image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

28 मई, 2018

 गुमनाम औरत की डायरी में दर्ज कुछ और नोट्स और इम्प्रेशन्स

कविता कृष्णपल्लवी

भाग पांच

अलबम ज़िन्दगी का सही पता नहीं  बताते |

*

डायरी इतिहास नहीं होती | उसमें सबकुछ वस्तुगत नहीं होता |

*

जो सपने अपनी मौत मरते हैं, उनकी लाशें नहीं मिलतीं, अपनी मौत मरने वाले परिंदों की तरह |

*

खूबसूरती में यकीन करने के लिए चीज़ों को ख़ूबसूरत बनाने का हुनर आना चाहिए |

*

ताबूतसाज़ की दूकान में एक पर एक कई ताबूत रखे थे | वे किसी बहुमंज़िली इमारत जैसा लग रहे थे |

*

रोमांसवाद था मार्क्सवाद का पूर्वज | एकबार पूर्वजों को ढूँढ़ने मैं अतीत में चली गयी | वहाँ सुन्दर शिलालेखों वाली क़ब्रों से भरा एक कब्रिस्तान था | बड़ी मुश्किल से वहाँ से निकलकर वापस आना हुआ |

*

मैं तुच्छता भरी अँधेरी दुनिया से आयी हूँ |  इसलिए तुच्छता से सिर्फ़ नफ़रत ही नहीं करती,उसके बारे में सोचती भी हूँ |

*

दूसरों के बनाये पुल से नदी पार करने की जगह मैं आदिम औजारों से अपनी डोंगी खुद बनाने की कोशिश करती रही और तरह-तरह से लांछित-कलंकित होती रही, धिक्कारी-फटकारी जाती रही, उपहास का पात्र बनती रही | पुरुषों ने शराफ़त की हिंसा का सहारा लिया | पराजित स्त्रियों ने भीषण ईर्ष्या की |



*



कई बुद्धिजीवी मिले | उन्होंने कई दार्शनिक बातें कीं, कविता के बारे में अच्छी-अच्छी बातें कीं और कई बार शालीन हँसी हँसे | उनकी हँसी काँच के गिलास में भरे पानी में पड़ी नक़ली बत्तीसी जैसी थी | मेरा ख़याल है, ये बुद्धिजीवी रात को अपने गुप्त अड्डे पर लौटते हैं और जीवितों का चोला उतारकर प्रेतलोक चले जाते हैं |

*

पुरुष जब पौरुष की श्रेष्ठता का प्रदर्शन करता है, वह स्त्री को बेवफ़ाई के लिए उकसाता है |

*

बुर्जुआ समाज में विशिष्ट व्यक्तिगत इतिहास के चलते जो लोग योग्य और उन्नतचेतस होते हैं, अक्सर वे बहुत अहम्मन्य, दुर्दांत व्यक्तिवादी, घोर आत्मधर्माभिमानी, प्रतिशोधी, आत्मग्रस्त और हुकूमती ज़हनियत के होते हैं | साथ ही, वे गहन असुरक्षा-बोध से भी ग्रस्त होते हैं | पराजय या पीछे छूटना उन्हें असहनीय होता है | शीर्ष तक पहुँचने के लिए वे कुछ भी, कोई अमानवीय से अमानवीय कृत्य करने के लिए भी तैयार रहते हैं |

*

उस अनजान शहर में मैं न जाने कितने वर्षों तक भटकती रही | जब वापस लौटने की घड़ी आयी तो लाख ढूँढ़ने पर भी वह अमानती सामान घर नहीं मिला जहाँ अपनी सारी चीज़ें रखकर मैं उस शहर की सड़कों पर निकल पड़ी थी | मैं उस शहर से वापस आ गयी , लेकिन मेरी बहुत सारी चीज़ें वहीं छूट गयीं | चीज़ें शायद इंतज़ार नहीं करतीं, लेकिन अगर उनसे जुड़ी आपकी ढेरों यादें हों, तो ज़िन्दगी भर उनकी याद तो आती ही रहती है |
(11 अप्रैल, 2018)



कविता कृष्णपल्लवी


गुुमनाम औरत की डायरी का भाग चार नीचे दी गरी लिंक पर पढ़िए
गुमनाम औरत की डायरी भाग चार
https://bizooka2009.blogspot.in/2018/05/blog-post_26.html?m=1



1 टिप्पणी: