मुकेश कुमार सिन्हा की कविताएँ
प्रस्थान
चला जाऊंगा
किसी खास दिन बिन कहे
नहीं रखूंगा सिराहने पर
कोई भी चिट्ठी
जो बता पाए वजह कि गए क्यों?
शायद उस खास दिन के बाद
आया करूँगा याद
हमेशा के लिए...
क्योंकि
जानेवाले
स्मृतियों में
बना देते हैं एक लाक्षा गृह
जिसमें आग नहीं लगाई जाती
बल्कि स्नेह के मरहम की ठंडक में
जा चुका व्यक्ति
बना लेता है बसेरा
...... हमेशा के लिए।
हद
उसने कहा हद में रहो
मैंने कहा हदें बताओ
सीमांकन होता रहा
हदें टूटती रही ......!
मेरी इच्छाएं रहती है हदों में,
पर नींद में कर जाता हूँ
सीमाओं का अतिक्रमण !!
हदों के पार !
वजह बेवजह
एक सिक्का ले कर
रहा हूँ उछाल
जिसके दोनों तरफ़
है लिखा हुआ 'वजह' और 'बेवजह'
बस वजह-बेवजह की संभाविता के मध्य
बेमानी से वजूद के साथ
निभाना चाहता हूँ अम्पायर की भूमिका
गिरते ही सिक्के को
बस इतना ही हाथों उठा कर कहूँगा
ओह नो! फिर 'बेवजह की बात'!
तो वो, सुनो!
फिर से बेवजह ही सही
निहारना मेरे भीगे पोरों के बीच छलकती नज़रों को
मैं भी बेवजह ही कह उठूँगा
क्या बात, आज भी उतनी ही खुबसूरत!
ऐसे ही बेवजह के संवाद के मध्य
खूबसूरती के बखान के साथ
संबोधित करूँगा 'मोटी'
और कभी कहूँगा 'बेवकूफ'!
पर तुम खिलखिलाते हुए
इन पर्यायवाची शब्दों में ढूंढ लोगी
आत्मीयता और स्नेह!
सच, शब्दों का सम्प्रेषण
बदल देता है उनके अर्थ
अजब-गजब रिश्ते जो ढूंढते हैं
किसी न किसी वजह को
रिसते हुए उनमें हरदम छलकते देखा है
मैंने दर्द
उनके साथ दौड़ते देखा है उम्मीद को भी
पर बेवजह के होते हैं कुछ रिश्ते
यहाँ भी छलकती है बूंदें उन्हीं आँखों से
पर छलकती हुई वो चमक उठती हैं
अनंतिम खिलखिलाते किसी वजह से
कल फिर से सिक्के को उछालूँगा
और दूर तक फैली हरीतिमा के मध्य
वजह और बेवजह की ध्वनि के साथ
सिक्के के गिरने से पहले ही
चुपके से फिर बेवजह का सिरा कर दूंगा ऊपर
तुम भी बेवजह खूबसूरत लगने लगना
आखिर बेवजह की बातों में वजह ढूंढना ही सबकुछ है
ताकि खिलखिलाती नज़रों का सुख
लगते रहे अपना
कल बेवकूफ का पर्यायवाची शब्द
बकलोल कहूँगा!
समझी न!
पापा होते हैं आसमान
'पापा' तो होते है 'आसमान'
एक बेहद संजीदा अभिव्यक्ति
कहती है ये
फिर अंतिम बार उनसे मिलने
समय के कमी की वजह से
कर रहा था हवाई यात्रा
बेहद ऊंचाई पर था शायद
पड़ रहा था दिखाई
विंडो के पार दूर तलक
फटा पड़ा था आसमान
बिखड़े थे बादलों के ढेर इधर-उधर
पापा दम तोड़ चुके थे।
तेज गति से भाग रही थी ट्रेन
उसके स्लीपर कूपे में बैठा
द्रुत गति से भाग रहा था अशांत मन
टाइम फ़्रेम को छिन भिन्न कर
बना रहा था रेतीली मिट्टी के घरौंदे
पर, गृह प्रवेश से पहले
टूट चुके थे ख़्वाब
मिट्टी में ही तिरोहित हो चुके थे पापा
ट्रेन फिर भी भाग रही थी
अपने सहज वेग के साथ।
अब ऑटो से चल पड़ा
रेलवे स्टेशन से पापा के करीब तक
खटर-पटर करता रिक्शा
उछल कूद कर रही थी
सुषुप्त संवेदनाएं,
सड़कों ने चिल्ला कर बताने कि
की कोशिश
स्मृति पटल पर चल पड़ी
पापा की 'मोपेड'
उनके कमर पर हाथ था मेरा।
मर चुके थे पापा
फिर भी उनकी ठंडी हथेली ने
भर दी थी गर्माहट
बेशक आंखे छलछलाई
पर रो नहीं सका एक भी पल
कंधे पे था स्नेहसिक्त हाथ
छोटे भाई का,
कहना चाहता था कुछ
लेकिन कुंद हो गयी आवाज
रुआंसा हो कह पाया
बस
गुड बाय 'पापा'
विस्थापन
लड़कियों से जुड़ी बहुत बातें होती है
कविताओं में
लेकिन नहीं दिखते,
हमें दर्द या परेशानियों को जज़्ब करते
कुछ लड़के
जो घर से दूर, बहुत दूर
जीते हैं सिर्फ अपनों के लिए, अपनों के सपनों के साथ
वो लड़के नहीं होते भागे हुए
भगाए गए जरुर कहा जा सकता है उन्हें
क्योंकि घर छोड़ने के अंतिम पलों तक
वो सुबकते हैं,
माँ का पल्लू पकड़ कर कह उठते हैं
"नहीं जाना अम्मा
जी तो रहे हैं, तुम्हारे छाँव में
मत भेजो न, ऐसे परदेश
जबरदस्ती!"
पर, फिर भी
विस्थापन के अवश्यम्भावी दौर में
रूमानियत को दगा देते हुए
घर से निकलते हुए निहारते हैं दूर तलक
मैया को, ओसरा को
रिक्शे से जाते हुए
गर्दन अंत तक टेढ़ी कर
जैसे विदा होते समय करती है बेटियां
जैसे सीमा पर जा रहा हो सैनिक
समेटे रहते हैं कुछ चिट्ठियाँ
जिसमे 'महबूबा इन मेकिंग' ने भेजी थी कुछ फ़िल्मी शायरी
वो लड़के
घर छोड़ते ही, ट्रेन के डब्बे में बैठने के बाद
लेते हैं ज़ोर की सांस
और फिर भीतर तक अपने को समझा पाते हैं
अब उन्हें ख़ुद रखना होगा अपना ध्यान
फिर अपने बर्थ के नीचे बेडिंग सरका कर
थम्स अप की बोतल में भरे पानी की लेते हैं घूँट
पांच रूपये में चाय का एक कप खरीद कर
सुड़कते हैं ऐसे, जैसे हो चुके हों व्यस्क
करते हैं राजनीति पर बात,
खेल की दुनिया से इतर
कल तक,
हर बॉल पर बेवजह 'हाऊ इज देट' चिल्लाते रहने वाले
ये छोकरे घर से बाहर निकलते ही
चाहते हैं, उनके समझ का लोहा माने दुनिया
पर मासूमियत की धरोहर ऐसी कि घंटे भर में
डब्बे के बाथरूम में जाकर फफक पड़ते हैं
बुदबुदाते हैं, एक लड़की का नाम
मारते हैं मुक्का दरवाज़े पर
ये अकेले लड़के
मैया-बाबा से दूर,
रात को सोते हैं बल्व ऑन करके
रूम मेट से बनाते है बहाना
लेट नाइट रीडिंग का
सोते वक्त, बन्द पलकों में नहीं देखना चाहते
वो खास सपना
जो अम्मा-बाबा ने पकड़ाई थी पोटली में बांध के
आखिर करें भी तो क्या ये लड़के
महानगर की सड़कें
हर दिन करने लगती है गुस्ताखियाँ
बता देती है औकात, घर से बहुत दूर भटकते लड़के का सच
जो राजपथ के घास पर चित लेटे देख रहें हैं
डूबते सूरज की लालिमा
मेहनत और बचपन की किताबी बौद्धिकता छांटते हुए
साथ ही बेल्ट से दबाये अपने अहमियत की बुशर्ट
स को श कहते हुए देते हैं परिचय
करते हैं नाकाम कोशिश दुनिया जीतने की
पर हर दिन कहता है इंटरव्यूअर
'आई विल कॉल यु लेटर'
या हमने सेलेक्ट कर लिया किसी ओर को
हर नए दिन में
पानी की किल्लत को झेलते हुए
शर्ट बनियान धोते हुए, भींगे हाथों से
पोछ लेते हैं आंसुओं का नमक
क्योंकि घर में तो बादशाहत थी
फेंक देते थे शर्ट आलना पर
ये लड़के
मोबाइल पर बाबा को चहकते हुए बताते हैं
सड़कों की लंबाई
मेट्रों की सफाई
प्रधानमंत्री का स्वच्छता अभियान,
कनाट प्लेस के लहराते झंडे की करते हैं बखान
पर नहीं बता पाते कि पापा नहीं मिल पाई
अब तक नौकरी
या अम्मा, ऑमलेट बनाते हुए जल गई कोहनी
खैर, दिन बदलता है
आखिर दिख जाता है दम
मिलती है नौकरी, होते हैं पर्स में पैसे
जो फिर भी होते हैं बाबा के सपने से बेहद कम
हाँ नहीं मिलता वो प्यार और दुलार
जो बरसता था उनपर
पर ये जिद्दी लड़के
घर से ताज़िंदगी दूर रहकर भी
घर-गांव-चौक-डगर को जीते हैं हर पल
हाँ सच
ऐसे ही तो होते हैं लड़के
लड़कपन को तह कर तहों में दबा कर
पुरुषार्थ के लिए तैयार यकबयक
अचानक बड़े हो जाने की करते हैं कोशिश
और इन कोशिशों के बीच अकेलेपन में सुबक उठते हैं
मानों न
कुछ लड़के भी होते हैं
जो घर से दूर, बहुत दूर
जीते हैं सिर्फ अपनों के लिए अपनों के सपनों के साथ।
है नितांत निराशा
फिर भी उम्मीदों का दामन थामे
फिज़ाओं में ढूंढ रहे आशा
है ये कैसा दर्द
जो विरान जीवन में हो चुका परिणत
चाहते ऐसी कि
कब और कैसे भी पा जाएँ ताकत
तो क्यों ना
उन अंगुलियों के आगे कर दें
माथा नत
जिनके छू लेने भर से
फूल भी हैं खिलखिलाते
शायद भर जाए
एक स्नेहिल स्पर्श से
मन के छाले, छरछराते
ओ, मेज के कोने पर माथा रख कर
रोने वाले !
हर दर्द को नए अर्थ तक जाने दो
ताकि समझ पाए सहने वाले
फिनिक्स सी उम्मीदों को सहेजे
खुद की चिंगारी में जल कर
खुद के राख से जन्मना ही होगा
ज़िंदगी फिर से जीना ही होगा !!
सूखी टहनियों के बीच से
ललछौं प्रदीप्त प्रकाश के साथ
लजाती भोर को
ओढ़ा कर पीला आँचल
चमकती सूरज सी तुम
तुम्हारा स्वयं का ओज और
साथ में बहकाता
रवि का क्षण क्षण महकता तेज
कहीं दो-दो सूरज तो नहीं
एक बेहद गर्म, एक बेहद नर्म
बेचारी दोपहर भी
करती है चुगली दिन और रात को
शायद जलनखोरी के मारे ही तो
तपती है दोपहरी
तभी तो जलनखोर से देखा न जा रहा
सौतिया डाह जैसा है न
चटख हो रही देख कर तुम्हे
वहीं
चमकता पुरनम की चाँद सा
तुम्हारा चेहरा
तुम्हारे होंठो पर तिल
हाँ चाँद में भी तो है न दाग
दिन बीता
अब गोधूलि के पहर पर
पार्क में दूर वाले पेड़ के पीछे से
आया भोर का तारा
मध्यस्थता करने को शायद
ताकि सूरज तारे चन्दा जैसे
खगोलीय नैसर्गिक पिंडो सा
समझा जाए तुम्हे भी
उतना ही प्यारा
उतना ही पवित्र
सच्ची में खूबसूरत हो न तुम
तुम तो सांझ की सहेली बन
मासूमियत के पैकिंग से लकदक
बस थिरको बच्चो संग
लाल फ्रॉक और पीले रिबन में
उनके मैदान में
मंकी बार्स पर लटकते हुए
और होंठ के कोने से पिघलती रहे
केडबरी सिल्क की कुछ बूंदे
मैं भी हूँ बेशक बहुत दूर
पर इस सुबह के
लाल इश्क ने
कर दिया न मजबूर
तुम्हे निहारने को !!
सुनो !
चमकते रहना !
अमीबा
'अमीबा' हो गयी हैं
मरती हुई
संवेदनाएँं
पोखर, गड्ढे, तालाबों के
थमे हुए पानी में
बजबजाती फिर रही हैं
अमीबा
कुंकुआती आवाज़ वाले हॉर्न
दौड़ती भागती मेट्रो टैक्सियों के जाल में
बिना रुके बिना थके
कंकड़ पत्थर के जंगलों में
लौटने को आतुर
ये ज़िंदगी
प्रोटोप्लास्म की ढेर में सिमटी
परिजीवियों की तरह जीते हुए
अपने एक-कोशकीय जीवन को
आकार बदलती ज़िंदगी से
करते रहे हैं रूबरू
जी रहे हैं
कूपमंडूकता संजोये
जैसे प्रतिकूल मौसम में, शैल में स्वयं को बचाए
अमीबा सी हो गयी हैं न संवेदनाएँं
प्लास्टिक 'ओह! आह!' की
निकालते हैं आवाज़
बहा देते हैं जल धाराएँ
जैसे अमीबा ने आगे बढ़ने को
निकाले हों कूटपाद
समय और मौसम के अनुसार
परिवर्तित होती संवेदनाएँ
लोटपोट होतीं, विचरतीं
एक के मरने पर अट्टहास
तो एक के मरने पर
आंसू के दरिया बहाते
बढती है ताउम्र
अमीबा सी संवेदनाएँ
एक पल रोते
दूसरे ही पल हंस कर बता देते हैं
अमीबा सी टुकड़ों में बंट कर भी
कई केन्द्र्कों वाली परजीविता के साथ
जी रही है संवेदनाएँ
विलुप्तप्राय संवेदनाओं
शब्दों के मकड़जाल से
उलझकर
छलछलाती हुई
नमन/वंदन/आरआईपी (रीप) कहते
इतरा कर चल पड़ती हैं
नए प्रतिरूप की तरफ़
वाकई
अमीबा हो चुकी हैं
संवेदनाएँ!
(अमीबा एककोशकीय सूक्ष्म प्रजीव है जो गड्ढो नालों तालाबों में पाया जाता है)
प्यार के अद्भुत बहते आकाश तले
जहाँ कहीं काले मेघ तो कहीं
विस्मृत करते झक्क दूधिया बादल तैर रहे,
मिलते हैं स्त्री-पुरुष
प्रेम का परचम फहराने
सलवटों की फसल काटने !
नहीं बहती हवाएं, उनके मध्य
शायद इस निर्वात की स्थापना ही,
कहलाता है प्रेम !
याद रखने वाला तथ्य है कि
अधरों के सम्मिलन की व्याख्या
बता देती है
मौसम बदलेगा, या
बारिश के उम्मीद से रीत जाएगा आसमां !
समुद्र, व उठते गिरते ज्वार-भाटा का भूगोल
देहों में अनुभव होता है बारम्बार
कर्क-मकर रेखाओं के आकर्षण से इतर!
मृग तृष्णा व रेगिस्तान की भभकती उष्णता
बर्फीले तूफ़ान के तेज के साथ कांपता शरीर,
समझने लगता है ठंडक
दहकती गर्मी के बाद
ऐसे में
तड़ित का कडकना
छींटे पड़ने की सम्भावना को करता है मजबूत
आह से आहा तक की स्वर्णिम यात्रा
बारिश के उद्वेग के बाद
है निकलना धनक का
कि जिस्म के प्रिज्म के भीतर से
बहता जाता है सप्तरंगी प्रकाश !
कुछ मधुर पल की शान्ति बता देती है
कोलाहल समाप्त होने की वजह है
हाइवे से गुजर चुकी हैं गाड़ियाँ
फिर
पीठ पर छलछला आए
ललछौंह आधे चांद, जलन के बावजूद
होती है सूचक, आश्वस्ति का
यानी बहाव तेज रहा था !
भोर के पहले पहर में
समुद्र भी बन उठता है झील
शांत व नमक से रीती
कलकल निर्झर निर्मल
और हाँ
भोर के सूरज में नहाते हुए
स्त्री कहती है तृप्त चिरौरी के साथ
कल रात
कोलंबस ने पता लगा ही लिया था
हिन्द के किनारे का !!
वैसे भी जीवन का गुजर जाना
जीवन जीते हुए बह जाना ही है
कौन भला भूलता है
'प्रवाह' नियति है !
रात का पसरा अँधेरा
समझाता रहा
सपनों के खिलखिलाते क्षण आने वाले हैं
छितरती जा रही खामोशियों के बीच
चार पर चल रहा पंखा बता रहा
बस नींद आने ही वाली है
इधर पलके मुंदी
उधर कुछ सजीव तस्वीरों के जागती आवाज़ ने बताया
बेशक आ चुकी है रात
पर ज़रुरी थोड़ी है
सोते हुए सोया ही जाए
सोते हुए मुलाक़ात भी एक अजीब सी बात है न
कभी कभी थका हुआ शरीर
पलकों पर रखे हो चट्टान
क्या करे बेचारा, मना कर देता है सपनों को भी
मत आना आज तू
कुछ ऐसा जैसे प्रेयसी को कहा आज मिलना
और फिर कह गए
आज तो कहीं जाना है प्रिय
कभी कभी होता है कुछ ऐसा
जैसे हम जबरदस्ती मूंद कर पलकों को
कुछ ऐसा जैसे पलकों को सिल कर
बुलाते हैं हसीं सपनों को
आ भी जाओ यार ...!
और नखरैल के नखरे
देर रात से सुबह कर देती है
खैर, सोया हुआ शरीर
मरा हुआ देह नहीं होता
होता है कुछ ऐसा जैसे
हवा में तैरते बलून को एक और मारी गयी फूंक
और फिर बेशक पांच बजे का फिक्स टाइमर
टनटनाते हुए बताये या लगातार बजे
पर सुप्रभात व इबादत का वक्त होगा आठ बजे ही !
रात, नींद, सपने, बिस्तर, देह और आराम
इन सबका घाल मेल
और फिर इनके बीच
घुसपैठ बनाती तुम
हर जगह तो दिखाती हो खुद की बादशाहत
यानी नींद के साथ आया ही करोगी तुम
आते रहना !
देर रात का सहमा सहमा प्रकाश
भनभनाते हुए दिख रहे कीट-पतंगे
आखिर आकर्षण एक स्रोत का
न चाहते हुए भी खिंचे चले आते बेचारे
कुछ ऐसा जैसे,
तीन बजे दोपहर के बदले रात सात बजे
एक मंच से आ रही हो
चुनाव पूर्व मक्खन चुपड़ी आवाज
भाइयों-बहनों-किसानों आदि
और, हो मैदान खचाखच
फड़फड़ाते पतंगों का आकर्षण
क्या न करवाये
बिना किसी सरसराहटों वाली आवाज के साथ
पहुंची हो कुछ छिपकलियां
कुछ समय पर तो
कुछ समय पूर्व
थी इन्तजार में
लपलपाती जुबान के साथ
खलबली मचाते हुए करने लगी जुगाड़
आखिर हर छिपकली
चाहती थी, कर सके उदरस्थ अधिकतम
हाँ अधिकतम कीट पतंगे मरे
पर छिपकलियों ने दिया दर्जा
शहीद का।
आखिर
शहीद का वजूद करता है आकर्षित
अन्य पतंगों को
अन्य कीटों को
अब तो तितलियों ने भी ठान लिया
दे देंगे जान, तोड़ लेंगे पंखुड़ियां
आखिर प्राण को करना अर्पित
कहलायेगी देशभक्ति।
इस प्राण आहुति के साथ ही
छिपकलियों में भी
छिड़ गया घमासान
अंततः सबसे बड़ी शहीद का
तमग़ा
मिला उस खास छिपकली को
जिसने
खिंचाई के इस दौर में
अपनी आधी पूंछ तोड़ गिराई
आखिर
नेता मरता नहीं, करना था साबित
वैसे भी
पूंछ के टूटने भर से
छिपकली ने पायी लम्बी उम्र।
याद रखना
मरते मारते रहेंगे कीट पतंगे
मरेंगी कुछ तितलियां भी
लपलपाती रहेगी
छिपकलियों की जुबान
देशप्रेम बना रहेगा यथावत।
अंतिम कश
सुट्टे के अंतिम कश से पहले सोचता हूँ
कि क्या सोचूं ?
जी.एस.टी. के उपरान्त लगने वाले टैक्स पर करूँ बहस,
या, फिर सेवेंथ पे कमिशन से मिलने वाले एरियर का
लगाऊं लेखा जोखा
या, सरकारी आयल पूल अकाउंट से
पेट्रोल या गैस पर मिलने वाली सब्सिडी पर तरेरूं नजर
पर, दिमाग का फितूर कह उठता है
क्या पैसा ही जिंदगी है ?
या पैसा भगवान् नहीं है,
पर भगवान की तुलना में है ज्यादा अहम् !
और, अंततः, बस अपने भोजपुरी सिनेमा के रविकिशन को
करता हूँ, याद, और कह उठता हूँ
"जिंदगी झंड बा, फिर भी घमंड बा"
अब, अंतिम कश लेने के दौरान
चिंगारी पहुँचती है फ़िल्टर वाले रुई तक
भक्क से जल उठता है
तर्जनी और मध्यमा के मध्य का हिस्सा
और फिर बिना सोचे समझे कह उठता हूँ
भक्क साला .....
जबकि कईयों के फेसबुक स्टेटस से पा चुका हूँ ज्ञान
गाली देना पाप है
रहने दो, डेली पढ़ते हैं, डब्बे पर स्मोकिंग इज इन्ज्युरिअस टू हेल्थ
जलते गलते जिगर की तस्वीर के साथ
फिर भी, वो धुएं का अन्दर जाना,
आँखों को बाहर निकलते हुए महसूसना
है न ओशो के कथन जैसा
बिलिफ़ इज ए बैरियर, ट्रस्ट इज ए ब्रिज !
लहराता हूँ हाथ
छमक कर उड़ जाती है सिगरेट, साथ ही
हवाओं के थपेड़े से मिलता है आराम
फिर बिना सोचे समझे महसूसता हूँ
उसके मुंह से निकलने वाले जल मिश्रित भाप की ठंडक
देती है कंपकपी
ऐसे भी सोचा, उसकी दी हुई गर्मी ने भी दी थी कंपकंपी
अंततः
दिमाग कह उठा, कल का दिन डेटिंग के लिए करो फिक्स
प्यार समय मांगता है
बिना धुंआ बिना कंपन
बेटर विदाउट सिगरेट ... है न !!!!
००
नाम : मुकेश कुमार सिन्हा (Mukesh Kumar)
जन्म : 4 सितम्बर 1971 (बेगुसराय, बिहार)
शिक्षा : बी.एस.सी. (गणित) (बैद्यनाथधाम, झारखण्ड)
वर्तमान: सम्प्रति केंद्रीय राज्य मंत्री, भारत सरकार, का प्रथम व्यक्तिक सहायक,
संग्रह : “हमिंग बर्ड” कविता संग्रह (सभी ई-स्टोर पर उपलब्ध) (बेस्ट सेलर) (हिन्द युग्म)
लप्रेक : ‘लाल फ्रॉक वाली लड़की” (अमेजन पर उपलब्ध) (बौधि प्रकाशन)
सह- संपादन: कस्तूरी, पगडंडियाँ, “गुलमोहर”, “तुहिन”, “गूँज” व “100कदम” (साझा कविता संग्रह) (250 से अधिक रचनाकारों की कवितायेँ शामिल)
प्रकाशित साझा काव्य संग्रह:
1.अनमोल संचयन 2.अनुगूँज 3.खामोश, ख़ामोशी और हम 4. प्रतिभाओं की कमी नहीं (अवलोकन 2011) 5.शब्दों के अरण्य में 6. अरुणिमा 7. शब्दो की चहलकदमी 8. पुष्प पांखुड़ी 9. मुट्ठी भर अक्षर (साझा लघुकथा संग्रह) 10. काव्या 11. शब्दों की अदालतमें
अन्य प्रकाशन : दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान, इंडिया टूडे, अहा जिंदगी, कथादेश, कथाक्रम, वटवृक्ष, लोकायत, लोकमत, गाथांतर, शब्द संयोजन, राजस्थान पत्रिका, जागरूकता मेल, शोध दिशा, साहित्य समीर, करुणावती साहित्यधारा, दुनिया इनदिनों, पुरवाई, रेवांत, स्वर्ण वाणी, अभिनव मीमांसा आदि में प्रकाशित
सम्मान: 1. तस्लीम परिकल्पना ब्लोगोत्सव (अंतर्राष्ट्रीय ब्लोगर्स एसोसिएशन) द्वारा वर्ष 2011 के लिए सर्वश्रेष्ठ युवा कवि का पुरुस्कार. 2. शोभना वेलफेयर सोसाइटी द्वारा वर्ष 2012 के लिए "शोभना काव्य सृजन सम्मान" 3. परिकल्पना(अंतर्राष्ट्रीय ब्लोगर्स एसोसिएशन)द्वारा ‘ब्लॉग गौरव युवा सम्मान’ वर्ष 2013 के लिए 4.विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ से हिंदी सेवा के लिए ‘विद्या वाचस्पति’ 2014 में 5. दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल 2015 में ‘पोएट ऑफ़ द इयर’ का अवार्ड 6. प्रतिमा रक्षा सम्मान समिति, करनाल द्वारा ‘शेर-ए-भारत’ अवार्ड मार्च, 2016 में 7. करुणावती साहित्य धारा साहित्यिक पत्रिका द्वारा साहित्य सम्मान 2016 में
विशेष : कविता कोष (http://kavitakosh.org/) पर कवितायेँ शामिल, आल इंडिया रेडिओ पर साक्षात्कार, इन्द्रप्रस्थ रेडिओ चैंनल पर कविता पाठ, चैनल वन टीवी पर कविता पाठ, APN News टीवी के म्यूजिकल शो “मेरा भी नाम होगा” के दो एपिसोड में ज्यूरी में शामिल, YMCA University of Science & Technology, फरीदाबाद के 2016 के वार्षिक फेस्ट के काव्योत्सव और इंडियन स्कूल, नई दिल्ली के डिबेट प्रतियोगिता में जूरी में शामिल |
मुकेश सिन्हा |
प्रस्थान
चला जाऊंगा
किसी खास दिन बिन कहे
नहीं रखूंगा सिराहने पर
कोई भी चिट्ठी
जो बता पाए वजह कि गए क्यों?
शायद उस खास दिन के बाद
आया करूँगा याद
हमेशा के लिए...
क्योंकि
जानेवाले
स्मृतियों में
बना देते हैं एक लाक्षा गृह
जिसमें आग नहीं लगाई जाती
बल्कि स्नेह के मरहम की ठंडक में
जा चुका व्यक्ति
बना लेता है बसेरा
...... हमेशा के लिए।
हद
उसने कहा हद में रहो
मैंने कहा हदें बताओ
सीमांकन होता रहा
हदें टूटती रही ......!
मेरी इच्छाएं रहती है हदों में,
पर नींद में कर जाता हूँ
सीमाओं का अतिक्रमण !!
हदों के पार !
महावीर वर्मा |
वजह बेवजह
एक सिक्का ले कर
रहा हूँ उछाल
जिसके दोनों तरफ़
है लिखा हुआ 'वजह' और 'बेवजह'
बस वजह-बेवजह की संभाविता के मध्य
बेमानी से वजूद के साथ
निभाना चाहता हूँ अम्पायर की भूमिका
गिरते ही सिक्के को
बस इतना ही हाथों उठा कर कहूँगा
ओह नो! फिर 'बेवजह की बात'!
तो वो, सुनो!
फिर से बेवजह ही सही
निहारना मेरे भीगे पोरों के बीच छलकती नज़रों को
मैं भी बेवजह ही कह उठूँगा
क्या बात, आज भी उतनी ही खुबसूरत!
ऐसे ही बेवजह के संवाद के मध्य
खूबसूरती के बखान के साथ
संबोधित करूँगा 'मोटी'
और कभी कहूँगा 'बेवकूफ'!
पर तुम खिलखिलाते हुए
इन पर्यायवाची शब्दों में ढूंढ लोगी
आत्मीयता और स्नेह!
सच, शब्दों का सम्प्रेषण
बदल देता है उनके अर्थ
अजब-गजब रिश्ते जो ढूंढते हैं
किसी न किसी वजह को
रिसते हुए उनमें हरदम छलकते देखा है
मैंने दर्द
उनके साथ दौड़ते देखा है उम्मीद को भी
पर बेवजह के होते हैं कुछ रिश्ते
यहाँ भी छलकती है बूंदें उन्हीं आँखों से
पर छलकती हुई वो चमक उठती हैं
अनंतिम खिलखिलाते किसी वजह से
कल फिर से सिक्के को उछालूँगा
और दूर तक फैली हरीतिमा के मध्य
वजह और बेवजह की ध्वनि के साथ
सिक्के के गिरने से पहले ही
चुपके से फिर बेवजह का सिरा कर दूंगा ऊपर
तुम भी बेवजह खूबसूरत लगने लगना
आखिर बेवजह की बातों में वजह ढूंढना ही सबकुछ है
ताकि खिलखिलाती नज़रों का सुख
लगते रहे अपना
कल बेवकूफ का पर्यायवाची शब्द
बकलोल कहूँगा!
समझी न!
महावीर वर्मा |
पापा होते हैं आसमान
'पापा' तो होते है 'आसमान'
एक बेहद संजीदा अभिव्यक्ति
कहती है ये
फिर अंतिम बार उनसे मिलने
समय के कमी की वजह से
कर रहा था हवाई यात्रा
बेहद ऊंचाई पर था शायद
पड़ रहा था दिखाई
विंडो के पार दूर तलक
फटा पड़ा था आसमान
बिखड़े थे बादलों के ढेर इधर-उधर
पापा दम तोड़ चुके थे।
तेज गति से भाग रही थी ट्रेन
उसके स्लीपर कूपे में बैठा
द्रुत गति से भाग रहा था अशांत मन
टाइम फ़्रेम को छिन भिन्न कर
बना रहा था रेतीली मिट्टी के घरौंदे
पर, गृह प्रवेश से पहले
टूट चुके थे ख़्वाब
मिट्टी में ही तिरोहित हो चुके थे पापा
ट्रेन फिर भी भाग रही थी
अपने सहज वेग के साथ।
अब ऑटो से चल पड़ा
रेलवे स्टेशन से पापा के करीब तक
खटर-पटर करता रिक्शा
उछल कूद कर रही थी
सुषुप्त संवेदनाएं,
सड़कों ने चिल्ला कर बताने कि
की कोशिश
स्मृति पटल पर चल पड़ी
पापा की 'मोपेड'
उनके कमर पर हाथ था मेरा।
मर चुके थे पापा
फिर भी उनकी ठंडी हथेली ने
भर दी थी गर्माहट
बेशक आंखे छलछलाई
पर रो नहीं सका एक भी पल
कंधे पे था स्नेहसिक्त हाथ
छोटे भाई का,
कहना चाहता था कुछ
लेकिन कुंद हो गयी आवाज
रुआंसा हो कह पाया
बस
गुड बाय 'पापा'
विस्थापन
लड़कियों से जुड़ी बहुत बातें होती है
कविताओं में
लेकिन नहीं दिखते,
हमें दर्द या परेशानियों को जज़्ब करते
कुछ लड़के
जो घर से दूर, बहुत दूर
जीते हैं सिर्फ अपनों के लिए, अपनों के सपनों के साथ
वो लड़के नहीं होते भागे हुए
भगाए गए जरुर कहा जा सकता है उन्हें
क्योंकि घर छोड़ने के अंतिम पलों तक
वो सुबकते हैं,
माँ का पल्लू पकड़ कर कह उठते हैं
"नहीं जाना अम्मा
जी तो रहे हैं, तुम्हारे छाँव में
मत भेजो न, ऐसे परदेश
जबरदस्ती!"
पर, फिर भी
विस्थापन के अवश्यम्भावी दौर में
रूमानियत को दगा देते हुए
घर से निकलते हुए निहारते हैं दूर तलक
मैया को, ओसरा को
रिक्शे से जाते हुए
गर्दन अंत तक टेढ़ी कर
जैसे विदा होते समय करती है बेटियां
जैसे सीमा पर जा रहा हो सैनिक
समेटे रहते हैं कुछ चिट्ठियाँ
जिसमे 'महबूबा इन मेकिंग' ने भेजी थी कुछ फ़िल्मी शायरी
वो लड़के
घर छोड़ते ही, ट्रेन के डब्बे में बैठने के बाद
लेते हैं ज़ोर की सांस
और फिर भीतर तक अपने को समझा पाते हैं
अब उन्हें ख़ुद रखना होगा अपना ध्यान
फिर अपने बर्थ के नीचे बेडिंग सरका कर
थम्स अप की बोतल में भरे पानी की लेते हैं घूँट
पांच रूपये में चाय का एक कप खरीद कर
सुड़कते हैं ऐसे, जैसे हो चुके हों व्यस्क
करते हैं राजनीति पर बात,
खेल की दुनिया से इतर
कल तक,
हर बॉल पर बेवजह 'हाऊ इज देट' चिल्लाते रहने वाले
ये छोकरे घर से बाहर निकलते ही
चाहते हैं, उनके समझ का लोहा माने दुनिया
पर मासूमियत की धरोहर ऐसी कि घंटे भर में
डब्बे के बाथरूम में जाकर फफक पड़ते हैं
बुदबुदाते हैं, एक लड़की का नाम
मारते हैं मुक्का दरवाज़े पर
ये अकेले लड़के
मैया-बाबा से दूर,
रात को सोते हैं बल्व ऑन करके
रूम मेट से बनाते है बहाना
लेट नाइट रीडिंग का
सोते वक्त, बन्द पलकों में नहीं देखना चाहते
वो खास सपना
जो अम्मा-बाबा ने पकड़ाई थी पोटली में बांध के
आखिर करें भी तो क्या ये लड़के
महानगर की सड़कें
हर दिन करने लगती है गुस्ताखियाँ
बता देती है औकात, घर से बहुत दूर भटकते लड़के का सच
जो राजपथ के घास पर चित लेटे देख रहें हैं
डूबते सूरज की लालिमा
मेहनत और बचपन की किताबी बौद्धिकता छांटते हुए
साथ ही बेल्ट से दबाये अपने अहमियत की बुशर्ट
स को श कहते हुए देते हैं परिचय
करते हैं नाकाम कोशिश दुनिया जीतने की
पर हर दिन कहता है इंटरव्यूअर
'आई विल कॉल यु लेटर'
या हमने सेलेक्ट कर लिया किसी ओर को
हर नए दिन में
पानी की किल्लत को झेलते हुए
शर्ट बनियान धोते हुए, भींगे हाथों से
पोछ लेते हैं आंसुओं का नमक
क्योंकि घर में तो बादशाहत थी
फेंक देते थे शर्ट आलना पर
ये लड़के
मोबाइल पर बाबा को चहकते हुए बताते हैं
सड़कों की लंबाई
मेट्रों की सफाई
प्रधानमंत्री का स्वच्छता अभियान,
कनाट प्लेस के लहराते झंडे की करते हैं बखान
पर नहीं बता पाते कि पापा नहीं मिल पाई
अब तक नौकरी
या अम्मा, ऑमलेट बनाते हुए जल गई कोहनी
खैर, दिन बदलता है
आखिर दिख जाता है दम
मिलती है नौकरी, होते हैं पर्स में पैसे
जो फिर भी होते हैं बाबा के सपने से बेहद कम
हाँ नहीं मिलता वो प्यार और दुलार
जो बरसता था उनपर
पर ये जिद्दी लड़के
घर से ताज़िंदगी दूर रहकर भी
घर-गांव-चौक-डगर को जीते हैं हर पल
हाँ सच
ऐसे ही तो होते हैं लड़के
लड़कपन को तह कर तहों में दबा कर
पुरुषार्थ के लिए तैयार यकबयक
अचानक बड़े हो जाने की करते हैं कोशिश
और इन कोशिशों के बीच अकेलेपन में सुबक उठते हैं
मानों न
कुछ लड़के भी होते हैं
जो घर से दूर, बहुत दूर
जीते हैं सिर्फ अपनों के लिए अपनों के सपनों के साथ।
महावीर वर्मा |
है नितांत निराशा
फिर भी उम्मीदों का दामन थामे
फिज़ाओं में ढूंढ रहे आशा
है ये कैसा दर्द
जो विरान जीवन में हो चुका परिणत
चाहते ऐसी कि
कब और कैसे भी पा जाएँ ताकत
तो क्यों ना
उन अंगुलियों के आगे कर दें
माथा नत
जिनके छू लेने भर से
फूल भी हैं खिलखिलाते
शायद भर जाए
एक स्नेहिल स्पर्श से
मन के छाले, छरछराते
ओ, मेज के कोने पर माथा रख कर
रोने वाले !
हर दर्द को नए अर्थ तक जाने दो
ताकि समझ पाए सहने वाले
फिनिक्स सी उम्मीदों को सहेजे
खुद की चिंगारी में जल कर
खुद के राख से जन्मना ही होगा
ज़िंदगी फिर से जीना ही होगा !!
सूखी टहनियों के बीच से
ललछौं प्रदीप्त प्रकाश के साथ
लजाती भोर को
ओढ़ा कर पीला आँचल
चमकती सूरज सी तुम
तुम्हारा स्वयं का ओज और
साथ में बहकाता
रवि का क्षण क्षण महकता तेज
कहीं दो-दो सूरज तो नहीं
एक बेहद गर्म, एक बेहद नर्म
बेचारी दोपहर भी
करती है चुगली दिन और रात को
शायद जलनखोरी के मारे ही तो
तपती है दोपहरी
तभी तो जलनखोर से देखा न जा रहा
सौतिया डाह जैसा है न
चटख हो रही देख कर तुम्हे
वहीं
चमकता पुरनम की चाँद सा
तुम्हारा चेहरा
तुम्हारे होंठो पर तिल
हाँ चाँद में भी तो है न दाग
दिन बीता
अब गोधूलि के पहर पर
पार्क में दूर वाले पेड़ के पीछे से
आया भोर का तारा
मध्यस्थता करने को शायद
ताकि सूरज तारे चन्दा जैसे
खगोलीय नैसर्गिक पिंडो सा
समझा जाए तुम्हे भी
उतना ही प्यारा
उतना ही पवित्र
सच्ची में खूबसूरत हो न तुम
तुम तो सांझ की सहेली बन
मासूमियत के पैकिंग से लकदक
बस थिरको बच्चो संग
लाल फ्रॉक और पीले रिबन में
उनके मैदान में
मंकी बार्स पर लटकते हुए
और होंठ के कोने से पिघलती रहे
केडबरी सिल्क की कुछ बूंदे
मैं भी हूँ बेशक बहुत दूर
पर इस सुबह के
लाल इश्क ने
कर दिया न मजबूर
तुम्हे निहारने को !!
सुनो !
चमकते रहना !
अमीबा
'अमीबा' हो गयी हैं
मरती हुई
संवेदनाएँं
पोखर, गड्ढे, तालाबों के
थमे हुए पानी में
बजबजाती फिर रही हैं
अमीबा
कुंकुआती आवाज़ वाले हॉर्न
दौड़ती भागती मेट्रो टैक्सियों के जाल में
बिना रुके बिना थके
कंकड़ पत्थर के जंगलों में
लौटने को आतुर
ये ज़िंदगी
प्रोटोप्लास्म की ढेर में सिमटी
परिजीवियों की तरह जीते हुए
अपने एक-कोशकीय जीवन को
आकार बदलती ज़िंदगी से
करते रहे हैं रूबरू
जी रहे हैं
कूपमंडूकता संजोये
जैसे प्रतिकूल मौसम में, शैल में स्वयं को बचाए
अमीबा सी हो गयी हैं न संवेदनाएँं
प्लास्टिक 'ओह! आह!' की
निकालते हैं आवाज़
बहा देते हैं जल धाराएँ
जैसे अमीबा ने आगे बढ़ने को
निकाले हों कूटपाद
समय और मौसम के अनुसार
परिवर्तित होती संवेदनाएँ
लोटपोट होतीं, विचरतीं
एक के मरने पर अट्टहास
तो एक के मरने पर
आंसू के दरिया बहाते
बढती है ताउम्र
अमीबा सी संवेदनाएँ
एक पल रोते
दूसरे ही पल हंस कर बता देते हैं
अमीबा सी टुकड़ों में बंट कर भी
कई केन्द्र्कों वाली परजीविता के साथ
जी रही है संवेदनाएँ
विलुप्तप्राय संवेदनाओं
शब्दों के मकड़जाल से
उलझकर
छलछलाती हुई
नमन/वंदन/आरआईपी (रीप) कहते
इतरा कर चल पड़ती हैं
नए प्रतिरूप की तरफ़
वाकई
अमीबा हो चुकी हैं
संवेदनाएँ!
(अमीबा एककोशकीय सूक्ष्म प्रजीव है जो गड्ढो नालों तालाबों में पाया जाता है)
प्यार के अद्भुत बहते आकाश तले
जहाँ कहीं काले मेघ तो कहीं
विस्मृत करते झक्क दूधिया बादल तैर रहे,
मिलते हैं स्त्री-पुरुष
प्रेम का परचम फहराने
सलवटों की फसल काटने !
नहीं बहती हवाएं, उनके मध्य
शायद इस निर्वात की स्थापना ही,
कहलाता है प्रेम !
याद रखने वाला तथ्य है कि
अधरों के सम्मिलन की व्याख्या
बता देती है
मौसम बदलेगा, या
बारिश के उम्मीद से रीत जाएगा आसमां !
समुद्र, व उठते गिरते ज्वार-भाटा का भूगोल
देहों में अनुभव होता है बारम्बार
कर्क-मकर रेखाओं के आकर्षण से इतर!
मृग तृष्णा व रेगिस्तान की भभकती उष्णता
बर्फीले तूफ़ान के तेज के साथ कांपता शरीर,
समझने लगता है ठंडक
दहकती गर्मी के बाद
ऐसे में
तड़ित का कडकना
छींटे पड़ने की सम्भावना को करता है मजबूत
आह से आहा तक की स्वर्णिम यात्रा
बारिश के उद्वेग के बाद
है निकलना धनक का
कि जिस्म के प्रिज्म के भीतर से
बहता जाता है सप्तरंगी प्रकाश !
कुछ मधुर पल की शान्ति बता देती है
कोलाहल समाप्त होने की वजह है
हाइवे से गुजर चुकी हैं गाड़ियाँ
फिर
पीठ पर छलछला आए
ललछौंह आधे चांद, जलन के बावजूद
होती है सूचक, आश्वस्ति का
यानी बहाव तेज रहा था !
भोर के पहले पहर में
समुद्र भी बन उठता है झील
शांत व नमक से रीती
कलकल निर्झर निर्मल
और हाँ
भोर के सूरज में नहाते हुए
स्त्री कहती है तृप्त चिरौरी के साथ
कल रात
कोलंबस ने पता लगा ही लिया था
हिन्द के किनारे का !!
वैसे भी जीवन का गुजर जाना
जीवन जीते हुए बह जाना ही है
कौन भला भूलता है
'प्रवाह' नियति है !
रात का पसरा अँधेरा
समझाता रहा
सपनों के खिलखिलाते क्षण आने वाले हैं
छितरती जा रही खामोशियों के बीच
चार पर चल रहा पंखा बता रहा
बस नींद आने ही वाली है
इधर पलके मुंदी
उधर कुछ सजीव तस्वीरों के जागती आवाज़ ने बताया
बेशक आ चुकी है रात
पर ज़रुरी थोड़ी है
सोते हुए सोया ही जाए
सोते हुए मुलाक़ात भी एक अजीब सी बात है न
कभी कभी थका हुआ शरीर
पलकों पर रखे हो चट्टान
क्या करे बेचारा, मना कर देता है सपनों को भी
मत आना आज तू
कुछ ऐसा जैसे प्रेयसी को कहा आज मिलना
और फिर कह गए
आज तो कहीं जाना है प्रिय
कभी कभी होता है कुछ ऐसा
जैसे हम जबरदस्ती मूंद कर पलकों को
कुछ ऐसा जैसे पलकों को सिल कर
बुलाते हैं हसीं सपनों को
आ भी जाओ यार ...!
और नखरैल के नखरे
देर रात से सुबह कर देती है
खैर, सोया हुआ शरीर
मरा हुआ देह नहीं होता
होता है कुछ ऐसा जैसे
हवा में तैरते बलून को एक और मारी गयी फूंक
और फिर बेशक पांच बजे का फिक्स टाइमर
टनटनाते हुए बताये या लगातार बजे
पर सुप्रभात व इबादत का वक्त होगा आठ बजे ही !
रात, नींद, सपने, बिस्तर, देह और आराम
इन सबका घाल मेल
और फिर इनके बीच
घुसपैठ बनाती तुम
हर जगह तो दिखाती हो खुद की बादशाहत
यानी नींद के साथ आया ही करोगी तुम
आते रहना !
महावीर वर्मा |
देर रात का सहमा सहमा प्रकाश
भनभनाते हुए दिख रहे कीट-पतंगे
आखिर आकर्षण एक स्रोत का
न चाहते हुए भी खिंचे चले आते बेचारे
कुछ ऐसा जैसे,
तीन बजे दोपहर के बदले रात सात बजे
एक मंच से आ रही हो
चुनाव पूर्व मक्खन चुपड़ी आवाज
भाइयों-बहनों-किसानों आदि
और, हो मैदान खचाखच
फड़फड़ाते पतंगों का आकर्षण
क्या न करवाये
बिना किसी सरसराहटों वाली आवाज के साथ
पहुंची हो कुछ छिपकलियां
कुछ समय पर तो
कुछ समय पूर्व
थी इन्तजार में
लपलपाती जुबान के साथ
खलबली मचाते हुए करने लगी जुगाड़
आखिर हर छिपकली
चाहती थी, कर सके उदरस्थ अधिकतम
हाँ अधिकतम कीट पतंगे मरे
पर छिपकलियों ने दिया दर्जा
शहीद का।
आखिर
शहीद का वजूद करता है आकर्षित
अन्य पतंगों को
अन्य कीटों को
अब तो तितलियों ने भी ठान लिया
दे देंगे जान, तोड़ लेंगे पंखुड़ियां
आखिर प्राण को करना अर्पित
कहलायेगी देशभक्ति।
इस प्राण आहुति के साथ ही
छिपकलियों में भी
छिड़ गया घमासान
अंततः सबसे बड़ी शहीद का
तमग़ा
मिला उस खास छिपकली को
जिसने
खिंचाई के इस दौर में
अपनी आधी पूंछ तोड़ गिराई
आखिर
नेता मरता नहीं, करना था साबित
वैसे भी
पूंछ के टूटने भर से
छिपकली ने पायी लम्बी उम्र।
याद रखना
मरते मारते रहेंगे कीट पतंगे
मरेंगी कुछ तितलियां भी
लपलपाती रहेगी
छिपकलियों की जुबान
देशप्रेम बना रहेगा यथावत।
अंतिम कश
सुट्टे के अंतिम कश से पहले सोचता हूँ
कि क्या सोचूं ?
जी.एस.टी. के उपरान्त लगने वाले टैक्स पर करूँ बहस,
या, फिर सेवेंथ पे कमिशन से मिलने वाले एरियर का
लगाऊं लेखा जोखा
या, सरकारी आयल पूल अकाउंट से
पेट्रोल या गैस पर मिलने वाली सब्सिडी पर तरेरूं नजर
पर, दिमाग का फितूर कह उठता है
क्या पैसा ही जिंदगी है ?
या पैसा भगवान् नहीं है,
पर भगवान की तुलना में है ज्यादा अहम् !
और, अंततः, बस अपने भोजपुरी सिनेमा के रविकिशन को
करता हूँ, याद, और कह उठता हूँ
"जिंदगी झंड बा, फिर भी घमंड बा"
अब, अंतिम कश लेने के दौरान
चिंगारी पहुँचती है फ़िल्टर वाले रुई तक
भक्क से जल उठता है
तर्जनी और मध्यमा के मध्य का हिस्सा
और फिर बिना सोचे समझे कह उठता हूँ
भक्क साला .....
जबकि कईयों के फेसबुक स्टेटस से पा चुका हूँ ज्ञान
गाली देना पाप है
रहने दो, डेली पढ़ते हैं, डब्बे पर स्मोकिंग इज इन्ज्युरिअस टू हेल्थ
जलते गलते जिगर की तस्वीर के साथ
फिर भी, वो धुएं का अन्दर जाना,
आँखों को बाहर निकलते हुए महसूसना
है न ओशो के कथन जैसा
बिलिफ़ इज ए बैरियर, ट्रस्ट इज ए ब्रिज !
लहराता हूँ हाथ
छमक कर उड़ जाती है सिगरेट, साथ ही
हवाओं के थपेड़े से मिलता है आराम
फिर बिना सोचे समझे महसूसता हूँ
उसके मुंह से निकलने वाले जल मिश्रित भाप की ठंडक
देती है कंपकपी
ऐसे भी सोचा, उसकी दी हुई गर्मी ने भी दी थी कंपकंपी
अंततः
दिमाग कह उठा, कल का दिन डेटिंग के लिए करो फिक्स
प्यार समय मांगता है
बिना धुंआ बिना कंपन
बेटर विदाउट सिगरेट ... है न !!!!
००
नाम : मुकेश कुमार सिन्हा (Mukesh Kumar)
जन्म : 4 सितम्बर 1971 (बेगुसराय, बिहार)
शिक्षा : बी.एस.सी. (गणित) (बैद्यनाथधाम, झारखण्ड)
वर्तमान: सम्प्रति केंद्रीय राज्य मंत्री, भारत सरकार, का प्रथम व्यक्तिक सहायक,
संग्रह : “हमिंग बर्ड” कविता संग्रह (सभी ई-स्टोर पर उपलब्ध) (बेस्ट सेलर) (हिन्द युग्म)
लप्रेक : ‘लाल फ्रॉक वाली लड़की” (अमेजन पर उपलब्ध) (बौधि प्रकाशन)
सह- संपादन: कस्तूरी, पगडंडियाँ, “गुलमोहर”, “तुहिन”, “गूँज” व “100कदम” (साझा कविता संग्रह) (250 से अधिक रचनाकारों की कवितायेँ शामिल)
प्रकाशित साझा काव्य संग्रह:
1.अनमोल संचयन 2.अनुगूँज 3.खामोश, ख़ामोशी और हम 4. प्रतिभाओं की कमी नहीं (अवलोकन 2011) 5.शब्दों के अरण्य में 6. अरुणिमा 7. शब्दो की चहलकदमी 8. पुष्प पांखुड़ी 9. मुट्ठी भर अक्षर (साझा लघुकथा संग्रह) 10. काव्या 11. शब्दों की अदालतमें
अन्य प्रकाशन : दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान, इंडिया टूडे, अहा जिंदगी, कथादेश, कथाक्रम, वटवृक्ष, लोकायत, लोकमत, गाथांतर, शब्द संयोजन, राजस्थान पत्रिका, जागरूकता मेल, शोध दिशा, साहित्य समीर, करुणावती साहित्यधारा, दुनिया इनदिनों, पुरवाई, रेवांत, स्वर्ण वाणी, अभिनव मीमांसा आदि में प्रकाशित
सम्मान: 1. तस्लीम परिकल्पना ब्लोगोत्सव (अंतर्राष्ट्रीय ब्लोगर्स एसोसिएशन) द्वारा वर्ष 2011 के लिए सर्वश्रेष्ठ युवा कवि का पुरुस्कार. 2. शोभना वेलफेयर सोसाइटी द्वारा वर्ष 2012 के लिए "शोभना काव्य सृजन सम्मान" 3. परिकल्पना(अंतर्राष्ट्रीय ब्लोगर्स एसोसिएशन)द्वारा ‘ब्लॉग गौरव युवा सम्मान’ वर्ष 2013 के लिए 4.विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ से हिंदी सेवा के लिए ‘विद्या वाचस्पति’ 2014 में 5. दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल 2015 में ‘पोएट ऑफ़ द इयर’ का अवार्ड 6. प्रतिमा रक्षा सम्मान समिति, करनाल द्वारा ‘शेर-ए-भारत’ अवार्ड मार्च, 2016 में 7. करुणावती साहित्य धारा साहित्यिक पत्रिका द्वारा साहित्य सम्मान 2016 में
विशेष : कविता कोष (http://kavitakosh.org/) पर कवितायेँ शामिल, आल इंडिया रेडिओ पर साक्षात्कार, इन्द्रप्रस्थ रेडिओ चैंनल पर कविता पाठ, चैनल वन टीवी पर कविता पाठ, APN News टीवी के म्यूजिकल शो “मेरा भी नाम होगा” के दो एपिसोड में ज्यूरी में शामिल, YMCA University of Science & Technology, फरीदाबाद के 2016 के वार्षिक फेस्ट के काव्योत्सव और इंडियन स्कूल, नई दिल्ली के डिबेट प्रतियोगिता में जूरी में शामिल |
'अंतिम कश' के भाव कमाल के हैं ! ऐसा लगा जैसे कवि ने 'प्यार' के मन की बात कह दी हो----
जवाब देंहटाएं"प्यार समय मांगता है
बिना धुंआ बिना कंपन
बेटर विदाउट सिगरेट ..."
हर प्यार की उम्मीद यहीं और ऐसी ही होती है|
बधाई मुकेश जी! मार्मिक कविता ! मन की बात कह गए हैं आप|
मुकेश जी आपकी कविता 'देर रात का सहमा सहमा प्रकाश' सहजता से व्यवस्था को थप्पड़ जड़ती महसूस हो रही है| कविता लगती है|
'याद रखना
मरते मारते रहेंगे कीट पतंगे
मरेंगी कुछ तितलियां भी
लपलपाती रहेगी
छिपकलियों की जुबान
देशप्रेम बना रहेगा यथावत।'
आपको ढेरों शुभकामनायें !!
दिव्य आप तो दिल ही जीत लेते हो।😊
हटाएंप्रस्थान,विस्थापन,अंतिम कश अच्छी व भावपूर्ण कविताएँ
जवाब देंहटाएंधन्यवाद प्रतिमा
हटाएंबहुत बहुत बधाई आपको
जवाब देंहटाएंThanks अजय
हटाएंशुक्रिया बिजूका, शुक्रिया दोस्तों।
जवाब देंहटाएंअच्छी व भावपूर्ण कविताएँ।���� प्रस्थान,विस्थापन,अंतिम कश, देर रात का सहमा सहमा प्रकाश बेहद प्रभावी बन पड़ी हैं।
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएँ और बधाई मुकेश जी को।
अच्छी व भावपूर्ण कविताएँ।���� प्रस्थान,विस्थापन,अंतिम कश, देर रात का सहमा सहमा प्रकाश बेहद प्रभावी बन पड़ी हैं।
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएँ और बधाई मुकेश जी को।
Thanks दोस्त 😊
हटाएंमुकेश सिन्हा की कविताओं को पढ़ते हुए ऐसा महसूस होता है जैसे हम किसी ऐसी यात्रा पर हैं जिसके मार्ग पर अनगिनत रूकावटें हैं । कहीं बाजार की कलाबाजियां हैं तो निरन्तर क्षरित हो रही मानवीयता का संकट है । मुकेश की कविताओं में इन संकटों से उबरने का जो आग्रह है वही उनकी कविताओं का उत्स है । बहरहाल इन अच्छी कविताओं के बाद आगे और अच्छी कविताओं की उम्मीद हम उनसे करते हैं ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सर, इतना प्यारा सच लिखने के लिए।
हटाएंप्रत्येक रचनाओं में अपना दंभ।
जवाब देंहटाएंरखते हुए खुद को बहुत ही बेहतरीन तरीके बहुत ही खूबसूरती के साथ प्रस्तुत किया।
आप की कविताएं तो हमेशा से ही बहुत अच्छी होती है मुकेश जी और हम बिजूका में शामिल होने के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई।
और आपकी कविताओं का आपकी रचनाओं का आपके विचारों विचारों का विस्तार यूं ही बढ़ता रहे।
इसी शुभकामना के साथ आपको बहुत-बहुत बधाइयां
शुक्रिया अनामिक आपके शब्द हमारे लिए मोटिवेशन का काम करेंगे 😊💐
हटाएंप्रत्येक कविता ने अपना दंभ रखते हुए बहुत ही खूबसूरती और लाजवाब तरीके से खुद को प्रस्तुत किया।
जवाब देंहटाएंआप की रचनाएं तो हमेशा से ही बहुत अच्छी होती है मुकेश जी और इस बार आपकी कविताओं को भी झुका में प्रकाशित होने पर बहुत-बहुत बधाई और आपको ढेर सारी शुभकामनाएं आपकी रचनाओं को आपके विचारों को आगे भी यही और विस्तार मिलता रहे शुभकामनाएं मिलती रहे।
शुक्रिया अनामिका
हटाएं