image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

20 जनवरी, 2019

लेख:
सामाजिक क्रांति की मशाल जलाती तीन डाक्टर नायिकाएँ
——————-—————————————————————                         
  जसबीर चावला

नायिका क्रमांक एक : रुखमाबाई (22 नवंबर 1864-25 सितंबर 1955) का नाम सामने आते एक विद्रोही महिला सामने आती है,जिसनें जिसनें 150 वर्ष पूर्व रूढीवादी हिंदू समाज का विरोध किया,अपनी मर्जी के बिना हुए बाल विवाह को चुनोती दी,तलाक लिया और पढ़ाई कर पहली महिला चिकित्सक बनी।ओपनिवेशिक काल में बाल विवाह की सामाजिक चुनोती से तब उसनें परंपरागत हिंदू समाज की चूलें हिला दी।
रुखमाबाई का जन्म मराठी सुतार जाति के जनार्दन पाँडूरंग और जयंतिबाई के घर हुआ था।जन्म के 2 वर्ष बाद उसके पिता चल बसे।तब उसकी माँ कि उम्र 17 थी।पिता कि मृत्यु के 6 वर्ष बाद उसकी माँ ने समाज सुधारक, ख्यात डाक्टर,विधुर सखाराम से पुनर्विवाह कर लिया।रुखमा का विवाह 11 वर्ष की उम्र में 19 वर्ष के दादाजी भीखाजी से हुआ।दादाजी भीखाजी से उम्मीद थी कि वह शिक्षा लेकर,कामकाजी और ''अच्छा आदमी" बनेगा। वह घरजँवाई बन कर रह रहा था.6 माह बाद जब रुखमाबाई किशोरी हो गई तो पति नें चाहा कि 'गर्भाधान' की परंपरागत रस्में हो जायें।ससुर और सुधारक डॉ सखाराम अर्जुन नें उसके रंगढंग देख कर साफ मना किया।
इस बीच दादाजी की माँ की मृत्यु हो गई और वह डॉ सखाराम अर्जुन की इच्छा के विरुद्ध अपनें मामा के घर आ गया।वह 20 वर्ष का होकर कालेज में पढनें की उम्र में 6 टी क्लास में पढ़ना नहीं चाहता था।"अच्छा आदमी" बनने का दबाव भी उसे पसंद नहीं था।उसनें क़र्ज़ा कर लिया था,जिसे वह रुखमा कि संपत्ति बेच कर चुकाना चाहता था।मामा के घर के वातावरण से वह और उच्छृंखल बन गया।
उधर रुखमाबाई नजदीक के चर्च की लायब्रेरी से पुस्तके घर लाकर पढने लगी।वह माँ के साथ नियमित जाती,और वहाँ पिता के समाज सुधारक भारतीय-युरोपियन, महिला-पुरुष मित्रों की संगत से उसका मानसिक विकास तेजी से होनें लगा।वह आर्य महिला समीति की बैठकों में जाती।उसनें पिता के समर्थन से पति के घर जाकर रहनें से स्पष्ट इंकार किया।इस पर दादाजी नें 1884 वकीलों के माध्यम से उसे दंपत्ति की तरह रहने अर्थात "वैवाहिक संबंधों का पुनर्स्थापन" के लिये कानूनी नोटिस भेजा।जवाब में रुखमाबाई की तरफ से डॉ सखाराम अर्जुन नें वकीलों द्वारा जवाब भेज कर उसे भेजनें से पुन:मना किया।


