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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

31 जुलाई, 2009

सिटिजन केन



सिनेमा के इतिहास के षीर्श व्यक्तित्वों में से एक आर्सन वेल्स जो अमेरिका के केनोसो, विस्कांन्सिन में 1915 में पैदा हुए थे और 1985 में जिनका निधन हुआ, के कृतित्व का अंतिम रूप से कोई मूल्यांकन अभी मुमकिन नहीं है । षायद निकट भविश्य में भी नहीं । इसलिये कि उनकी जितनी फिल्में पूरी और प्रदर्षित हो सकी थीं, उनके बराबर या षायद उनसे भी ज्यादा वे हैं जो अधूरी रह गयीं थीं या पूरी होने के बावजूद प्रदर्षित न हो सकीं । एक फिल्म ( ‘डान क्विग्जोट’, संर्वाटीज के क्लासिक उपन्यास पर आधारित ) पूरी होने के बाद एक बार सिनेमाघरों में प्रदर्षित हुई थी लेकिन उसके बाद उसका कोई अता पता नहीं । बहुत सारी फिल्में कापीराइट, रायल्टी और उत्तराधिकार के पारिवारिक, कानूनी पचड़ों में फँसी, अमेरिका में कहीं उनके मकान के सीलन भरे बंद कक्षों और तहखानों में, लाकरों और संदूकों में नश्ट हो रही हैं । 1996 में आयी वसीली सिलोविक की डाक्यूमेंटरी फिल्म ‘‘आर्सन वेल्स: द वन मैन बैंड’’ इसी विशय पर थी । इस फिल्म में उनकी ऐसी ढ़ेरों पूरी और अधूरी फिल्मों का जिक्र्र्र आता है: ‘द अदर साइड आफ द विंड’, ‘फिल्मिंग ‘द ट्रायल’’, ‘द डीप’, द ड्रीमर्स’, ‘द मर्चेंंट आफ वेनिस’, ‘डान क्विग्जोट’, ‘आर्ट आफ डार्कनेस’ और ‘कैच 22’ से लेकर ‘क्र्राइम एंड पनिषमंेट’ तक अनेक प्रसिद्ध उपन्यासों और षेक्सपियर के तमाम नाटकों के फिल्माये अंष । 1975 में बनी ‘द अदर साइड आॅफ विंड’ उनकी सबसे महत्वाकांक्षी, जटिल फिल्म बताई जाती है, जिसमें एक बूढ़ा फिल्म निर्देषक संदेही मीडिया और उदासीन हालीवुड के तंत्र के बीच एक फिल्म बनाने की कोषिष कर रहा है । जिन चंद फिल्म छात्रों और समीक्षकों को यह फिल्म, जो स्पश्टतः आत्मकथात्मक है, देखने का मौका मिला है, वे इसे उस ‘चरम सिनेमा’ की श्रेणी में रखते हैं जिसमें राषोमोन और पथेर पांचाली जैसी फिल्में आती हैं । उनकी यह फिल्म पूरी फिल्माई जा चुकी थी, केवल संपादन, ध्वनि प्रभावों और पाष्र्वसंगीत का कुछ काम बाकी था । संभवतः यह फिल्म भविश्य में कभी सामने आ सकेगी । 1969 में बनी ‘द मर्चेंंट आफ वेनिस’ पूरी होकर भी प्रदर्षित नहीं हो सकी क्यों कि उसके साउंडट्रैक की तीन रीलों में से दो चोरी हो गयीं । वे अपनी एक कहानी ‘लांडरू स्टोरी’ पर फिल्म बनाना चाहते थे लेकिन यह मुमकिन नहीं हुआ । बाद में चैप्लिन ने इसी कहानी पर अद्वितीय मानी जाने वानी एक ‘ब्लैक’ कामेडी ‘मोंस्यो बर्दोक्स’ ( जनाब बेर्दू ) का निर्माण किया पर्दे पर सादर इस उल्लेख के साथ - कहानी: आर्सन वेल्स ।
सिटिजन केन के अतिरिक्त वेल्स की अन्य प्रदर्षित फिल्में हैं: 1948 में आयी ‘द लेडी फ्राम षंघाई’, जिसमें नायिका उनकी पत्नी रीता हेवर्थ थीं । इस फिल्म में निर्माता कंपनी मर्करी प्रोडक्षन का इतना अधिक हस्तक्षेप है कि उसे विषु़द्ध रूप से वेल्स की फिल्म कहना मुष्किल है । फिल्म के प्रीव्यू में दर्षकों की राय निराषाजनक थी इसलिये उसे ‘बचाने’ के लिये स्टूडियो के द्वारा बहुत सारे क्लोजअप और दृष्य अलग से फिल्मा कर बीच बीच में जोड़े गये थे और वेल्स के फिल्माये अनेक अंष हटा दिये गये थे । ऐसा उनकी फिल्म ‘द मेग्निफिसेंट एम्बर्सन’ के साथ भी हुआ था । 1952 में उनकी फिल्म ‘ओथेलो’ आयी थी जिसकी अधिकांष षूटिंग मोरक्को और इटली में की गयी थी । अनेक वर्शों के बाद ‘फिल्मिंग ‘ओथेलो’’ में उन्होंने अंतहीन सिगारों के बीच अपनी गहरी, भारी आवाज में इस फिल्म से जुड़े अनुभवों और इससे अपने लगाव के बारे में बताया था । ( इसी फिल्म में उन्होंने कहा था - षेक्सपियर, समस्त कालों के सभी नाटककारों और कवियों में अन्यतम, मुझ अदने से फिल्मकार की हैसियत ही क्या ।) 1955 में उन्होंने ‘मि. अर्कादीन’ नाम की थ्रिलर फिल्म बनाई जो किसी भी तरह उनकी प्रतिश्ठा के अनुरूप नहीं थी । 1962 में उनकी ‘द ट्रायल’ आयी थी, काफ्का के प्रसिद्ध उपन्यास पर आधारित । इस फिल्म की उनके अन्यथा प्रषंसक रहे फ्र्रांसुआ त्रुफो ने यह कहकर आलोचना की थी कि उन्होंने काफ्का को भी वैसे ही फिल्माया है जैसे षेक्सपियर को । 1966 में आयी ‘चाइम्स एट मिडनाइट’ उनकी महानतम फिल्म है जिसमें फिर षेक्सपियर के कई नाटकों को मिला कर बनाई गयी एक दीर्घ कहानी थी । षेक्सपियर से अपने गहरे लगाव के बावजूद उन्होंने इस फिल्म में मूल के प्रति वफादारी बरतने की कोई कोषिष नहीं की थी, इसलिये यह अनायास एक अद्भुत अर्थवत्ता ग्रहण कर सकी थी । उनकी एक दिलचस्प फिल्म, या फिल्म निबंध है ‘एफ फार फेक’ जिसकी पहले समीक्षकों और सिनेमा के विद्वानों ने उपेक्षा की थी, लेकिन साधारण सिनेमा प्रेमियों ने उसे बहुत सराहा । इस फिल्म का विशय था जालसाजी और फिल्म के केंद्र में था एल्मिर डी होरी नाम का एक प्रसिद्ध जालसाज । उच्चभ्र्रू समीक्षकों ने इसे एक सस्ती, सनसनीखेज फिल्म मानकर उपेक्षा की लेकिन जिन दर्षकों ने इसे ध्यान से देखा उन्होंने पाये गहरी विचारषीलता, हास्य और उदासी के अनेक प्रसंग, तीखा विडम्बनाबोध और कला के प्रयोजन और कला की दुनिया की कठोर वास्तविकताओं के बारे में एक गंभीर बहस ।
‘सिटिजन केन’ 1941 में आयी वेल्स की पहली और सबसे अधिक प्रसिद्ध फिल्म है । इसके पहले 1938 में वे एच जी वेल्स के उपन्यास ‘द वार आफ द वल्डर्स’ को रेडियो नाटक के रूप में प्रस्तुत करके देषव्यापी बेचैनी फैला चुके थे । उसे उन्होंने एक समाचार बुलेटिन का रूप दिया था और यह इतना वास्तविक और जीवंत बन पड़ा था कि श्रोताओं ने समझा कि सचमुच मंगलवासियों ने पृथ्वी पर हमला कर दिया है और रेडियो स्टेषन उनके कब्जे में है । इसके बाद आर के ओ फिल्म्स नाम के फिल्म स्टूडियो ने उन्हें यह फिल्म दी जिसका उन्होंने सह-लेखन और निर्देषन किया और मुख्य पात्र की भूमिका भी खुद निभाई । फिल्म के भीतर जो कहानी है, इस फिल्म की अपनी कहानी उससे कम दिलचस्प नहीं । 40 के दषक में विलियम रांदोल्फ हस्र्ट अमरीका का एक मीडिया मुगल, एक बड़े अंपायर का स्वामी, अकूत संपदा का मालिक, तत्कालीन सबसे धनी और ताकतवर लोगों में से एक था । सिटिजन केन के सह-लेखक मैंकीविच कभी उनके मित्रों में रहे थे लेकिन यह मित्रता उनकी अत्यधिक षराबखोरी के कारण टूट गयी थी । हस्र्ट ने अपने अखबारों और दफ्तरों में और अपने विषाल किले जैसे मकान में अक्सर दी जाने वाली पार्टियों में उनका प्रवेष बंद करवा दिया था । उनके मन में बदले की आग सुलग रही थी । जब आर्सन वेल्स ने उन्हें एक फिल्म की कहानी और पटकथा लिखने को कहा तो उन्हंे यह बदला लेने का ईष्वरप्रदत्त मौका जान पड़ा । वेल्स के एक अन्य मित्र हाउसमैन की निगरानी में, जिनकी जिम्मेदारी थी कि वे इस दौरान षराब के करीब न जायें, वे पटकथा लिखने में जुट गये । उन्होंने हस्र्ट के जीवन और व्यक्तित्व पर आधारित फिल्म लिखी जिसमें उन्होंने उसके एक सावधानीपूर्वक छुपा कर रखे गये अवैध संबंध को उजागर कर दिया । इसके बारे में उनके पास जो भी जानकारियाँ थीं, उन्होंने सबको कहानी का हिस्सा बना दिया । हस्र्ट को अपने महल में भव्य पार्टियाँ देने का षौक था जिनमें हालीवुड के लोग मेहमान होते थे । इन पार्टियों के ब्यौरे और उनकी बातें अगले दिन हस्र्ट के समाचारपत्रों के गासिप कालमों में छप जाते थे । इस कारण हालीवुड में हस्र्ट के प्रति गुस्सा खदबदा रहा था । फिल्म बनने के दौरान इसे हालीवुड के एक पलटवार के रूप में पूरे उद्योग का नैतिक, मौन समर्थन था । लेकिन वेल्स का फिल्म बनाने का इतना सीमित उद्देष्य न था । वे मनुश्य के जीवन और अस्तित्व, उसकी सत्ताकांक्षा, लिप्सा और आधिपत्य भावना के बारे में एक सर्वथा नये, निजी और अनूठे तरीके से कोई गहन बात कहना चाहते थे । अमेरिका तीस के दषक में महामंदी के भयानक अनुभव से गुजरा था । उससे उबरने के लिये अर्थषास्त्री कींस के प्रस्तावित नुस्खे और नीतियाँ आजमाये जा रहे थे, वही कींस जो कह चुके थे - लाभ, लोभ और लिप्सा . . . बेषक वे मनुश्य के अधःपतन के लक्षण हैं लेकिन अभी हमें बहुत समय तक उनकी उपासना करनी होगी क्यों कि वे अर्थव्यवस्था को गतिषील रखते हैं । वही हमें इस अँधेरी सुरंग से प्रकाष तक ले जायेंगे । संभवतः वेल्स का एक उददेष्य उस अमेरिकी स्वप्न या अवधारणा की निस्सारता बताना भी था जिसमें लिप्सा, उपभोग और परिग्रह को कंेद्र्रीयता प्राप्त थी । फिल्म का पहले सोचा गया नाम ‘अमेरिकन’ भी इसी ओर संकेत करता है । वेल्स को फिल्म का मुख्य पात्र, केन, एक सपाट चरित्र लगा और उन्होंने मैंकीविच के साथ मिलकर पटकथा का पुनर्लेखन किया । केन के चरित्र को और जटिल और बहुआयामी बनाने के लिये उन्होंने उसमें तीन चार प्रसिद्ध व्यक्तित्व और मिलाये । फिल्म में एक जगह यह संवाद आता है: केन किस तरह अपने समय के अन्य प्रसिद्ध व्यक्तियों जैसे फोर्ड या हस्र्ट से भिन्न था । यह चालाकी भरा वाक्य जानबूझकर यही कहने के लिये डाला गया था कि फिल्म के मुख्य पात्र चाल्र्स फोस्टर केन का हस्र्ट से कुछ लेना देना नहीं । फिल्म बनने के दौरान न किसी को कोई परवाह थी, न इस बात का कोई दबाव कि उसका हस्र्ट से कोई संबंध है । लेकिन फिल्म पूरी होने के बाद मैंकीविच ने, संभवतः पीने के दौरान, उसकी पटकथा अपने एक मित्र को दिखा दी जो हस्र्ट के परिचित, उनकी गुप्त प्रेमिका के संबंधी थे । उन्होंने इसका जिक्र्र हस्र्ट से किया । हस्र्ट ने पूरी और सही रिपोर्ट लेने के लिये अपना एक आदमी फिल्म के प्रीव्यू में भेजा । इसके बाद तो जैसे कहर बरपा हो गया । हस्र्ट ने फिल्म का नेगेटिव और प्रिंट हथियाने, जलवा देने और फिल्म का प्रदर्षन रोकने के लिये अपनी सारी ताकत झोंक दी ।
हस्र्ट के मीडिया साम्राज्य ने फिल्म का बहिश्कार कर दिया । हालीवुड पर फिल्म को प्रदर्षित न होने देने के लिये दबाव डाला गया । द्वेशप्रेरित, एक महान व्यक्ति पर आक्र्रमण, इस आषय के तमाम लेख छपे । एक स्थिति आयी कि हस्र्ट के दबाव में हालीवुड के प्रमुख फिल्म स्टूडियो के मालिकों ने मिलकर फिल्म के निर्माता को नेगेटिव और प्रिंट के बदले में पूरी लागत राषि, आठ लाख डालर, देने का प्रस्ताव रखा । आर के ओ फिल्म्स ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया और फिल्म को रिलीज करने का फैसला किया । हस्र्ट ने आदेष जारी किये कि उसके अखबारों में फिल्म का उल्ल्ेाख तक न आये और अमेरिका में छविगृहों की प्रमुख श्रृंखलाओं के मालिकों को धमकी दी गयी कि अगर सिटिजन केन दिखाई गयी तो उसके समाचारपत्रांे में उनके और दिखाई जाने वाली फिल्मों के विज्ञापन प्रकाषित नहीं होंगे । नतीजतन यह गिनती के सिनेमाघरों में दर्षायी जा सकी । फिल्म को आलोचकों की सराहना मिली लेकिन तत्कालीन दर्षकों ने इसे ठुकरा दिया । 40 के दषक के दर्षक इस फिल्म की सर्वथा नयी फिल्म भाशा के लिये, पंेटिंग का आभास देने वाले फ्रेमों और फिल्म से उभरने वाले विचार, जो उस वक्त के मिजाज से बेमेल था, के लिये तैयार नहीं थे और अनेक सिनेमाघरों में वे इसे अधूरा छोड़कर उठ गये । निर्माता कम्पनी ने फिल्म को कहीं किसी गोदाम में पटक दिया और 1956 से पहले दुबारा प्रदर्षित नहीं किया । पचास के दषक में फ्रांस के युवा फिल्म निर्देषकों त्रुफो और गोदार को यह फिल्म देखने का अवसर मिला और वे चकित रह गये । इसके बाद फिल्म को जैसे पुनर्जीवन मिला । अमेरिका में उपेक्षित और भुला दी गयी इस फिल्म को, उसके एक एक फ्रेम को यूरोप में ध्यान और गंभीरता से देखा गया । फ्रांस की नूवेल वाग ( नयी धारा ) की फिल्मों पर, जिनके बाद भारत समेत दुनिया भर की भाशाओं में यथार्थवादी सिनेमा की षुरुआत हुई, वेल्स की फिल्मों का गहरा प्रभाव है । फिल्म को लगातार नये दर्षक और प्रषंसक मिलते गये और वेल्स के सौभाग्य से उनके जीवन काल में ही इसने एक निर्विवाद क्लासिक का दर्जा हासिल किया । ‘‘मैंने षुरूआत षिखर से की और षेश जीवन वहाँ से नीचे आने में बिताया’’ उनका प्रसिद्ध वाक्य है । कई दषकों से सार्वकालिक महान फिल्मों की कोई सूची इस फिल्म के बिना पूरी नहीं होती और ऐसे प्रषंसकों की संख्या कम नहीं जिनके लिये यह आज तक की सर्वश्रेश्ठ फिल्म है । हस्र्ट और वेल्स की लड़ाई की कहानी पर भी एक से अधिक डाक्यूमेंटरी फिल्में बन चुकी हैं ।
फिल्म एक मातमी संगीत के संग एक बहुत बड़े किले जैसे विषाल, वीरान एस्टेट की सलाखों, तारों की जालियों और बाहरी दीवारों और दरवाजों के रात्रिकालीन, रहस्यमय दृष्यों से षुरू होती है । अंधेरे और कुहरे में एक बोर्ड का षाट ‘नो ट्रेसपासिंग’ दिखाई देता है । कैमरा जैसे उस बोर्ड की अवहेलना करता हुआ, लोहे के ‘के’ अक्षर को धकेलकर बहुत धीमे से भीतर दाखिल होता है । चिड़ियाघर के पिंजरों, दो बंदरों, एक झील में खामोष खड़ी नावों, झील में किले के प्रतिबिंब, एक पुल और एक गोल्फ कोर्स के सम्मोहनकारी दृष्य धीमी गति से गुजरते हैं । उस एस्टेट में एक मीडिया और उद्योग समूह का एकाकी, बूढ़ा मालिक चाल्र्स फोस्टर केन मरने के करीब है । एस्टेट अँधेरे में डूबा है, केवल एक कमरे की खिड़की पर रोषनी उभरती है, फिर बुझ जाती है । एक लेटी हुई छायाकृति नजर आती है । मरते हुए केन के होंठों का क्लोज अप पर्दे को ढाँप लेता है । वह मरने के पहले एक षब्द बुदबुदाता है . . . रो . . .ज. . .ब . . .ड. . . और इसी के साथ उसके हाथ से एक षीषे का पेपरवेट जैसा गोला, जिसमें बर्फ गिरने का आभास देने वाला एक दृष्य है, छूटकर सीढ़ियों पर लुढ़कता और टूट कर बिखर जाता है । एक नर्स आती है और उसकी बाँहों को मोड़कर सीने पर रखती, फिर उसके षरीर को एक चादर से सिर तक ढाँप देती है ।
इसके तुरंत बाद एक न्यूजरील दिखाई जाती है, जिसमें चाल्र्स फोस्टर केन के मरने का समाचार और त्वरित दृष्यों में उसके मीडिया साम्राज्य और उद्योग समूह की षुरुआत और विस्तार, दो विवाहों और तलाकों, जानाडू नाम के उसके विषाल महल, उसके चुनाव प्रचार, भाशणों, साक्षात्कारों के अंषों और उसके निजी म्यूजियम, अस्तबल और चिड़ियाघर के दृष्यों के साथ उसकी पूरी जिंदगी के ब्यौरे हैं । यह दरअसल इस न्यूजरील का प्रीव्यू है जो अचानक समाप्त होता है और हम अँधेरे में बैठे उसके दर्षकों को पहली बार देखते हैं । न्यूजरील का निर्माता महसूस करता है कि फिल्म में कुछ कमी है । ‘‘केन ने मरते समय आखिरी षब्द क्या कहा था’’, वह पूछता है । ‘‘रोजबड’’, उसे बताया जाता है । रोजबड क्या या कौन है या था, इसका उत्तर किसी के पास नहीं । वह एक पत्रकार लेरी थामसन को दो सप्ताह का समय और यह जिम्मेदारी देता है कि वह केन के निजी जीवन की जाँच करे और उसके दोस्तों और सहयोगियों से इंटरव्यू लेकर जानने की कोषिष करे कि रोजबड क्या या कौन है । थामसन केन की दूसरी पत्नी सूजन अलैक्जेंडर जो अब एक नषेड़ी और एक नाइट क्लब की मालकिन है, से बात करने जाता है । वह नषे में धुत्त, कुछ भी बताने से इंकार करती और उसे बाहर धकेल देती है । फिर वह केन के बचपन में उसके गार्जियन रहे और अब दिवंगत बैंकर वाल्टर पाक्र्स थैचर के निजी आर्काइव में जाकर पुराने कागजांेें को छानता है । यहाँ उसे केन के बचपन के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिलती हैं । फिर वह केन के मैनेजर मि. बर्नस्टीन, उनके दोस्त और उनके अखबार में नाटकों के समीक्षक रहे लीलैंड, दुबारा उसकी दूसरी पत्नी सूजन का और उसके बटलर का इंटरव्यू लेता है । फ्लैष बैक और फ्लैष फारवर्ड दृष्यों में केन के बचपन से मृत्यु तक सारी जिंदगी सामने आती है - आठ वर्श की अवस्था में उसके माता पिता को अनायास एक वसीयत में संपत्ति मिलना, बालक केन को दूर थैचर के संरक्षण में भेजा जाना, व्यस्क होने पर एक मरते हुए अखबार न्यूयार्क एन्कवायरर का नियंत्रण हाथ में लेने के बाद सत्ता, सम्पत्ति, ताकत और आधिपत्य के अमरीकी पथ पर उसके आगे बढ़ते जाने की दास्तान । वह बेपनाह दौलत हासिल करता है, राश्ट्रपति की भतीजी से उसका विवाह होता है, वह न्यूयार्क के गवर्नर का चुनाव लड़ता है, फिर विरोधी उम्मीदवार के द्वारा एक नाटकीय तरीके से सूजन से उसके अवैध रिष्ते को उजागर कर दिये जाने के बाद उसके राजनीतिक जीवन और पहले विवाह दोनों का अंत हो जाता है । वह सूजन से दूसरा विवाह करता है । इस बार उसका अहंकार और सत्तोन्माद उसकी पत्नी पर बरसते हैं । वह अपने मीडिया साम्राज्य की सारी षक्ति लगाकर उसे एक सफल ओपेरा गायिका बनाना चाहता है जिसकी उसमें न कोई प्रतिभा है न तमन्ना । इस विवाह का भी दुखद अंत होता है और वह अपने अंतिम दिन उसी म्यूजियम जैसे महल में, अपनी झीलों, पुलों, रेसकोर्स, चिड़ियाघर, विषाल आइनों और दुनिया भर से खरीदे गये बेषकीमती बुतों के बीच अकेले बिताता है ।
थामसन ‘रोजबड’ का रहस्य सुलझा पाने में नाकाम रहता है । फिल्म के अंत में कोई कहता है - यदि रोजबड का पता चल पाता तो षायद केन की जिंदगी की गुत्थी सुलझ जाती ।
- नहीं, मैं ऐसा नहीं सोचता । वह कहता है । - मि. केन ने अपने जीवन में सब कुछ हासिल किया और फिर उसे गँवा दिया । षायद रोजबड कोई ऐसी चीज थी जिसे वे हासिल न कर सके, या जो कहीं खोे गयी । बहरहाल, उससे कुछ भी न पता चलता । मैं नहीं सोचता कि कोई एक षब्द पूरे जीवन की व्याख्या कर सकता है । हमारे लिये वह एक पहेली ( पजल ) का महज एक टुकड़ा है, एक खोया हुआ टुकड़ा ।
फिल्म के अंंितम पलों में केवल दर्षकों के लिये ‘रोजबड’ का रहस्य उजागर होता है । फिल्म के पात्रों के लिये वह आखीर तक अँधेरे में छुपा रहता है ।
इस फिल्म में अर्थो की तमाम तहें और परतें हैं और फिल्म की हर घटना, प्रसंग और दृष्य की अलग अलग नजरियों से तमाम व्याख्यायें की गयी हैं । उस अमेरिकी स्वप्न या विचार का निशेध करना या उसकी निस्सारता बताना, जिसमंे सत्ता, सफलता, संपत्ति, अधिकार और उपभोग को केंद्रीयता प्राप्त है, यह इसके बेषुमार मायनों में से केवल एक है । लेकिन सिनेमा के इतिहास में इस फिल्म का महत्व इस कारण भी है कि उसने फिल्म की भाशा या व्याकरण को यकायक बहुत समृद्ध किया था । इसमें फिल्म बनाने की एक सर्वथा नयी षैली सामने आयी थी । पहली बार इस फिल्म में सिनेमा का ‘‘जादू’’ निर्मित किया गया था । प्रसंगवष वेल्स ( अभिनेता, पियानोवादक, लेखक, फिल्म निर्देषक और एक राजनीतिक टिप्पणीकार होने के अलावा ) एक जादूगर भी थे और द्वितीय विष्वयुद्ध में सैनिकों के लिये उन्हांेने जादू के कुछ स्टेज षो किये थे । लेकिन असली जादू तो उन्होंने इस फिल्म में पर्दे पर किया था । आज तक फिल्मों में, साधारण, व्यावसायिक फिल्मों में भी उनकी युक्तियाँ और तरकीबें दोहरायी जाती हैं, बिना उनका आभार व्यक्त किये ।
फिल्म में अधिकतर षाट्स ‘डीप फोकस’ में हैं, जिनमें कैमरे के पास, दूर और बहुत दूर एक साथ कुछ न कुछ घटता रहता है और सभी डिटेल्स फोकस में रहती हैं । कुछ दृष्यों में इसके लिये एक ही फिल्म पर एक से अधिक बार षूटिंग की गयी थी - पहले पृश्ठभूमि को अँधेरे में रखकर सामने के दृष्य फिल्माये गये थे, फिर फिल्म को वापस रोल कर उसी पर पृश्ठभूमि के दृष्य फिल्माये गये थे, सामने के दृष्यों को अँधेरे मंे रखकर । इसी फिल्म में पहली बार लो एंगल षाट्स सामने आये थे, जिनमें पृश्ठभूमि में छत दिखाई देती है - जबकि उस समय सिनेमा के सैट्स ऐसे मंचों पर बनाये जाते थे जिनमें छतें नदारद होती थीं । संभवतः इसी फिल्म में पहली बार एक दूसरे को काटते संवाद आये थे और एक ही दृष्य में आवाजों का कोलाज भी । दृष्य परिवर्तन से कुछ पल पहले ही संगीत और आवाजों का बदल जाना, जिसे सिनेमा की भाशा में ‘एल-कट’ कहा जाता है, वेल्स की ही ईजाद थी । एक ही संवाद या बातचीत के टुकड़े अलग जगहों और वक्तों में अलग अलग व्यक्तियों के द्वारा कहा जाना, यह दर्षाने के लिये कि हर षख्स या पूरा षहर उसी बारे में बात कर रहा है, यह भी इसी फिल्म में पहली बार देखा गया । केवल कुछ ही पलों में विषाल अवधियों का बीत जाना दिखाने के लिये वेल्स ने तमाम तरकीबें ईजाद की थीं । एक दृष्य में बालक केन कहता है - ‘‘मेरी क्रिसमस’’ जिसे पूरा करता है उसका गार्जियन थैैचर - ‘‘एंड ए वेरी हैप्पी न्यू इयर’’, लेकिन इस एक वाक्य की अवधि में वह जवान से अधेड़ हो चुका है । फिल्म में केन और उसकी पहली पत्नी के बीच रिष्ता धीरे धीरे निर्जीव होता जाता है । 9 बरसों की यह अवधि दो मिनट के मोंताज में दर्षायी जाती है - वे एक ही सेट में, नाष्ते की मेज के सिरों पर छोटे छोटे दृष्यों में नजर आते हैं, केवल उनके वस्त्र, मेकअप और बातचीत का अंदाज बदलता जाता है । हर दृष्य में वे पहले से अधिक उम्रदराज नजर आते हैं । फिल्म में प्रकाष, छायाओं, क्लोज अप्स और असामान्य कैमरा कोणों का प्रचुर इस्तेमाल है और अधिकतर दृष्य किसी अभिव्यंजनावादी चित्र की तरह लगते हैं ।
