समकालीन विश्व में महात्मा गाँधी की प्रासंगिकता
संजीव कुमार जैन
समकालीन विश्व में गाँधी के विचार विश्व में सबसे अधिक पढ़े और समझे जाते हैं। दुनिया को कैसे बदला जाये? इस प्रश्न के उत्तर में यदि किसी एक विचारक के विचारों को सर्वाधिक उपयोगी रूप में देखने परखने का प्रश्न उठता है तो वह विचारक गाँधी ही हो सकते हैं। गाँधी जी ने अपने समय और मानवता की रक्षा के लिए जीवन भर संघर्ष किया है। समय ही समकालीन हो सकता है और मानव की गरिमा और गौरव की रक्षा से बड़ा कोई लक्ष्य हो नहीं सकता है।
समकालीन विश्व में यदि सबसे अधिक संकट किसी पर है तो वे दो चीजें हैं - पहली है मानव की गरिमा और गौरव और दूसरा है पर्यावरण संकट या पारिस्थितिकी संतुलन का बिगड़ते जाना। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से निरंतर परमाणु बमों तथा रासायनिक हथियारों के विकास ने मानवीय गरिमा को सर्वाधिक संकटग्रस्त किया है तो दूसरी ओर औद्योगिक विकास की तीव्र गति और मुनाफा कमाने की कभी न खत्म होने वाली होड़ ने मानवीय जीवन के लिए आवश्यक पर्यावरणीय घटकों के संतुलन को तहस-नहस कर दिया है।
रासायनिक गैसों के उत्सर्जन और इलेक्ट्रानिक और परमाणवीय कचरे ने प्राकृतिक संतुलन को मानव जीवन के प्रतिकूल दिशा में वृद्धिंगत किया है। आधुनिक औद्योगिक विकास की नीतियों ने प्रदूषण का प्रवाह बाढ़ की तरह प्रवाहित किया है और साथ ही पूँजी के प्रवाह को केन्द्रीयकृत करने के लिए तमाम देशों को प्रतियोगिता की अंधी दौड़ में दौड़ने के लिए विवश किया है। इस अमानवीयकृत वातावरण में मानव की गरिमा और गौरव का प्रश्न मनुष्य की अन्तरात्मा के समक्ष गौण या उपेक्षित हो गया है। यही सबसे बढ़ा संकट है जो दुनिया को बर्बरता की ओर धकेल रहा है।
गाँधी का चिन्तन और कर्म दोनों ही मानवीय गरिमा की रक्षा करने के लिए सक्रिय थे और उनकी आर्थिक नीतियाँ पर्यावरण को विनाश की ओर जाने से रोकने की दिशा में अनिवार्य रूप अनिवार्य हैं। संपूर्ण विश्व में जिस तरह से हिंसा और अनाचार का बोलबाला दिखाई दे रहा है, उसमें मानवीय अस्तित्व ही जब संकटग्रस्त हो तो उसकी गरिमा और गौरव की रक्षा के संबंध में सोचने का तो दुनिया के पास वक्त ही नहीं है।
गाँधी ही ऐसे विचारक थे जो इन दोनों ही तरह के संकटों से मानवीय जीवन की रक्षा के लिए चिन्तन और कर्म दोनों ही स्तरांे पर सक्रिय थे। अहिंसा की उनकी राजनीति मानवीय अस्तित्व की रक्षा के लिए अनिवार्य कार्यवाही हो सकती है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर आधारित दुनिया का निर्माण ही पर्यावरणीय संकट से मानवता की रक्षा कर सकता है।
युद्ध और हिंसा मानवीय अन्तरात्मा के ध्वंस के लिए सबसे अधिक प्रभावी तकनीक हैं तो मानवीय गौरव के पतन के लिए अकूत मुनाफा कमाने की अर्थव्यवस्था। जिस तरह युद्ध मानवीय अस्तित्व को व्यापक रूप से संकटग्रस्त करते हैं और मानव निराशा और हताशा के गर्त में चला जाता है, वह उसकी अन्तरात्मा को खंडित और विखंडित करके आत्मविध्वंस के कगार पर पहुँचा देता है। उसी तरह मुनाफा कमाने की अर्थव्यवस्था इंसान की पहचान और अस्मिता को क्षति पहुँचाती है। मुनाफा इंसान से ऊपर प्रतिष्ठित हो जाता है और इस तरह इंसान अपने ही द्वारा पैदा किए गए अर्थ के पैशाचिक जाल में फँस जाता है। गाँधी के विचार और चिन्तन मानव को इन दोनों ही तरह की स्थितियों से बाहर निकालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
गाँधी का सामाजिक चिन्तन प्रतियोगिता के स्थान पर सहयोगिता को महत्व देता है। उनके जीवन का पूरा संघर्ष सहयोगिता के मूल्यों से संचालित होता रहा है। इसी सजग मानवीय भागीदारी से वे देश को आजादी जैसे जटिल और कठिन संघर्ष में सफलता दिलवा सके थे। इतने व्यापक मानवीय सहयोग को एक साथ किसी विदेशी ताकत के खिलाफ संघर्ष के लिए तैयार करने की नीति अहिंसा और सत्याग्रह के मूल्यों पर ही सफल हो सकती है। गाँधी चिन्तन और कर्म का समन्वय करते हैं। उनके जीवन में चिन्तन आचरण से कभी अलग नहीं होता, वे आचरण के द्वारा ही अपने चिन्तन को मूर्त रूप देते हैं। यही कारण है कि व्यापक मानव समूह उनके चिन्तन पूर्ण आचरण के पक्ष में कर्मरत होने के लिए कटिबद्ध हो जाता है और हिंसा और हथियारों की ताकत उनके चिन्तन और कर्म के आवेग के समक्ष बौनी हो जाती है।
दुनिया को बदलने की आवश्यकता सबसे अधिक समकालीन विश्व में है। दुनिया को बदलने का अर्थ क्या है? यह भी हमें गाँधी दर्शन ही बता सकता है। वे एक ऐसी दुनिया के निर्माण के पक्ष में थे जिसमें स्वतंत्रता का मूल्य अपने पूर्ण विकसित अवस्था में प्रत्यक्ष हो। स्वतंत्रता अर्थात् किसी भी तरह के भय से मुक्ति, स्वतंत्रता अर्थात् स्वतंत्रता के भय से भी मुक्ति, पराधीनता और पराश्रयता के घटक मानवीय गरिमा के खिलाफ हैं, अतः गाँधी जी इन दोनों घटकों को अपनी दुनिया में स्थान नहीं देते हैं। स्वावलंबन और सहयोगिता के मूल्य विकसित करते हैं। सहयोगिता परतंत्रता की विवशता से मुक्ति का नाम है और स्वावलंबन आत्मनिर्भरता का जनक है। आत्मनिर्भरता का अर्थ सुविधाओं के संसार में वस्तुओं पर निर्भरता का बढ़ते जाना नहीं है, जैसा कि समकालीन विश्व में हो रहा है। आज ‘पराधीनता’ और ‘प्रतियोगिता’ ने व्यक्ति को दासता की आदिम स्थिति में पहुँचा दिया है। आज का मानव वस्तु और तकनीक का दास हो गया है, उनके अभाव में वह अपंग महसूस करता है। यह अपंगताबोध ही मानव को निरंतर हिंसा और अनाचार की ओर ले जाता है।
प्रतियोगिता और तकनीक का मानव के जीवन में इतना महत्वपूर्ण होते जाना कि उसमें स्वयं अपने अलावा शेष मानवता के होने और न होने का औचित्य ही विलीन होता जाये, अमानवीय विश्व के निर्माण की दिशा में बढ़ना ही कहा जायेगा। गाँधी जी ने इसके बरक्स मानवीय विश्व के निर्माण का स्वप्न देखा था जिसमें प्रत्येक मनुष्य दूसरे मनुष्य का सम्मान करेगा और उसकी अस्मिता और अस्तित्व की सुरक्षा के लिए सजग और सचेत रहेगा। वे स्वयं निरंतर मानवता के मूल्यों की प्रतिष्ठिा में प्रयत्नशील रहे थे।
गाँधी का आत्मनिर्भरता का दर्शन दासता के किसी भी रूप से मानव की मुक्ति का उद्घोषक है। हम किसी भी परिस्थिति या वस्तुस्थिति के दास नहीं है, हम अपने जीवन को सुंदर और सुव्यवस्थित बनाने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र और स्वाधीन हैं। हमारे पास आधुनिक विकास के मानक - तकनीक और पूँजी चाहे न हो पर हम स्वावलंबी हैं अपने आप अपनी दुनिया बनाने और बदलने के लिए। गाँधी का ‘अर्थ’ दर्शन इसी मूल विचार पर आधारित था।
दुनिया को बदलने के स्वप्न में, विजन में गाँधी के ‘ग्राम्य स्वराज’ की संकल्पना सबसे कारगर तकनीक है, यदि हम विश्व को पूँजी के सर्वग्रासी मोहपाश से मुक्त देखना चाहते हैं तो। समकालीन विश्व एक अत्यंत लंगड़ी दुनिया निर्मित कर रहा है। इसमें कुछ लोगों के पास अकूत धन संपदा है। दुनिया की अस्सी प्रतिशत संपदा कुल लगभग दौ सौ लोगों के पास संकेन्द्रित है। इस असमानता के साथ शेष विश्व की स्थिति अत्यंत दयनीय दिखाई देती है। ये कुछ लोग जो दुनिया पर राज कर रहे हैं, निरंतर अमानवीयकृत मूल्यों को बाजार में परोसते हैं। असमानता और विषमता का अर्थशास्त्र सबसे बड़ा अमानवीय मूल्य है जो जीवन यापन के साधनों पर कुछ लोगों के पूर्णतः अधिकार को जायज ठहराता है।
तेल तिली का कुछ लोगों के लिए सुरक्षित
शुष्क खली से बाकीं जनता पल जायेगी।
यह सोच समकालीन विश्व की सबसे पतित और बर्बर सोच है। गाँधी का दर्शन इस सोच और विचारधारा से मुक्ति का दर्शन है। वे समानता और समता के विचारों से दुनिया का निर्माण करने के पक्षधर थे।
समृद्धि और अभाव के दो विषमकालीन ध्रवेां के इस समकालीन विश्व में गाँधी का जीवन दर्शन सर्वाधिक प्रासांगिक है। अपरिग्रह के जिस जीवन दर्शन को वे अपने लिए अपनाये हुए थे और अहिंसा और सत्याग्रह की जो तकनीक सामाजिक सामूहिकता के विकास के लिए वे प्रचारित और प्रसारित कर रहे थे, वह दुनिया के मानवीय रूपांतर के लिए अनिवार्य शर्त है। इस तरह के जीवन दर्शन के अभाव में यह दुनिया निरंतर बर्बरता और विषमता की दिशा में बढ़ती रहेगी।
एक ओर समृद्धि के ऐवरेस्ट विकसित हो रहे हैं दूसरी ओर अभाव और शोषण की निरंतर चौड़ी होती जा रही खाइयाँ नये नये गर्त पैदा कर रही हैं। समृद्धि के ऐवरेस्ट जिन कुछ लोगों के लिए सुरक्षित हैं, वे ‘अति’ की अत्यधिकता में उत्पादन को बर्बाद कर रहे हैं और ‘फेक’ (ंिाम) और ‘मोर’ (उवतम)के विषाणुओं की अपसंस्कृति को सांस्कृतिक मूल्यों की तरह हमारे रक्त में प्रवाहित कर रहे हैं। इन अपसांस्कृतिक मूल्यों के बरक्स गाँधी के सर्वोदयी और न्यूनतम जरूरतों पर जीवन की निर्भरता का दर्शन विकास विरोधी नहीं मानवीय विकास की यथार्थवादी सच्चाइयों को गहरी सामाजिक अन्तःचेतना के साथ हमारे समक्ष प्रत्यक्ष करता है।
गाँधी ने ‘एकला चलो रे’ का सूत्र दिया था, पर आज संपूर्ण विश्व को उनके साथ चलने को तैयार होना पढ़ रहा है। यही उनके जीवन दर्शन की सबसे बड़ी प्रासांगिकता है।
गाँधी का आर्थिक दर्शन ग्रामीण आत्मनिर्भरता पर आधारित था। यह आर्थिक दर्शन मानवीय जीवन आधुनिक विसंगतियों और विषमताओं के विकल्प के रूप में अपनाया जा सकता है। आधुनिक अत्यधिक केन्द्रीकृत औद्योगिक तकनीक आधारित विश्व व्यवस्था में मानवीय जीवन कई तनावों, अभावों, विषमताओं, विडंबनाओं, हिंसा, अशांति और अकेलेपन की बर्बरता भरी अवस्थाओं में जीने के लिए विवश है। ऊपर से सब कुछ बहुत चकाचौंध भरा हुआ और गुड लुकिंग दिखाई दे रहा है। पर यह पैंकिग मात्र है मानवीय जीवन की अन्तर्वस्तु एक दम बदबूदार और सड़ांध पैदा कर रही है। यह सड़ांध हमें - आत्महत्याओं, हत्या और बलात्कारों, निरंतर होने वाले युद्धों में हताहत होते जा रहे लाखों बच्चों, स्त्रियों और भूख से बिलबिलाते लाखों इंसानों, झूठन खाते बच्चों और अपनी भूख मिटाने के लिए अपनी दैहिक चेतना को बेचती स्त्रियों से रूबरू होन में- महसूस होती है। ये तमाम तरह की स्थितियाँ आर्थिक विषमता के अर्थशास्त्र की उपज हैं। गाँधी का दर्शन इन स्थितियों को मानवीय सहजता और स्वाभाविकता में बदलने में समर्थ है। उनके आर्थिक दर्शन में वितरण की समानता और उपभोग की सामूहिकता का समाहार है। इन दो तत्वों के कारण विषमता और अभाव की बैचेनी पैदा नहीं होती जिससे मानवीय जीवन सडांघ में नहीं सुवास में बदलता जाता है।
गाँधी का आर्थिक दशर्न तीन बेसिक संकल्पनाओं पर आधारित था। स्वेदशी अर्थात् ‘उत्पादन सिर्फ अपने लिए नहीं अपने पड़ौसी के लिए करो’, ‘अन्त्योदय’ उत्पादन का लक्ष्य होना चाहिए और ‘अन्तिम मनुष्य’ तक उत्पादन का बराबर वितरण होना चाहिए। क्या आज की भूमंडलीय व्यवस्था इनमे से एक भी संकल्पना के संबंध में सोचती है? शायद नहीं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी समृद्धि, अपना वैभव, अपनी भूख, अपने साधन और अपना विकास को लेकर भाग रहा है। सबसे बड़ी विसंगति यह है कि इनकी कोई अपर सीमा नहीं है। यही कारण है कि उत्पादन के साधन और उपभोग की वस्तुएं निरंतर कुछ हाथों में केन्द्रित होती जा रही हैं। गाँधी के विचार इस स्थिति के ठीक उलट थे।
गाँधी के जीवन दर्शन का मूल मंत्र था विचार और कर्म की एकता। आज की राजनीति और सामाजिक दर्शन की सबसे बड़ी असंगति है विचार और कर्म के बीच संगति का अभाव। शब्द में चिन्तन और कर्म की संगति ही उसे सार्थकता प्रदान करती है। गाँधी के ‘सत्य’ ‘अहिंसा’, ‘सत्याग्रह’ ‘अन्त्योदय’ इत्यादि संकल्पनायें खोखले शब्द मात्र नहीं थे और न वे उन्हें ‘नारे की’ तरह उपयोग करते थे। ये संकल्पनायें उनक जीवन और आचरण में कदम ताल करके चलती थीं। यही कारण है कि वे ‘‘असहयोग आंदोलन’’ को वापस लेने का निर्णय कर सके। इतने बड़े आंदोलन को आरंभ होने के बाद एक छोटी सी हिंसात्मक घटना के कारण वापस लेना आत्मघाती हो सकता था, पर गाँधी अपने सिद्धांत को आचरण में यदि नहीं लाते तो वे आज वाकई ‘‘मर’’ चुके होते। पर ऐसा नहीं है। गाँधी आज जिंदा हैं, संपूर्ण विश्व में निरंतर अपने कर्म और चिन्तन की संगति की वजह से। यह उनकी समकालीन विश्व में प्रासांगिकता के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य है।
००
संजीव कुमार जैन
522 आधारशिला, बरखेड़ा
भोपाल
9826458553
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1- http://bizooka2009.blogspot.com/2016/04/blog-post_16.html
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संजीव कुमार जैन
समकालीन विश्व में गाँधी के विचार विश्व में सबसे अधिक पढ़े और समझे जाते हैं। दुनिया को कैसे बदला जाये? इस प्रश्न के उत्तर में यदि किसी एक विचारक के विचारों को सर्वाधिक उपयोगी रूप में देखने परखने का प्रश्न उठता है तो वह विचारक गाँधी ही हो सकते हैं। गाँधी जी ने अपने समय और मानवता की रक्षा के लिए जीवन भर संघर्ष किया है। समय ही समकालीन हो सकता है और मानव की गरिमा और गौरव की रक्षा से बड़ा कोई लक्ष्य हो नहीं सकता है।
संजीव कुमार जैन |
समकालीन विश्व में यदि सबसे अधिक संकट किसी पर है तो वे दो चीजें हैं - पहली है मानव की गरिमा और गौरव और दूसरा है पर्यावरण संकट या पारिस्थितिकी संतुलन का बिगड़ते जाना। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से निरंतर परमाणु बमों तथा रासायनिक हथियारों के विकास ने मानवीय गरिमा को सर्वाधिक संकटग्रस्त किया है तो दूसरी ओर औद्योगिक विकास की तीव्र गति और मुनाफा कमाने की कभी न खत्म होने वाली होड़ ने मानवीय जीवन के लिए आवश्यक पर्यावरणीय घटकों के संतुलन को तहस-नहस कर दिया है।
रासायनिक गैसों के उत्सर्जन और इलेक्ट्रानिक और परमाणवीय कचरे ने प्राकृतिक संतुलन को मानव जीवन के प्रतिकूल दिशा में वृद्धिंगत किया है। आधुनिक औद्योगिक विकास की नीतियों ने प्रदूषण का प्रवाह बाढ़ की तरह प्रवाहित किया है और साथ ही पूँजी के प्रवाह को केन्द्रीयकृत करने के लिए तमाम देशों को प्रतियोगिता की अंधी दौड़ में दौड़ने के लिए विवश किया है। इस अमानवीयकृत वातावरण में मानव की गरिमा और गौरव का प्रश्न मनुष्य की अन्तरात्मा के समक्ष गौण या उपेक्षित हो गया है। यही सबसे बढ़ा संकट है जो दुनिया को बर्बरता की ओर धकेल रहा है।
गाँधी का चिन्तन और कर्म दोनों ही मानवीय गरिमा की रक्षा करने के लिए सक्रिय थे और उनकी आर्थिक नीतियाँ पर्यावरण को विनाश की ओर जाने से रोकने की दिशा में अनिवार्य रूप अनिवार्य हैं। संपूर्ण विश्व में जिस तरह से हिंसा और अनाचार का बोलबाला दिखाई दे रहा है, उसमें मानवीय अस्तित्व ही जब संकटग्रस्त हो तो उसकी गरिमा और गौरव की रक्षा के संबंध में सोचने का तो दुनिया के पास वक्त ही नहीं है।
गाँधी ही ऐसे विचारक थे जो इन दोनों ही तरह के संकटों से मानवीय जीवन की रक्षा के लिए चिन्तन और कर्म दोनों ही स्तरांे पर सक्रिय थे। अहिंसा की उनकी राजनीति मानवीय अस्तित्व की रक्षा के लिए अनिवार्य कार्यवाही हो सकती है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर आधारित दुनिया का निर्माण ही पर्यावरणीय संकट से मानवता की रक्षा कर सकता है।
युद्ध और हिंसा मानवीय अन्तरात्मा के ध्वंस के लिए सबसे अधिक प्रभावी तकनीक हैं तो मानवीय गौरव के पतन के लिए अकूत मुनाफा कमाने की अर्थव्यवस्था। जिस तरह युद्ध मानवीय अस्तित्व को व्यापक रूप से संकटग्रस्त करते हैं और मानव निराशा और हताशा के गर्त में चला जाता है, वह उसकी अन्तरात्मा को खंडित और विखंडित करके आत्मविध्वंस के कगार पर पहुँचा देता है। उसी तरह मुनाफा कमाने की अर्थव्यवस्था इंसान की पहचान और अस्मिता को क्षति पहुँचाती है। मुनाफा इंसान से ऊपर प्रतिष्ठित हो जाता है और इस तरह इंसान अपने ही द्वारा पैदा किए गए अर्थ के पैशाचिक जाल में फँस जाता है। गाँधी के विचार और चिन्तन मानव को इन दोनों ही तरह की स्थितियों से बाहर निकालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
गाँधी का सामाजिक चिन्तन प्रतियोगिता के स्थान पर सहयोगिता को महत्व देता है। उनके जीवन का पूरा संघर्ष सहयोगिता के मूल्यों से संचालित होता रहा है। इसी सजग मानवीय भागीदारी से वे देश को आजादी जैसे जटिल और कठिन संघर्ष में सफलता दिलवा सके थे। इतने व्यापक मानवीय सहयोग को एक साथ किसी विदेशी ताकत के खिलाफ संघर्ष के लिए तैयार करने की नीति अहिंसा और सत्याग्रह के मूल्यों पर ही सफल हो सकती है। गाँधी चिन्तन और कर्म का समन्वय करते हैं। उनके जीवन में चिन्तन आचरण से कभी अलग नहीं होता, वे आचरण के द्वारा ही अपने चिन्तन को मूर्त रूप देते हैं। यही कारण है कि व्यापक मानव समूह उनके चिन्तन पूर्ण आचरण के पक्ष में कर्मरत होने के लिए कटिबद्ध हो जाता है और हिंसा और हथियारों की ताकत उनके चिन्तन और कर्म के आवेग के समक्ष बौनी हो जाती है।
दुनिया को बदलने की आवश्यकता सबसे अधिक समकालीन विश्व में है। दुनिया को बदलने का अर्थ क्या है? यह भी हमें गाँधी दर्शन ही बता सकता है। वे एक ऐसी दुनिया के निर्माण के पक्ष में थे जिसमें स्वतंत्रता का मूल्य अपने पूर्ण विकसित अवस्था में प्रत्यक्ष हो। स्वतंत्रता अर्थात् किसी भी तरह के भय से मुक्ति, स्वतंत्रता अर्थात् स्वतंत्रता के भय से भी मुक्ति, पराधीनता और पराश्रयता के घटक मानवीय गरिमा के खिलाफ हैं, अतः गाँधी जी इन दोनों घटकों को अपनी दुनिया में स्थान नहीं देते हैं। स्वावलंबन और सहयोगिता के मूल्य विकसित करते हैं। सहयोगिता परतंत्रता की विवशता से मुक्ति का नाम है और स्वावलंबन आत्मनिर्भरता का जनक है। आत्मनिर्भरता का अर्थ सुविधाओं के संसार में वस्तुओं पर निर्भरता का बढ़ते जाना नहीं है, जैसा कि समकालीन विश्व में हो रहा है। आज ‘पराधीनता’ और ‘प्रतियोगिता’ ने व्यक्ति को दासता की आदिम स्थिति में पहुँचा दिया है। आज का मानव वस्तु और तकनीक का दास हो गया है, उनके अभाव में वह अपंग महसूस करता है। यह अपंगताबोध ही मानव को निरंतर हिंसा और अनाचार की ओर ले जाता है।
प्रतियोगिता और तकनीक का मानव के जीवन में इतना महत्वपूर्ण होते जाना कि उसमें स्वयं अपने अलावा शेष मानवता के होने और न होने का औचित्य ही विलीन होता जाये, अमानवीय विश्व के निर्माण की दिशा में बढ़ना ही कहा जायेगा। गाँधी जी ने इसके बरक्स मानवीय विश्व के निर्माण का स्वप्न देखा था जिसमें प्रत्येक मनुष्य दूसरे मनुष्य का सम्मान करेगा और उसकी अस्मिता और अस्तित्व की सुरक्षा के लिए सजग और सचेत रहेगा। वे स्वयं निरंतर मानवता के मूल्यों की प्रतिष्ठिा में प्रयत्नशील रहे थे।
गाँधी का आत्मनिर्भरता का दर्शन दासता के किसी भी रूप से मानव की मुक्ति का उद्घोषक है। हम किसी भी परिस्थिति या वस्तुस्थिति के दास नहीं है, हम अपने जीवन को सुंदर और सुव्यवस्थित बनाने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र और स्वाधीन हैं। हमारे पास आधुनिक विकास के मानक - तकनीक और पूँजी चाहे न हो पर हम स्वावलंबी हैं अपने आप अपनी दुनिया बनाने और बदलने के लिए। गाँधी का ‘अर्थ’ दर्शन इसी मूल विचार पर आधारित था।
दुनिया को बदलने के स्वप्न में, विजन में गाँधी के ‘ग्राम्य स्वराज’ की संकल्पना सबसे कारगर तकनीक है, यदि हम विश्व को पूँजी के सर्वग्रासी मोहपाश से मुक्त देखना चाहते हैं तो। समकालीन विश्व एक अत्यंत लंगड़ी दुनिया निर्मित कर रहा है। इसमें कुछ लोगों के पास अकूत धन संपदा है। दुनिया की अस्सी प्रतिशत संपदा कुल लगभग दौ सौ लोगों के पास संकेन्द्रित है। इस असमानता के साथ शेष विश्व की स्थिति अत्यंत दयनीय दिखाई देती है। ये कुछ लोग जो दुनिया पर राज कर रहे हैं, निरंतर अमानवीयकृत मूल्यों को बाजार में परोसते हैं। असमानता और विषमता का अर्थशास्त्र सबसे बड़ा अमानवीय मूल्य है जो जीवन यापन के साधनों पर कुछ लोगों के पूर्णतः अधिकार को जायज ठहराता है।
तेल तिली का कुछ लोगों के लिए सुरक्षित
शुष्क खली से बाकीं जनता पल जायेगी।
यह सोच समकालीन विश्व की सबसे पतित और बर्बर सोच है। गाँधी का दर्शन इस सोच और विचारधारा से मुक्ति का दर्शन है। वे समानता और समता के विचारों से दुनिया का निर्माण करने के पक्षधर थे।
समृद्धि और अभाव के दो विषमकालीन ध्रवेां के इस समकालीन विश्व में गाँधी का जीवन दर्शन सर्वाधिक प्रासांगिक है। अपरिग्रह के जिस जीवन दर्शन को वे अपने लिए अपनाये हुए थे और अहिंसा और सत्याग्रह की जो तकनीक सामाजिक सामूहिकता के विकास के लिए वे प्रचारित और प्रसारित कर रहे थे, वह दुनिया के मानवीय रूपांतर के लिए अनिवार्य शर्त है। इस तरह के जीवन दर्शन के अभाव में यह दुनिया निरंतर बर्बरता और विषमता की दिशा में बढ़ती रहेगी।
एक ओर समृद्धि के ऐवरेस्ट विकसित हो रहे हैं दूसरी ओर अभाव और शोषण की निरंतर चौड़ी होती जा रही खाइयाँ नये नये गर्त पैदा कर रही हैं। समृद्धि के ऐवरेस्ट जिन कुछ लोगों के लिए सुरक्षित हैं, वे ‘अति’ की अत्यधिकता में उत्पादन को बर्बाद कर रहे हैं और ‘फेक’ (ंिाम) और ‘मोर’ (उवतम)के विषाणुओं की अपसंस्कृति को सांस्कृतिक मूल्यों की तरह हमारे रक्त में प्रवाहित कर रहे हैं। इन अपसांस्कृतिक मूल्यों के बरक्स गाँधी के सर्वोदयी और न्यूनतम जरूरतों पर जीवन की निर्भरता का दर्शन विकास विरोधी नहीं मानवीय विकास की यथार्थवादी सच्चाइयों को गहरी सामाजिक अन्तःचेतना के साथ हमारे समक्ष प्रत्यक्ष करता है।
गाँधी ने ‘एकला चलो रे’ का सूत्र दिया था, पर आज संपूर्ण विश्व को उनके साथ चलने को तैयार होना पढ़ रहा है। यही उनके जीवन दर्शन की सबसे बड़ी प्रासांगिकता है।
