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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

20 सितंबर, 2019

अमित कुमार मल्ल की कविताएँ



अमित कुमार मल्ल

कविताएँ




1
जंगल लाकर सहन में बसा लिया
जानवर आकर, मेरे भीतर रहने लगा


2
पत्थर फेंकना है तो तराशिये ज़रूर,
तहज़ीब और कायदे का ये ज़माना है


3
ज़माने का नया दस्तूर है
अमन के लिए जंग लड़ी जाती है


4
हर चेहरे में, मैंने  इन्सान  ढूँढा  है
मेरा  जुर्म  संगीन है मुझे  सज़ा  दीजिये


5
दुनिया के मसायल छोड़ने पर भी
चैन से रहने न दिया, दोस्तों की दुआओ


6  
पिघलकर गम दौड़ रहा है
जिस्म के ज़र्रे-ज़र्रे में
गैरतमंद आँसू रुक न सके
ज़मीर की बेगैरत मौत पर


7
दोस्त नहीं मानते हैं तो दुश्मन भी मत मानिये
हर रिश्ते को अंजाम देना, ज़रूरी नहीं है


8
मैं मरा ही तो था, तुमने
इतने सारे फूल बिछा दिए मेरी कब्र पर
लगता है अब तुम ,
लौट के नहीं आओगे


9
है मेरे जिंदगी का अंदाज़ जुदा
मैं ईमान के साथ रहा, हस्ती बिखर गयी


10
कल मेरे घर पर कुछ पत्थर गिरे थे
एहसान उतारा है कुछ लोगों ने मेरा


11
मैं मुस्कराता बहुत मगर
सुखा डाला है मुस्कराहट को तेरी सूनी आँखों ने

मैं उड़ता आसमाँ में, मगर
तेरे बँधे पंख उड़ने से रोक देते हैं

मैं झूमना चाहता हूँ, मगर
तेरी बेबसी की लड़खड़ाहट याद आती है

लोग कहते हैं खुश हो मगर
तेरे दिल का दर्द मुझे भी रुलाता है

उँचाइयों की तमन्ना दिल में तो, मगर
अपने साथियों को भुलाऊँ कैसे


12
कुछ
प्रश्न,
दाएँ
बाएँ करते

बचते
बचाते
फिर भी टकरा जाते हैं

प्रश्नों से
मैं नज़र नहीं
मिला पाता

आँखों
की
करुणा
कमज़ोरी

तलवार निकलने
के बाद
चलने नहीं देती

प्रश्नों
से
टकराना होगा
टकराना ,
भी
कुछ प्रश्नों का हल है


13
वक़्त
समंदर बन
या सैलाब

लहरों के साथ
थपेड़े पर
उड़कर भी
नहीं डूबूँगा

तैरूँगा
तिनके की तरह


14
लड़ो
लड़ो
लड़कर जीतने के लिए

जीत
न हो
लड़ो
जमकर लड़ने के लिए

साँस न दे
साथ अंत तक
लड़ो
लड़ने की शुरुआत के लिए

प्रारंभ न
हो तो भी
लड़ो
लड़ाई के विश्वास के लिए

विश्वास
बन जाये
पिघलती बर्फ़
लड़ो
लड़ाई के सपने के लिए


15
लिखना
मेरी भी एक दास्ताँ
देना मुझे भी कागज का टुकड़ा

लिखना
वह लिखता था
जब कोई पढ़ता नहीं था

लिखना
वह बोलता था
जब   लोग  चीख नहीं पाते थे
ज़बाँ चिपक जाती थी

लिखना
वह तब भी विश्वास करता था
जब
संदेह किया जाता था
उसकी
इयत्ता पर

लिखना
वह
तब भी इन्सानियत देखता था
जब केवल
जाति
धर्म
वर्ग
देखा जाता था

और लिखना
वह
तब भी परिचय की
मुस्कराहट लिये खड़ा रहता था
जब
कोई किसी से मिलता नहीं
जब
कोई किसी से मिलना नहीं चाहता
किसी को जानना नहीं चाहता


16
अखबार नवीसो
लिखना
यह स्थान लिखना
यह वक्त लिखना
यह पहर लिखना
मेरा नाम लिखना
मैंने ही यह
एलान किया है
यह भी लिखना

सामने
दिख रहे
गुलाब का फूल
खुशबू वाला है
सुन्दर है
अच्छा है
लेकिन लिखना
इसकी टहनियों में
काँटे भी है
जो अक्सर गड़ते हैं
दुःख देते हैं

मैं देख रहा हूँ
स्पर्धा
स्पर्धा नहीं है
खरगोश और
भेड़िये की दौड़ है

जिन
असहाय वृद्धों को
मनुष्यो के जंगल मे
जीने को छोड़ा है
उन्हें
समाज की छतरी
वक्त की मार से
नहीं बचा पा रही है
ये असहाय
असमय हो गए

यह भी लिखना
कोई सुविधा भोग रहा है
कोई सुविधा खोज रहा है
हर कोई
भाग रहा है
खोज रहा है


17
खटखटाऊँ किस चौखट पर
आवाज़ दूँ किस चौराहे पर
इस शहर की
हवा बहरी है

चीखती, काँपती, गूँजती आवाज़ें
सहमाती है मेरे आइने को
किसको पुकारूँ,
इस शहर के आइने में,
अक्स नहीं उभरता

थरथराती आवाजों में
ज़िंदगी लड़ रही है
साथ के लिए कब तक पुकारूँ
गूँगी साँसों के शहर में

इस सन्नाटे के शहर में
मरी आत्माओं को सुनाने
हर चौखट खटखटाऊँगा
चौराहे पर  पुकारूँगा
पुकारूँगा
पुकारता ही रहूँगा
आवाज़ के रहने तक


18
साफ़ सुथरा
अच्छा
चमकता
दिखने के लिये

यह केवल
जरूरी नहीं है कि
आप अच्छे हों
साफ़ हों
चमकते हों

यह भी ज़रूरी है कि
शीशा साफ़ हो
ताकि
उसमें से आप दिखें
चमकते
साफ़ सुथरे
अच्छे!


19
मैं जानता हूँ
जून की दोपहरी में
बहती लू में
कलियाँ नहीं मुस्करातीं

जानता हूँ मैं
भागते -भागते
थककर जिस दीवार पर टेक ली
उसी के खंजरों ने
छुरा घोंपा था

लिपटते घिसटते भागते
रेत में पानी दिखने पर भी
पानी नहीं मिलता

सत्य धर्म पर
रहते
लड़ते भी
विजय नहीं मिलती

तमाम मेहनत व नेक नियत
के बाद भी
हर बार
हार जाते  हो
कोई साथ नहीं देता
कोई सहारा नहीं देता

जानता हूँ मैं
नाउम्मीदी के मंज़र में
उदासी ही पलती है

मैं जानता हूँ
हार सिर्फ़ हार नहीं होती
चोट होती है
आत्म विश्वास पर
दिल पर
दिमाग पर

यह भी जानता हूँ
लहरों से लड़कर भी
किनारों से हारता है आदमी

इसीलिए तुम गुमसुम रहती हो
उदास रहती हो
रोती रहती हो

हार में हँसी भी हारती है
ताज़गी भी हारती है
प्रसन्नता भी हारती है

तुम रो लेना
मन कहे तो और रो लेना
उम्मीदों की मौत पर रो लेना
आत्मविश्वास खंडित है तो भी रो लेना
लेकिन
लड़ना
लड़ना मत रोकना
ज़िंदगी की अंतिम साँस तक



               
                         

परिचय


अमित कुमार मल्ल 


जन्म स्थान : देवरिया

शिक्षा : एम 0 ए 0, एल 0 एल 0 बी0

व्यवसाय : सेवारत (कानपुर नगर में)           

रचनात्मक उपलब्धियाँ :
1982 से साहित्यिक क्षेत्र में
प्रथम काव्य संग्रह - 'लिखा नहीं एक शब्द'  2002 में प्रकाशित
प्रथम लोक कथा संग्रह - 'काका के कहे किस्से' 2002 में प्रकाशित
दूसरा काव्य संग्रह - 'फिर' , 2016  में प्रकाशित
2017 में  ,प्रथम काव्य संग्रह - 'लिखा नही एक शब्द' का अंग्रेजी अनुवाद 'Not a word was written' प्रकाशित
काव्य संग्रह - 'फिर' की कुछ रचनाये , 2017 में ,पंजाबी में अनूदित होकर 'पंजाब टुडे' में प्रकाशित
तीसरा काव्य संग्रह - 'बोल रहा हूँ' , वर्ष 2017 में प्रकाशित
नवीन काव्य संग्रह - 'बूँद बूँद पानी' , प्रकाशन हेतु प्रेस में
कविताएँ, लघुकथाएँ एवं लेख  देश के प्रमुख समाचारपत्रों व पत्रिकाओं में प्रकाशित

