कविता क्या है ?
मृत्युंजय पाण्डेय
कविताता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ-सम्बन्धों के संकुचित मण्डल से ऊपर उठाकर लोक-सामान्य भाव-भूमि पर ले जाती है जहाँ जगत की नाना गतियों के मार्मिक स्वरूप का साक्षात्कार और शुद्ध अनुभूतियों का संचार होता है । इस भूमि पर पहुँचे हुए मनुष्य को कुछ काल के लिए अपना पता नहीं रहता । वह अपनी सत्ता को लोकसत्ता में लीन किए रहता है । उसकी अनुभूति सब की अनुभूति होती है या हो सकती है
।
- कविता क्या है ?, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
मनुष्य के लिए कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य-असभ्य सभी जातियों में, किसी ने किसी रूप में पाई जाती है । चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन न हो, पर कविता का प्रचार अवश्य रहेगा । ...मनुष्यता को समय-समय पर जगाते रहने के लिए कविता मनुष्य जाती के साथ लगी चली आ रही है और चली चलेगी । जानवरों को इसकी जरूरत नहीं ।
- कविता क्या है ?, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निबंध ‘कविता क्या है ?’ में कविता पर हर दृष्टि से गंभीरता से विचार किया गया है । निस्संदेह आचार्य शुक्ल का यह निबंध कविता को समझने में बहुत सहायक सिद्ध होता है । पर इस ऐतिहासिक निबंध के बावजूद बहुत कुछ कविता पर कहना शेष रह जाता है और इस लेख के बाद भी बहुत कुछ कहना शेष रह जाएगा । आचार्य शुक्ल की परिभाषा एक आलोचक की परिभाषा है । आचार्य शुक्ल कविता को आलोचक की दृष्टि से देखते हैं, कवि की दृष्टि से नहीं । लगभग सभी भाषाओं के बड़े-बड़े कवियों ने, अपनी-अपनी दृष्टि से कविता को परिभाषित करने की चेष्टा की है । कविता क्या है ? और समाज में इसकी भूमिका क्या है ? इसका ठीक-ठीक उत्तर देना किसी भी आलोचक-कवि के लिए अत्यंत कठिन कार्य है । हर आलोचक और हर कवि की दृष्टि में कविता का अपना अलग महत्त्व है, और मजे की बात यह कि सबकी परिभाषा सटीक लगती है । कविता को किसी निश्चित परिभाषा में न बाँध पाना ही कविता की विशेषता है । कविता है ही ऐसी चीज उसे कोई बाँध नहीं सकता । वह हर बंधन से मुक्त है । इसलिए आज तक न उसे आलोचक बाँध पाया और न कवि । कविता ताला नहीं जो बंद हो जाए, वह चाभी है और यह चाभी हर ताले को खोल सकती है ।
इस आलेख में हम विभिन्न कवियों की परिभाषाओं को गुजरेंगे । कोशिश यही रहेगी, कविता की भाषा में ही कविता को परिभाषित किया जाए । कविता क्या है ? यह जानने से पहले कविता क्या नहीं है ? और कविता कैसे आती है ? यह जानते हैं । इस संबंध में नवीन सागर ‘कवि मित्र से निवेदन’ करते हुए कहते हैं –
कविता हिम्मत से नहीं आती
किस्मत से भी नहीं आती
खिदमत से तो आती ही नहीं है
कविता अकल से नहीं आती
शकल से भी नहीं आती
नकल से तो आती ही नहीं है
कविता कहने से नहीं आती
ढहने से भी नहीं आती
बहने से तो आती ही नहीं है
कविता आने से नहीं आती
ना आने से भी नहीं आती
माने से तो आती ही नहीं है
कविता नहले से नहीं आती
दहले से भी नहीं आती
पहले से तो आती ही नहीं है ।
(कवि मित्र से निवेदन, नवीन सागर, कविता कोश से)
यह अत्यंत दुखद है कि आज 21वीं सदी में कविता ‘हिम्मत, किस्मत, खिदमत, अकल, शकल और नकल’ का पर्याय बनती जा रही है । कुछ लोग हिम्मत से कवि हो गए हैं तो कुछ लोग किस्मत से । कुछ किसी की खिदमत करके आगे बढ़ रहे हैं तो कुछ थोड़ी अकल लगा के । कुछ अपनी शक्ल-सूरत का फायदा उठा रहे हैं तो कुछ सीधे-सीधे बड़े कवियों की नकल कर रहे हैं । सोशल मीडिया ने, खासकर फेसबुक ने कविता को अगंभीर बना दिया है । हर रोज सैकड़ों की संख्या में कविता के नाम पर कूड़ा-करकट पोस्ट किया जा रहा है और इन फेसबुकिया कवियों का दुख यह कि लोग उन्हें कवि नहीं मान रहे । वे अपनी कविताओं के साथ-साथ अपना दुखड़ा भी पोस्ट कर रहे हैं । ये कवि (?) तिकड़म से, खिदमत से या अपने पैसे से पुस्तक छपवा सकते हैं या अधिक-से-अधिक एक-दो पुरस्कार ले सकते हैं, पर यकीन जानिए ये कवि नहीं हो सकते । इनकी कविताओं को कोई नहीं पढ़ेगा । इनके जीवन काल में ही इनकी पुस्तकें अनुपयोगी और उपेक्षित हो जाती हैं । दो-चार रुपए में ये फुटपाथ पर बिकते हैं और वहाँ भी उन्हें कोई नहीं पूछता । वैसे पूछने को तो फेसबुक पर भी इन्हें कोई नहीं पूछता । आपको दो-चार या पाँच-दस जो टिपन्नियाँ या लाइक्स दिखते हैं वह व्यक्तिगत सम्बन्धों की वजह से आते हैं । कविता की वजह से नहीं ।
बरसाती मेढकों की तरह उग आए तथाकथित ये कवि, कवि एवं कविता दोनों को बदनाम किए हैं । इनकी बेतुकी कविताओं को देख बहुत से लोगों में कवि बनने की हिम्मत आ गई है । आज भिन्न-भिन्न प्रकार के कवि दिख रहे हैं । ऐसे कवियों पर कवि प्रियंकर पालीवाल ने एक बेहतरीन कविता लिखी है । कविता थोड़ी लम्बी है पर है बड़ी मजेदार । थोड़ा-सा धैर्य रखकर पूरी कविता पढिए –
युवा कवि, प्रौढ़ कवि, वृद्ध कवि, क्रुद्ध कवि
पुरस्कृत कवि, बहुपुरस्कृत कवि, अतिपुरस्कृत कवि
द्रव्य-विगलित कवि, पुरस्कार-पिघलित कवि
दुम-दोलक कवि, पोल-खोलक कवि, ऐयार कवि, मक्कार कवि
विख्यात कवि, कुख्यात कवि, सभा-जमाऊ कवि, काम-चलाऊ कवि
पैदाइशी कवि, फरमाइशी कवि, नुमाइशी कवि
कब्ज-कष्टिक कवि, पेचिश-पिष्टित कवि
बचा हुआ कवि, बचाया हुआ कवि, टिका हुआ कवि, टिकाया हुआ कवि
कृत्रिम श्वास पर टिका कवि, टिकाऊ कवि
संपादक कवि, आलोचक कवि, प्रकाशक कवि, प्रकाशक-प्रिय कवि
संपादक-प्रिय कवि, आलोचक-प्रिय कवि, कवियों का कवि
पुरस्कार-मित्र कवि, मित्र-पुरस्कार कवि
स्वयंप्रकाशी कवि, प्रकाश-परावर्ती कवि, परावर्तन-प्रकाशित कवि
पारदर्शी कवि, पारभाषी कवि, पारान्ध कवि
सरल कवि, सरलता-आवृत कवि, सरलता-प्रदर्शी-कवि
घाघ कवि, घाघाश्रित कवि, बाघ कवि, बाघाश्रित कवि
अकादमिक कवि, अकादमी-प्रिय कवि, अकादमी-विकीर्णित कवि
अकादमिक-संप्रेषित कवि, अकादमिक-कुपोषित कवि, अकादमिक-प्रकीर्णित कवि
व्याकरण-मुक्त कवि, व्याकरण-भुक्त कवि, वैयाकरण कवि
तुस्सी-मुस्सी का कवि, धान की भूसी का कवि
चौकन्ना कवि, पुरस्कार-चौकन्ना कवि, कटखना कवि
लोक कवि, लोकार्त कवि, लोकार्पित कवि
संभावित कवि, असंभावित कवि, संभावना-प्रदर्शी कवि
भूतपूर्व कवि, अभूतपूर्व कवि, सजधारी कवि, भेषधारी कवि
स्थायी कवि, अस्थायी कवि, अंशकालिक कवि
नगर कवि, महानगर कवि, राष्ट्रकवि, महाराष्ट्र कवि
अंतर्देशीय कवि, भूमंडलीकृत कवि, कमंडलीकृत कवि
पोस्टकार्ड-बिलमित कवि, आलोचना-सुलगित कवि, पोस्टकार्ड-निर्मित कवि
अगड़ा कवि, पिछड़ा कवि, द्विज कवि, दलित कवि, सुललित कवि
आनिवासी कवि, आदिवासी कवि, अटपटा कवि, चटपटा कवि
सरकारी कवि, अर्धसरकारी कवि, गैरसरकारी कवि, व्यापारी कवि
अध्यापक कवि, प्राध्यापक कवि, पत्रकार कवि, प्रशासक कवि, अनुशासक कवि
एनजीओ-कारी कवि, रोकड़िया कवि, हड़बड़िया कवि, अनाड़ी कवि
जन कवि, गण कवि
कण कवि, क्षण कवि
रत्ती-टोला-माशा-मन कवि
कहाँ है भाई !
जन-गण-मन का कवि ।
(कवि नाम परिगणन, वृष्टि-छाया प्रदेश का कवि, पृष्ठ संख्या - 49-50)
निश्चित ही आज जन-गण-मन का कवि खो गया है । ऐसे कवि डिमांड पर एवं पुरस्कार के लिए कविताएँ लिखते हैं । इनका उद्देश्य जनता तक पहुँचना बिल्कुल नहीं है । इनकी कविताओं का कोई सामाजिक, सांस्कृतिक दायित्व नहीं है । ये हर दायित्वबोध से मुक्त हैं । दरअसल “किसी भी समय में वही साहित्य कालजयी हुआ है, जिसने अपने समय से सीधे मुठभेड़ की हो । समाजनिरपेक्ष और कालनिरपेक्ष होकर कोई भी रचना कालजयी नहीं होती । रचना की विशेषता यही है कि वह एक समय विशेष में अपनी स्थानिकता के साथ अपने समय के वातावरण और अपने समय की जलवायु में पैदा होती है, जैसे कोई भी इस पृथ्वी पर अपनी-अपनी विशेष परिस्थितियों में कहीं-न-कहीं किसी विशेष स्थान पर पैदा होती है, वहीं उसका पालन-पोषण होता है और यह सब उस जमीन के भरोसे ही होता है जिस पर उसने जन्म लिया होता है । रचना भी इसी तरह की होती है ।
जो रचनाएँ अपनी बोली-बानी, रहन-सहन, रखरखाव, जलवायु और देशकाल का पता नहीं देती, उन पर यदि कोई संदेह करे तो उसे कैसे रोका जा सकता है ।” (भगवत रावत)
अब भी प्रश्न यह कि आखिर कवि और कविता की भूमिका क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर मारीना त्स्वेतायेवा अपनी ‘कवि’ शीर्षक कविता में देते हुए कहते हैं -
बहुत दूर की बात छेड़ता है कवि
बहुत दूर की बात खींच ले जाती है कवि को ।
ग्रहों, नक्षत्रों...सैकड़ों मोड़ों से होती कहानियों की तरह
हाँ और ना के बीच
वह घंटाघर की ओर से हाथ हिलाता है
उखाड़ फेंकता है सब खूँटे और बंधन...
कि पुच्छलतारों का रास्ता होता है कवियों का रास्ता –
बहुत लम्बी कड़ी कारणत्व की –
यही है उसका सूत्र! ऊपर उठाओ माथा -
निराश होना होगा तुम्हें
कि कवियों के ग्रहण का
पूर्वानुमान नहीं लगा सकता कोई पंचाग ।
कवि वह होता है जो मिला देता है ताश के पत्ते
गड्डमड्ड कर देता है भार और गिनती
कवि वह होता है जो पूछता है स्कूली डेस्क से
जो काँट का भी खा डालता है दिमाग,
जो बास्तील के ताबूत में भी
लहरा रहा होता है हरे पेड़ की तरह,
जिसके हमेशा क्षीण पड़ जाते हैं पदचिह्न,
वह ऐसी गाड़ी है जो हमेशा आती है लेट
इसलिए कि पुच्छलतारों का रास्ता
होता है कवियों का रास्ता जलता हुआ
न कि झुलसा हुआ,
उद्विग्न लेकिन संतुलित, शांत,
यह रास्ता टेढ़ा-मेढ़ा
पंचांग या जंत्रियों के लिए बिल्कुल अज्ञात !
(कवि, मारीना त्स्वेतायेवा, अनुवाद – वरयाम सिंह, हिन्दी समय से)
मारीना त्स्वेतायेवा की यह कविता कवि एवं कविता के उद्देश्य को खोलती है । कवि समाज का मार्गदर्शक होता है । वह कठिन से कठिन और बर्बर से बर्बर समय में भी अपने दायित्व को नहीं भुलाता । जिसे हम सचमुच कवि कहते हैं वह रेगिस्तान में भी हरे-भरे पेड़ को लहरा देता है । कवि भविष्यद्रष्टा होता है । वह समय से पहले समय की विडम्बना को देख-परख लेता है । वह सत्ता के साथ नहीं, आम जनता के साथ होता है । उसकी कविताएँ सत्ता का गुणगान नहीं, आम जनता का दुख बयां करती हैं । उसकी कविताएँ दीपक के उस लौ की तरह होती हैं, जो घोर अँधेरे में रास्ता भी दिखाती हैं । वह हमें मनुष्य बनाती है ।
कविता के संदर्भ में अब हम प्राचीन भारतीय विद्वानों के कथन को देखते हैं । उनकी नजर में कविता क्या है ?
छठी शताब्दी के संस्कृत विद्वान आचार्य भामह का मानना है – “शब्दार्थों साहितौ काव्यम्” अर्थात् ‘शब्द और अर्थ का सहित भाव काव्य कहलाता है’ । आचार्य मम्मट ‘काव्य प्रकाश’ में काव्य के छह प्रयोजनों का उल्लेख किए हैं –
काव्यं यशसेsर्थेकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतए ।
सद्य: परनिर्वृतए कांतासम्मिततयोपदेशयुजे ॥
अर्थात् ‘यश, अर्थ, व्यावहारिक ज्ञान की प्राप्ति, अमंगल का नाश, शीघ्र आनंद की प्राप्ति तथा सरस मधुर उपदेश (कांता-सम्मति ) ही काव्य है ।
साहित्य दर्पण में आचार्य विश्वनाथ का कहना है – “वाक्यम् रसात्मकं काव्यम्” अर्थात् ‘रस की अनुभूति करा देने वाली वाणी काव्य है’ । पंडित जगरन्नाथ का कहना है - “रमणीयार्थ-प्रतिपादक:शब्द: काव्यम्” अर्थात् ‘सुन्दर अर्थ को प्रकट करने वाली रचना ही काव्य है’ । पंडित अंबिकादत्त व्यास का मानना है – “लोकोत्तरानंददाता प्रबंध: काव्यानाम् यातु” अर्थात् ‘लोकोत्तर आनंद देने वाली रचना ही काव्य है । आचार्य श्रीपति ने कहा है –
“शब्द अर्थ बिन दोष गुण, अहंकार रसवान
ताको काव्य बखानिए श्रीपति परम सुजान
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ‘कविता क्या है ?’ अपने निबंध में कविता को ‘जीवन की अनुभूति’ मानते हैं । जयशंकर प्रसाद ने सत्य की अनुभूति को ही कविता माना है । महादेवी ने कविता का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा है – “कविता कवि विशेष की भावनाओं का चित्रण है” । यानी कविता का सीधा संबंध हृदय से होता है । वह एक हृदय से निकलकर दूसरे हृदय तक पहुँचती है । कवि रामधारी सिंह दिनकर कहते हैं “कविता वह सुरंग है जिसमें से गुजरकर मनुष्य एक विश्व को छोड़कर दूसरे विश्व में प्रवेश करता है ।” दिनकर जी यह भी कहते हैं कि “कविता गाकर रिझाने के लिए नहीं समझकर खो जाने के लिए है ।”
संवेदना और पीड़ा से ही कविता का जन्म हुआ है । क्रौंच-मिथुन का वियोग आदि कवि वाल्मीकि से सहन नहीं हुआ और उनकी वाणी से काव्य की रचना हुई । कथा कुछ यूँ है – एक बार महर्षि वाल्मीकि एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे । वह जोड़ा प्रेमालाप में लिन था, तभी उन्होंने देखा कि एक बहेलिए ने कामरत क्रौंच (सारस) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी विलाप करने लगी । उसके इस विलाप को सुनकर महर्षि की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ा –
माँ निषाद प्रतिष्ठा त्वमगम: शाश्वती: समा: ।
यत्क्रौंचमिथुननादेकम् अवधी: काममोहितम् ॥
(अरे बहेलिए, तूने काममोहित क्रौंच पक्षी को मारा है । जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पाएगी)
कवि के लिए कविता एक चुनौती है । कवि को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए कविता का ही आसरा है । कवि ‘धूमिल’ अपनी ‘कविता’ शीर्षक कविता में कहते हैं –
वह बहुत पहले की बात है
जब कहीं किसी निर्जन में
आदिम पशुता चीखती थी और
सारा नगर चौंक पड़ता था
मगर अब –
अब उसे मालूम है कि कविता
घेराव में
किसी बौखलाए हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है ।
(कविता, धूमिल, कविता कोश से)
मात्र कुछ पंक्तियों में ‘धूमिल’ बहुत कुछ कह जाते हैं । पहले किसी पशु की चीख पर सारा नगर चौंक जाता था । उसकी चीख मनुष्य को विचलित कर देती थी । पर, आज पशु की कौन कहे, मनुष्य को मनुष्य की चीख नहीं सुनाई दे रही । आज हत्या आदत बन चुकी है । हम जानवर बनते जा रहे हैं । हमारी संवेदना खत्म होती जा रही है । आज कविता कवि का एकालाप बनकर रह गया है । कवि और कविता को कैद करने की कोशिश की जा रही है । ‘धूमिल’ अपनी एक अन्य कविता ‘मुनासिब कार्यवाही’ में कहते हैं –
कविता क्या है
कोई पहनावा है, कुरता पाजामा है
ना भाई ना
कविता शब्दों की अदालत में
मुजरिम के कटघड़े में खड़े
बेकसूर आदमी का
हलफनामा है
क्या वह व्यक्तित्व बनाने की
चरित्र चमकाने की
खाने कमाने की चीज है
ना भाई ना
कविता
भाषा में
आदमी होने की तमीज है ।
(मुनासिब कार्यवाही, धूमिल, कविता कोश से)
एक अच्छा कवि स्वभाव से ही विद्रोही होता है । उसकी कविताएँ सत्ता के गलियारे में नहीं बल्कि झोपड़ियों में निवास करती हैं । वह शब्दों के सहारे चेहरों को नंगा करता है । कविता हमें हमसे मिलाती है । कवि कुँवरनारायण अपनी ‘कविता’ शीर्षक कविता में लिखते हैं –
कविता वक्तव्य नहीं गवाह है
कभी हमारे सामने
कभी हमसे पहले
कभी हमारे बाद
कोई चाहे भी तो रोक नहीं सकता
भाषा में उसका बयान
जिसका पूरा मतलब है सच्चाई
जिसकी पूरी कोशिश है बेहतर इंसान
उसे कोई हड़बड़ी नहीं
कि वह इश्तहारों की तरह चिपके
जुलूसों की तरह लगे
और चुनावों की तरह जीते
वह आदमी की भाषा में
कहीं किसी तरह जिंदा रहे बस ।
(कविता, कुँवरनारायण, कविता कोश से)
कविता का मतलब है सच्चाई, इंसानियत । सच के साथ खड़ा होना ही कविता का स्वाभाविक गुण है । वह इश्तेहार या विज्ञापन नहीं है । कवि कुँवरनारायण ‘कविता की जरूरत’ को बताते हुए कहते हैं –
बहुत कुछ दे सकती है कविता
क्योंकि बहुत कुछ हो सकती है कविता
जिंदगी में
अगर हम जगह दें उसे
जैसे तारों को जगह देती है रात
हम बचाए रख सकते हैं उसके लिए
अपने अंदर कहीं
ऐसा एक कोना
जहाँ जमीन और आसमान
जहाँ आदमी और भगवान के बीच दूरी
कम से कम हो ।
वैसे कोई चाहे तो जी सकता है
एक नितांत कवितारहित जिंदगी
कर सकता है
कवितारहित प्रेम ।
(कविता की जरूरत, कुँवरनारायण, कविता कोश से)
कविता हमें बहुत कुछ दे सकती है । बशर्ते हमारे जीवन में कविता के लिए थोड़-सी जगह रहे । कवितारहित जीवन और कवितारहित प्रेम का कोई मूल्य नहीं । कवितामय जीवन की बात ही निराली है ।
कुछ लोग कविता का दुख रोते हैं । कविता की मृत्यु की बात करते हैं । इस संबंध में धर्मवीर भारती कहते हैं –
भूख , खूंजेरी, गरीबी हो मगर
आदमी के सृजन की ताकत
इन सबों की शक्ति के ऊपर
और कविता सृजन की आवाज है
फिर उभरकर कहेगी कविता
क्या हुआ दुनिया अगर मरघट बनी
अभी मेरी आखिती आवाज बाकी है
हो चुकी है हैवानियत की इन्तेहा
आदमीयत का अभी आगाज बाकी है
लो तुम्हें मैं फिर नया विश्वास देता हूँ
नया इतिहास देती हूँ
कौन कहता है कि कविता मर गई है ?
(कविता की मृत्यु, धूमिल, कविता कोश से)
हिन्दी कविता की पहचान भगवत रावत के अनुसार न आदमी कविता में पूरी तरह से बंध सकता है और न ही कोई कवि कविता को पूरी तरह से उतार सकता है । कविता का कद इतना बड़ा है कि कोई भी उसे उतार नहीं सकता -
इतनी बड़ी होती है कविता
कि उतारते-उतारते उसे
हमेशा
छोटी पड़ जाती हैं
उँगलियाँ
जैसे
आदमी
चाहे जितना हो
कब बंध पाता है
पूरा का पूरा
कविता में ।
(कविता, कवि ने कहा, भगवत रावत, पृष्ठ संख्या - 6)
अपनी एक अन्य कविता ‘वही तो कविता होती है’ में भगवत रावत कहते हैं –
दुनिया कहीं से कहीं चली जाए
कुछ चीजें निर्विकल्प होती हैं
जैसे निर्जन वन में कविता की तरह बहता
कोई ठंडा पानी का सोता
उसे ठंडे पानी का सोता ही रहने दो यारों
भाषा के जंगल से उसे कुछ का कुछ मत बनाओ
भाषा साँसत में फंसी कविता को उबारने को होती है
आखिर मनुष्य की ठिठुरती आत्मा में
चाय के गरम घूंट-सी जो उतरती है
वही तो कविता होती है ।
(वही तो कविता होती है, कवि ने कहा, भगवत रावत, पृष्ठ संख्या - 108)
हमारे समय के महत्त्वपूर्ण कवि आलोक धन्वा जनता के कवि हैं । जहाँ भी जनता पर जुल्म होता है, वहाँ सबसे पहले पहुँचती है उनकी कविता । आलोक धन्वा के कविता के शब्द बंदूक की गोली की तरह असर करते हैं । ‘जनता का आदमी’ उनकी लम्बी कविता है, इस कविता में बहुत ही बारीकी से बताया गया है कि आखिर कविता है क्या ? कवि का धर्म क्या कहता है ? समाज में उसकी भूमिका क्या है ? इस कविता की अंत की कुछ पंक्तियाँ देखिए –
कविता की एक महान संभावना है यह कि वह मामूली आदमी अपनी कृतियों को महसूस करने लगा है-
अपनी टांग पर टिके महानगरों और
अपनी कमर पर टिकी हुई राजधानियों को
महसूस करने लगा है वह ।
धीरे-धीरे उसका चेहरा बदल रहा है
हल के चमचमाते हुए फाल की तरह पंजों को
बीज, पानी और जमीन के सही रिश्तों को
वह महसूस करने लगा है ।
कविता का अर्थ विस्तार करते हुए
वह जासूसी कुत्तों की तरह शब्दों को खुला छोड़ देता है
एक छिटकते हुए क्षण के भीतर देख लेता है वह
जंजीर का अकेलापन,
वह जान चुका है-
क्यों एक आदिवासी बच्चा घूरता है अक्षर,
लिपि से डरते हुए,
इतिहास की सबसे घिनौनी किताब का राज खोलते हुए ।
(जनता का आदमी, आलोक धन्वा, कविता कोश से)
जाहिर है, आलोक धन्वा कविता को बहुत विस्तार देते हैं । उनके लिए कविता सिर्फ शब्दों का खेल नहीं है । वास्तव में कविता का उद्देश्य यही होना भी चाहिए ।
कवि विनोद कुमार शुक्ल की दृष्टि में “दरअसल कविता एक ऐसी शांत हलचल है जो पाठक को बहुत ऊँचे उछाल देती है और यह उछाल एक ऐसे नशे का अनुभव देता है, जिसे पाने के लिए कविताओं की तरफ बार-बार चले आते हैं ।” कविता का यह नशा कवि और पाठक दोनों को लगता है । पाठक कविता पढ़कर नशा में आता है तो कवि पाठक को नशे में देख नशे का शिकार होता है ।
कवि राधाकृष्ण सहाय कविता को उपस्थित और अनुपस्थित, होने और न होने के बीच का एक सेतु मानते हैं । कविता को परिभाषित करते हुए वे कहते हैं –
कविता उपस्थित अनुपस्थित के बीच एक सेतु है
स्वप्न भी जागृति भी निद्रा भी
वर्तमान और भविष्य भी
देश काल पात्र भी
हर व्यक्ति की है गुंजाइश
कभी भी दरवाजे पर दस्तक दिया जा सकता है
होना न होने के बीच कविता एक सेतु है
उपस्थित अनुपस्थित के बीच एक सेतु है कविता
(कविता, एक शिक्षक की डायरी, राधाकृष्ण सहाय, पृष्ठ संख्या - 48)
कविता सब कुछ है । जहाँ सारे रास्ते बंद हो जाते हैं, वहीं से कविता की यात्रा शुरू होती है । कविता की संभावना अनंत है ।
इन परिभाषाओं से गुजरने के बाद अंत में अय्यप्पा पणिक्कर के शब्दों में, “हर अच्छी कविता, एक नयी यात्रा की शुरुआत है । वह अपने में एक नयी परिभाषा संजोए है, जिसे कसी दूसरे अच्छी कविता पर लागू नहीं किया जा सकता । अगर कोई परिभाषा तमाम कविताओं पर लागू की जाए, तो वह इस कदर सामान्य हो जाती है कि किसी काम की नहीं होती । परिभाषाओं में खोजकर्ता असफल होने के लिए अभिश्प्त है ।” इतनी यात्रा के बाद अंत में प्रश्न यही रह जाता है कि कविता क्या है ? दरअसल कविता को किसी परिभाषा में नहीं बाँधा जा सकता । उसे कोई ठीक-ठीक परिभाषित नहीं कर सकता । सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि जिससे मनुष्यता की रक्षा हो वह कविता है और जो अपने दायित्व से मुँह न मोड़े वह कवि है ।
००
मृत्युंजय पाण्डेय
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी विभाग
सुरेन्द्रनाथ काॅलेज (कलकत्ता विश्वविद्यालय)
प्रकाशित पुस्तकें:
कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव
कहानी से संवाद
कहानी का अलक्षित प्रदेश
संपर्क: 25/1/1, फकीर बगान लेन, पिलखाना, हावड़ा- 711101
मोबाइल: 9681510596
ईमेल आईडी: pmrityunjayasha@gmail.com
मृत्युंजय पाण्डेय का एक लेख और नीचे लिंक पर पढिए
हिन्दी कविता में कलकत्ता
http://bizooka2009.blogspot.com/2018/05/1961.html
मृत्युंजय पाण्डेय
कविताता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ-सम्बन्धों के संकुचित मण्डल से ऊपर उठाकर लोक-सामान्य भाव-भूमि पर ले जाती है जहाँ जगत की नाना गतियों के मार्मिक स्वरूप का साक्षात्कार और शुद्ध अनुभूतियों का संचार होता है । इस भूमि पर पहुँचे हुए मनुष्य को कुछ काल के लिए अपना पता नहीं रहता । वह अपनी सत्ता को लोकसत्ता में लीन किए रहता है । उसकी अनुभूति सब की अनुभूति होती है या हो सकती है
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रामचन्द्र शुक्ल |
- कविता क्या है ?, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
मनुष्य के लिए कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य-असभ्य सभी जातियों में, किसी ने किसी रूप में पाई जाती है । चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन न हो, पर कविता का प्रचार अवश्य रहेगा । ...मनुष्यता को समय-समय पर जगाते रहने के लिए कविता मनुष्य जाती के साथ लगी चली आ रही है और चली चलेगी । जानवरों को इसकी जरूरत नहीं ।
- कविता क्या है ?, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निबंध ‘कविता क्या है ?’ में कविता पर हर दृष्टि से गंभीरता से विचार किया गया है । निस्संदेह आचार्य शुक्ल का यह निबंध कविता को समझने में बहुत सहायक सिद्ध होता है । पर इस ऐतिहासिक निबंध के बावजूद बहुत कुछ कविता पर कहना शेष रह जाता है और इस लेख के बाद भी बहुत कुछ कहना शेष रह जाएगा । आचार्य शुक्ल की परिभाषा एक आलोचक की परिभाषा है । आचार्य शुक्ल कविता को आलोचक की दृष्टि से देखते हैं, कवि की दृष्टि से नहीं । लगभग सभी भाषाओं के बड़े-बड़े कवियों ने, अपनी-अपनी दृष्टि से कविता को परिभाषित करने की चेष्टा की है । कविता क्या है ? और समाज में इसकी भूमिका क्या है ? इसका ठीक-ठीक उत्तर देना किसी भी आलोचक-कवि के लिए अत्यंत कठिन कार्य है । हर आलोचक और हर कवि की दृष्टि में कविता का अपना अलग महत्त्व है, और मजे की बात यह कि सबकी परिभाषा सटीक लगती है । कविता को किसी निश्चित परिभाषा में न बाँध पाना ही कविता की विशेषता है । कविता है ही ऐसी चीज उसे कोई बाँध नहीं सकता । वह हर बंधन से मुक्त है । इसलिए आज तक न उसे आलोचक बाँध पाया और न कवि । कविता ताला नहीं जो बंद हो जाए, वह चाभी है और यह चाभी हर ताले को खोल सकती है ।
नवीन सागर |
इस आलेख में हम विभिन्न कवियों की परिभाषाओं को गुजरेंगे । कोशिश यही रहेगी, कविता की भाषा में ही कविता को परिभाषित किया जाए । कविता क्या है ? यह जानने से पहले कविता क्या नहीं है ? और कविता कैसे आती है ? यह जानते हैं । इस संबंध में नवीन सागर ‘कवि मित्र से निवेदन’ करते हुए कहते हैं –
कविता हिम्मत से नहीं आती
किस्मत से भी नहीं आती
खिदमत से तो आती ही नहीं है
कविता अकल से नहीं आती
शकल से भी नहीं आती
नकल से तो आती ही नहीं है
कविता कहने से नहीं आती
ढहने से भी नहीं आती
बहने से तो आती ही नहीं है
कविता आने से नहीं आती
ना आने से भी नहीं आती
माने से तो आती ही नहीं है
कविता नहले से नहीं आती
दहले से भी नहीं आती
पहले से तो आती ही नहीं है ।
(कवि मित्र से निवेदन, नवीन सागर, कविता कोश से)
यह अत्यंत दुखद है कि आज 21वीं सदी में कविता ‘हिम्मत, किस्मत, खिदमत, अकल, शकल और नकल’ का पर्याय बनती जा रही है । कुछ लोग हिम्मत से कवि हो गए हैं तो कुछ लोग किस्मत से । कुछ किसी की खिदमत करके आगे बढ़ रहे हैं तो कुछ थोड़ी अकल लगा के । कुछ अपनी शक्ल-सूरत का फायदा उठा रहे हैं तो कुछ सीधे-सीधे बड़े कवियों की नकल कर रहे हैं । सोशल मीडिया ने, खासकर फेसबुक ने कविता को अगंभीर बना दिया है । हर रोज सैकड़ों की संख्या में कविता के नाम पर कूड़ा-करकट पोस्ट किया जा रहा है और इन फेसबुकिया कवियों का दुख यह कि लोग उन्हें कवि नहीं मान रहे । वे अपनी कविताओं के साथ-साथ अपना दुखड़ा भी पोस्ट कर रहे हैं । ये कवि (?) तिकड़म से, खिदमत से या अपने पैसे से पुस्तक छपवा सकते हैं या अधिक-से-अधिक एक-दो पुरस्कार ले सकते हैं, पर यकीन जानिए ये कवि नहीं हो सकते । इनकी कविताओं को कोई नहीं पढ़ेगा । इनके जीवन काल में ही इनकी पुस्तकें अनुपयोगी और उपेक्षित हो जाती हैं । दो-चार रुपए में ये फुटपाथ पर बिकते हैं और वहाँ भी उन्हें कोई नहीं पूछता । वैसे पूछने को तो फेसबुक पर भी इन्हें कोई नहीं पूछता । आपको दो-चार या पाँच-दस जो टिपन्नियाँ या लाइक्स दिखते हैं वह व्यक्तिगत सम्बन्धों की वजह से आते हैं । कविता की वजह से नहीं ।
प्रियंकर पालीवाल |
बरसाती मेढकों की तरह उग आए तथाकथित ये कवि, कवि एवं कविता दोनों को बदनाम किए हैं । इनकी बेतुकी कविताओं को देख बहुत से लोगों में कवि बनने की हिम्मत आ गई है । आज भिन्न-भिन्न प्रकार के कवि दिख रहे हैं । ऐसे कवियों पर कवि प्रियंकर पालीवाल ने एक बेहतरीन कविता लिखी है । कविता थोड़ी लम्बी है पर है बड़ी मजेदार । थोड़ा-सा धैर्य रखकर पूरी कविता पढिए –
युवा कवि, प्रौढ़ कवि, वृद्ध कवि, क्रुद्ध कवि
पुरस्कृत कवि, बहुपुरस्कृत कवि, अतिपुरस्कृत कवि
द्रव्य-विगलित कवि, पुरस्कार-पिघलित कवि
दुम-दोलक कवि, पोल-खोलक कवि, ऐयार कवि, मक्कार कवि
विख्यात कवि, कुख्यात कवि, सभा-जमाऊ कवि, काम-चलाऊ कवि
पैदाइशी कवि, फरमाइशी कवि, नुमाइशी कवि
कब्ज-कष्टिक कवि, पेचिश-पिष्टित कवि
बचा हुआ कवि, बचाया हुआ कवि, टिका हुआ कवि, टिकाया हुआ कवि
कृत्रिम श्वास पर टिका कवि, टिकाऊ कवि
संपादक कवि, आलोचक कवि, प्रकाशक कवि, प्रकाशक-प्रिय कवि
संपादक-प्रिय कवि, आलोचक-प्रिय कवि, कवियों का कवि
पुरस्कार-मित्र कवि, मित्र-पुरस्कार कवि
स्वयंप्रकाशी कवि, प्रकाश-परावर्ती कवि, परावर्तन-प्रकाशित कवि
पारदर्शी कवि, पारभाषी कवि, पारान्ध कवि
सरल कवि, सरलता-आवृत कवि, सरलता-प्रदर्शी-कवि
घाघ कवि, घाघाश्रित कवि, बाघ कवि, बाघाश्रित कवि
अकादमिक कवि, अकादमी-प्रिय कवि, अकादमी-विकीर्णित कवि
अकादमिक-संप्रेषित कवि, अकादमिक-कुपोषित कवि, अकादमिक-प्रकीर्णित कवि
व्याकरण-मुक्त कवि, व्याकरण-भुक्त कवि, वैयाकरण कवि
तुस्सी-मुस्सी का कवि, धान की भूसी का कवि
चौकन्ना कवि, पुरस्कार-चौकन्ना कवि, कटखना कवि
लोक कवि, लोकार्त कवि, लोकार्पित कवि
संभावित कवि, असंभावित कवि, संभावना-प्रदर्शी कवि
भूतपूर्व कवि, अभूतपूर्व कवि, सजधारी कवि, भेषधारी कवि
स्थायी कवि, अस्थायी कवि, अंशकालिक कवि
नगर कवि, महानगर कवि, राष्ट्रकवि, महाराष्ट्र कवि
अंतर्देशीय कवि, भूमंडलीकृत कवि, कमंडलीकृत कवि
पोस्टकार्ड-बिलमित कवि, आलोचना-सुलगित कवि, पोस्टकार्ड-निर्मित कवि
अगड़ा कवि, पिछड़ा कवि, द्विज कवि, दलित कवि, सुललित कवि
आनिवासी कवि, आदिवासी कवि, अटपटा कवि, चटपटा कवि
सरकारी कवि, अर्धसरकारी कवि, गैरसरकारी कवि, व्यापारी कवि
अध्यापक कवि, प्राध्यापक कवि, पत्रकार कवि, प्रशासक कवि, अनुशासक कवि
एनजीओ-कारी कवि, रोकड़िया कवि, हड़बड़िया कवि, अनाड़ी कवि
जन कवि, गण कवि
कण कवि, क्षण कवि
रत्ती-टोला-माशा-मन कवि
कहाँ है भाई !
जन-गण-मन का कवि ।
(कवि नाम परिगणन, वृष्टि-छाया प्रदेश का कवि, पृष्ठ संख्या - 49-50)
निश्चित ही आज जन-गण-मन का कवि खो गया है । ऐसे कवि डिमांड पर एवं पुरस्कार के लिए कविताएँ लिखते हैं । इनका उद्देश्य जनता तक पहुँचना बिल्कुल नहीं है । इनकी कविताओं का कोई सामाजिक, सांस्कृतिक दायित्व नहीं है । ये हर दायित्वबोध से मुक्त हैं । दरअसल “किसी भी समय में वही साहित्य कालजयी हुआ है, जिसने अपने समय से सीधे मुठभेड़ की हो । समाजनिरपेक्ष और कालनिरपेक्ष होकर कोई भी रचना कालजयी नहीं होती । रचना की विशेषता यही है कि वह एक समय विशेष में अपनी स्थानिकता के साथ अपने समय के वातावरण और अपने समय की जलवायु में पैदा होती है, जैसे कोई भी इस पृथ्वी पर अपनी-अपनी विशेष परिस्थितियों में कहीं-न-कहीं किसी विशेष स्थान पर पैदा होती है, वहीं उसका पालन-पोषण होता है और यह सब उस जमीन के भरोसे ही होता है जिस पर उसने जन्म लिया होता है । रचना भी इसी तरह की होती है ।
जो रचनाएँ अपनी बोली-बानी, रहन-सहन, रखरखाव, जलवायु और देशकाल का पता नहीं देती, उन पर यदि कोई संदेह करे तो उसे कैसे रोका जा सकता है ।” (भगवत रावत)
मारीना त्स्वेतायेवा |
अब भी प्रश्न यह कि आखिर कवि और कविता की भूमिका क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर मारीना त्स्वेतायेवा अपनी ‘कवि’ शीर्षक कविता में देते हुए कहते हैं -
बहुत दूर की बात छेड़ता है कवि
बहुत दूर की बात खींच ले जाती है कवि को ।
ग्रहों, नक्षत्रों...सैकड़ों मोड़ों से होती कहानियों की तरह
हाँ और ना के बीच
वह घंटाघर की ओर से हाथ हिलाता है
उखाड़ फेंकता है सब खूँटे और बंधन...
कि पुच्छलतारों का रास्ता होता है कवियों का रास्ता –
बहुत लम्बी कड़ी कारणत्व की –
यही है उसका सूत्र! ऊपर उठाओ माथा -
निराश होना होगा तुम्हें
कि कवियों के ग्रहण का
पूर्वानुमान नहीं लगा सकता कोई पंचाग ।
कवि वह होता है जो मिला देता है ताश के पत्ते
गड्डमड्ड कर देता है भार और गिनती
कवि वह होता है जो पूछता है स्कूली डेस्क से
जो काँट का भी खा डालता है दिमाग,
जो बास्तील के ताबूत में भी
लहरा रहा होता है हरे पेड़ की तरह,
जिसके हमेशा क्षीण पड़ जाते हैं पदचिह्न,
वह ऐसी गाड़ी है जो हमेशा आती है लेट
इसलिए कि पुच्छलतारों का रास्ता
होता है कवियों का रास्ता जलता हुआ
न कि झुलसा हुआ,
उद्विग्न लेकिन संतुलित, शांत,
यह रास्ता टेढ़ा-मेढ़ा
पंचांग या जंत्रियों के लिए बिल्कुल अज्ञात !
(कवि, मारीना त्स्वेतायेवा, अनुवाद – वरयाम सिंह, हिन्दी समय से)
मारीना त्स्वेतायेवा की यह कविता कवि एवं कविता के उद्देश्य को खोलती है । कवि समाज का मार्गदर्शक होता है । वह कठिन से कठिन और बर्बर से बर्बर समय में भी अपने दायित्व को नहीं भुलाता । जिसे हम सचमुच कवि कहते हैं वह रेगिस्तान में भी हरे-भरे पेड़ को लहरा देता है । कवि भविष्यद्रष्टा होता है । वह समय से पहले समय की विडम्बना को देख-परख लेता है । वह सत्ता के साथ नहीं, आम जनता के साथ होता है । उसकी कविताएँ सत्ता का गुणगान नहीं, आम जनता का दुख बयां करती हैं । उसकी कविताएँ दीपक के उस लौ की तरह होती हैं, जो घोर अँधेरे में रास्ता भी दिखाती हैं । वह हमें मनुष्य बनाती है ।
कविता के संदर्भ में अब हम प्राचीन भारतीय विद्वानों के कथन को देखते हैं । उनकी नजर में कविता क्या है ?
छठी शताब्दी के संस्कृत विद्वान आचार्य भामह का मानना है – “शब्दार्थों साहितौ काव्यम्” अर्थात् ‘शब्द और अर्थ का सहित भाव काव्य कहलाता है’ । आचार्य मम्मट ‘काव्य प्रकाश’ में काव्य के छह प्रयोजनों का उल्लेख किए हैं –
काव्यं यशसेsर्थेकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतए ।
सद्य: परनिर्वृतए कांतासम्मिततयोपदेशयुजे ॥
अर्थात् ‘यश, अर्थ, व्यावहारिक ज्ञान की प्राप्ति, अमंगल का नाश, शीघ्र आनंद की प्राप्ति तथा सरस मधुर उपदेश (कांता-सम्मति ) ही काव्य है ।
साहित्य दर्पण में आचार्य विश्वनाथ का कहना है – “वाक्यम् रसात्मकं काव्यम्” अर्थात् ‘रस की अनुभूति करा देने वाली वाणी काव्य है’ । पंडित जगरन्नाथ का कहना है - “रमणीयार्थ-प्रतिपादक:शब्द: काव्यम्” अर्थात् ‘सुन्दर अर्थ को प्रकट करने वाली रचना ही काव्य है’ । पंडित अंबिकादत्त व्यास का मानना है – “लोकोत्तरानंददाता प्रबंध: काव्यानाम् यातु” अर्थात् ‘लोकोत्तर आनंद देने वाली रचना ही काव्य है । आचार्य श्रीपति ने कहा है –
“शब्द अर्थ बिन दोष गुण, अहंकार रसवान
ताको काव्य बखानिए श्रीपति परम सुजान
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ‘कविता क्या है ?’ अपने निबंध में कविता को ‘जीवन की अनुभूति’ मानते हैं । जयशंकर प्रसाद ने सत्य की अनुभूति को ही कविता माना है । महादेवी ने कविता का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा है – “कविता कवि विशेष की भावनाओं का चित्रण है” । यानी कविता का सीधा संबंध हृदय से होता है । वह एक हृदय से निकलकर दूसरे हृदय तक पहुँचती है । कवि रामधारी सिंह दिनकर कहते हैं “कविता वह सुरंग है जिसमें से गुजरकर मनुष्य एक विश्व को छोड़कर दूसरे विश्व में प्रवेश करता है ।” दिनकर जी यह भी कहते हैं कि “कविता गाकर रिझाने के लिए नहीं समझकर खो जाने के लिए है ।”
वाल्मीकि |
संवेदना और पीड़ा से ही कविता का जन्म हुआ है । क्रौंच-मिथुन का वियोग आदि कवि वाल्मीकि से सहन नहीं हुआ और उनकी वाणी से काव्य की रचना हुई । कथा कुछ यूँ है – एक बार महर्षि वाल्मीकि एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे । वह जोड़ा प्रेमालाप में लिन था, तभी उन्होंने देखा कि एक बहेलिए ने कामरत क्रौंच (सारस) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी विलाप करने लगी । उसके इस विलाप को सुनकर महर्षि की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ा –
माँ निषाद प्रतिष्ठा त्वमगम: शाश्वती: समा: ।
यत्क्रौंचमिथुननादेकम् अवधी: काममोहितम् ॥
(अरे बहेलिए, तूने काममोहित क्रौंच पक्षी को मारा है । जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पाएगी)
धूमिल |
कवि के लिए कविता एक चुनौती है । कवि को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए कविता का ही आसरा है । कवि ‘धूमिल’ अपनी ‘कविता’ शीर्षक कविता में कहते हैं –
वह बहुत पहले की बात है
जब कहीं किसी निर्जन में
आदिम पशुता चीखती थी और
सारा नगर चौंक पड़ता था
मगर अब –
अब उसे मालूम है कि कविता
घेराव में
किसी बौखलाए हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है ।
(कविता, धूमिल, कविता कोश से)
मात्र कुछ पंक्तियों में ‘धूमिल’ बहुत कुछ कह जाते हैं । पहले किसी पशु की चीख पर सारा नगर चौंक जाता था । उसकी चीख मनुष्य को विचलित कर देती थी । पर, आज पशु की कौन कहे, मनुष्य को मनुष्य की चीख नहीं सुनाई दे रही । आज हत्या आदत बन चुकी है । हम जानवर बनते जा रहे हैं । हमारी संवेदना खत्म होती जा रही है । आज कविता कवि का एकालाप बनकर रह गया है । कवि और कविता को कैद करने की कोशिश की जा रही है । ‘धूमिल’ अपनी एक अन्य कविता ‘मुनासिब कार्यवाही’ में कहते हैं –
कविता क्या है
कोई पहनावा है, कुरता पाजामा है
ना भाई ना
कविता शब्दों की अदालत में
मुजरिम के कटघड़े में खड़े
बेकसूर आदमी का
हलफनामा है
क्या वह व्यक्तित्व बनाने की
चरित्र चमकाने की
खाने कमाने की चीज है
ना भाई ना
कविता
भाषा में
आदमी होने की तमीज है ।
(मुनासिब कार्यवाही, धूमिल, कविता कोश से)
कुंवरनारायण |
एक अच्छा कवि स्वभाव से ही विद्रोही होता है । उसकी कविताएँ सत्ता के गलियारे में नहीं बल्कि झोपड़ियों में निवास करती हैं । वह शब्दों के सहारे चेहरों को नंगा करता है । कविता हमें हमसे मिलाती है । कवि कुँवरनारायण अपनी ‘कविता’ शीर्षक कविता में लिखते हैं –
कविता वक्तव्य नहीं गवाह है
कभी हमारे सामने
कभी हमसे पहले
कभी हमारे बाद
कोई चाहे भी तो रोक नहीं सकता
भाषा में उसका बयान
जिसका पूरा मतलब है सच्चाई
जिसकी पूरी कोशिश है बेहतर इंसान
उसे कोई हड़बड़ी नहीं
कि वह इश्तहारों की तरह चिपके
जुलूसों की तरह लगे
और चुनावों की तरह जीते
वह आदमी की भाषा में
कहीं किसी तरह जिंदा रहे बस ।
(कविता, कुँवरनारायण, कविता कोश से)
कविता का मतलब है सच्चाई, इंसानियत । सच के साथ खड़ा होना ही कविता का स्वाभाविक गुण है । वह इश्तेहार या विज्ञापन नहीं है । कवि कुँवरनारायण ‘कविता की जरूरत’ को बताते हुए कहते हैं –
बहुत कुछ दे सकती है कविता
क्योंकि बहुत कुछ हो सकती है कविता
जिंदगी में
अगर हम जगह दें उसे
जैसे तारों को जगह देती है रात
हम बचाए रख सकते हैं उसके लिए
अपने अंदर कहीं
ऐसा एक कोना
जहाँ जमीन और आसमान
जहाँ आदमी और भगवान के बीच दूरी
कम से कम हो ।
वैसे कोई चाहे तो जी सकता है
एक नितांत कवितारहित जिंदगी
कर सकता है
कवितारहित प्रेम ।
(कविता की जरूरत, कुँवरनारायण, कविता कोश से)
कविता हमें बहुत कुछ दे सकती है । बशर्ते हमारे जीवन में कविता के लिए थोड़-सी जगह रहे । कवितारहित जीवन और कवितारहित प्रेम का कोई मूल्य नहीं । कवितामय जीवन की बात ही निराली है ।
धर्मवीर भारती |
कुछ लोग कविता का दुख रोते हैं । कविता की मृत्यु की बात करते हैं । इस संबंध में धर्मवीर भारती कहते हैं –
भूख , खूंजेरी, गरीबी हो मगर
आदमी के सृजन की ताकत
इन सबों की शक्ति के ऊपर
और कविता सृजन की आवाज है
फिर उभरकर कहेगी कविता
क्या हुआ दुनिया अगर मरघट बनी
अभी मेरी आखिती आवाज बाकी है
हो चुकी है हैवानियत की इन्तेहा
आदमीयत का अभी आगाज बाकी है
लो तुम्हें मैं फिर नया विश्वास देता हूँ
नया इतिहास देती हूँ
कौन कहता है कि कविता मर गई है ?
(कविता की मृत्यु, धूमिल, कविता कोश से)
भगवत रावत |
हिन्दी कविता की पहचान भगवत रावत के अनुसार न आदमी कविता में पूरी तरह से बंध सकता है और न ही कोई कवि कविता को पूरी तरह से उतार सकता है । कविता का कद इतना बड़ा है कि कोई भी उसे उतार नहीं सकता -
इतनी बड़ी होती है कविता
कि उतारते-उतारते उसे
हमेशा
छोटी पड़ जाती हैं
उँगलियाँ
जैसे
आदमी
चाहे जितना हो
कब बंध पाता है
पूरा का पूरा
कविता में ।
(कविता, कवि ने कहा, भगवत रावत, पृष्ठ संख्या - 6)
अपनी एक अन्य कविता ‘वही तो कविता होती है’ में भगवत रावत कहते हैं –
दुनिया कहीं से कहीं चली जाए
कुछ चीजें निर्विकल्प होती हैं
जैसे निर्जन वन में कविता की तरह बहता
कोई ठंडा पानी का सोता
उसे ठंडे पानी का सोता ही रहने दो यारों
भाषा के जंगल से उसे कुछ का कुछ मत बनाओ
भाषा साँसत में फंसी कविता को उबारने को होती है
आखिर मनुष्य की ठिठुरती आत्मा में
चाय के गरम घूंट-सी जो उतरती है
वही तो कविता होती है ।
(वही तो कविता होती है, कवि ने कहा, भगवत रावत, पृष्ठ संख्या - 108)
आलोक धन्वा |
हमारे समय के महत्त्वपूर्ण कवि आलोक धन्वा जनता के कवि हैं । जहाँ भी जनता पर जुल्म होता है, वहाँ सबसे पहले पहुँचती है उनकी कविता । आलोक धन्वा के कविता के शब्द बंदूक की गोली की तरह असर करते हैं । ‘जनता का आदमी’ उनकी लम्बी कविता है, इस कविता में बहुत ही बारीकी से बताया गया है कि आखिर कविता है क्या ? कवि का धर्म क्या कहता है ? समाज में उसकी भूमिका क्या है ? इस कविता की अंत की कुछ पंक्तियाँ देखिए –
कविता की एक महान संभावना है यह कि वह मामूली आदमी अपनी कृतियों को महसूस करने लगा है-
अपनी टांग पर टिके महानगरों और
अपनी कमर पर टिकी हुई राजधानियों को
महसूस करने लगा है वह ।
धीरे-धीरे उसका चेहरा बदल रहा है
हल के चमचमाते हुए फाल की तरह पंजों को
बीज, पानी और जमीन के सही रिश्तों को
वह महसूस करने लगा है ।
कविता का अर्थ विस्तार करते हुए
वह जासूसी कुत्तों की तरह शब्दों को खुला छोड़ देता है
एक छिटकते हुए क्षण के भीतर देख लेता है वह
जंजीर का अकेलापन,
वह जान चुका है-
क्यों एक आदिवासी बच्चा घूरता है अक्षर,
लिपि से डरते हुए,
इतिहास की सबसे घिनौनी किताब का राज खोलते हुए ।
(जनता का आदमी, आलोक धन्वा, कविता कोश से)
जाहिर है, आलोक धन्वा कविता को बहुत विस्तार देते हैं । उनके लिए कविता सिर्फ शब्दों का खेल नहीं है । वास्तव में कविता का उद्देश्य यही होना भी चाहिए ।
विनोद कुमार शुक्ल |
कवि विनोद कुमार शुक्ल की दृष्टि में “दरअसल कविता एक ऐसी शांत हलचल है जो पाठक को बहुत ऊँचे उछाल देती है और यह उछाल एक ऐसे नशे का अनुभव देता है, जिसे पाने के लिए कविताओं की तरफ बार-बार चले आते हैं ।” कविता का यह नशा कवि और पाठक दोनों को लगता है । पाठक कविता पढ़कर नशा में आता है तो कवि पाठक को नशे में देख नशे का शिकार होता है ।
राधा कृष्ण सहाय |
कवि राधाकृष्ण सहाय कविता को उपस्थित और अनुपस्थित, होने और न होने के बीच का एक सेतु मानते हैं । कविता को परिभाषित करते हुए वे कहते हैं –
कविता उपस्थित अनुपस्थित के बीच एक सेतु है
स्वप्न भी जागृति भी निद्रा भी
वर्तमान और भविष्य भी
देश काल पात्र भी
हर व्यक्ति की है गुंजाइश
कभी भी दरवाजे पर दस्तक दिया जा सकता है
होना न होने के बीच कविता एक सेतु है
उपस्थित अनुपस्थित के बीच एक सेतु है कविता
(कविता, एक शिक्षक की डायरी, राधाकृष्ण सहाय, पृष्ठ संख्या - 48)
कविता सब कुछ है । जहाँ सारे रास्ते बंद हो जाते हैं, वहीं से कविता की यात्रा शुरू होती है । कविता की संभावना अनंत है ।
अय्यप्पा पणिक्कर |
इन परिभाषाओं से गुजरने के बाद अंत में अय्यप्पा पणिक्कर के शब्दों में, “हर अच्छी कविता, एक नयी यात्रा की शुरुआत है । वह अपने में एक नयी परिभाषा संजोए है, जिसे कसी दूसरे अच्छी कविता पर लागू नहीं किया जा सकता । अगर कोई परिभाषा तमाम कविताओं पर लागू की जाए, तो वह इस कदर सामान्य हो जाती है कि किसी काम की नहीं होती । परिभाषाओं में खोजकर्ता असफल होने के लिए अभिश्प्त है ।” इतनी यात्रा के बाद अंत में प्रश्न यही रह जाता है कि कविता क्या है ? दरअसल कविता को किसी परिभाषा में नहीं बाँधा जा सकता । उसे कोई ठीक-ठीक परिभाषित नहीं कर सकता । सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि जिससे मनुष्यता की रक्षा हो वह कविता है और जो अपने दायित्व से मुँह न मोड़े वह कवि है ।
००
मृत्युंजय पाण्डेय |
मृत्युंजय पाण्डेय
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी विभाग
सुरेन्द्रनाथ काॅलेज (कलकत्ता विश्वविद्यालय)
प्रकाशित पुस्तकें:
कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव
कहानी से संवाद
कहानी का अलक्षित प्रदेश
संपर्क: 25/1/1, फकीर बगान लेन, पिलखाना, हावड़ा- 711101
मोबाइल: 9681510596
ईमेल आईडी: pmrityunjayasha@gmail.com
मृत्युंजय पाण्डेय का एक लेख और नीचे लिंक पर पढिए
हिन्दी कविता में कलकत्ता
http://bizooka2009.blogspot.com/2018/05/1961.html
मुक्तिबोध होते तो और अच्छा होता .....
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