गाँधी का आर्थिक दर्शन ग्रामीण आत्मनिर्भरता पर आधारित था। यह आर्थिक दर्शन मानवीय जीवन आधुनिक विसंगतियों और विषमताओं के विकल्प के रूप में अपनाया जा सकता है। आधुनिक अत्यधिक केन्द्रीकृत औद्योगिक तकनीक आधारित विश्व व्यवस्था में मानवीय जीवन कई तनावों, अभावों, विषमताओं, विडंबनाओं, हिंसा, अशांति और अकेलेपन की बर्बरता भरी अवस्थाओं में जीने के लिए विवश है। ऊपर से सब कुछ बहुत चकाचौंध भरा हुआ और गुड लुकिंग दिखाई दे रहा है। पर यह पैंकिग मात्र है मानवीय जीवन की अन्तर्वस्तु एक दम बदबूदार और सड़ांध पैदा कर रही है। यह सड़ांध हमें - आत्महत्याओं, हत्या और बलात्कारों, निरंतर होने वाले युद्धों में हताहत होते जा रहे लाखों बच्चों, स्त्रियों और भूख से बिलबिलाते लाखों इंसानों, झूठन खाते बच्चों और अपनी भूख मिटाने के लिए अपनी दैहिक चेतना को बेचती स्त्रियों से रूबरू होन में- महसूस होती है। ये तमाम तरह की स्थितियाँ आर्थिक विषमता के अर्थशास्त्र की उपज हैं। गाँधी का दर्शन इन स्थितियों को मानवीय सहजता और स्वाभाविकता में बदलने में समर्थ है। उनके आर्थिक दर्शन में वितरण की समानता और उपभोग की सामूहिकता का समाहार है। इन दो तत्वों के कारण विषमता और अभाव की बैचेनी पैदा नहीं होती जिससे मानवीय जीवन सडांघ में नहीं सुवास में बदलता जाता है।
गाँधी का आर्थिक दशर्न तीन बेसिक संकल्पनाओं पर आधारित था। स्वेदशी अर्थात् ‘उत्पादन सिर्फ अपने लिए नहीं अपने पड़ौसी के लिए करो’, ‘अन्त्योदय’ उत्पादन का लक्ष्य होना चाहिए और ‘अन्तिम मनुष्य’ तक उत्पादन का बराबर वितरण होना चाहिए। क्या आज की भूमंडलीय व्यवस्था इनमे से एक भी संकल्पना के संबंध में सोचती है? शायद नहीं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी समृद्धि, अपना वैभव, अपनी भूख, अपने साधन और अपना विकास को लेकर भाग रहा है। सबसे बड़ी विसंगति यह है कि इनकी कोई अपर सीमा नहीं है। यही कारण है कि उत्पादन के साधन और उपभोग की वस्तुएं निरंतर कुछ हाथों में केन्द्रित होती जा रही हैं। गाँधी के विचार इस स्थिति के ठीक उलट थे।
गाँधी के जीवन दर्शन का मूल मंत्र था विचार और कर्म की एकता। आज की राजनीति और सामाजिक दर्शन की सबसे बड़ी असंगति है विचार और कर्म के बीच संगति का अभाव। शब्द में चिन्तन और कर्म की संगति ही उसे सार्थकता प्रदान करती है। गाँधी के ‘सत्य’ ‘अहिंसा’, ‘सत्याग्रह’ ‘अन्त्योदय’ इत्यादि संकल्पनायें खोखले शब्द मात्र नहीं थे और न वे उन्हें ‘नारे की’ तरह उपयोग करते थे। ये संकल्पनायें उनक जीवन और आचरण में कदम ताल करके चलती थीं। यही कारण है कि वे ‘‘असहयोग आंदोलन’’ को वापस लेने का निर्णय कर सके। इतने बड़े आंदोलन को आरंभ होने के बाद एक छोटी सी हिंसात्मक घटना के कारण वापस लेना आत्मघाती हो सकता था, पर गाँधी अपने सिद्धांत को आचरण में यदि नहीं लाते तो वे आज वाकई ‘‘मर’’ चुके होते। पर ऐसा नहीं है। गाँधी आज जिंदा हैं, संपूर्ण विश्व में निरंतर अपने कर्म और चिन्तन की संगति की वजह से। यह उनकी समकालीन विश्व में प्रासांगिकता के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य है।
००
संजीव कुमार जैन
522 आधारशिला, बरखेड़ा
भोपाल
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1- http://bizooka2009.blogspot.com/2016/04/blog-post_16.html
2- https://bizooka2009.blogspot.in/2018/04/blog-post_9.html?m=0
अच्छा लगा
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