रुखमा बाई 


उसके पति नें 1885 में अदालत का सहारा लिया।मामला जज राबर्ट हिल पिन्हे के पास आया।जज ने निर्णय में लिखा कि इंग्लिश कानून के अनुसार "वैवाहिक संबंधो का पुनर्स्थापन" Restitution Of Conjugal Rights यहाँ लागू नहीं होगा और हिंदू कानून में भी ऐसी कोई मिसाल नहीं है।लिखा कि रुखमाबाई बच्ची है और उसकी तुलना वयस्क महिला से नहीं की जा सकती।उसकी शादी अबोध "असहाय बच्चे" की शादी है।अत:दादाजी का केस ख़ारिज हो गया।
जज पिन्हे के बाद मामला अपील के लिये जज सर चार्ल्स सार्जेंट और एल एच बेले के पास आया,जिन्होंने फैसले को बरकरार रखा।इस बीच देश में इस फैसले को लेकर बड़ी बहस छिड़ गई।निर्णय की कटू आलोचना होनें लगी।कहा गया कि यह हिंदूओं के खिलाफ है।जज हिंदू कानून कि पवित्रता नहीं जानते।हिंदू संवेदनशीलता का आदर नहीं किया।जज आक्रामक तरीके से समाज सुधार करना चाहते है।सार्वजनिक बहस विवाद के कई बिंदुओं के आसपास घूमती रही।'हिंदू बनाम अंग्रेजी कानून','बाहरी बनाम अंदर से सुधार','प्राचीन हिंदू रीति-रिवाजों का सम्मान हुआ या नहीं' 'सामाजिक सुधार बनाम रुढिवाद' जैसे मसलों पर भारत और इंग्लेंड में खूब बहस हुई।
फैसले कि कटू आलोचना करनें वालों में 'बाल गंगाधर तिलक' भी थे जो अपने समाचार पत्र 'मराठा' में और विश्वनाथ नारायण मांडलिक अपनें एंग्लो-मराठी साप्ताहिक में निरंतर लिख रहे थे।उधर रुखमाबाई के पक्ष में 'टाईम्स ऑफ इंडिया 'कई लेख छपे।कई माह बाद पता चला कि इन लेखों को रुखमाबाई खुद छ्दम नाम से लिख रही थी।लार्ड किपलिंग नें भी बहस में भाग लिया4 मार्च 1887 को न्यायमूर्ति फ्रान ने दादाजी की अपील हिंदू लॉ की रोशनी में स्वीकार करते हुए रुखमाबाई को पति के घर जाने या छै माह की क़ैद की सजा का आदेश दिया।रुखमा तब 23 वर्ष की थी।उसनें पति के बदले जेल जाना पसंद किया।इस फैसले से देश में सामाजिक बहस फिर गर्मा गई।तिलक नें 'केसरी' में लिखा "हिंदुत्व खतरे" में है,और यह अंग्रेजी शिक्षा का दुष्परिणाम है।मैक्स मुलर ने लिखा कि ऐसे मामलों का कानूनी हल नहीं होता और यह शिक्षा का सुपरिणाम है कि रुखमा पढ़ लिख कर स्वनिर्णय लेनें में सक्षम हो सकी।देश विदेश के समाचार पत्रों,पत्रिकाओ में खूब लिखा गया।अनेकों चिंतको,कानूनविदों ने बहस में भाग लिया।महिलाओं के पक्ष में ढेरों आवाजें उठी।इस बहस के कारण ही 1991 के कानून में महिलाओं की विवाह की उम्र 10 से बढ़कर 12 हुई।
पति से तलाक रुखमाबाई के जीवन का दूसरा मोड़ साबित हुआ।कुशाग्र रुखमाबाई ने पढ़ने में मन लगाया।कामा हास्पीटल के डॉ एडिथ पेचे ने उसे समर्थन दिया और उसके लिये पैसों का इंतज़ाम भी किया।इंदौर के तत्कालिन राजा 'शिवाजीराव होल्कर' ने "रुढिवाद के विरुद्ध अदम्य साहस" के लिये उसे 500 रुपये दिये।"रुखमाबाई डिफ़ेंस कमेटी" बनी।एक्टिविस्ट इवा मेक लर्न और वाल्टर मेक लर्न ने सहायता कि।रुखमाबाई को इंग्लेंड में डाक्टरी पढनें के लिये मुहिम छेड़ दी गई।1889 में रुखमाबाई इंग्लेंड  चली गई और 1889 में उसने वहाँ "लंदन स्कूल ऑफ मेडिसीन फ़ार विमेन" से डॉक्टर ऑफ मेडिसीन की डिग्री प्राप्त की एवं "रायल फ्री हास्पीटल" से भी शिक्षा ली।प्रसंगवश कादंम्बिनी गांगुली और आनंदी गोपाल जोशी नें 1886 में मेडिकल डिग्री ली।मेडिकल प्रेक्टिस करनें वाली वह दूसरी भारतीय महिला बनी।
1895 में रुखमाबाई भारत लौटी और सूरत के महिला अस्पताल में "चीफ मेडिकल आफिसर" बनी।1918 उन्होनें राजकोट में महिला हास्पीटल में रहनें के बदले अपनी सेवा निवृति 1929 तक "विमेन मेडिकल सर्विस" को तरजीह दी।बाद में वे स्थाई रूप से मुंबई बस गई जहाँ हमारी इस नायिका की मृत्यु 25 सेप्टेम्बर 1955 को हुई।उन्होने पर्दा प्रथा के विरोध में पुस्तक लिखी।उनके जीवन पर मराठी में फ़ीचर फिल्म "डाक्टर रुखमाबाई" में बनी।उनके मुकदमें पर 2008 में Enslaved Daughters:Colonialism,Law and Women's Rights" नाम की पुस्तक सुधीर चंद्रा नें लिखी।2017 में गूगल ने उनके जन्म दिवस पर सम्मान में गूगल डूडल बनाया।


