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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

01 मई, 2018


मै क्यों लिखती हूं
                               
 सविता पाठक

खुद को प्रकट करना किसी के लिए आसान होता है तो किसी के लिए मुश्किल। जो कुछ है मेरे भीतर, हां, जिसका परिचय मैं दुनिया को देना चाहती हूं वह क्या है। क्या है जो मैं आप सबको बताना चाहती हूं। साझा करना चाहती हूं। कभी कहानी इसका माध्यम बनती है तो कभी कोई कविता। कभी कुछ बातें यूं ही में डायरी में नोट कर लेती हूं, कि हां कभी कहूंगी सब से। बताउंगी सब से। लेकिन यह कहना और बताना है क्या।

सविता पाठक 

पतझड़ खुद को टूटी पत्तियों में अभिव्यक्त करता है। निपाती पेड़ और उसके ठूंठ। बसंत खिलती हुई कलियों और नव पल्लव ओढ़कर खड़े हो जाने वाले वृक्षों में। समंदर कभी तो खुद को गहरे नीले रंग में खुद को अभिव्यक्त करता है तो कभी अपनी अथाह गहराई में। अभिव्यक्ति की जिद जब ज्यादा आवेग में भरी होती है तो यही समंदर तूफान में खुद को प्रकट करता है।
हिमालय अपनी सफेद चादरों, सदानीरा नदियों और देवदार के सघन जंगलों में खुद को प्रकट करता है। गंगा अपने दूर-दूर तक फैले कछारों में अपना अस्तित्व जताया करती है। यमुना चंबल और बेतवा के पानी को अपने अंक में समेटे लहराती हुई अपना गान प्रस्तुत करती है। चंबल कभी अपने घड़ियालों में तो अपने पठारी किनारों में खुद को जताती हुई चलती है। पक्षी गाते हैं। जुगनू अपनी रोशनी से रात के अंधेरों का काटने की कोशिश करते हैं। तितलियां अपने सुरमई और सुनहरे रंगों में खुद को अभिव्यक्त कर देती हैं। पलकों की तरह झपकते उनके पंखों पर बिखरे वे रंग उनकी कहानी कहते हैं। मधुमक्खियां अपने को शहद में प्रकट करती हैं।
सर्दियों की एक खूब ठंडी भोर में, जब रात भर से पड़ती ओस से घास भारी होने लगती है, जब अपने घोंसले में सिकुड़ती चिड़िया बस किसी तरह से सुबह हो जाने का इंतजार करती है, जब रात भर की कठिन ड्यूटी पूरी करने के बाद चांद की पलकें भी झपकने लगती हैं, ठीक उसी समय अपने दड़बे में दुबका मुर्गा जोरों से चिल्ला कर, शोर मचाकर, अपने उल्लास को प्रकट करता है। कुकड़ू कूं। जी हां मैं हूं। कुकड़ूं कूं। मैं हूं। मैं हूं।
कैसे कहूं कि अपने को अभिव्यक्त करने के इतने खूबसूरत तरीके मेरे पास नहीं है। अपने खाली हाथ कैसे दिखाऊं। लेकिन, हां कुछ तो है ऐसा जिसे मैं दिखाना चाहती हूं। एक दुनिया। जिसे मैंने अपने आस-पास, इर्द-गिर्द महसूस किया। एक जीवन जिसे मैंने अपनी हथेलियों में सहेज लेना चाहा।सहारनपुर के एक तंग इलाका, जिसकी पतली गलियों और बदबूदार नालियों वाले के बगल से गुजरती हुई एक लड़की, जो अपने दुपट्टे को बार-बार अपने सिर पर ठीक करती है। आस-पास से, हर मकान से, गली से, दुकान से सैकड़ों निगाहें उसकी कमर पर, उसकी पींठ पर, उसके शरीर पर चिपकी हुई है, फिर वह निकलती है रोज उसी गली से। उसे अपने जीवन से प्यार है। जीवन की जीने की रवानियत में वह खुद को प्रकट कर रही है। उसके मेहंदी भरे हाथ उसकी जिजीविषा की कहानी जता रहे हैं। इस लड़की से मैं आप सभी का परिचय करा देना चाहती हूं।उसकी जददोदहद उसकी जीजिविषा उसकी अपनी अस्मिता की तलाश के साथ आप की यात्रा सुनिश्चत करना चाहती हूं।

जब बोलती है एक औरत

प्रकृति में हर किसी ने अपनी बात कहने के अपने तरीके निकाले हैं। लेकिन औरतें सदियों से खामोश रही हैं।यह पूरी कायनात की सबसे बडी अप्राकृतिक परिघटना है। अब क्या कहें कि ये दुनिया ही कुछ इस तरह से बन गई कि पुरुष तो खुद को युद्ध में अभिव्यक्त करने लगे। वीर सैनिक, वीर सेनापति। फतह। और औरतें खुद को कभी जौहर में तो कभी अपनी सिसकियों को रनिवासों में घोंटकर खुद को प्रकट करती रहीं। उन्होंने जो भोगा, जो सोचा, जो सोचना चाहा, जो करना चाहा वह शायद ही उस तरह से कभी प्रकट हो पाए, जिस तरह से वे खुद करना चाहती थीं। क्योंकि न तो वह खुद बन पायी  और न ही खुद मुख्तार। उनकी अभिव्यक्ति इस कदर घुटी हुई थी कि उनके मुंह में बत्तीस दांत है या चौबीस यह भी समाज को ज्ञात नहीं था।
बादशाहों के दरबार लगे रहते थे। बादशाह खुद को अभिव्यक्त करते थे। दरबारी खुद को अभिव्यक्त करते थे। लेकिन, बेगमें अंतःपुर में कैद थीं। उनकी अभिव्यक्ति प्रकट नहीं थी। वे प्रकट थीं भी तो उन्हीं रूपों में जिनमें पुरुष समाज उनकी अभिव्यकित् की इच्छा रखता था। वे माशूकाएं थीं। हुस्न और इश्क की रवायतें थीं।

सदियों पुरानी इन बातों का जिक्र करने का एक संदर्भ है। भारत की तमाम-तमाम महिलाएं आज भी कुछ ऐसी दिक्कतों से दो-चार हो रही हैं। पति के पास काम है, ऑफिस है, दोस्त हैं, रिश्तेदार हैं, सामाजिक दायरा है, बैंक बैलेंस है, प्रापर्टी है, बच्चे हैं, यह लिस्ट बहुत लंबी है। पत्नियों के पास भी काम है, लेकिन घरेलू काम, यह छिपा हुआ है। पोंछा लगाने से लेकर खाना बनाने और बच्चे को स्कूल भेजने तक। ये सब छिपे हुए हैं और अभी भी उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे हैं जब उनके अस्तित्व को भी मान्यता मिलेगी।

पत्नी के पास रिश्तेदार हैं लेकिन पति के, संपत्ति है लेकिन पति की, बैंक बैलेंस है लेकिन पति का, ये लिस्ट सचमुच काफी लंबी है। ऐसे में यह समझना सचमुच मुश्किलों भरा है कि एक स्त्री के लिए खुद को अभिव्यक्त करना कैसे और किन रास्तों से संभव है। कैसे उसे अपनी बात कहनी है।
लेकिन, ये चुनौतियां ऐसी हैं जिन्हें  औरत सदियों से उठाती रही हैं। ये कोई नई बात नहीं है। झांसी की रानी की ने युद्ध के मैदान में खुद को साबित करके प्रकट किया। अपने अस्तित्व के प्रकटन की पूरी एक लड़ाई औरतें लड़ चुकी हैं। जार्ज इलियट के छुपे रूप में मेरी ईवान्स का महाकाव्य, वर्जीनिया वुल्फ के प्रश्न, सिमोन द बोउआर का हौसला, इब्सन का गुड़िया घर जीवन को एक नए रूप का खुलासा सबके सामने करके छोड़ता है। अपने देश में कहें तो  रुक्कया सखावत हुसैन के सपने,महादेवी वर्मा की श्रृंखला की कड़ियां से शुरू होकर चुनौतियों को अपने हाथ में लेने वाली महिला लेखिकाओं की एक अंतहीन श्रृंखला है। इसमें एक तरफ सावित्रीबाई फूले खड़ी हैं जो औरतों को अक्षर ज्ञान कराती है तो दूसरी तरफ महाश्वेता देवी जो सदियों से शोषित हाशिये पर फेंके गये लोंगों की आवाज बनती है। तमाम समकालीन लेखिकाएं हैं जिनका लेखन जिंदगी को नई जिंदगी और उत्साह से लबरेज कर देता है। सबका नाम लेना शायद यहां संभव नहीं हो पाए।

