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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

12 मई, 2018

  सोनिया नौटियाल गैरोला की कविताएं 






मैं कविता क्यों लिखती हूं

बादल बरसता क्यों है? नदी बाढ़ में क्यों बदल जाती है?आसमान क्यों बिजली गिराता है?धरती सूख क्यों जाती है? परिन्दों के पर होते हुए भी वो पिंजरों में क्यों रहते हैं??इन्सान,इन्सान क्यों नहीं बने रहना चाहता?
इस क्यों पर ही तो सारी दुनिया टिकी है। इस क्यों के क्योंकि बनने तक , मै कैसे बताऊँ कि मैं क्यों कविता लिखती हूँ?



 सोनिया नौटियाल गैरोला


कविताएं

एक 

दिन भर हँसते मुसकुराते चेहरे
किसने देखा
रातों को  उनका चेहरे असलियत ओढ़ लेते हैं।

     दो 

बात रेशम के धागों सी
फिसलती रही
शब्द ताने-बाने से
गाँठें उलझती रही ।




तीन

माँ कहती हैं कि
औरत धरती होती है
जितना उसकोरौंदा जाए
उसके सीने में हल चलाया जाए
फिर भी खुशी से झूमकर
लहलहाती है
लेकिन मैंने धरती के क्रोध में
सब कुछ सूखते देखा है
उसके आँसुओं के सैलाब में
सब जलमग्न होते देखा है
आपने देखा है क्या!



 चार 

तुम्हारा मौन पहुँचा ही देता है
वो अनकही बातें
जो अकसर डूबते सूरज के
कानों में बोल देते हो
और मैं सुन लेती हूँ
वो बातें भी
जो स्वप्न मेंरख जाते हो
तन्हा चाँद के आगोश में
तुम्हारा मौन
सब कुछ कह जाता है
बारिश की बूँदों में
जो बरस जाती हैं अकसर
मेरी अंतरात्मा में
और मैं भीग जातीहूँ
अंतःस्धल की गहराई तक
तब,
तब तुम्हारे मौन की दिव्यता को
समझ पाती हूँ
और मेरा हॄदय
मुखरित हो
उन सभी मुस्कुराती गाती बातों से
बुनने लगता है
कई नृत्य करती बातें ।



पांच 

कुछ ऐसे भी दरख्त देखे हैं मैंने
जिन पर कभी कोई कोंपल नहीं फूटती
जिन पर कभी कोई फूल नहीं खिलते
न ही कभी कोई चिड़िया
उस पर बैठ कर
गीत गाती है
फिर भी जुड़े हैं उन दरख्तों से
जिन पर फूल खिलते हैं
और चिड़िया भी गाती है।




     छ:

चलो छोड़ आएं
वो ख्वाब
उसके सिरहाने पर
जो रात भर मुझे
लोरियाँ  सुनाते रहे
आखिर वो भी
सो जाए कुछ देर
सुकून के साथ

       


सात

बारिश की बूँदें 

लगातार गिरती रहीं
पेड़ों पर
फूलों पर
धरती पर
तुझमे -मुझमें
हम सब में
सूखे हुए को जज़्ब करती
उसकी मोहक तरलता से
पेड़ फूल धरती
मुझमें-तुझमे
हम सब में
बहने लगता है
हमारा कोई ख्वाब
ख्वाहिश
दुःख







आठ

दुःख के खेतों में
मैंने खुशी ही बोई है
देखती हूँ रोज़
उन्हें खुली आँखों से
बरतन माँजते  झाड़ू लगाते
कपड़े वोते
आँगन को साफ़ करते
बिस्तर की सलवटों को
ठीक-ठीक करते करते
फसल को तैयार होते
खुली आँखों का स्वप्न
चलता रहता है
और हाथ भी चलते रहते हैं
यन्त्रवत्।




नौ 

दिन रात की धूप में
सफर कहाँ तक
ज़ारी रहता
मरूस्थल की
मृगचारिका में
पैर दौड़ते रहे
मन कहीं दूर खड़ा
देखता रहा
दौड़ते पैरों के निशान को।



दस 

भूल थी वो चूक थी
दिल में छुपी हूक थी
रात के कगार में
निःशब्द स्तब्ध चूप थी
भूल की सुधार है
अब न कोई गुहार है
रात है थकी -थकी
जल उठी मशाल अब
राह रोशनी की है
जागने लगें हैं सब
देखती हैं मन्जिलें
राह जिस जहान की
स्वप्न नहीं सत्य अब
बात उस मुकाम की
गा रही है दामिनी
गीत ये महान अब
निर्भया के आन की
और उसके शान की
बात ये रूके नहीँ
मन कभी थके नहीँ
चल पड़ें हैं पाँव जो
कंटको के शूल से
आज वो डरे नहीं
हम निडर डटे नहीं
हम निडर डटे वहीं।







ग्यारह 

रात जो बात बिखर गई
उन शब्दों को चुन लें
सुबह आओ                                                     
कुछ ख्वाब
दर ब दर पड़े हैं
आओ
उन स्वप्नों को
बुन लें
दिल के जख्मों को
तुम्हारे बोसे का
मरहम मिले
चलो आज
हम तुम
तुम हम हो लें।   




बारह 
कुछ दुख 

आओ बोदें हम
उनके सीनें में
जहाँ प्रेम की
राह नहीं है
और तड़प की
चाह नहीं है
कुछ सुख
धर दें
उन सपनों में
जहाँ सन्नाटे सी
रात पड़ी है
कुछ हिस्सा
लेकर चाँद का
टाँग दें
उस खिड़की पर भी हम
जहाँ दो आँखें
दिन रात खड़ी हैं।




तेरह 

अर्ध सत्य की
पूरी परिभाषा
बुनता क्यों है
अनगढ़ सत्य
तू सुनता क्यों है
हृदय के
बन्द पटों को
तकता क्यों है
और सत्य के
नंगेपन से
छिपता क्यों है
फिर सत्य के सो जाने से
जगता क्यों है!




चौदह 
ओस की बूँद

ये ओस की बूँद नहीं
मेरे भीतर की नमीं है
जो मैंने
तुम्हारे लिये
बचाकर रखी है



पंद्रह 

योनि से.... दिमाग़
के बीच
दिल धड़कता रहा
अंधेरे और सड़न के बाद भी
महकता रहा
गाता रहा
वो तमाम गीत
जो उसे जिलाए रखते थे
जिस्म को मुर्दा होने से
बचाए रखते थे।

००






 सोनिया नौटियाल गैरोला
जन्म-26मार्च1972
जन्मस्थान-श्रीनगर गढ़वाल
आरम्भिकशिक्षा- इलाहाबाद
स्नातकीय शिक्षा- श्री नगर गढ़वाल
परास्नातकीय शिक्षा-देहरादून
००

1 टिप्पणी:

  1. आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' १४ मई २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/

    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।

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