 नायिका क्रमांक दो : कादंम्बिनी गांगुली (1861-1923) भारत की उन दो महिलाओं में से एक थी जिन्होनें न केवल भारत या दक्षिणी एशिया की प्रथम ग्रेजुएट महिला होनें का स्थान प्राप्त किया बल्कि सारे  ब्रिटिश साम्राज्य जिसके अंतर्गत संसार की एक चौथाई आबादी आती थी,की भी पहली महिला बनी।कलकत्ता शासकीय स्कूल के हेडमास्टर ब्रजकिशोर बसु जो,के यहाँ उनका जन्म हुआ था।उनके पिता प्रगतिशील विचारों के थे और ब्रम्होसमाज में सक्रीय थे।वे उसे पढ़ाना चाहते थे,लेकिन तात्कालिन रूढ़िवादी समाज में पढ़ना आसान नहीं था।लड़कियों का कोई स्कूल प्रायमरी लेवल के आगे नहीं था।तभी अवसर आया।ब्रिटिश महिला अन्नेट्टी सुशान अक्रोयड नें उनके पिता ब्रज किशोर बसु,द्वारकानाथ गांगुली और अन्य ब्रम्होसमाज के लोगों के सहयोग से 1872 में गर्ल्स हायस्कूल की स्थापना की,जिसमें कादंम्बिनी नें दाख़िला लिया।अन्नेट्टी सुशान द्वारा विवाह कर लेनें से संचालन में व्यवधान आया,लेकिन द्वारकानाथ गांगुली के प्रयासों से स्कूल पुन: 1876 में प्रारंभ हो गया।1878 में स्कूल 'बेथून स्कूल' में मर्ज़ हो गया।स्कूल नें कलकत्ता विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम अपनाया और कादंम्बिनी नें 1879 में इस स्कूल से पहली महिला के रूप में डिस्टिंकशन के साथ इंटर की परीक्षा पास की।1883 में कादंम्बिनी और एक बंगाली क्रिश्चियन छात्रा चंद्रमुखी बोस ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा पास की।चंद्रमुखी बसु ने बाद में एम ए कर पहली महिला पोस्टग्रेजुएट होनें का सम्मान पाया।


कादम्बिनी गांगुली


सामाजिक कारणों से जब लड़कियाँ पढ़ाई से ड्राप ले रही थी,कादंम्बिनी ने कलकत्ता मेडिकल कालेज में एडमिशन के लिये अर्ज़ी दी।इसके पहले सरला बसु नाम की  छात्रा को एडमिशन नहीं मिला और वह मद्रास पढ़ने चली गई।कालेज छात्राओं को एडमिशन नहीं देना चाहता था।उनकी भी अर्जी ठुकरा दी। कालेज के कई अध्यापकों नें एडमिशन का विरोध किया।आखिर द्वारकानाथ गांगुली द्वारा कानूनी कार्रवाही के डर से कादंम्बिनी मेडिकल में दाख़िला लेनें में सफल हुई।महिलाओं का इतना विरोध था कि एग्जामिनर नें उन्हे जानबूझ कर फायनल में एक नंबर से फेल कर दिया।तब कालेज नें उन्हे अतिरिक्त एक नंबर देकर मेडिकल प्रेक्टिस के लिये स्वीकृति दी.19 वी शताब्दी में जब इंग्लेंड अमेरिका में भी महिलाओं का मेडिकल में प्रवेश एक कठीन कार्य था ऐसे में धारा के विपरीत जाकर अल्प विकसित गुलाम भारत में किसी महिला द्वारा सशक्त विरोध कर इस पेशे में जाना कादंम्बिनी की जीवटता को दर्शाता है।वह 1886 में 'GBMC'-'ग्रेजुएट ऑफ बंगाल मेडिकल कालेज कलकत्ता' बनी।वह साउथ एशिया की पहली मेडिकल ग्रेजुएट भी बनी।जल्दी ही कादंम्बिनी को 'लेडी डफ़रिन मेडिकल हास्पीटल' में 300 रुपयों के वेतन पर रख लिया गया।उनकी प्रायवेट प्रेक्टिस भी खूब चली।वे नेपाल के शाही परिवार की महिलाओं की डाक्टर भी रही।
रुढ़ीग्रस्त हिंदू समाज उनके प्रति घोर शंकालु,आलोचक और काम में बाधाएँ पैदा करता था।प्रसिद्ध बाँग्लाभाषी समाचार पत्र 'बंगबासी' उनके प्रति महिला होनें के कारण शत्रुता,नफरत और आलोचना का भाव रखता था।डाक्टर होनें के नाते उन्हें रात में भी मरीज़ों को देखने जाना होता था और अक्सर लौटनें में देर हो जाती।1891 में समाचार पत्र ने उन्हें वैश्या समान बताया।कादंम्बिनी,उनके पति और प्रगतिशील ब्रम्होसमाज नें मुक़ाबला किया और समाचार पत्र को अदालत में घसीट लिया।संपादक महेशचंद्र को 6 माह की सजा हुई और 100 रुपयों का जुर्माना भरना पड़ा।नौकरी के दौरान निंदा करते हुए उन्हें अप्रशिक्षित लिखा।कादंम्बिनी नें इसे चेलेंज माना और उच्च शिक्षा के लिये 1893 में ब्रिटेन चली गई।उसनें एडिनबर्ग से LRCP ग्लासगो से LRCS और डबलिन विश्वविद्यालयों से GFPS मेडिकल डिप्लोमा प्राप्त किये।वह भारत की पहली ऐसी महिला बनी जिसनें ब्रिटेन से मेडिकल की पढ़ाई डिस्टिंकशन के साथ की।कितनें लोगों को पता होगा कि आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में किसी महिला का दाख़िला होने के एक साल पूर्व ही एक भारतीय महिला कादंम्बिनी गांगुली कलकत्ता युनिवर्सिटी में दाख़िला ले चुकी थी। 
संयोग देखिये।पढ़ाई के दौरान उनका विवाह अपनें स्कूल के हेडमास्टर और संस्थापकों में में से एक,प्रगतिशील ब्रम्होसमाजी द्वारकानाथ गांगुली के साथ 21 वर्ष की आयु में हुआ।तब द्वारकानाथ गांगुली 39 साल के विधुर थे और उनके 6 बच्चे थे।उनसे भी दो बच्चे और हुए।इस विवाह का ब्रम्होसमाज सहित कईयों नें विरोध किया था।उनके पति की मृत्यु सन 1898 में हुई।