पुरस्कार / सम्मान :
राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, उत्तर प्रदेश द्वारा 2017 में, डॉ शिव मंगल सिंह सुमन पुरस्कार, काव्य संग्रह 'फिर' पर दिया गया ।
सोशल मीडिया पर लिखे लेख को 28 जन 2018 को पुरस्कृत किया गया ।

अन्य :
लखनऊ आकाशवाणी केंद्र से काव्य पाठ प्रसारित
फिर काव्य संग्रह की कुछ कविताएं पंजाबी पत्रिका में अनुवादित होकर प्रकाशित
सत्र 2018-19 में दो विश्वविद्यालयों में एम0 ए0 के उत्तरार्द्ध में 2 लघु शोध प्रस्तुत

मोबाइल : 9319204423
ई मेल : amitkumar261161@gmail.com
ट्विटर : https://twitter.com/amitmall1906?s=09
ब्लॉग : https://amitkumarmall.blogspot.com/?m=1

11 सितंबर, 2019

फिर गाँधी चाहिए

डॉ.अजय तिवारी
 
गाँधी ने जिस देश को भयमुक्त किया था, वह आज फिर भयग्रस्त मानसिकता का बंदी है. यह भय बहुत-सी काल्पनिक आशंकाएँ पैदा करता है. आशंकाएँ हमें कायर और क्रूर एक साथ बनाती हैं. वे भयग्रस्त कायर लोग हैं जो कभी बच्चाचोर मानकर, कभी गोहत्यारा मानकर किसी निरीह-निर्दोष नागरिक के साथ क्रूरता का बर्ताव करते हैं. गाँधी जिस भय से लोगों को मुक्त कर रहे थे, वह १९१९-२० में डेढ़ सौ साल के अंग्रेजी दमन से बद्धमूल हुआ था. सौ साल बाद आज हमारा समाज जिस भय से ग्रस्त है, वह राजनीति द्वारा सधे हुए मनोवैज्ञानिक युद्ध की रणनीति से पैदा किया गया है—देश की असुरक्षा का भय, समाज में फैले गद्दारों का भय, और इसके लिए अपने ही समाज के एक हिस्से को शत्रु की तरह प्रचारित किया गया है. यह सब तर्क-बुद्धि को निकालकर केवल उत्तेजना का सहारा लेकर किया जाता है. अन्यथा एक ओर देश के सशक्त होने का डंका बजाना, दूसरी ओर देश के खतरे से घिरे होने का भय जगाना, दोनों परस्पर-विरोधी बातें साथ-साथ चल नहीं सकतीं. गाँधी ने लोगों को भयमुक्त करते हुए बड़े-बड़े आन्दोलनों का सूत्रपात किया था, इसके लिए उन्होंने ‘खादी’ के रूप में राष्ट्रीयता का और ‘चरखा’ के रूप में स्वदेशी का प्रतीक निर्मित किया था; लेकिन आज बिलकुल भिन्न उद्देश्य से आन्दोलनों का उपयोग करके ‘आस्था’ और ‘शत्रु’ के प्रतीक निर्मित किये गए हैं—मंदिर और मुसलमान. गाँधी की वैष्णव आस्था ‘पीड पराई’ से परिभाषित होती थी, आज ‘हिंदुत्व’ की आस्था परपीडन में व्यक्त होती है. इसलिए एक का परिणाम समाज को जाग्रत करना था, दूसरे का उत्तेजित करना.
 
यह अलग बहस है कि आज ‘आस्था’ का लोगों के वास्तविक जीवन से संबंध है या नहीं; उनकी हजारों वर्षों की जीवन-पद्धति और विश्वास प्रणाली से उसका संबंध है या नहीं; इससे हमारे विशाल देश की सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता की बलि तो नहीं चढ़ रही है? गाँधी ने स्वाधीनता के स्वप्न को लोगों के जीवन का यथार्थ बना दिया था जिसके लिए वे सर्वस्व निछावर करने को तैयार थे. हम अपने समय में जिन कल्पनाओं को आस्था का विषय मान बैठे हैं, उनका न सामाजिक समस्याओं से लेना-देना है, न मानवीय मूल्यों से. संयोग नहीं है कि इस समय गाँधी के हत्यारे को गौरवमंडित किया जाता है. हम देखते हैं कि गाँधी के प्रभाव से लोग आत्मबलिदान के लिए तैयार होते थे, किसी की हत्या के लिए नहीं और इसे ही सच्ची वीरता मानते थे; लेकिन गाँधी के हत्यारे के महिमामंडन के समय हम दूसरे की हत्या को वीरता मानते हैं, आत्मबलिदान को कायरता. दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह के समय एक पठान ने गाँधी को लिखा था कि अपने स्वभाव के विपरीत निर्दय पिटाई के बावजूद हमने हाथ नहीं उठाया, आपका यही आदेश है न!
 
