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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

26 अगस्त, 2018

कनॉट प्लेस की डायरीः सात

नारंगी

कबीर संजय

कबीर संजय 

पेड़ पर लगी हुई नारंगियां कभी देखी हैं आपने। ऐसा लगता है जैसे हरे-हरे पत्तों के बीच ढेर सारे नारंगी रंग के बल्ब फूट पड़े हों। उनकी रोशनी से पत्तियों की आभा भी कुछ-कुछ नारंगी होने लगती है।
बचपन में ऐसा ही एक पेड़ हम लोग इलाहाबाद के बालभवन में देखा करते थे। आनंद भवन के एक अलग से पड़े हिस्से में बच्चों के लिए बहुत सारे कोर्स चलाए जाते थे। आजकल की भाषा में जिसे एक्स्ट्रा कैरिकुलर एक्टीवीटीज कहा जाएगा। विज्ञान के  तमाम प्रयोगों से लेकर आर्ट, क्राफ्ट और संगीत की विधाएं, गायन और वादन यहां पर बच्चे सीखा करते थे। बाहर घास का एक बड़ा सा मैदान था। साफ-सुथरी कटी हुई घास। दूर-दूर तक फैली हुई। गर्मियों के मौसम में खासी सुकून देती थी। इसी के एक किनारे हम अपनी साइकिलें खड़ी कर देते थे। यहां पर एक लिसोढ़े का पेड़ था। लिसोढ़ा हो सकता है कि आप नहीं जानते हों। लेकिन, उसको किसी न किसी अचार में आपने खाया जरूर होगा। पंचमेल अचार में तो खासतौर पर। मेरे खयाल से अधकच्चे लिसोढ़े को इस अचार में शामिल किया जाता है। खैर, लिसोढ़ा जब पक जाता है तो अच्छा-खासा चिपचिपा सा हो जाता है।
हम लड़कों की हैरानियां भी अलग-अलग होती हैं। जिस किसी से भी उस समय थोड़ी सी तुर्सी हो जाती, बस उसी की साइकिल की सीट पर लिसोढ़े का बीज मल देते थे। कई बार इस तरह कि उसे पता भी नहीं चले। वो आता और जैसे ही साइकिल की सीट पर बैठता, उसकी पैंट में लिसोढ़े का लिसलिसा पन समा जाता। जब वो सीट से उतरता तो उसे कोई पीछे वाला बताता कि भाई तेरी पैंट में क्या लगा है। वैसे लिसोढ़े के किस्से भी कई हैं। पर वे फिर कभी। यहां तो बस नारंगी।
इस घास के मैदान के एक कोने में नारंगी का एक पुराना सा पेड़ था। इसके बाद चबूतरा शुरू हो जाता था। इस बड़े से पेड़ के हरे-हरे पत्ते किसी छोटे से छाते को लगाए हुए घास के मैदान के एक किनारे खड़े रहते थे। मौसम बदलता और इन्हीं गहरे हरे पत्तों के बीच से सफेद फूलों की पंखुड़ियां निकलने लगती। नारंगी की फूलों की महक मैदान में तैरने लगती। कसम से, एक बार कभी मौका मिले तो नारंगी के फूलों को सूंघिए। मजा आएगा। वो गंध मन से कभी नहीं उतरती। एकदम से बसी रहती है। देखिए न, अभी मैंने बस उस गंध की बात ही कि है और वो गंध जैसे मेरी नाक में फिर से आकर बस गई। मेरे दिमाग मे उसकी स्मृतियां ऐसी ही हैं। कुछ-कुछ वैसे ही जैसे खट्टे को याद करके ही मुंह में पानी आने लगता है। सफेद फूलों की ये नन्हीं पंखुड़ियां झड़ जाती हैं। इनके बीच से वो छोटा सा गोला बचा रह जाता है। जो पहले मोती जैसे हरे गोले में बदलता है और फिर हरा गोला थोड़ा बड़ा हो जाता है। फिर ये गोला रंग बदलने लगता है। ये नारंगी हो जाता है। ऐसे लगता कि जैसे अपने रस से फटने को बेकरार है। ये छोटे-छोटे संतरे। कई बार हमने इसे तोड़कर खाया भी है। बेहद खट्टी। यहां तक कि दांतों के एक तरफ से हम इसे काट रहे हैं और दूसरी तरफ की आंखें तक बंद हो जा रही हैं। इसके स्वाद के खट्टेपन से दांतों की धार भी मंद पड़ जाती। हम इसे खाते जाते और अपनी आंखे बंद कर-करके इसका स्वाद लेते। दोस्तों, अंगूर भले ही खट्टे होते हों, लेकिन जीवन का असली मजा तो खट्टे में ही है।



कई बार हम इसके छिलके किसी संतरे की तरह ही छील लिया करते थे। पतले छिलके के नीचे संतरे जैसी ही फांके होती हैं। इसकी पतली-पतली फाकों को भी हम संतरे की फांकों की तरह अलग-अलग कर लेते। फिर उसे अपने दांतों के नीचे रख देते। नारंगी के रस की एक धार सी हमारे मुंह में भर जाती थी। खट्टे को याद करके मुंह में आने वाला पानी भी इसमें शामिल जरूर ही रहता होगा।
पता नहीं अब वो नारंगी का पेड़ कैसा होगा। क्या अभी भी उस पर हरे-हरे पत्तों का वैसा ही चंदोवा होगा। क्या अभी भी उस पर वैसे ही नारंगी-नारंगी बल्ब सज जाते होंगे। बच्चे तो खैर उसके पास क्या ही होंगे। बाद में बच्चों को कुछ सिखाने वाला वह बाल भवन भी शायद कहीं और शिफ्ट हो गया था। एलनगंज की तरफ उसके शिफ्ट होने के बाद भी हम कुछ दिनों तक वहां गए जरूर थे। लेकिन, फिर वहां मन नहीं लगा। तो फिर यह सिलसिला टूट गया।
बहुत सालों बाद। लगभग पच्चीस सालों बाद। जी हां, अभी यही दिल्ली में एक दिन मैंने अपने आफिस में चारों तरफ लगाए गए गमलों पर ध्यान से देखा। कई सारे गमलों में नारंगी के पौधे लगे थे। मैंने गौर करना शुरू किया। इसमें सफेद फूल आने भी शुरू हुए और वैसे ही नारंगी बल्ब भी फूटने लगे। गमलो में हरी पतली टहनियों में लगी हुई गाढ़े हरे रंग की ढेर सारी पत्तियां और उसमे सजे हुए नारंगी रंग के बल्ब। सचमुच खूबसूरती इनकी बेइंतहा है। इसकी खूबसूरती के वशीभूत मैंने भी अपने घर में एक नारंगी का पेड़ लगाया। इस छोटे से पेड़ में ढेर सारी पत्तियां लग गईं। कुछ ही दिनों मे इसमें सफेद-सफेद, छोटे-छोटे फूल खिल गए। मैं बीच-बीच में जा-जाकर उन्हें सूंघा भी करता था। हालांकि, बचपन की गंध अब वहां नहीं थी। फिर वे मस्त थे। फिर उनमें नारंगियां भी फली। उन नारंगियों की चाय भी हमने कभी-कभी पी। वाह उनका स्वाद। उन नारंगियों को निचोड़ने के बाद उनके पतले-पतले छिलके की एक गंध सी हाथों की उंगलियों में भी बस जाती है। अपने हाथों को देर तक सूंघने का भी अपना मजा है।
खैर, मैंने कुछ दिनों में गौर किया कि उस पर हरे रंग का एक कैटरपिलर घूम रहा है। पतली-पतली टहनियों की पगडंडियों पर वह किसी छुट्टे सांड़ की तरह था। जिस भी पत्ती पर उसका मन आ जाता उसे वह खाने लगता। उसकी भूख जैसे शांत होने का नाम ही नहीं लेती। वह पत्तियों पर पत्तियां खाने लगा। मैंने सोचा एक दो पत्ती से इस पेड़ का क्या होगा। गमले के नीचे मैंने देखा हरे रंग की बारीक गोलियां सी पड़ी हुई थीं। शायद यह उस इल्ली का मल था। इल्ली खूब मोटी हो गई। उसके मल को देखकर मुझे लगा कि कहीं ये कीड़ा मेरे सारे पत्तों को न खा जाए। मैंने एस छोटी सी टहनी से उसे उठाकर अपने डस्टबीन में डाल दिया।
मेरे पेड़ की पत्तियां बच गईं। हालांकि, पता नहीं क्यों कुछ महीनों के बाद वह पेड़ भी सूखने लगा। उसकी नई पत्तियां भी मुरझाने लगतीं। उसे सूखता हुआ देखकर मैं उसे रोज पानी देता। फिर भी वह सूखता रहा। उसे अलग से खाद भी दी। एक माली ने कुछ दवा डालने के लिये भी दिया। पर पेड़ सूखता ही गया। यहां तक कि एक दिन ऐसा भी आया कि जब वहां पर पेड़ का सिर्फ पतली टहनियों और तने वाला कंकाल ही रह गया। सभी पत्तियां सूखकर झड़ चुकी थीं। मैंने कुछ दिन इंतजार किया। शायद उसमे फिर से कोंपलें फूट उठें। शायद फिर से वो पत्तियो से भर जाएं। और पानी देता। पूरे पेड़ को पानी से नहला देता। इसके पोर-पोर में पानी भर जाए। ताकि वो फिर से जी उठे। लेकिन पेड़ मर चुका था। अब वो दोबारा कैसे जी उठता।


