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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

10 मई, 2018

वर्तमान पत्रकारिता और वैकल्पिक मीडिया की भूमिका 

अंजनी कुमार


‘‘मास मीडिया सूचना और प्रतीकों को आम जन तक पहुंचाने की एक संचार व्यवस्था है। उसका काम है सूचना देना, मनोरंजन करना, हतप्रभ करना और एक विस्तारित समाज की संस्थाबद्ध व्यवस्था में व्यक्ति को मूल्य, विश्वास और व्यवहार की बातों को मन में बैठाते हुए मिला लेना है। एक ऐसी दुनिया जहां संपदा का संकेंद्रीकरण और वर्ग-हितों की बड़ी टकराहटें हैं, उसे चलाने के लिए एक व्यवस्थित प्रचार की जरूरत है।- नोम चोम्स्की, मैन्युफैक्चरींग कंसेंट।’’ यह किताब 1988 में छपी थी। पिछले 30 सालों में संचार साधनों में जितनी तेजी से बदलाव आया है कि उसे बहुत सारे लोग ‘सूचना क्रांति’ नाम देना ज्यादा पसंद करते हैं। इस सूचना क्रांति का असर कितनी   दूर तक गया है कि बहुत सारे बुद्धिजीवियों ने इन सूचना माध्यमों में ‘एक संगठनकर्ता’ की भूमिका तक देखने लगे। फेसबुक पेज से लेकर व्हाट्सएपग्रुप, लाइव और यू-ट्यूब का प्रयोग तत्काल जुटानों और खबर के साथ रूबरू रहते हस्तक्षेप करने की संभावनाओं की तलाश तक का काम आज खूब चल रहा है। ऐसा लगता है कि यह सूचना क्रांति एक जनवाद की संभावना लेकर आई है जिसमें कोई भी हिस्सेदारी कर अपने तरीके और सोच से दूसरे को प्रभावित कर सकता है। इस संदर्भ में एक बार फिर हम नोम चोम्स्की की उपरोक्त पुस्तक का ही उद्धहरण दे रहा हूं, ‘‘इस व्यवस्था की खूबी यही है कि यह असहमति और असुविधाजनक सूचना को अपनी पकड़ और हाशिये पर रखता है। साथ इसकी उपस्थिति बनाकर यह बताता भी है कि व्यवस्था एकतरफा नहीं है। जब तक कि उनका तयशुदा ऐजेंडा मुख्य है वे हलचलों को छेड़ते नहीं हैं।’’ लेकिन जैसे ही उन्हें लगता है इंटरनेट और अन्य संचार माध्यम का प्रयोग कर व्यापक-जन के पक्ष में सूचना को संगठित कर कुछ लोग आगे ले जा रहे हैं और ये उनके हितों को प्रभावित कर सकते हैं, इस संचार की व्यवस्था को ही ठप कर देते हैं और सूचना को संगठित करने वाले लोगों पर कार्यवाही की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। उस समय एक बात साफ हो जाती है कि संचार की राजनीतिक-अर्थव्यवस्था यानी मालिकानों की राजनीतिक एक निर्णायक अवस्थिति है और सूचना क्रांति अन्य मीडिया की तरह ही एक और नियंत्रित व्यवस्था है।
अंजनी कुमार

सूचना क्रांति का सिद्धांत पेश करते समय यह मान लिया गया था कि यह लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ से अधिक यह जन के एकदम करीब पहुंच चुका है और जन की भागीदारी लोकत्रंत में एक निर्णायक भूमिका का निर्वाह भी कर लेगी। अरब क्रांति से लेकर अमेरीका में वाॅलस्ट्रीट मूवमेंट पर एलन बाद्यू जैसे चिंतक की फिसलन देखने लायक है। आमतौर पर यह मान लिया जाता है कि मीडिया लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ है। बहुत सारे जनवादी लोग जब इस क्षेत्र में काम करने उतरते हैं तब वे इस कार्यभार की बोझ से दबे होते हैं और इसी दबाव में काम करते रहते हैं। लेकिन यह ठीक वैसे ही नहीं है जैसा न्यायपालिका या विधायिका है। मीडिया पर सरकार के कानून और नीति-निर्देश चलते हैं और इन नियंत्रणकारी प्रावधानों में जरूरत के हिसाब से बदलाव लाया जाता रहता है। ऐसे में इस पर सरकार और विधायिका, प्रशासन और दबंग लोगों का प्रभाव और नियंत्रण बना ही रहता है। लोकतंत्र का यह चैथा स्तम्भ सबसे कम स्वतंत्र स्थिति में काम कर रहा होता है। यही कारण है जिसके चलते सरकार जितना ही नियंत्रणकारी या फासीवादी होती जाती है मीडिया कर्मियों और हाउसों के खिलाफ अपराध का ग्राफ उतना ऊपर बढ़ता जाता है।

लेकिन मीडिया के दूसरे पक्ष को भी देखना जरूरी है जिसमें वह लोकतंत्र की चिंताओं से ऊपर उन हितों के लिए काम कर रहा होता है जिससे वह बनता है। सूचना और संस्कृति के बाजार में काम करने वाले व्यक्ति और समूह ठीक एक व्यवसायिक संस्थानों जैसा ही काम करते हैं। ये कारपोरेट ग्रुप हैं जो आज खुद को लोकतंत्र के चैथे स्तम्भ से बाहर जाकर कोयला खदान, रीयल स्टेट जैसे क्षेत्रों में काम करने लगे हैं। ये अन्य कारपोरेट समूहों की तरह एक बहुविध क्षेत्रों काम करने वाले उद्योगिक समूह में बदल चुके हैं। इनके हित निश्चय सरकार की नीतियों, पार्टियों और विदेशी निवेश में उस दूर तक जा चुका है जहां से उनसे लोकतंत्र के स्तम्भ के प्रति जिम्मेदारी निभाने की उम्मीद करना बेतुकी बात होगी।

आइए, कुछ मीडिया कारपोरेट समूहो का मालिकाना देखें। देश की सबसे बड़ी कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड, मुकेश अंबानी ने 4000 करोड़ रूपये के निवेश पर नेटवर्क 18 जिसमें एनबीसी, टीवी18, सीएनएन-आईबीएन, सीएनएन, आवाज, वेबसाईट फस्र्टपोस्ट.काॅम, मनीकंट्रोल.काॅम, पत्रिका फोब्र्स इंडिया, कलर्स, एमटीवी, होमशाॅप सहित अन्य प्रतिष्ठानों को खरीद लिया। यह काम इंडीपेंटेंट मीडिया ट्रस्ट के नाम से किया गया। मुकेश अंबानी, महेंद्र नाहटा और अभय ओसवाल की तिकड़ी में एनडीटीवी, न्यूज नेशन, इंडिया टीवी, न्यूज 24 और इन चैनलों के मनोरंजन परोसने वाले चैनल ‘निवेश’ के आधार पर नियंत्रित हैं। मीडिया हाउसों के एक हिस्से का यह छोटा सा रूप है। लगभग सभी पार्टियों के उनके अपने चैनल हैं। पार्टी नेता या उनके परिवार के सदस्यों द्वारा मीडिया हाउसों का चलना आज आम बात हो चुकी है। इनके आपसी खरीद फरोख्त में धांधली, दबाव के अतिरिक्त वे सारे तौर तरीके काम में ले आये जाते हैं जो कंपनियांे की खरीद में जरूरी होते हैं। दरअसल यहां हम लोकतंत्र की उस संस्कृति की वह तस्वीर देख सकते हैं जो अब तक सरकारों द्वारा हासिल है और जैसा वे आगे जाना चाहते हैं। इतिहास, पुराण, धर्म प्रवचन, अंधविश्वास, क्राईम से लेकर बिग बाॅस, एमटीवी और आयोजित बहसों की एक साथ की जा रही पेशगी तर्कहीनता, विभ्रम, क्रूरता और घृणा की एक ऐसी मूल्य संरचना को बनाता है जिसमें पहचान का अर्थ है दूसरे के अस्तित्व को मिटाना और एक ऐसे अतीत का निर्माण करना जो वर्तमान में उसे संगठित होने का अवसर दे। यह निरंतर चलने वाली हिंसा के लिए आम जन को उसमें भागीदारी के लिए उकसाता है।

हम जानते हैं कि यह एक दिन में नहीं हुआ है। वैश्वीकरण राष्ट्र की सीमाओं का साम्राज्यवादियों द्वारा एक और अतिक्रमण था। यह निरंतर चलने वाला युद्ध था जिसका रूकना और चलना साम्राज्यवादीयों की आकांक्षा पर निर्भर था। यह अमेरीकी साम्राज्यवादी नेतृत्व में 1970 के दशक से चलाये जा रहे निरंतर युद्ध की एक ऐसी श्रृंखला थी जिस पर से संयुक्त राष्ट्र संघ का आवरण हट चुका था, विश्वबैंक और मुद्राकोष उसकी जगह ले चुके थे। अपने देश के हुक्मरानों ने इस साम्राज्यवादी अतिक्रमण को विकास का नाम दिया और इस अतिक्रमण से आमजन को लगी ठेस को एक नये राष्ट्रवाद- हिंदुत्व राष्ट्रवाद के सहारे खड़ा किया। राष्ट्रवाद एक संकीर्ण पहचान पर आधारित ऐसी अवधारणा है जिसमें यदि धर्म और भू-सीमांकन का मेल हो जाय, पूंजीवाद के साथ साम्राज्यवादी गठजोड़ हो तब यह तेजी से फासीवादी रूप लेने लगता है। अपने देश में स्थिति जटिल है। यह सीमांकन कभी पाकिस्तान के साथ, कभी चीन के साथ उन्माद की हद ले जाया जाता है लेकिन उससे अधिक यह शहरों और गांवों तक में यह सीमांकन एक ऐसे युद्ध के माहौल को निर्मित कर रहा है जिसमें जनसंहार के लिए सिर्फ राजनीति पार्टीयों की इच्छा ही काफी रह गई है। मीडिया हाउस, पार्टी, सरकार और उद्योगपतियों का सम्मिलन ने शिक्षा से लेकर हर मनोरंजन तक को इतिहास को दुरूस्त करने, गर्व की वापसी करने और स्थानीयता व पहचान को ब्राम्हणवादी संरचना में ढालकर प्रस्तुत किया। हिंदुत्व गर्व की पुनर्वापसी, शुद्धिकरण के लिए हिंसा को अनिवार्य और मनोरंजक बनाकर प्रस्तुत किया गया। धर्म पहले की तरह ही मूल्य और व्यवसाय की तरह चैनलों के माध्यम से परोसा गया। इतिहास, धर्म, दर्शन की एक रेखीय गति पूंजीवादी साम्राज्यावाद की मुनाफा और युद्ध की एक रेखीय गति के साथ इस तरह मिल चुकी है जिसमें धर्म, उद्योग, राजनीति और हिंसा को अलग कर देख सकना संभव नहीं रह गया है। राम-रहीम, बाबा रामदेव, आशाराम बापू से लेकर योगी आदित्यनाथ, नरेंद्र मोदी आदि इसके एक प्रतिनीधि उदाहरण हैं। मीडिया की इस संरचना में स्थानीयता और कंेद्रीकरण का जो नमूना दैनिक जागरण ने पेश किया है उसके आगे और अखबारों की क्षमता चुक गई है। वहीं शहरों को केंद्र बनाकर टाइम्स आॅफ इंडिया और हिंदुस्तान टाईम्स अभी मध्यवर्ग की आकांक्षाओं को पूरा कर रहा है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दैनिक भास्कर गु्रप मीडिया और उद्योग को मिलाकर हिंदी में एक नये तरह के मीडिया घराने को पैदा किया है जिसमें न्यूज का अर्थ हितों के पक्ष में लिखना मुख्य है।

पेड न्यूज जिसकी चर्चा आज धीरे धीरे बंद हो चुकी है, एक संक्रमणकालीन व्यवस्था थी। पेड न्यूज विज्ञापन का ही एक राजनीतिक रूप था जिसकी अब जरूरत नहीं रही। हालांकि जिस समय पेड न्यूज की चर्चा थी उस समय साम्राज्यवादी संस्थानों और एनजीओ द्वारा खबरों के लिए विशेष पैकेज देने की चर्चा जो 1980 के दशक में प्रमुखता से उभर चुकी थी, नहीं के बराबर हुई। आज जब कुछ मीडिया संस्थानों ने दिखाया कि किस तरह उत्तर-प्रदेश मंे ‘एनकाउंटर’ मैनेज किया जा रहा है, दंगे प्रायोजित किये जा रहे हैं और एक जातीय समूह को दूसरे जातीय समूहों के खिलाफ गोलबंद किया रहा है, .... तब यह भी लगने लगा है कि ऐसा क्या तथ्य है जो नया है? मसलन, गढ़चिरौली में पहले दिन से ही साफ था कि सी-60 के कमांडों ने गांव के लोगों को मारकर जिस बहादुरी का दावा किया है, वह एकदम झूठ है। तीन राज्य सरकारों और गृहमंत्री ने इस बहादुरी के लिए इन कमांडों को एक करोड़ रूपये से अधिक का इनाम भी दे दिया। ये कमांडो गांव वालों को मारकर सपना चैधरी के गाने पर अपनी बहादुरी का सेलिबे्रट कर रहे थे जबकि दूसरी ओर गांव वाले अपने बच्चों, परिवारों और रिश्तेदारों को खोज रहे थे। कुछ समय बाद ही एक दो मीडियाकर्मी एनकाउंटर की सच्चाई जानने और ग्रामीणों व नक्सललोगों को अलगाकर वास्तविक संख्या बताने का काम कर पाये। यहां ग्राउंड रिपोर्ट में भी न्यूनतम संवैधानिक व्यवस्था के मूल्यों का दुहराने की जरूरत भी नहीं रह गई है। ऐसे में वैकल्पिक फैक्टफाईंडिंग यदि इसी दायरे में रह जाती है तब इसकी प्रासंगिकता एक जानी हुई सच्चाई को दुहराने जैसा लगने लगता है। लेकिन यदि इससे आगे बढ़कर संवैधानिक व्यवस्था के मूल्यों या सार्वत्रिक मानवीय मूल्यों के आधार पर ग्राउंड रिपोर्ट ले आया जाय तो यह ‘पक्षधर’ रिपोर्ट का हिस्सा हो जाता है। हाल ही में झारखंड में चल रहा पत्थलगढ़ी आंदोलन संविधान के उसूलों पर ही आधारित है लेकिन इस नक्सलीयों का एजेंडा बताने में न तो दैनिक भास्कर पीछे है और न ही प्रभात खबर। द हिंदू, इंडियन एक्सप्रेस से लेकर लगभग सभी अखबारों ने इसे एक आलोचनात्मक नजरीये से ही रिपोर्ट दिया है। इसका एक बड़ा कारण आदिवासी समुदाय की एक ऐसी पहलकदमी है जिसमें स्वशासन एक पहलू है। आदिवासी और दलित स्वशासन की राह पर चले, यह ब्राम्हणवादी राज्य व्यवस्था और उसकी मीडिया के लिए स्वीकार कर पाना संभव ही नहीं है। इसीलिए इन्हें नये अस्पृश्य नक्सली बताकर उनपर कार्यवाही करना ज्यादा आसाना है।

यहां हम जब मीडिया की बात कर रहे हैं तो यह वह स्पेस है जिस पर चंद घरानों का कब्जा है। 31 मार्च, 2011 तक न्यूजपेपर पंजीकरण में कुल 82,000 प्रकाशन समूह थे। 250 एमएम, 800 टेलीविजन चैनल थे जिसमें से 300 समाचार और वर्तमान हालात पर तफशरा करने वाले चैनल थे। ब्लाॅग, वेबसाईट, गु्रप, फेसबुक, गूगल प्लस आदि लाखों की संख्या पार कर चुके हैं। स्मार्ट फोन ने इंटरनेट की पहुंच को करोड़ों लोगों तक पहंचा दिया है। इसी वायर पर सूचना की सारी तकनीक उपलब्ध है जिसके अधिकांश के मालिकान विदेशी पूंजीपति हैं। पिछलीे सात सालों में निश्चय ही उपरोक्त संख्या में बढ़ोत्तरी कई गुना बढ़ चुकी है। इस पर सरकार और मीडिया हाउसों के नियंत्रण के बावजूद इकाॅनोमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली से प्रोजंय गुहा ठुकराता को संपादक पद से हटाना, समयांतर जैसी पत्रिकाओं के विज्ञापनों पर अड़ंगेबाजी करना, पुण्यप्रसून वाजपेयी को रामदेव से सवाल पूछ देने पर चैनल से विदा हो जाने की घटना निश्चित ही चिंतनीय है। लेकिन उससे भी अधिक एक सूचना, व्यक्ति, हालात, समूह, जाति, धर्म, क्षेत्र यहां तक एक देश के लोगों को लक्ष्य करके उसे सनसनीखेज बनाना, अफवाह के जरिए झूठ फैलाना, लोगों को संगठित करना और हमला के लिए उकसाना, यहां तक कि उसके अस्तित्व पर ही सवाल उठाने की जो तकनीक विकसित हुई है वह बेहद चुनौतीपूर्ण है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें दूसरे पक्ष की भागीदारी को नेस्ताबूद करना ही मुख्य लक्ष्य है। ट्राॅल करना इसका सिर्फ एक पक्ष है। नेहरू परिवार को मुस्लिम समुदाय से जोड़ना, उनके पतित होने का इतिहास बताना, इंदिरा गांधी और फिर सोनियां गांधी के नीजी जीवन और उनके फोटो को फैलाना और फिर कांग्रेस और राहुल गांधी की पतित स्थिति को बताते हुए उन्हें भारत के पतन के लिए मुस्लिम और नेहरू परिवार को दोषी ठहरा देने का जो तानाबाना है उसमें प्रिंट मीडिया से लेकर वेबसाईट, ट्वीटर और ट्राॅल सबकुछ शामिल है। अभी कर्नाटक में चल रहे चुनाव के समय यह सवाल उठ जाना कि कांग्रेस क्या मुस्लिमों की पार्टी है, एक ऐसी मीडिया संरचना का उत्पाद है। इसके ठीक पहले लव जिहाद, गोकशी जैसे मसलों पर फेसबुक, व्वाट्सअपग्रुप, ट्वीटर, यू-ट्यूब का प्रयोग और दैनिक जागरण, जी-न्यूज जैसे अखबार और चैनलों का प्रयोग एक समुदाय के खिलाफ हिंसा को संगठित करना, हमला करना, दंगा करना और जान से मार देने की घटनाएं यह बताती है कि आज मीडिया, संचार सहमति का निर्माण करने वाले माध्यम भर नहीं रह गये है बल्कि उससे आगे ये किसी व्यक्ति, समूह, समुदाय आदि को मार देने तक का एक सक्रिय एजेंट बन चुके हैं।

वैकल्पिक मीडियाः विकल्प सामानान्तर चलने वाली व्यवस्था होती है। यह सामानान्तर चलने वाली आदर्श होती है। इसके लिए जरूरी है उसे जमीन पर उतारना। यह सामानान्तर व्यवस्था क्या है? और, किसका है? सत्ता का विपक्ष क्या है? कौन लोग हैं जिन्हें वैकल्पिक मीडिया की जरूरत है? मुझे लगता है कि इसे चिन्हित करते हुए चलना बेहद जरूरी है। मीडिया, संचार और इसी तरह के अन्य साधन मूलतः संस्कृति के क्षेत्र में काम कर रहे होते हैं जिसमें एक विशाल पूंजी केंद्र में न्यूक्लीयस की तरह काम कर रही होती है। पूंजीवाद, साम्राज्यवाद अपनी पतनशील संस्कृति को लगातार जनता के बीच ले जाता है और जन को संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय भागीदारी करने से लगातार रोकता है, उसे एक ऐसे हिंसक समाज की तरफ ले जाता है जिसमें उसका साबका एकदम आधुनिक हथियारों से लैस पुलिस-सेना, राजनीति दल और उनके गुंडों से होता है। वह लगातार अकेला, निराश होते हुए आत्महत्या की एक ऐसी मानसिकता की तरफ बढ़ता है जिससे मुक्ति के होने के लिए जरूरी होता है कि वह सत्ताशाली वर्ग की दी हुई हिंसक व्यवस्था को चुन ले और उसमें सक्रिय भागीदारी करने लगे। इस हिंसक व्यवस्था में यदि वह नहीं घुसता है तो वह इसी व्यवस्था के किनारों पर चलायी जा रही अपराध की विशाल दुनिया की तरफ ठेल दिया जाता है।

