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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

27 मई, 2018

कहानी पर चर्चा:

नारी स्वतंत्रता और शिक्षा की परतंत्रता पर चोट करती कहानी 'एडमिशन'

मई २०१८ की ‘सृजन संवाद’ की गोष्टी में डॉ. विजय शर्मा ने अपनी कहानी 'एडमिशनका वाचन कियाजिसे श्रोताओं ने खूब सराहा और पसंद किया।

यह कहानी पति से अलग हो गई एक स्त्री की जददोजहद की कहानी है। मनीषा अकेली अपने बेटे के साथ जीवन गुजार रही है। शादी के पांच साल बाद भी पति सुरेश कहता है कि वह अभी बच्चे की परवरिश का बोझ उठाने में सक्षम नहीं है। मनीषा उसकी असहमति के बावजूद बच्चे को जन्म देती है। सुरेश उसे अकेला छोड़कर जापान चला जाता है, बेटे अपूर्व के जन्म के बाद भी उससे कोई संपर्क नहीं रखता है। असल दिक्कत तब पैदा होती है जब हर स्कूल में लिखित परीक्षा पास करने के बाद भी बच्चे का एडमिशन इसलिए नहीं हो पा रहा है क्योंकि हर जगह एडमिशन फॉर्म में मनीषा पिता का नाम लिखने वाले कॉलम को खाली छोड़ देती है। वह अपने और बेटे के नाम के साथ सरनेम भी नहीं लगाना चाहती है

चर्चा में शामिल हुए रचनाकार

इस कहानी पर श्रोताओं ने अपनी-अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की। अखिलेश्वर पांडेय ने कहा कि कहानी में नारीवाद और एडयूकेशन के कनेक्शन को दर्शाया गया है और शिक्षा में जो लूपहोल्स हैं उसे पाठको के समक्ष रखा गया है। इस कहानी में 'पंचहैं जो कहानी को गरिष्ठता प्रदान करती हैं। उन्होंने कहा कि असल में यह कहानी एडमिशन की समस्या पर है ही नहीं, यह तो स्त्री की अस्मिता पर केंद्रित है। उन्होंने कहा कि यह कहानी सही मायने में आज की कहानी है जिससे हम सब कनेक्ट होते हैं।
अभिषेक कुमार मिश्र ने अपना विचार रखा, जिसके अनुसार पुरुष प्रधान समाजबच्चे के लिए पिता का नाम आवश्यक होना आदि को आज बदलने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि यह कहानी एक महिला के एजुकेशन सिस्टम से जूझने की कहानी है
डॉ. मीनू रावत का विचार था कि बच्चे के जन्म के साथ स्त्री में ‘मदरहुड’ आ जाती है लेकिन एक पिता को ‘फादरहुड’ कल्टिवेट करना होता है। डॉ. मीनू रावत ने पूरी गोष्ठी की वीडियो रिकॉर्डिंग की।
आभा विश्वकर्मा को इस कहानी की प्रस्तुति बहुत ही सरल और सहज लगी । एक अकेली स्त्री ज़िंदगी से कैसे जूझ रही हैउसे दर्शाया गया है।  कहानी के अंत में उम्मीद नजर आती हैजब उसका बेटा पूछता है, ‘यहां अब एडमिशन तो हो जाएगा ना?’ कहानी की समीक्षा करते हुए आभा विश्वकर्मा ने कहा कि यह कहानी सिंगल पैरेंट की समस्या से जुड़ी है। स्कूल जिससे हम प्रगति की आशा करते हैं वह कट्टरपंथ से बंधा हुआ है। कहानी आज की नारी की अस्मिता को रेखांकित करती है। प्रदीप शर्मा ने भी अपने विचार रखे।
वैभव मणि त्रिपाठी के अनुसार एडमिशन की समस्या १०-१५ साल और समाज में रहेगी । इस समस्या के समाधान के लिए समाज को बदलना होगा। उन्होंने इस कहानी को शिक्षा व्यवस्था पर करारी चोट बताते हुए कहा कि इसके कई पंच जोरदार हैं।
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