एक दिन अचानक ही मेरे मित्र सोहेल से मेरी बात हो रही थी। वे तितलियों के व्यवहार के बारे में बता रहे थे। कुछ लोग अपनी बालकनी के छोटे से गार्डेन में कुछ खास पौधे इसीलिए लगाते हैं ताकि वहां पर तितलियां आ सकें। तितलियों को दो तरीके के पौधों की जरूरत होती है। एक वो जिसमें वे अपने अंडे देती हैं, जिसकी पत्तियां खाकर उनकी इल्लियां बड़ी होती हैं और जहां पर वे धीरे से प्यूपा में तब्दील हो जाती हैं। फिर एक दिन वो प्यूपा भी फट जाता है और उसमें से नई तितली निकल आती है। एकदम उसके जैसे। अब उसे उन पौधों की जरूरत होती है जहां से उसे पोषण मिल सके। ऐसे पौधे जिनके मकरंद से उसका पेट भर सके। इसलिए तितलियां पालनी हैं तो इन दोनों ही किस्मों के पेड़ों को अपने बालकनी में जगह देनी होगी। लोग ऐसा करते हैं। बड़ा भरोसा करके तितली किसी के गमले पर अपने अंडे देती है। एक मां को यह यकीन होता है कि मेरे बच्चे जब इसमे से निकलेंगे तो वे सुरक्षित रहेंगे। उन्हें खाना मिलेगा। उन्हें कोई मारेगा नहीं। वे इतना खा सकेंगे कि प्यूपा में तब्दील हो सके।
बात अगर मेरी कि जाए तो मैंने एक मां के भरोसे को तोड़ दिया। गमले में लगे छोटे से नारंगी के पेड़ को उसने एक सुरक्षित ठिकाना समझा। लेकिन, उसके अंडे और इल्लियो के लिए यह सुरक्षित साबित नहीं हुआ। मेरी चिंता में वो नारंगी का पेड़ था। लेकिन, इन इल्लियों के दुख में वो भी सूख गया। क्या पेड़-पौधों को उनकी इल्लियों, मधुमक्खियों और तितलियों से अलग किया जा सकता है। या फिर उनका अस्तित्व एक-दूसरे का पूरक है।
अभी हाल ही में एक अन्य मित्र ने बताया कि नारंगी के पेड़ को ज्यादा पानी की जरूरत नहीं होती। बताइये, हम किसी का ज्यादा खयाल रखकर भी कैसे उसे मार देते हैं।
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