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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

03 मार्च, 2019

लेख:

इतिहास में ३२०० वर्ष पूर्व इजिप्ट में मजदूरों नें संगठित हड़ताल की थी

जसबीर चावला




जसबीर चावला


अपनी माँगो को लेकर नियोक्ता के विरुद्ध शिकायत होनें पर,संस्थानों,कारख़ानों,खदानों,बैंको आदि में काम बंद,घेराव,पेन डाउन,धरना-प्रदर्शन,अनशन आदि कामगारों,कर्मचारियों द्वारा करना हड़ताल में आते हैं।औद्योगिक क्रांति के बाद बने क़ानूनों से उद्योगपतियों,नियोक्ताओं को मज़दूरों की माँगो पर ध्यान देना ही पड़ता है।हड़तालें-स्ट्राइक- सामान्यत:अाधुनिक युग की 19 वीं 20 वीं शताब्दी के शब्द और हथियार माने जाते हैं।अनेकों बार सरकारों के विरुद्ध असंतोष होनें पर भी बड़े पैमाने पर धरना प्रदर्शन होते हैं।अभी मध्यप्रदेश में यूरिया को लेकर किसान आंदोलन कर रहे हैं।फ्रांस में बढ़े तेल के भावों को लेकर लोग सड़कों पर कई सप्ताहों से आदोंलन रत हैं।लेक वालेचा द्वारा किये नागरिक अवज्ञा आँदोलनों,प्रदर्शनों से पोलैंड की सरकार को जाना पड़ा था।गाँधीजी द्वारा अनवरत धरनों,अनशन से आजादी को योगदान मिला।मेधा पाटकर आंदोलनों की एक-अग्रणी एक्चिविस्ट हैं।इजिप्ट में 'बसंत पतझड़ आंदोलन' के बाद और उसके पश्चात कई अरब देशों में सरकारें पतझड़ के पत्तों समान बदल गई।पूर्वी युरोप की कई वामपंथी सरकारें इन्हीं हड़तालों की वजह से समाप्त हुई।

कम ही लोगों को ज्ञात होगा कि अपनी माँगों को लेकर इतिहास की पहली संगठित हड़ताल आज से ३२०० साल पहले १२ शताब्दी में इजिप्ट के श्रमिकों शिल्पियों और कारीगरों के गाँव 'डेअर एल- मदिना' में रहनें वालों द्वारा हुई थी और यह १८ दिन तक चली थी।इस हड़ताल के दस्तावेज़ी सबूत,शिल्पियों,कारिगरों का मांग पत्र और शासकों द्वारा उनकी माँगे माने जानें के प्रमाण एक पपायरस (मिश्र में नील नदी के किनारे पानी में उगने वाले एक लंबे पौधे के तनें से निकली पट्टियों से बना पेपर जिस पर लिखा जाता था.मिश्र का ढेर सारा इतिहास इन्हीं पपायरस पर लिखा गया है) पर मिलते हैं।




       (लेखक जसबीर चावला (काहिरा) गीजा में इजिप्ट में प्रसिद्ध स्पिंकस के साथ.पीछे गीजा का पिरामिड)
 



यह हड़ताल इजिप्ट (मिश्र) के "न्यू किंगडम (ईसा पूर्व 16 वीं से 11 वीं शताब्दी) जिस दौरान राज कर रहे रामसे राजवंश के बीसवें फैरो रामसे तृतीय (ईसा पूर्व 1186 से 1155) के वक्त हुई।उन्हें शासन करते २९ वर्ष हो गये थे।कारीगर शाही मक़बरों का निर्माण नील नदी के पास लक्सर में कर रहे थे।रामसे तृतीय एक बहादुर शासक था।उसे समुद्री लोगों,(सी पीपुल्स) जो घूमंतू होते थे बार बार  युद्ध करने पड़े।शासन के छठे और ग्यारहवें वर्ष में उसे समुद्री लोगों और लिबियन आदिवासियों से समुद्र और भूमि पर दोबार युद्ध करने पड़े।उसनें उन्हें हराया और राज्य के दक्षिण में बसाया भी।इससे भी राज्य पर वित्तीय भार बड़ा।कहा जाता है कि राज्य में ज्वालामुखी के प्राकृतिक प्रकोप से जमीन पर धुँआ छा जाने और धूप कमी से भी अनाज का उत्पादन कम हुआ।अपनें पूर्ववर्ती रामसे द्वितिय के द्वारा बनाये महान भवनों,मंदिरों के अनुकरण में उसनें भी वैसे ही कई भव्य संरचाने बनाई।लक्सर का टेंपल, करणक काम्पलेक्स के मंदिरों में भारी परिवर्तन कराये।मेडिनेट-हबू में अपने शाही मक़बरे,प्रशासनिक परिसर का काम शुरु किया।इन सबसे खजानें में धन की भारी कमी हो गई।अनाज के मूल्य बड़ गये लेकिन मज़दूरी नहीं बड़ी।इन सबके कारण समय से कारीगरो,शिल्पियों को उनके वेतन का अनाज अपर्याप्त और समय से नहीं मिल पाया।उनमें जबरदस्त असंतोष था।

कारीगरों नें अपनी माँगे सुपरवाइजरों के समक्ष रखी।जो प्रबंध किये गये वे अपर्याप्त थे।शिल्पियों,कारीगरों ने अपनें औज़ार-"टूल डाऊन"-रख कर काम बंद कर धरनें पर बैठे। वे परिसर के दरवाजे पर बैठे पर उसका नुक्सान नहीं किया।।ये सारी बातें एक पपायरस पर लिखी हुई हैं।'डेअर एल मदिना' के एक प्रभारी ने रामसे तृतीय के वज़ीर को को यह खत मजदूरो की तरफ से लिखा।मिस्री मूल के श्रमिकों ने पत्र लिखा कि -"उनकी माँगों कि लेकर जब मामला राज्य के प्रतिनिधि सुपरवाईजर नें बिगाड़ दिया,तो हम विरोध शामिल हो गये हैं "।पत्र में आगे लिखा-"मेरे स्वामी के लिए एक और संदेश है।मैं (फैरोके) बच्चों की शाही कब्र पर काम करता हूं।मुझे वहाँ यह काम करने का आदेश दिया है,और मैं वास्तव में अच्छी तरह और उत्कृष्ट ढंग से कार्य निष्पादन करता हूं।मेरे स्वामी,मैं आपको इसके बारे में अपने दिल से परेशान नहीं करना चाहता।मैं अत्यधिक काम करता हूँ और (फिर भी) वास्तव में थकता नहीं हूँ।मेरे प्रभु को एक और संदेश।हम बहुत कमजोर हो गये हैं।भंडार,अन्न भंडार हमसे दूर हो गये हैं।किसी ने हमारा डेढ़ बोरी जौ चुराया और उसमें मिट्टी भर दी।हम भूखे प्यासे हैं और पत्थर के एक भारी ब्लॉक को ले जाना आसान नहीं है।हमारे में खड़े रहनें की ताकत भी नहीं रही और हम मौत के कगार पर हैं।मेरे प्रभु ही हमें जीवित रहने के लिए राशन दिलवा सकते है।भूख प्यास नें हमें यह(हड़ताल) करनें के लिये मंजबूर किया।मैं आपको परेशान नहीं करना चाहता।





       
                           

आखिर अट्ठारह दिन चली इस टूल डाऊन हड़ताल के बाद शिल्पियों और कारीगरों की माँगो पर ठीक से विचार किया गया,उन्हें दिये जानें वाले अनाज में वृद्धि की गई और समय से देनें का प्रबंध फैरो रामसे तृतीय द्वारा किये  गये।हड़तालियों को कोई सजा नहीं दी गई।

