माधव राठौर की कविताएं
कविताएँ
प्रति संसार
आदमी हर वक्त अपने भीतर रचता है
एक प्रति संसार
तमाम उलझनों के बाद भी सुलझा हुआ जीवन चाहता है
मगर स्मृतियों में बुनता है खुद ही जाले
जिसमें हर बार उग आते है विषैले कांटे
स्वाद को कडवा बनाते हुए याद दिलाते है उस जीवन की
जिसे जीये हुए बरस हो गये
अब बाहर नहीं आना चाहता इससे
क्योंकि बहते हुए पानी की बजाय ठहरे हुए पानी को
कोई संघर्ष नहीं करना पड़ता
ढक सकते है अपनी कमजोरी को
उस एक घटना की ओट लेकर
एक दुःख की सांत्वना के सहारे जीया जा सकता है
लिजलिजा सा अनचाहा जीवन
यद्यपि यह जानते हुए
कि सबसे कठिन है खुद की आत्मा को धोखा देना
कुलधरा
कुलधरा तुम इतने उजाड़ क्यों हो अभी तक
क्यों नहीं मुक्ति चाहते शापित होने से
क्यों सिंझते रहते हो हर बखत
भीतर ही भीतर
कब कम होगा तुम्हारा दाजणा
खाली क्यों नहीं करवाते
मीठे पानी की एक पखाल
सूने घर के आगे बनी टाँकली में
सच बताना
जब दिन ढ़लने से पहले लोगों के चले जाने बाद
डर नहीं लगता
तुम्हें अकेले में
इस सुनियाड़ अंधेरे में फैले डाकीपणे को देख
अंततः जीवन मध्यम के शून्य पर टिका हुआ पैंडूलम है
मैंने नहीं कहा तुम वापस आओ
तुम्हारा वापस आना मुझे चौकाता नहीं
जड़ो की तरफ लौटना इन्सान की फितरत रही
मुझे कोई शिकायत भी नहीं कि
तुम उस दिन क्यों चले गये थे
भटकना हमारा मूल स्वभाव है
इसलिए सब शिकवे गिलों के बीच
यही जानता हूँ कि अंततः जीवन मध्यम के शून्य पर टिका हुआ पैंडूलम है
जो ताउम्र थिर होने की चाह में डोलता रहता है
अपने सेल खत्म होने तक
रोहिड़े का फूल
गुलदाउदी ,गुड़हल और बोगनवेलिया के साथ महक रही तुम्हारे घर की बालकनी
जिन्हें देख चम्पा सी तुम खिल रही हो
इधर मैं इस फागण
तुम्हारी याद में खिला हूँ रोहिड़े के फूल सा
इस रेगिस्तान में
ठिंये
यह शहर सुबह जल्दी तैयार होकर निकल पड़ता है
साँझ होते ही घर लौटने की जल्दबाजी करता है
मगर इस शहर के कुछ लोग
कहीं नहीं लौटना चाहते है
जिनके ठीये अब यही है
इसलिए पूरा जीवन बिना उम्मीदों के
यहीं पड़े रहना चाहते है अपनी अपेक्षाओं की मैली गठरी
सिरहाने दबाये
क्योंकि उनका कहीं पर भी लौटना अब बेमानी हो गया है
घर को जल्दी लौटने की कई और भी वजह हो सकती है बॉस
ऑफिस से घर जल्दी लौटना चाहता हूँ
इंतजार कर रही होगी
ग्यारह माह की बेटी पौधों को पानी देने के लिए
उसे पसंद है हजारे के फूलों को सहलाना
और चिड़िया को पानी में नहाते देखना
दूध रोटी भी डालनी है सद्या प्रसूता बिल्ली को
जो ब्याही है चार काले बच्चे गेरेज में रखे पुराने कूलर में
सब्जी वाले से भी पूछनी है उसके बच्चे की तबियत
जिसे पिछले हफ्ते निकली थी छोटी माता
मल्टप्लेक्स में मूवी देखने ,रेस्तरां में खाना खाने
या बार में जैक डैनियल के 60 एम एल के पेग लेने के
सिवाय भी
घर को जल्दी लौटने की कई और भी वजह हो सकती है बॉस
जब लिखना सूझ नहीं रहा हो
इन दिनों कुछ लिखा नही जा रहा
गर्दन को दीवार पर टिकाकर जीभ को तालू से सटा
बंद आँखों को घूमाते हुए सोचता हूँ
निकलना होगा रात को रेलवे स्टेशन के बाहर बैठे भिखारियों को अपने सोने की जगह की जह्दोजद करते हुए देखने
या सुबह चार बजे उठ कचरा बीनने वालियों की उस चमक को देखना चाहूँगा
जब उनको मिलती है रोड साइड में रखी बियर की चार खाली बोतलें
बैठना होगा कई दिन तक कोर्ट के बाहर की थडियों पर
जहाँ मिलेगा
न्याय की उम्मीद में तीसरी पीढ़ी का वारिस ढगला राम
हॉस्पिटल भी कम अनुभवी जगह नहीं है
लुगाई के खून की जाँच कराता आलमसर से आया पहाड़ सिंह दिख जायेगा
या फिर जाना होगा बडली के भैरूजी के यहाँ मन्नत मांगते दुखियारे लोगों को
ताकि जान सकूं
इतने दुखों के बाद भी ये जिन्दगी से क्यों चिपके हुए है चिंचड़ों से
अमरबेल
प्रसिद्धि की खोज में लिपट गई
चाहना की बेल
सोंख लिया आत्मा का सारा सत
जर्जर हो गई देह
पर गहराती जा रही है दिनोंदिन
नुगरी यह कामबेल
फैलता रेगिस्तान
रेगिस्तान और फ़ैल जाता है
शहर से गाँव जाते वक्त मेरे भीतर
धोरा और तपता हुआ लगता है
स्कूल से घर जाते वक्त
नंगे पांव बच्चे के भीतर
सारी बोरडियाँ खत्म होने लगती है
विदेशी बबूलों को उगाते वक्त
जोगमाया के ओरण के भीतर
मेरे भीतर फ़ैलने लगता है
गहन उदासीपन उस वक्त
ठीक इस तरह
जड़े गाँव से शहर की और लौटते वक्त
छ: बजे वाली बस के भीतर
कुछ इस तरह बीतेगा साल
आज देर तक खडखडाती रहेगी मेरे घर की आगळ
फिर बाखळ से ही लौट जाएगी लू
क्योकि उसे बिन बताये ही शहर आ गया हूँ मैं
अब वह उदास सी धोरे के उस पार उतरते सूरज से पूछेगी
कि आखिर क्यों पड़े है इन झोपड़ो पर इतने बड़े ताले
और कहाँ चल दिए लोग
जवाब नही मिलने पर बंद कर देगी गाँव में नये बने एसी मकानों में आना
और जोगमाया के ओरण से चढ़ जाएगी निम्बों वाले धोरे पर
वहां बैठ आखिर बार पूछेगी फ़ोग और बू से मेरे शहर का पता इस बार भी गोचर रहेगा काळीये वाला खेत
मगर इंतजार करेगी जूनकी खेजड़ी जिसके नीचे खुलते थे जूते हुए हळ
और भटियाणी माँ का लाया हुआ भाता
इस बार अबोला ही लौटेगा पोष का कोहर
घर के बाहर अलाव न देख
और भीतर से कांप जायेगा वो
जब नहीं दिखेगा ढाणी के ऊपर उठता धुआं
इधर मैं इस महानगर की खोळी में इन की याद में
इस तरह बिताऊंगा साल का आखिरी दिन
बिना सपनों वाला जीवन एक पैर टूटा हुआ ऊंट होता है
सब कुछ खत्म होने की हद के बाद भी
जिन्दा रखना अपने भीतर कुछ मासूम सपनों को
क्योंकि इस खोड़ीली दुनिया में वे एकमात्र आसरा होंगे
जो प्रेरित करेंगे तुम्हें
तुम्हारी तरह जिन्दगी जीने को
वरना ऐसे निर्दोष सपनों के मरने के बाद
तुम पर समाज,जाति,धर्म और व्यवस्था
थोप देगी अपने कानून
फिर तुम्हे वही करना होगा,सोचना होगा
बोलना होगा,पहनना होगा,जीना होगा
उनके सपनों के माफ़िक
इसलिए सब कुछ खत्म हो जाये तो
खोल देना उस रात उन सपनों की गठरी और
सोने का झूठ मूठ कर
देख लेना अपनी मर्जी के सपनों में
अपनी बनाई हुई दुनिया
क्योंकि बिना सपनों वाला जीवन टूटा हुआ ऊंट होता है
जिसे चारा नहीं गोली मार दी जाती है |
बड़ा पुरस्कार
यही होगा मेरे लिए बड़ा पुरस्कार
जब तुम अपने शहर में
किताबों की दुकान पर खरीदते देखोगी
किसी तरुणी को मेरी प्रेम कवितायें
और तुम भी चुपके से रख दोगी अपना हाथ
उस किताब पर लगे मेरे फोटो पर
और
बिना खरीदे ही चल दोगे अपने पति के साथ
महंगी लम्बी गाड़ी में बैठ
सार
जीवन में सब कुछ चुकने के बाद भी
शेष रहता है
यादों से भरा तन्हा मन
इस बीमार बूढ़े शरीर में
मैं कुछ होना चाहता हूँ
मुझे कुछ चाहिए
मैं जो हूँ और जो मेरे पास है
इससे परे
मुझे बेचैन करता है मेरा होना
इसलिए कुछ बनना चाहता हूँ
मेरा होना “मेरे है” को जीने नहीं देता
हर घड़ी हर वक्त
क्योंकि
“मेरे कुछ होने में” कई आदर्श है मधुर कल्पनाएँ है
कई सपने और मीठे भ्रम भी
मगर “मेरे है” में मेरी सच्चाई और कडवा यथार्थ है
जिससे भागना चाहता हूँ हरवक्त |
कविता उनके लिए
मैं जानता हूँ कविता बदल नहीं सकती हालात
और न ही पहुँच सकती है उस तक
जिनके लिए लिखी जा रही है
इन सबके बावजूद भी
लिख रहा हूँ गरीब,शोषित और वंचित के लिए
क्योंकि अल्बर्ट कामू कहते है कि
हम उनकी लिए लिखे जिनके पास अपनी आवाज नही है
ध्यानस्थ बुद्ध और बेटी
मेरी बेटी रोज तकती है
आँखे बंद किये हुए बुद्ध की ओर
अब तो बता ही दो तथागत
इच्छा दुःख का मूल कारण है तो
जीवन का मूल कारण क्या है
जिसकी उम्मीद के लिए इतनी आकुलता से जी रहे है
इस दुखदायी संसार में
इच्छाओं से भरे यह लोग
तकलीफों का अनुवाद
आजकल मैं अपने भीतर उमड़ रहे भावों को
शब्दों में ढालना नहीं चाहता क्योंकि
अपने ही लिखे हुए दर्द को पढकर
बारबार उस दुःख में बहना नहीं चाहता
मगर यह बड़ी मार्मिक अभ्यर्थना करते हुए उग आते है
मेरे दिमाग में
और शब्दों में रळकते हुए कीड़ो से रेंगने लगते है मेरी आत्मा पर
जब वो पककर फूटने को होते है तो लगता है
चलो अच्छा हुआ इन्हें लिखा नहीं
मगर अफ़सोस
उसमें भर आती है गहरे दुःख की पस
जो मेरे चुप रहने पर ज्यादा ही बहने लगती है यह मवाद
उस वक्त कठिन हो जाता है खुद में खुद को इस तरह
रिसते हुए देखकर और
देखते हुए फिर से उस दर्द की अंतहीन प्रक्रिया से गुजरना
इसलिए आजकल मैं उन तकलीफों का सिर्फ अनुवाद करता हूँ
जो बादल भरी शाम में कमसकम मेरे साथ
पुरानी यादों के साथ गहराती तो है
००
माधव राठौड़ के लेख नीचे लिंक पर पढ़िए
1-
https://bizooka2009.blogspot.in/2018/04/c-73.html?m=1
2-https://bizooka2009.blogspot.in/2018/05/1985-msr.html?m=1
लेखक परिचय
नाम - माधव राठौड़
पता- c 73 हाई कोर्ट कॉलोनी
सेनापति भवन रातानाडा जोधपुर
जन्म तिथि- 7-11-1985
मोबाईल/फोन नं. - 9602222444
संप्रति- विधि अधिकारी
ई मेल- msr.skss@gmail.com
सृजन- विधा- कहानी, कविता,आलेख, समीक्षा,डायरी,रिपोर्ताज़
प्रमुख प्रकाशन-प्रसारण –
समाचार पत्र - दैनिक भास्कर , राज.पत्रिका, राज खोज खबर,दैनिक लोकमत
पत्रिका – मधुमती,कथादेश, साहित्य अमृत, द कोर, इंदु संचेतना,अक्षर पर्व,साहित्य अमृत
वेब पोर्टल –जानकीपुल, डेजर्टटाइम्स, प्रतिलिपि स्टोरी मिरर और आकाशवाणी में नियमित लेख व कहानी प्रकाशित व प्रसारित
००
माधव राठौड़ |
कविताएँ
प्रति संसार
आदमी हर वक्त अपने भीतर रचता है
एक प्रति संसार
तमाम उलझनों के बाद भी सुलझा हुआ जीवन चाहता है
मगर स्मृतियों में बुनता है खुद ही जाले
जिसमें हर बार उग आते है विषैले कांटे
स्वाद को कडवा बनाते हुए याद दिलाते है उस जीवन की
जिसे जीये हुए बरस हो गये
अब बाहर नहीं आना चाहता इससे
क्योंकि बहते हुए पानी की बजाय ठहरे हुए पानी को
कोई संघर्ष नहीं करना पड़ता
ढक सकते है अपनी कमजोरी को
उस एक घटना की ओट लेकर
एक दुःख की सांत्वना के सहारे जीया जा सकता है
लिजलिजा सा अनचाहा जीवन
यद्यपि यह जानते हुए
कि सबसे कठिन है खुद की आत्मा को धोखा देना
कुलधरा
कुलधरा तुम इतने उजाड़ क्यों हो अभी तक
क्यों नहीं मुक्ति चाहते शापित होने से
क्यों सिंझते रहते हो हर बखत
भीतर ही भीतर
कब कम होगा तुम्हारा दाजणा
खाली क्यों नहीं करवाते
मीठे पानी की एक पखाल
सूने घर के आगे बनी टाँकली में
सच बताना
जब दिन ढ़लने से पहले लोगों के चले जाने बाद
डर नहीं लगता
तुम्हें अकेले में
इस सुनियाड़ अंधेरे में फैले डाकीपणे को देख
अंततः जीवन मध्यम के शून्य पर टिका हुआ पैंडूलम है
मैंने नहीं कहा तुम वापस आओ
तुम्हारा वापस आना मुझे चौकाता नहीं
जड़ो की तरफ लौटना इन्सान की फितरत रही
मुझे कोई शिकायत भी नहीं कि
तुम उस दिन क्यों चले गये थे
भटकना हमारा मूल स्वभाव है
इसलिए सब शिकवे गिलों के बीच
यही जानता हूँ कि अंततः जीवन मध्यम के शून्य पर टिका हुआ पैंडूलम है
जो ताउम्र थिर होने की चाह में डोलता रहता है
अपने सेल खत्म होने तक
रोहिड़े का फूल
गुलदाउदी ,गुड़हल और बोगनवेलिया के साथ महक रही तुम्हारे घर की बालकनी
जिन्हें देख चम्पा सी तुम खिल रही हो
इधर मैं इस फागण
तुम्हारी याद में खिला हूँ रोहिड़े के फूल सा
इस रेगिस्तान में
ठिंये
यह शहर सुबह जल्दी तैयार होकर निकल पड़ता है
साँझ होते ही घर लौटने की जल्दबाजी करता है
मगर इस शहर के कुछ लोग
कहीं नहीं लौटना चाहते है
जिनके ठीये अब यही है
इसलिए पूरा जीवन बिना उम्मीदों के
यहीं पड़े रहना चाहते है अपनी अपेक्षाओं की मैली गठरी
सिरहाने दबाये
क्योंकि उनका कहीं पर भी लौटना अब बेमानी हो गया है
घर को जल्दी लौटने की कई और भी वजह हो सकती है बॉस
ऑफिस से घर जल्दी लौटना चाहता हूँ
इंतजार कर रही होगी
ग्यारह माह की बेटी पौधों को पानी देने के लिए
उसे पसंद है हजारे के फूलों को सहलाना
और चिड़िया को पानी में नहाते देखना
दूध रोटी भी डालनी है सद्या प्रसूता बिल्ली को
जो ब्याही है चार काले बच्चे गेरेज में रखे पुराने कूलर में
सब्जी वाले से भी पूछनी है उसके बच्चे की तबियत
जिसे पिछले हफ्ते निकली थी छोटी माता
मल्टप्लेक्स में मूवी देखने ,रेस्तरां में खाना खाने
या बार में जैक डैनियल के 60 एम एल के पेग लेने के
सिवाय भी
घर को जल्दी लौटने की कई और भी वजह हो सकती है बॉस
जब लिखना सूझ नहीं रहा हो
इन दिनों कुछ लिखा नही जा रहा
गर्दन को दीवार पर टिकाकर जीभ को तालू से सटा
बंद आँखों को घूमाते हुए सोचता हूँ
निकलना होगा रात को रेलवे स्टेशन के बाहर बैठे भिखारियों को अपने सोने की जगह की जह्दोजद करते हुए देखने
या सुबह चार बजे उठ कचरा बीनने वालियों की उस चमक को देखना चाहूँगा
जब उनको मिलती है रोड साइड में रखी बियर की चार खाली बोतलें
बैठना होगा कई दिन तक कोर्ट के बाहर की थडियों पर
जहाँ मिलेगा
न्याय की उम्मीद में तीसरी पीढ़ी का वारिस ढगला राम
हॉस्पिटल भी कम अनुभवी जगह नहीं है
लुगाई के खून की जाँच कराता आलमसर से आया पहाड़ सिंह दिख जायेगा
या फिर जाना होगा बडली के भैरूजी के यहाँ मन्नत मांगते दुखियारे लोगों को
ताकि जान सकूं
इतने दुखों के बाद भी ये जिन्दगी से क्यों चिपके हुए है चिंचड़ों से
अमरबेल
प्रसिद्धि की खोज में लिपट गई
चाहना की बेल
सोंख लिया आत्मा का सारा सत
जर्जर हो गई देह
पर गहराती जा रही है दिनोंदिन
नुगरी यह कामबेल
फैलता रेगिस्तान
रेगिस्तान और फ़ैल जाता है
शहर से गाँव जाते वक्त मेरे भीतर
धोरा और तपता हुआ लगता है
स्कूल से घर जाते वक्त
नंगे पांव बच्चे के भीतर
सारी बोरडियाँ खत्म होने लगती है
विदेशी बबूलों को उगाते वक्त
जोगमाया के ओरण के भीतर
मेरे भीतर फ़ैलने लगता है
गहन उदासीपन उस वक्त
ठीक इस तरह
जड़े गाँव से शहर की और लौटते वक्त
छ: बजे वाली बस के भीतर
कुछ इस तरह बीतेगा साल
आज देर तक खडखडाती रहेगी मेरे घर की आगळ
फिर बाखळ से ही लौट जाएगी लू
क्योकि उसे बिन बताये ही शहर आ गया हूँ मैं
अब वह उदास सी धोरे के उस पार उतरते सूरज से पूछेगी
कि आखिर क्यों पड़े है इन झोपड़ो पर इतने बड़े ताले
और कहाँ चल दिए लोग
जवाब नही मिलने पर बंद कर देगी गाँव में नये बने एसी मकानों में आना
और जोगमाया के ओरण से चढ़ जाएगी निम्बों वाले धोरे पर
वहां बैठ आखिर बार पूछेगी फ़ोग और बू से मेरे शहर का पता इस बार भी गोचर रहेगा काळीये वाला खेत
मगर इंतजार करेगी जूनकी खेजड़ी जिसके नीचे खुलते थे जूते हुए हळ
और भटियाणी माँ का लाया हुआ भाता
इस बार अबोला ही लौटेगा पोष का कोहर
घर के बाहर अलाव न देख
और भीतर से कांप जायेगा वो
जब नहीं दिखेगा ढाणी के ऊपर उठता धुआं
इधर मैं इस महानगर की खोळी में इन की याद में
इस तरह बिताऊंगा साल का आखिरी दिन
बिना सपनों वाला जीवन एक पैर टूटा हुआ ऊंट होता है
सब कुछ खत्म होने की हद के बाद भी
जिन्दा रखना अपने भीतर कुछ मासूम सपनों को
क्योंकि इस खोड़ीली दुनिया में वे एकमात्र आसरा होंगे
जो प्रेरित करेंगे तुम्हें
तुम्हारी तरह जिन्दगी जीने को
वरना ऐसे निर्दोष सपनों के मरने के बाद
तुम पर समाज,जाति,धर्म और व्यवस्था
थोप देगी अपने कानून
फिर तुम्हे वही करना होगा,सोचना होगा
बोलना होगा,पहनना होगा,जीना होगा
उनके सपनों के माफ़िक
इसलिए सब कुछ खत्म हो जाये तो
खोल देना उस रात उन सपनों की गठरी और
सोने का झूठ मूठ कर
देख लेना अपनी मर्जी के सपनों में
अपनी बनाई हुई दुनिया
क्योंकि बिना सपनों वाला जीवन टूटा हुआ ऊंट होता है
जिसे चारा नहीं गोली मार दी जाती है |
बड़ा पुरस्कार
यही होगा मेरे लिए बड़ा पुरस्कार
जब तुम अपने शहर में
किताबों की दुकान पर खरीदते देखोगी
किसी तरुणी को मेरी प्रेम कवितायें
और तुम भी चुपके से रख दोगी अपना हाथ
उस किताब पर लगे मेरे फोटो पर
और
बिना खरीदे ही चल दोगे अपने पति के साथ
महंगी लम्बी गाड़ी में बैठ
सार
जीवन में सब कुछ चुकने के बाद भी
शेष रहता है
यादों से भरा तन्हा मन
इस बीमार बूढ़े शरीर में
मैं कुछ होना चाहता हूँ
मुझे कुछ चाहिए
मैं जो हूँ और जो मेरे पास है
इससे परे
मुझे बेचैन करता है मेरा होना
इसलिए कुछ बनना चाहता हूँ
मेरा होना “मेरे है” को जीने नहीं देता
हर घड़ी हर वक्त
क्योंकि
“मेरे कुछ होने में” कई आदर्श है मधुर कल्पनाएँ है
कई सपने और मीठे भ्रम भी
मगर “मेरे है” में मेरी सच्चाई और कडवा यथार्थ है
जिससे भागना चाहता हूँ हरवक्त |
कविता उनके लिए
मैं जानता हूँ कविता बदल नहीं सकती हालात
और न ही पहुँच सकती है उस तक
जिनके लिए लिखी जा रही है
इन सबके बावजूद भी
लिख रहा हूँ गरीब,शोषित और वंचित के लिए
क्योंकि अल्बर्ट कामू कहते है कि
हम उनकी लिए लिखे जिनके पास अपनी आवाज नही है
ध्यानस्थ बुद्ध और बेटी
मेरी बेटी रोज तकती है
आँखे बंद किये हुए बुद्ध की ओर
अब तो बता ही दो तथागत
इच्छा दुःख का मूल कारण है तो
जीवन का मूल कारण क्या है
जिसकी उम्मीद के लिए इतनी आकुलता से जी रहे है
इस दुखदायी संसार में
इच्छाओं से भरे यह लोग
तकलीफों का अनुवाद
आजकल मैं अपने भीतर उमड़ रहे भावों को
शब्दों में ढालना नहीं चाहता क्योंकि
अपने ही लिखे हुए दर्द को पढकर
बारबार उस दुःख में बहना नहीं चाहता
मगर यह बड़ी मार्मिक अभ्यर्थना करते हुए उग आते है
मेरे दिमाग में
और शब्दों में रळकते हुए कीड़ो से रेंगने लगते है मेरी आत्मा पर
जब वो पककर फूटने को होते है तो लगता है
चलो अच्छा हुआ इन्हें लिखा नहीं
मगर अफ़सोस
उसमें भर आती है गहरे दुःख की पस
जो मेरे चुप रहने पर ज्यादा ही बहने लगती है यह मवाद
उस वक्त कठिन हो जाता है खुद में खुद को इस तरह
रिसते हुए देखकर और
देखते हुए फिर से उस दर्द की अंतहीन प्रक्रिया से गुजरना
इसलिए आजकल मैं उन तकलीफों का सिर्फ अनुवाद करता हूँ
जो बादल भरी शाम में कमसकम मेरे साथ
पुरानी यादों के साथ गहराती तो है
००
माधव राठौड़ के लेख नीचे लिंक पर पढ़िए
1-
https://bizooka2009.blogspot.in/2018/04/c-73.html?m=1
2-https://bizooka2009.blogspot.in/2018/05/1985-msr.html?m=1
लेखक परिचय
नाम - माधव राठौड़
पता- c 73 हाई कोर्ट कॉलोनी
सेनापति भवन रातानाडा जोधपुर
जन्म तिथि- 7-11-1985
मोबाईल/फोन नं. - 9602222444
संप्रति- विधि अधिकारी
ई मेल- msr.skss@gmail.com
सृजन- विधा- कहानी, कविता,आलेख, समीक्षा,डायरी,रिपोर्ताज़
प्रमुख प्रकाशन-प्रसारण –
समाचार पत्र - दैनिक भास्कर , राज.पत्रिका, राज खोज खबर,दैनिक लोकमत
पत्रिका – मधुमती,कथादेश, साहित्य अमृत, द कोर, इंदु संचेतना,अक्षर पर्व,साहित्य अमृत
वेब पोर्टल –जानकीपुल, डेजर्टटाइम्स, प्रतिलिपि स्टोरी मिरर और आकाशवाणी में नियमित लेख व कहानी प्रकाशित व प्रसारित
००
माधव जी की कविताएँ जीवन अनुभव से जन्मीं कविताएँ हैं इसलिए उनमें प्रभाव उत्पादकता है । बधाई ।
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