image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

07 मई, 2018


वैज्ञानिक समाजवाद और आज की चुनौतियां

प्रस्तुति: हीरालाल


कार्ल मार्क्स की द्विशतवार्षिकी के अवसर पर “वैज्ञानिक समाजवाद और आज की चुनौतियां“ विषय पर चक सेमरा घूरपुर में आयोजित गोष्ठी में बोलते हुए भाकपा (माले) न्यू डेमोक्रेसी के राज्य सचिव आशीष मित्तल ने कहा कि आज के हालातों में जहां भारत की 73 फीसदी आमदनी 1 फीसदी लोग कमा रहे हैं और जैसा कि मार्क्स ने कहा था “काम मांगने वाले हाथों का जंगल घना होता जा रहा है, जबकि उनके हाथ दुर्बल होते जा रहे हैं“, वर्ग संघर्ष के माध्यम से ही सामाजिक परिवर्तन लाने का मार्क्सवादी सिद्धान्त पूरी तरह सच साबित है।

उन्होंने कहा कि मार्क्सवाद न तो “जीने का तरीका“ है और न ही कोई “आध्यात्मिक अनुसरण“ है, जैसा कि चीन के वर्तमान साम्राज्यवादी शासक, जो  मार्क्सवादी नहीं, बाजारू पक्षधर हैं, प्रचार कर रहे हैं। मार्क्सवादी समाज को बदलने का निदेशक सिद्धान्त है। जैसा कि मार्क्स ने कहा था “अब तक सभी सिद्धान्तकारों ने दुनिया की व्याख्या की है, सवाल उसे बदलने का है“।



उन्होंने बताया कि व्यवस्था में मौजूद तीव्र संकट के कारण कालोनियों, बाजारों, संसाधनों पर कब्जे के लिए बड़ी साम्राज्यवादी ताकतों के बीच होड़ बढ़ गयी है, तीसरी दुनिया के शासक विदेशी ‘निवेशकों’, असल में ‘शोषकों’ की चाटुकारिता में लगे हैं, विशाल बहुराष्ट्रीय कारपोरेट मुनाफे के नए स्रोत प्राप्त करने के लिए थोक के भाव स्थानीय लोगों को उजाड़ रहे हैं, धार्मिक मूलवाद और गरीब व कमजोरों पर साम्प्रदायिक तथा जातिवादी हमले की पतनशील राजनीति बढ़ रही है, निर्वाचित संस्थाएं व संसद जनता की समस्याओं को हल करने में नाकाम हैं व अप्रासंगिक होती जा रही हैं तथा राज्य व पुलिस के जनता पर फासीवादी हमले बढ़ रहे हैं, ये सब बदलाव की आवश्यकता को दर्शा रहे हैं। जैसा कि माक्र्स ने कहा था “वर्ग संघर्ष, सामाजिक परिवर्तन का“ एक मात्र “इंजन“ है और इसके लिए भारत के मजदूर वर्ग, किसानों, तथा सभी देशभक्त वर्गों को ‘समाजवाद के निर्माण के लिए शासक वर्गों की राजकीय मशीनरी को उखाड़ने की जरूरत है“। उन्होंने कहा कि मेहनतकश जनता की गम्भीर राजनीतिक दिक्कतें चुनावी विकल्पों से हल नहीं हो सकतीं, जैसा कि संशोधनवादी कम्युनिस्ट वकालत करते हैं।

उन्होंने समझाया कि माक्र्सवाद सामाजिक परिवर्तन का विज्ञान है, जो माक्र्स और एंगिल्स के द्वंदात्मिक ऐतिहासिक भौतिकवाद के साथ विकसित हुआ, फिर रूसी क्रांति में “साम्राज्यवाद“ से लड़कर “सर्वहारा क्रांतियों और राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलनों“ द्वारा आगे बढ़ा और फिर चीन में सामंत विरोध, साम्राज्यवाद विरोधी ताकतों द्वारा “नवजनवादी क्रांति“ सम्पन्न करने और फिर “समाजवाद के निर्माण“ के दौरान “पूंजीवादी पथिकों“ के खिलाफ लड़ाई में और विकसित हुआ। आज जहां इस अंतिम पहलू पर संघर्ष को और विकसित करने की जरूरत है, यह अपने आप में साबित करता है कि “मानव समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है“ की माक्र्सवादी समझ सटीक है।

गोष्ठी का उद्घाटन वरिष्ठ समाजवादी व पीयूसीएल नेता श्री ओडी सिंह ने किया। उपस्थित सदस्यों ने इस बिन्दु पर कई विचारणीय प्रश्न किए और समीक्षा श्री विजय चितौरी ने की। का0 हीरालाल ने सभा का संचालन किया और मुन्ना ‘राही’ ने आन्दोलन के शहीदों के लिए गीत गाए।

हीरालाल

इलाहाबाद जिला कमेटी की ओर से

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें