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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

09 सितंबर, 2018

परख सोलह:


प्रेम में व्यक्ति बड़े से बड़ा काम कर जाता है। 

गणेश गनी



गणेश गनी
पिछली सुबह....
ऊंचे पहाड़ों में दो ही ऋतुएं  मैंने हमेशा से अनुभव की हैं, एक गर्मी और दूसरी सर्दी। बसंत और पतझड़ इन्हीं दो ऋतुओं में समाए रहते हैं। पतझड़ आरम्भ होते ही शीत ऋतु आ जाती है। पता नहीं क्यों हमेशा से ही अखरोट के पेड़ों पर पीले पड़ चुके पत्ते बेहद आकर्षक लगते रहे हैं। ये पत्ते थोड़ा और ताम्बई होकर झड़ जाते हैं। हम बच्चों को इन पत्तों के बीच झड़े अखरोट ढूंढने में आनंद मिलता। एक कवि दूर कहीं तब कुछ और भी ढूंढ रहा होता-

मैं ढूंढ रहा हूँ
अपने ही भीतर
गुम हुई अपनी
रुलाई।

इन सूखे पत्तों पर चलने से चरमराहट की आवाज़ आती रहती और इन दिनों अक्सर हवा चलती, जो इन पत्तों को उड़ाती हुई  वातावरण में खूब शोर करती। धीरे धीरे यही शोरोगुल संगीत जैसा लगने लगता। इस मौसम में अक्सर स्कूल से लौटकर शाम को रबड़ के बूट पहने, बाएं कांधे पर थैला लटकाए और दाएं हाथ में छड़ी लिए अखरोट चुनने के बहाने निकला करता। कतार में खड़े पेड़ों के नीचे झड़े हुए सूखे ताम्बई पत्तों की मोटी परत पर छड़ी घुमाकर मारते हुए पत्तों को दो कारणों से हटाता, एक तो दबे हुए अखरोट दिख जाते और दूसरे पत्तों की आवाज़ सुनने को मिल जाती। जब हवा चलती तो पेड़ों से पते और अखरोट झड़ने लगते। एक पेड़ से दूसरे पेड़ , दूसरे से तीसरे और इसी तरह खेतों में पेड़ों की कतार के अंतिम पेड़ तक जाता और फिर वापिस लौटती बार भी यही सिलसिला जारी रहता। यह प्रकृति के बहुत करीब रहने और जीने के दिन होते। बेहद सुख के दिन, जब जेबखर्च सिक्कों में मिलता-

कितना सुख छाया रहता था
हमारे तन- मन पर
जिन दिनों खनकती थी केवल
अठन्नी- चवन्नी
हमारे जेबों में।

स्मृतियों में कविताएँ चिपकी रहती हैं, बाहर तब आती हैं जब कोई बात इन्हें भीतर तक छू जाती है और आगे भी कविता निकलकर आएगी। यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। कवि चन्द्रेश्वर की ये पंक्तियां देखें और फिर महसूस करें-

जैसे हम लिखते थे पहले
चाहे जितनी भी चिट्ठियां
पर हर अगली चिठ्ठी में रह जाता था
यही एक अधूरा वाक्य कि
शेष फिर कभी...!

कभी कभी जब विद्रोही स्वर तीखे हो जाएं और आप समाज में घट रही घटनाओं के प्रति अधिक आक्रामक हो जाएं तो व्यवस्था में रहने वाले या सुविधाभोगी आपको अनुशासनहीन या समाज विरोधी भी कहने लगते हैं। लेकिन क्या अनुशासन में बन्ध कर ही हम अपनी भूमिका ठीक से निभा सकते हैं या अत्याधिक सामाजिक बंधन भी हमें कमज़ोर करते हैं-

हम इस क़दर थे
अनुशासित
कि कायर थे।

कवि राजनीति, समाज, संस्कृति, लोक और साहित्य का चितेरा है। कवि वर्तमान को बीते समय के आईने में देखता है-

मेरी हर नयी सुबह में शामिल है
पिछली सुबह।

चंद्रेश्वर राजनैतिक परिदृश्य पर भी पैनी नज़र बनाए रखने में सक्षम हैं। कवि कठिन समय में अपनी बात सरलता से रखता है तो लगता है कि परिस्थितयां कठिन तो हैं पर जटिल नहीं हैं-

