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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

11 अक्तूबर, 2017


विनीता परमार की कविताएं

विनीता परमार: शिक्षिका है। कविताएं लेखन में नया नाम है। अभी एक-दो
जगह ही उनकी कविताएं और लेख आई है। हम यहां उनकी कुछ कविताएं साझा कर रहे हैं।



तिनका – तिनका हरियाली
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शोध के रूप मे, कुछ बीज डाले
प्रयोग किये, अपने ही बीजों पे
डाला कुछ में शाकनाशी और कुछ में पानी
दो खरपात उगे, खूब फले फूले,

अनुसंधान में
रोम - रोम मे जहर डाला
पत्ते फूल सब गिरने लगे
तुम तिनके – तिनके में हरियाली समझते रहे

मेरी नसों का हरा- हरा कतरा बिखरता रहा
मेरी शाख सूखने लगी
आँसूओं की बारिश ने
विष को धो डाला
नई पत्तियाँ निकलने लगी,
मैं सिर्फ खरपात नहीं
औषध गुण मेरे भर देते
जख्मों के घाव ,
मानस के हृदय मे करते रागों का संचार

तुम कब समझोगे मेरे रसों का भाव
बस, अब ना समझो शोध का प्रश्न
कर लो मुझे आत्मसात
मिट्टी के साथ नई ऊर्वरा शक्ति
कर देगी सब हरा भरा
०००

चित्र: अवधेश वाजपेई


बिजूका
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खेत मे खड़े बिजूके को देख
मैं चिहुंक उठी
अरे, यह मानव का रूप ,
इस विराने में तुम्हे कोई ऊब नहीं ,
भूख नहीं प्यास नहीं,
 अकेलेपन का कोई अहसास नहीं ,

कैसी ऊब ?
मैं तो मजे लेता हूं इन
खगचरों और पगचरों को डराने का,

मुझे मिलती है तृप्ति
दूसरों के दमन मे,
मेरा अहं मुझे बार-बार संतुष्ट करता है ,

काला मुख निर्बल बाँह,
दम्भ से भरा झूठा शरीर

भ्रम मे बैठा कि मेरा आतंक
मुझे जीने को प्रेरित करता है ,
अब, मैं अपने प्रतिरूप को
देखकर झेंप गई
कहीं ये मेरी अवचेतन
भावनायें तो नहीं ।
००

आज का गुरुत्व
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न्यूटन बैठा सेब के बगीचे में
अब गिरेगा सेब
और वह देगा अपना सिद्धान्त ,

धरती प्रत्येक वस्तु को
अपनी ओर खींचती है
इंतज़ार खत्म होने का
नाम ही नहीं ले रहा
सेब नहीं गिरा,

न्यूटन सोचता रहा
आज कोई जमीन की तरफ़ आता ही नहीं
सब तो ऊपर- ऊपर ही उड़ रहे,

मेरे सभी गणित बिगड़ गये
मेरे गति के नियमों में सिर्फ़
क्रिया के समान विपरीत प्रतिक्रिया
सबसे हावी हो गई ।

अब न्यूटन मौन है ,
सोच रहा विज्ञान बदल रहा है या इंसान ।
०००

गिरना सिर्फ अच्छा होता

चाहती थी
हरसिन्गार के फूलों सा गिरना
उसपे ओंस की बूंदों सा चमकना
बनके प्रेम सदानीरा हो जाना

कभी आम, जामुन बनकर गिरना
और उसे गिलहरी का कुतरना
कुतरे आम, जामुन का मिठास बढा देना
तो कभी बारिश सा गिरना ,
उस रेगिस्तान में
जहा एक अंकुरण की चाह है ।

गिरती तो नदी भी है
चट्टानों को तोड़ती हुई
गिरता तो बर्फ भी है
स्वर्ग बनाते हुए

जब हम गिरते हैं
मन रोता है ,आत्मा रोती है
रोम-रोम कांप उठता है

लेकिन फ़िर भी मैं सोचती हूँ
कितना अच्छा होता जब
गिरना सिर्फ अच्छा ही होता !
०००
चित्र: विनीता कामले


नाभिक
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लहरें उठती हैं
गिरती हैं
छूती हैं किनारे को
लहरों की
अनवरत तपस्या
और केंद्र की चुप्पी ।
हताश ,पागल,बहका मन
भाग रहा किनारे - किनारे
नाभिक  से अलग - थलग हो
ढूढता फिरता पतवार को ।
इलेक्ट्रान' भी कहता है
प्रतिक्रिया तो बाहर का खेल है
नाभिक तो सिर्फ तमाशा देखता है ।
क्योंकि केन्द्रक
जब टूटता है ,
तब विध्वंस होता

 मेरी तरंगें
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दुआ है ईश्वर से
 मेरी भावनाओं
 की तरंगे सदा ही
 प्रेम अभिनीत करती रहे

 मेरे शब्दों को भी अदा आ जाये
 वे भी झूमने नाचने लगें
 मेरे अहसास तुम्हारी आदत बन जाये
                                                                    ऐसे बस जाये कि "तुम"
तुम न बनकर
मैं बन जाओ
उस मैं के साथ खोना चाहती हूँ
 अपनी  तरंगों को समेट
पूर्ण होना चाहती हूँ ।

 निर्वात
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जहां तुम थे
वहां अब एक
भग्नावशेष है ,
जो निर्वात की
नींव पर ठहरी थी ।
जहां बना मकान
बिन भूकंप ,बिन बाढ
कब ढह गया पता ही ना चला ,
फिर भी उस निर्वात के
अवशेषो पर आज भी
गुरुत्व बल को महसूसती हूँ  ।


पथिक
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एक जन्म में कितनी यात्रायें
कितने पड़ाव
कितने शहर
कितने गांव
इस यायावरी में गुजरना
एक शहर से दूसरे शहर ।

तमाम कोशिशों के बीच
शहर के नाम से भी
रुक जाती हैं सांसें
एक क्षण के लिये
भूलते भटकते रास्तों में
शहर फिर से छप जाता है मन में ।


खोईचा
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विदा तो करते हो
फिर थोडा-सा अंश
रख ही लेते हो अपने कलेजे के टुकड़े का
लक्ष्मी है तू  मेरे घर की
हो जायेगी अब तू दूसरे घर का सौभाग्य
फिर भी थोड़ा-सा डरा
थोडा सा सशंकित हूं
जब तू जाती है
तेरा भाई पांव झाड़ के रख लेता है
तेरे भाग्य के बहाने
तुम्हारा कुछ हिस्सा भी यहीं रह जाता है

जानती है तू जब - जब आती है
तेरी मां और भाभी तेरे
खोईचे के पांच दाने रख
लेती हैं  कि तू आये यहाँ बार -बार
और सुन पहली बार
जब विदा हुई थी तेरी मां ने रख लिया था खोईचे का एक भाग

हाँ पापा ,अगर खोईचे के साथ रह जाता
सम्मान, स्वाभिमान ,सौभाग्य
तो रख देती सब यहीं पर ।


 अनुपस्थिति
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मेरे न होने पर
लाल स्याही से
लगाया अनुपस्थित

फिर, कोशिश करते होगे
अतीत को मिटाने की
पता है, जमीनदोज़
अतीतों की खुदाई में
भी मिल जाती है
कभी एक चूडी, एक चावल
या चित्रलिपि ।

०००

संपर्क:

डॉ विनीता परमार
शिक्षिका केंद्रीय विद्यालय रामगढ़ कैंट
ई मेल -- parmar_vineeta@yahoo.co.in

8 टिप्‍पणियां:

  1. Meaning ful poem..... बहुत सुन्दर

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  2. Bahut hi sunder abhivyakti Vineeta, too good...tumhari kavitaayein hamesha dil ko chhoo jaati hain, keep writing

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  3. Beautiful compositions. Never thought Bijuka can convey such powerful message

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  4. Very nice lines, meaningful and touching, keep it up

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  5. भावपूर्ण कविताएँ....एक से बढ़ कर एक👌👌👏👏

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  6. गायत्री04 नवंबर, 2017 22:24

    इन कविताओं के साथ हमने भी एक खूबसूरत सफर तय किया।इन सुंदर रास्तों के लिए विनीता तुम्हे बहुत बहुत धन्यवाद।आगे भी मंजिलों से सुंदर ऐसे पड़ाव हमे देती रहना।

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  7. Some lines are.... Imprinted for a life time..... You are truly blessed dear...
    I loved your compositions.....god bless you!!!

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