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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

03 अप्रैल, 2018

रजनीश आनंद की कविताएँ



रजनीश आनंद 


कविताएँ

 एक 

सबसे दुखद पंक्ति 


आज लिखूंगी मैं अपने
जीवन की सबसे दुखद पंक्ति,
आज जबकि पूनम की रात है,
ऐसी रातों में कई बार उसके
सीने से लगकर देखा था खुद को
और महसूसा था, मैं अप्सरा कोई
जैसे उसके स्पर्श से खिल उठता था तन.

आज लिखूंगी मैं अपने
जीवन की सबसे दुखद पंक्ति...
उसके हाथों को अपने हाथों में लेकर
एक आत्मविश्वास सा आ जाता था
उसके बालों को कई बार सहलाया था
महसूस की थी उसके बांहों की गरमाहट
अधरों की मिठास, पसीने की गंध की मादकता

आज लिखूंगी मैं अपने
जीवन की सबसे दुखद पंक्ति...
लेकिन आज वह नहीं मेरे साथ
गम यह नहीं कि वो साथ नहीं.
दुख यह है कि उसने गैरजरूरी समझा
मेरे प्रेम को, समर्पण को, सम्मान को
क्योंकि वह दूर जाना चाहता था मुझसे
देकर मुझे झूठा आश्वासन
मैं पास हूं तुम्हारे, जबकि
वो जा चुका था दूर-बहुत दूर
आज लिखूंगी मैं अपने
जीवन की सबसे दुखद पंक्ति...




दो 

 जब चुप रहती है औरत

औरत जब चुप रहती है, जानो
जज्ब करती है तुम्हारे कई राज
अपने सीने में, असीम वेदना के साथ
ताकि भ्रम बना रहे तुम्हारा,
तुम पुरुष हो, विजेता हो
क्या कभी जान पाओगे
औरत के समर्पण को?
जब तुम समझते हो
रीत गया सबकुछ उसमें
उसी वक्त वह भांप लेती है
रिक्तता एक पुरूष की
मगर वह जज्ब करती है
औरत कभी खोखली नहीं होती
वह तो अपना मेरू भी तुम्हें
दानकर खड़ी रहती है तनकर
और रिटर्न गिफ्ट पाती है
विश्वास का भेदन...




अमृता शेरगिल 




तीन 

प्रेम भ्रम है...

प्रेम महज भ्रम है
जिसे संजोते है हम
खुली आंखों से देखकर
सपने, इस खुशफहमी में
कि सामाने वाले को है
हमसे बेइंतहा मोहब्बत
कई दिलजलों ने मुझे
समझाया कई बार
लेकिन हमने हंसकर
टाली हर किसी की बात
और लौटे उसी दरख्त के नीचे
जहां कुछ पल ही सही
खिला था इश्क हमारा
वहां की आबोहवा में
मौजूद है महक तुम्हारे पसीने की
जो चंपई सुगंध पर है भारी
और इस दरख्त के आगोश में
कोई भ्रम भी शेष नहीं रहता
समझते हो ना तुम?




चार 

 हथेलियों की गरमाहट

उस दिन जब उसने कहा था
जाओ तुम, कहीं कुछ टूटा था
समझ नहीं पायी थी मैं, क्या?
खामोशी घर गयी थी मेरे अंदर
लेकिन, मेरे अंदर की औरत ने
पूछे चंद सवाल मुझसे?
यह असुरक्षा क्यों? क्यों छूट जाने का भय?
अगर वह कहे जाओ तुम...
तो छोड़ना मत,
महसूस कर लेना, उसकी हथेलियों की गरमाहट
थामकर हाथ उसका, दे जाना
 कुछ गरमाहट अपनी भी
ताकि जब कोई और
महसूस करे उसकी हथेलियों की ऊष्मा
तो महसूस हो तुम्हारे प्रेम की तपिश...




पांच 

खोल से बाहर...

औरत निकलना चाहती है
उस खोल से जिसे उसने
खुद नहीं गढ़ा है, बल्कि
उसके परों को उगने से पहले ही
काटकर पंगु बना उसे बंद किया गया
लोहे के खोल मेंं जब भी
औरत फैलाना चाहती है बाजू
लहूलूहान होता है शरीर, मन भी
अद्भुत है यह खोल जिसमें
उसे यह कहकर डाला गया कि
यह रक्षा कवच है उसका
लेकिन जब भी जिसे दिल चाहा
कुचल गया कवच को
छटपटाती तो औरत रही है
रक्षा कवच का बोझ ढोती
असुरक्षित, आतंकित, उत्पीड़ित...




अमृता शेरगिल 





छ:

 जिंदगी के खाने...

जिंदगी के खाने में सबकुछ
करीने से सजा नहीं होता
बेतरतीब भी होते हैं कई खाने
लिखा होता है जिनपर
संघर्ष, आंसू, जद्दोहद
बावजूद इसके जिंदगी
बेहद खूबसूरत है, मां की
आंखों सा प्रेम समेटे
जिसमें डूबकर सजाना है
मुझे हर बेतरतीब खाना
हां, कई बार मैं ना उम्मीद हुई
पर हर बार जिंदगी ने दिया
प्रेमी की बांहों सा सुकून
मुझे खुद में समेटकर...




सात 

मैं तुम्हारी शर्ट हूं

मैं जा रही थी, उस दिन
उससे यह गुजारिश करने
मत बुहारो मुझे वैसे
जैसे लोग बुहारते हैं
घर के कूड़े को,
पड़ी रहने दो मुझे
जिंदगी के किसी कोने में
किसी गैरजरूरी चीज की मानिंद
खामोश बिलकुल,
पांवपोश की तरह
रगड़ सहती कूड़े को समेटती
लेकिन जब मैं उसके पास पहुंची
तो मेरे अंदर की औरत ने कहा
गर, इतनी ही गैरजरूरी हूं मैं
तो त्याग करो मेरा
प्रेम में सम्मान है जरूरी
मैं पांवपोश नहीं, तुम्हारी शर्ट हूं
जिसे पहनकर फक्र कर सको तुम
उस दिन से रास्ते अलग हुए हमारे...





आठ 

ओ मेरे कनु ...

कनु, ओ मेरे कनु जानती हूं
गैरजरूरी हूं मैं अब
फिर भी ना जानें क्यों
एक अधिकार शेष जान पड़ता है
उसी को सीने से चिपकाए
मैं पूछना चाहती हूं एक सवाल?
आखिर ऐसी उपेक्षा क्यों?
क्या पगबाधा थी मैं?
कहा तो होता एक बार
तुम्हें इतना मान दिया मैंने
नहीं पूछती कोई सवाल
खुद छोड़ आती उस गली तक
जहां खो गये तुम
दे देती सारा नूर अपने प्रेम का
ताकि रौशन हो गली तुम्हारी
पर अफसोस, तुमने जाना नहीं मुझे
मेरे प्रेम की ऊष्मा को
ये जो आंखों से बहकर
सोख रहा है मुझे
उसमें निस्तेज होती
मृतप्राय मैं खुद से पूछ रही
बस एक सवाल
क्या इतनी गैरजरूरी थी मैं?
फिर क्यों अधरों तक लेकर आये थे तुम मुझे
कनु बोल ना कनु...?




अमृता शेरगिल 

नौ 

प्रेम में पगलाई औरत 

जब भी देखती हूं मैं
अपनी हथेलियों को जोड़कर
तुम्हारे होंठों की मुस्कान
खिल जाती है उनमें
तुम दूर सही मुझसे मीलों
लेकिन महसूस कर लेती हूं
तुम्हारी गरमाहट, मादकता
फिर क्यों मैं गाऊं विरह के गीत
मैं वो प्रेमिका हूं, जो विरह में
ढूंढ़ लेती है मिलन की आस
जाओ मैंने स्वतंत्र किया तुम्हें
हर वादों से, जिम्मेदारियों से
उस दिन आना मेरे पास
जब दिल कहे तुम्हारा
कि चलो उस ओर
जहां सूर्योदय से चांद तक
कोई करता है इंतजार तुम्हारा
आना तुम, देना दस्तक
 दरवाजा खुला मिलेगा
क्योंकि मुझे है भरोसा
 एक दिन तुम्हारा दिल जरूर
कहेगा चलो मिल आऊं
मेरे प्रेम में पगलाई औरत से...




दस 

 नरम-मुलायम चपाती 

नरम-मुलायम चपाती बनने से
 पहले एकसार होना पड़ता है
आटे और पानी को, इस साथ आने में
करनी पड़ती है जद्दोजहद
इस बात से तो वही वाकिफ होगा
जिसने कभी गूंथा हो, आटा
जरा सी गलती से बिगड़
सकता है पूरा खेल
वह भी तब जब जिंदगी ने
आपके लिए माप कर रखा हो
आटा और पानी, कोई गुंजाईश
ना छोड़ी हो और मांग रखने की
तो गर, रोटी है बनानी
तो सावधानी से गूंथे आटा
बनायें लोई और बेलें रोटियां
तभी आप खा सकते हैं
प्रेम की तीखी सब्जी के साथ
नरम-मुलायम रोटियां...




रजनीश आनंद
संपर्क : rajneeshanand42@gmail.com

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