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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

27 अक्तूबर, 2017

कमल जीत चौधरी की कविताएं

कमल जीत चौधरी: सदानीरा , समावर्तन , मंतव्य , युद्धरत आम आदमी , अभिव्यक्ति
, बया , हंस , नया ज्ञानोदय  , अनहद , रेतपथ , गाथान्तर , अक्षर पर्व ,
यात्रा , अभियान , दस्तक , सृजन सन्दर्भ , परस्पर , उत्तर प्रदेश पत्रिका, हिमाचल मित्र , शब्दयोग , लोक गंगा , शीराज़ा , अमर उजाला , दैनिक जागरण
, दैनिक भास्कर , जानकी पुल , अनुनाद , कृत्या , पहलीबार , सिताब दियारा
, आओ हाथ उठाएँ हम भी , आई० एन० वी० सी० , तत्सम , इन्दियारी , संवेद
स्पर्श , खुलते किवाड़ आदि पत्र - पत्रिकाओं और ब्लॉगों में कविताएँ ,आलेख व समीक्षाएँ प्रकशित हैं .

कमल जीत चौधरी

संकलित - ' तवी जहां से गुज़रती है - स० अशोक कुमार '  ,  ' स्वर एकादश -
स० राज्यबर्धन '  ,  ' शतदल - स० - विजेंद्र '  , ' बच्चों से अदब से बात
करो - स० अजय कुमार पाण्डेय ' में कविताएँ संकलित हैं .

कविता संग्रह -  २०१६ में ' अनुनाद सम्मान ' से सम्मानित ' हिन्दी का नमक
' शीर्षक से पहला कविता संग्रह ' दख़ल प्रकाशन दिल्ली ' से प्रकाशित होकर
चर्चा में है .

अन्य - कुछ कविताओं का मराठी और ओड़िया में अनुवाद , विभिन्न राष्ट्रीय
मंचों से कविता पाठ और आकाशवाणी से कविताओं का प्रसारण , लोकमंच जम्मू
कश्मीर के सदस्य हैं .

सम्प्रति :- उच्च शिक्षा विभाग ; जे० & के० में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं .




कविताएं



हिन्दी का नमक


खेत खेत
शहर शहर
तुम्हारे बेआवाज़ जहाज
आसमान से फेंक रहे हैं
शक्कर की बोरियां

इस देश के जिस्म पर
फैल रही हैं चींटियाँ
छलांग लगाने के लिए नदी भी नहीं बची -

मीठास के व्यापारी
यह दुनिया मीठी हो सकती है
पर मेरी जीभ तुम्हारा उपनिवेश नहीं हो सकती

यह हिंदी का नमक चाटती है .
  ००



पत्थर * - १



एक दिन हम
पक कर गिरेंगे
अपने अपने पेड़ से
अगर पत्थर से बच गए तो

एक दिन हम
बिना उछले किनारों से
बहेंगे पूरा
अपनी अपनी नदी से
अगर पत्थर से बच गए तो

एक दिन हम
दाल लगे कोर की तरह
काल की दाढ़ का स्वाद बनेंगे
अगर पत्थर से बच गए तो -

एक दिन हम
एपिटेथ पर लिखे जाएंगे
अपने अपने शब्दों से
अगर पत्थर पा गए तो .
  ००

चित्र: के रवीन्द्र


पत्थर * - २




न पक कर गिरी
न पूरा बही
तुझे ले जाने के लिए
काल ने भी कुछ दांत गँवाए
...
चली गई

मेरी दुनिया के तमाम पत्थरों ऊपर
तुम लाल लाल लिखी गई .
  ००



 लधाख - ४



नोनू *
मेरी एक लधाखी अचिले * की गोद में
पर्वतारोही सा संघर्ष करता
बहुत सुन्दर दीखता
दुग्धपान कर रहा है

एकाएक मुझे कौंधता है कि
मेरे खेतों का पानी
पहाड़ की ऊँची गोलाईयों की देन है -

अब मैं सांस से ज्यादा
बर्फ को प्रेम कर रहा हूँ ...
  ००

नोनू  - छोटा बच्चा
अचिले  - बहन




डिस्कित आंगमों




डिस्कित आंगमो !
तुम बताती हो
पिता की तन्दूरनुमा छोटी सी कब्र की विवशता
लकड़ी का कम होना

तुम बताती हो
ना जाने भाई ने क्या सोच
आरी का काम सीख लिया
...
मेरी दोस्त
तुम पढ़ना चाहती हो
मगर लकड़ी तुम्हारा साथ नहीं देती

देखो
मुझे छूओ
मैं लकड़ी हूँ
चलाओ आरी मुझ पर
मैं कागज़ बनूँगा
कलम बनूँगा
तुम्हारे घर का दरवाज़ा - खिड़की बनूँगा
मेरे बुरादे से तुम
पोष में अलाव सेंकना
अपनी गर्महाट से
मैं तुम्हारे हाथ चुमूंगा ...
डिस्कित आंगमों !
  ००

चित्र: अवधेश वाजपेई



चिट्ठियां




फोन पर लिखीं चिट्ठियां
फोन पर बांचीं चिट्ठियां
फोन पर पढ़ी चिट्ठियां

अलमारी खोलकर देखा एक दिन
बस कोरा और कोहरा था ...

डायल किया फिर
फिर सोची चिट्ठियां
मगर कुछ नंबर
और कुछ आदमी
बदल गए थे

कबूतर मर गए थे .
  ००




अंतिम ईंट



अपनी ऊँची बस्ती में
अपने से कम रन्दों * वाले
तुम्हारे घर को देख
मैं प्रतिदिन अपने घर की
एक ईंट निकाल देता हूँ

मैं तुम्हारा हाथ पकड़ना चाहता हूँ

यह सपना पूरा नहीं हो रहा
दरअसल ईश्वर रोज
तुम्हारे घर की एक ईंट
चुरा लेता है
हमारे फासलों का जश्न मना लेता है

कामना है
ईश्वर के पाप का घड़ा जल्दी भरे
मैं उससे यद्ध करना चाहता हूँ

ईश्वर जल्दी करो
प्रेम और युद्ध
मुझसे अंतिम ईंट दूर हैं .
  ००

रन्दा *  - रद्दा { दीवार में ईंटों की एक बार }



लार्ड मैकाले तेरा मुहं काला हो



बच्चे !
मैं उस दौर का बच्चा था
जो माँ से पूछते थे
पिता की छुट्टी कब खत्म होगी
बच्चे !
तुम उस दौर के बच्चे हो
जो माँ से पूछते हैं
पापा किस दिन घर आयेंगे

बच्चे !
मैं उस दौर का बच्चा था
जिसे पाँच साल की उम्र में
क से कबूतर सिखाया जाता था

बच्चे !
तुम उस दौर के बच्चे हो
जिसे बीस महीने की उम्र में
ए फॉर एलीगेटर सिखाया जा रहा है -

मेरे देश के बच्चों की माँएं
और सारी आयाएं
बच्चों के नाखुनों और मिट्टी के बीच
ब्लेड लेकर खड़ी हैं
बिल गेट्स का बाकी काम
लार्ड मैकाले की आत्मा कर देती है

बच्चे !
मुझ हिन्दी कवि से
दब चुके खिलोनों पर सनी पूर्वज उँगलियाँ
रुक चुके चाक से बह चुकी मिट्टी पूछ रही है
यह प्ले वे स्कूल क्या होता है
दरअसल मिट्टी ने कल
तुम्हारी माँ और मेरी बातों में
तुम्हारे स्कूल दाखिले की बातें सुनी हैं
...
बच्चे !
रो क्यों रहे हो
तुम आश्वस्त रहो
मैं दौर और दौड़ के फर्क को जानता हूँ
फिलहाल तुम
कछुआ और खरगोश की कहानी सुनो
और सो जाओ
सामूहिक सुबह तक जाने के लिए जो पुल बन रहा है
उसमें तुम्हारे हिस्से की ईंटें मैं और मेरे दोस्त लगा रहे हैं ...
  ००


