image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

27 मई, 2018

परख: एक

मित्रों, 
आज से बिजूका ब्लॉग पर हम ' परख ' नाम से कालम शुरु कर रहे हैं। प्रत्येक रविवार को प्रकाशित होने वाले इस कालम में पत्र-पत्रिकाओं और संग्रहों में प्रकाशित नयी-पुरानी रचनाओं पर बात होगी। परख के नियमित लेखक साथी गणेश गनी है। 
सत्यनारायण पटेल
००
                 कविता की नेमप्लेट

     ( देश के दो बड़े कवि के नाम खुला पत्र )

गणेश गनी

पहल से मेरा नाता 91वें अंक से जुड़ा। जब लम्बे अंतराल के बाद पहल 91 आई तो कुल्लू में भी साहित्य के गम्भीर पाठकों के बीच हलचल सी मच गई। हम तीन दोस्त कुल्लू से 70 किलोमीटर दूर मंडी पहल खरीदने के लिए भागे भागे गए। आप हमारी जिज्ञासा समझ सकते हैं।आज पहल103 पढ़ रहा हूँ।मुझे कविताएं पढ़ने का चस्का है, इसलिए पत्रिकाओं में सबसे पहले कविताएं पढ़ता हूं। इसी वर्ष कथादेश के एक अंक में मैंने आनन्द हरषुल का एक फ़िल्म अलीगढ़ पर आलेख पढ़ा, एक वाक्य ने बेहद प्रभावित किया- कविता शब्दों में नहीं होती, वह शब्दों के बीच के अंतराल में होती है। मुझे कवि विजेंद्र की एक बात हमेशा याद आती है कि कविता साहित्य की उत्कृष्ट विधा है।


गणेश गनी


हिंदी पत्रिकाओं के सम्पादक कविता को जैसे मजबूरी में छापते हैं। कुछ पत्रिकाएं तो कविता को अंतिम पृष्ठों पर धकेल देती हैं। हालांकि पहल में कविता को एकदम उचित स्थान पर रखा गया है। परंतु दुःख इस बात का है कि बहुत बार बेहतरीन कविताएं पढ़ने को नहीं मिलतीं। शब्दों के अंतराल में तो छोड़िये, शब्दों में ही कविता नहीं मिलती। कविता के छोटे छोटे वाक्यों के टुकड़ों को यदि एक साथ जोड़ दिया जाए तो निबंध, आलेख या ख़बर जैसा कुछ बन जाता है।

परंतु आज मैं यहां पहल 100, 103 और 108 में क्रमशः देवी प्रसाद मिश्र और मंगलेश डबराल जैसे देश के दो बड़े कवियों की कविताओं पर उनसे बात करने का साहस कर रहा हूँ। हालांकि इसके बाद क्या होगा वो भी मैं जानता हूँ।

यहां मैं उन लम्बे लम्बे वाक्यों वाली कविताओं के बारे पूछना चाहता हूं जिन्हें अविनाश मिश्र गद्य कविताएं कहते हैं। गद्य कविता भी तो कविता लगनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं है तो फिर पहल 103 में सब कुछ कविता है- क्षणिका, छोटी कविता, लम्बी कविता, गद्य कविता, कथा कविता, आलेख कविता आदि आदि।

पहल 100 में आदरणीय देवी प्रसाद मिश्र के बेहद खूबसूरत गद्य को कविता बताकर छापा गया है-


देवी प्रसाद मिश्र


बोझ:

आदमी रास्ते किनारे अपने बोझ के पास बैठा था कि कोई आए तो उसकी मदद से वह बोझ को सिर पर उठा कर रख सके। कोई नहीं आ रहा था। एक आदमी दिखा। लेकिन उसके सिर पर बोझ था। उसने इंतजार करते आदमी से कहा कि वह उसका बोझ उतरवा दे तो भला होगा......।


यह कथा लम्बी चलती है। इसके अलावा मेज़, बेहतर मनुष्य बनने के लिए दवाएं तथा किसी कम्युनिस्ट पार्टी का दफ़्तर, कविताएं भी अफ़साना, दर्शन, जैसी कविताएं मनोवैज्ञानिक निबंध जैसी प्रतीत होती हैं। ये रचनाएं बेहद खूबसूरत हैं, पर मुझे समझाएं कि ये कविताएं क्यों और कैसे हैं।

पहल103 में आदरणीय मंगलेश डबराल की ये तीन कविताएं किस आधार पर कविताएं हैं-


मदर डेयरी:

उन लाखों लोगों में से कइयों को मैं जानता हूँ जो बचपन मे मदर डेयरी या अमूल का दूध पीकर बड़े हुए और जिंदगी में जिन्होंने ठीकठाक काम किये। उनमें से कुछ और कहीं नहीं तो गृहस्थी की कला में पारंगत हुए। वे मांएं भी मैंने देखी हैं जिनके स्तनों में दूध नहीं उतरता था। लेकिन वे कर ही लेती थीं अपने बच्चों के लिए एक पैकट दूध का जुगाड़.....।


इस आलेख को ढाई पेज मिले हैं।दो और खूबसूरत निबन्धों के अंश देखें-


आंतरिक यात्रा:

मनुष्य एक साथ दो जिंदगियों में निवास करता है। एक बाहरी और एक भीतरी। एक ही समय में दो जगह होने से उसके मनुष्य होने की समग्रता का खाका निर्मित होता है। मेरा बाहरी जीवन मेरे चारों ओर फैला हुआ है.....।


तानाशाह:

तानाशाहों को अपने पूर्वजों के जीवन का अध्ययन नहीं करना पड़ता। वे उनकी पुरानी तस्वीरों को जेबो में नहीं रखते या उनके दिल का एक्सरे नहीं देखते। यह स्वतःस्फूर्त तरीके से होता है कि हवा में बन्दूक की तरह उठे उनके हाथ या बंधी हुई मुट्ठी के साथ पिस्तौल की नोक की तरह उठी हुई उंगली से कुछ पुराने तानाशाहों की याद आ जाती है......।


पहल 108 में मंगलेश डबराल की एक और रचना का ज़िक्र करना आवश्यक है-



मंगलेश डबराल


निकोटिन

अपने शरीर को रफ्तार देने के लिए सुबह-सुबह मेरा रक्त निकोटिन को पुकारता है। अर्ध-निमीलित आँखें निकोटिन की उम्मीद में पूरी तरह खुल जाती हैं। अपने अस्तित्व से और अतीत से भी यही आवाज़ आती है कि निकोटिन के कितने ही अनुभव तुम्हारे भीतर सोये हुए हैं। सुबह की हवा, खाली पेट, ऊपर धुला हुआ आसमान जो अभी गन्दा नहीं हुआ है, बचपन के उस पत्थर की याद जिस पर बैठकर मैंने पहली बीड़ी सुलगायी और देह में दस्तक देता हुआ महीन मांसल निकोटिन। जीवन के पहले प्रेम जैसे स्पंदन और धुंआ उड़ाने के लिए सामने खुलती हुई दुनिया। डॉक्टर कई बार मना कर चुके हैं कि अब आपको दिल का खयाल रखना ही होगा और मेरी बेटी बार-बार आकर गुस्से में मेरी सिगरेट बुझा देती है, लेकिन इससे क्या? मेरे सामने एक भयंकर दिन है और पिछले दिन की बुरी खबरें देखकर लगता है कि यह दिन भी कोई बेहतर नहीं होने जा रहा है और उससे लडऩे के लिए मैं सोचता हूँ मुझे निकोटिन चाहिए। मुझे पता है हिंदी का एक कवि असद जैदी अपनी एक कविता में बता चुका है कि 'तम्बाकू के नशे में आदमी दुनिया की चाल भूल जाता है'। इस दुनिया की चाल भूलने के लिए मुझे निकोटिन चाहिए। दिन भर के अत्याचारियों तानाशाहों हत्यारों से लडऩे के लिए जब मुझे कोई उपाय नहीं सूझता तो मैं निकोटिन को खोजता हूँ और फिर रात को जब दिन भर की तमाम वारदात मेरे चारों ओर काले धब्बों की शक्ल में मुझे घेरती हैं तो लगता है कि मुझे रात का निकोटिन चाहिए। सच तो यह है कि जिन चीज़ों के बल पर मैं आज तक चलता चला आया हूँ उनमें किसी न किसी तरह का निकोटिन मौजूद रहा।

                    (पहल में इसे कविता कहा गया है।)


इन रचनाओं की बुनावट और बनावट भी मुझे कविता जैसी बिल्कुल नहीं लगी। बिम्ब ताज़ा नहीं हैं, भाषा और शिल्प कविता के लिए जिस प्रकार का होना चाहिए वैसा नहीं है। कविता की ताकत ही बिम्ब हैं और यदि शिल्प और शैली नई हो तो चार चांद लग जाते हैं कविता में। इन दोनों बेहद प्रसिद्ध व बड़े समकालीन कवियों की इन रचनाओं के दरवाजे से यदि कविता की नेमप्लेट हटा दी जाए तो भी ये रचनाएं ऊंची हैं और स्मृति में छायी रहती हैं। जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि यदि इनमें कविता है तो फिर पहल 103 में तो सब कुछ कविता ही है।

हालांकि ये कविताएं तो नहीं हैं, पर कविताएं बन सकती हैं, बस वाक्यों को टुकड़ों में लिखें, आओ देखें कि विमर्श में यह आलेख कैसे कविता नहीं है-


इतिहास फैसले नहीं देता

भूमिकाएं भी नहीं बांधता

वह समय और सभ्यता की

अनिवार्य टकराहटों का एक

घनीभूत पर्यावरण भर है।

                 - सुबोध शुक्ल


नई धारा में यह आलेख भी तो कविता है। इसे क्यों आप कविता नहीं मानते फिर-


हिंदी का मिथक शब्द

अंग्रेजी के मिथ से बना है।

मिथ शब्द ग्रीक भाषा के

मिथोस से निर्मित है।।

जिसका अर्थ

कहानी या गल्प होता है।।।

मिथक शब्द की परिभाषा भी

मायावी और उलझी हुई है।।।।

             - लवली गोस्वामी


इस कहानी में भी कविता है, जब सब कुछ कविता ही है तो फिर यह कहानी कैसे-


उस रात किसी ने उसे

नाव से सरककर

तट पर आते हए नहीं देखा।

किसीने भी बांस की उस नाव को

उस पवित्र कीचड़ में धँसकर

डूब जाते हए नहीं देखा।

            - जॉर्ज लुई बोर्खेज


कहने का अभिप्राय यह है कि साहित्य, संगीत, नृत्य, प्रकृति, सब में से कविताएं निकल सकती हैं। फिर भी कविता को कविता जैसा होना चाहिए। कविता का तो शिल्प ही अनूठा है।

देवी प्रसाद मिश्र की कविता अमरता कुछ कहती है-


बहुत हुआ तो मैं बीस साल बाद मर जाऊंगा

मेरी कविताएं कितने साल बाद मरेंगी

कहा नहीं जा सकता हो सकता है वे...

मेरे मरने के पहले ही मर जाएं...।


जिन रचनाओं को मैंने कविता नहीं माना, वे कविता के अलावा सब कुछ हैं। मैंने तो केवल बनावट और बुनावट पर सवाल उठाया। यदि समय ने इन रचनाओं को कविता साबित कर दिया तो उस समय अपनी आत्मग्लानि के लिए मैं आज ही अपना माफीनामा दर्ज कर देता हूँ। फिलहाल ऐसे शब्दों की तलाश में हूं जिनके अंतराल में भी कविता खोज पाऊं।

यादवेन्द्र 


पहल के साथ सफ़र पर निकलते वक्त की याद आ रही है। मैं, अजेय और निरंजन देव कुल्लू से शाम को निकले और मंडी पहुंचते पहुंचते रात ढल चुकी थी। हमें बड़ी मुश्किल से दो प्रतियां मिलीं और थे हम तीन। मैंने तीनों में से छोटा होने का लाभ उठाया और एक प्रति पर हक जमा लिया। अजेय और निरंजन ने मिलजुल कर एक प्रति को पढ़ा। पहल 91 के पन्ने पर उदयभानु पाण्डेय के शब्द मेरी शिराओं में भी दौड़ रहे हैं-

मैं अपने वसीयतनामे में और बातें लिखना चाहता हूं, लेकिन मैं पस्त हो चुका हूँ। मेरे शरीर की एक एक शिरा थक चुकी है। फिर मेरी हिंदी भी टुटपुंजिया है। मुझे अपने धर्म और देश के प्रति वफ़ादार रहना सिखाया गया था लेकिन अब तक मैं पूरा नास्तिक हो चुका हूं और अपने देश के खिलाफ मैंने हथियार उठा लिया। अब मैं सोचता हूं कि यह रास्ता बर्बादी की तरफ ले जाएगा। अगर यह वसीयत आप लोगों के हाथ लगे तो पढ़ियेगा और सोचियेगा कि आदिवासी लोग क्यों बागी हो रहे हैं।
००

 
गणेश गनी ,कुल्लू,
 09736500069, 09817200069

नीचे लिंक पर गणेश गनी की कविताएं व लेख पढ़िए

गणेश गनी की कविताएं
http://bizooka2009.blogspot.com/2017/11/4-5-bizooka2009gmail.html


मैं क्यों लिखता हूं

http://bizooka2009.blogspot.com/2018/05/blog-post_18.html


6 टिप्‍पणियां:

  1. बेनामी27 मई, 2018 10:01

    यह वाकई कई प्रतिमानों को वास्तविकता के नजरिये से देखने की जागरूक एवं ईमानदार कोशिश है, यह प्रश्न हम सबको प्रभावित करते हैं।
    संतुलित लेख, साधुवाद पहुंचे गनी जी तक ��

    जवाब देंहटाएं
  2. बिजूका के पाठक मित्रों से यह अनुरोध है कि यहां पोस्ट की गती रचना पर आप अपने नाम से टिप्पणी करें। नाम न छुपाएं। आप पोस्ट से असहमत हों तब भी, सहमत हो तब भी। जो कहना ठीक समझें कहिए। अपने नाम से कहिए ताकि लेखक साथी भी आपके नाम से परिचित हो सके।

    जवाब देंहटाएं
  3. अपने ढंग से गणेश गनी ने प्रासंगिक सवाल उठाया है...मैं इसमें फिल्मों को भी जोड़ता हूँ जो कई बार सेल्युलाइड पर कविता रचती हैं। पर उद्धृत पंक्तियों को कविता और गद्य के तौर पर कहीं ज्यादा स्पष्ट ढंग से उद्धृत करना चाहिए था।

    जवाब देंहटाएं
  4. भाई गणेश गनी जी ने यहां जो सवाल उठाए हैं उसे हिंदी समाज किस रूप में लेगा यह कहना जरा मुश्किल है । कविता की संरचना को लेकर एक किस्म के इस रचनात्मक प्रतिरोध को सिर्फ प्रतिरोध समझ , इन सवालों को खारिज कर देने की संभावनाएं भी बन सकती हैं और इसकी गुंजाइश अधिक है । कई बार कुछ बड़े नाम देखकर भी लोग चुप्पी साध लेते हैं इसे भी रचनात्मक प्रतिरोध के विरुद्ध हिंदी समाज का एक किस्म का मूक प्रतिरोध ही माना जाना चाहिए । मेरे हिसाब से भाई गणेश गनी जी ने जो सवाल उठाए हैं वे वाजिब सवाल हैं , इन सवालों से एक रचनात्मक विमर्श की शुरुआत हो सकती है । उन्होंने पहल पत्रिका में प्रकाशित इन कविताओं को लेकर जो सवाल उठाए हैं कि क्या ये कविताएं हैं ? इसका जवाब तो पहल पत्रिका के संपादक ज्ञानरंजन जी ही भली भांति दे सकते हैं कि आखिर वे इन्हें क्यों कविता मानते हैं ? गद्य क्यों नहीं ?

    जवाब देंहटाएं