गाँधी का कहना था, युद्ध से युद्ध को, हिंसा से हिंसा को और भय से भय को नहीं मिटाया जा सकता. वर्तमान संसार इस बात की सत्यता का उदाहरण है. इसीलिए वे प्रतिशोध को नहीं, प्रतिरोध को अपनी रणनीति बनाते थे. प्रतिरोध का लक्ष्य विरोधी को परस्त करना नहीं, परिष्कृत करना था. दूसरों को हम तभी परिष्कृत कर सकते हैं, जब स्वयं उन दोषों से मुक्त हों. इसलिए गाँधी की हर कार्रवाई एक सिरे पर अपने समाज या व्यक्तित्व के सुधार से जुडी होती थी, दूसरे सिरे पर सार्वजनिक जीवन से. गाँधी जिन अंग्रेजों से लड़ रहे थे, वे विदेशी थे. गाँधी कहते थे कि अँगरेज़ व्यावसायिक स्वार्थों के कारण भारत को गुलाम बनाकर रखना चाहते हैं. इस गुलामी को कायम रखने के लिए उन्होंने दमन और आतंक से भारतवासियों को भयभीत किया था. हमारे वर्तमान शासक देशी हैं, लेकिन वे ‘आस्था’ जैसी पवित्र चीज़ को अपने ही समाज के एक अंग के प्रति आक्रामक बनाकर घृणा के ज़रिये यह भय उत्पन्न कर रहे हैं. गाँधी को विदेशी सत्ता के विरुद्ध पूरे भारतीय जनमानस को एकजुट करना था, इसलिए वे उन्हीं मुद्दों को चुनते थे जो अधिकांश जनता के हितों से सरोकार रखते थे. वर्तमान शासकों को सत्ता में रहने के लिए समाज के एक हिस्से का समर्थन चाहिए, इसलिए वे समाज के एक हिस्से को ‘गौरव’ से उकसाते हैं, दूसरे हिस्से को ‘शत्रु’ के रूप में चित्रित करके ध्रुवीकरण करते हैं. संभव है, गाँधी ‘चतुर बनिया’ रहे हों, पर यह एक कुटिल रणनीति है.
 
गाँधी जब भय का प्रतिकार करते थे तो लोग न आपस में डरते थे, न शासन से डरते थे, न खुद गाँधी से डरते थे. लेकिन आज जिस हिस्से के ‘गौरव’ को उकसाया जाता है, वह कम भयभीत नहीं है. रोज़गार, महँगाई, असुरक्षा और अनिश्चित भविष्य को लेकर वह जिन दुःशंकाओं में फँसा है, वे समाधान न पाकर काल्पनिक छायाएँ उत्पन्न करती हैं. इन दुःशंकाओं को मोड़कर एक काल्पनिक शत्रु के खिलाफ सक्रिय करने का काम एक पूरी व्यवस्था करती है, पूँजी-मीडिया-राजनीति की संगाहित प्रणाली. भय को एक समुदाय की ओर मोड़कर नफ़रत का संचार करना आसान हो जाता है, इस नफ़रत से भरे लोगों को गर्व की अनुभूति करायी जाती है. ‘गर्व से कहो...’ जैसे नारे अभी याद होंगे. गाँधी जिन पूर्वाग्रहों से लड़ रहे थे, उन्हीं पूर्वाग्रहों को पुनर्स्थापित करने की वर्तमान प्रक्रिया इतिहास की प्रगति का सूचक नहीं हो सकती. याद करें, मैरिट्सबर्ग रेलवे स्टेशन पर गाड़ी से उतारे जाने के बाद वहाँ रात भर बैठे हुए गाँधी ने गोरों में जड़ीभूत उन नस्लवादी संस्कारों को निर्मूल करने का संकल्प लिया था. आज उस तरह के मृत संस्कारों को उससे भी प्रबल पूर्वाग्रहों के साथ जनमानस में बिठाने का अभियान चलाया जाता है. इस अभियान में राजनीति, संचार माध्यम, दिन-रात प्रचार में जुटे भाड़े के टट्टू, सब शामिल हैं. वास्तव में यह समाज के विरुद्ध निहित स्वार्थों का युद्ध है. जबकि गाँधी निहित स्वार्थों के विरुद्ध समाज का युद्ध लड़ रहे थे.
 
