image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

18 मार्च, 2019

परख बयालीस

वह अपनी मुस्कराहट का पूरा हिसाब रखता है!

गणेश गनी

संजय कुंदन की कविताएं इस उम्मीद से भी पढ़ी जानी चाहिए कि कैसे जीवन में साधारण सी दिखाई-सुनाई देने वाली क थाएं, कहावतें, किस्से आदि कितने अनमोल होते हैं। हर लोक की अपनी कहावतें हैं, अपनी कथाएं हैं। चलते-चलते पहले आप एक कथा सुनो और फिर कवि की कविताएँ पढ़ना। आप पूछ सकते हैं कि कथा क्यों सुनें। तो आप सीधे कविता पर चले जाना, यदि जा पाओ तो। पर एक बात बताऊं, यह लोककथा है और लोककथाओं में सच्चाई होती है! बाकी तो आपकी मर्जी।


संजय कुंदन


एक बार की बात है। एक पहाड़ी गांव के एक घर में एक बहुत बूढ़ा व्यक्ति रहता था। जैसे जैसे उसके हाथ-पांव काम के नहीं रहे, वैसे-वैसे घर में उसका महत्व भी दिन प्रतिदिन कम होने लगा। उसे घर वाले अब बोझ समझने लगे। कहते हैं कि एक दिन उस बूढ़े के बेटे ने उसे दूर घने जंगल में फैंक देने का निर्णय लिया। जैसे ही आधी रात हुई, बेटे ने बूढ़े बाप को किल्टे में डाला और पीठ पर उठाकर चलने लगा। पास ही सोए छोटे बच्चे की नींद खुल गई।
उसने पूछा, पिताजी आप दादा को कहां ले जा रहे हैं?
बहुत समझाने पर भी बच्चा नहीं माना और साथ चलने की ज़िद्द कर बैठा।
गांव से दूर और वीरान घने जंगल में पहुँचकर उसने किल्टा पीठ से उतारा और वहीं छोड़कर लौटने लगा तो बच्चे ने पूछा, पिताजी आप दादू को यहां क्यों छोड़ रहे हैं? उन्हें कोई जानवर खा जाएगा।
पिता ने कहा, बेटे जब कोई बूढ़ा हो जाता है तो उसे ऐसे ही जंगल में छोड़ देते हैं। चलो, अब हम निकलें यहां से।
पिताजी किल्टा तो साथ ले चलो।
नहीं बेटा, इसकी अब ज़रूरत नहीं है।
नहीं पिताजी, इसकी ज़रूरत है, जब आप बूढ़े होंगे तो मैं आपको इसी में लाऊंगा इधर जंगल में फैंकने।
कहते हैं कि उस रात नन्हें बालक की बात सुनकर एक पिता का हृदय परिवर्तन हुआ और वह अपने बूढ़े पिता को घर वापिस लाया।
मुहावरे, कोसने और कहावतें तो हमारे पहाड़ों में रचे बसे हैं ही, अभी आप संजय कुंदन की एक कविता पढ़ें, कहावतें और फिर चलते हैं दागिस्तान के पहाड़ों में। कविता मुझे इसलिए अच्छी लगी कि मैं भी अक्सर यही सोचता था, पर मैं कहावतों पर कविता नहीं लिख पाया-

वे हमारे पूर्वज थे
जिन्हें कवि नहीं बनना था
नहीं होना था उन्हें प्रसिद्ध
इसलिए कहावतों में उन्होंने
अपना नाम नहीं जोड़ा

वे जिंदगी के कटु आलोचक रहे होंगे
गुलमोहर की लाल हंसी हंसने वाले
समय को गेंद की तरह उछालने वाले
अपनी नींद और अपने आराम के बारे में
खुद फैसले लेने वाले
यारबाश लोग रहे होंगे वे

तुम्हें अपनी भाषा की
कितनी कहावतें याद हैं
यह समझदार लोगों का दौर है
यह चालाक कवियों का दौर है
यह प्रायोजित शब्दों का दौर है

काश इस दौर के बारे में
मैं एक सटीक कहावत कह पाता।

दागिस्तान में एक कवि हुए रसूल हमजातोव। उधर के पहाड़ भी हमारे इधर के पहाड़ों जैसे ही हैं। रसूल कहते हैं-