मैं क्यों लिखती हूं।

उत्तर है जीवन के उन तमाम रूपों के प्रकटन के लिए जिनसे मेरी और मेरे सन्दर्भों की बनावट हुई ।हमारा समाज अपने भीतर कई युग समेटे चल रहा है.यहां बायन,चुडैल बनाकर बहिस्कृत औरत है,कन्या भ्रूण हत्या में रुधे गले से शामिल औरतहै,हवस से लेकर अंधराष्ट्रवाद के नाम पर बलत्कृत बच्ची की लाश है। तमाम विरोधो-अन्तरविरोधों के बीच रास्ता बनाती औरत है।वह एक साथ अपनी अस्मिता की लडाई लड रही है दूसरी तरफ अपने अस्तिव के संकट से जूझ रही है. अभी भी इतना कम कहा लिखा और बोला गया है कि चुप्पी ही ज्यादा प्रतीत होती है।एक ऐसे संक्रमण कालीन समाज की अपनी पीडा है उसका अपना सौन्दर्य है। उस समाज की ढेरों व्युच्चुतियां हो सकती है लेकिन डगमगाते पांवों से सही लेकिन किसी को पहले पहल चलते देखना बेहद सुखद है।
 स्त्री जीवन के उस रूप से जो आभा मैंने ग्रहण की उसे सबके साथ साझा करने के लिए लिखना मेरे लिए जरूरी है।
लेखक से बडा पात्र शायद ही कोई हो।वह थोडा थोडा सबसे मिलकर बना होता है। बडौत में जब पहली बार महिला राजगीर जमीला से मिली यकीन नहीं आया। मजदूरी करते करते वह राजगीर बन गयी।उसने कितने सावन भादों देखे होंगे कहने की जरुरत नहीं।बोझा ढोते ढोते सर के बाल झड गये थे। लेकिन उसके भीतर का मानवीय सौन्दर्य और परिष्कृत होकर दिख रहा था। न तो उसने जीने की ताब छोडी न प्रेम और मातृत्व की इच्छा। उनकी तरह अनगिनत लोगों की पूरी दुनिया जिनके सहयोग से मेरे परिवेश का निर्माण हुआ है।वह सब मैं अभिव्यक्त करना चाहती हूं। यह परिवेश भी तेजी से बदल रहा है उस परिवर्तन का हिस्सा होना उसे खुली आंखों से देखना, उसकी खामोश आवाज को सुनना और उसे दर्ज करना।यह एक सक्रिय हस्तक्षेप है।अपनी पीडा और अपने समय की पीडा सुनने समझने का जरिया।एक तरह का मरहम है मेरे लिए लिखना।

स्त्री की रचना का पथ क्या हो यह बहस क्यों

--स्त्री की रचना का पथ क्या हो, यह लिंग से परे यानी किसी भी रचनाकार के लिए रचना का पथ क्या हो, इस सवाल से अलग कैसे है।

आज का समय समस्याओं के विशिष्टिकरण के नाम पर उन्हें टुकडे में बांट कर और समग्रता से दूर कर देने का चलन दिखता है.दलित की समस्या दलित समझ सकता है स्त्री की समस्या स्त्री ही समझ सकती है निश्चत ही बोध और अनुभव के आधार पर परकाया होना आसान नहीं है उसकी सामाजिक और शारीरिक सीमा है,किन्तु मनुष्य एक सांस्कृतिक जीव भी है.वह अपनी संवेदना और दृष्टि के आधार पर न सिर्फ साहित्य में बल्कि सामाजिक जीवन में सक्रिय और सशक्त आवाज उठाता है.वह भी उनकी जिससे उसका कोई सीधा संबंध नहीं।
साहित्य तो वैसे भी संवेदनाओं की अभिव्यत्ति है। यह समझना जरूरी है कि स्त्री द्वारा लिखा गया साहित्य और स्त्री के लिए लिखा गया साहित्य अलग-अलग है।

यह जरुरी नहीं कि जीवन को उस रूप में सिर्फ वहीं प्रकट कर सकता है जिसे उसने खुद महसूस किया हो, अगर ऐसा होता तो  शरत चंद के साहित्य को क्या कहेंगे क्या वह सिर्फ बंग स्त्री का प्रतिनिधित्व करता है ।शरत चंद की एक स्त्री पात्र एक जगह पति पत्नी की संबंधों पर कहती है- ..स्त्री पुरूष का मिलन तभी तक सत्य है जब तक वह पति-पत्नी की प्रसन्नता का कारण बनता है जिस क्षण लाभ से हानि का पलडा भारी हो जाता है,पति एक मात्र बेंत के जोर से स्त्री के समस्त अधिकारों के छीन लेता है.उसी क्षण वह स्वत:ही समाप्त हो  जाता है। अभया अपने प्रेमी रोहिणी बाबू के लिए अपने अत्याचारी पति को छोड देती है और यह कहने का साहस करती है कि ऐसे मनुष्य के सारे जीवन को लगडा बना कर मै सती का खिताब नहीं जीतना चाहती। श्रीकांत बाबू निश्चयपूर्वक मै कह सकती हूं कि हमारे निष्पाप प्रेम की संतान संसार में मनुष्यत्व के लिहाज से किसी के भी हीन न होगी.उसकी माता उसको यह भरोसा अवश्य दे जायेगी कि वह सत्य के बीच पैदा हुई है.सत्य से बढकर सहारा और नहीं है.इस वस्तु से भ्रष्ट होना उसके लिए कठिन होगा..

..उन्होंने भी तो मेरे साथ उन्ही मंत्रो का उच्चारण किया था किन्तु वह एक निरर्थक बकवाद ही रहा.,उनकी इच्छा परजरा भी रोक न लग सका ...क्या वह सारा बंधन सारा उत्तरदायित्व मैं स्त्री इसलिए केवल मेरे ऊपर रह गया ?

क्या यह अभिव्यक्ति किसी स्त्री की नहीं लगती? यानि रचना का संसार रचनाकार की दृष्टि पर निर्भर करता है।इस पर निर्भर करता है कि उसका मन-मष्तिक आसपास घट रही चीजों को कैसे लेता है।उसका दिमाग किन अस्वाभाविक, अप्राकृतिक चीजों को स्वीकार कर चुका है या अस्वीकार करता है।स्त्री केन्द्रित साहित्य भले ही वह स्त्री द्वारा लिखा गया हो जरूरी नहीं वह पितृसत्ता के ऊपर प्रहार करता हो,उसका आख्यान उसकी रगों में बह रहे मर्दवादी,सामंती मूल्यों से ग्रस्त न हो। ठीक इसी तरह स्त्री का लेखन सिर्फ स्त्री जीवन की परिघटनाओं तक सिमटा रहे यह जरुरी नहीं।
महाश्वेता देवी उन आदिवासियों की  कथा कहती रहीं जो कथा साहित्य से भी फेंके जा चुके है।अभिजात जन का वश चले तो उन्हें उनकी धरती में दफ्न करके पांच सितारा होटल बना ले।मन्नू भंडारी का महाभोज किसी पुरुष की रचना है या फिर किसी स्त्री की? उसका साहित्यिक  और सामाजिक वैल्यु क्या है. क्या उसका अध्ययन करते समय पाठक मन्नु को एक स्त्री के अनुभव के तौर पर पढेगा?

स्त्री क्यों अपने अनुभव संसार के  खोल में लिपटी रहे। यह अनुभव संसार लगातार विस्तृत हो रहा है।लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं की औरत कहें न या वह जो कह रही है वह गये जमाने की बात है।यह दरअसल एक पुरूषवादी डिक्टेट है।
घर और घेर में बटें समाज में अभी भी स्त्री की आवाज सुननें के लिए बेहद धैर्य की दरकार है।एक ही समाज में मध्यकालीन कई बार तो पुरा पाषाणकालीन जीवन से लेकर अति-आधुनिक जीवन है।हर नई रचना अपने साथ किस समाज को लेकर आ रही है कह नहीं सकते।आर्थिक नवउदारवाद के इस युग स्त्री का जीवन सरल नहीं हुआ है।उसकी आजादी ज्यादा दुरूह हुई है। वह असाधारण गफलत का शिकार हुई है। उसे पारंम्परिक जीवन से मुक्ति भी चाहिए और इस आधुनिकता से कुछ खास हासिल नहीं। यहां भी एक अच्छी औरत का अपना पैमाना है जो उसकी विशिष्ट शारीरिक बनावट,रंगरूप की मांग करती है।विशिष्ट फ्रीडम के इस बाजार में वह खरीददार भी है लेकिन वह खरीद का सामान बन कर सजी भी है।यह उथल-पुथल,कशमकश और एक जीवन में हजारों युगों का अभिशाप ढोती स्त्री का समय है।उसके कहने और लिखने के माने है।स्त्री द्वारा रचित साहित्य के दुहरे अर्थ है,पहला कि अभिव्यक्ति और साहस दोनो ही औरत को कीमत देकर जुटाना पडता है,दूसरे अनुभव का वह संसार जो अभी भी व्यापक समूह के लिए अछूता है,वह सामने आया है.


स्त्री का साहित्य पथः क्या-क्या है समेटने को हमारी लेखनी में यौन प्रश्न

गुलाम शायद अपनी हथकड़ियों के बारे में ही सबसे ज्यादा सोचता है। वे दिन रात उसे चुभती हैं। वे दिन रात उसे पराधीन होने का अहसास कराती हैं। वे कभी भी उसे स्वतंत्र होने का अनुभव नहीं करने देती। यौन कर्म सदियों से महिलाओं की गुलामी का एक प्रतीक बन कर रह गए हैं। कभी विजेताओं के उन्माद ने कभी अपनी विजय का उल्लास यौन जबरदस्ती में प्रकट किया। स्त्री का शरीर हार-जीत का अखाड़ा बनता रहा। स्त्री यौन कर्म के एक उपकरण के रूप में आंकी गई। उसका शरीर बस एक उपकरण है। यौन कर्म का। वह सहभागी नहीं है।
इसलिए जरूरी है कि इस हथकड़ी पर स्त्रियों का लेखन लगातार और पुख्ता होता गया है। ऐसा हो नहीं सकता है कि दासता के इस स्वरूप की चर्चा के बिना उनका लेखन संपूर्ण हो जाए, लेकिन इसमें भी सही स्त्री लेखन अपने में निराला है। वह इस अत्याचार के खिलाफ आक्रोश से भरा हुआ है। उसके लेखन से पुरुषों का मनसायन नहीं होगा। बल्कि उनके शब्द मर्दवादी सोच पर तमाचे की तरह पड़ते हैं। उनका लेखन अपने शरीर पर अपने अधिकार के उद्घोष की तरह है।स्त्री का यौन विषय पर लिखना कोई पाप नहीं।बल्कि लिखे जाने की आवश्यकता है लेकिन स्त्री के जीवन के विविध आयाम है उनको गौण बना कर उसके विद्रोह को सिर्फ बेडरूम तक सिमित करना घातक है।

इसीलिए स्त्री लेखिकाओं द्वारा यौन विषयों पर लिखा गया सभी लेखन स्त्री स्वतंत्रता के दृष्टिकोण से लिखा गया हो जरूरी नहीं। निसंदेह कई लेखिकाओं ने ऐसे लिखा है कि उनसे मर्दवादी सोच को आनंदित होने के मौके भी नसीब हुए। ऐसी लेखिकाओं की प्रतिष्ठा भी हुई। लेकिन, ऐसे लेखन को यही मानकर चलना चाहिए कि यह स्त्रीवेश में किया गया पुरुष लेखन है। पुरुषों को आनंदित करने वाला और उन्हें रसविभोर करने वाला। इसी के बरख्श कुछ पुरुषों के लेखन में भी स्त्रियों जैसी कोमलता है। इससे यह कहा जा सकता है कि रचनाकार के ह्रदय में किसी स्त्री ने वास किया था, और उससे वह सब कहला लिया जो वह शायद कहना भी नहीं चाहता।बहरहाल कहने और लिखने के लिए बहुत कुछ है।लेकिन देखने के लिए दृष्टि होना अनिवार्य है।

अस्मिता की खोज

छोटी-छोटी नौकरियों में लगी हुई लाखों औरतें।नोयडा,गुडगांव से लेकर तमाम इन्ड्रस्टियल जोन में काम करती औरतों की संख्या एक नई परिघटना है।मध्यवर्गीय आय समूहों में औरतों की एक बडी संख्या दिखती है।उनकी अपनी आकांक्षायें है।अपनी मुश्किलें हैं।पितृसत्ता के तमाम बंधनों से उनका रोज रोज का जूझना है।कभी वे बाहर इन अभिव्यक्तियों से लडती है तो भी अपने भीतर ही उसको बैठा पाती है।यह हमारे समय की कविता है।धूप में खडी स्त्रियां,विभिन्न परीक्षाओं में लम्वी कतार में लगी लडकियां,अचार-चटनी से इतर विषयों पर तकरीर देती स्त्रियां यह इस समय का सौन्दर्य है। अपने श्रम की पहचान उसका मोल समझना और उसको समझाना यह सब कुछ नया घट रहा है।

अस्तित्व का संकट

आज पूरी मानवता के अस्तित्व पर संकट है।गरीबी,कुपोषण,युध्द के स्त्री और बच्चे पहले निरपराध शिकार है।सत्तायें बदलती है उनकी पूरी दुनिया बदल जाती है।जंगल कानून बदलता है उनके चुल्हे की आग बुझ जाती है।लकडी बीनने जंगल जाती औरत को जंगलात का आदमी रोकता है तब बकौल नरेन्दर सिंह नेगी कहती है तेरो तन भी सरकारी तेरो मन भी सरकारी तू का जाने पीर हमारी..एक बीमार समाज में जिस तरह गरीब स्त्री का सौन्दर्य उसके लिए अभिशाप बन जाता है वैसे ही खनिजों से भरपूर ईलाके वहां के लोगों के लिए हो गये है। जबरदस्ती स्थानीय लोंगों को खदेड कर,उजाड कर विकास हो रहा है।बडे बांधों से कौन सिंचिंत हो रहा है इस पर तो बहस है लेकिन कितने लोग प्यासे रहने के लिए अभिशप्त हो गये उनका नाम नहीं।स्त्री लेखन कैसे इन प्रश्नों से दूर रह सकता है।वह इस उलझे समाज की विकृतियों को कैसे नही कहेगा।बडे विशालकाय शहरों में हजारों रूपये खर्च करके लडकी को कोख में मारने वाले समाज को कैसे छोड़ देगा।

उपसंहार

मेरी तडप अभिव्यक्ति की है। लस्ट फार लाइफ में महान कलाकार विन्सेट वान गाग अभिव्यक्ति की तडप में कभी पादरी बनता है,कभी कोयला खदानों में भटकता है। उम्र के एक खास पडाव पर आकर कूची उठाता है।वह कैनवास पर जिन्दगी उकेरना चाहता है। मिलों में पिस रहे लोंगों के भीतर की जिन्दगी पीसना आसान नहीं, कहना चाहता है।वह नये रंगों की तलाश करता है पुराने फ्रेम तोडता है, चटख धूप में पकती गेंहू की बालियों के साथ चटख होकर खिलती जिन्दगी उकेरता है। लिखना मेरे लिए या हमारे जैसों के लिये कुछ ऐसा ही है।
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सविता पाठक
मो-9650141832


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