राकेश रंजन की कविताएँ
तुम्हारे बच्चे जीवित रहें
इस निस्तब्ध रात में
कोई बच्चा रो रहा है
मेरे सीने पर
सिर पटक रहा
पछुआ के सूखे स्तनों से चिपका
उसका विलाप
कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा
कहीं मुझे भ्रम तो नहीं हो रहा
अक्सर बिल्लियाँ भी रोती हैं
बच्चों की तरह
अब तो बाजार में
ऐसा हॉर्न मिलने लगा है
जिसे बजाओ
तो सुनाई पड़ता है
बच्चे का बिलखना
ऐसा भी भ्रम
मत रचो हत्यारो
मत करो ऐसे अनर्थ की ईजाद
कि कहीं कोई बच्चा रोए
तो आदमी सोचे
किसी ने हॉर्न बजाया होगा
दादी कहती थी
अकाल मरे हुए बच्चे
रोते हैं रात के अँधेरे में
उनकी आत्माएँ खोजती हैं
माँ का आँचल
क्या तुम्हें सुनाई देती हैं
मरे हुए बच्चों की आवाजें
जिन्हें रोगों धमाकों आपदाओं ने मारा
हमने मारा
जन्म से पहले
और जन्म के बाद
हम हवस के मारों ने मारा जिन बच्चों को
जिनके खिलने से शरद, खिलखिलाने से वसंत
क्या तुम्हें सुनाई देती हैं
मरे हुए बच्चों की आवाजें
सुनो
रात की गहरी निस्तब्धता में
धीरे बहुत धीरे
तुम्हें सुनाई देगा उनका बिलखना
कभी गुजरो
उनकी गँड़ातियों के पास से
तुम्हारी देह सिहर उठेगी
ऐसे भी बच्चे
जिनकी मौत को
मिट्टी भी नसीब न हो सकी
वे फिरकियों की तरह नाच रहे थे
फुग्गों की तरह
आसमान में उड़ने को बेताब
जब उनके लिए आया मौत का सैलाब
वे सुबह के मलबे में शाम की रोटी तलाश रहे थे
जब उन पर बम गिराए गए
जब उनके घरों में आग लगाई गई
वे सोए थे खरगोश-टोपी पहने हुए
अपने ही आकार के तकियों की ओट में
जब आग बुझी
उनमें और तकियों में फर्क करना मुश्किल था
वे इतने अबोध थे
कि अपने जन्म लेने तक को नहीं जानते थे
और मरते वक्त
उन्हें बोध नहीं था
कि मर रहे हैं
वे कभी नहीं जान पाएँगे
ममता के उजड़ चुके नीड़ का अभाव
वे पेड़ जानते हैं
जिनकी मंजरियाँ झंझा में झड़ गई हैं
जिनके लिए वसंत
अब सिर्फ धूल है
और सारा ऋतुचक्र
चिलचिलाती मरीचिका
वे नदियाँ जानती हैं
जिनका जल सूख गया है
जिनकी गोद में अब केवल
भँसी हुई नावें
और टूटी पतवारें
वे माँएँ जानती हैं
जिनके सपनों में आते हैं
उनके मरे हुए बच्चे
जिन्हें गोद में लेकर
वे छाती से लगा भी नहीं पातीं
बस पागल की तरह
वे अपने प्राणपखेरुओं को
पकड़ने दौड़ती हैं
और अचानक
रात की निस्तब्धता में
सायरन की तरह गूँजता है
उनका चीत्कार
भीड़
और भगदड़ में बिछड़े बच्चे
फसादों में लापता बच्चे
कभी लौट भी आते हैं
कोई लौट आता है बरसों बाद
अपने बचपन की पगडंडियों को पहचानता हुआ
अपने मृत होने की मान्यता को झूठ साबित करता हुआ
कहता है मैं अमुक शहर में था
भूल गया था घर का रास्ता
इतने साल
मैंने कहाँ-कहाँ खोजा, कितनी खाक छानी
मेरी धुँधली याद में
बस तेरा चेहरा था अम्मा
इतना जहर पीकर भी
मैं कभी नहीं भुला
तेरे आँचल की गंध
मैं तेरा ही बच्चा हूँ अम्मा
मेरे बाएँ कंधे पर तिल है
तू जानती है न अम्मा
तेरी दाईं कलाई पर गोदना है
उस पर लिखा है बाबू का नाम
मुझे याद है अम्मा
ठगों
और तस्करों के चंगुल में फँसे बच्चे
कभी लौट भी आते हैं
पर तुम मर भी जाओ तो नहीं लौटते
मरे हुए बच्चे
तुम्हारे बच्चे जीवित रहें दोस्त
दुआ है
जब वे रोएँ
तुम उन्हें सीने से लगा लो!
सनहा
मेरा रूमाल कहीं छूट गया है
गुलाबी रूमाल
मेरे नाम के पहले अच्छर
कढ़े थे उस पर
छोटा था
पर छोटी चीज नहीं था हजूर
मेरा सनहा लिख लो
मेरा छाता कहीं छूट गया है
कुछ पुराना था पर ठीक था
सिर्फ एक कमानी खराब थी उसकी
जरा ऐसे खोलो
तो खुल जाता था
पिता की निशानी था हजूर
मेरी भाषा कहीं छूट गई है
आसमान में चिरैया जैसी भाषा
छौनों की खातिर
हँकरती गैया जैसी
मैं खो चुका मेहनत का पसीना
रात में परियों के किस्से
चौड़े पाटवाली नदी
मिट्टी का सीधा रास्ता
इससे पहले
कि यह भी छूट जाए
कि क्या छोड़ आया हूँ
लिख लो हजूर
सच कह रहा
बूटों ने कुचल दिया मेरा साहस
बाजार ने छीन लिया संघर्ष
प्रेत के पैरों में गिरा आया
अपनी संतान
मेरी मुट्ठी में राख है
आँखों में धुंध
साँसों में धुआँ
और पैरों में मांस के लोथड़े
मेरी स्मृति में मलबे की गाद
से सनी
वह लहूलुहान बच्ची है
जिसके हाथ में
उसकी माँ का हाथ है
एक कटा हुआ हाथ
जो हमले के बाद
उसके पास बचा रह गया है
सीरिया और गाजा और मोसुल
अब यही मेरी स्मृति
सामूहिक हत्याओं के दृश्य
और युद्ध
युद्धों के अंतहीन सिलसिले
अब यही मेरी नियति
अब यही मेरा शहर
आज जिसकी गलियों में हिंसक जुलूस
आज जिसके हाथों में नंगी तलवारें
आज जिसके सीने में नफरत की आग
बुद्ध की पीठ में छुरा घोंपनेवाला
मेरा शहर
पहले ऐसा नहीं था हजूर
अस्सी के दशक में
ईदगाह
और नवमी के मेले में नंगे पाँव घूमता
एक घूँट शरबत के लिए तरसता मेरा शहर
खून का प्यासा नहीं था आज की तरह
भागलपुर
और मेरठ की तरह
जहर नहीं था उसकी रगों में
अस्सी के दशक में
गंडक के हिलकोरों में सिहरता मेरा शहर
किसी बच्चे की तरह
नंगे पाँव
स्कूल जाता हुआ
और स्कूल से ठीक पहले
जलेबी के पेड़ की छाँव में
मिठास के सवाल को हल करता हुआ
वह शहर कहीं खो गया हजूर
मेरा सनहा लिख लो
मेरे चारों ओर
चीख ही चीख
विलाप ही विलाप
दंगाइयों ने
जब उस औरत के पेट को छलनी किया
आँतों के साथ
उसका बच्चा बाहर आ गया
खून से लथपथ
वह आँतों को समेटती और बच्चे को सँभालती
कहाँ तक भागती
कब तक बचती
वह गिरी
और खत्म हो गई
उसका कुछ भी नहीं बचा
सिर्फ उसके गिरने
और खत्म होने की परछाईं बची
साबरमती के जल में
साबरमती से गोमती तक
गंगा-यमुना से दजला-फरात तक
आदमी के गिरने
और खत्म होने की परछाइयाँ
बूचड़खाने में बदलता मेरा देश
जहाँ ठीहे ही ठीहे
खून ही खून
लोथड़े ही लोथड़े
सोलह दिसंबर दो हजार बारह की रात
संसद के दक्खिन में
जिस बच्ची को हवस के भेड़िए चींथते रहे
और आखिर में
उसके अंग में सरिया डालकर फेंक गए
अब वही बच्ची मेरी भारत माता
अब वही सरिया
मेरा राष्ट्र ध्वज
लिख लो हजूर
लिख लो!
००
हम
अगर आपने
उन्नति के पाँव
उलटी तरफ
मोड़े हैं
मानवी बुनावट के ताने-बाने
तोड़े हैं
अगर आपकी नीतियाँ
जनता के भाग्य पर
बजर रहे
कोड़े हैं
अगर लकड़बग्घे
और गधे
आपके रथ के
घोड़े हैं
तो भले हम टूटे हैं
बिखड़े हैं
थोड़े हैं
आपकी राह में
सबसे बड़े
रोड़े हैं
आपके निजाम में
जिन नामुरादों को
नहीं होना था
हम वही हैं
हमारी गलती है
कि सही हैं
अगर आप सरकार हैं
तो हाँ
हम गद्दार हैं!
००
हम ही थे बकलोल
तुम्हरे अद्भुत बोल।
सब थे झूठे, सब थे झाँसे, सब थे खाली झोल।।
सब ऊपर से दिव्य बकैती, सब भीतर से पोल।
हम ही समझ नहीं पाए थे, हम ही थे बकलोल।।
कहा कि हमरे नंगे तन को दोगे वस्त्र अमोल।
नहीं पता था हमरी फटी लँगोटी दोगे खोल।।
हेन करेंगे, तेन करेंगे, दुर्दिन होगा गोल।
अच्छे दिन आएँगे, ढमढम खूब बजाया ढोल।।
नहीं पता था कर दोगे तुम भारत को भंडोल।
अब तुम हमरा भाग्य हसोथो हम चोंथेंगे ओल।।
००
वंदे मातरम्!
वंदे मातरम्!
बीच सड़क पंडाल बनेगा
जो भी हो हर हाल बनेगा
जैकारा हरकिरतन होगा
निसदिन व्योम-प्रकंपन होगा
इसीलिए तो घर-घर जाकर
माँग रहे हैं
चंदे मातरम्!
गुंडागर्दी दुश्चरित्रता
हमें न इनका नाम भी पता
सदा दूध के धुले हुए हम
देश-धरम को तुले हुए हम
जो हमको गंदा कहते हैं
वे तो खुद हैं
गंदे मातरम्!
जिनसे भारत-भूमि उदासी
म्लेच्छ अवर्ण तथा वनवासी
कुलच्छनी निर्लज्ज नारियाँ
रचनाकारों की कुठारियाँ
सबको हम चौरस कर देंगे
मार-मारकर
रंदे मातरम्!
भारत हिंदुस्थान हमारा
भगवा संघ-विधान हमारा
हमीं महत्तम लट्ठ नचाते
हमीं जगत्-सर्वोत्तम, माते
सिवा हमारे जो हैं सब हैं
तव चरणों के
फंदे मातरम्!
००
लोहार के बारे में
तुम लोहार को जानते हो न, कवि?
जानते हो न
कि जीवन के औजार
उसकी भट्ठी में लेते हैं कैसे आकार?
जानते हो न
किस आँच के साँचे में ढलती है लोहार की छवि?
तुम्हारी छवि
किस साँचे में ढलती है, कवि?
तुमने सुनी है न
सन्नाटे को चीरती, दिशाओं को धड़काती
दूर तक जाती
उसके घन की ठनकती आवाज?
कहाँ तक सुनाई देता है
तुम्हारे शब्दों का साज?
तुमने सुनी है न वह कहावत
कि तभी तक चलेगी लोहार की साँस
जब तक चलेगी उसकी भाँथी?
मेरे साथी!
क्या तुम अपनी बाबत
कह सकते हो
ऐसी ही एक कहावत?
बता सकते हो
कि लोहार के सपने किस आग में जलते हैं
जिसके बाद उसकी भट्ठी में
कुदाल के बदले
कट्टे ढलते हैं?
एक लोहार की भविता को
तुम जानते हो न, कवि?
सच कहना, अपनी कविता को
तुम जानते हो न, कवि?
००
मेरे चेहरे का बायाँ हिस्सा बीमार है
मैं बाएँ कान से कम सुनता हूँ
उसकी झिल्ली में सूराख है सुई की नोक बराबर
मेरी बाईं आँख छोटी है
और रहती है लाल
गौर से देखो
मेरे चेहरे का बायाँ हिस्सा बीमार है
मैं दायाँ हाथ मिलाता हूँ
अभिवादन में उठाता हूँ दायाँ हाथ
मेरी दाईं मुट्ठी मजबूत है
घूँसा मारता दाएँ हाथ से
दाईं हथेली से बाईं को ठोककर देता हूँ ताल
चुटकी बजाता, आशीष देता, कविता लिखता
दाएँ हाथ से फेंकता हूँ गेंद
गेंदबाज के हमले के आगे होता मेरा बायाँ हिस्सा
पर कहाता दाएँ हाथ का बल्लेबाज
दाएँ पाँव से दागता हूँ गोल
दाईं लात मारता गरीब के पेट पर
मेरे दाएँ हाथ में खंजर बाएँ में ढाल
मेरे बाएँ अलँग पर
सत्ता और गुंडों की ज्यादातर लाठियाँ
गंदगी छूता बाएँ हाथ से
किसी करवट सोऊँ जागता बाईं करवट
मेरी बाईं आँख फड़कती
मैं दिल पर हाथ रखकर कहता
जो धड़कता है बाईं तरफ!
००
हम तो इतना जानते हैं
हम किसान हैं बाबू
पृथ्वी और पहाड़ के बाद
हमसे ज्यादा कौन जानता है
सारस के बारे में
लाल सिर, लंबी गरदन वाले
सफेद सारस
दुनिया के सबसे कठिन पठारों
और सबसे ऊँचे पहाड़ों को नापकर
वे आते हैं हमारे पास
और हम भी
उनकी राह देखते हैं
कि कब वे आएँ
कब वे हमारे खेतों में उतरें
और आकाश की ओर मुख उठाकर गाएँ
जैसे प्रार्थना
हमारे जीवन में
उनके गुलाबी डैनों की फड़फड़ाहट
घट रही है बाबू
घट रहे हैं
उनके गगनमुखी गान
दुनिया में सारस
और शिकारी
एक साथ नहीं रह सकते बाबू
वैसे ही जैसे एक साथ नहीं रह सकते
दुनिया में झूठ के व्यापार
और हमारे खेत
तुमने खेत देखे हैं न बाबू
किसान के दुख-सुख तो जानते हो न तुम
जानते हो न हम दुख से नहीं डरते
नहीं डरते जेठ या पूस से
हम धोखे से डरते हैं बाबू
तुम्हारी कृतघ्नता से
सरकार की तो तुमै जानो
हम तो सारस को जानते हैं
और इतना जानते हैं
कि सारस बचे
तो खेत भी बच जाएँ शायद
और खेत बचे
तो हमौं बचै जाएँगे हँसके न रोके
बाकी सरकार का क्या है
ससुरी ना ही बचे तो जान छूटे!
००
हाँ हाँ तुम
भकर-भकर मूँ क्या देखती है
तुझे मालूम नहीं प्रेमी को
कैसे देखते हैं?
तू बीए कैसे हो गई
तुझे पता नहीं प्रेमी हाथ पकड़े
तो दिखाते हैं नखरे?
तेरी देह से मिट्टी
पुआल
और मंजरियों की गंध आती है
डियो नहीं लगाती अच्छा करती है
जब तू चूमती है मेरे होंठ
हमारे होंठों के बीच न गीत होता है न अगीत
तू मेरे होठों पर खिलाती है सूर्य
टपकाती है शहद
शाम के झुटपुटे में लिपटाती है गोधूलि
पर कभी हौले से भी चूमा कर
अच्छा होंठ छोड़
यानी होंठों की बात छोड़
तू थोड़ी पातर होती तो अच्छा होता
तेरे होंठ थोड़े मोटे होते तो अच्छा होता
तू रोज दो चोटियाँ करती काजल लगाती तो अच्छा होता
पर कोई बात नहीं
मुझे ठीक से पकड़
मैं काठ की सिल्ली नहीं हूँ
घास का बोझा नहीं हूँ
तेरे बाबा का बाछा नहीं हूँ
मंदिर का घंटा नहीं हूँ मुझे ठीक से पकड़
कभी रूठ भी लिया कर
कभी जिद भी किया कर
चल पागल
जैसे जीती है जिया कर
भैंस का दूध पीती है पिया कर
हाँ हाँ तुम
बेवकूफ की दुम!
००
मेरे लाल को हरा पसंद है
मेरे लाल को हरा पसंद है
उसे हरी कमीज चाहिए
हरी पतलून
टोपी हरी मोजे हरे रूमाल हरा
बहुत सारी चीजों में से
वह उसे चुनेगा
जिसमें हरा सबसे ज्यादा हो
उसे संख्या सिखाओ और कहो 'वन'
तो समझेगा जंगल
कहो पहाड़ा
तो सुनेगा पहाड़
कितने रंग कितने सपने उगाता हूँ मैं
कविता के वृंत पर
कितनी इच्छाएँ कितने प्रण
क्या मैं एक पत्ता उगा सकता हूँ
उसके लिए
कविता के बाहर
एक सचमुच का पत्ता?
जैसे लाल के ललाट पर लगाता हूँ
काला टीका
वैसा ही टीका लगा सकता हूँ
हरे के ललाट पर?
जैसे उसे देता हूँ हरी गेंद
दे सकता हूँ केले का भीगा हुआ वन
दूर तक फैला
नदी के साथ-साथ?
गेहूँ को पोसता महीना पूस का?
शिशिर के दुआरे से देह झाड़कर निकला वसंत
पतरिंगों की चपल फड़फड़ाहट में साँस लेता हुआ?
ओ सतरंगी पूँछवाली हरी पतंग,
तुम उड़ो वसंत के गुलाबी डैनों पर सवार
मैं लगाता हूँ
अपनी जर्जर उँगलियों से ठुनके
उम्मीद के
ओ दूब, तुम फैलो
धरती की रेत होती देह पर!
मैं स्टेशनरी जाता हूँ
और कहता हूँ वह ग्लोब देना
जिसमें हरा ज्यादा गहरा हो
जिल्दसाज से कहता हूँ
धरती एक किताब है रंगों के बारे में
जरा फट-चिट गई है
इस पर लगा दो फिर से
वही हरी जिल्द
मेरे लाल को हरा पसंद है
इसे मैं दुहराता हूँ उम्मीद की तरह
इस काले होते वक्त में
रहम करो, लोगो
मत सुनो इसे मजहब की तरह
मत देखो इसे
सियासत की तरह
ओ पेड़ो–ओ हरे फव्वारो,
तुम उठो नीले आकाश की तरफ
ओ सुग्गो,
मेरे स्याह आँगन में उतरो!
०००
राकेश रंजन : परिचय
जन्म : 10 दिसंबर 1973, हाजीपुर (वैशाली)।
शिक्षा : काशी हिंदू विश्वविद्यालय से सर्वोच्च अंकों के साथ स्नातकोत्तर (हिंदी)। पी-एच.डी.।
वृत्ति : अध्यापन।
कविता-संग्रह : अभी-अभी जनमा है कवि, चाँद में अटकी पतंग, दिव्य कैदखाने में।
उपन्यास : मल्लू मठफोड़वा।
आलोचना : रचना और रचनाकार।
संपादन : कसौटी (अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका–विशेष संपादन-सहयोगी के रूप में), स्मृति-ग्रंथ : बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री (सह-संपादक के रूप में), शोध-निकष (सह-संपादक के रूप में), जनपद (हिंदी कविता का अर्धवार्षिक बुलेटिन), पथ यहाँ से अलग होता है (नंदकिशोर नवल की आरंभिक दौर की चुनी हुई कविताओं का संग्रह), कोंपल (बच्चों की रचनाओं का संग्रह) तथा रंगवर्ष एवं रंगपर्व (रंगकर्म पर आधारित स्मारिकाएँ)।
सम्मान : विद्यापति पुरस्कार (पटना पुस्तक मेला, 2006), हेमंत स्मृति कविता सम्मान (2009, मुंबई)
संपर्क : आर. एन. कॉलेज से पूरब, साकेतपुरी, हाजीपुर–844101 (बिहार)
फोन : 8002577406
ई-मेल : rakeshranjan74@gmail.com
राकेश रंजन |
तुम्हारे बच्चे जीवित रहें
इस निस्तब्ध रात में
कोई बच्चा रो रहा है
मेरे सीने पर
सिर पटक रहा
पछुआ के सूखे स्तनों से चिपका
उसका विलाप
कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा
कहीं मुझे भ्रम तो नहीं हो रहा
अक्सर बिल्लियाँ भी रोती हैं
बच्चों की तरह
अब तो बाजार में
ऐसा हॉर्न मिलने लगा है
जिसे बजाओ
तो सुनाई पड़ता है
बच्चे का बिलखना
ऐसा भी भ्रम
मत रचो हत्यारो
मत करो ऐसे अनर्थ की ईजाद
कि कहीं कोई बच्चा रोए
तो आदमी सोचे
किसी ने हॉर्न बजाया होगा
दादी कहती थी
अकाल मरे हुए बच्चे
रोते हैं रात के अँधेरे में
उनकी आत्माएँ खोजती हैं
माँ का आँचल
क्या तुम्हें सुनाई देती हैं
मरे हुए बच्चों की आवाजें
जिन्हें रोगों धमाकों आपदाओं ने मारा
हमने मारा
जन्म से पहले
और जन्म के बाद
हम हवस के मारों ने मारा जिन बच्चों को
जिनके खिलने से शरद, खिलखिलाने से वसंत
क्या तुम्हें सुनाई देती हैं
मरे हुए बच्चों की आवाजें
सुनो
रात की गहरी निस्तब्धता में
धीरे बहुत धीरे
तुम्हें सुनाई देगा उनका बिलखना
कभी गुजरो
उनकी गँड़ातियों के पास से
तुम्हारी देह सिहर उठेगी
ऐसे भी बच्चे
जिनकी मौत को
मिट्टी भी नसीब न हो सकी
वे फिरकियों की तरह नाच रहे थे
फुग्गों की तरह
आसमान में उड़ने को बेताब
जब उनके लिए आया मौत का सैलाब
वे सुबह के मलबे में शाम की रोटी तलाश रहे थे
जब उन पर बम गिराए गए
जब उनके घरों में आग लगाई गई
वे सोए थे खरगोश-टोपी पहने हुए
अपने ही आकार के तकियों की ओट में
जब आग बुझी
उनमें और तकियों में फर्क करना मुश्किल था
वे इतने अबोध थे
कि अपने जन्म लेने तक को नहीं जानते थे
और मरते वक्त
उन्हें बोध नहीं था
कि मर रहे हैं
वे कभी नहीं जान पाएँगे
ममता के उजड़ चुके नीड़ का अभाव
वे पेड़ जानते हैं
जिनकी मंजरियाँ झंझा में झड़ गई हैं
जिनके लिए वसंत
अब सिर्फ धूल है
और सारा ऋतुचक्र
चिलचिलाती मरीचिका
वे नदियाँ जानती हैं
जिनका जल सूख गया है
जिनकी गोद में अब केवल
भँसी हुई नावें
और टूटी पतवारें
वे माँएँ जानती हैं
जिनके सपनों में आते हैं
उनके मरे हुए बच्चे
जिन्हें गोद में लेकर
वे छाती से लगा भी नहीं पातीं
बस पागल की तरह
वे अपने प्राणपखेरुओं को
पकड़ने दौड़ती हैं
और अचानक
रात की निस्तब्धता में
सायरन की तरह गूँजता है
उनका चीत्कार
भीड़
और भगदड़ में बिछड़े बच्चे
फसादों में लापता बच्चे
कभी लौट भी आते हैं
कोई लौट आता है बरसों बाद
अपने बचपन की पगडंडियों को पहचानता हुआ
अपने मृत होने की मान्यता को झूठ साबित करता हुआ
कहता है मैं अमुक शहर में था
भूल गया था घर का रास्ता
इतने साल
मैंने कहाँ-कहाँ खोजा, कितनी खाक छानी
मेरी धुँधली याद में
बस तेरा चेहरा था अम्मा
इतना जहर पीकर भी
मैं कभी नहीं भुला
तेरे आँचल की गंध
मैं तेरा ही बच्चा हूँ अम्मा
मेरे बाएँ कंधे पर तिल है
तू जानती है न अम्मा
तेरी दाईं कलाई पर गोदना है
उस पर लिखा है बाबू का नाम
मुझे याद है अम्मा
ठगों
और तस्करों के चंगुल में फँसे बच्चे
कभी लौट भी आते हैं
पर तुम मर भी जाओ तो नहीं लौटते
मरे हुए बच्चे
तुम्हारे बच्चे जीवित रहें दोस्त
दुआ है
जब वे रोएँ
तुम उन्हें सीने से लगा लो!