कादंम्बिनी न केवल प्रख्यात डाक्टर थी बल्कि प्रगतिशील समाज सुधारक भी थी।कढ़ाई कला में प्रवीण थी।राजनैतिक कार्यों में भाग लेती थी।उन्होंने शहरी महिलाओं के सर्वांगीण उत्थान के प्रति समर्पण के साथ साथ पति के साथ आसाम के चाय बगानों और बिहार की कोयला खदान महिला मज़दूरों के लिये भी काम किया।उन्हे उनके पति सहित महिलाओं के सशक्तिकरण के लिये याद किया जाता है।वे पाँचवी 'इंडियन नेशनल कांग्रेस' 1889 में महिला प्रतिनिधी बनी।1906 में बंगाल विभाजन के बाद कलकत्ता में महिलाओं के साथ एकजुटता पर कान्फ्रेंस की और 1908 तक इस संगठन की अध्यक्ष रही।दक्षिण अफ्रीका में गाँधीजी के सत्याग्रह के पक्ष में खुल कर आवाज उठाई।गाँधीजी की गिरफ़्तारी के विरोध में 'ट्रांसवाल इंडियन एसोसिएशन' बनाकर समर्थन दिया।1915 में कलकत्ता मेडिकल कालेज नें छात्राओं को कान्फ्रेंस में रोकने पर कादंम्बिनी नें जबरदस्त प्रतिरोध किया और कालेज को पालिसी बदलना पड़ी।अपनी मृत्यु के दिन 3 अक्टूबर 1923 को किसी मरीज को देख कर लौटी ही थी।कि थोड़ी देर में 61 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई। 

नायिका क्रमांक तीन : बंबई निवासी 
आनंदीबाई गोपालराव जोशी नें (31 मार्च 1865 - 26 फरवरी 1887) संयुक्त राज्य अमेरिका में पश्चिमी चिकित्सा प्रणाली से दो साल अध्ययन करके ग्रेजुएशन कर डिग्री प्राप्त करनें वाली पहली भारतीय महिला चिकित्सक बनीउसके पति का नाम गोपालराव जोशी था।आनंदी से उम्र में काफ़ी बड़ा होनें के बावजूद गोपालराव महिला शिक्षा का पक्षधर था और उस समय के हिसाब से प्रगतिशील भी।जब महिलाएँ कई कारणों से पतियों से पिटती थी,गोपालराव आनंदी को मेडिकल की पढ़ाई करने के लिये पीटता था।
मूल रूप से यमुना के नाम से,आनंदी जोशी का जन्म पुणे (महाराष्ट्र) में हुआ था।बाद में परिवार कल्याण आ गया।तब की प्रथानुसार माँ के आग्रह से उसकी शादी 9 वर्ष की उम्र में अपनें से 20 वर्ष बड़े विधुर गोपालराव जोशी से हुई,जो पोस्ट आफिस में क्लर्क था।शादी के बाद उसका नाम बदल कर आनंदी गोपाल जोशी हो गया।गोपालराव जोशी का नौकरी में स्थानांतरण होता रहता था और अंत में वे कलकत्ता नौकरी में आ गये।


आनंदीबाई


चौदह वर्ष की आयु में,आनंदी ने एक लड़के को जन्म दिया,लेकिन चिकित्सीय देखभाल की कमी से बच्चा दस दिनों तक ही जीवित रहा।आनंदी के जीवन का यह एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ और इसनें उन्हें चिकित्सक बनने के लिए प्रेरित किया।
गोपालराव ने प्रसिद्ध मिशनरी रायल वाईल्डर को 1880 में पत्र भेजा जिसमें अपनी पत्नी को डाक्टर बनाने और खुद के लिये अमेरिका में नौकरी की बात लिखी।वाईल्डर नें उसी पत्रावली को 'प्रिसटोन मिशनरी रिव्यू' में प्रकाशित करवा दिया।न्यू जर्सी की एक महिला थियोडिका कारपेंटर नें उसे पढ़ा।वह आनंदीबाई की लगन और पति के पत्नी के प्रति सोच से प्रभावित हुई और उसने आनंदीबाई जोशी को अमेरिका में आवास देनें का प्रस्ताव दिया।
जोशी दंपत्ति के कलकत्ता निवास के समय ही आनंदी का स्वास्थ गिरता जा रहा था।उसे चक्कर आने,सिरदर्द,बुखार ,साँस उखड़ने जैसी समस्या थी।थियोडिका कारपेंटर ने उसके लिये अमेरिका से दवाइयाँ भेजी।गोपालराव का स्थानांतरण सेरामपुर हो गया।उसनें आनंदी को गिरते स्वास्थ के बावजूद अकेले ही अमेरिका में मेडिकल की शिक्षा के लिये राज़ी कर लिया।वह उसे उच्च शिक्षा दिलाकर महिलाओं के लिये एक आदर्श स्थापित करना चाहता था।
जोशी दंपत्ति के इस निश्चय से भारतीय पंरपरावादी रुढ़ीग्रस्त समाज में जबरदस्त हलचल शुरु हुई और उनका विरोध हुआ।आनंदी नें सेरामपुर कालेज के हाल में लोगों को संबोधित कर बतलाया कि वह अमेरिका से मेडिकल की डिग्री क्यों लेना चाहती है।उसनें महिलाओं को मेडिकल सहायता न मिलनें,अपनें बच्चे की मौत,अपने गिरते स्वास्थ पर चर्चा की और कहा कि डाक्टर बनकर वह मेडिकल कालेज खोलेगी।उसके भाषण की सारे देश मे खूब चर्चा और स्वागत हुआ।उसे अमेरिका भेजनें के लिये लोगों ने दान दिया।अमेरिका के एक डाक्टर थोरबन दंपति ने सुझाया कि उसे "वुमनस् मेडिकल कालेज ऑफ  पेन्सिलवेनिया" में जाना चाहिये।
आनंदी नें "वुमनस् मेडिकल कालेज ऑफ  पेन्सिलवेनिया" के डीन से सम्पर्क किया और उन्हे एडमिशन मिल गई।आनंदी 1883 में कलकत्ता से जहाज से न्यूयार्क रवाना हुई और जहाँ उनका स्वागत थियोडिका कारपेंटर परिवार ने किया।आनंदी ने मेडिकल कालेज में 19 वर्ष की उम्र में पढाई शुरु की।उसका स्वास्थ वहाँ भी ठीक नहीं रहता था।खानपान कि विभिन्नता और ठंड के कारण उसे टी बी हो गई।फिर भी जीवट और उत्साह से लबरेज़ आनंदी ने 1885 में "ग्रेजुएट विथ एम डी" कर ली।उसकी थिसिस का विषय था "हिंदू महिलाओं में प्रसूति की समस्याएँ"।महारानी विक्टोरिया ने उसके डाक्टर बनने पर बधाई का तार भेजा।
1886 के अंत में,आनंदी भारत लौटी।देश में उनका भव्य स्वागत हुआ।कोल्हापुर के राजा नें उन्हें 'अलबर्ट एडवर्ड अस्पताल' में महिला वार्ड की चिकित्सा प्रभारी नियुक्त किया।दुर्भाग्य,अगले ही वर्ष 26 फरवरी 1887 को 22 साल की उम्र में,उनकी मृत्यु टी बी से हो गई।उनकी मृत्यु से देश में शोक छा गया।अमेरिका में उनका मित्र परिवार थियोडिसिया कारपेंटर भी दुखी थे।उन्होंने उनकी राख को अमेरिका बुला कर न्यूयार्क के 'अपनें परिजनों की क़ब्रों के साथ ग्रामीण क़ब्रिस्तान' में दफ़नाया।
खगोल शास्त्रियों ने आनंदी जोशी को इसी वर्ष 2018 में अंतरिक्ष में अमर कर दिया है।शुक्र ग्रह का एक क्रेटर (सुप्त ज्वालामुखी का मुख) जो कि 34.3 वर्ग किलोमीटर का होकर,उत्तर में 5.5 अक्षांस और पूर्व में 288.8 देशांतर है,का नाम 'जोशी' रखा गया है।दूरदर्शन ने उनके जीवन पर "आनंदी गोपाल जोशी" नाम का सिरियल बनाया।1888 में अमेरिकन नारीवादी लेखिका कैरोलिन वेल्स नें और डॉ.अंजली कीर्तनें नें उनके जीवन पर पुस्तकें लिखी। 'दि इंस्टिट्यूट फ़ॉर रिसर्च एंड डाक्युमेंटेशन इन सोशल सायंस' लखनऊ मेडिसीन में विशिष्ट योगदान देनें वालों को 'आनंदीबाई पुरस्कार' देता है।महाराष्ट्र सरकार उनके नाम से मेडिकल में फ़ेलोशिप देती है।इसी वर्ष 2018 गुगल नें उनके सम्मान में गूगल डूडल बनाया है।
000

जसबीर चावला

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें