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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

28 मार्च, 2018

कृष्ण समिद्ध की कविताएँ



कृष्ण समिद्ध


कविताएँ



एक 

मैं

मैं
और
उसका कमरा.

सलीके से रखा हर कोना
उसका हर कपड़ा
उसके मरने के बाद भी
उसके जैसा लगता है।

दरवाजा खुलेगा
वह आ जायेगी अंदर
अपने भीँगे बालों को पोंछते हुए।

हँसते हुए,
और अनंत तक रुक जाएगें
मैं
और
उसका कमरा
सलीका से रखा हर कोना
और उसकी गंध में
अनंत बजता हुआ मैं.





दो 
 न जाने  कितनी  देर


तुम्हारे साथ चुप रहा  न जाने  कितनी  देर।

नीला  आकाश चुपचाप अचानक
और नीचे आ गया
चाँदनी  अपने हाथों में लिये।

हम एक दूसरे के कितने करीब थे ,
दो  सुखे फूल की आत्माओं  की  तरह
जो खाद बन रहे थे अपने ही  जड़ों में।

फूल पर सोये भँवरे की  तरह
जो एक शरीर की  तरह 
झूल रहे थे हवाओं में झूले।

और
सब चुप थे,
वह सृजन का समय था।



एम एफ़ हुसेन 




तीन 

शिकारी

प्रकृति में आदमी हत्यारा था,
शिकारी था।

पहला किसान
पहले एक शिकारी था।

इतना धैर्य कि महीनों का इंतजार
इतना श्रम कि दिन रात काम
सब लक्षण बेहतरीन शिकारी के हैं।

किसान ने खोजा
हत्याओं के भोजन का विकल्प ।
खेत में साम्राज्य उगे
औऱ
पेड़ पर उगने लगा किसान,
सभ्यता का सबसे बड़ा शिकारी किसान।





चार 

गाँव का कवि 

मैं गाँव का कवि  नहीं  ।
मेरे लिए गाँव मेरे दादाजी थे
जो  साल में दो  तीन बार आते थे ।
कभी  बेढंगे आम का  बोरा  लिए
तो  कभी  सब्जी   , कभी  गन्ना-मकई।

मेरे लिए गाँव
विदाई के वक्त मिले दस रुपये की काली नोट है
जो है, पर नहीं है चलन में ।

मेरे लिए गाँव     गर्मी  की  छुट्टी  है,
जो अजन्में आम के मंजर के साथ रही खत्म।

नहीं मैं गाँव का कवि  नहीं  ,
मैं उस गाँव कवि हुँ जो शहर में रहता है।





पांच 

जोड़ा

आमों  की  अमराई  का  गंध
उसमें तैरता
मेरा मन।

नीचे
काली  मीट्टी  महक रही  है
रात भर बरसी  थी अमराई।

दूर रह-रह आ रही   कोयल की तान
कहीं आत्मा से आत्मा टकरा  रही  है ।

खेत में नाच रहे थे  सूखते गेहूँ के भूत।

ठीक पड़ोस में
सुखे लंबे साँप से गढ्ढे में
दादाओं के दादाओं  के जमाने से
बह रही थी सूखी नदी...बाघमती।

पहले
गंधाकाश में
नदी  के तट पर आम झुका रहता था,
सैकड़ों  सालों  तक चुंबनरत।

बीच में
नदी  नहीं  रहीं ,
बौराये सी  महकती है आम की  अमराई  ।

दादी  कुछ इस तरह खत्म करती  थी  किस्सा
नदी  अब भी बहती  है आम के नीचे पाताल तक
इसलिए तो  माँ  के दूध की  तरह महकती है
अमराई ।

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