैं वे यह सब ? सिनेमैटोग्राफी की उनकी शैली में कोई भी चीज़ अप्रासंगिक या बेतरतीब नहीं है. और यही शायद उनकी श्रेष्ठता का रहस्य भी है ..." .

अमेय कान्त