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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

06 मई, 2018

कार्ल मार्क्स की 200वीं जन्मतिथि (5 मई) के अवसर पर


मार्क्स के वामपंथी होने से उनके पिता चिंतित थे 

कविता कृष्णपल्लवी

एक युवा हेगेलपंथी के रूप में 18वर्षीय मार्क्स के विचारों के लगातार ज्यादा से ज्यादा "वामपंथी " होते जाने से उनके पिता बहुत चिंतित थे | वे खुले दिमाग वाले उदार, जनवादी और भलेमानस किस्म के व्यक्ति थे | बेटे से उनके दोस्ताना संबंध थे और वे उसकी असामान्य प्रतिभा को भी पहचान चुके थे | वे चाहते थे कि मूर अपनी प्रतिभा का दर्शन आदि के क्षेत्र में इस्तेमाल तो करे, लेकिन सत्ता से बैर मोल लेने का जोखिम न ले और समाज में पद-प्रतिष्ठा हासिल करे ।

कविता कृष्णपल्लवी


चिंतित पिता ने 1836 में बेटे को एक पत्र लिखा , जिसके अंत में उन्होने लिखा था : "क़ानून के बारे में तुम्हारे विचार सत्यरहित तो नहीं हैं, लेकिन यदि उन्हे एक प्रणाली में रूपांतरित कर दिया जाए, तो संभव है कि वे तूफान खड़ा कर देंगे और क्या तुम्हें नहीं मालूम कि विद्वानों के बीच कितने प्रचंड तूफान उठते हैं? यदि इन विचारों में मौजूद आपत्तिजनक चीजों को पूरीतरह से समाप्त नहीं किया जा सकता, तो कम से कम उनका रूप नरम और सुग्राह्य होना चाहिए ।"
पिता के लगातार ऐसे अनुनयों का उत्तर युवा मार्क्स ने एक कविता लिखकर दिया :

"कैसे मैं निष्क्रिय, बेपरवाह रहूँ उस चीज़ से
आत्मा की ख़ातिर जो बिजली सी बेचैन ।
चैन से और काहिली से भला क्या लेना मुझे
मैं वहाँ हूँ, जिसजगह यह यलगार है, तूफ़ान है...
रह न जाए आधी-अधूरी कोई तृष्णा
प्रकृति के वरदानों को समझने की है कोशिश मेरी।
 ज्ञान की गहराइयों में कर रहा हूँ गवेषणा
कला और कविता में डूबा आत्मविभोर हूँ मैं ।
काश ज़ुर्रत और हिम्मत अब हमारा साथ दे
ये नहीं अपना मुक़द्दर, सुलहेकुल सबकी उम्मीद।
और कितने दिन रहेंगे बेज़ुबाँ बस रह लिए
बस हुआ बेअक्ल और बेकार जीना बस हुआ।
ये न हो हम बुज़दिलों की तरह से लाचार हों
ज़ब्र से हों दबे-डरे, कराहते जुए तले
कुव्वते हर आरज़ू और क़ुव्वते अफ़कारोकार
आप से शर्मिंदा होकर दिल की दिल में ही रहे।"


युवा मार्क्स के काव्यात्मक प्रयोग बेशक परिपक्व और मंजे हुए नहीं थे, लेकिन वे राह खोजने की बेचैनी, एक सार्थक जीवन जीने के दृढ़निश्चय और विद्रोहात्मक भावनाओं से ओतप्रोत थे।

युवा मार्क्स


क्या यह प्रसंग हमारे समय के युवाओं को साहसपूर्वक एक प्रयोगशील और न्याय के लिए संघर्षरत जीवन जीने का संकल्प लेने के लिए प्रेरित नहीं करता ?
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नीचे लिंक पर पढ़िए सीमा आज़ाद का लेख:

सवाल दुनिया को बदलने का है 

सीमा आज़ाद 

http://bizooka2009.blogspot.com/2018/05/blog-post_5.html



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