सनहा
मेरा रूमाल कहीं छूट गया है
गुलाबी रूमाल
मेरे नाम के पहले अच्छर
कढ़े थे उस पर
छोटा था
पर छोटी चीज नहीं था हजूर
मेरा सनहा लिख लो
मेरा छाता कहीं छूट गया है
कुछ पुराना था पर ठीक था
सिर्फ एक कमानी खराब थी उसकी
जरा ऐसे खोलो
तो खुल जाता था
पिता की निशानी था हजूर
मेरी भाषा कहीं छूट गई है
आसमान में चिरैया जैसी भाषा
छौनों की खातिर
हँकरती गैया जैसी
मैं खो चुका मेहनत का पसीना
रात में परियों के किस्से
चौड़े पाटवाली नदी
मिट्टी का सीधा रास्ता
इससे पहले
कि यह भी छूट जाए
कि क्या छोड़ आया हूँ
लिख लो हजूर
सच कह रहा
बूटों ने कुचल दिया मेरा साहस
बाजार ने छीन लिया संघर्ष
प्रेत के पैरों में गिरा आया
अपनी संतान
मेरी मुट्ठी में राख है
आँखों में धुंध
साँसों में धुआँ
और पैरों में मांस के लोथड़े
मेरी स्मृति में मलबे की गाद
से सनी
वह लहूलुहान बच्ची है
जिसके हाथ में
उसकी माँ का हाथ है
एक कटा हुआ हाथ
जो हमले के बाद
उसके पास बचा रह गया है
सीरिया और गाजा और मोसुल
अब यही मेरी स्मृति
सामूहिक हत्याओं के दृश्य
और युद्ध
युद्धों के अंतहीन सिलसिले
अब यही मेरी नियति
अब यही मेरा शहर
आज जिसकी गलियों में हिंसक जुलूस
आज जिसके हाथों में नंगी तलवारें
आज जिसके सीने में नफरत की आग
बुद्ध की पीठ में छुरा घोंपनेवाला
मेरा शहर
पहले ऐसा नहीं था हजूर
अस्सी के दशक में
ईदगाह
और नवमी के मेले में नंगे पाँव घूमता
एक घूँट शरबत के लिए तरसता मेरा शहर
खून का प्यासा नहीं था आज की तरह
भागलपुर
और मेरठ की तरह
जहर नहीं था उसकी रगों में
अस्सी के दशक में
गंडक के हिलकोरों में सिहरता मेरा शहर
किसी बच्चे की तरह
नंगे पाँव
स्कूल जाता हुआ
और स्कूल से ठीक पहले
जलेबी के पेड़ की छाँव में
मिठास के सवाल को हल करता हुआ
वह शहर कहीं खो गया हजूर
मेरा सनहा लिख लो
मेरे चारों ओर
चीख ही चीख
विलाप ही विलाप
दंगाइयों ने
जब उस औरत के पेट को छलनी किया
आँतों के साथ
उसका बच्चा बाहर आ गया
खून से लथपथ
वह आँतों को समेटती और बच्चे को सँभालती
कहाँ तक भागती
कब तक बचती
वह गिरी
और खत्म हो गई
उसका कुछ भी नहीं बचा
सिर्फ उसके गिरने
और खत्म होने की परछाईं बची
साबरमती के जल में
साबरमती से गोमती तक
गंगा-यमुना से दजला-फरात तक
आदमी के गिरने
और खत्म होने की परछाइयाँ
बूचड़खाने में बदलता मेरा देश
जहाँ ठीहे ही ठीहे
खून ही खून
लोथड़े ही लोथड़े
सोलह दिसंबर दो हजार बारह की रात
संसद के दक्खिन में
जिस बच्ची को हवस के भेड़िए चींथते रहे
और आखिर में
उसके अंग में सरिया डालकर फेंक गए
अब वही बच्ची मेरी भारत माता
अब वही सरिया
मेरा राष्ट्र ध्वज
लिख लो हजूर
लिख लो!
००
हम
अगर आपने
उन्नति के पाँव
उलटी तरफ
मोड़े हैं
मानवी बुनावट के ताने-बाने
तोड़े हैं
अगर आपकी नीतियाँ
जनता के भाग्य पर
बजर रहे
कोड़े हैं
अगर लकड़बग्घे
और गधे
आपके रथ के
घोड़े हैं
तो भले हम टूटे हैं
बिखड़े हैं
थोड़े हैं
आपकी राह में
सबसे बड़े
रोड़े हैं
आपके निजाम में
जिन नामुरादों को
नहीं होना था
हम वही हैं
हमारी गलती है
कि सही हैं
अगर आप सरकार हैं
तो हाँ
हम गद्दार हैं!
००
हम ही थे बकलोल
तुम्हरे अद्भुत बोल।
सब थे झूठे, सब थे झाँसे, सब थे खाली झोल।।
सब ऊपर से दिव्य बकैती, सब भीतर से पोल।
हम ही समझ नहीं पाए थे, हम ही थे बकलोल।।
कहा कि हमरे नंगे तन को दोगे वस्त्र अमोल।
नहीं पता था हमरी फटी लँगोटी दोगे खोल।।
हेन करेंगे, तेन करेंगे, दुर्दिन होगा गोल।
अच्छे दिन आएँगे, ढमढम खूब बजाया ढोल।।
नहीं पता था कर दोगे तुम भारत को भंडोल।
अब तुम हमरा भाग्य हसोथो हम चोंथेंगे ओल।।
००
वंदे मातरम्!
वंदे मातरम्!
बीच सड़क पंडाल बनेगा
जो भी हो हर हाल बनेगा
जैकारा हरकिरतन होगा
निसदिन व्योम-प्रकंपन होगा
इसीलिए तो घर-घर जाकर
माँग रहे हैं
चंदे मातरम्!
गुंडागर्दी दुश्चरित्रता
हमें न इनका नाम भी पता
सदा दूध के धुले हुए हम
देश-धरम को तुले हुए हम
जो हमको गंदा कहते हैं
वे तो खुद हैं
गंदे मातरम्!
जिनसे भारत-भूमि उदासी
म्लेच्छ अवर्ण तथा वनवासी
कुलच्छनी निर्लज्ज नारियाँ
रचनाकारों की कुठारियाँ
सबको हम चौरस कर देंगे
मार-मारकर
रंदे मातरम्!
भारत हिंदुस्थान हमारा
भगवा संघ-विधान हमारा
हमीं महत्तम लट्ठ नचाते
हमीं जगत्-सर्वोत्तम, माते
सिवा हमारे जो हैं सब हैं
तव चरणों के
फंदे मातरम्!
००
लोहार के बारे में
तुम लोहार को जानते हो न, कवि?
जानते हो न
कि जीवन के औजार
उसकी भट्ठी में लेते हैं कैसे आकार?
जानते हो न
किस आँच के साँचे में ढलती है लोहार की छवि?
तुम्हारी छवि
किस साँचे में ढलती है, कवि?
तुमने सुनी है न
सन्नाटे को चीरती, दिशाओं को धड़काती
दूर तक जाती
उसके घन की ठनकती आवाज?
कहाँ तक सुनाई देता है
तुम्हारे शब्दों का साज?
तुमने सुनी है न वह कहावत
कि तभी तक चलेगी लोहार की साँस
जब तक चलेगी उसकी भाँथी?
मेरे साथी!
क्या तुम अपनी बाबत
कह सकते हो
ऐसी ही एक कहावत?
बता सकते हो
कि लोहार के सपने किस आग में जलते हैं
जिसके बाद उसकी भट्ठी में
कुदाल के बदले
कट्टे ढलते हैं?
एक लोहार की भविता को
तुम जानते हो न, कवि?
सच कहना, अपनी कविता को
तुम जानते हो न, कवि?
००
मेरे चेहरे का बायाँ हिस्सा बीमार है
मैं बाएँ कान से कम सुनता हूँ
उसकी झिल्ली में सूराख है सुई की नोक बराबर
मेरी बाईं आँख छोटी है
और रहती है लाल
गौर से देखो
मेरे चेहरे का बायाँ हिस्सा बीमार है
मैं दायाँ हाथ मिलाता हूँ
अभिवादन में उठाता हूँ दायाँ हाथ
मेरी दाईं मुट्ठी मजबूत है
घूँसा मारता दाएँ हाथ से
दाईं हथेली से बाईं को ठोककर देता हूँ ताल
चुटकी बजाता, आशीष देता, कविता लिखता
दाएँ हाथ से फेंकता हूँ गेंद
गेंदबाज के हमले के आगे होता मेरा बायाँ हिस्सा
पर कहाता दाएँ हाथ का बल्लेबाज
दाएँ पाँव से दागता हूँ गोल
दाईं लात मारता गरीब के पेट पर
मेरे दाएँ हाथ में खंजर बाएँ में ढाल
मेरे बाएँ अलँग पर
सत्ता और गुंडों की ज्यादातर लाठियाँ
गंदगी छूता बाएँ हाथ से
किसी करवट सोऊँ जागता बाईं करवट
मेरी बाईं आँख फड़कती
मैं दिल पर हाथ रखकर कहता
जो धड़कता है बाईं तरफ!
००
हम तो इतना जानते हैं
हम किसान हैं बाबू
पृथ्वी और पहाड़ के बाद
हमसे ज्यादा कौन जानता है
सारस के बारे में
लाल सिर, लंबी गरदन वाले
सफेद सारस
दुनिया के सबसे कठिन पठारों
और सबसे ऊँचे पहाड़ों को नापकर
वे आते हैं हमारे पास
और हम भी
उनकी राह देखते हैं
कि कब वे आएँ
कब वे हमारे खेतों में उतरें
और आकाश की ओर मुख उठाकर गाएँ
जैसे प्रार्थना
हमारे जीवन में
उनके गुलाबी डैनों की फड़फड़ाहट
घट रही है बाबू
घट रहे हैं
उनके गगनमुखी गान
दुनिया में सारस
और शिकारी
एक साथ नहीं रह सकते बाबू
वैसे ही जैसे एक साथ नहीं रह सकते
दुनिया में झूठ के व्यापार
और हमारे खेत
तुमने खेत देखे हैं न बाबू
किसान के दुख-सुख तो जानते हो न तुम
जानते हो न हम दुख से नहीं डरते
नहीं डरते जेठ या पूस से
हम धोखे से डरते हैं बाबू
तुम्हारी कृतघ्नता से
सरकार की तो तुमै जानो
हम तो सारस को जानते हैं
और इतना जानते हैं
कि सारस बचे
तो खेत भी बच जाएँ शायद
और खेत बचे
तो हमौं बचै जाएँगे हँसके न रोके
बाकी सरकार का क्या है
ससुरी ना ही बचे तो जान छूटे!
००
हाँ हाँ तुम
भकर-भकर मूँ क्या देखती है
तुझे मालूम नहीं प्रेमी को
कैसे देखते हैं?
तू बीए कैसे हो गई
तुझे पता नहीं प्रेमी हाथ पकड़े
तो दिखाते हैं नखरे?
तेरी देह से मिट्टी
पुआल
और मंजरियों की गंध आती है
डियो नहीं लगाती अच्छा करती है
जब तू चूमती है मेरे होंठ
हमारे होंठों के बीच न गीत होता है न अगीत
तू मेरे होठों पर खिलाती है सूर्य
टपकाती है शहद
शाम के झुटपुटे में लिपटाती है गोधूलि
पर कभी हौले से भी चूमा कर
अच्छा होंठ छोड़
यानी होंठों की बात छोड़
तू थोड़ी पातर होती तो अच्छा होता
तेरे होंठ थोड़े मोटे होते तो अच्छा होता
तू रोज दो चोटियाँ करती काजल लगाती तो अच्छा होता
पर कोई बात नहीं
मुझे ठीक से पकड़
मैं काठ की सिल्ली नहीं हूँ
घास का बोझा नहीं हूँ
तेरे बाबा का बाछा नहीं हूँ
मंदिर का घंटा नहीं हूँ मुझे ठीक से पकड़
कभी रूठ भी लिया कर
कभी जिद भी किया कर
चल पागल
जैसे जीती है जिया कर
भैंस का दूध पीती है पिया कर
हाँ हाँ तुम
बेवकूफ की दुम!
००
मेरे लाल को हरा पसंद है
मेरे लाल को हरा पसंद है
उसे हरी कमीज चाहिए
हरी पतलून
टोपी हरी मोजे हरे रूमाल हरा
बहुत सारी चीजों में से
वह उसे चुनेगा
जिसमें हरा सबसे ज्यादा हो
उसे संख्या सिखाओ और कहो 'वन'
तो समझेगा जंगल
कहो पहाड़ा
तो सुनेगा पहाड़
कितने रंग कितने सपने उगाता हूँ मैं
कविता के वृंत पर
कितनी इच्छाएँ कितने प्रण
क्या मैं एक पत्ता उगा सकता हूँ
उसके लिए
कविता के बाहर
एक सचमुच का पत्ता?
जैसे लाल के ललाट पर लगाता हूँ
काला टीका
वैसा ही टीका लगा सकता हूँ
हरे के ललाट पर?
जैसे उसे देता हूँ हरी गेंद
दे सकता हूँ केले का भीगा हुआ वन
दूर तक फैला
नदी के साथ-साथ?
गेहूँ को पोसता महीना पूस का?
शिशिर के दुआरे से देह झाड़कर निकला वसंत
पतरिंगों की चपल फड़फड़ाहट में साँस लेता हुआ?
ओ सतरंगी पूँछवाली हरी पतंग,
तुम उड़ो वसंत के गुलाबी डैनों पर सवार
मैं लगाता हूँ
अपनी जर्जर उँगलियों से ठुनके
उम्मीद के
ओ दूब, तुम फैलो
धरती की रेत होती देह पर!
मैं स्टेशनरी जाता हूँ
और कहता हूँ वह ग्लोब देना
जिसमें हरा ज्यादा गहरा हो
जिल्दसाज से कहता हूँ
धरती एक किताब है रंगों के बारे में
जरा फट-चिट गई है
इस पर लगा दो फिर से
वही हरी जिल्द
मेरे लाल को हरा पसंद है
इसे मैं दुहराता हूँ उम्मीद की तरह
इस काले होते वक्त में
रहम करो, लोगो
मत सुनो इसे मजहब की तरह
मत देखो इसे
सियासत की तरह
ओ पेड़ो–ओ हरे फव्वारो,
तुम उठो नीले आकाश की तरफ
ओ सुग्गो,
मेरे स्याह आँगन में उतरो!
०००
राकेश रंजन : परिचय
जन्म : 10 दिसंबर 1973, हाजीपुर (वैशाली)।
शिक्षा : काशी हिंदू विश्वविद्यालय से सर्वोच्च अंकों के साथ स्नातकोत्तर (हिंदी)। पी-एच.डी.।
वृत्ति : अध्यापन।
कविता-संग्रह : अभी-अभी जनमा है कवि, चाँद में अटकी पतंग, दिव्य कैदखाने में।
उपन्यास : मल्लू मठफोड़वा।
आलोचना : रचना और रचनाकार।
संपादन : कसौटी (अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका–विशेष संपादन-सहयोगी के रूप में), स्मृति-ग्रंथ : बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री (सह-संपादक के रूप में), शोध-निकष (सह-संपादक के रूप में), जनपद (हिंदी कविता का अर्धवार्षिक बुलेटिन), पथ यहाँ से अलग होता है (नंदकिशोर नवल की आरंभिक दौर की चुनी हुई कविताओं का संग्रह), कोंपल (बच्चों की रचनाओं का संग्रह) तथा रंगवर्ष एवं रंगपर्व (रंगकर्म पर आधारित स्मारिकाएँ)।
सम्मान : विद्यापति पुरस्कार (पटना पुस्तक मेला, 2006), हेमंत स्मृति कविता सम्मान (2009, मुंबई)
संपर्क : आर. एन. कॉलेज से पूरब, साकेतपुरी, हाजीपुर–844101 (बिहार)
फोन : 8002577406
ई-मेल : rakeshranjan74@gmail.com
राकेश रंजन के पास जो संवेदनिक सघनता है और विद्रूप होती व्यवस्था को देख पाने की जो व्यापक दृष्टि है उसे अपनी कविताओं में भी एक रिदम के साथ उतार पाएं हैं । यही खूबियां किसी कवि को पहचान देती हैं ।
जवाब देंहटाएंरमेश सर, बहुत आभारी हूँ आपका! आपकी इस टिप्पणी से मुझे बल तो मिला ही है, जीवन और सृजन के प्रति दायित्व का बोध और गहन हुआ है। आशीष बनाए रखें!– राकेश रंजन
हटाएंबेहद शानदार, बेहद अच्छे, अद्भुत कवि हैं राकेश रंजन। अनुपम कविताएँ लिखते हैं। एक नियमित और अच्छे पाठक के रूप में मैं तो इनकी क़लम पर फ़िदा हो गया हूँ।
जवाब देंहटाएंप्रणाम, सर! इतने विशेषणों की क्या जरूरत थी। आपने दिल में जगह दी, यही मेरे लिए काफी है। मैं दिल से लिखता हूँ और दिल तक पहुँचने में ही अपनी जिंदगी और सृजनशीलता की सिद्धि मानता हूँ। आपका भरोसा बनाए रखने की कोशिश करूँगा! – राकेश रंजन
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