फिल्म पर 1941 में महान आर्हेंतीनी लेखक बोर्गेस ने, जिनका अंधत्व उनके सिनेमा प्रेम में बाधक नहीं था, समीक्षा लिखी थी जिसमें उन्होंने कहा था - एक पराभौतिक जासूसी कथा ( मेटाफिजिकल डिटेक्टिव स्टोरी ) जिसमें, मनोवैज्ञानिक और प्रतीकात्मक दोनों अर्थो में, एक षख्स के ‘आत्म’ की तलाष की कोषिष है, उस नैतिक कबाड़ में जो वह अपने पीछे छोड़ गया । वे हमारे सामने उस षख्स की जिंदगी के टुकड़े रखते और हमें आमंत्रित करते हैं कि हम उन्हें जोड़ें, उन टुकड़ों से उस षख्स का पुनर्निर्माण करें । फिल्म के षुरुआती दृष्य दिखाते हैं कि उस आदमी ने अपने जीवन में कितना कुछ हड़पा है, कितने खजाने लूटे हैं । अंत के एक दृष्य में एक बेचारी, विलासी, पीड़ित औरत एक बहुत बड़े किले के फर्ष पर जो एक म्यूजियम भी है, एक विषाल पजलगेम के टुकड़ों से खेल रही है । अंत में हम जान पाते हैं कि उन टुकड़ों में कोई आंतरिक एकता नहीं और चाल्र्स फोस्टर केन महज एक छायाभास है, या ऐसे आभासों की अराजकता ।
लेकिन ऐसा नहीं कि इस फिल्म के आलोचक न हों । बर्गमैन को यह फिल्म बिल्कुल नापसंद थी, उन्हें यह भयंकर रूप से उबाऊ लगती थी । अनेक समीक्षकों के विचार में यह एक अधिमूल्यित फिल्म है जिसमें विशयवस्तु के खोखलेपन को षैली की भव्यता, और रूपकों की प्रचुरता से ढका गया है - एक अनात्म फिल्म, अपने मुख्य पात्र की ही तरह ।
फिल्म को नौ विभिन्न श्रेणियों में नामांकन मिला था, लेकिन यह केवल मौलिक पटकथा का एक ही आस्कर जीत सकी । 25 बरस की अवस्था में बनाई गयी इस पहली फिल्म के विवादों में घिर जाने और फिर व्यावसायिक रूप से असफल रहने के कारण फिल्मकार के रूप में वेल्स की आगे की राह बहुत मुष्किल रही । हस्र्ट का दुश्प्रचार भी अपना काम कर रहा था । इस कारण और उनकी राजनीतिक सक्रियता के कारण भी उन्हें हालीवुड में मनचाहा काम करने का मौका कभी नहीं मिला, वहाँ उनका नाम हमेषा संदिग्धों, अवंछितों की सूची में रहा । 1947 में वे अमेरिका छोड़कर यूरोप चले गये और अपने सक्रिय जीवन का बड़ा हिस्सा स्पेन, फ्रांस और इटली में फिल्में बनाने में बिताया । 1971 में जब उन्हें अकादमी का लाइफटाइम एवार्ड मिला तो उसे लेने के लिये खुद न जाकर उन्होंने अपने एक मित्र को भेजा जो जूरी और दर्षकों को यह फटकार सुना कर आया कि वे लोग जो उसे सम्मानित करने के लिये इतने आतुर हैं, वही हैं जो जीवन भर उसके कामों में अड़ंगे लगाते रहे । 1962 में ‘चाइम्स एट मिडनाइट’ के लिये सर्वश्रेश्ठ अभिनेता का आस्कर जीत चुके वेल्स एक बेहतरीन अभिनेता भी थे ( 1972 में गाडफादर की उस भूूमिका के लिये भी पहले उनके नाम पर विचार हुआ था जिसे बाद में मार्लिन ब्रांडो ने निभाया ), इसलिये दूसरे निर्देषकों की फिल्मों और विज्ञापन फिल्मों में काम करने से उनकी आजीविका चलती रही । आजीविका के लिये उन्हें एक साथ बहुत सारे काम करने होते थे और इसके लिये एक जगह से तत्काल दूसरी जगह पहुँचना होता था । न्यूयार्क के ट्रैफिक को मात देने का जो तरीका उन्होंने निकाला वह भी उन जैसी प्रतिभा के अनुरूप था । उन्होंने अपने वकील मित्रों से दरियाफ्त की कि क्या ऐसा कोई कानून है कि एम्बुलेंस में सफर करने के लिये मरीज होना जरूरी है । उन्हें बताया गया कि ऐसा कोई कानून नहीं है । इसके बाद वे एक से दूसरी जगह जाने के लिये टैक्सी की जगह एम्बुलेंस मंगवाते थे और उसके सायरन की आवाज से ट्रैफिक को चीरते हुए यहाँ से वहाँ आते जाते थे ।
---योगेन्द्र आहूजा