सरल होना अगर धूर्त होने की छूट नहीं देता
तो बेवकूफ भी बनने नहीं देता
सरल होना मानवीय होना है
कुछ ज्यादा सरल होना
उतना ही कठिन है
जितना खींचना कोई सरल रेखा।

कवि व्यंग्यवश कई चित्रों का सटीक चित्रण करता है। बिम्बों और रूपकों के माध्यम से अपनी बात रखना हालांकि कठिन काम है, मगर यह शैली साधी जाए तो रचना ताकतवर बन जाती है। व्यंग्य के माध्यम से चित्रण करना कठिन काम है, मगर है बड़ा मारक-

राजा जी की दो आंखें थीं
दोनों थीं बेहद खूबसूरत
वे हमेशा चाहतीं निहारना सुंदर दृश्य।

कवि ने राजा सीरीज़ की काफ़ी कविताएँ लिखी हैं। व्यवस्था के ख़िलाफ़ लिखना हो तो अदम्य साहस चाहिए। हालांकि पहले भी कमी नहीं थी और अब भी दरबारी कवियों की कमी नहीं है। चन्द्रेश्वर ने बेबाक लिखा है। कवि की ये कविताएँ व्यंग्य चित्र प्रस्तुत करती हैं-

राजा जी की एक ही नाक थी
पर नाक बेहद लम्बी थी
राजा जी के राज में उठ खड़ा होता था
बात बात पर नाक का सवाल
कई बार तो हो जाते थे दंगे फ़साद।


चन्द्रेश्वर

कवि चन्द्रेश्वर अपने समाज में हो रही घटनाओं से अच्छी तरह वाकिफ़ है, वो आंखें बंद किये नहीं रह सकता और सोच को कुंद होने नहीं देता। जागरूक रहकर ही एक कवि व्यवस्था और परिवेश की बात कर सकता है-

तुम रोटी के बारे में नहीं
सोचो तुम देश के बारे
तुम सोचो और सिर्फ़ सोचो
देश के नक्शे के बारे में
आरती उतारो उसकी
फटा सुथन्ना पहने
भूखे रहकर
दुःखी रहकर
वरना तुम्हारी कर ली जाएगी शिनाख़्त
एक देशद्रोही के बतौर !

गेटे ने कहा है, वह प्रेम का सच्चा मौसम होता है जब हम इस विश्वास से भरे हुए होते हैं कि सिर्फ हम ही प्रेम कर सकते हैं, हमसे पहले किसी ने भी प्रेम नही किया था और न ही हमारे बाद कोई हमारी तरह प्रेम कर सकेगा।
कवि की कुछ प्रेम कविताएँ ऐसी हैं जो ध्यानाकर्षित करती हैं-

एक ही नींद है हमारी
हमारा एक ही जागरण
हमारी एक ही कल्पना है और
एक ही स्वप्न।

अक्सर सच्चा प्रेम बार बार बताया नहीं जाता। उसका इज़हार बातों से करना मुश्किल होता है। यह ख़ुद ब ख़ुद अपना रास्ता तय करता है। निःस्वार्थ और निश्छल प्रेम ही अटूट है-

सच तो यह है कि मैंने कभी इज़हार ही नहीं किया
अपने प्रेम का
संकोच आया आड़े हमेशा ही।

प्रेम में व्यक्ति बड़े से बड़ा काम कर जाता है। वो लम्बा सफ़र इस तरह तय करता है कि मुश्किलों का एहसास तक नहीं होता। दरअसल तब हम दूसरों के लिए करते हैं, अपने लिए नहीं-

राह लम्बी
हो जाती है छोटी
जब बसा हो प्यार मन में।

चन्द्रेश्वर की कविताएं जीवन से जुड़ी हुई बातें हैं, कोई कल्पना नहीं हैं। कवि की भाषा सरल है, कविताओं में सादगी है। जीवन भी सरल और सादा हो तो तनाव कोसों दूर रहता है।
००

परखः पन्द्रह नीचे लिंक पर पढ़िए

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/09/7-2014.html?m=1

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