image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

27 जनवरी, 2019

किसान-चेतना के दो छोर
---------------------------------
अनिल अविश्रांत 

अनिल अविश्रांत

मैं अपने लेख की शुरुआत 'धरा के अभागे'(रेचड आफ दी अर्थ) की भूमिका में लिखे गये सार्त्र के इस वाक्य से करना चाहता हूँ कि--" जब एक खेतिहर हथियार उठाता है तो यह कर्म उसकी महानता का प्रतीक है।" किसान जीवन के सबसे बड़े कथाकार प्रेमचंद भी अपने लेख'महाजनी सभ्यता'में बहुत साफ लिखते हैं कि--"वह(मेहनतकश)यह नहीं देख सकता कि उसकी मेहनत की कमाई पर दूसरे मौज करें और वह मुँह ताकता रहे।" दो बड़े रचनाकारों की यह स्थापना किसानों-मजदूरों की मास-मीडिया द्वारा बना दी गई-कमजोर ,बेचारगी से भरी पस्तहिम्मत छवि का प्रत्याख्यान है। कई बार अनजाने ही साहित्यकार भी किसान की इसी छवि का पिष्टपेषण करने लगते हैं । किसान के दुख, उसकी तकलीफ़ों पर बहुत सी कहानियाँ हैं ।अखबारों में किसान-आत्महत्या की खबरें उसकी पस्तहिम्मती को बयां करती हैं। लेकिन यथार्थ का दूसरा पहलू जिसे लगातार रेखांकित करने की जरूरत है ,वह है -'किसान की संघर्ष चेतना'। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि अन्याय और शोषण के खिलाफ किसानों के संघर्ष की एक सशक्त और शानदार परम्परा रही है जिससे किसानों की वर्तमान पीढ़ी को जुड़ना और सबक लेना चाहिए। यह ध्यान रखने की जरुरत है कि 'शोषण का इतिहास जितना पुराना है, उतना ही पुराना उससे संघर्ष का इतिहास भी है।' हिन्दी के कई कथाकारों ने किसान की संघर्ष चेतना को केन्द्र में रखकर महत्वपूर्ण कहानियाँ लिखी हैं ।इस लेख में हाल ही में प्रकाशित दो कहानियों के हवाले से किसान कीचेतना के दो छोरों की पड़ताल करते हुए उसकी जिजीविषा और उसकी आंदोलनधर्मी चेतना पर बात की जायेगी।


कथाकार साथी संदीप मील की हाल ही में छपी कहानी 'बोल काश्तकार '(पल प्रतिपल83) उस चेतना की वाहक है।संदीप मील स्वयं किसान आन्दोलन से जुड़े रहे हैं । सामन्ती भू संबंधों से लेकर पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के रूपान्तरण और उसकी जटिलताओं पर संदीप की गहरी नजर है। एक दृष्टि से भारतीय सन्दर्भों में यह कृषि संस्कृति का इतिहास भी है जिसे पूरे कौशल के साथ संदीप मील ने साधा है और उसे बिल्कुल आज के जलते सवालों से जोड़ दिया है। 'जमीन की लूट' किसानों से उसके एकमात्र संसाधन की ही लूट नहीं है बल्कि उसे पूरी तरह संस्कृति विहीन कर देना है। इस पर गहरी चिंता 'रंगभूमि' में प्रेमचंद ने भी व्यक्त किया था।लेकिन संदीप मील आज के कथाकार हैं ।कार्पोरेट विगत की तुलना में आज बहुत ताकतवर हो चुका है और सत्ता खुलकर दलाली की भूमिका में है ऐसे में लड़ाई कठिन है। सत्ता और पूँजी के गठजोड़ ने लोभ-लाभ के तमाम बनावटी अवसर उपलब्ध कराये हैं ।'राजगढ़' के किसान भी इसमें फँसते हैं ।
"राजगढ़ के बगल में सीमेंट की फैक्टरियां लगने वाली थीं ।वहाँ पर सीमेंट बनने वाला पत्थर निकला था।जिन जमीनों को कल तक कोई पूछता नहीं था, आज वे कीमती हो चली थीं।"

पूंजीवादी विस्तार के दौर में जमीनें मूल्यवान एसेट हैं। आवासीय कालोनियां, हाई वे -एक्सप्रेस वे का निर्माण रातों रात जमीनों का चरित्र बदल देते हैं।'जमीन किसान के श्रम- संसार को और रचनात्मक बनाने की बजाय अधिक मुनाफा कमाने और सुविधाजीवी होकर अपनी श्रमशीलता से ही हाथ धो बैठने का जरिया हो जाती है।'(विनोद शाही : सर्वाधिक जमीनी चेतना का आत्मघात) फौरी तौर पर जमीन की मिल्कियत रखने वाले किसानों का रूपान्तरण भी होता है।अचानक मिला पैसा व्यक्ति को विवेकहीन उपभोक्ता में बदल देता है जिसे अमेरिकी चिंतक रेम्सेक क्लार्क ने 'विध्वंसक हथियारों से भी अधिक खतरनाक' माना है। संदीप मील ने इसे अपनी कहानी में दर्ज किया है-
"पैसों से जेबें भर गए।सबने एक से एक शानदार गाडियां खरीदीं ।कुछ ने शहर में प्लाट खरीदे।मकान बनाये और पूरी आराम की जिंदगी जीने लगे।अधिकांश ने गांव ही छोड़ दिया। अब ये काश्तकार से अमीर बने लोग हर चीज स्टैंडर्ड की करते हैं ।बच्चे महंगे स्कूलों में पढ़ते हैं ।महंगी शराब पीते।खाना घर में कम और होटलों में ज्यादा खाते।कई विदेश घूम आये।तेल का रोज का खर्च भी कम नही होता ।कमाते कुछ नहीं थे। पैसा था धीरे-धीरे खत्म भी हो गया।"

इसलिये अपनी शुरुआती भूलों का परिमार्जन करते हुए नीर और उसके साथी पडोसी गांव 'नोपगढ़' के किसानों की लडाई में शामिल होते हैं।वे अब इस ठोस निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं-

" जमीन बचाने के लिए संगठित रहना पडेगा!"

यह संगठन ही किसानों को पस्तहिम्मती से बचायेगा।नीर के खुद के हालात अच्छे नहीं हैं ।वह स्वयं गहरे मानसिक अन्तर्द्वन्द्व से घिरा रहा है।संदीप मील इसे जानते हैं इसलिए लडाई के मोर्चे बनाते हुए वह आधी दुनिया की बाशिन्दों को भी शामिल करते हैं। कोई भी आन्दोलन स्त्रियों की सक्रिय भागीदारी के बिना अधूरा ही है।साथ ही आन्दोलन की मुक्तिकामी चेतना पूरी लडाई को और व्यापक और लोकतांत्रिक बनाती है।पितृसत्ता की चौहद्दियां भी इसमें टूटती हैं और समतामूलक, लोकतांत्रिक धरातल का निर्माण भी होता है।

'सिर्फ जमीन बचाने से कुछ नहीं होगा,हमें अपने आप को भी बदलना है।बिना बदले अगर जमीन बचा भी ली तो वह फिर कोई हड़प लेगा।हमें बराबरी से रहना होगा।'

यही जनान्दोलनों की तासीर है जो हमें भीतरी और बाहरी दोनों स्तरों पर मुक्त करती चलती है ।

कहानी का आखिरी हिस्सा सत्ता के हिंसक चरित्र को उजागर करता है।मंदसौर से लेकर तूतीकोरिन तक में घटित घटनाएं ज़ेहन में बिल्कुल ताजा हैं।लांग मार्च पर निकले किसानों के जत्थे इस बात का प्रतीक हैं कि मेहनतकश अपनी मेहनत की लूट को अब और ज्यादा दिन बर्दाश्त नहीं करेगा।
संदीप मील की कहानी 'बोल काश्तकार' के पसन्द आने का एक बड़ा कारण कथाकार द्वारा रेखांकित 'किसान की संघर्ष चेतना' है। यह चेतना ही सामूहिकता का निर्माण करती है।सामूहिकता किसानी जीवन की मूल विशेषता है। यह संघर्ष के लिए अनिवार्य शर्त है। 'बोल काश्तकार 'के दूसरे छोर पर एक दूसरी कहानी ' गुहार' (परिकथा,जुलाई-अगस्त अंक18) है।शिव किशोर जी की यह कहानी सद्धन और वासुदेव की है।ये किसान परस्पर मित्र हैं ।लेकिन ध्यान देने की बात है कि इनमें न तो कोई वर्गीय चेतना है और न ही संघर्ष का कोई माद्दा। दोनों प्राकृतिक आपदा में नष्ट हुई फसल के लिए सरकारी राहत न मिल पाने से दुखी हैं । वासुदेव कहता है-

"साहब लोगों, मेरी सब की सब फसल बर्बाद हो गयी है।मेरे खेत देख लिए जायें ।मेरा जो सबसे बड़े रकबे वाला खेत है,उसमें गेहूँ बोया था।उसकी बची खुची फसल को मैंने हाथ भी नहीं लगाया है।कुछ हाथ लगने वाला भी नहीं था।मैं बहुत मुसीबत में हूँ ।मुझे कोई भी राहत राशि नहीं मिली है।"

वासुदेव का यह दुख जेनुइन है लेकिन वह अपनी समस्या का हल फौरी तौर पर ही खोजता है। वह नहीं जानता कि राहत के नाम पर वितरित राशि किसी भद्दे मजाक की तरह है जिससे कुछ हल निकलने वाला नहीं है।

सबसे बड़ी बात जो अखरती है वह यह कि मित्र होने के बावजूद सद्धन लगातार छह दिनों तक वासुदेव का कोई हालचाल नही लेता है। जबकि दोनों एक ही जैसी समस्या से ग्रस्त हैं।उन्हें अपने जैसे दूसरे किसानों से मिल जुलकर एका बनाने की जरूरत है और साझे मोर्चे पर संघर्ष करने की जरूरत है।'किसान यूनियन' और 'किसान सभा' जैसे संगठन उन्नाव और आस पास जिलों में खुब सक्रिय भी हैं ।किसानों के छोटे-बड़े मुद्दों पर उन्हें अनशन,धरना और प्रदर्शन करते मैंने खुब देखा है।बावजूद इसके कहानी में इसकी कहीं झलक नहीं मिलती।यहां वासुदेव का कथन उसकी बढ़ती हताशा को व्यक्त करता है-

" दुनिया अपने में मगन है।दुनिया की हँसी-खुशी दुनिया को अपने में मगन रखे हुए है...और हमारी मजबूरी हमें अपने में मगन रखे हुए है!"

इस व्यक्तिवादी मध्यवर्गीय प्रवृत्ति का गांव-गिरांव तक फैलाव खतरनाक है।जन संगठनों से कटाव किसानों के लिए आत्मघाती है। क्योंकि उनकी लड़ाई व्यक्तिवादी दायरों के बाहर की लड़ाइयाँ हैं ।यह पूरी- की -पूरी संस्कृति को बचाने का मामला है और इसे फौरी तौर पर नहीं लड़ा जा सकता। लगातार छह दिनों तक ड्रम पीटता वासुदेव अपनी समस्याओं के सही कारणों तक नहीं पहुंच पाता और अन्ततः आत्महत्या कर लेता है। उसकी आत्महत्या के लिए जो व्यवस्था जिम्मेदार है उसी के नुमाइन्दों के सामने सद्धन की 'गुहार' --"साब ,यह धन दूसरे की आत्महत्या पर भी देगें?" हमें विचलित तो करती है पर सत्ता के उन असंवेदनशील प्रतिनिधियों के लिये कोई खास मायने नहीं रखती।

अब मैं फिर संदीप मील की कहानी 'बोल काश्तकार ' की ओर चलता हूँ । यहाँ किसान की बढती समस्याओं की सही पड़ताल मिलती है।

"इन दिनों खेती के खर्चे बढ गये थे।आमदनी नहीं बढ़ी थी। तेल की कीमतों के बढ़ने के कारण बुवाई और कढ़ाई महंगी हो गई ।खाद के भाव भी कम नहीं थे।"

संदीप मिल 


किसानी का संकट कितना बड़ा है यह यहां समझ में आता है।यह अपने चरित्र में वैश्विक है। इसके पीछे बाजार का मुनाफा है,उसके दलाल हैं और सरकारी नीतियाँ हैं जो लगातार खेती को अलाभकारी पेशा बनाने की साजिश में शामिल हैं । दरअसल उनकी निगाह खेतों पर है उसे छीनने -झपटने और भूमाफियाओं को सौंप देने की चाल है।'कारपोरेट फार्मिंग' की अवधारणा पर सरकारें काम कर रही हैं ।जागेराम के हवाले से संदीप इस सच को बेनकाब करते हैं-

"मेरे बच्चों, तुम्हें हमारे से ज्यादा मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा।खेत में मालिक तो रह जाओगे, लेकिन खेती का मालिक कोई और हो जायेगा।बिना खेती के मालिकाना तुम्हारे खेत ही तुम्हारी कब्रगाह बन जायेंगे ।"
किसानों की यह समझदारी ही उन्हें संगठित होने और संघर्ष करने की प्रेरणा देती है।
"जमीन हमारी ....लूट तुम्हारी
नहीं चलेगी..........नही चलेगी"
यह अकारण नहीं है कि संदीप मील की इस कहानी में आत्महत्या की खबरें तो हैं लेकिन कोई किसान स्वयं आत्महत्या नहीं करता। हाँ ,वे लड़ते हुए जेल जरूर जाते हैं ।
काश 'गुहार' के वासुदेव और सद्धन भी इस बात को समझ पाते।
००


अनिल अविश्रांत का एक लेख और नीचे लिंक पर पढ़िए



संदर्भित कहानियाँ-
बोल काश्तकार---संदीप मील
(पल प्रतिपल 83 में प्रकाशित)
गुहार---- शिव किशोर
(परिकथा---जुलाई-अगस्त,2018 में प्रकाशित)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें