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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

24 मई, 2018



गुमनाम औरत की डायरी में एक रहस्य-रोमांच भरी जादुई कहानी

कविता कृष्णपल्लवी

भाग तीन



(गुमनाम स्त्री की जो डायरी मुझे दिल्ली मेट्रो में मिली थी, उसमें सबसे लंबा इंदराज यह कहानी है। कहानी क्या है, कहानीनुमा कुछ है , पर जो भी है, बहुत दिलचस्प है। डायरी लिखने वाली सिद्धहस्त लेखिका तो नहीं है, लेकिन वह गोगोल से लेकर मार्खेज़, बोर्खेज़ और लारा इस्कीवेल आदि की लैटिन अमेरिकी जादुई यथार्थवादी कहानियाँ पढ़ती रही है और मुक्तिबोध को भी, यह उसकी डायरी से ही पता चल जाता है। कलम के कच्चेपन के बावजूद, यह कहानीनुमा चीज़ काफी दिलचस्प है, इसलिए इसे यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ।)






एक भूत बंगले में क़ैद मैंने उम्र का एक बड़ा हिस्सा तमाम किया। फिर जब तमाम सुरंगों से गुज़रकर, खिड़कियों से कूदकर, चारदीवारियों में सेंध लगाकर मैं बाहर आयी तो बरसों बाद पाया कि वह एक बड़ा भूत बंगला था, जिसमें कि वह छोटा भूत बंगला था जिसमें वे तमाम सुरंगें, खुली खिड़कियाँ और चारदीवारी के कमज़ोर हिस्से मेरे लिए ही छोड़े गए थे। फिर उसीतरह के जतन करके और हिकमत लगाकर मैं जब उस बड़े भूत बंगले से बाहर खुले में आयी तो फिर बरसों बाद पता चला कि वह एक और बड़े भूत बंगले का बीच का खुला आँगन था जिसमें कि वह भूत बंगला था जिसके भीतर सबसे छोटा वाला भूत बंगला था।
इसतरह सात बार हुआ।हर बार एक छोटे भूत बंगले से बाहर निकलकर खुद को मैं एक बड़े भूत बंगले में पाती रही। फिर मुझे एक आदमी मिला जो भेस बदलकर बंगले के पहरेदारों में शामिल हो गया था। वह कुछ अलग था। उसकी आँखों में सहानुभूति और सरोकार के रंग थे। उसने मुझे भूत बंगले के जादू से मुक्त होने की तरकीब बतायी और एक दिन उसी तरकीब पर अमल करके मैं जब वाक़ई भूत बंगले के जादू जंगल से बाहर आयी तो बाहर रेगिस्तान में एक ऊँट लिए वही आदमी मुझे इंतज़ार करता मिला। उसने मुझे ऊँट पर बिठाया और पहले चिलकता रेगिस्तान, फिर एक उफनती नदी, फिर एक ख़तरनाक दलदली इलाका, फिर एक बीहड़ जंगल और फिर एक दुर्गम पठार पार करके हम एक इंसानी बस्ती में पहुँचे। वहाँ सड़कों पर चहल-पहल थी, जगह-जगह उत्सव थे, मेले थे, सभा-संगोष्ठियाँ थीं, ख़ूबसूरत बाग़ और पार्क थे। मैं उस जीवन में रम गयी। लोगों की ज़िन्दगी की खुशहाली और खूबसूरती में घुलती-मिलती चली गयी। मेरे हमदर्द की आँखों का रंग सहानुभूति और सरोकार से आगे बढ़कर दोस्ती का हो गया और फिर न जाने कब उसमें प्यार के रंगीन डोरे तैरने लगे। पर अभी भी मैं आज़ादी की अभ्यस्त नहीं हुई थी, इसलिए मैं इंतज़ार करना चाहती थी, इस जीवन के हर रंग को जानना चाहती थी और उसे रचने में भी भागीदार बनना चाहती थी।
मेरा हमदर्द अक्सर आता था और मुझे उस ख़ूबसूरत बस्ती की ख़ूबसूरत जगहों पर घुमाने ले जाता था। वह रोज़ अलग-अलग रंगों की और अलग-अलग ढंगों की पोशाक पहनकर आता था। रोज़ उसकी अलग-अलग क़ाबिलियतों और हुनरों के बारे में इतना जानने को मिलता था कि वह कई बार एक रहस्य सा लगने लगता था।
एकदिन हमलोग बस्ती से बाहर एक शांत झील के किनारे एक कुञ्ज की छाया में बैठे थे। शाम ढल चुकी थी। मेरे हमदर्द ने कुछ बात करते हुए मेरा हाथ अपने हाथों में ले लिया और सहलाने लगा। अचानक मैंने कुछ अप्रिय खुरदरापन महसूस किया और चौंककर देखने पर पाया कि उसकी उंगलियाँ और पंजे बाघ के पंजे में तबदील होते जा रहे हैं, उसकी पोशाक धारीदार खाल बनाती जा रही है, चेहरे पर घने बाल निकलते जा रहे हैं और गले से अजीब सी घुरघुराहट निकल रही है। मैं एकदम डर गयी | हड़बड़ाकर उठी और हाथ छुड़ाकर बस्ती की ओर जाने के लिए मुड़ी। लेकिन जहाँ बस्ती थी, वहाँ धूल,धुआँ और सन्नाटे के सिवा और कुछ भी नहीं था। बदहवास मैं मुड़ी और किसी एक दिशा में भागती चली गयी। और वह बाघ मेरा पीछा करता रहा, दौड़ते हुए नहीं, बस इतमीनान भरी चाल चलते हुए।
कई बरस वीरानियों से गुज़रने के बाद मैं फिर कुछ इंसानी बस्तियों तक पहुँच गयी। पीछा करता बाघ बस्ती के सिवान पर रुका और फिर वापस लौट गया। ये अलग किस्म की बस्तियाँ थीं। यहाँ सभी लोग तमाम कामों में व्यस्त थे। वे राह चलते लुटेरे गिरोहों के हमलों से बस्ती की हिफाजत के उपाय करते थे। वे दुःख, शोक और उत्सव साथ मनाते थे
कभी-कभी आपस में वे बुरी तरह से लड़ते भी थे। इन्हीं बस्तियों में से एक में मैंने अपना पड़ाव डाला। बस्ती के किसी भी एक व्यक्ति ने मेरी विशेष मदद करने की कोशिश नहीं की। ज़रूरत पड़ने पर कोई भी मदद को आ जाता था और कुल मिलाकर सभी किसी न किसी रूप में मददगार होते थे। बस्ती के लोग उस रहस्यमय बाघ के बारे में जानते थे और भूत बंगले के भीतर भूत बंगले के भीतर भूत बंगले के भीतर भूत बंगले ... के तिलिस्म के बारे में भी। धीरे-धीरे मैं उन्हीं में से एक बनती जा रही थी। लेकिन फिर बस्ती के आत्मतुष्ट, ठहरे-ठहरे से जीवन से मुझे ऊब होने लगी। यहाँ लोग सामूहिकता पर अधिक निर्भरता के चलते वैयक्तिक विशिष्टता खोकर सपाट चेहरे वाले लोग बन गए थे। कुल मिलाकर वे अच्छे लोग थे पर आसन्न समस्याओं और तात्कालिक हितों से आगे कुछ सोचने में उनकी दिलचस्पी नहीं थी। एक ठहरे हुए लिसलिसे- चिपचिपे रागात्मक परिवेश में जीते चले जाने से आगे वे कुछ सोचते नहीं थे। भूत बंगले और बाघ के रहस्य को पूरीतरह से समझने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। उनके लिए यही काफ़ी था कि वे उस तिलिस्म के बाहर थे। इसलिए मैं उस बस्ती के अपने ठिकाने से चल पड़ी और बस्ती-दर-बस्ती सफ़र जारी रखते हुए नमकसारों, खदानों, खरादों, भटियारखानों और सरायों से गुज़रती रही। इस दौरान मेरा परिचय ऐसे हज़ारों लोगों से हुआ जो किसी बस्ती में नहीं रहते थे स्थायी तौर पर। वे खानाबदोश लोग थे जो सड़क, खदान, भट्ठी, नमकसार... ---जहाँ कहीं भी काम मिलता था, करते थे, वहीं ठीहा जमाकर रहते थे और वह काम ख़तम होने पर अगले काम की तलाश में आगे चल देते थे। कई बार मैं ऐसे किसी घुमंतू कारवाँ में शामिल रही और कई बार अकेले ही अपना सफ़र जारी रखा।
एक दिन थकान से चूर मैं एक सराय में पहुँची और पहुँचते ही बिस्तर पर ढह गयी। जब नींद टूटी तो शाम का समय था। मुझे ताज्जुब हुआ। सोई तो मैं रात को थी! कमरे से बाहर आने पर मैंने पाया कि यह तो उसी भूत बंगले का एक कमरा है, जहाँ से भागने के बाद मेरे लम्बे सफ़र की शुरुआत हुई थी! बदहवास मैं बगल के कमरे में रहने वाली बूढ़ी स्त्री के पास गयी, उसे अपनी बरसों की यात्रा के बारे में बताया और पूछा कि फिर मैं यहाँ कैसे पहुँची ? बूढ़ी स्त्री ने मिचमिची आँखों से मुझे देखा और फुसफुसाकर कहा,”यह बात तुम फिर दुबारा कभी मत करना। तुम परसों से सो रही हो और बस अब तुम्हारे ऊपर निगाह रखी जाने लगी है। तुम्हारी दादी इसी तरह सोती थी और उन दिनों की लम्बी यात्रा पर निकल जाती थी जो अभी आये नहीं होते थे। भविष्य की अपनी यात्रा के किस्सों को, जो भी मिलता था, उसे वह सुनाती रहती थी। धीरे-धीरे उसके वे किस्से पूरे भूत बंगले में फ़ैल गए। फिर काफी तूफ़ान आया था, चीज़ें काफी उलट-पलट गयीं थीं। हालात पर बड़ी मुश्किल से क़ाबू पाया गया। तुम्हारी दादी को फिर ज़ंजीरों में जकड़ कर तहख़ाने में डाल दिया गया और दरवाज़े पर एक बड़ा-सा ताला डाल दिया गया। कुछ बरस बीतने के बाद ऐसा होने लगा कि ताला अपने आप खुलकर नीचे गिर जाया करता था। फिर वहाँ दूसरा, नया, बड़ा और मज़बूत ताला लगा दिया जाता था | इनदिनों सभी पहरेदार काफ़ी परेशान हैं | हो यह रहा है कि ताला हर एक-दो दिन पर टूटकर गिरा हुआ पाया जा रहा है। इसलिए कह रही हूँ, तुम अपना सपना याद रखना पर इसे हर किसी के सामने बयान मत करना।”
“तुमने मेरी दादी को देखा था ?” -- मैंने धीमे स्वर में पूछा।
बूढ़ी स्त्री कुछ नहीं बोली। उसने रहस्य और प्यार के साथ मुझे देखा और फिर मुस्कुराने लगी।


 (13 मार्च,2018)



कविता कृष्णपल्लवी


परिचय :
सामाजिक-राजनीतिक कामों में पिछले डेढ़ दशक से भी अधिक समय से सक्रियता।
पिछले बारह वर्षों से कविताएं और निबंध लेखन
हिन्‍दी की विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं और लेख प्रकाशित
फिलहाल निवास देहरादून



डायरी का भाग दो नीचे लिंक पर पढ़िए

भाग दो

http://bizooka2009.blogspot.com/2018/05/10-2018.html

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