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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

26 मई, 2018

आर चेतन क्रांति की कविताएं



आर चेतन क्रांति 


नव-देशभक्त को

देश का नारा लगाते हुए
तुम कितने बेवकूफ दिखते हो
ये दरअसल तुम्हें पता नहीं है
थोड़ा झुक लेते तो किसी से पूछ ही लेते

तुम्हारी गली
तुम्हारे माथे पर बह रही होती है
और होंटो से मवाद का फिचकुर
जिसमें एक पड़ोसी से
तुम्हारी हारी हुई ईर्ष्या गंधाती है बस

और तुम्हें लगता रहता है
कि तुम देश के लिए भौंक रहे हो

अपनी आँखें देखो आईने में
उनका भूगोल
बोल-बोल कर बता रहा देश को
कि तुमने देश का नक्शा भी पूरा खोलकर नहीं देखा कभी

उसे ही देख लेते
तो तुमको खुद पर शर्म आती

खैर, अब,
अपनी जीभ से
अपनी ठुड्डी पर उगती पूँछ को छूकर देखो
और लिखकर बताओ
कि उसका स्वाद कैसा है
पता तो चले
कि हिंदी के कितने शब्द तुम सही लिख पाते हो

सुनो
अपने जीवन की व्यर्थता को
झंडे से मत ढँको
हिम्मत करके कह दो
कि तुम्हारे पास नौकरी नहीं है

क्या पता कोई दे ही दे
आरक्षण क्या हुआ
चपरासियों का अकाल पड़ा है देश में




घर

घर
जो पूरी दुनिया को बाहर कर देता है

जिसकी पहली दीवार
मेरे और तुम्हारे बीच खड़ी होती है
फिर दूसरी तीसरी और चौथी
और फिर एक छत
जो आसमान की कृपाओं के विरुद्ध
हमारा जवाब है

घर
जिसमें एक दरवाजा होता है
जहाँ हम कुत्तों और बिल्लियों के लिए
डंडा लेकर खड़े होते हैं
और संसार भर में फैले
अपने शत्रुओं को ललकारते हैं

घर जिसमें एक खिड़की होती है
जहाँ से झांककर हम
शत्रु-पक्ष की तैयारियां देखते हैं
और उंगली घुमाकर
हवा में उड़ता रक्त चखते हैं

घर
जिसकी चौखट पर हम एक बटन लगाते हैं
जिससे सुबह गायत्री मन्त्र बजता है
और शाम को हनुमान चालीसा

वह घर
जो भूमि-गर्भ में खौलते लावे की छाती पर
ठेंगे की तरह खड़ा है
उस घर को मैं
जिजीविषा का प्रतीक कहता
पर तुमने उसे जाने किस जादू से
लालसा का दुर्ग बना दिया

अकसर वहां घुसते हुए मुझे भय लगता है.







नाकाम ही

नाकाम ही,
हाँ सिर्फ नाकाम ही
होते हैं अलग
यह नियम है.

जैसे कि यह भी एक नियम है
कि हर कामयाब
बूँद की तरह सीधे
समुद्र में गिर जाता है
समुद्र सामान्य के सौमनस्य का

उन तमाम खूबसूरतियों का
जिनसे धीरे-धीरे करके मुख्यधाराएं बनती हैं
मुख्यधाराएं कामयाब क़दमों की
कदम जो छातियों को सड़क बनाते हुए जाते है
सड़के जो अंततः मंजिलों पर पहुँच ही जाती हैं
जो उन जंगलों की तरह नहीं
जहाँ भटकते-रुकते-ठहरते-चलते
नाकाम जाने कितने
होते होते होते जाने क्या-क्या
हो जाते हैं नाकाम
छोड़ते-त्यागते-इनकार करते
धिक्कारते एक-एक नीचता को
चले जाते किसी ऐसी जगह
जहाँ रात के पिछले पहर
सिंह, सियार, सांप
सोने के अंडे देकर जाते ढेर के ढेर
और वे सुबह उठकर बिना कुछ खाए
उनके पहरे पर बैठ जाते.

तुम होते
तो क्या न कर देते उस स्वर्णिम सुबह..



तुम्हारे प्यार के लिए

दुनिया में तुम
दुनिया के लिए
अकेली भटकती फिर रही हो
अपना इतना बाद बेक-पैक

उन मासूम कन्धों पर उठाये
जिन पर मेरे काले होंटों के निशान अब तक हरे होंगे

मेरी नन्हीं जान
मैं कैसे तुम्हें बताऊँ
कि ये समूची दुनिया
तुम्हारे घुटनों के प्यालों से बड़ी नहीं है

जहाँ से उठकर
दर्द की लहरें
मेरे इस इतने बेडौल
और बेहूदा
सिर के ऊपर जाकर हर वक्त चीखती हैं

सुनो
मेरे बाबू
जहाँ भी हो, आ जाओ
मुझे तुम्हारे तलुओं को चूमना

और उस घमंडी उंगली को चूसना है
जो हमेशा ऊपर मुंह करके
तुम्हें हैरानी में घूरती रहती है
मेरी तरह

मेरे बच्चे, मेरी अम्मू
आ जाओ
तुम्हारे पेट पर सोने के इंतिजार में
मेरी मौत
कब से बैठी ऊंघ रही है

आ जाओ
और सुनो
उस राक्षस के लिए भी
हमें युद्ध नहीं, बस प्यार करने की जरूरत है
जिसकी इस देश के संडासों, पार्कों और बूचड़खानों पर इतनी गंभीर हुकूमत है

वह मर जाएगा
नहीं तो हमारा प्यार उसे मार देगा.








भाषा जानती है

कबूतर को पता है न कोयल को
आम को पता है न पीपल को
उस बूढ़ी अम्मा को भी नहीं पता
जिसका फोटो पहले लिया
तुमने
और फिर लिखी कविता


कोई नहीं जानता
कि कितना झूठ बोला
तुमने
कितने शब्द
अपने मांस से बनाए
और कितने
औरों की हड्डियों से नोचे
और कितने बस उठा लिए
पड़े हुए रस्ते में
और खोंस लिये मुकुट में

पर भाषा जानती है
एक दिन वह बैठी दिखेगी तुम्हें
मंच के नीचे
झुटपुटे में
शाप उच्चारती हुई
और लोग दूर खड़े देखेंगे तुम्हें
थरथराकर गिरते हुए.



1 टिप्पणी:

  1. सभी कविताएं सुंदर। नवदेशभकत बहुत ज्यादा अच्छी लगी।

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