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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

26 दिसंबर, 2019

हूबनाथ की कविताएँ




कत्लगाह

पशुवधगृह में 
जांचकर जानवरों को
लगाए जा रहे ठप्पे
उनकी पीठ पर
मुंबई विश्वविद्यालय
कलीना परिसर की 
बाहरी सड़क पर
पिछली आधी सदी से खड़े
पीपल बरगद गूलर जामुन
गुलमोहर आम कारंज
नारियल ताड़ वर्षावृक्ष
और भी जिनके नाम 
मुझे नहीं पता
ऐसे दो सौ से अधिक पेड़
जांचे जा रहे हैं
साताक्रुज़ चेंबूर लिंक
उड़नपुल गुज़रने वाला है
कई पेड़ तो हैं
बिलकुल किनारे
पर पुल की शोभा के लिए
हर पेड़ पर लग रही है
आधिकारिक परची
सरकार की
प्लास्टिक पर पाबंदी
लानेवाली सरकार ने प्लास्टिक की थैलियों में
करीने से साटकर
थाप दिए हैं उन पेड़ों पर
जो नितांत अनपढ़ हैं
और पढ़वा भी नहीं सकते
किसी राह चलते से
हत्यारे गिन रहे हैं पेड़
अपने सीने पर 
चिपकाए फ़रमान
अपनी मौत का
ख़ामोश खड़े हैं
दो सौ से अधिक 
आधी सदी पुराने पेड़
एकदम अकेले असहाय
क़त्लगाह में लाए गए
बेज़ुबान जानवरों की तरह
सबसे ऊंची पढ़ाई वाली
यूनिवर्सिटी से सटी सड़क
और किसी ने नहीं पढ़ा
फ़रमान क़त्ल का
सावन में काटे गए ये पेड़
जब सूखेंगे
तब जलाएंगे इन्सानी मुर्दे
करेंगे राख पूरे जिस्म को
तब ढूंढ़ नहीं पाएगा कोई
कौन सी राख पेड़ की है
कौन सी इन्सान की
बेज़ुबान की हाय 
कभी ख़ाली नहीं जाती
पेड़ों को न पाकर 
कभी भटक जाते हैं बादल
तो कभी बरसते हैं धारासार
मचाते हैं प्रलय
मरता है सिर्फ़ वही 
जो चुप रह जाता है तब
जब मारे जाते हैं पेड़
प्रलय में नहीं मरते देवता
न मंत्री न नेता न सौदागर
इनके घरों में नहीं भरता
बाढ़ का मटमैला पानी
नहीं भीगते इनके रेशमी वस्त्र
नहीं बहती इनकी रोटी
इनकी रोज़ी इनके मवेशी
नहीं ताकते ये आसमान
राहत सामग्री की भीख को
जो होते हैं धरती पर
पूरी तरह सुरक्षित
वे सबसे बड़ा ख़तरा हैं
धरती की सुरक्षा के लिए
मक़्तल तैयार है
छुरी गड़ांसों पर 
दी जा रही धार 
मुर्दागाड़ियां साफ़ हो रही
लोग चले जा रहे सड़कों पर
पैदल या गाड़ियों में
यूनिवर्सिटी में जुटाई जा रही
राहत सामग्री देशभर के
बाढ़ पीड़ितों के लिए
पर किसी को दीख नहीं रहा
कफ़न का छोटा टुकड़ा
जो टंगा है पेड़ों के सीने पर
मौत की ख़बर लिए
और हम सब
ख़ुशफ़हमी में मुब्तिला
कि जहाँ से फाड़े गए हैं
ये छोटे टुकड़े कफ़न के
वह थान कपड़े का
ख़त्म हो गया है पूरी तरह





सब

पूर्वार्द्ध

सब का साथ
सब का विकास
ये सब कौन हैं
जिन्हें सब ढूंढ़ रहे हैं
और सब परेशान हैं


उत्तरार्द्ध

पचहत्तर साल पहले
एक पागल बूढ़े ने बताया था
'सब' का अर्थ
पांत का आख़िरी आदमी
बिलकुल आख़िरी
जिसके बदन पर चिथड़े
खाली फूटी हांडी लिए
पीढ़ियों से खड़ा है
अपनी बारी के इंतज़ार में
जिसकी झोंपड़ी बह गई
कल की बाढ़ में
और वह भी
इनफ़ेलाइटिस के शिकार
अपने इकलौते बेटे को
जो अभी अभी दफ़ना कर
चूतड़ पर हाथ पोछते खड़ा है
और वह मुसम्मात बुढ़िया
जो विधवा पेंशन के
रुपये पांच सौ पाने को
जमा करवा कर आई है
पूरे पचास रुपए
बड़े बाबू के पास
और वह लड़की जो खड़ी है
जवान विधवा मां के साथ
जिसका बाप लटक गया
कर्ज़ के बोझ से
हल्का होने की ख़ातिर
वह जो ढेर सारे
नंगे भूखे बच्चों की भीड़
खेलने में मशगूल है
वे ही हैं 'सब'
जिसके बाद सीने पर
मौत का फ़रमान सटाए
खड़ा है भरापूरा जंगल
कटने के इंतज़ार में
और जिसके जिम्मे है
'सब' का विकास
वह एक दम आगे
सुसज्जित मंच पर
मखमली कालीन पर
अनासक्त भाव से
ध्यानस्थ सुन रहा
स्टीरियोफ़ोनिक साउन्ड में-
वैष्णव जन तो तेने कहिए
जे पीड़ पराई जाणे रे!




अहिंसा

ढाई आखर की
हिंसा
और
एक अकेला
देखें कब तक टिकता है!




समय नहीं है

मैं अभी शामिल नहीं होना चाहता
आपकी अकादमिक बहस में
आपकी शास्त्रीय  पुनर्व्याख्याएं
कर सकती हैं इंतज़ार
आपकी बहसें
मुल्तवी हो सकतीं हैं
आप कभी भी पाला लांघ
सुरक्षित ज़ोन में जा सकते हो
पर वे पेड़ हैं
वह भी हज़ारों
अपंग हैं
हिल तक नहीं सकते
अपनी जगह से
न चीख़ सकते हैं
न रो चिल्ला सकते हैं
मुझे अभी तुरंत पहुंचना है
उनका शुक्रिया अदा करने
पापों की माफ़ी मांगने
अदम्य इच्छा के बावजूद
बचा नहीं पा रहा उन्हें
आजकल बड़ी तेज़ी से हो रहे
फ़ैसले सरकार के
इतनी तत्परता तब नहीं देखी
जब मर रहे थे बच्चे
भूख और बीमारियों से
या डूब रहा था शहर
या बरस रही थी लाठियाँ
अन्यायग्रस्त शिक्षकों पर
जितनी तत्परता से
होता है फ़ैसला
पेड़ों के कटने का
हत्यारे पहुंचें
उससे पहले पहुंचना चाहता हूँ
हर उस बलिवेदी तक
जहाँ हैवानी सुविधाओं के
शैतानी यज्ञ में
दी जाएगी आहुति
बेकसूर बेज़ुबान बेबस पेड़ों की
आप जारी रखिए
अपनी बहस
अपने सेमिनार, गोष्ठियाँ
अपने बौद्धिक उत्सव
और टुच्ची उपलब्धियों के
महामहोत्सव
मैं वृक्षों के श्मशान होकर
लौटता हूँ शीघ्र ही
यह बताने
कि कब आएगी बारी हमारी




नि:शब्द

शब्द खड़े हैं क़तार में
ख़ामोश,भयभीत,निरीह
अर्थों के वस्त्र उतारे हुए
नितांत नंगे
निर्लज्जता में सहमे
बारी के इंतज़ार में
कुशल निपुण कसाई
हलाल करता
एक एक शब्द
छोटे बड़े नए पुराने
आत्मसमर्पित शब्द
बिना प्रतिरोध हो रहे क़त्ल
सिर झुकाए
चमत्कारी जादूगर
मरे शब्दों की खाल खींच
भरता है उनमें
जली पोथियों की राख
और बड़ी ख़ूबसूरती से सीकर
इंद्रधनुषी रंगों से सजा
लटका देता है उन धागों में
जिसके सिरे बंधे हैं
चतुर कलाकार की उंगलियों से
जो नचा रहा है
राख ठुंसे
उन अर्थहीन शब्दों को
जो कभी हुआ करते थे ब्रह्म
तन्मय होकर ताक रहे हैं
गूंगे बहरे आसन मारे