12 जुलाई, 2009

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02 जुलाई, 2009

लिटिल टेरेरिस्ट यानी नानुसो आतंकी

लिटिल टेरेरिस्ट युवा निर्देशक अश्विन कुमार द्वारा बनायी गयी फ़िल्म है। फ़िल्म में तीन केन्द्रीय पात्र है। पहला और फ़िल्म का मुख्य पात्र जमाल नाम का छोटा बच्चा है। जमाल का गाँव हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की रेतीली सीमा के किनारे पाकिस्तान की तरफ़ बसा है। जमाल क्रिकेट का शौकीन है, और जमाल ही क्यों पिछले दस-पन्द्रह बरसों से क्रिकेट को सटोरियों ने जिस तरह खेलों के केन्द्र में ला खड़ा किया है और ख़ासकर जबसे भारत-पाक के बीच होने वाले मैचों को युद्ध का नाम दिया है, जमाल और उसके आगे की कई पीढ़ियों को उसे देखने की लत-सी लग गयी है।

भारत-पाक के बीच होने वाला मैच, मैच नहीं भारत-पाक की सेना के बीच का युद्ध माना जाता है। मैच में होने वाली हार-जीत को खेल में होने वाली हार-जीत नहीं, बल्कि युद्ध की हार-जीत माना जाता है। साम्प्रदायिक नज़रिये से क्रिकेट को देखने की भावना ने देश में सिर्फ़ हिन्दुओं को ही नहीं, बल्कि दूसरे सम्प्रदाय के लोगों के मन में भी मुसलमानों के प्रति घृणा पैदा की है, और ज़्यादातर लोग यह मानते हैं कि जब भी भारत-पाक का मैच होता है, मुसलमान पाक के जीतने की कामना करते हैं। पाक के खिलाड़ियों द्वारा छक्का लगाने या भारतीय बल्लेबाज का विकेट लेने पर मुसलमान पटाखे फोड़ते हैं। ऎसी पूर्वाग्रह से ग्रसित भावना ने मुसलमान को शेष भारतीयों के बीच संदेहास्पद स्थिति में खड़ा कर दिया है।

निर्देशक अश्विन कुमार ने लिटिल टेरेरिस्ट में यह सब नहीं दिखाया है, लेकिन फ़िल्म देखने पर सजग दर्शक को यह सब याद न आये, ऎसा भी तो नहीं है। अगर सटोरियों ने क्रिकेट को इतना लोकप्रिय नहीं बनाया होता, तो जमाल रेतीले मैदान पर अपने दोस्तो के साथ क्रिकेट नहीं, कोई पारंपरिक खेल खेलता, शायद कुश्ती या कबड्डी जैसा कोई खेल। लेकिन उस रेतीले मैदान पर, ‘जिस पर बारूदी सुरंग बिछी हैं, एक शॉट की दूरी पर तार फैंसिंग खींची है। तार फैंसिंग से कुछ दूरी पर खड़े निगरानी टॉवर पर भारतीय सेना के जवान भरी बंदूक निगरानी कर रहे हैं।’ वहाँ महज तेरह-चौदह बरस का जमाल अपने दोस्तो के साथ क्रिकेट खेलता है।

हम सीमा पर नहीं रहते। हम सीमा के बारे में ज़्यादा जानकारी भी नहीं रखते। हम उसी झूठ को सच मानते हैं, जो हमसे कूटनीतिक ढंग से बोला जाता है। शायद इसीलिए सीमा पर रहने वालों का दुखः संजीदगी से नहीं समझते। अगर लिटिल टेरेरिस्ट को एक इंसान के पाक नज़रिये से देखें, तो हम समझ जायेंगे कि हम वाकय में आतंक के बारे में कितना कम जानते हैं।

जब जमाल अपने दोस्तो के साथ क्रिकेट खेलता है, और गेंद बल्ले से मार खाकर कँटीले तारों को पार कर भारत की सीमा में चली जाती है, दो बारूदी सुरंग के बीच ठाट से रुकी लाल चेथरे से बनी गेंद को जब जमाल लेने पहुँचता है, और उसे देखकर भारतीय सेना के चौकन्ने और बहादुर सैनिकों की रायफल से गोलियों की जो बरसात होती है, उससे जमाल का पजामा तो गीला हो जाता है, लेकिन उसे देखकर दर्शक का मन गीला न हो, एक क्षण को उसकी साँस स्वाँस नली में लरज़कर ठिठक न जाए, तो कहना। मैं आपको दर्शक नहीं, भारतीय संसद के गर्भ ग्रह में बैठा और सीमा पर चौकसी करता सेना का जाँबाज सिपाही मान लूँगा।

जब गोलियों की बरसात क्षण भर को ठहरती है, तो उसी क्षण भर के ब्रेक में फ़िल्म का एक दूसार मुख्य पात्र, ‘जो भारत के सरकारी स्कूल का मास्टर है’ अपनी साइकिल पर सवार राजस्थानी वेशभुषा में नमुदार होता है। मास्टर भारत की सीमा के एक गाँव में रहता है। यहाँ से फ़िल्म को थोड़ी और संजीदगी से समझने की ज़रूरत होती है। फ़िल्म भरोच, जयपुर के इलाक़े में फिल्माई गयी है और पूरी फ़िल्म में राजस्थानी लोक संगीत का बेहतरीन इस्तेमाल हुआ है।

खैर। करने को बातें अभी भी बहुत है। लेकिन बहरहाल दो-तीन जगह खटकी निर्देशकीय कमज़ोरी और स्क्रीप्ट की गेप को नज़र अंदाज़ कर यह कहकर अपनी बात समाप्त करता हूँ कि महज छः दिन की शूटिंग में बनायी गयी इस फ़िल्म की अवधि 15 मिनट है। सन 2005 में इस फ़िल्म को आॉस्कर पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था। इस फ़िल्म को आॉस्कर भले न मिला हो, लेकिन देश-विदेश के कई पुरस्कार इसके हिस्से में आये हैं।

हिन्दुस्तान के बंटवारे की राजनीति और बंटवारे के बाद सत्ता को हथियाने और उस पर बने रहने की राजनीति ने दोनों ही मुल्कों की जम्हुरियत के मग़ज़ में जो ज़हरीले बीज बोए हैं, और दोनों ही मुल्कों के राजनीतिग्यों और सटोरियों ने ज़हरीले बीजों को क्रिकेट की खाद से जिस लहलहाती फ़सल में बदल दिया, उसे देखने और समझने के लिए देखे- लिटिल टेरेरिस्ट यानी नानु सो आतंकी।

बिजूका फ़िल्म क्लब द्वारा ज़ल्दी यह फ़िल्म दिखाई जाना है। इसे देख किसी भी दर्शक के पन्द्रह मिनट व्यर्थ न जायेंगे, बल्कि देखने वाला इन पन्द्रह मिनट में शायद वैसा कुछ पाये, जो पिछले कई वर्षों से खोता आ रहा है।

सत्यनारायण पटेल
संयोजकः
बिजूका फ़िल्म क्लब,
इन्दौर- (म.प्र.)
09826091605
1 जुलाई 2009