इजिप्ट में मज़दूरों के लिये कार्वी सिस्टम अर्थात दिहाड़ी,बेगार,अवैतनिक,अस्थाई या मज़दूरी भी था।और कारीगरों, शिल्पकारों के लिये स्थाई निवास और निश्चित मज़दूरी की प्रथा भी थी।बाढ़,आपदा आदि में राज्य श्रमिकों को रोजगार देता था।पुरुषों को उनकी क्षमता का कार्य मिलता था।नील नदी जब उफान पर होती थी,खेती कार्य नहीं हो पाता तो राज्य द्वारा सबको रोजगार,आवास,भोजन,स्वास्थ सेवा दी जाती थी।यह प्रणाली लोगों को भूख से बचाती थी।भ्रष्टाचारी व्यक्ति अपनें बदले एवजी को भी काम पर लगा सकता था।लोग एक प्रोजेक्ट के बदले दूसरे प्रोजेक्ट या किसी दूसरे के यहाँ काम कर सकते थे।दास प्रथा बहुत अधिक प्रचलित नहीं थी।आवश्यकता होनें पर ज़बरदस्ती भी मज़दूरों से खदानों में काम करवाया जाता था।अपराधियो,युद्धबंदियों से भारी मज़दूरी करवाई जाती थी।बुद्धिजीवियों,कुशल लोगों से बंधुआ या श्रमिक कार्य नहीं करवाये जाते थे।सक्षम लोगों के लिये सेना में अवसर थे।कर्वी प्रणाली की अपनी जटिलताएँ भी थी।काम के लिए देर से आनें या जल्दी जाने की कोशिश करना एक गंभीर अपराध था।मरुभूमि से संबंधित कानूनों में छह महीने की कैद जबरन श्रम या जुर्माना शामिल है।अगर  कर्तव्यों में ढिलाई दिखाई देती तो फोरमैन और सुपरवाइजर भी गल्ती करने पर पिटने से नहीं बचते।श्रमिकों की शारीरिक दंड सामान्यत: कुछ नियोक्ताओं द्वारा दिया जाता था।विशेष परिस्थितियों,जैसे परिवार में बीमारी आदि में नियम उदार हो जाते थे।मौसम परिवर्तन से जब खेतों में काम करना असंभव हो जाता था,मजदूरों को ऐसे काम दिये जाते थे जो उनके सीधे  हित में थे जैसे बांधों और सिंचाई नहरों की मरम्मत।मंदिरों का निर्माण,उन जगहों की मरम्मत जहाँ पुजारियों द्वारा देवताओं की पूजा की जाती थी,या छुट्टियाँ मनानें की जगह या फैरौन के लिए महल,पिरामिड,कब्रों के निर्माण का काम दिया जाता था।

इनमें से कई काम आज के मनरेगा कि याद दिलाते हैं।बच्चों से भी कम उम्र में काम लिया जाता था।मिले पपायरस से यह स्पष्ट नहीं है कि इस अवधि के दौरान उसके माता-पिता को उसके पालन-पोषण के लिए भुगतान किया जाता था या नहीं






                     


प्राचीन इजिप्ट में कोई करंसी-मुद्रा नही थी और व्यापार,वेतन,लेन देन बार्टर सिस्टम से होता था।एक वस्तु या सेवा
के बदले अन्य वस्तु दी जाती थी।विभिन्न वस्तुओं का युनिट मूल्य तय होता था।सब्जी का युनिट अनाज या बीयर के युनिट मूल्य से अलग होता था।गणना के लिये 'शाट' एक इकाई थी।इस कार्य या फलाँ वस्तु के मूल्य बदले इतने  'शाट' लिये या दिये जायेंगे।सोनें चाँदी के बदले भी 'शाट' की गणना होती थी।एक शाट मतलब साढ़े सात ग्राम सोना।चाँदी जिसे हेड्ज भी कहा जाता था मुद्रा के समान ही थी।

इजिप्ट की सारी इकॉनामी एक सम्पन्न इकॉनामी थी जहाँ प्रचूर मात्रा में उत्पादन होता था।नील नदी के कारण गेहूँ,सेरेल का खूब उत्पादन था।फैरो के केन्द्रीय शासन के अलावा,स्थानिय मंदिर,प्रशासकीय,हरमइकाईयां भी  अतिरिक्त उत्पादित अनाज गोदामों में संग्रहित करते थे।आवश्यकता पड़ने पर संग्रहकर्ता,पुजारी या अधिकारी के आदेश से टैक्स चुकाकर वितरण के लिये अनाज निकाल कर लेते और मज़दूरों,शिल्पियों को शासकीय काम के बदले वितरित करते थे।मजदूरों को श्रम के बदले निश्चित मात्रा में बियर और ब्रेड भी  दी जाती थी।
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जसबीर चावला जी का एक लेख और नीचे लिंक पर पढ़िए


कौन थी विश्वयुद्ध में जासूसी करने वाली भारतीय शहज़ादी नूर


https://bizooka2009.blogspot.com/2019/02/1914-1921-1927-26-1940-1943.html?m=1



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