मूर्ख ठीक से हैरान करता है,
बुद्धिमान जंचती हुई कहावत से।

बसंत आया-गीत गाओ।
जाड़ा आया-किस्सा सुनाओ।

आगे एक जगह मेरा दागिस्तान किताब में हमजातोव लिखते हैं-
हमारे साहित्य-संस्थान में ऐसे हुआ था। पहले वर्ष की पढ़ाई के समय बीस कवि थे, चार गद्यकार और एक नाटककार। दूसरे वर्ष में-पन्द्रह कवि, आठ गद्यकार, एक नाटककार और एक आलोचक। तीसरे वर्ष में-आठ कवि, गद्यकार, एक नाटककार और छः आलोचक। पांचवें वर्ष के अंत में-एक कवि, एक गद्यकार, एक नाटककार और शेष सभी आलोचक।
ख़ैर, यह तो अतिशयोक्ति है, चुटकुला है। मगर यह सच है कि बहुत से कविता से अपना साहित्यिक जीवन आरंभ करते हैं, उसके बाद कहानी-उपन्यास, फिर नाटक और उसके बाद लेख लिखने लगते हैं। हां, आजकल तो फिल्म सिनेरियो लिखने का ज्यादा फैशन है।
कविता और गद्य लिखना कितना कठिन है, यह बात अब समझ आ जानी चाहिए। हमारे इधर कवि मशरूम जैसे उगे हैं। ख़त्म भी हो रहे हैं, लेकिन बरसात में फिर उग आते हैं। जो साहित्य की सबसे मुश्किल विधा है, उस पर हाथ आजमाते हैं सबसे पहले। कितनी त्रासदी है।
संजय कुंदन की कविताएं आश्वस्त करती हैं कि अच्छी कविता भी लिखी जा रही है, बेशक कम मात्रा में। कविता भी पानी की तरह अनमोल उपहार है-

एक खबर की तरह था वहां
पानी का आना और जाना

कोई दावे के साथ
नहीं कह सकता था
कि इतने बजे आता है
और इतने बजे चला जाता है पानी

कुछ औरतें पानी को
साधना चाहती थीं

वे हर समय नल की ओर
टकटकी लगाए रहतीं
हर आवाज पर चौंकतीं
एक गौरैया जब खिड़की से कूदती
उन्हें लगता पानी आ गया है
एक कागज खड़खड़ाता
तो लगता यह पानी की पदचाप है
उनकी नींद रह-रहकर उचट जाती थी

कितना अच्छा होता
पानी बता के जाता
-कल मैं पौने सात बजे आऊंगा
या नहीं आऊंगा
कल मैं छुट्टी पर हूं

एक आदमी सुबह-सुबह
टहलता हुआ
पूछता था दूसरे से
पानी आया था आपके यहां
दूसरा जवाब देता-आया था
मैंने भर लिया
तीसरा कहता था चौथे से
-मैं भर नहीं पाया
पर कल जल्दी उठूंगा
भर के रहूंगा

सबसे चुप्पा आदमी भी
अपना मौन तोड़ बैठता था
पानी के कारण
पहली मंजिल पर रहने वाले एक आदमी ने
दूसरी मंजिल के पड़ोसी से
सिर्फ पानी के कारण बात शुरू की
और बातों में रहस्य खुला कि
दोनों एक ही राज्य के एक ही जिले के हैं

लोग मिलते तो लगता
वे नमस्कार की जगह
कहेंगे -पानी
और उसका उत्तर
भी मिलेगा -पानी।

जो लोग विरोध के समय विरोध नहीं करते, प्रशंसा के समय प्रशंसा नहीं करते, आभार के समय आभार नहीं जताते और प्रेम के समय प्रेम नहीं करते टूटकर, वे लोग बहुत आगे बढ़ जाते हैं। परंतु जब पीछे मुड़कर देखते हैं तो अपने को बहुत अकेला और असहाय पाते हैं। संजय कुंदन की कविता में पाठक बहुत सी ऐसी बातें तलाश सकता है जो उसके आसपास ही घटित हो रही होती हैं। कवि किसे अच्छा आदमी कहता है, आओ ज़रा देखें-

वह आदमी अच्छा कैसे हो सकता है
जो हर चीज को अच्छा कहता है

आकाश भी अच्छा, पाताल भी अच्छा
रोशनी भी अच्छी, अंधेरा भी अच्छा
उसके भीतर एक ही धुन
बजती रहती है अच्छा-अच्छा

माफ करना
वह कोई संत या वीतरागी नहीं है
हर चीज में उसकी गहरी दिलचस्पी है
इसलिए वह हर किसी को अच्छा-अच्छा कहता रहता है
उसके हिसाब से हर व्यक्ति अच्छा होता है
हर विचार अच्छा होता है
हर कविता अच्छी

एक दिन तो उसने एक हत्यारे तक को अच्छा बता दिया
कहा कि निजी जीवन में वह बहुतों से ज्यादा सहृदय है

सोचता हूं उस अच्छा-अच्छा बोलने वाले
की पोल खोलकर रख दूं
पर यह इतना आसान नहीं
वह इतना लोकप्रिय है कि
कुछ भी बोलूंगा उसके खिलाफ
तो लोग कहेंगे
एक अच्छे आदमी को खामखां परेशान किया जा रहा है।

कवि ने एक कविता के माध्यम से इतनी सरलता और सटीकता से एक तानाशाह के नाटक का वर्णन किया है कि आम आदमी भी आसानी से समझ जाएगा। यह कवि की कुशलता है-

