सोनिया गौड़ की कविताएं
मैं क्यों लिखती हूं
कविता मेरे लिए गहन एकांत में किया गया अंतस और बाह्य का संवाद है।
मेरी रचना प्रक्रिया कोई अलग सी नहीं है। कोई भी घटना, दृश्य या अंतर में उठे प्रश्न कविता का विषय बन जाते हैं। मैं देर तक उसमें डूबती हूँ, उसे जीती हूँ और उसमें स्वयं को समो कर उसे शब्द देने की कोशिश करती हूं। कविता अंततः अपने से किया गया संवाद या कहें अंतर का संवाद है जो हमें अपने को अंतर और बाह्य से जोड़ता है और एक नई दुनिया बनाने में हमारी मदद करता है। कविता कम से कम शब्दों का आश्रय ले, उसमें व्यंजना आये और वह बिम्बों में अपना रूप ग्रहण करे, इसकी कोशिश रहती है। अपनी रचना प्रक्रिया पर इस से ज्यादा कहना ज्यादती है क्योंकि पाठक खुद समझ लेता है कि कविता सृजन में कवि कहाँ और कितना अपने भीतर उत्तर पाया है और कितना स्वयं को पा सका है। यही स्वयं को पा सकने की ईमानदार कोशिश मेरे जाने कविता का सार्थक होना है क्योंकि इसीमें कवि का भीतर और बाहर का संसार आकार लेता है।
सोनिया गौड़
कविताएँ
ईश्वर जब मुस्काये
बकवास करना कला नही आदत है
शांत रहना मजबूरी नहीं खुद से बेवफाई है
पहाड़ों से ज्यादा बेवफ़ा कौन?
जो अक्सर मौन होते हैं।
नदियाँ शांत नही बैठती
पहाड़ों के बीच से गुजरते हुए तोड़ती हैं उनका मौन
पहाड़ों का टूटना, दरकना, धसकना,
नादियों के साथ वार्तालाप है ,जो टूटे हुए मौन का सुबूत भी है।
शब्दों के दैत्य आग के हैं, जो ईश्वर बनने की फ़िराक़ मे
हल्ला कर रहे हैं
आजका बेवफा कवि शांत है, सूरज ठठा के हंस रहा है!
बुरी आदत कितनी ढीठ है!
चिड़िया कभी शांत नही रहतीं चहकती हैं
बैंजनी बारिश होती है, छिप जाता है सूरज
बुझ रही बिला वजह की आग
शांति से कवि प्रेम गीत गुनगुना रहा है।
ईश्वर अपनी खिड़की से झांकते हुए
अपने सलामती पर मुस्करा रहे हैं।
चवन्नी सरीखी आसिफा
क्यों जीवित हैं औरतें
उन्हें ख़त्म हो जाना चाहिए....
जैसे ख़त्म हो रहे हैं बाज़ार में रुपये!
महंगाई की तरह बढ जाएँ
संसार के तमाम पुरुष
और उनकी इच्छाएं उनके बदन पर उग जाएं
धूर्त काँटो की तरह
छोड़ देना चाहिए सभी धूर्तों को
नीच एकांत के बीच जो पसरा पड़ा है
उम्रदराज पहाड़ों पर
बिखरना चाहिए इन नीचों के बीच
लुप्त हुई चवन्नियों की आत्माओं को
जिनकी आँतो तक सेंधमारी की थी इन्होंने
यही वह जगह होगी
जहाँ नन्ही बच्चियाँ पंखुड़ियों से स्वर्ग जाते समय
फूलों की सभ्यता का अंत बलात्कार बता के जायेगीं
तुम कल फिर आना
अमलतास की कलियों के झूमर पर
जब गिरती है टुकड़ा टुकड़ा धूप
तितलियों के परों से खिल उठते हैं सुर्ख पीले फूल,
आसमान दहकने लगता है गुलमोहर की आंच से
बादल के दो टुकड़े ठहर जाते हैं... पहाड़ों के बीच
काफी बात कर चुकने के बाद तुम रखते हो मेरे कंधे पर हाथ
मानो झुकती हैं अखरोट के फूलों से लदी डाल
नदी मुस्कराने लगती हैं।
और कहते हो तो अब चलूं मैं इस आभासी दुनिया से
पतझड़ के फूलों के झड़ने का शोर कानो तक आता है
घास में उगे जंगली फूल मुरझा जाते हैं
उदासी की गहराइयाँ खामोशी बनकर होठों पर छा जाती हैं
बारिश की दो बूंदे उठा के तुम खामोशी में रख देते हो।
कल मिलना ठीक आज की तरह, मैं कहती हूँ
धूप का पहला चुम्बन पाकर खिलते हैं कपासी फूल
तुम बारिश की बूंदें पी जाते हो।
नदी की मुस्कान वसन्त की तरह खिल जाती है
आलोचक इन दिनों
वह खुद को आर्ट हिस्टोरियन कहता है
और बना देता है शब्दों को बेवकूफ
समकालीन के नाम पर साहित्य के
अड्डे तैयार करना
धुएं के छल्ले बनाकर गोष्ठियां में
मठों की दीवार बनाना और पान की पीक से
नए विज्ञापन को मैला करना
यही है आलोचक का काम इन दिनों
घूँट घूँट चाय शराब की तरह पीता है
जुगनुओं को भय के अँधेरे में उड़ाते हुए
कच्ची मठों की जर्जर दीवारों के बीच खड़े होकर
अपनी दाढ़ी को खुजलाते हुए कुटिलता से बोलता है-
सुनो जुगनुओं अभी अधकच्ची है तुम्हारी रौशनी,
तुम्हारे परों पर आलोचना के नाम पर निंदा के बम फिट करूंगा,
और उड़ा दूंगा, तुम्हारी बिसात
मूर्ख है
कई नए जुगनू प्रयोगवाद के पंखों को लगा कर उड़ते नजर आते है, जो भय के अँधेरे को लील रहे हैं!
क्रोध में बिलबिलाता आर्ट हिस्टोरियन कबीर की तरह दाढ़ी खुजलाता रह जाता है
चाय का घूँट घूँट नशा उस पर शराब की तरह चढ़ रहा है
नए विज्ञापन लिखे जा रहे हैं
माँ ने गलत सिखाया है
अगर मेरी कविता पढ़ते वक़्त
नज़र आये मेरा दुःख
उसे बहने देना दिल में
ये दर्द मेरी जैसी असभ्य औरतों का दुःख होगा।
जो आज तक न समझ पाई पुरुष स्त्री का भेद!
तुम सिखा सकती थी इस भेद को कुछ यूँ, जैसे
फसल अपने भीतर छुपाये रहती है अनाज
अपनी देह को तपाते हुए पैदा करती है गेँहू-धान
ऐसी ही होती है औरत जो दर्द में होकर भी पैदा करती हैं पुरुष!
पर तुम बोली धीरे बोलो भइया तो लड़का है
तुम ठहरी लड़की
समाज की जुबान फुसफुसी है लेकिन कान तेज हैं।
पहली दफ़ा जब पेट दर्द और शरीर में महसूस किया था चट्टानों के भार को
तुम मुझे समझा सकती थी की औरत भी ब्रह्मा है
तुम मुझे अचार में फैली फफूँद और पूजाघर की सरहदों के बारें में समझाती रही।
और समाज फुसफुसाता रहा
एक और अछूत के बढ़ जाने पर
तुम मुझे रात और दिन का भेद समझा सकती थी
जब उम्र मुझमें घोड़े की तरह सवार थी
तुमने लगा दीं मेरे खेलने पर पाबंदी
मुझे मुझसे लड़ने के लिए छोड़ दिया अकेला
मैं देखती रही बिखरते हुए कई लड़कियों को सड़कों पर रात में
जो मासूम सुबह तक बेशर्म अख़बार की सुर्खियां बन गई
माँ तुम्हारा समाज चोर है जो फुसफुसा के भाग जाता है
मैं सिपाही की तरह उसे खोज रही हूँ
और तुम आज तक उसकी भयानक तस्वीर दिखा के
मुझे डरा रही हो।
मैं महसूस कर रही हूँ तुममें दर्द नही पैदा हुआ
मुझ जैसी असभ्य औरत को समझने का
ब्रेस्टकैंसेर
(ब्रेस्टकैंसर से पीड़ित सभी महिलाओं को समर्पित)
पृथ्वी सी चंचल मेरी देह में
उसे पसंद थी मेरी दोनों धुरियां
ये धुरियां जिंदगी में डूब कर
ऋतुएं बना रही थी
वो अक्सर खो जाता था ठंडी-गर्म
ऋतुओं के बीच,
और देखता था वहां से निकलती दूध की नदियों को
जिसकी याद अब तक मेरे बच्चे के होंठो पर है
ऋतुएं डूबती रहीं परिवर्तन की गर्म बाल्टी में
उभर आई धुरियों में दो पॉपकॉर्न सी गांठे
पृथ्वी सुन्न!
जड़ से काट दी गई गांठों वाली धुरियां
छूट गया दूध की सूखी नदी का निशान
और एक सपाट मैदान
जब कोई कहता था पृथ्वी का अंत निकट है
वो उम्मीदों की हंसी घोलता है और कहता-
तुम दुनिया की सबसे सुन्दर गंजी औरत हो
दर्द की अनंत गुफाओं को पार कर मैं बाहर निकली
क्योंकि पृथ्वी की गति बंद नहीं होती
वह सूर्य के चक्कर काटती रहती है
हाँ मौत सहम के जीवन के अंत में जरूर खड़ी हो जाती है
सूखी नदियों के निशान ताकते ताकते जीवन ठहर जाता है
मेरा बेटे के होंठो में खिल जाते हैं धुरियों की यादों के फूल
उसके मुस्कराने से मौसम बदल रहा है।
सफेद घोंडों का दौड़ना
खिलना असंख्य फूलों का
ये फूल अंधकार में उजाले की व्यवस्था हैं
तुम मुझे इसी सपने के अंत मे मिले
थोड़ा हंसते हुए
उदास ज्यादा
तुम्हारी हँसी से थोड़ी हँसी समेटी
उदासियाँ को पूरा समेटना मेरा प्यार था
अब तक की तुम्हारी यही कमाई थी
प्रतीक्षा अंत नही
शरुआत है समर्पण की
मेरी स्वीकृति जीवन है
तुम्हारी हँसी मुझमें आकाश की तरह फैल रही है
ये फैलाव तुम्हारा आधा चुम्बन है
मेरे प्रेम का तुम्हारी देह में सिमटना
मेरे होंठों का पूर्ण स्पर्श
निर्वासन
मेरा बेटा अक्सर पिता को पुकारता है
मैं उसे हंसिये जैसा धारधार चाँद दिखाती हूँ
चाँद की परछाई मुझ पर पड़ती है
दर्द के नीले निशान उभर आते हैं
चाँद एक पुरुष है
जो कर्कश आवाज में बोलता है
निकलो आसमानी घर से
हंसिये की खरोच से
घायल हैं मेरी हथेलियाँ
मेरा बेटा चाँद नहीं देखता
धरती में टंके सितारे देखता है
जो मैंने काढ़े हैं
अब वो माँ पुकारता है
चश्मा
तुमसे पहले देखा था मैंने तुम्हारा चश्मा जो गुम गया कहीं
उसके बाद सुनी तुम्हारी आवाज जो ठहर गई मुझमें
तुमको महसूस करते हुए देखा तुम्हारा दर्द
जो हिस्सा था देह का
तुम्हारी देह के उस नीले हिस्से को
मन ही मन मैंने जीभर चूमा
सोचती हूँ तुमने क्या देखा होगा मुझमें...
मेरा दर्द, मेरी देह...
या कुछ और...
जिसे तुम्हारी आवाज़ और चश्मे में मैं देख नहीं पाई ...
मैंने तुमको अपना दिल सौंपा तुमने उसे शहद समझा
किचन की रैक में रखे कांच के मर्तबान में तुम इन दिनों शहद देखते हो जो तेज तेज धड़कता है
तुम्हारी लाइब्रेरी में एक किताब के नीचे धूल खाता
तुम्हारे ही इंतज़ार में तुम्हारा चश्मा सब कुछ देखता है
निर्वासन के बाद देहकोठरी
यूँहि नही सूखते हरे-भरे पेड़
उनकी जड़ों में भर दिया जाता है नमक
वाचाल आवाज़ें कर दी जाती हैं गूंगी
चुटकी भर सिंदूर काफी होता है
घर में अव्यवस्था सब देखते हैं
पैरों में लगे पँख कोई नहीं देखता
उड़ान भरने का ख़्वाब भर देखो
आकाश की गुफाओं में फ़ैल जाती है आग
जब भी विमर्श करती हूं मैं औरतों पर देह समझी जाती हैं वो
जबकि वक़्त है लोहे की आंख से चुम्बक के ख़्वाब देखने का
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परिचय
नाम:- सोनिया बहुखंडी गौड़
जन्म:- 21 अप्रैल, 1982
शिक्षा:- परास्नातक जनसंपर्क एवं पत्रकारिता
परास्नातक (प्राचीन इतिहास)
पैतृक निवास:- उत्तराखंड (किमोली, कल्जीखाल)
वर्तमान में मुम्बई में निवास।
सम्प्रति:- स्वतंत्र लेखन कार्य
रचनाधर्मिता:-
लेखन कार्य छात्रजीवन से ही। परास्नातक के पश्चात पत्रकारिता की ओर रुझान। यह सफर ई0टी0वी0 हैदराबाद से शुरू हुआ ,साहित्य में रुचि होने के कारण नौकरी छोड़ दिया।
हिन्दयुग्म प्रकाशन से प्रकाशित मेरे संपादन में दो संयुक्त काव्य संग्रह:- " विराहगीतिका" एवं "धूप के रंग"
एकल काव्य संग्रह शीघ्र प्रकाश्य।
कई पत्र-पत्रिकाओं व ब्लॉग्स में कविताएं प्रकाशित
संपर्क सूत्र:- 160/4, जे0के0 कॉलोनी, जाजमऊ कानपुर- २08010
कांटेक्ट:- 9887898879
Soniyabgaur@gmail.com
सोनिया गौड़ |
मैं क्यों लिखती हूं
कविता मेरे लिए गहन एकांत में किया गया अंतस और बाह्य का संवाद है।
मेरी रचना प्रक्रिया कोई अलग सी नहीं है। कोई भी घटना, दृश्य या अंतर में उठे प्रश्न कविता का विषय बन जाते हैं। मैं देर तक उसमें डूबती हूँ, उसे जीती हूँ और उसमें स्वयं को समो कर उसे शब्द देने की कोशिश करती हूं। कविता अंततः अपने से किया गया संवाद या कहें अंतर का संवाद है जो हमें अपने को अंतर और बाह्य से जोड़ता है और एक नई दुनिया बनाने में हमारी मदद करता है। कविता कम से कम शब्दों का आश्रय ले, उसमें व्यंजना आये और वह बिम्बों में अपना रूप ग्रहण करे, इसकी कोशिश रहती है। अपनी रचना प्रक्रिया पर इस से ज्यादा कहना ज्यादती है क्योंकि पाठक खुद समझ लेता है कि कविता सृजन में कवि कहाँ और कितना अपने भीतर उत्तर पाया है और कितना स्वयं को पा सका है। यही स्वयं को पा सकने की ईमानदार कोशिश मेरे जाने कविता का सार्थक होना है क्योंकि इसीमें कवि का भीतर और बाहर का संसार आकार लेता है।
सोनिया गौड़
कविताएँ
ईश्वर जब मुस्काये
बकवास करना कला नही आदत है
शांत रहना मजबूरी नहीं खुद से बेवफाई है
पहाड़ों से ज्यादा बेवफ़ा कौन?
जो अक्सर मौन होते हैं।
नदियाँ शांत नही बैठती
पहाड़ों के बीच से गुजरते हुए तोड़ती हैं उनका मौन
पहाड़ों का टूटना, दरकना, धसकना,
नादियों के साथ वार्तालाप है ,जो टूटे हुए मौन का सुबूत भी है।
शब्दों के दैत्य आग के हैं, जो ईश्वर बनने की फ़िराक़ मे
हल्ला कर रहे हैं
आजका बेवफा कवि शांत है, सूरज ठठा के हंस रहा है!
बुरी आदत कितनी ढीठ है!
चिड़िया कभी शांत नही रहतीं चहकती हैं
बैंजनी बारिश होती है, छिप जाता है सूरज
बुझ रही बिला वजह की आग
शांति से कवि प्रेम गीत गुनगुना रहा है।
ईश्वर अपनी खिड़की से झांकते हुए
अपने सलामती पर मुस्करा रहे हैं।
चवन्नी सरीखी आसिफा
क्यों जीवित हैं औरतें
उन्हें ख़त्म हो जाना चाहिए....
जैसे ख़त्म हो रहे हैं बाज़ार में रुपये!
महंगाई की तरह बढ जाएँ
संसार के तमाम पुरुष
और उनकी इच्छाएं उनके बदन पर उग जाएं
धूर्त काँटो की तरह
छोड़ देना चाहिए सभी धूर्तों को
नीच एकांत के बीच जो पसरा पड़ा है
उम्रदराज पहाड़ों पर
बिखरना चाहिए इन नीचों के बीच
लुप्त हुई चवन्नियों की आत्माओं को
जिनकी आँतो तक सेंधमारी की थी इन्होंने
यही वह जगह होगी
जहाँ नन्ही बच्चियाँ पंखुड़ियों से स्वर्ग जाते समय
फूलों की सभ्यता का अंत बलात्कार बता के जायेगीं
तुम कल फिर आना
अमलतास की कलियों के झूमर पर
जब गिरती है टुकड़ा टुकड़ा धूप
तितलियों के परों से खिल उठते हैं सुर्ख पीले फूल,
आसमान दहकने लगता है गुलमोहर की आंच से
बादल के दो टुकड़े ठहर जाते हैं... पहाड़ों के बीच
काफी बात कर चुकने के बाद तुम रखते हो मेरे कंधे पर हाथ
मानो झुकती हैं अखरोट के फूलों से लदी डाल
नदी मुस्कराने लगती हैं।
और कहते हो तो अब चलूं मैं इस आभासी दुनिया से
पतझड़ के फूलों के झड़ने का शोर कानो तक आता है
घास में उगे जंगली फूल मुरझा जाते हैं
उदासी की गहराइयाँ खामोशी बनकर होठों पर छा जाती हैं
बारिश की दो बूंदे उठा के तुम खामोशी में रख देते हो।
कल मिलना ठीक आज की तरह, मैं कहती हूँ
धूप का पहला चुम्बन पाकर खिलते हैं कपासी फूल
तुम बारिश की बूंदें पी जाते हो।
नदी की मुस्कान वसन्त की तरह खिल जाती है
आलोचक इन दिनों
वह खुद को आर्ट हिस्टोरियन कहता है
और बना देता है शब्दों को बेवकूफ
समकालीन के नाम पर साहित्य के
अड्डे तैयार करना
धुएं के छल्ले बनाकर गोष्ठियां में
मठों की दीवार बनाना और पान की पीक से
नए विज्ञापन को मैला करना
यही है आलोचक का काम इन दिनों
घूँट घूँट चाय शराब की तरह पीता है
जुगनुओं को भय के अँधेरे में उड़ाते हुए
कच्ची मठों की जर्जर दीवारों के बीच खड़े होकर
अपनी दाढ़ी को खुजलाते हुए कुटिलता से बोलता है-
सुनो जुगनुओं अभी अधकच्ची है तुम्हारी रौशनी,
तुम्हारे परों पर आलोचना के नाम पर निंदा के बम फिट करूंगा,
और उड़ा दूंगा, तुम्हारी बिसात
मूर्ख है
कई नए जुगनू प्रयोगवाद के पंखों को लगा कर उड़ते नजर आते है, जो भय के अँधेरे को लील रहे हैं!
क्रोध में बिलबिलाता आर्ट हिस्टोरियन कबीर की तरह दाढ़ी खुजलाता रह जाता है
चाय का घूँट घूँट नशा उस पर शराब की तरह चढ़ रहा है
नए विज्ञापन लिखे जा रहे हैं
माँ ने गलत सिखाया है
अगर मेरी कविता पढ़ते वक़्त
नज़र आये मेरा दुःख
उसे बहने देना दिल में
ये दर्द मेरी जैसी असभ्य औरतों का दुःख होगा।
जो आज तक न समझ पाई पुरुष स्त्री का भेद!
तुम सिखा सकती थी इस भेद को कुछ यूँ, जैसे
फसल अपने भीतर छुपाये रहती है अनाज
अपनी देह को तपाते हुए पैदा करती है गेँहू-धान
ऐसी ही होती है औरत जो दर्द में होकर भी पैदा करती हैं पुरुष!
पर तुम बोली धीरे बोलो भइया तो लड़का है
तुम ठहरी लड़की
समाज की जुबान फुसफुसी है लेकिन कान तेज हैं।
पहली दफ़ा जब पेट दर्द और शरीर में महसूस किया था चट्टानों के भार को
तुम मुझे समझा सकती थी की औरत भी ब्रह्मा है
तुम मुझे अचार में फैली फफूँद और पूजाघर की सरहदों के बारें में समझाती रही।
और समाज फुसफुसाता रहा
एक और अछूत के बढ़ जाने पर
तुम मुझे रात और दिन का भेद समझा सकती थी
जब उम्र मुझमें घोड़े की तरह सवार थी
तुमने लगा दीं मेरे खेलने पर पाबंदी
मुझे मुझसे लड़ने के लिए छोड़ दिया अकेला
मैं देखती रही बिखरते हुए कई लड़कियों को सड़कों पर रात में
जो मासूम सुबह तक बेशर्म अख़बार की सुर्खियां बन गई
माँ तुम्हारा समाज चोर है जो फुसफुसा के भाग जाता है
मैं सिपाही की तरह उसे खोज रही हूँ
और तुम आज तक उसकी भयानक तस्वीर दिखा के
मुझे डरा रही हो।
मैं महसूस कर रही हूँ तुममें दर्द नही पैदा हुआ
मुझ जैसी असभ्य औरत को समझने का
ब्रेस्टकैंसेर
(ब्रेस्टकैंसर से पीड़ित सभी महिलाओं को समर्पित)
पृथ्वी सी चंचल मेरी देह में
उसे पसंद थी मेरी दोनों धुरियां
ये धुरियां जिंदगी में डूब कर
ऋतुएं बना रही थी
वो अक्सर खो जाता था ठंडी-गर्म
ऋतुओं के बीच,
और देखता था वहां से निकलती दूध की नदियों को
जिसकी याद अब तक मेरे बच्चे के होंठो पर है
ऋतुएं डूबती रहीं परिवर्तन की गर्म बाल्टी में
उभर आई धुरियों में दो पॉपकॉर्न सी गांठे
पृथ्वी सुन्न!
जड़ से काट दी गई गांठों वाली धुरियां
छूट गया दूध की सूखी नदी का निशान
और एक सपाट मैदान
जब कोई कहता था पृथ्वी का अंत निकट है
वो उम्मीदों की हंसी घोलता है और कहता-
तुम दुनिया की सबसे सुन्दर गंजी औरत हो
दर्द की अनंत गुफाओं को पार कर मैं बाहर निकली
क्योंकि पृथ्वी की गति बंद नहीं होती
वह सूर्य के चक्कर काटती रहती है
हाँ मौत सहम के जीवन के अंत में जरूर खड़ी हो जाती है
सूखी नदियों के निशान ताकते ताकते जीवन ठहर जाता है
मेरा बेटे के होंठो में खिल जाते हैं धुरियों की यादों के फूल
उसके मुस्कराने से मौसम बदल रहा है।
सफेद घोंडों का दौड़ना
खिलना असंख्य फूलों का
ये फूल अंधकार में उजाले की व्यवस्था हैं
तुम मुझे इसी सपने के अंत मे मिले
थोड़ा हंसते हुए
उदास ज्यादा
तुम्हारी हँसी से थोड़ी हँसी समेटी
उदासियाँ को पूरा समेटना मेरा प्यार था
अब तक की तुम्हारी यही कमाई थी
प्रतीक्षा अंत नही
शरुआत है समर्पण की
मेरी स्वीकृति जीवन है
तुम्हारी हँसी मुझमें आकाश की तरह फैल रही है
ये फैलाव तुम्हारा आधा चुम्बन है
मेरे प्रेम का तुम्हारी देह में सिमटना
मेरे होंठों का पूर्ण स्पर्श
निर्वासन
मेरा बेटा अक्सर पिता को पुकारता है
मैं उसे हंसिये जैसा धारधार चाँद दिखाती हूँ
चाँद की परछाई मुझ पर पड़ती है
दर्द के नीले निशान उभर आते हैं
चाँद एक पुरुष है
जो कर्कश आवाज में बोलता है
निकलो आसमानी घर से
हंसिये की खरोच से
घायल हैं मेरी हथेलियाँ
मेरा बेटा चाँद नहीं देखता
धरती में टंके सितारे देखता है
जो मैंने काढ़े हैं
अब वो माँ पुकारता है
चश्मा
तुमसे पहले देखा था मैंने तुम्हारा चश्मा जो गुम गया कहीं
उसके बाद सुनी तुम्हारी आवाज जो ठहर गई मुझमें
तुमको महसूस करते हुए देखा तुम्हारा दर्द
जो हिस्सा था देह का
तुम्हारी देह के उस नीले हिस्से को
मन ही मन मैंने जीभर चूमा
सोचती हूँ तुमने क्या देखा होगा मुझमें...
मेरा दर्द, मेरी देह...
या कुछ और...
जिसे तुम्हारी आवाज़ और चश्मे में मैं देख नहीं पाई ...
मैंने तुमको अपना दिल सौंपा तुमने उसे शहद समझा
किचन की रैक में रखे कांच के मर्तबान में तुम इन दिनों शहद देखते हो जो तेज तेज धड़कता है
तुम्हारी लाइब्रेरी में एक किताब के नीचे धूल खाता
तुम्हारे ही इंतज़ार में तुम्हारा चश्मा सब कुछ देखता है
निर्वासन के बाद देहकोठरी
यूँहि नही सूखते हरे-भरे पेड़
उनकी जड़ों में भर दिया जाता है नमक
वाचाल आवाज़ें कर दी जाती हैं गूंगी
चुटकी भर सिंदूर काफी होता है
घर में अव्यवस्था सब देखते हैं
पैरों में लगे पँख कोई नहीं देखता
उड़ान भरने का ख़्वाब भर देखो
आकाश की गुफाओं में फ़ैल जाती है आग
जब भी विमर्श करती हूं मैं औरतों पर देह समझी जाती हैं वो
जबकि वक़्त है लोहे की आंख से चुम्बक के ख़्वाब देखने का
00
परिचय
नाम:- सोनिया बहुखंडी गौड़
जन्म:- 21 अप्रैल, 1982
शिक्षा:- परास्नातक जनसंपर्क एवं पत्रकारिता
परास्नातक (प्राचीन इतिहास)
पैतृक निवास:- उत्तराखंड (किमोली, कल्जीखाल)
वर्तमान में मुम्बई में निवास।
सम्प्रति:- स्वतंत्र लेखन कार्य
रचनाधर्मिता:-
लेखन कार्य छात्रजीवन से ही। परास्नातक के पश्चात पत्रकारिता की ओर रुझान। यह सफर ई0टी0वी0 हैदराबाद से शुरू हुआ ,साहित्य में रुचि होने के कारण नौकरी छोड़ दिया।
हिन्दयुग्म प्रकाशन से प्रकाशित मेरे संपादन में दो संयुक्त काव्य संग्रह:- " विराहगीतिका" एवं "धूप के रंग"
एकल काव्य संग्रह शीघ्र प्रकाश्य।
कई पत्र-पत्रिकाओं व ब्लॉग्स में कविताएं प्रकाशित
संपर्क सूत्र:- 160/4, जे0के0 कॉलोनी, जाजमऊ कानपुर- २08010
कांटेक्ट:- 9887898879
Soniyabgaur@gmail.com
हर कवि/कवियित्री की अपनी एक कहन शैली होती है सोनिया जी इस बात को अपनी कविताओं के माध्यम से ठीक ढंग से परिभाषित करती हैं । उनकी कविताओं में स्त्री-पक्षधरता का स्वर मुखर हुआ है । कविताएँ निर्वासन,ब्रेस्ट कैंसर ,निर्वासन के बाद देह कोठरी सुंदर कविताएँ हैं । सोनिया को बधाई ।
जवाब देंहटाएंआभार रमेश जी, मैंने अपनी ओर से बहुत ईमानदारी से कविता लिखी है आपने मेरी ईमानदारी को समझा आभारी हूं
हटाएंचवन्नी सरीखी आसिफा भी महत्वपूर्ण कविता है
जवाब देंहटाएं'निर्वासन' और 'आसिफ़ा' हमारे समय का आख्यान है. अच्छी कविताएँ, सोनिया जी को शुभकामनाएँ.
जवाब देंहटाएंआभार रंजना जी
हटाएंसभी कविताएं नहीं पढ़ी जा सकती इन कविताओं में मौलिकता की कमी और पढ़े हुए तमाम कवियों का प्रभाव है कुछ उपमाएं मानो चौकाने के लिए इस्तेमाल की गई है. कुछ यह बताने के लिए कि हम भी पढ़े लिखे हैं. चवन्नी सरीखी आसिफा कविता इस सब का बहुत ज्यादा शिकार है ब्रेस्ट कैंसर पर लिखी कविता अच्छी हो सकती थी मगर भटक गई किसी भी विधा में ईमानदारी बहुत ज्यादा जरूरी है.
जवाब देंहटाएंयाद दिखने के लिए आभार की मैं पढ़ीलिखी हूँ। और अठन्नी सरीखों की बातों को गौर ही नहीं करती। और ना ही तमाम लोगों को जबरन झोली में रख के चलने का मेरा शौक। अफ़सोस इस बात का है आलोचना आपको नहीं आई आप मात्र निंदा कर रहे हैं, जोकि वास्तव में हास्यस्पद है
हटाएंआप नये प्रतीक गढ़ लेती हैं।यह वह चीज है जिसने आपकी कविताओं को रोचक बनाती है। शुरू से अंत तक पूरी कविता मैं पढ़ लेता हूँ, लेकिन कथ्य की पहचान करने में असमर्थ रहता हूँ। यह बात प्रत्येक कविता में है। तब भी आपकी कविता में महीन बुनावट आपकी विशेषता है।
हटाएं