वैकल्पिक मीडिया का अर्थ ही है सत्ताशाली संस्कृति के विकल्प का निर्माण करना। इसके लिए जरूरी है कि इस संस्कृति में जन की सक्रिय भागीदारी हो। भागीदारी का अर्थ भीड़ नहीं हो सकता। भागीदारी का अर्थ एकल सहमतियों का निर्माण भी नहीं हो सकता। यहां हम ठोस मसलों पर बात करें तो स्थिति साफ होने में मदद मिल सकती है। पत्रकार पी. साईंनाथ ने किसानों की आत्महत्या की खबर को देशभर से इकठ्ठा करते रहे और उसे छापते रहे। साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के दौर में यह एक ऐसी ठोस खबर थी जो भारत में साम्राज्यवादी पूंजी के हमलों को बेनकाब कर रही थी। यह सिलसिल हरीश दामोदरन और अन्य पत्रकार आगे बढ़ा रहे हैं और उन्होंने इस पूंजी की सूदखोरी और ऋण वितरण में जातीय पूर्वाग्रहों को सामने लाने का काम किया। इसी पूंजी के भयावह शोषण से त्रस्त मजदूरों की कहानियां अखबरों से गायब रहीं। दलित समुदाय जो सैकड़ों जातियों का एकबद्ध प्रतिनीधित्व है, के उजाड़ और उन पर हमलों, अत्याचारों एक सनसनीखेज खबर से अधिक नहीं बन सकीं है। आदिवासी समुदाय पर काम काफी देर में शुरू हुआ लेकिन आज भी न तो उस समुदाय के संघर्षों का प्रतिनीधित्व मिल पा रहा है और न ही उन्हें समाज के अन्य हिस्सों की तरह ही  देखने का नजरिया विकसित हो पा रहा है। यही स्थिति महिलाओं के संदर्भ में है। ओबीसी जातियों के बारे में यह माहौल बना दिया गया है कि ये दलितों को उत्पीड़ित करते हैं और ये भी सवर्ण जैसा बन चुके हैं। राष्ट्रीयताओं के संघर्ष की स्थिति भी यही है। और, सबसे भयावह स्थिति मुसलमानों की बन चुकी है। हम अक्सर संस्कृति के क्षेत्र में ब्राम्हणवादी-साम्राज्यवादी बर्चस्व को सिद्धांतः मान लेते हैं लेकिन जैसे ही इसके विकल्प के बारे में बात होती है तब यह बर्चस्व एक अवरोध बनकर खड़ा हो जाता है। बर्चस्व को तोड़ने के लिए, एक नये तरह की संस्कृति का निर्माण के लिए जन की जिस सक्रिय भागीदारी की जरूरत है उसके लिए जरूरी है कि अवरोध हटा दिये जाय।

आज विशाल कारपोरेट हाउसों द्वारा चलाये जा मीडिया संस्थानों, संचार माध्यमों, इंटरनेट आदि में उनके अपने हितों की टकराहटें उनकी कुछ कुछ खबरों को आये दिन सनसनीखेज बनाकर तख्तापलट जैसी स्थितियां बनाती रहेंगी। सेना के हथियारों की खरीद से लेकर बैंकों की खरीद-फरोख्त में चलने वाली धांधलियां आने वाले दिनों में भी मुख्य खबर बने रहेंगे। एक पार्टी की सरकार को बदलकर दूसरे को लाने के लिए भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और मानवीय संवेदना को झकझोरने वाली बलात्कार जैसी घटनाओं का प्रयोग एक आम माहौल बनाने के लिए किया जा सकता है। लेकिन यदि हम इससे आगे की पत्रकारिता, जन की भागीदारी और संस्कृति के निर्माण में सीधी भागीदारी को सुनिश्चित करना चाहते हैं, इतिहास, दर्शन, विज्ञान और किताबों आदि को बचाकर उसे भविष्य के निर्माण का एक माध्यम बनाना चाहते हैं तब फिर इसे निर्मित करने वाले जन, इस जन के विविध पक्ष को भागीदर बनाना जरूरी है। कम पूंजी लागत और न्यूनतम नियंत्रित माध्यम का प्रयोग कर अब भी विविध समुदायों से लेखक, पत्रकारों को सामने लाना जरूरी है, समुदायों की ग्राउंड रिपोर्ट का लाना जरूरी है, किसानों, मजदूरों के जीवन को सामने लाना जरूरी है, समाज में चल रही बहसों को सामने लाना जरूरी है। इसके लिए जरूरी है कि सिर्फ लेखन तक सीमित न रहा जाय बल्कि बहस को संगठित किया जाय, उसमें उनकी भागीदारी सुनिश्चित किया जाय। और, इन सबका एक नेटवर्क विकसित किया जाय। वैकल्पिक साधनों को विकसित किया जाय। एक बार फिर मैं दुहराना चाहूंगा कि संस्कृति के निर्माण के लिए जरूरी है भागीदारी, सक्रिय भागीदारी। एक वर्गीय समाज में जहां ब्राम्हणवादी संस्कृति साम्राज्यवाद के साथ मिलकर एक फासीवादी रूप ले लिया है उसमें संस्कृति के निर्माण का अर्थ ही है जनता का संयुक्त मोर्चा। हिंदी में इस पर काम करने की बेहद जरूरत है। उम्मीद है इसके लिए ली जा रही विभिन्न प्रयास एक संगठित रूप ले सकेंगे।
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