नदियां सूखती जा रही थीं
पर आंखों में थोड़ा पानी अब भी बचा हुआ था
इस बात को समझता था तानाशाह
इसलिए वह कभी-कभी भावुक हो जाता था
वह अपनी मां के बारे में बात करते हुए
आंसू पोंछने लगता
या पिता का कोई प्रसंग छेड़ देता।

लड़ाइयां ठंडी पड़ने लगी थीं
पर एक कमजोर आदमी के रक्त में
अब भी बची हुई थी थोड़ी आग
इस बात को समझता था तानाशाह
इसलिए कभी-कभी वह अपने दैन्य की चर्चा करता था
और बताता था कि किस तरह
मेहनत-मजदूरी करके उसने अपना पेट पाला
और अब भी मौजूद हैं उसकी पीठ पर छाले।

उसके दरबारी लोगों को यह बताने में
जुट जाते थे कि
हां, उन्होंने खुद अपनी आंख से देखे हैं
हुजूर की पीठ के छाले।

हमारे आसपास कौन कौन निवेशक घूम रहे होते हैं, हम आसानी से पहचान ही नहीं पाते। आप सोच भी नहीं सकते कि कोई अपनी मुस्कराहट का भी हिसाब रखे हुए है-

वह मुझे एक गुल्लक समझता है
और रोज अपना नमस्कार मुझमें डाल देता है
वह एक दिन सूद सहित अपने सारे नमस्कार
मुझसे वसूल लेगा

उसके लिए अभिवादन भी निवेश है
और धन्यवाद भी
किसी के बालों की तारीफ
वह यूं ही नहीं करता
किसी की कमीज को अद्भुत बताते हुए
वह अंदाजा लगा  रहा होता है कि
वह कितने लाख का आदमी है

 वह अपनी मुस्कराहट का पूरा हिसाब रखता है

जब किसी की मिजाजपुर्सी के लिए
गुलदस्ता और फलों की टोकरी लिए
वह जा रहा होता है
उसके भीतर अगले पांच वर्षों की योजना
आकार ले रही होता है
वह सोच रहा होता है कि इस बीमार व्यक्ति से कहां
कब-कब क्या काम निकाला जा सकता है ।

कवि संजय कुंदन की एक कविता हत्यारों के बारे में है। हत्यारे कहीं छुपते नहीं। उन्हें मालूम है कि छिपेंगे तो पकड़े जाने का भय है, इसलिए खुलेआम घूमो और मुखौटे बदल बदल कर भीड़ में चलते रहो-

हत्यारों को इतना सम्मान
पहले कभी नहीं मिला था

प्रकाशक उतावले थे कि
हत्यारे कुछ लिखें
आत्मकथा ही सही

उनकी किताबें बेस्टसेलर हो रही थीं
उनकी किताब के लोकार्पण में
वे नामचीन आलोचक भी पहुंच जाया करते थे
जिन्हें अपने आयोजन में बुलाने के लिए
तरस जाते थे कविगण

हत्यारे किसी हड़बड़ी में नहीं रहते थे
वे हमेशा दिखते थे
विनम्र और प्रसन्न

वे गली-मोहल्लों में आराम से घूमते रहते
कभी भु्ट्टा खाते
कभी पतंग उड़ाते
बच्चों के साथ छुपन-छपाई खेलते

होली दशहरा ईद जैसे पर्वों में
वे अक्सर सड़क पर झाड़ू लगाते
या पानी का छिड़काव करते दिख जाते

अब हत्यारे
हत्या करने के बाद छुपते नहीं थे
वे निकलते थे अगले दिन झुंड में
मोमबत्तियां लिए हाथ में
हत्या के विरोध में नारे लगाते हुए

जब मारे गए लोगों की
निकल रही होती शवयात्रा
हत्यारे दिख जाते
आगे-आगे चलते हुए
अर्थी को कंधा दिए

उन्हें हत्यारा कहने की भूल न करें
आपसे इसका सबूत मांगा जा सकता है
आप मु्श्किल में पड़ सकते हैं।
०००
गणेश गनी


  परख इकतालीस नीचे लिंक पर पढ़िए
14 मार्च, 2019 परख इकतालीस वे कौन लोग हैं, जो सिर्फ लौटते हैं वसंत में! गणेश गनी पढ़ने की प्रक्रिया तो बाद में चली, उससे पहले लिखा गया, लिखने से पहले अक्षर खोजे गए, अक्षर खोजने से पहले बोलना सीखा गया और बोलने से पहले संकेतों को समझा गया। इस पूरी प्रक्रिया में युगों लग गए। संकेतों को पत्थरों पर उकेरना और फिर धीरे धीरे लिपियों का निर्माण होना कोई साधारण बात नहीं है। पढ़ने तक पहुँचने का सफ़र बेहद रोचक और रोमांचक रहा होगा, इसलिए कवि अखिलेश्वर पांडेय कहते हैं, अदब से पढ़ना- शेष नीचे लिंक पर पढ़िए https://bizooka2009.blogspot.com/2019/03/blog-post_4.html?m=1

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें