हिन्दी कविता में कलकत्ता
मृत्युंजय पाण्डेय
कलकत्ते का जो जिक्र किया तूने हमनशीं
इक तीर मेरे सीने में मारा के हाए हाए
- मिर्जा गालिब
मिर्जा गालिब
कलकत्ते का जिक्र आए और गालिब याद न आएँ भला ऐसा हो सकता है ! हिन्दी साहित्य में कलकत्ता का नाम लेते ही जेहन में जो सबसे पहला नाम कौंधता है, वह गालिब का है । यह कौंध इस बात का प्रमाण है कि गालिब उर्दू या फारसी के होते हुए भी सिर्फ इनके अकेले के नहीं हैं, वे जितना उर्दू या फारसी के हैं उतना ही हिन्दी के भी हैं । गालिब को कलकत्ता से बेहद लगाव था । वे अपने जेहन में आधुनिकता यही से लेकर लौटे थे । गालिब और कलकत्ता पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, इसलिए हम यहाँ गालिब पर नहीं बल्कि अन्य कवियों की कविताओं पर बातचीत करेंगे ।
'हिन्दी कविता में कलकत्ता' दो तरह से है । पहला, हिन्दी में कलकत्ता शहर के कौन-कौन कवि कविताएँ लिख रहे हैं । दूसरा, हिन्दी के किन-किन कवियों ने कलकत्ता शहर, उस की संस्कृति, परंपरा और राजनीतिक परिदृश्य को केंद्र में रखकर कविताएँ लिखी हैं । इस लेख का सम्बन्ध दूसरे से है, यानी हिन्दी के जिन-जिन कविताओं में कलकत्ता शहर, उसकी संस्कृति, परंपरा और राजनीतिक परिदृश्य को दिखाया गया है, उसी को आधार बनाकर यह लेख लिखा गया है ।
'हिन्दी कविता में कलकत्ता' पर बात करते ही सबसे पहले नागार्जुन और उनकी कविता 'घिन तो नहीं आती है?' याद आती है । यह कविता 1961 की है । कविता की कुछ पंक्तियाँ देखिए –
“पूरी स्पीड में है ट्राम
खाती है दचके पै दचका
सटता है बदन से बदन-
पसीने से लथपथ ।
छूती है निगाहों को
कत्थई दाँतों की मोटी मुस्कान
बेतरतीब मूँछों की थिरकन
सच-सच बतलाओ
घिन तो नही आती है?
जी तो नहीं कुढ़ता है ?”
कवि नागार्जुन ‘ट्राम’ के बहाने कलकत्ता में बिहारी मजदूरों की स्थिति का चित्रण किए हैं ।
कलकत्ता में ही सबसे पहले नवजागरण की शुरुआत हुई । उद्योगधंधों की स्थापना हुई । कल-कारखाने लगे । इन कल-कारखानों में मजदूरी करने के लिए हजारों-हजारों की संख्या में बिहारी मजदूर कलकत्ता आए । जूट मिल, रेलवे स्टेशन और बड़ा बाजार में ये खप गए । रोजी-रोटी की खोज में यह अपने देस, गाँव एवं मिट्टी से दूर हो गए थे । ये आज भी ‘सपने में भी सुनते हैं अपनी धरती की धड़कन’ । पर आज स्थिति बदल गई है । आज बिहार या उत्तर प्रदेश से बहुत ही कम संख्या में मजदूर कलकत्ता आ रहे हैं । वजह है, कल-कारखानों का बंद होना । रोजगार की कमी । आज इसी रोजगार की कमी की वजह से, सिर्फ बिहार या उत्तर प्रदेश के ही नहीं बल्कि पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद, खड़गपुर और मिदिनापुर आदि शहरों से भी लोग, बड़ी संख्या में, रोजगार की तलाश में दिल्ली की ओर जा रहे हैं । आज के बंगाल का यह सच है ।
‘घिन तो नहीं आती हैं ?’ कविता में नागार्जुन यह दिखाते हैं कि अपने में मस्त रहने वाले इन बिहारी मजदूरों की मुस्कान, उनकी दिल खोल बतकही, अपने देस-गाँव की बातें अपनी बोली (भोजपुरी) में, कलकत्ता के सभ्य (सफेद धुले कपड़े वाले) लोगों को अखरती थी, उनके बदन की छुअन इन सभ्य लोगों को नागवार लगती थी, उनका जी कुढ़ता था, उन्हें घिन आती थी । इसी नागवारपन, अखराहट, कुढ़ते जी और घिन की वजह से आज कलकत्ता से पसीने की संस्कृति यानी मेहनत की संस्कृति खत्म हो चली है । इसी भेद-भाव एवं छोटे मन की वजह से कलकत्ता के सारे कल-कारखाने बंद हो गए । एक साजिश के तहत बिहारी मजदूरों को यहाँ से हटाने के लिए बंद एवं हड़ताल का सहारा लिया गया । कलकत्ता ने बिहारियों को यहाँ से भगाने के लिए जिस संस्कृति का सूत्रपात किया, आज वह उसी की सजा भुगत रहा है । मजदूरों की छोड़िए आज कलकत्ता में मध्यवर्ग के लिए भी रोजगार नहीं है ।
प्रवासी बिहारी मजदूरों के ऊपर कवि राजेश्वर वसिष्ठ ने भी एक कविता लिखी है । वे इन्हें ‘कोलकाता के राजा’ कहते हैं । उनका कहना है कलकत्ता की सड़कों पर रहने वाले ये बिहारी जोंक की तरह नहीं छोड़ते इस शहर का दामन । यहाँ की सरकार हर चुनाव में इनसे वायदा करती है, लेकिन चुनाव जीतने के बाद ये फिर से इन सरकारों को लिए सिर्फ बिहारी ही बनकर रह जाते हैं –
“ये हर बार देते हैं वोट जीतने वाली पार्टी को
होते हैं वादे इन्हें कायदे से बसाने के
जिंदगी की जरूरतों को पूरा करने के
पर चुनाव के बाद
ये फिर से बना दिए जाते हैं बिहारी ।”
इसके बावजूद भी ये घबराते नहीं हैं –
“भरपूर बेशर्मी के साथ करते रहते हैं
ईमानदारी से मेहनत मजदूरी
आँखों में जिंदगी के स्वप्न लिए ।”
कवि ज़ोर देकर कहता है कि इन मेहनतकशों की वजह से ही, इनके पसीने से ही इस शहर की पहचान है । इस शहर में “इनकी मेहनत और हावड़ा ब्रिज का / कोई विकल्प नहीं” है ।
हमारे समय के, समकालीन हिन्दी कविता के महत्वपूर्ण कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव को भी कलकत्ता अपनी ओर खींचता है । ‘जरूर जाऊँगा कलकत्ता’ शीर्षक कविता पर कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव को ‘भारत भूषण अग्रवाल’ पुरस्कार मिला है। गालिब की प्रसिद्ध कलकत्ता यात्रा को केंद्र में रखकर यह कविता लिखी गई है । इस ऐतिहासिक कविता में यह ध्वनित होता है कि अंग्रेजों का उपनिवेश होने के बाद भी सबसे पहले नवजागरण की शुरुआत यहीं हुई थी। ‘हिन्दी कविता के मस्तक’ और ‘रेख्ते का उस्ताद’ मिर्ज़ा गालिब पहली बार यहीं से अपने ज़ेहन में आधुनिकता लेकर लौटे थे। एक कवि-शायर ‘ईमान, कुफ्र, धर्म, विधर्म’ नहीं बल्कि एक नयी रोशनी की खोज करता है। इस नयी रोशनी की खोज में गालिब भी कलकत्ता आए थे और कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव भी आते हैं । इस कविता में इस सत्य का भी उद्घाटन हुआ है कि –
“इधर बदल गए हैं हमारे शहर
कहाँ अदृश्य हो रहे हैं आत्मा के वृक्ष
अब कोई आँधी नहीं आती
जो उड़ा दे भ्रम की चादर ।”
यहाँ कवि एक ही पंक्ति में गालिब से होते हुए कबीर तक का सफर तय कर लेता है। ‘भ्रम की चादर’ इस लिए नहीं उड़ रही कि –
“यह जादुई विज्ञापनों का समय है
विस्मरण का समय है
इस समय रिश्तों पर बात करना
प्रागैतिहासिक काल पर बात करने जैसा हो गया है ।”
शहर बदल रहा है, लोग बदल रहे हैं और इस बदलाव को देख कवि की आत्मा दुख रही है, पीड़ा रही है। लेकिन इसके बाद भी कवि यह निश्चय करता है कि –
“चाहे जितना पिराये कमर
चाहे जितनी सताये थकान
मैं लौटूँगा नहीं दिल्ली
जरूर जाऊँगा कलकत्ता ।”
यहाँ कमर का पिराना यात्रा की थकान नहीं है । कमर क्यों पीड़ा रहा है आप भी समझ रहे हैं ।
कवि अपनी एक दूसरी कविता ‘कलकते में सूरज’ में लिखता है –
“यह लो
यहाँ मिला
कलकते में
सूरज
सीना ताने
हम तो
कबसे
चाह रहे हैं
इसे देखना
दिल्ली के सिरहाने ।”
यह सूरज प्रकाश का, रोशनी का, आधुनिक विचार और वामपंथ का प्रतीक है । पर आज कलकत्ते के सूरज का सीना ढीला पड़ चुका है और उसकी कमर भी झुक गई है । शायद जितेन्द्र जी अपनी अगली यात्रा में यह जरूर लिखेंगे कि उनका सूरज डूब गया । कवि को जिस सूरज का इंतजार है वह राह भटक चुका है । कुहरा इतना घना होता जा रहा है कि सूरज को निकलने की दिशा नहीं मिल रही । ‘कोलकाता’ की गलियों में वह चक्कर काट रहा है ।
कवि एकांत श्रीवास्तव का भी कलकत्ता से गहरा लगाव है । वे लम्बे समय से कलकत्ता में रह रहे हैं, कलकत्ता को देख रहे हैं, कलकत्ता को जी रहे हैं । जी. टी. रोड यानी ‘ग्रांड ट्रंक रोड’ कलकत्ता की मुख्य पहचान है । इसे सोलहवीं शताब्दी में शेरशार सूरी ने बनवाया था । यह रोड कलकत्ता से पेशावर (पाकिस्तान) तक जाती है । लेकिन 1947 में देश के साथ-साथ इस अति पुरातन मार्ग का भी बंटवारा हुआ । कवि एकांत लिखते हैं –
“बीसवीं शताब्दी के सन् सैंतालीस में इसे बीच से काटकर
दो भागों में बाँट दिया गया
एक भाग जो रह गया एक देश में धड़ की तरह छटपटाता
मगर जिसका हृदय धड़कता रहा दूसरे भाग के लिए
दूसरा भाग जो चला गया दूसरे देश में
लगातार पुकारता रहा अपनी ही देह को ।”
विभाजन के दर्द को सबसे अधिक पंजाब एवं बंगाल ने झेला है । दोनों का आधा-आधा अंग कटकर पाकिस्तान में चला गया । एक भाई दूसरे भाई से बिछुड़ गया । उसे हृदय से लगाने के लिए तरस गया । विभाजन के समय कलकत्ता ने जिस दुख को झेला था और जिसका दर्द अभी भी कम नहीं हुआ है, जो समय-बेसमय उठ जाता है, उस दर्द को, पीड़ा को, अपनों से दूर होने की तड़प को यह कविता बखूबी व्यक्त करती है ।
कवि नील कमल “कलकत्ता शहर पर कुछ काव्य-चित्र” शीर्षक सीरीज की कविताओं में कलकत्ता, यहाँ की संस्कृति और जन-जीवन पर पच्चीस कविताएँ लिखी हैं । कलकत्ता शहर की खास पहचान है – “हड़ताल” । हड़ताल ही यहाँ का स्थायी ताल है । कवि कहता है –
“बंद-बंद-बंद
कहता है कोई
और अपनी साँसे रोककर
एक पैर पर खड़ा हो जाता है
पुरनिया शहर कलकत्ता ।”
कलकत्ता में हड़ताल और जुलूस ‘संयत क्रोध’ का ‘उत्कृष्ट प्रदर्शन’ है । ‘संयत क्रोध’ वाला यह जुलूस एम्बुलेन्स गाड़ी को भी रास्ता नहीं देता । उस वक्त के दृश्य को काव्य-चित्र देते हुए कवि लिखता है–
“कलकत्ता
इस वक्त
ऐसे घोड़े की तरह चलता है दुलकी चाल
जिसके पैरों में ठोकी जा चुकी है नाल
और जिन्हें पहनाई जा चुकी है नकेल ।”
कलकत्ता शहर को नाल और नकेल पहनाने वाले यहाँ के राजनीतिज्ञ लोग ही हैं, जो नहीं चाहते कि कलकत्ता समय के साथ चले । कवि नील कमल बहुत ही संयत-सरल भाषा में इतना गहरा व्यंग कर जाते हैं ।
कलकत्ता अपनी प्रतिरोधी एवं प्रतिवादी संस्कृति के लिए भी जाना जाता है । पर यह जरूरी नहीं, हर जगह यह प्रतिरोध सही ही हो । यहाँ जिसका जब जी चाहे जुलूस निकाल सकता है, हड़ताल कर सकता है, यह जानते हुए भी कि इससे आम आदमी को कितनी परेशानी उठानी पड़ती है । प्रतिदिन न जाने कितने लाख रुपयों का नुकसान होता है । इसी जुलूस और हड़ताल की वजह से आज बंगाल उद्योगधंधों के मामले में, विकास के मामले में सबसे अधिक पिछड़ा साबित हो रहा है । इसी संस्कृति के चलते एक-एक कर सभी कल-कारखाने बंद हो गए । पूँजीपति यहाँ निवेश नहीं करना चाहते । कवि कहता है –
“प्रतिवादों का शहर है कलकत्ता
बात-बेबात जो उठा लेता है
पत्थर, अपने हाथों में और
उछाल देता है उन्हें हर उस चीज कि तरफ
जिसमें दिखाता है उसे सरकार का चेहरा ।”
कवि नील कमल आपको भ्रम में न रखते हुए, इस सच्चाई की तरफ भी संकेत करते हैं कि इस प्रतिवादी शहर में आदमी-आदमी से नहीं लड़ता । यहाँ आदमी है भी नहीं । यदि यहाँ कुछ है तो वह है ‘रंग’ । ‘लाल और हरा रंग’ । यहाँ रंग लड़ते हैं । अपने नायकों की आवाज पर यहाँ की जनता रंगों में बट जाती है और अति पुरातन शहर कलकत्ता, आधुनिक विचारों का अग्रदूत शहर कलकत्ता, लहू-लुहान हो जाता है । शायद ऐसी ही स्थिति को देख निराला ने अपनी कविता ‘राजे ने अपनी रखवाली की’ लिखी होगी । जनता खून में डुबकी लगती है और राजा अपने महल में सुरक्षित खड़ा मुस्कुराता रहता है ।
कलकत्ता प्रवास के अनुभव से कवि विजय गौड़ ने भी कुछ कविताएँ लिखी हैं । इनकी एक छोटी-सी कविता है – ‘ललंग संस्कृति’ । कविता देखिए –
“बेशक हिंसक हुंकारों का स्वर अभी नहीं
पर आगे भी होगा नहीं, यह तो कहना मुश्किल है
कालीघाट, दक्षिणेश्वर केवल मठ नहीं
हैं सांस्कृतिक तीर्थ
बलि-रक्त तो नालियों में ही बहेगा
है कौन उजड्ड वह, उठा रहा सवाल
किसने दिया अधिकार
सड़क घेर कर बाँधे गए पूजा-पंडाल की
बाहर निकल रही बांह की सीमा तय करें
ललंग संस्कृति में दीक्षित पुलिस
अपना कर्म जानती है, धर्म भी ।”
इस छोटी-सी कविता में बहुत गहरी बात कही गई है । सबसे पहले आप यह जरूर जानना चाहेंगे यह ‘ललंग संस्कृति’ है क्या ? ‘ललंग’ यानी लाल रंग की संस्कृति । जब कोई चीज या प्रथा बहुत लम्बे समय से चली आ रही हो तो उसे संस्कृति ही कहा जाएगा । यहाँ ‘ललंग संस्कृति’ दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । ऊपर की चार पंक्तियों में बलि प्रथा का चित्रण किया गया है । सांस्कृतिक तीर्थ स्थलों पर दी जाने वाली बलियों का रक्त नाली में ही बहता है । कवि इस संस्कृति का विरोध करता है ।
अंतिम चार पंक्तियों में ‘ललंग संस्कृति का अर्थ कम्युनिस्ट पार्टी’ से है, जिसका रंग लाल है । कवि यहाँ सीधे-सीधे प्रश्न करता है कि इन्हें किसने सड़क घेरकर पूजा-पंडाल बनाने का अधिकार दिया । ये अपनी सीमा का अतिक्रमण कर रहे हैं । ‘बांह’ की सीमा यानी ‘लेफ्ट’ की सीमा । यहाँ की पुलिस भी इस ‘ललंग संस्कृति’ में दीक्षित हो चुकी है, रंग चुकी है । उनका कर्म और धर्म इस संस्कृति को बचाय-बनाए रखना है । संभवतः पहली बार कवि विजय गौड़ हिन्दी कविता को एक नया शब्द देते हैं ‘ललंग संस्कृति’ । शायाद हिन्दी कविता में यह पहली बार प्रयुक्त हुआ है ।
विजय गौड़ की, अभी के समय को खोलती हुई एक और महत्वपूर्ण कविता है – ‘बाप्पा क्लब’ । इस कविता में कवि इस सच्चाई को तार-तार कर देता है कि अनुदान के नाम पर यहाँ के क्लबों को सरकार की ओर से प्रतिवर्ष लाखों-करोड़ों रुपया दिया जाता है । आप सिर्फ कविता पढ़िए –
“प्रतिमा आएगी कुमारटुली से ही
चाहे लग जाएँ चार-छै हजार ज्यादा
बाप्पादा ने सुना दिया फरमान
कोई न कहे क्यों
क्लब को मिला है अनुदान
दिलवाया भी तो बापपादा ने ही
बापपादा को दीदी बहुत मानती है
पाड़ा भी मानता है बहुत
मत भूलें
अनुदान के दायरे में जो
चार हजार पाँच सौ क्लब आए
वो सारे के सारे
बाप्पा क्लब ही हैं ।”
आप सब यह बखूबी जानते हैं कि बंगाल में ‘दीदी’ किसे कहा जाता है । शायद अब और कुछ कहने की जरूरत नहीं ।
गंगा किनारे बसा हुआ कलकत्ता शहर अब बदल रहा है ।
कवयित्री निर्मला तोदी की कविता ‘198 बी. बी. गांगुली स्ट्रीट’ में इस बदलाव को देखा जा सकता है । वे लिखती हैं -
“मैं जानती हूँ
नहीं बनेगा अब कोई ‘आशियाना प्यारा’
कट जाएगा यह पेड़ कटहल का
नहीं बनेगा फिर कोई घोंसला प्यारा – न्यारा
अब सम्बन्धों के बदले
धंधों को जिएंगे लोग
घूमेंगे असली नहीं
नकली घोंसले के खरीददार ।”
बाजारवाद और पूंजीवाद के इस समय में कलकत्ता की पहचान बदल रही है । ठिकानों के साथ-साथ रिश्ते भी बदल रहे हैं । पुराने आशियानों की जगह मल्टीप्लेक्स बाजार खुल रहे हैं । पुराने सिनेमा घरों की जगह शॉपिंग मॉल खुल रहे हैं । आप यकीन मानिए आपका प्यारा पुराना शहर बदल रहा है । बदलाव के नाम पर इसकी पहचान को मिटाया जा रहा है । इसकी धड़कन धीरे-धीरे मंद पड़ती जा रही है ।
‘ट्राम’ और ‘हाथ रिक्शा’ कलकत्ते की मुख्य पहचान है । कवयित्री निर्मला तोदी ‘हाथ रिक्शा’ का चित्र खींचते हुए लिखती हैं –
“एक आदमी
हाथ रिक्शा खींच रहा है
हम तुरंत समझ जाते हैं
यह कोलकाता का चित्र है
क्या यह एक सही पहचान है
हमारे शहर की !”
इस कविता की अंतिम पंक्ति हमें सोचने के लिए बाध्य कर देती है । उनके प्रश्न में यह भी शामिल है कि यह हमारे शहर की पहचान तो है, पर यह सही पहचान नहीं है । एक आदमी, दूसरे आदमी को खींच रहा है । बैल की तरह आदमी का बोझ खींचते हुए कलकत्ता की तपती सड़कों पर नंगे पैर दौड़ रहा है । विकास के इस दौर में, जहाँ कलकत्ता को लंदन जैसा बनाने की बात की जा रही है, जहाँ भू-गर्भ रेल दौर रहा है, निश्चय की बड़े शर्म की बात है कि एक आदमी दूसरे आदमी को खींच रहा है । यह हमारे लिए गर्व की बात नहीं होनी चाहिए और न ही इससे हमारे शहर की पहचान होनी चाहिए।
युवा कवि निशांत की भी ‘हाथ रिक्शा’ पर एक सुंदर कविता है । कवि निशांत इस दृश्य को बिल्कुल नयी दृष्टि से देखते हैं । शायद पहली बार कवि निशांत ने हाथ रिक्शा के दृश्य को इस चित्र में उकेरा है । चित्र देखिए –
“मेरे घर में एक पोस्टर है
उसमें आदमी के कंधे पर लदा है आदमी
उसी के नीचे
उस आदमी को काँटों के खंभे से बांधकर यमराज
बरसाता है कोड़े
इसी डर को दिखलाकर पिताजी ने
कभी नहीं बिठाया हाथ रिक्शे पर ।”
कवि निशांत ने मेट्रो रेल, विक्टोरिया मेमोरियल, तथा जूट मिल के मजदूरों की दशा पर भी कविताएँ लिखी हैं। निशांत को कलकत्ता एक जादुई नागरी लगती है । उनकी कविता का शीर्षक ही है– “कलकत्ता एक जादुई नागरी है” । इस कविता की पहली ही पंक्ति लोक में प्रचलित इस धारणा से है कि ‘कलकत्ता की औरतें जादू जानती हैं’ । इस कथन के पीछे का कारण यह था कि बिहार से रोजी-रोटी की खोज में आए हुए युवक कभी-कभी बिहार लौटकर वापस नहीं जाते थे । उनकी औरतों को लगता कि बंगाल की औरतें जादू जानती हैं, वे जादू से इनके पति को अपने वश में, अपने प्रेम जाल में फंसा ली हैं। वे सारी उम्र उनके इंतजार में राह ताकती रहती थीं। कुछ समय कलकत्ता में रहने के पश्चात कवि निशांत को लगता है–
“सिर्फ कलकत्ता की औरतें ही जादू नहीं जानतीं
यहाँ की सरकार भी जादू जानती है
सरकार की पुलिस
और सरकार के कर्मचारी भी जादू जानते हैं
जूट मिलों के मालिक जादू जानते हैं
बुद्धिजीवी शिक्षक जादू जानते हैं
और तो और मजदूरों के छोटे-छोटे बच्चे तक जादू जानते हैं
कोलकाता में चारों तरफ ही जादू है ।”
इन सबका जादू देखने के पश्चात कवि को कलकत्ता एक जादुई नगरी लगती है । जो अपने जादू में फाँसकर एक पढे-लिखे युवक को मजदूरी करने पर विवश कर देती है ।
एक नव युवा कवि हैं – मिथिलेश कुमार राय, “धन्यवाद दिल्ली और क्षमा करना कलकत्ता” शीर्षक से उनकी एक बेहतरीन लम्बी कविता है । आधी कविता दिल्ली पर है और आधी कलकत्ता पर । हम यहाँ सिर्फ कलकत्ता वाले अंश पर ही आत करेंगे । लोक की धारणा ‘कलकत्ता की औरते जादू जानती हैं’ इस अधूरे सत्य को जानने के बाद कवि पूरे मन से कलकत्ता से क्षमा मांगता है । कवि क्षमा मांगते हुए कहता है –
“क्षमा करना कलकत्ता
वे स्त्रियाँ जो अब सितारों में तब्दील हो चुकी हैं
नहीं जानती थीं
कि उनके वे जो कलकत्ते की ओर गए थे
असल में कलकत्ते नहीं गए थे
वे तो सूरीनाम, त्रिनिदाद, मारिशस, फिजी, ग्याना पहुंचा दिये गए थे
और वहाँ से
अपनी आँखों में इन्हीं का चेहरा लिए
बाहर निकलने के रास्ता ढूंढ रहे थे ।”
इस सच्चाई को जानने के बाद कवि अपने पूर्वजों की ओर से बंगाल की सुंदरियों से क्षमा मांगता है । कवि को इस बात का बेहद दुख है कि पूरी सच्चाई को जाने बिना कलकत्ता को दोषी ठहराया गया । पर, यह भी सच है कि सत्य को जानने का उनके पास कोई साधन नहीं था, क्योंकि बिचौलिए उनके घरवाले से यही कहते थे कि वे कलकत्ता में किसी स्त्री के जाल में फंस गए है या वहाँ की स्त्री ने उसपर जादू करके उन्हें भेड़ या सुग्गा बना दी है । उनकी स्त्रियों को क्या पता कि उनके पतियों को रोटी के नाम पर मारिशस, फिजी, सूरीनाम और न जाने कहाँ-कहाँ पहुँचा दिया गया है ।
कविता के अंत में कवि बिहारी मजदूरों और उनकी औरतों के दुख को काव्य-चित्र देता हुआ लिखता है –
“असल में उन्हें सत्य का पता नहीं था
झूठ का भी पता नहीं था
उन्हें सिर्फ भूख का पता था
रोटी का पता नहीं था
और बिचौलियों ने रोटी का पता
कलकत्ता बतलाया था
और कलकत्ता ले जाकर
चमकती हुई रोटी कहीं और दिखाई थी
और कलकत्ता तुम्हें तो पता है
कि भूख से बेहाल आदमियों का दिमाग
सिर्फ रोटी सोचता है
भूख से व्याकुल आदमियों की आँखें
सिर्फ रोटी देखती है
और भूख से सुन्न आदमियों के पैर
सिर्फ रोटी के पीछे दौड़ते हैं
इसलिए वे दौड़ गए वहाँ
जहां से उनके
और उनके बीच के रास्ते
जिस पर चलकर वे
या उनका कोई समाचार वहाँ से चलकर आता
समुंदर में ढक गए थे
और कलकत्ता
तुम्हें तो पता ही होगा इस बात का
कि भूखे आदमियों की विरहणियाँ
अपना दिमागी संतुलन खो बैठती हैं
और अक्कड़-बक्कड़ बोलती रहती हैं
तो हमें माफ कर दो कलकत्ता
अपने पूर्वजों की ओर से
मैं तुमसे क्षमा मांगता हूँ ।”
इस कविता के माध्यम से एक नव युवा कवि अपने सभी पूर्वजों की ओर से, बंगाल की सुंदरियों से क्षमा मांगता है, जिन्हें अकारण शाप दिया गया, उनपर आग बरसाई गई । कवि सिर्फ क्षमा ही नहीं मांगता बल्कि अपने पूर्वजों की सारी स्थिति का चित्रण भी करता है । कवि कलकत्ता से क्षमा मांग कर अपने सभी पूर्वजों को पाप और दोष मुक्त करवाता है । इससे पहले हिन्दी कविता में यह काम किसी ने भी जरूरी नहीं समझा था ।
प्रेम के बिना कलकत्ता पर यह आलेख अधूरा ही समझा जाएगा । कलकत्ता और प्रेम का घनिष्ठ संबंध है । यहाँ प्रेम छुपाने की वस्तु नहीं है । शायद इसीलिए कलकत्ता की सड़कों और पार्कों में अक्सर युगल प्रेमी दिख जाते हैं । कलकत्ता के इस प्रेमी दृश्य पर कवि राज्यवर्द्धन की एक कविता है– “हिलोर हुगली की” । इन प्रेमी जोड़ों को देख कवि की आत्मा जुड़ा जाती है । उसे अद्भुत संतुष्टि प्राप्त होती है । वह लिखता है–
“बहुत अच्छे लगते हैं
प्रेम करते लोग
उपवन में खिले फूल से
जगाती है-
मन में अहसास
कि धरती अब सुरक्शित रहेगी
अन हाथों में
...और उठने लगती है
मन में
हिलौर
हुगली की ।”
यह कलकत्ता की अपनी खास पहचान है ।
इस प्रेमी संस्कृति की वजह से ही आज भी कलकत्ता की बसों में स्त्री और बुजुर्ग को खड़ा देखकर युवक अपनी सीट छोड़ देते हैं । कवि राज्यवर्द्धन के शब्दों में कहूँ तो कवि केदारनाथ सिंह कलकत्ता की इस संस्कृति का बखान करते नहीं थकते हैं । वे बताते हैं –
“कि कैसे ट्राम लाइन पर
घायल गौरैये को बचाने के लिए
एक दिन रुक गई थी ट्राम
और हो गया था ट्रैफिक जाम
कि थम गया था
थोड़ी देर के लिए
शहर कोलकाता
बचाने को घायल गौरैये की जान ।”
कलकत्ता कवि केदारनाथ सिंह का दूसरा घर है । उन्हें इस घर से बेहद लगाव एवं प्रेम है ।
इसी प्रेम की वजह से कवि विमलेश त्रिपाठी को कलकत्ता उम्मीद का शहर लगता है । कवि का मानना है कि ‘इसके सीने में आज भी / एक बूढ़ा गाँव हाँफता है’ और इस बात का प्रमाण कवि स्वयं है । उसका बचा रहना ही इस बात का प्रमाण है । कवि को लगता है कि पूरी दुनिया बदल जाएगी पर यह शहर, यहाँ की हवा, यहाँ की संस्कृति, यहाँ की परंपरा नहीं बदलेगी । न तो यहाँ का बाउल गीत बदलेगा और न ही रवीद्र-संगीत । कवि के ही शब्दों में–
“यहाँ की बांग्ला मिट्टी न बदलेगी
जन्मते रहेंगे लालन फकीर
दिन-दिन वह
और उर्वर होती जाएगी ।”
लाख स्थिति खराब हो कवि उम्मीद का दामन नहीं छोड़ता । निराश या हताश नहीं होता । उसे बांग्ला माटी पर भरपूर विश्वास है ।
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मृत्युंजय पाण्डेय, असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, सुरेन्द्रनाथ कॉलेज (कलकत्ता विश्वविद्यालय)
संपर्क : 25/1/1, फकीर बगान लेन, पिलखाना, हावड़ा – 711101 (पश्चिम बंगाल)
मोबाइल : 9681510596, ईमेल आईडी : pmrityunjayasaha@gmail.com
प्रकाशित पुस्तकें : (1) कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव (2) कहानी से संवाद (3) कहानी का अलक्षित प्रदेश
(सभी आलोचनात्मक पुस्तकें)
मृत्युंजय पाण्डेय
कलकत्ते का जो जिक्र किया तूने हमनशीं
इक तीर मेरे सीने में मारा के हाए हाए
- मिर्जा गालिब
मिर्जा गालिब
कलकत्ते का जिक्र आए और गालिब याद न आएँ भला ऐसा हो सकता है ! हिन्दी साहित्य में कलकत्ता का नाम लेते ही जेहन में जो सबसे पहला नाम कौंधता है, वह गालिब का है । यह कौंध इस बात का प्रमाण है कि गालिब उर्दू या फारसी के होते हुए भी सिर्फ इनके अकेले के नहीं हैं, वे जितना उर्दू या फारसी के हैं उतना ही हिन्दी के भी हैं । गालिब को कलकत्ता से बेहद लगाव था । वे अपने जेहन में आधुनिकता यही से लेकर लौटे थे । गालिब और कलकत्ता पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, इसलिए हम यहाँ गालिब पर नहीं बल्कि अन्य कवियों की कविताओं पर बातचीत करेंगे ।
'हिन्दी कविता में कलकत्ता' दो तरह से है । पहला, हिन्दी में कलकत्ता शहर के कौन-कौन कवि कविताएँ लिख रहे हैं । दूसरा, हिन्दी के किन-किन कवियों ने कलकत्ता शहर, उस की संस्कृति, परंपरा और राजनीतिक परिदृश्य को केंद्र में रखकर कविताएँ लिखी हैं । इस लेख का सम्बन्ध दूसरे से है, यानी हिन्दी के जिन-जिन कविताओं में कलकत्ता शहर, उसकी संस्कृति, परंपरा और राजनीतिक परिदृश्य को दिखाया गया है, उसी को आधार बनाकर यह लेख लिखा गया है ।
नागार्जुन |
'हिन्दी कविता में कलकत्ता' पर बात करते ही सबसे पहले नागार्जुन और उनकी कविता 'घिन तो नहीं आती है?' याद आती है । यह कविता 1961 की है । कविता की कुछ पंक्तियाँ देखिए –
“पूरी स्पीड में है ट्राम
खाती है दचके पै दचका
सटता है बदन से बदन-
पसीने से लथपथ ।
छूती है निगाहों को
कत्थई दाँतों की मोटी मुस्कान
बेतरतीब मूँछों की थिरकन
सच-सच बतलाओ
घिन तो नही आती है?
जी तो नहीं कुढ़ता है ?”
कवि नागार्जुन ‘ट्राम’ के बहाने कलकत्ता में बिहारी मजदूरों की स्थिति का चित्रण किए हैं ।
कलकत्ता में ही सबसे पहले नवजागरण की शुरुआत हुई । उद्योगधंधों की स्थापना हुई । कल-कारखाने लगे । इन कल-कारखानों में मजदूरी करने के लिए हजारों-हजारों की संख्या में बिहारी मजदूर कलकत्ता आए । जूट मिल, रेलवे स्टेशन और बड़ा बाजार में ये खप गए । रोजी-रोटी की खोज में यह अपने देस, गाँव एवं मिट्टी से दूर हो गए थे । ये आज भी ‘सपने में भी सुनते हैं अपनी धरती की धड़कन’ । पर आज स्थिति बदल गई है । आज बिहार या उत्तर प्रदेश से बहुत ही कम संख्या में मजदूर कलकत्ता आ रहे हैं । वजह है, कल-कारखानों का बंद होना । रोजगार की कमी । आज इसी रोजगार की कमी की वजह से, सिर्फ बिहार या उत्तर प्रदेश के ही नहीं बल्कि पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद, खड़गपुर और मिदिनापुर आदि शहरों से भी लोग, बड़ी संख्या में, रोजगार की तलाश में दिल्ली की ओर जा रहे हैं । आज के बंगाल का यह सच है ।
‘घिन तो नहीं आती हैं ?’ कविता में नागार्जुन यह दिखाते हैं कि अपने में मस्त रहने वाले इन बिहारी मजदूरों की मुस्कान, उनकी दिल खोल बतकही, अपने देस-गाँव की बातें अपनी बोली (भोजपुरी) में, कलकत्ता के सभ्य (सफेद धुले कपड़े वाले) लोगों को अखरती थी, उनके बदन की छुअन इन सभ्य लोगों को नागवार लगती थी, उनका जी कुढ़ता था, उन्हें घिन आती थी । इसी नागवारपन, अखराहट, कुढ़ते जी और घिन की वजह से आज कलकत्ता से पसीने की संस्कृति यानी मेहनत की संस्कृति खत्म हो चली है । इसी भेद-भाव एवं छोटे मन की वजह से कलकत्ता के सारे कल-कारखाने बंद हो गए । एक साजिश के तहत बिहारी मजदूरों को यहाँ से हटाने के लिए बंद एवं हड़ताल का सहारा लिया गया । कलकत्ता ने बिहारियों को यहाँ से भगाने के लिए जिस संस्कृति का सूत्रपात किया, आज वह उसी की सजा भुगत रहा है । मजदूरों की छोड़िए आज कलकत्ता में मध्यवर्ग के लिए भी रोजगार नहीं है ।
राजेश्वर वशिष्ठ |
प्रवासी बिहारी मजदूरों के ऊपर कवि राजेश्वर वसिष्ठ ने भी एक कविता लिखी है । वे इन्हें ‘कोलकाता के राजा’ कहते हैं । उनका कहना है कलकत्ता की सड़कों पर रहने वाले ये बिहारी जोंक की तरह नहीं छोड़ते इस शहर का दामन । यहाँ की सरकार हर चुनाव में इनसे वायदा करती है, लेकिन चुनाव जीतने के बाद ये फिर से इन सरकारों को लिए सिर्फ बिहारी ही बनकर रह जाते हैं –
“ये हर बार देते हैं वोट जीतने वाली पार्टी को
होते हैं वादे इन्हें कायदे से बसाने के
जिंदगी की जरूरतों को पूरा करने के
पर चुनाव के बाद
ये फिर से बना दिए जाते हैं बिहारी ।”
इसके बावजूद भी ये घबराते नहीं हैं –
“भरपूर बेशर्मी के साथ करते रहते हैं
ईमानदारी से मेहनत मजदूरी
आँखों में जिंदगी के स्वप्न लिए ।”
कवि ज़ोर देकर कहता है कि इन मेहनतकशों की वजह से ही, इनके पसीने से ही इस शहर की पहचान है । इस शहर में “इनकी मेहनत और हावड़ा ब्रिज का / कोई विकल्प नहीं” है ।
जितेन्द्र श्रीवास्तव |
हमारे समय के, समकालीन हिन्दी कविता के महत्वपूर्ण कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव को भी कलकत्ता अपनी ओर खींचता है । ‘जरूर जाऊँगा कलकत्ता’ शीर्षक कविता पर कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव को ‘भारत भूषण अग्रवाल’ पुरस्कार मिला है। गालिब की प्रसिद्ध कलकत्ता यात्रा को केंद्र में रखकर यह कविता लिखी गई है । इस ऐतिहासिक कविता में यह ध्वनित होता है कि अंग्रेजों का उपनिवेश होने के बाद भी सबसे पहले नवजागरण की शुरुआत यहीं हुई थी। ‘हिन्दी कविता के मस्तक’ और ‘रेख्ते का उस्ताद’ मिर्ज़ा गालिब पहली बार यहीं से अपने ज़ेहन में आधुनिकता लेकर लौटे थे। एक कवि-शायर ‘ईमान, कुफ्र, धर्म, विधर्म’ नहीं बल्कि एक नयी रोशनी की खोज करता है। इस नयी रोशनी की खोज में गालिब भी कलकत्ता आए थे और कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव भी आते हैं । इस कविता में इस सत्य का भी उद्घाटन हुआ है कि –
“इधर बदल गए हैं हमारे शहर
कहाँ अदृश्य हो रहे हैं आत्मा के वृक्ष
अब कोई आँधी नहीं आती
जो उड़ा दे भ्रम की चादर ।”
यहाँ कवि एक ही पंक्ति में गालिब से होते हुए कबीर तक का सफर तय कर लेता है। ‘भ्रम की चादर’ इस लिए नहीं उड़ रही कि –
“यह जादुई विज्ञापनों का समय है
विस्मरण का समय है
इस समय रिश्तों पर बात करना
प्रागैतिहासिक काल पर बात करने जैसा हो गया है ।”
शहर बदल रहा है, लोग बदल रहे हैं और इस बदलाव को देख कवि की आत्मा दुख रही है, पीड़ा रही है। लेकिन इसके बाद भी कवि यह निश्चय करता है कि –
“चाहे जितना पिराये कमर
चाहे जितनी सताये थकान
मैं लौटूँगा नहीं दिल्ली
जरूर जाऊँगा कलकत्ता ।”
यहाँ कमर का पिराना यात्रा की थकान नहीं है । कमर क्यों पीड़ा रहा है आप भी समझ रहे हैं ।
कवि अपनी एक दूसरी कविता ‘कलकते में सूरज’ में लिखता है –
“यह लो
यहाँ मिला
कलकते में
सूरज
सीना ताने
हम तो
कबसे
चाह रहे हैं
इसे देखना
दिल्ली के सिरहाने ।”
यह सूरज प्रकाश का, रोशनी का, आधुनिक विचार और वामपंथ का प्रतीक है । पर आज कलकत्ते के सूरज का सीना ढीला पड़ चुका है और उसकी कमर भी झुक गई है । शायद जितेन्द्र जी अपनी अगली यात्रा में यह जरूर लिखेंगे कि उनका सूरज डूब गया । कवि को जिस सूरज का इंतजार है वह राह भटक चुका है । कुहरा इतना घना होता जा रहा है कि सूरज को निकलने की दिशा नहीं मिल रही । ‘कोलकाता’ की गलियों में वह चक्कर काट रहा है ।
एकांत श्रीवास्तव |
कवि एकांत श्रीवास्तव का भी कलकत्ता से गहरा लगाव है । वे लम्बे समय से कलकत्ता में रह रहे हैं, कलकत्ता को देख रहे हैं, कलकत्ता को जी रहे हैं । जी. टी. रोड यानी ‘ग्रांड ट्रंक रोड’ कलकत्ता की मुख्य पहचान है । इसे सोलहवीं शताब्दी में शेरशार सूरी ने बनवाया था । यह रोड कलकत्ता से पेशावर (पाकिस्तान) तक जाती है । लेकिन 1947 में देश के साथ-साथ इस अति पुरातन मार्ग का भी बंटवारा हुआ । कवि एकांत लिखते हैं –
“बीसवीं शताब्दी के सन् सैंतालीस में इसे बीच से काटकर
दो भागों में बाँट दिया गया
एक भाग जो रह गया एक देश में धड़ की तरह छटपटाता
मगर जिसका हृदय धड़कता रहा दूसरे भाग के लिए
दूसरा भाग जो चला गया दूसरे देश में
लगातार पुकारता रहा अपनी ही देह को ।”
विभाजन के दर्द को सबसे अधिक पंजाब एवं बंगाल ने झेला है । दोनों का आधा-आधा अंग कटकर पाकिस्तान में चला गया । एक भाई दूसरे भाई से बिछुड़ गया । उसे हृदय से लगाने के लिए तरस गया । विभाजन के समय कलकत्ता ने जिस दुख को झेला था और जिसका दर्द अभी भी कम नहीं हुआ है, जो समय-बेसमय उठ जाता है, उस दर्द को, पीड़ा को, अपनों से दूर होने की तड़प को यह कविता बखूबी व्यक्त करती है ।
नील कमल |
कवि नील कमल “कलकत्ता शहर पर कुछ काव्य-चित्र” शीर्षक सीरीज की कविताओं में कलकत्ता, यहाँ की संस्कृति और जन-जीवन पर पच्चीस कविताएँ लिखी हैं । कलकत्ता शहर की खास पहचान है – “हड़ताल” । हड़ताल ही यहाँ का स्थायी ताल है । कवि कहता है –
“बंद-बंद-बंद
कहता है कोई
और अपनी साँसे रोककर
एक पैर पर खड़ा हो जाता है
पुरनिया शहर कलकत्ता ।”
कलकत्ता में हड़ताल और जुलूस ‘संयत क्रोध’ का ‘उत्कृष्ट प्रदर्शन’ है । ‘संयत क्रोध’ वाला यह जुलूस एम्बुलेन्स गाड़ी को भी रास्ता नहीं देता । उस वक्त के दृश्य को काव्य-चित्र देते हुए कवि लिखता है–
“कलकत्ता
इस वक्त
ऐसे घोड़े की तरह चलता है दुलकी चाल
जिसके पैरों में ठोकी जा चुकी है नाल
और जिन्हें पहनाई जा चुकी है नकेल ।”
कलकत्ता शहर को नाल और नकेल पहनाने वाले यहाँ के राजनीतिज्ञ लोग ही हैं, जो नहीं चाहते कि कलकत्ता समय के साथ चले । कवि नील कमल बहुत ही संयत-सरल भाषा में इतना गहरा व्यंग कर जाते हैं ।
कलकत्ता अपनी प्रतिरोधी एवं प्रतिवादी संस्कृति के लिए भी जाना जाता है । पर यह जरूरी नहीं, हर जगह यह प्रतिरोध सही ही हो । यहाँ जिसका जब जी चाहे जुलूस निकाल सकता है, हड़ताल कर सकता है, यह जानते हुए भी कि इससे आम आदमी को कितनी परेशानी उठानी पड़ती है । प्रतिदिन न जाने कितने लाख रुपयों का नुकसान होता है । इसी जुलूस और हड़ताल की वजह से आज बंगाल उद्योगधंधों के मामले में, विकास के मामले में सबसे अधिक पिछड़ा साबित हो रहा है । इसी संस्कृति के चलते एक-एक कर सभी कल-कारखाने बंद हो गए । पूँजीपति यहाँ निवेश नहीं करना चाहते । कवि कहता है –
“प्रतिवादों का शहर है कलकत्ता
बात-बेबात जो उठा लेता है
पत्थर, अपने हाथों में और
उछाल देता है उन्हें हर उस चीज कि तरफ
जिसमें दिखाता है उसे सरकार का चेहरा ।”
कवि नील कमल आपको भ्रम में न रखते हुए, इस सच्चाई की तरफ भी संकेत करते हैं कि इस प्रतिवादी शहर में आदमी-आदमी से नहीं लड़ता । यहाँ आदमी है भी नहीं । यदि यहाँ कुछ है तो वह है ‘रंग’ । ‘लाल और हरा रंग’ । यहाँ रंग लड़ते हैं । अपने नायकों की आवाज पर यहाँ की जनता रंगों में बट जाती है और अति पुरातन शहर कलकत्ता, आधुनिक विचारों का अग्रदूत शहर कलकत्ता, लहू-लुहान हो जाता है । शायद ऐसी ही स्थिति को देख निराला ने अपनी कविता ‘राजे ने अपनी रखवाली की’ लिखी होगी । जनता खून में डुबकी लगती है और राजा अपने महल में सुरक्षित खड़ा मुस्कुराता रहता है ।
विजय गौड़ |
कलकत्ता प्रवास के अनुभव से कवि विजय गौड़ ने भी कुछ कविताएँ लिखी हैं । इनकी एक छोटी-सी कविता है – ‘ललंग संस्कृति’ । कविता देखिए –
“बेशक हिंसक हुंकारों का स्वर अभी नहीं
पर आगे भी होगा नहीं, यह तो कहना मुश्किल है
कालीघाट, दक्षिणेश्वर केवल मठ नहीं
हैं सांस्कृतिक तीर्थ
बलि-रक्त तो नालियों में ही बहेगा
है कौन उजड्ड वह, उठा रहा सवाल
किसने दिया अधिकार
सड़क घेर कर बाँधे गए पूजा-पंडाल की
बाहर निकल रही बांह की सीमा तय करें
ललंग संस्कृति में दीक्षित पुलिस
अपना कर्म जानती है, धर्म भी ।”
इस छोटी-सी कविता में बहुत गहरी बात कही गई है । सबसे पहले आप यह जरूर जानना चाहेंगे यह ‘ललंग संस्कृति’ है क्या ? ‘ललंग’ यानी लाल रंग की संस्कृति । जब कोई चीज या प्रथा बहुत लम्बे समय से चली आ रही हो तो उसे संस्कृति ही कहा जाएगा । यहाँ ‘ललंग संस्कृति’ दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । ऊपर की चार पंक्तियों में बलि प्रथा का चित्रण किया गया है । सांस्कृतिक तीर्थ स्थलों पर दी जाने वाली बलियों का रक्त नाली में ही बहता है । कवि इस संस्कृति का विरोध करता है ।
अंतिम चार पंक्तियों में ‘ललंग संस्कृति का अर्थ कम्युनिस्ट पार्टी’ से है, जिसका रंग लाल है । कवि यहाँ सीधे-सीधे प्रश्न करता है कि इन्हें किसने सड़क घेरकर पूजा-पंडाल बनाने का अधिकार दिया । ये अपनी सीमा का अतिक्रमण कर रहे हैं । ‘बांह’ की सीमा यानी ‘लेफ्ट’ की सीमा । यहाँ की पुलिस भी इस ‘ललंग संस्कृति’ में दीक्षित हो चुकी है, रंग चुकी है । उनका कर्म और धर्म इस संस्कृति को बचाय-बनाए रखना है । संभवतः पहली बार कवि विजय गौड़ हिन्दी कविता को एक नया शब्द देते हैं ‘ललंग संस्कृति’ । शायाद हिन्दी कविता में यह पहली बार प्रयुक्त हुआ है ।
विजय गौड़ की, अभी के समय को खोलती हुई एक और महत्वपूर्ण कविता है – ‘बाप्पा क्लब’ । इस कविता में कवि इस सच्चाई को तार-तार कर देता है कि अनुदान के नाम पर यहाँ के क्लबों को सरकार की ओर से प्रतिवर्ष लाखों-करोड़ों रुपया दिया जाता है । आप सिर्फ कविता पढ़िए –
“प्रतिमा आएगी कुमारटुली से ही
चाहे लग जाएँ चार-छै हजार ज्यादा
बाप्पादा ने सुना दिया फरमान
कोई न कहे क्यों
क्लब को मिला है अनुदान
दिलवाया भी तो बापपादा ने ही
बापपादा को दीदी बहुत मानती है
पाड़ा भी मानता है बहुत
मत भूलें
अनुदान के दायरे में जो
चार हजार पाँच सौ क्लब आए
वो सारे के सारे
बाप्पा क्लब ही हैं ।”
आप सब यह बखूबी जानते हैं कि बंगाल में ‘दीदी’ किसे कहा जाता है । शायद अब और कुछ कहने की जरूरत नहीं ।
गंगा किनारे बसा हुआ कलकत्ता शहर अब बदल रहा है ।
निर्मला तोदी |
कवयित्री निर्मला तोदी की कविता ‘198 बी. बी. गांगुली स्ट्रीट’ में इस बदलाव को देखा जा सकता है । वे लिखती हैं -
“मैं जानती हूँ
नहीं बनेगा अब कोई ‘आशियाना प्यारा’
कट जाएगा यह पेड़ कटहल का
नहीं बनेगा फिर कोई घोंसला प्यारा – न्यारा
अब सम्बन्धों के बदले
धंधों को जिएंगे लोग
घूमेंगे असली नहीं
नकली घोंसले के खरीददार ।”
बाजारवाद और पूंजीवाद के इस समय में कलकत्ता की पहचान बदल रही है । ठिकानों के साथ-साथ रिश्ते भी बदल रहे हैं । पुराने आशियानों की जगह मल्टीप्लेक्स बाजार खुल रहे हैं । पुराने सिनेमा घरों की जगह शॉपिंग मॉल खुल रहे हैं । आप यकीन मानिए आपका प्यारा पुराना शहर बदल रहा है । बदलाव के नाम पर इसकी पहचान को मिटाया जा रहा है । इसकी धड़कन धीरे-धीरे मंद पड़ती जा रही है ।
‘ट्राम’ और ‘हाथ रिक्शा’ कलकत्ते की मुख्य पहचान है । कवयित्री निर्मला तोदी ‘हाथ रिक्शा’ का चित्र खींचते हुए लिखती हैं –
“एक आदमी
हाथ रिक्शा खींच रहा है
हम तुरंत समझ जाते हैं
यह कोलकाता का चित्र है
क्या यह एक सही पहचान है
हमारे शहर की !”
इस कविता की अंतिम पंक्ति हमें सोचने के लिए बाध्य कर देती है । उनके प्रश्न में यह भी शामिल है कि यह हमारे शहर की पहचान तो है, पर यह सही पहचान नहीं है । एक आदमी, दूसरे आदमी को खींच रहा है । बैल की तरह आदमी का बोझ खींचते हुए कलकत्ता की तपती सड़कों पर नंगे पैर दौड़ रहा है । विकास के इस दौर में, जहाँ कलकत्ता को लंदन जैसा बनाने की बात की जा रही है, जहाँ भू-गर्भ रेल दौर रहा है, निश्चय की बड़े शर्म की बात है कि एक आदमी दूसरे आदमी को खींच रहा है । यह हमारे लिए गर्व की बात नहीं होनी चाहिए और न ही इससे हमारे शहर की पहचान होनी चाहिए।
निशांत |
युवा कवि निशांत की भी ‘हाथ रिक्शा’ पर एक सुंदर कविता है । कवि निशांत इस दृश्य को बिल्कुल नयी दृष्टि से देखते हैं । शायद पहली बार कवि निशांत ने हाथ रिक्शा के दृश्य को इस चित्र में उकेरा है । चित्र देखिए –
“मेरे घर में एक पोस्टर है
उसमें आदमी के कंधे पर लदा है आदमी
उसी के नीचे
उस आदमी को काँटों के खंभे से बांधकर यमराज
बरसाता है कोड़े
इसी डर को दिखलाकर पिताजी ने
कभी नहीं बिठाया हाथ रिक्शे पर ।”
कवि निशांत ने मेट्रो रेल, विक्टोरिया मेमोरियल, तथा जूट मिल के मजदूरों की दशा पर भी कविताएँ लिखी हैं। निशांत को कलकत्ता एक जादुई नागरी लगती है । उनकी कविता का शीर्षक ही है– “कलकत्ता एक जादुई नागरी है” । इस कविता की पहली ही पंक्ति लोक में प्रचलित इस धारणा से है कि ‘कलकत्ता की औरतें जादू जानती हैं’ । इस कथन के पीछे का कारण यह था कि बिहार से रोजी-रोटी की खोज में आए हुए युवक कभी-कभी बिहार लौटकर वापस नहीं जाते थे । उनकी औरतों को लगता कि बंगाल की औरतें जादू जानती हैं, वे जादू से इनके पति को अपने वश में, अपने प्रेम जाल में फंसा ली हैं। वे सारी उम्र उनके इंतजार में राह ताकती रहती थीं। कुछ समय कलकत्ता में रहने के पश्चात कवि निशांत को लगता है–
“सिर्फ कलकत्ता की औरतें ही जादू नहीं जानतीं
यहाँ की सरकार भी जादू जानती है
सरकार की पुलिस
और सरकार के कर्मचारी भी जादू जानते हैं
जूट मिलों के मालिक जादू जानते हैं
बुद्धिजीवी शिक्षक जादू जानते हैं
और तो और मजदूरों के छोटे-छोटे बच्चे तक जादू जानते हैं
कोलकाता में चारों तरफ ही जादू है ।”
इन सबका जादू देखने के पश्चात कवि को कलकत्ता एक जादुई नगरी लगती है । जो अपने जादू में फाँसकर एक पढे-लिखे युवक को मजदूरी करने पर विवश कर देती है ।
मिथिलेश कुमार राय |
एक नव युवा कवि हैं – मिथिलेश कुमार राय, “धन्यवाद दिल्ली और क्षमा करना कलकत्ता” शीर्षक से उनकी एक बेहतरीन लम्बी कविता है । आधी कविता दिल्ली पर है और आधी कलकत्ता पर । हम यहाँ सिर्फ कलकत्ता वाले अंश पर ही आत करेंगे । लोक की धारणा ‘कलकत्ता की औरते जादू जानती हैं’ इस अधूरे सत्य को जानने के बाद कवि पूरे मन से कलकत्ता से क्षमा मांगता है । कवि क्षमा मांगते हुए कहता है –
“क्षमा करना कलकत्ता
वे स्त्रियाँ जो अब सितारों में तब्दील हो चुकी हैं
नहीं जानती थीं
कि उनके वे जो कलकत्ते की ओर गए थे
असल में कलकत्ते नहीं गए थे
वे तो सूरीनाम, त्रिनिदाद, मारिशस, फिजी, ग्याना पहुंचा दिये गए थे
और वहाँ से
अपनी आँखों में इन्हीं का चेहरा लिए
बाहर निकलने के रास्ता ढूंढ रहे थे ।”
इस सच्चाई को जानने के बाद कवि अपने पूर्वजों की ओर से बंगाल की सुंदरियों से क्षमा मांगता है । कवि को इस बात का बेहद दुख है कि पूरी सच्चाई को जाने बिना कलकत्ता को दोषी ठहराया गया । पर, यह भी सच है कि सत्य को जानने का उनके पास कोई साधन नहीं था, क्योंकि बिचौलिए उनके घरवाले से यही कहते थे कि वे कलकत्ता में किसी स्त्री के जाल में फंस गए है या वहाँ की स्त्री ने उसपर जादू करके उन्हें भेड़ या सुग्गा बना दी है । उनकी स्त्रियों को क्या पता कि उनके पतियों को रोटी के नाम पर मारिशस, फिजी, सूरीनाम और न जाने कहाँ-कहाँ पहुँचा दिया गया है ।
कविता के अंत में कवि बिहारी मजदूरों और उनकी औरतों के दुख को काव्य-चित्र देता हुआ लिखता है –
“असल में उन्हें सत्य का पता नहीं था
झूठ का भी पता नहीं था
उन्हें सिर्फ भूख का पता था
रोटी का पता नहीं था
और बिचौलियों ने रोटी का पता
कलकत्ता बतलाया था
और कलकत्ता ले जाकर
चमकती हुई रोटी कहीं और दिखाई थी
और कलकत्ता तुम्हें तो पता है
कि भूख से बेहाल आदमियों का दिमाग
सिर्फ रोटी सोचता है
भूख से व्याकुल आदमियों की आँखें
सिर्फ रोटी देखती है
और भूख से सुन्न आदमियों के पैर
सिर्फ रोटी के पीछे दौड़ते हैं
इसलिए वे दौड़ गए वहाँ
जहां से उनके
और उनके बीच के रास्ते
जिस पर चलकर वे
या उनका कोई समाचार वहाँ से चलकर आता
समुंदर में ढक गए थे
और कलकत्ता
तुम्हें तो पता ही होगा इस बात का
कि भूखे आदमियों की विरहणियाँ
अपना दिमागी संतुलन खो बैठती हैं
और अक्कड़-बक्कड़ बोलती रहती हैं
तो हमें माफ कर दो कलकत्ता
अपने पूर्वजों की ओर से
मैं तुमसे क्षमा मांगता हूँ ।”
इस कविता के माध्यम से एक नव युवा कवि अपने सभी पूर्वजों की ओर से, बंगाल की सुंदरियों से क्षमा मांगता है, जिन्हें अकारण शाप दिया गया, उनपर आग बरसाई गई । कवि सिर्फ क्षमा ही नहीं मांगता बल्कि अपने पूर्वजों की सारी स्थिति का चित्रण भी करता है । कवि कलकत्ता से क्षमा मांग कर अपने सभी पूर्वजों को पाप और दोष मुक्त करवाता है । इससे पहले हिन्दी कविता में यह काम किसी ने भी जरूरी नहीं समझा था ।
राज्यवर्द्धन |
प्रेम के बिना कलकत्ता पर यह आलेख अधूरा ही समझा जाएगा । कलकत्ता और प्रेम का घनिष्ठ संबंध है । यहाँ प्रेम छुपाने की वस्तु नहीं है । शायद इसीलिए कलकत्ता की सड़कों और पार्कों में अक्सर युगल प्रेमी दिख जाते हैं । कलकत्ता के इस प्रेमी दृश्य पर कवि राज्यवर्द्धन की एक कविता है– “हिलोर हुगली की” । इन प्रेमी जोड़ों को देख कवि की आत्मा जुड़ा जाती है । उसे अद्भुत संतुष्टि प्राप्त होती है । वह लिखता है–
“बहुत अच्छे लगते हैं
प्रेम करते लोग
उपवन में खिले फूल से
जगाती है-
मन में अहसास
कि धरती अब सुरक्शित रहेगी
अन हाथों में
...और उठने लगती है
मन में
हिलौर
हुगली की ।”
यह कलकत्ता की अपनी खास पहचान है ।
इस प्रेमी संस्कृति की वजह से ही आज भी कलकत्ता की बसों में स्त्री और बुजुर्ग को खड़ा देखकर युवक अपनी सीट छोड़ देते हैं । कवि राज्यवर्द्धन के शब्दों में कहूँ तो कवि केदारनाथ सिंह कलकत्ता की इस संस्कृति का बखान करते नहीं थकते हैं । वे बताते हैं –
“कि कैसे ट्राम लाइन पर
घायल गौरैये को बचाने के लिए
एक दिन रुक गई थी ट्राम
और हो गया था ट्रैफिक जाम
कि थम गया था
थोड़ी देर के लिए
शहर कोलकाता
बचाने को घायल गौरैये की जान ।”
कलकत्ता कवि केदारनाथ सिंह का दूसरा घर है । उन्हें इस घर से बेहद लगाव एवं प्रेम है ।
विमलेश त्रिपाठी |
इसी प्रेम की वजह से कवि विमलेश त्रिपाठी को कलकत्ता उम्मीद का शहर लगता है । कवि का मानना है कि ‘इसके सीने में आज भी / एक बूढ़ा गाँव हाँफता है’ और इस बात का प्रमाण कवि स्वयं है । उसका बचा रहना ही इस बात का प्रमाण है । कवि को लगता है कि पूरी दुनिया बदल जाएगी पर यह शहर, यहाँ की हवा, यहाँ की संस्कृति, यहाँ की परंपरा नहीं बदलेगी । न तो यहाँ का बाउल गीत बदलेगा और न ही रवीद्र-संगीत । कवि के ही शब्दों में–
“यहाँ की बांग्ला मिट्टी न बदलेगी
जन्मते रहेंगे लालन फकीर
दिन-दिन वह
और उर्वर होती जाएगी ।”
लाख स्थिति खराब हो कवि उम्मीद का दामन नहीं छोड़ता । निराश या हताश नहीं होता । उसे बांग्ला माटी पर भरपूर विश्वास है ।
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मृत्युंजय पाण्डेय |
मृत्युंजय पाण्डेय, असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, सुरेन्द्रनाथ कॉलेज (कलकत्ता विश्वविद्यालय)
संपर्क : 25/1/1, फकीर बगान लेन, पिलखाना, हावड़ा – 711101 (पश्चिम बंगाल)
मोबाइल : 9681510596, ईमेल आईडी : pmrityunjayasaha@gmail.com
प्रकाशित पुस्तकें : (1) कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव (2) कहानी से संवाद (3) कहानी का अलक्षित प्रदेश
(सभी आलोचनात्मक पुस्तकें)
कोलकाता के विविध रूपों को नए पुराने कवियों के कविताओं के माध्यम से रुपायित करने में मृत्युंजय पांडेय जी सफल रहे।
जवाब देंहटाएंकलकत्ता और उस पर लिखी कविताएं वहाँ के इतिहास के पन्ने खोलने के साथ वहाँ की परिस्थितियों और संस्कृति का झरोखा जैसी लगी ,जिसमे झाँकना अच्छा लगा ।
जवाब देंहटाएंये हर बार देते हैं वोट जीतने वाली पार्टी को
जवाब देंहटाएंहोते हैं वादे इन्हें कायदे से बसाने के
जिंदगी की जरूरतों को पूरा करने के
पर चुनाव के बाद
ये फिर से बना दिए जाते हैं बिहारी ।”
इसके बावजूद भी ये घबराते नहीं हैं –
“भरपूर बेशर्मी के साथ करते रहते हैं
ईमानदारी से मेहनत मजदूरी
आँखों में जिंदगी के स्वप्न लिए
कवि (राजेश्वर वशिष्ठ जी ) चाहते तो "बेशर्मी" से बच सकते थे।या फिर यह बेशर्मी अवचेतन में दबी हुई मनोभावों की अभीव्यक्ति हो।
कोलकाता पर लिखी गई कविताओं का शानदार आलेख। सभी कवियों की रचनाएं प्रभावित करती है। प्रिय मृत्युंजय पांडेय को बधाई और अनेक शुभकामनाएँ। मैं सदा कोलकाता का आभारी रहूँगा।
जवाब देंहटाएंकलकत्ता को विभिन्न कोणों से दिखाने और इसकी धड़कन को महसूस कराने के लिये भाई मृत्युंजय पांडेय को धन्यवाद। उन्होंने कलकत्ते का थोड़ा ऋण उतारा है। बिजूका का भी आभार
जवाब देंहटाएंआप सभी मित्रों का हार्दिक शुक्रिया जी
जवाब देंहटाएंज्ञान दा की ट्राम में एक याद का जिक्र न होना खटकता है । वैसे आपने बहुत अच्छा लिखा है भैया...बधाई ।
जवाब देंहटाएंसारगर्भित आलेख। बधाई मृत्युंजय
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