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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

23 मार्च, 2018

आज क्या हम आज़ाद हैं ! 

(सन्दर्भ: 23 मार्च शहादत दिवस )

तुहिन 

एक सामाजिक तबके के रूप में युवा किसी भी समाज का सबसे सक्रिय और ऊर्जावान तबका होता है।

 सभी देशों के इतिहास में अत्यंत समर्पण एवं आत्म बलिदान की क्रांतिकारी भावना से लैस होकर एक प्रगतिशील समाज के निर्माण की प्रक्रिया में बहुत कुछ योगदान देने के लिए वे अगली कतारों में रहे हैं। भारत के नौजवानों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरूद्ध लड़ाई में महान् एवं गौरवशाली भूमिका निभाई है। शहीद भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद सरीखे हजारों नौजवानों ने देशभक्ति, आजादी और समतावादी समाज के महान् आदर्शो से प्रेरित होकर ब्रिटिश राज के शोषण और अत्याचार के खिलाफ लड़ा था। एक नये भारत के महान सपनों को साकार करने के लिए हजारों नौजवानों ने अपना जीवन कुर्बान किया। क्या हम आजाद हैं? लेकिन आजादी के 70 सालों में हालात कैसे हैं? आज हमारा देश घोर सामाजिक-आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है। तथाकथित आजादी के छह दशकों के बाद भी आज जनता के विशाल बहुमत के लिए रोटी, कपड़ा, मकान, बुनियादी शिक्षा और स्वास्थ्य से संबंधित मौलिक समस्याएं अनसुलझी पड़ी है। हर गुजरे वर्ष के साथ बेरोजगारों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। लाखों लाख गांव अत्यधिक गरीबी की चपेट में हैं और या तो बाढ़ या भूकंप या फिर अकाल की मार झेलना इनकी नियती बन गई। बेरोजगारी की बदतर होती समस्या परिस्थिति को भयावह बना रही है। विदेशी कर्ज के बोझ से देश लदता जा रहा है। असल मे देश को विदेशी एजेंसियों, विशेष रूप से अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष (आई.एम.एफ.), विश्व बैंक तथा विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू.टी.ओ.) को सौंपा जा चुका है। भारत में नौजवानों ने आजादी की लड़ाई लड़ते हुए जो सपने देखे थे वे चकनाचूर कर दिये गये। उन्हें मिली भूख, गरीबी, बदहाली, बेरोजगारी, अशिक्षा, अफसरशाही और तानाशाही। हम बेरोजगार क्यों? हममें से बहुत से नौजवान ये जानना चाहते है कि क्यों उनकी तकदीर में बेरोजगार रहना लिखा है? देश इन करोड़ों करोड नौजवानों के बाजुओं की ताकत का उपयोग अपने विकास के लिए क्यों नहीं कर पा रहा है? वैसे तो 15 अगस्त 1947 के बाद, देश में ईमानदारी और बेईमानी के बीच, अमीरी और गरीबी के बीच, महलों और झोपड़ियों के बीच, मेहनत करने वालों और लुटेरों के बीच खाई पटने के बजाय लगातार गहराती गई है। लेकिन विशेष रूप से पिछले दो दशक से नयी आर्थिक नीति को लागू करने के बाद जैसे कहर आ गया है। आर्थिक सुधारों के नाम पर बहुराष्ट्रीय पूंजी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुलेआम बिना किसी रोक-टोक के हमारे देश में व्यापारिक लूट मचाकर और अमीर हो जाने की पूरी तरह छूट दे दी गई है। मानो ईस्ट इंडिया कंपनी और अंग्रेजों द्वारा दो सौ वर्षो तक देश को लूटा जाना ही काफी न रहा हो। पहले नरसिम्हाराव की कांग्रेस सरकार, फिर संयुक्त मोर्चा सरकार, फिर अटल बिहारी बाजपेयी की भाजपा नीत गठबंधन वाली सरकार फिर कांग्रेस नीत संप्रग सरकार और अब भाजपा नीत राजग सरकार। सभी, स्वदेशी की आड़ में विदेशी गुलामी लादने वाली निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों को लागू कर रहे हैं। यही कारण है कि बेरोजगारी ने विकराल रूप धारण कर लिया है। देश नई गुलामी की ओर अमरीकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में तमाम यूरोपियन एवं जापानी साम्राज्यवादी ताकतें, पुराने तरीके से देश को उपनिवेश (गुलाम) न बनाकर अप्रत्यक्ष तरीके से नयी गुलामी (नवउपनिवेश) लाद रही है। चाहें केन्द्र सरकार हो या किसी भी राजनैतिक दल के नेतृत्व में चलने वाली राज्य सरकार हो सभी, विदेशी साम्राज्यवादी ताकत, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व व्यापार संगठन सहित तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों के इशारे पर नाच रहे हैं। इन्हीं के निर्देशों पर हजारों दैनिक वेतनभोगी कर्मचारियों की छटनी की जा रही है। नई दवा नीति के जरिए दवाओं की कीमतें बहुत अधिक बढ़ाई जा रही है। इन्हीं के हित में लाखों बड़े व लघु औद्योगिक इकाईयों को बंद कर बड़े पैमाने पर मजदूरों की छंटनी की जा रही है। श्रम कानूनों को बदलकर महनतकशों के संगठित होने और संघर्ष करने का अधिकार छीना जा रहा है। आम जनता की खून-पसीन की गाढ़ी कमाई जो बैंकों में जमा है उन्हें लेकर कॉर्पोरेट बड़े पंूजीपति देश से भाग रहे हैं या कर्ज लेकर हजम कर चुके हैं। दूसरी ओर बैंक का कर्ज न पटाने के कारण किशान व अन्य मेहनतकश जनता आत्महत्या कर रही है। बैंक, बीमाक्षेत्र सहित केन्द्र व राज्य सरकार के कई संस्थाओं में नई नौकरियों पर रोक लगा दी गई है। शिक्षा, स्वास्थ्य समेत तमाम समाज-कल्याणकारी योजनाओं पर सरकारी खर्च कम किया जा रहा है। स्कूलों, कॉलेजों में फीस बढ़ाई जा रही है। मंहगाई बेहिसाब बढ़ गई है। जनता की गाढ़ी कमाई और टैक्सों से बने सार्वजनिक क्षेत्रों की कंपनियों और अन्य सरकारी संस्थानों को बिल्कुल कौड़ियों के दाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों/निजी कंपनियों को बेचा जा रहा है। चारों तरफ स्थायी नौकरी देने की जगह अस्थायी रूप से शिक्षा कर्मी, गुरूजी आदि को ठेके पर रख कर बेरोजगारों के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। शिक्षा को निःशुल्क, अनिवार्य एवं बेहतर बनाने की जगह अमीरों के लिए अलग व गरीबों के लिए अलग शिक्षा की नीति बनाकर दो प्रकार के नागरिक बनाए जा रहे हैं। प्राथमिक शिक्षा की जिम्मेदारी अब सरकार खुद न उठाकर आम जनता के कंधों पर डाल रही है तथा शिक्षा का निजीकरण एवं व्यवसायीकरण किया जा रहा है। नब्बे के दशक से जिन नवउदारवादी जनविरोधी कॉर्पोरेट परस्त नीतियों को लागू किया जा रहा है। अब उसके चलते स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण सहित तमाम जनकल्याणकारी नीतियों का अंधाधुंध नीजिकरण किया जा रहा है। निजीकरण एवं उदारीकरण के परिणाम शिक्षा क्षेत्र में निजीकरण के बहाने बड़ी-बड़ी निजी कंपनियों एवं विदेशी विश्वविद्यालयों को प्रवेश दिया जा रहा है। निजीकरण के चलते उच्च शिक्षा अब आम आदमी की पहुंच से बाहर हो गई है। इन नयी आर्थिक नीतियों से देश के अमीरों को मिला है और ज्यादा अमीर बनने का रास्ता और ज्यादा आसान ढंग से। उच्च मध्यमवर्ग को मिले हैं और ज्यादा विदेशी कंपनियों के आधुनिक उपभोक्ता समान। और आम परिवारों और नौजवानों के कोटे में है और कॉर्पोरेट द्वारा सृजित अधिक भ्रष्टाचार, जानलेवा नोटबंदी, जी.एस.टी., शेयर घोटाले और ज्यादा मंहगाई, बेरोजगारी, ज्यादा पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत, बिजली की कीमतों में वृद्धि, विदेशी लूट का और ज्यादा बाजार गर्म और ज्यादा बदहाली और ज्यादा निराशा। जब इन सारे कुचक्रों से हम नौजवानों को गुलाम बनाया जाता है और हालात को बेहतर बनाने के लिए अपनी स्वाभविक विद्रोह-भावना के चलते जैसे ही नौजवान सड़क पर उतरने लगते हैं तो उन्हें बहकाने और उनकी सोच को गलत दिशा में मोड़ने के लिए और नए करतब सामने आते हैं। पहले तो उन्हें टीवी, सिनेमा, सौंन्दर्य प्रतियोगिताओं और तमाम प्रचार माध्यमों के जरिए पश्चिमी यूरोपीय सभ्यता की सड़ी-गली पूंजीवादी साम्राज्यवादी संस्कृति का जहर पिलाया जाता है। अपने देश की इज्जत, इससे मुहब्बत करने की जगह अपसंस्कृति का जहर तमाम पेप्सी कोला, कोका कोलाओं की बोतलों से हमारे देश के शासक, नौजवान को पिलाते हैं। जो नहीं पीते उनके लिए पूर्ण स्वदेशी की शुद्ध भांग, गौमांस व लव जेहाद के नाम पर उन्मादी कट्टर धार्मिक साम्प्रदायिकता, जातिवाद, अंध राष्ट्रवाद और गैंग संस्कृति के गांजे का नशा सरेआम घर-घर जाकर बेचा जाता है। शहीदे आजम भगत सिंह का आह्वान शहीदे आजम भगत सिंह ने जेल से ‘नौजवान कार्यकर्ताओं के नाम‘ लिखे पत्र में कहा, क्रांति से हमारा आशय स्पष्ट है। जनता के लिए जनता की राजनीतिक शक्ति हासिल करना। वास्तव में यही है ‘क्रांति‘ बाकी सभी विद्रोह सिर्फ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूंजीवादी सड़ांध को ही आगे बढ़ाते हैं। किसी भी हद तक लोगों से या उनके उद्देश्यों से जताई हमदर्दी जनता से वास्तविकता नहीं छिपा सकती, लोग छल को पहचानते हैं। भारत में हम भारतीय श्रमिक के शासन से कम कुछ नहीं चाहते। भारतीय श्रमिकों को भारत में साम्राज्यवादियों और उनके मददगारों को हटाकर जो कि उसी व्यवस्था के पैरोकार हैं, जिसकी जड़े शोषण पर आधारित हैं- आगे आना है। हम गोरी बुराई की जगह काली बुराई को लाकर कष्ट नहीं उठाना चाहते।‘ ’विधार्थी और राजनीति’ नामक अपने लेख में शहीद भगत सिंह ने कहा था कि सभी मानते है कि हिन्दुस्तान को इस समय ऐसे देश सेवको की जरूरत है , जो तन-मन-धन देश पर अर्पित कर दे और पागलों की तरह सारी उम्र देश की आजादी के न्योछावर कर दे। लेकिन क्या बुड्ढों में ऐसे आदमी मिल सकेंगे ? क्या परिवार और दुनियादारी के झंझटो में फंसे सयाने लोंगो में से ऐसे लोग निकल सकेंगे ? यह तो वही नौजवान निकल सकते हैं जो किन्ही जंजालों में न फंसे हो और जंजालों में पडने से पहले विद्यार्थी या नौजवान तभी सोच सकते हैं यदि उन्होने कुछ व्यवहारिक ज्ञान भी हासिल किया हो। सिर्फ गणित और ज्योग्राफी का ही परीक्षा के पर्चो के लिए घोंटा न लगाया हो। शहीद भगत सिंह ने स्पष्ट भाषा में बताया था कि -‘‘क्रांति से हमारा प्रयोजन यह है कि अन्याय पर आधारित वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन करना।‘‘ इसलिए आज वक्त की नजाकत है कि विद्यार्थी, युवा समुदाय शहीद भगत सिंह के पथ पर चलें। व्यवस्था के साथ चलने वाली राजनैतिक पार्टियाँ और उनके समर्थक अंग के रूप में कार्यरत युवा संगठन इन बुनियादी सवालों पर नौजवानों को दिशा नहीं दे सकते क्योंकि इन राजनैतिक दल और उनके युवा संगठनों ने उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण के आगे घुटने टेक दिया है। सांप्रदायिक, जातिवादी संगठन, युवाओं को सांप्रदायिक जातिवादी आधार पर बांट रहे हैं। आज जरूरत इस बात की है कि युवाओं के सामने जो विशिष्ट समस्याएं हैं उनका वैज्ञानिक ढंग से समाधान करना और एक संघर्षशील साम्राज्यवाद/कॉर्पोरेट विरोधी, सामंतवाद विरोधी प्रगतिशील युवा आंदोलन के झंडे तले नौजवानों को संगठित करना००००
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