चित्र: सुनीता



महामहिम राष्ट्रपति जी को प्रार्थना पत्र



महामहिम राष्ट्रपति जी !
प्रार्थना है
इस प्रार्थना पत्र को
भारत सरकार भी कविता की तरह पढ़े
...
राष्ट्रीय झण्डे के लिए
मुझे शहीद कहा जाता है
राष्ट्रीय गीत के लिए
मुझे देशभक्त कहा जाता है
राष्ट्रवाद के चरम प्रदेश में
राष्ट्रीय भाषा बोलने पर
हॉकी खिलाड़ी
मेरी भतीजी को
स्कूल में बार बार दण्ड दिया जाता है
बच्ची धीरे धीरे हिन्दी से दूर चली जाएगी
मैं हिन्दी में रहता हूँ
जैसे मेरा कोई भाई तामिल में रहता है
बच्ची से बहुत प्यार करता हूँ
जैसे कोई उड़िया अपनी बच्ची से करता है
हम भाषा में रहते हैं
अपने बच्चों से प्यार करते हैं
यही हमारा दर्द है
...
अंडर ग्राउंड टंकी में डूबने से
बच्चों के मरने की दुर्घटनाएं बढ़ती जा रही हैं
इससे पहले कि सभी बच्चे माता पिता से दूर चले जाएँ
महामहिम ! हस्तक्षेप करें
धन्यवाद !!
  ००



तीन आदमी


एक आदमी
शहर में है
उसमें गाँव है

एक आदमी
गाँव में है
उसमें शहर है
...
एक आदमी
दिल्ली में है
उसमें दिल्ली है .
  ००



अश्वमेधी घोड़ा



तुम्हे पेड़ से हवा नहीं
लकड़ी चाहिए
नदी से पानी नहीं
रेत चाहिए
धरती से अन्न नहीं
महँगा पत्थर चाहिए
...
पक्षी मछली और साँप को भूनकर
घोंसले सीपी और बाम्बी पर
तुम अत्याधुनिक घर बना रहे हो
पेड़ नदी और पत्थर से
तुमने युद्ध छेड़ दिया है
पाताल धरती और अम्बर से -

तुम्हारा यह अश्वमेधी घोड़ा पानी कहाँ पीएगा ...

००


जो करना है अभी करो



जो करना है
अभी करो
रस्सी पर चलती लड़की
नीचे गिर गई है
दुनिया डंडे के ऊपर घूमती
हैट की आँख हो गई है
दुनिया एक छोटा गाँव हो गई है
दुनिया को फोटोस्टेट मशीन में रखकर
बरॉक ओबामा ने
रिड्यूस वाला बटन दबा दिया है
दुनिया के शब्द छोटे हो रहे हैं
दुनिया एक मकान हो रही है
दुनिया एक दूकान हो रही है

दुनिया अमेरिका का शोचालय बन गई है
दुनिया रूमाल के कारखाने में बदल रही है
जो करना है
अभी करो

दुनिया बहुत तेजी से
छोटी होने की प्रक्रिया में है
दुनिया कटे पेड़ का कोटर बन जाएगी
दुनिया बहुत छोटी हो जाएगी
बहुत छोटी दुनिया में
प्यार करती लड़की के
ख़त पकड़े जाएंगे

जो करना है
अभी करो .
  ००




बिना दरवाज़े वाले घर से चाँद



वह मेरी अभिन्न
हँसकर विश्वासपूर्वक कहती है -
जानते हो
चाँद पर
घर आँगन और खेत
एक दूसरे में होते हैं
वहाँ सन्धों
सांकलों और चिटकनियों में फँस
हाथ ज़ख्मी होने से बच जाते हैं
दरअसल
वहाँ दरवाज़े नहीं होते
फिर चोर होने का सवाल ही कहाँ
वह ठठाकर कहती है -
'और यहाँ दरवाज़े वाले घर हैं कि
चौकीदार से भी डरते हैं '

चाँद पर
एक दूसरे के पाँव पहचानते लोग
छातों को
पालतू जानवरों की तरह
बगल में दबा कर चलते हैं
वहाँ आईने नहीं होते
लड़कियों को दीवार पर परछाई देख कर
सिंगार करने की कला आती है
लड़के माँ की आँखों से
खुद को देख लेते हैं
और माँ !
माँ का नाम सुन
वह उदास हो जाती है
फिर शून्य में ताकती कहती है
जाने क्यों
माँ वहाँ भी अपने आप को नहीं देखती
...
ऐसा आभास होता है
वह चाँद की शोधकर्ता है
अनेक कहानियाँ सुनाती
वह बताती है
चाँद पर पेड़
कुल्हाड़ियों से नहीं डरते
उनकी जड़ें
लोगों के सपनों में होती हैं

सपनों की चाबी किसी ईश्वर के हाथ नहीं होती

वहाँ नदियाँ
कंठ में खेलती हैं
पानी की ज़रूरत पड़ने पर
लोग गीत गाते हैं
घड़े लबालब भर जाते हैं

कितनी अच्छी बात है
चाँद पर
पतलून और कमीजों की जेबें नहीं होती
मुट्ठियाँ खुश रहती हैं
वह एक कविता सुनाती
बात जोड़ती है
राम नहीं
चाँद अपने अपने होने चाहिए
...
कितना अच्छा सोचती हो मेरी दोस्त !
मैं अच्छी तरह जानता हूँ
दरवाज़ों वाले घर में रहकर
चाँद के बारे में ऐसा नहीं सोचा जा सकता
बिना दरवाज़े वाले तुम्हारे घर को
मेरा कोटि कोटि प्रणाम .
  ००

चित्र: अवधेश वाजपेई


कविता की तीसरी आँख



पेड़ पर सुबह
सूरज की जगह
कर्ज़ में डूबी
दो बीघा ठण्डी ज़मीं टंगी थी
नीचे नमक बिखर रहा था ...

यह सामने दिख रहा था

पर तुम इसे चीरकर पार सूर्य को
उचक - उचक कर
नमामि - नमामि करते रहे
यह बताते हुए कि
कविता की तीसरी आँख होती है .
  ००



बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक



तुम कहते हो
जहां हिन्दू बहुसंख्यक थे
मुस्लिम लूटे
मस्जिद मकबरे टूटे
सलमा नूरां के भाग फूटे

मैं कहता हूँ
जहां मुस्लिम बहुसंख्यक थे
हिन्दू लूटे
मंदिर शिवाले टूटे
सीता गीता के भाग फूटे

यह सच है
अपने अपने दड़बों में
हम ताकत दिखा गए

पर खेत बाज़ार सड़क फैक्टरी

जहां हम दोनों बहुसंख्यक थे
अल्प से मात खा गए -

हम चुप हैं
या गलत बांगें लगा रहे हैं .
  ००





साहित्यिक दोस्त



मेरे दोस्त अपनी
उपस्थिति दर्ज करवाना चाहते हैं
वे गले में काठ की घंटियाँ बाँधते हैं
उन्हें आर पार देखने की आदत है
वे शीशे के घरों में रहते हैं

पत्थरों से डरते हैं
कांच की लड़कियों से प्रेम करते हैं

बम पर बैठकर
वे फूल पर कविताएँ लिखतें हैं

काव्य गोष्ठिओं में खूब हँसते हैं
शराबखानों में गम्भीर हो जाते हैं

यह भी उनकी कला है
अपनी मोम की जेबों में
वे आग रखते हैं .
  ००



कविता , लड़की और सेफ्टी पिन



वह लड़की
नमक को पहरे पर बैठाकर
बिना सांकल वाले गुसलखाने में नहाकर
जब बाल सुखाती है
तो उसके छोटे आँगन की
कच्ची दीवारें टखनों तक दब जाती हैं
गली उसे ताड़ने के लिए
उसके आँगन से ऊँची हो जाती है
वह गिलहरी बन
अपने जामुन के ऊँचे पेड़ पर चढ़ जाती है
उसे रात को सपना आता है
वह जामुन का पेड़ बन गई है
जोंकें उस पर चढ़कर
उसका जामुनीपन चूस रही हैं
सुबह स्वप्नफल पढ़कर
वह पूरे गाँव के बीच खारा समुद्र हो जाती है ...
एक जोड़ी आँखें तलाशती
जो उसे आँख से
आँख तक
आँख भर देख सके
वह कविता लिखती है
जिसके बिम्ब झाड़ियों में
फड़फड़ाते पक्षियों को बाहर निकालते हैं
जिसके प्रतीक
मोटी गर्दन की टाई को पकड़ लेते हैं
जिसके भाव
आग और ताव को
अपने प्रेमी के सुर्ख होठों में
दबा कर रख लेते हैं

जिसकी भाषा सफेद कोट पर स्याही छींटती
तालियाँ बजाती है
जिसकी संवेदना
युग के टूटते बटनों और
फ्री होती जिप के बीच मुझे
सेफ्टी पिन के समान लगी -
अफस्पा के शहर में
शिद्धत से चूम कर
आजकल मैंने इसी सेफ्टी पिन को
अपने दिल के साथ लगाया है
लोग मुझे पूछ रहे हैं
अजी क्या हो गया !!!!
'ग़ालिब' कोई बतलाए कि हम बतलाए क्या .
  ००



एम. एफ. हुसैन के लिए



मेरे ईश्वर के पाँव में
चप्पल नहीं है
सिर पर मुकुट नहीं है
वह सिर से लेकर पाँव तक
शहर से लेकर गाँव तक नंगा है
पल प्रतिपल खुंखार जानवर द्वारा बलात्कृत है
...
सोने की खिड़कियों के परदे
उसे ढकने का बहुत प्रयास करते हैं
पर शराबी कविताएँ
उफनती सरिताएँ
किलों को ढहाती
खून से लथपथ मेरे ईश्वर को
सामने ला देती है

उसे देखकर कोई झंडा नीचा नहीं होता

मेरे ईश्वर को नंगा बलात्कृत
बनाने वाले
मेरे देश के ईश्वर को
कोई कठघरा नहीं घेरता ...
उधर जब पाँच सितारा होटल में
सभ्य पोशाक वाली दूसरे की पत्नी
तथाकथित ईश्वर की बाहों में गाती है
इधर सड़क पर नग्नता
रेप ऑफ गॉड से लेकर सल्ट वाक तक
गौण मौलिकता दर्शाती है -
नग्न होने पर
सच निगला नहीं जा सकता
...
वह तो और भी पैना हो जाता है .
  ००

चित्र: अवधेश वाजपेई


 दांत और ब्लेड


दांत सिर्फ शेर और भेड़िए के ही नहीं होते
चूहे और गिलहरी के भी होते हैं
ब्लेड सिर्फ तुम्हारे पास ही नहीं हैं
मिस्त्री और नाई के पास भी हैं
...
तुम्हारे रक्तसने दांतों को देख
मैंने नमक खाना छोड़ दिया है
मैं दांतों का मुकाबला दांतों से करूँगा
तुम्हारे हाथों में ब्लेड देख
मेरे खून का लोहा खुरदरापन छोड़ चुका
मैं धार का मुकाबला धार से करूँगा
...
बोलो तो सही
तुम्हारी दहाड़ ममिया जाएगी
मैं दांत के साथ दांत बनकर
तुम्हारे मुंह में निकल चुका हूँ
डालो तो सही
अपनी जेब में हाथ
मैं अन्दर बैठा ब्लेड बन चुका हूँ .
  ००


आम क्यों चुप रहे


चिनार
बोलते रहे
कटने पर
टूटने पर
उनके रुदन के स्वर
दस जनपथ को रुलाते रहे
यू० एन ० ओ ० को हिलाते रहे ...
आम
बौराते रहे
लोग खाते रहे
बने ठूंठ तो चीरकर
आहुतियों में जलाते रहे
बन धुआं
आंसू बहाते रहे ...

बन बारिश
धरती हरियाते रहे -

चिनार बोलते रहे
आम क्यों चुप रहे .
  ००

सम्पर्क :-
कमल जीत चौधरी
काली बड़ी , साम्बा , { जे०&के० }
मोबाइल - 9419274403
००
संपर्क: कमल जीत चौधरी :-
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