कुसुम पाण्डेय की कविताएँ
मैं क्यों लिखती हूं
कविता सबसे कोमल और मनोभाव को कलात्मक ढंग से अभिव्यक्त करने में समर्थ विधा है। और दृष्यात्मकता इसकी विशेषता। कविता भावनाओं के प्रसव से उपजती है। हमारे भीतर का संवेदन शील मन किसी घटना से प्रभावित होकर अपनी भावनाओं को शब्दों में आकार देता है तो कविता ही जन्मती है। पौराणिक प्रसंग के आलोक में हम देखे तो बाल्मीकि का उदाहरण याद आता है। इन सबके बाद भी मैं कविताएं क्यों लिखती हूँ इस प्रष्न का उत्तर मेरे लिए दे पाना बेहद कठिन है। शायद इसमें मेरा अपना स्वभाव और परि वेष ही उत्तरदायी पाती हूँ जो मुझे अपने इर्द-गिर्द मिला। दरअसल मैं बचपन से ही बेहद लापरवाह किस्म की और सपनों की दुनिया में विचरण करने वाली लड़की रही। एक आष्चर्य लोक में खुद को समोए। छुट पन में खिलौनों के प्रति प्रेम कैषोर्य वय तक आकर शब्दों में तेजी से बदलता गया। यह शायद बाल पलिकाओं और बच्चों का कोना जेसे अखबारी कालम पढ़ने की उपज रही। हाँ पर यह भी सच है कि बड़ी ही साधारण सी लड़की को जीवन से अपनी उम्मीदों जब जीवन में कोई राह न सकी ठीक उसी पल सम्पूर्ण दे सकूगी। लेखन के गुण विरासत में न मिल कर के अनुस्प कुछ भी हाथ न लगना शुरू हो चुका था कुछ असफलताएं जीवन से ऐसी मिली कि थकहार कर खुद का सानिध्य सुख बेहद भाने लगा। एक निर्वत से घिर कर जीवन को देर तक नहीं जिया जा सकता है न। शब्दों को लेकर अनुराग ने मेरी उंगली थामी और खुद व खुद ले जाकर एक अनूठी और जादुई सी दुनिया में खड़ा कर दिया। इस सुख को छुटपन में ही मैं प्राप्त कर चुकी थी न। अक्षरों को रखने को तारतम्य इधर का उधर हुआ या गलती से कोई शब्द कही रख गये नये शब्दों की सृजना मुझे सुखद अचरज की अनुभूति कराते। अब शब्द चित्र की बारी रही।
भावनाओं को अभिव्यक्त करने में समर्थ कविता या कह ले रचना शीलता से शोहबत कुछ इस कदर भाई कि बाकी सब कुछ जीवन में प्राथमिकता के धरातल से सरकता रहा। और निबौरी जैसी कड़वी और जेठ की धूप सी तीखी और तल्ख सी यह जिन्दगी जिसे जीवन के उतार चढ़ाव और भी पेचीदगी व उठ पटक की और ले जाते है पर यह कविता से तारूरफ मानों मुझे लगा कि लेखन ही वह क्षेत्र है जिसमें मैं अपना सम्पूर्ण दे सकूगी। लेखन की पृष्ठ भूमि विरासत में नहीं पा कर भी यहां मुझे आत्म सन्तोष मिला। मेरी हथेली पर नियति ने चुटकी भर छांव कही से लाकर चुपके से धर दी हो हलांकि मैं जानती हूँ कि यह कविता का निहायत ही सीमित पक्ष हैं जैसे अथाह जलराषि वाले समुद्र की कुछ बूंदे भर। पर सीखने और खुद को मांझते हुए अपनी कविता के फलक को विस्तीर्ण और परिस्कृत करने का अनवरत प्रयास अब भी जारी है। इस कविताई आकाष में मिले झीने उजाले की महीन किरचे असफलता के स्याह अधियारे बादलों पर भारी पड़ी। जीवन की प्रतिकलता में सघन छतनार छांव की अनुभूति अपनी रचना और रचनात्मकता के बीच पाती हूँ।
कविताएँ
एक
मनचाही इबारत
भावनाएं बन्धनों की
परिधि से छिटकती है
तो मन करता है
हाथों में ख्वाहिशों की मेंहदी
लगाकर झूम लू, नाच लू
खुशियों का आलता
माँ से बचपन में जिद
करके लगवाया
फिर से पावों को उनसे सजा
लेने को दिल
करता है
शंख जैसे उजले दिन
लौटा दे कोई
मन करता है आती-जाती
बदली के परों को
लगाकर नियति के पन्नों
पर दर्ज कर दूँ मनचाही
इबारत
और लिख दू तुम को
इन्द्र धनुषी रंगों की स्याही
से प्रेमिल पाती।
दो
भावना ताल के कमल
देह की क्यारी में कहां खिलते है
प्रेम के कमल, यह पनपते है
भावनाओं के ताल में और
इनकी न जाने कब से
जड़ से उखाड फेंकती आ रही है
पंचायतें और खाप भी
प्रेम के कमल ऑनर किलिंग
की भेंट चढ़ते है जो खंजन बन
लौट आते है बार-बार
भावना भरे ताल में
देह की परिधि में
इन का होता वास तो
फिनिक्स जैसे जी न
उठते हर बार
प्रेम के कमल जीते रहे है
मरते रहेगे, प्रेम के प्रतिरोध
में खड़े लोग
सुखा संको अगर तो सुखा दो
भावनाओं का ताल
तभी मिलेगा
प्रेम कमल से वंचित
धरा का सुख।।
तीन
म्यूजियम साहित्य के
प्रेम को गौरेया लिख, देना रच देगा
नया नकोर बिम्ब,
कितनी मार्मिकता से लिसड़ा
आ खड़ा होगा, पाठकां के बाजार में
तब जब न
प्रेम बचा है दिलों में
और गौरेया
लुप्त होने को है, वह
गोया साहित्य न हुआ
म्यूजियम बनने लगे है
हर, और
जहाँ आने वाली पीढ़ियां
प्रेम की संरक्षित
मृत काया के
शोधात्मक उत्खनन
के बाद टटोलेगी
सरसता से उफनाया जंगल, और
देखेगी गौरेया,
जिनकी चीं चीं सुन
अलसाहट की चादर
फेंककर उनीदीं आँखें
अल सुबह उठ जाती
जो बदलें में चुग लेती
छत से, सूखते
चन्द दाने आकर।
चार
सच कहना तू
उन अनखुले अंगो पर
लिख जाता कौन
सदियों से प्रेम रस में
नहायी, कविताएं, और
वही अंग खरोंच, चोट के
निशानों के निशान से
कराह उठते है
क्यों प्रेमिल पंखुरियों
की सुगन्ध से विमुग्ध
अपने इन्द्रधनुषी सपनें
सौप दिये, उसे
सच कहना, क्या तू
सचमुच कमजोर है,
या फिर जाने कब से
हारती आ रही है, उससे
जो लिखता है
प्रेम में नहाई कविताएं
ठीक वही
जहाँ झरना बहा
करता है।।
पांच
सुवास से भरे खत
दराज में मेज की, रखे हैं, सहेज कर
तेरे महकते मन की, सुवास से भरे, खत
उन्हें जब छूती हूँ, तो पुनर्जीवित हो उठते
वो दिन, महीने, साल,
जब हम प्रीत की कन्दराओं में
संग-संग उतरे थे
कैसे भूल सकती हू,ँ उन दिनों को
जब बेंहया मधुमासी हवा नें
मेरे गोरे पाँवों में,
उत्साह और उमंग को बॉध दिया
पायल की मानिन्द
“इनकी रूनझुन व छम छम मेरी आत्मा में उतर गयी है”
यही तो कहा था तुमने,
उन दिनों मेरी रंगत में,
लाज का चुटकीं भर केसर किसने
मल दिया, मैं नही जान सकती,
नियति को उलट-पुलट देने का
हौसला था उन आँखों में
और आसमान को बाहों में समेट लेने का
हौसला जगा दिया तुमने
मैं सरल मना परवाज पर निकलने को थी
पर मर्यादा की दहलीज को
पार न कर सकी।
छ:
यथार्थ प्रेम का
इतने ही तो दूर हो तुम
एक पल को लगा
हाथ बढाया जब
जी चाहा छू लूगी तुमको
कहा भी था तुमने
मेरी धरती और तेरा
आकाश दोनो कितने
पास-पास
पर यह निकटता कितनी
पास है जान चुकी हूँ मैं
तमाम प्रकाश वर्ष
बीतकर भी न बीतेगी ये
तेरी धरती और
मेरा आकाश दोनो रह गये
पास-पास
हम दूर हो गये
अब उम्र भर के लिये।।
परिचय
नाम - कुसुम लता पाण्डेय
शिक्षा - स्नातक डिप्लोमा ;क्ॅम्क्द्ध
सम्प्रति - स्वतन्त्र लेखन
रचनाऐं :-
दैनिक जागरण, कथाक्रम, सर्वसृजन, वर्तमान साहित्य, जनसंदेश टाइम्स हरि भूमि स्वतन्त्र भारत, इत्यादि पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित
आकाश वाणी लखनऊ से कहानी प्रसारित अनुभूति के इन्द्रधनुष कविता संग्रह में कविताएं
जलेस लखनऊ इकाई सदस्य।
सम्मान :
सर्वसृजन कथा सम्मान 2015
कुसुम पाण्डेय |
मैं क्यों लिखती हूं
कविता सबसे कोमल और मनोभाव को कलात्मक ढंग से अभिव्यक्त करने में समर्थ विधा है। और दृष्यात्मकता इसकी विशेषता। कविता भावनाओं के प्रसव से उपजती है। हमारे भीतर का संवेदन शील मन किसी घटना से प्रभावित होकर अपनी भावनाओं को शब्दों में आकार देता है तो कविता ही जन्मती है। पौराणिक प्रसंग के आलोक में हम देखे तो बाल्मीकि का उदाहरण याद आता है। इन सबके बाद भी मैं कविताएं क्यों लिखती हूँ इस प्रष्न का उत्तर मेरे लिए दे पाना बेहद कठिन है। शायद इसमें मेरा अपना स्वभाव और परि वेष ही उत्तरदायी पाती हूँ जो मुझे अपने इर्द-गिर्द मिला। दरअसल मैं बचपन से ही बेहद लापरवाह किस्म की और सपनों की दुनिया में विचरण करने वाली लड़की रही। एक आष्चर्य लोक में खुद को समोए। छुट पन में खिलौनों के प्रति प्रेम कैषोर्य वय तक आकर शब्दों में तेजी से बदलता गया। यह शायद बाल पलिकाओं और बच्चों का कोना जेसे अखबारी कालम पढ़ने की उपज रही। हाँ पर यह भी सच है कि बड़ी ही साधारण सी लड़की को जीवन से अपनी उम्मीदों जब जीवन में कोई राह न सकी ठीक उसी पल सम्पूर्ण दे सकूगी। लेखन के गुण विरासत में न मिल कर के अनुस्प कुछ भी हाथ न लगना शुरू हो चुका था कुछ असफलताएं जीवन से ऐसी मिली कि थकहार कर खुद का सानिध्य सुख बेहद भाने लगा। एक निर्वत से घिर कर जीवन को देर तक नहीं जिया जा सकता है न। शब्दों को लेकर अनुराग ने मेरी उंगली थामी और खुद व खुद ले जाकर एक अनूठी और जादुई सी दुनिया में खड़ा कर दिया। इस सुख को छुटपन में ही मैं प्राप्त कर चुकी थी न। अक्षरों को रखने को तारतम्य इधर का उधर हुआ या गलती से कोई शब्द कही रख गये नये शब्दों की सृजना मुझे सुखद अचरज की अनुभूति कराते। अब शब्द चित्र की बारी रही।
भावनाओं को अभिव्यक्त करने में समर्थ कविता या कह ले रचना शीलता से शोहबत कुछ इस कदर भाई कि बाकी सब कुछ जीवन में प्राथमिकता के धरातल से सरकता रहा। और निबौरी जैसी कड़वी और जेठ की धूप सी तीखी और तल्ख सी यह जिन्दगी जिसे जीवन के उतार चढ़ाव और भी पेचीदगी व उठ पटक की और ले जाते है पर यह कविता से तारूरफ मानों मुझे लगा कि लेखन ही वह क्षेत्र है जिसमें मैं अपना सम्पूर्ण दे सकूगी। लेखन की पृष्ठ भूमि विरासत में नहीं पा कर भी यहां मुझे आत्म सन्तोष मिला। मेरी हथेली पर नियति ने चुटकी भर छांव कही से लाकर चुपके से धर दी हो हलांकि मैं जानती हूँ कि यह कविता का निहायत ही सीमित पक्ष हैं जैसे अथाह जलराषि वाले समुद्र की कुछ बूंदे भर। पर सीखने और खुद को मांझते हुए अपनी कविता के फलक को विस्तीर्ण और परिस्कृत करने का अनवरत प्रयास अब भी जारी है। इस कविताई आकाष में मिले झीने उजाले की महीन किरचे असफलता के स्याह अधियारे बादलों पर भारी पड़ी। जीवन की प्रतिकलता में सघन छतनार छांव की अनुभूति अपनी रचना और रचनात्मकता के बीच पाती हूँ।
कविताएँ
एक
मनचाही इबारत
भावनाएं बन्धनों की
परिधि से छिटकती है
तो मन करता है
हाथों में ख्वाहिशों की मेंहदी
लगाकर झूम लू, नाच लू
खुशियों का आलता
माँ से बचपन में जिद
करके लगवाया
फिर से पावों को उनसे सजा
लेने को दिल
करता है
शंख जैसे उजले दिन
लौटा दे कोई
मन करता है आती-जाती
बदली के परों को
लगाकर नियति के पन्नों
पर दर्ज कर दूँ मनचाही
इबारत
और लिख दू तुम को
इन्द्र धनुषी रंगों की स्याही
से प्रेमिल पाती।
दो
भावना ताल के कमल
देह की क्यारी में कहां खिलते है
प्रेम के कमल, यह पनपते है
भावनाओं के ताल में और
इनकी न जाने कब से
जड़ से उखाड फेंकती आ रही है
पंचायतें और खाप भी
प्रेम के कमल ऑनर किलिंग
की भेंट चढ़ते है जो खंजन बन
लौट आते है बार-बार
भावना भरे ताल में
देह की परिधि में
इन का होता वास तो
फिनिक्स जैसे जी न
उठते हर बार
प्रेम के कमल जीते रहे है
मरते रहेगे, प्रेम के प्रतिरोध
में खड़े लोग
सुखा संको अगर तो सुखा दो
भावनाओं का ताल
तभी मिलेगा
प्रेम कमल से वंचित
धरा का सुख।।
तीन
म्यूजियम साहित्य के
प्रेम को गौरेया लिख, देना रच देगा
नया नकोर बिम्ब,
कितनी मार्मिकता से लिसड़ा
आ खड़ा होगा, पाठकां के बाजार में
तब जब न
प्रेम बचा है दिलों में
और गौरेया
लुप्त होने को है, वह
गोया साहित्य न हुआ
म्यूजियम बनने लगे है
हर, और
जहाँ आने वाली पीढ़ियां
प्रेम की संरक्षित
मृत काया के
शोधात्मक उत्खनन
के बाद टटोलेगी
सरसता से उफनाया जंगल, और
देखेगी गौरेया,
जिनकी चीं चीं सुन
अलसाहट की चादर
फेंककर उनीदीं आँखें
अल सुबह उठ जाती
जो बदलें में चुग लेती
छत से, सूखते
चन्द दाने आकर।
चार
सच कहना तू
उन अनखुले अंगो पर
लिख जाता कौन
सदियों से प्रेम रस में
नहायी, कविताएं, और
वही अंग खरोंच, चोट के
निशानों के निशान से
कराह उठते है
क्यों प्रेमिल पंखुरियों
की सुगन्ध से विमुग्ध
अपने इन्द्रधनुषी सपनें
सौप दिये, उसे
सच कहना, क्या तू
सचमुच कमजोर है,
या फिर जाने कब से
हारती आ रही है, उससे
जो लिखता है
प्रेम में नहाई कविताएं
ठीक वही
जहाँ झरना बहा
करता है।।
पांच
सुवास से भरे खत
दराज में मेज की, रखे हैं, सहेज कर
तेरे महकते मन की, सुवास से भरे, खत
उन्हें जब छूती हूँ, तो पुनर्जीवित हो उठते
वो दिन, महीने, साल,
जब हम प्रीत की कन्दराओं में
संग-संग उतरे थे
कैसे भूल सकती हू,ँ उन दिनों को
जब बेंहया मधुमासी हवा नें
मेरे गोरे पाँवों में,
उत्साह और उमंग को बॉध दिया
पायल की मानिन्द
“इनकी रूनझुन व छम छम मेरी आत्मा में उतर गयी है”
यही तो कहा था तुमने,
उन दिनों मेरी रंगत में,
लाज का चुटकीं भर केसर किसने
मल दिया, मैं नही जान सकती,
नियति को उलट-पुलट देने का
हौसला था उन आँखों में
और आसमान को बाहों में समेट लेने का
हौसला जगा दिया तुमने
मैं सरल मना परवाज पर निकलने को थी
पर मर्यादा की दहलीज को
पार न कर सकी।
छ:
यथार्थ प्रेम का
इतने ही तो दूर हो तुम
एक पल को लगा
हाथ बढाया जब
जी चाहा छू लूगी तुमको
कहा भी था तुमने
मेरी धरती और तेरा
आकाश दोनो कितने
पास-पास
पर यह निकटता कितनी
पास है जान चुकी हूँ मैं
तमाम प्रकाश वर्ष
बीतकर भी न बीतेगी ये
तेरी धरती और
मेरा आकाश दोनो रह गये
पास-पास
हम दूर हो गये
अब उम्र भर के लिये।।
परिचय
नाम - कुसुम लता पाण्डेय
शिक्षा - स्नातक डिप्लोमा ;क्ॅम्क्द्ध
सम्प्रति - स्वतन्त्र लेखन
रचनाऐं :-
दैनिक जागरण, कथाक्रम, सर्वसृजन, वर्तमान साहित्य, जनसंदेश टाइम्स हरि भूमि स्वतन्त्र भारत, इत्यादि पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित
आकाश वाणी लखनऊ से कहानी प्रसारित अनुभूति के इन्द्रधनुष कविता संग्रह में कविताएं
जलेस लखनऊ इकाई सदस्य।
सम्मान :
सर्वसृजन कथा सम्मान 2015
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