गाँधी ने पूर्वाग्रहों से लड़ने के लिए सत्याग्रह का तरीका अपनाया था. सत्याग्रही के लिए विरोधी भी शत्रु नहीं होता. उसका उद्देश्य ही रचनात्मक है—अपना और दूसरे का परिष्कार. इसलिए सत्याग्रह केवल राजनीतिक हथियार नहीं था, नैतिक साधन भी था. यह संयोग नहीं है कि जिस तरह की आत्मसाधना और समाज-सुधार का सामंजस्य भक्त कवियों में दिखाई देता है, उसी का पुनराविष्कार आधुनिक सन्दर्भ में गाँधी ने किया. पूर्वाग्रहों को उकसाने की जो राजनीति आज की जाती है, उसमें आसपास के लोग भी शत्रु मान लिए जाते हैं, अजनबियों की कौन कहे! भय के कारण कहीं और विद्यमान हैं लेकिन उन्हें पृष्ठभूमि में करके अपने आसपास शत्रु के होने का भय लोगों में असुरक्षा की भावना जगाता है. ऐसा मनोविज्ञान आदमी में छिपी क्रूरता को सक्रिय कर देता है. वह किसी भी सीमा तक हिंसक हो जाता है. ऐसी एक कार्रवाई व्यापक भय का वातावरण बनाती है, ‘शत्रु’ को भयभीत करती है. यह नहीं सोचा जाता कि जैसे हमारा भय क्रूर बनाता है, वैसे ही यदि भयभीत समुदाय का भी रूपांतरण प्रतिहिंसा में हुआ, तब? गाँधी सही कहते थे, हिंसा से हिंसा उपजती है, क्रूरता से क्रूरता. ‘आस्था’ वाले यह बात न सोचें, इसके लिए अस्मिता या ब्रांड की रणनीति द्वारा एक आख्यान तैयार किया जाता है जो आसानी से जगह बना ले. गाँधी का आख्यान इसके विपरीत था. वह समाज को विखंडित करनेवाला नहीं, उसे एकताबद्ध करनेवाला था. मानवीय प्रेरणा और आत्मिक शक्ति का आख्यान. इसलिए आज गाँधी फिर ज़रूरी हो गए हैं. शायद पहले से अधिक।


('राष्ट्रीय सहारा' से साभार)

09 सितंबर, 2019

माँ मेरी ओर पीठ करके कभी नहीं सोई - शरद कोकास



शरद कोकास


माँ मेरी ओर पीठ करके कभी नहीं सोई


बचपन दरअसल सवालों का ही दूसरा नाम होता है  बचपन के सवालों में ऐसे अनेक सवाल होते हैं जिनके  जवाब किसी के पास नहीं होते  हम बड़े होकर भी उन सवालों के जवाब खोजते रहते हैं  न हमारे माँ बाप हमारे सवालों के जवाब दे पाते हैं, न हम अपने बच्चोंको उनके सवालों के जवाब दे पाते हैं 

वे गणेशोत्सव के दिन थे  शहर में उत्सव का माहौल था जगह जगह गणेश प्रतिमाओं की स्थापना, गाना बजाना, सांस्कृतिक कार्यक्रम, शोर शराबा  हम बच्चों के लिए तो यह उत्सव जैसे वरदान था 

एक जगह गणेश की प्रतिमा देखकर लौटते हुए मैंने माँ से पूछा मैंने " माँयह गणेश जी हाथी के बच्चे हैं कि आदमी के ?"

मेरे मासूम सवाल पर माँ  को हँसी आ गई " ऐसा सवाल तुम्हारे मन में कैसे आया क्यों ? वे न आदमी के बच्चे हैं न हाथी के. वे तो देवता के बच्चे हैं " मैंने कहा " लेकिन  दिखते तो आधे हाथी के हैं और आधे आधे आदमी के ?"



माँ ने कहा " देवता भी तो आदमी जैसे ही होते हैं  जैसे मनुष्य वैसे उसके देवता “ “ मतलब हाथी के देवता हाथी जैसे होंगे ?” मैंने फिर सवाल किया । दरअसल ऐसा नहीं है।मेरे सवाल पर माँ गंभीर हो गई थी   इसके पीछे भी एक कहानी है । " माँ मुझे अक्सर खूब अच्छी अच्छी कहानियाँ सुनाया करती थी , पुराण कथाएँ , महाभारत की कथा , रामायण की कथा । उनकी कथन शैली इतनी अच्छी थी कि पूरी कहानी अच्छी तरह समझ में आ जाती थी महाराष्ट्र में वैसे भी कविता पाठ की भांति सार्वजनिक कहानी पाठ की परंपरा है जिसे कथोपकथनकहते हैं 

 "एक बार क्या हुआ कि पार्वती जी स्नान करने जा रही थी  सुबह का समय था  घर मे कोई नही था  अब नहाने कैसे जाएँ तो उन्होंने किसी को दरवाजे पर बैठाना चाहा ताकि कोई भीतर न आ पाये ।" माँ ने मेरे सवाल के जवाब में कथा कहना प्रारम्भ किया

"लेकिन माँ उनके भी बाथरूम में दरवाज़ा नही था क्या ?" मैंने कहा । " उनके यहां अपने यहाँ के बाथरूम जैसा जैसा परदा तो टंगा ही होगा ?

हम लोग उस समय भंडारा के देशबंधु वार्ड में किराए के एक बहुत पुराने मकान में रहा करते थे जिसमें बाथरूम नहीं था इसलिए पिछवाड़े आंगन में ही एक जगह घेरकर पर्दा टांगकर बाथरूम बनाया गया था । लेट्रीन भी उन दिनों कच्ची हुआ करती थी 

तुम सवाल बहुत करते हो ।" मां ने हल्की सी चपत लगाईं  ।" हां हो सकता हैऐसा ही कुछ रहा होगा । और फिर घर मे कोई नही था ऐसे में कोई आ जाता तो ? शंकर जी भी कहीं घूमने गये थे ।"

"ज़रूर मॉर्निंग वॉक पर गए होंगे ।" मैंने कहा । माँ मुस्कुराई " हां वे तो रोज़ जाते ही थे, कैलाश पर्वत पर, अपने भक्त गणो की सुध लेने । उनके चेले चपाटे भी तो बहुत सारे थे  तो हुआ यह कि पार्वती जी को एक उपाय सूझा  उन्होंने अपने शरीर से मैल निकाला और उस मैल से एक बालक का शरीर बना दिया और उसमें जान डालकर उसे दरवाजे पर पहरे के लिए बैठा दिया । "

" एक मिनट मां”  मेरे दिमाग में एक नया सवाल उमड़ घुमड़ रहा था   इसका मतलब पार्वती जी कितने दिनों से नहीं नहाई थी जो उनके शरीर से इतना मैल निकला जिससे एक बालक बन गया ?

माँ हंसने लगी । उन्होंने कहा " हाँ इतना मैल तो नही होगा ..हो सकता है कुछ मिट्टी विट्टी और मिलाई हो ।"

"अच्छा फिर क्या हुआ ?" उसमे जान कैसे डाली गई , उसके भीतर के अंग हार्ट लीवर किडनी आदि कैसे बने जैसे तार्किक सवाल छोड़कर आगे का हाल जानने की मेरी उत्सुकता बढ़ गई थी । "बस इसके बाद वे नहाने चली गई । थोड़ी देर बाद शिवजी वापस आए । उन्होंने देखा कि उनके घर के दरवाजे पर एक बालक बैठा है । वे भीतर जाने लगे तो उसने उन्हें रोका " मैं तुम्हें भीतर जाने नहीं दूंगा ।  शिव जी ने कहा "ऐसे कैसे नहीं जाने दोगे यह तो मेरा ही घर है । क्या नाम है तुम्हारा कौन हो तुम तो बालक ने कहा 'मेरा नाम गणेश है  मेरी मां भीतर नहा रही है और उन्होंने कहा है कोई भी हो उसे भीतर नहीं आने देना है ।

शिव जी को लगा ज़रूर यह कोई मायावी है अभी मैं सुबह गया था तो यह नही था । उनको बहुत गुस्सा आया क्रोधी स्वभाव के तो वे थे ही उन्होंने अपने त्रिशूल से झट उसकी गर्दन काट दी ।

"अरे बाप रे । "मैं चौंक गया ।"फिर क्या हुआ?" मां ने कहा " बस इतनी देर में पार्वती जी नहा कर आई । उन्होंने देखा कि उनके बेटे की गर्दन कटी हुई है । उन्होंने शिव जी को असलियत बताई तो शिव जी बहुत पछताए । तो पार्वती जी ने कहा कोई बात नहीं प्रभुअब इसकी गर्दन वापस जोड़ दो । शिवजी ने कहा 'यह गर्दन तो खराब हो गई है  चाहो तो इसकी जगह दूसरे किसी प्राणि की गर्दन जोड़ सकता हूँ ।पार्वती जी ने क्षण भर विचार किया और फिर कहा ..'जाओ तुम कहीं से भी इसके लिए गर्दन लेकर आओ ।"

"शिवजी ने अपने चेलों को आदेश दिया उनके सारे गण किसी अन्य प्राणी की गर्दन लेने निकल गए  कुछ देर बाद एक गण समाचार लेकर आया .. प्रभु, एक जगह एक हथिनी अपने बच्चे की तरफ पीठ करके सो रही है उसका ध्यान उसके बच्चे की ओर नहीं है उसकी गर्दन काटी जा सकती है । बस शिवजी वहाँ पहुँचे और उन्होंने हथिनी के उस बच्चे की गर्दन काट ली और उसे लाकर गणेशजी के धड़ से जोड़ दिया । तबसे गणेशजी धड़ आदमी का और सिर हाथी का हो गया ।"






गर्दन काटे जाने की वीभत्स कल्पना से मेरा दिल दहल उठा लेकिन मैंने शीघ्र ही अपनी भावनाओं पर नियंत्रण कर माँ से कहा "अच्छा मां इसीलिए तुम कभी मेरी ओर पीठ करके नहीं सोती हो ना ।मेरे दिमाग की बत्ती तुरंत जल गई थी और मैं माँ कि ओर देख रहा था ।

"हाँ बेटा यही कारण है । मां भावविव्हल हो गई उनकी आँखों के आकाश में वात्सल्य के सितारे चमक उठे ... और मेरा बच्चा”  कहकर उन्होंने मुझे अपने सीने से चिपटा लिया ।

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बरसों बीत गए इस बात को  आज भी मुझे याद आता है, बचपन में  जब तक मैं माँ के पास सोता रहा मां को कितनी भी तकलीफ हो मां पूरी पूरी रात एक ही करवट पर मेरी ओर मुँह करके ही सोती थी।

पता नहीं यह कहानी आपने सुनी है या नहीं लेकिन यह सब आपके साथ भी हुआ होगा। माँ की ममता की बौछार में आप भी भीगे होंगे  आपको तो  याद भी नहीं होगा जब आप बिस्तर गीला कर देते थे मां आपको सूखे हिस्से पर लिटाकर खुद गीले हिस्से में लेट जाती थी । दुनिया की कोई भी मां कभी नहीं चाहती कि उसके बच्चे को ज़रा सी भी तकलीफ हो ।

आज सोचता हूँ क्या उस हथिनी मां के दुख को कभी कोई देवता समझ पाया होगा जिसके बच्चे का शीश सिर्फ इसलिए काट लिया गया कि वह एक बार अपने बच्चे की ओर पीठ करके सो गई  उसके बच्चे का शीश जिनके धड़ पर लगा है आज वे देवताओं के देवता है लेकिन उस हथिनी माँ की किसीको याद है ? पार्वती जी को अपने बच्चे की चिंता थी लेकिन वे खुद माँ होकर एक माँ के दुःख को कैसे भूल गईं ? आज भी जाने कितनी माँओं के बेटे युद्ध में मारे जाते हैं , दंगों में मारे जाते हैं या भीड़ द्वारा मार दिए जाते हैं उन माताओं की पीड़ा कोई समझ सकता है क्या जिन माताओं से उनके बच्चे छीन लिए जाते हैं उनके दुख को भी कोई समझ पाता है ?

मैं मां से यह बात भी कभी नहीं पूछ पाया आख़िर उस मां को ज़रा सी गलती की इतनी बड़ी सज़ा क्यों मिली और यह भी कि क्या यह वाकई गलती थी ?

कुछ कुछ सवालों के जवाब जीवन भर नहीं मिलते